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हिन्दी अनुवाद-अ., पा. १ शिति दीर्घः ॥१५॥
(शित अर्थात् जिसमें श् अनुबंध (=इत्) है, वह ।) शानुबंधका कार्य होते समय, (जिसके बारेमें शित् है, उसके पीछे रहनेवाला) पूर्व स्वर दीर्घ होता है। उदा.-'शि श्लुङ् नपुनरि तु' (१.१.२८) यह सूत्र । इस स्थानपर, 'नपुनः' शब्दमें, अन्त्य व्यंजनके बारेमें जब शानुबंध ऐसे इकार और लोप होते हैं, तब (उसके) पूर्व स्वर दीर्घ होता है। उदा.-णउणाइ, णउणा ॥१५॥ सानुनासिकोच्चारं ङित् ॥१६॥
(जहाँ) ङकार-अनुबंध ऐसा कार्य होता है, (वहाँ) सानुनासिक उच्चार होता है। उदा.-'कामुकयमुनाचामुण्डातिमुक्तके मो ङ्लुङ्' (१.३.११) इस सूत्रमें – काउँओ । जउँणा । यहाँ मकारका ङानुबंध लोप जब होता है, तब शेष स्वरका उच्चारण सानुनासिक होता है ॥ १६ ॥ बहुलम् ॥ १७ ॥
(यह अधिकारसूत्र है।) इस शास्त्रके परिसमाप्तितक इस सूत्रका अधिकार है। (इसका अर्थ यह है)-प्राकृतमें जो लक्षण कहा जाता है, वह बहुलत्वसे (यानी प्रायः, सामान्यतया) होता है, ऐसा समझना है। और इसलिए कचित् नियमोंकी योग्य प्रकारसे कार्यप्रवृत्ति, कचित् उसका अभाव (अप्रवृत्ति), कचित् विकल्प, कचित् कुछ औरही हो जाता है। और वह (हम) योग्य स्थानपर दिखायेंगे ।। १७ ।। दिही मिथः से ॥१८॥
(सूत्रमेंसे) से अर्थात् स में यानी समासमें, (पहले पद के अन्त्य स्वरका) मिथः यानी परस्पर में हस्व और दीर्ध बहुलत्वसे होता है। उसमें -हस्व का दीर्घ होना-अन्तर्वेदिः अन्तावेई । सप्तविंशतिः सत्तावीसा। कचित् विकल्प होता है। वारिमती वारीमई वारिमई । पतिगृहम् पईहरं पइहरं । युवतिजनः जुवईजणो जुवइजणो। वेणुवनम् वेणूवणं वेणुवर्ण। दीर्घका
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