SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 128
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हिन्दी अनुवाद- अ. २, पा. १ मानया त्वया वेल्वे इति भणितं न विस्मरामः। भयमें-वेव्वे पलाइदं तेण । निवारणमें-उल्लाविरीइ वि तुमं वेल्वे ति मयच्छि कि णेअं। यहाँ उल्ला विरीइ का संबंध स्वप्नमें घटी हुई घटनाके साथ है ॥ ५६ ।। आमन्त्रणे वेव्वे च ।। ५७ ॥ ___और वेल्वे ऐसा (अव्यय) आमंत्रणमेंभी प्रयुक्त करें। उदा.-वेव्वे गोले । वेव्वे मुरन्दले वहसि पाणि ॥ ५७ ॥ वा सख्या मामि हला हले ॥ ५८ ॥ (इस सूत्रमें २.१.५७ से) आमंत्रणे पद (अध्याहृत) है। सखीको आमंत्रण इस अर्थमें, मामि, हला और हले ऐसे (शब्द) विकल्पसे प्रयुक्त करें। उदा.-मामि सरिसक्खराण वि। पणवह माणस्स हला। हला सउन्दले । हले हआसे। विकल्पपक्षमें-सहि, एरिस चिअ गई॥५८।। दे संमुखीकरणे च ॥ ५९ ॥ संमुखीकरण और सखीको आमंत्रण इनमें दे ऐसा (शब्द) प्रयुक्त करें। उदा.-दे पसिअ णिअत्तसु सुंदरि, यावत् प्रसीद निवर्तस्व सुन्दरि । दे सहि ॥ ५९॥ ओ पश्चात्तापसूचने ॥६०॥ पश्चात्तापमें और सूचनामें ओ ऐसा (अव्यय) प्रयुक्त करें। उदा.पश्चात्तापमें- ओ पच्चाअन्तिआए। सूचनामें-ओ अविणयत्तिल्लो। परिकल्प अर्थमें, उत का जो आदेश ओकार, उससे ही यह कार्य सिद्ध होता है। उदा.-ओ विरएमि णहअले ॥ ६० ॥ अण णाई नअर्थे ।। ६१ ॥ नकारके अर्थमें (नगर्थे) अण, णाई ये (शब्द) प्रयुक्त करें। उदा.अणचिंति मुणन्ति, अचिन्तितं जानन्ति । णाई करेमि रोसं, न करोमि रोषम् ॥ ६१ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001735
Book TitlePrakritshabdanushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrivikram
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1973
Total Pages360
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy