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________________ २७० त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण इस नियमका (देखिए ३.४.१७) प्रस्तुत नियम अपवाद है। उदा.हे रामहो, हे रामाहो, हे रामाः ॥ १८ ॥ तरुणहो तरुणिहो मुणिउँ म कर हु न अप्पहाँ घाउ ॥११७ ॥ (=हे. ३४६.१) (हे तरुणा: हे तरुण्यः ज्ञातं मया मा कुरुतात्मनो घातम ।) - ह तरुणो और हे तरुणियो, मैंने जाना, अपना घात मत करो। हिं भिस्सुपोः ।। ९ ।। - अपभ्रंशमें भिस् और सुषु इन (प्रत्ययों)को हिं ऐसा आदेश होता है। उदा.-(भिस् को हिं आदेश)-गुणहि न संपइ [४५] इत्यादि।।१९।। सुप् (को हिं आदेश)-- भाईरह जिम भारइ मग तिहिँ वि पअदृइ ।।११८।। (हे.३४७.१) (भागीरथी यथा भारते मार्गेषु त्रिष्वपि प्रवर्तते।) . जिस प्रकार गंगा भारतमें तीन मार्गोंसे जाती है। . स्त्रियां डेहि ॥२०॥ ___ अपभ्रशमें स्त्रीलिंगमें रहनेवाली संज्ञाके आगे (आनेवाले) ङि-वचनका हि होता है ॥ २० ॥ वायसु उड्डावंतिअऍ पिउ दिट्ठउ सहस त्ति । अद्धा वलया महि हि गअ अद्धा फुट तडत्ति ।। ११९ ।। (=हे. ३५२.१) (वायसमुडापयन्त्याः प्रियो दृष्टः सहसेति। अर्धानि वलयानि मह्यां गतानि अर्धानि स्फुटितानि तडिति ॥) कौएको उडाती हुई (विरहिणी) स्त्रीने सहसा (अचानक' प्रियकरको देखा। (उसकी) आधी चूड़ियाँ जमीनपर गिर गई और (अवशिष्ट) आधी (चूडियाँ) तडतड करके टूट गई । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001735
Book TitlePrakritshabdanushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrivikram
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1973
Total Pages360
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size19 MB
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