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त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण यानी : पुल्लिंगमें और नपुंसकलिंगमें (इकारान्त और उकारान्त शब्द) होनेपर, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण ऐसे स्रीलिंगशब्दोंमें यह आदेश नहीं होता)। उदा.-बुद्धीर । धेणूए । ङसि और उस (प्रत्ययों) को, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण अन्य विभक्तिप्रत्ययोंको ऐसा आदेश नहीं होता।) उदा.-रिद्धी ।समिद्धी । दिढें । इ और उ इनके आगे ही ऐसा आदेश होता है (अन्य स्वरों के आगे नहीं)। उदा.-कमले। कमलस्स ।। २७ ।। टोणा ।। २८ ।।
पुल्लिंग और नपुंसकलिंग (शब्दों)में (अन्त्य) होनेवाले इ और उ इनके आगे टा-(तृतीया एकवचनका णा होता है। उदा.-गिरिणा । दहिणा। गामणिणा। तरुणा। महुणा । खलपुणा । नृनपि यानी : पुल्लिंग
और नपुंसकलिंग (शब्दों) मेंही ऐसा होता है (अन्यथा नहीं)। उदा.बुद्धीए। घेणए । इ और उ इनके आगेही ऐसा होता है (अन्य स्वरोंके आगे नहीं)। उदा.-कमलेण ।। २८ ॥ इलुगनपि सोः ।। २९ ।।
(शब्दोंके अन्त्य) इ और उ इनके आगे आनेवाले सु (प्रत्यय) का शानुबंध लोप होता है। अनपि यानी (इकारान्त और उकारान्त) नपुंसकलिंग (शब्दों) में (ऐसा लोप) नहीं होता। उदा.-गिरी। बुद्धी। तरू । धे। नपुंसकलिंग-(शब्द) में (लोप) नहीं होता, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण वहाँके रूप ऐसे)-दहिं। महुं ॥ २९ ॥ मङ्लुगसंबुद्धेर्नपः ॥ ३० ।।
. (अब) इदुतः पदकी निवृत्ति हुई। नप: यानी नपुंसकलिंग (शब्द) के आगे आनेवाले सु (प्रत्यय) का मकार और डानुबंध लोप होते हैं; आमंत्रण (संबोधन) इस अर्थमें (होनेवाले सु का ऐसा) नहीं होता। उदा.वणं । दहिं । महुँ । पर दहि, महु ये रूप मात्र सिद्धावस्थाकी अपेक्षासे हैं। बहुलका अधिकार होनेसे, अकारान्त शब्दके आगे लोप नहीं होता॥३०॥
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