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________________ प्रस्तावना उपसंहारके पहले श्लोकमें अपने प्राकृत-व्याकरणके बारेमें त्रिविक्रम कहता है:अपने प्रयोजनकी सिद्धिके लिए (अर्थसिद्धथै ) मंत्रके समान इस त्रिविक्रमरचित प्राकृत व्याकरणका जप किया जाय ।। उपसंहारके दूसरे तथा तीसरे श्लोकोंमें अपने काव्यके बारेमें त्रिविक्रम कहता है:त्रिविक्रमके काव्यको पढकर रसिकों तथा नैयायिकोंको आनंद मिलता है कारण पदोंका माधुर्य अंदर प्रवेश करके कानोंको पुष्ट करता है, प्रत्येक शब्दका नया अर्थ उचित शब्दके प्रयोग करनेवाले मनुष्यको तुष्ट करता है, और मानो ( इस काव्य- ) कृतिकी श्रेष्ठतासे, रस संपूर्ण भुवनको व्याप्त करता है। अपनी कल्पना व्यक्त कर सकनेवाले भलेही सभी हों, पर अपनी तथा दूसरोंकी कल्पना उचित शब्दोंमें व्यक्त करनेवाला त्रिविक्रम एकही ( = एकमेव, अद्वितीय) है। इससे यह दिखाई देता है कि त्रिविक्रमने एक या अनेक काव्योंकी रचना की थी; पर ये काव्यरचनाएँ अभी तो उपलब्ध नहीं हैं, इसलिए उपर्युक्त त्रिविक्रमके कथनकी सत्यताकी जाँचपडताल नहीं की जा सकती। त्रिविक्रमका प्राकृतविषयक मत प्राकृत ( = माहाराष्ट्री प्राकृत, मुख्य प्राकृत ) और आर्ष ( श्वेतांबरपंथी जैनियोंके आगोंकी) अर्धमागधी, इन दोनोंमें थोडासा भेद हेमचंद्र दिखाता है। तो त्रिविक्रम प्रास्ताविकके सातवें श्लोकमें आर्षका उल्लेख करके कहता है कि आर्ष तथा देश्य ये दोनों भाषाके रूढ रूप हैं और ये दोनों बिलकुल स्वतंत्र है और इस कारण उन्हें व्याकरणकी आवश्यकता नहीं, उनके बारेमें जानकारी केवल परंपराद्वाराही प्राप्त की जा सकती है । इसके विपरीत, उन प्राकृत भाषाओंकोही व्याकरणके नियम लागू पडते हैं जिनमेंसे शब्दोंकी जडसे खोज सिद्ध और साध्यमान संस्कृततक की जा सकती है। और ऐसे शब्दोंकीही चर्चा त्रिविक्रमके प्राकृत व्याकरणमें है । हिंदी अनुवादकी पद्धति त्रिविक्रमरचित प्राकृत व्याकरणका मूलग्रंथ डॉ. प. ल. वैद्यजीने संपादित किया है। उसका हिंदी अनुवाद करनेका कार्य डॉ. आ. ने. उपाध्येजीकी सूचनानुसार मैंने स्वीकृत किया । वह कार्य संपूर्ण होकर आज प्रकाशमें आ रहा है, यह तो बडे आनंदकी बात है। इस अनुवादको पढते समय निम्नलिखित मुद्दे यादमें रखे जायें:-(१) मूलग्रंथकी छापेकी गलतियोंको तत्रतत्र सुधारकर ग्रंथके मूल रूपको लेकर, यह अनुवाद किया गया है। (२) अनुवादमें मूल सूत्रोंका स्वतंत्र रूपसे भाषांतर नहीं दिया गया है क्योंकि मूलसूत्रोंका अर्थ वृत्तिमें आताही है। इसलिए केवल वृत्तिका अनुवादही दिया है। कहींकहीं ऐसा हुआ है कि मूल सूत्र में आये हुए शब्दोंकी सूचियाँ वृत्ति में नहीं आयी हैं। उन्हें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001735
Book TitlePrakritshabdanushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrivikram
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1973
Total Pages360
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size19 MB
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