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________________ २५० त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण महु कंतहाँ गुट्ठडिअों कउ झुपडा वलन्ति । अह रिउरुहिरें उल्लवइ अह अप्पणे न भंति ।।६७।। (हे.४१६.१) (मम कान्तस्य गोष्ठस्थितस्य कुतः कुटीरकानि ज्वल न्ति । अथ रिपुरुधिरेणाईयति अथात्मीयेन न भ्रान्तिः ।।) मेरा प्रियकर घरमें स्थित होनेपर, झोपडे कहाँसे (कैसे) जल रहे हैं (जलेंगे)? शत्रुके या अपने रक्तसे (वह) ठंडा करेगा, इसमें शक नहीं है। धूप कहंतिहु उढिअउ [७०] । अथवा मनागहवइ मणाउं ।। ४७ ।। ____ अथवा और मनाक ये (अव्यय) अहवइ (और) मणाउं ऐसे हो जाते हैं। उदा--अहवइ ण सुहं ताहु, अथवा न सुखं तस्य। किंपि मणाउं महु पिअहाँ [६९], किमपि मनाङ् मम प्रियस्य ।। ४७ ।। जाइज्जइ तहिं देसडइ लभइ पिअहाँ पमाणु । जइ आवइ तो आणिअइ अहवइ तं जि निवाणु ।। ६८।। (=हे. ४१९.२) (गम्यते तत्र देशे लभ्यते प्रियस्य प्रमाणम् । यद्यागच्छति तदानीयते अथवा तदेव निर्वाणम् ।।) उस देशमें चला जाय जहाँ प्रियकरका पत्ता (प्रयाण) मिले । यदि वह आता है तो लाया जाय। (अन्यथा वहींपर) मरा जाय । विहवि पणट्ठइ वंकडउ रिद्धिऍ जणसामण्णु । किपि मणाउं महु पिअहाँ ससि अणुहरइ न अण्णु ॥६९।।(-हे.४१८.६) (विभवे प्रनष्टे वक्रः ऋद्धौ जनसामान्यः । किमपि मनाङ् मम प्रियस्य शशी अनुहरति नान्यः।।) वैभव नष्ट होनेपर बॉका, वैभवमें जनसामान्य (हमेशाकी तरह) होनेवाला चंद्रही, और न दूसरा कोई, मेरे प्रियकरका कुछ अनुकरण करता है। इतसेत्तहे ।। ४८॥ . इतस् ऐसा अव्यय एत्तहे ऐसा हो जाता है। उदा.-एत्तहे मेह पिअन्ति जलु [५६] ॥ १८ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001735
Book TitlePrakritshabdanushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrivikram
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1973
Total Pages360
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size19 MB
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