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________________ त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण प्रंगणि चिट्ठदि नाहु धुं त्रु रणि करदि न मंति ॥१२९॥=हे.३६०.१) (प्रांगणे तिष्ठति नाथो यत्तद् रणे करोति न भान्तिः ।) क्योंकि (मेरा) नाथ आँगनमें खडा है, अतः वह रणक्षेत्रपर भ्रमण नहीं करता है। विकल्पपक्षमें-तं बोल्लिअइ जु निःबहइ । (हे. ३६०) . (तत् जल्प्यते यन्निवहति ।). वही कह जाता है जो निभता है । इदम इमु नपुंसके ॥ ३२॥ अपभ्रंशमें नपुंसकलिंगमें रहनेवाले इदम् शब्दको, सु और अम् (प्रत्यय) थागे होनेपर, इमु ऐसा आदेश होता है । इमु कुलु तुह तणउं । इमु कुल देवख । इदं कुलं तव संबंधि । इदं कुलं पश्य ॥ ३२ ॥ एतदेहएहोएहु स्त्रीनृनपि ॥ ३३ ॥ ___ अपभ्रंश में स्त्रीनृनपि यानी स्त्रीलिंग, पुल्लिंग और नपुंसकलिंग, इनमें रहनेवाला एतद् शब्द, सु और अम् (प्रत्यय) आगे होनेपर, यथाक्रम एह, एहो, एहु ऐसा हो जाता है ॥ ३३ ॥ एह कुमारी एहो वरु एहु मणोरे हठाणु। इअ वढहं चिंतताहं पच्छइ होइ विहाणु ॥ १३० ॥ (व्हे. ३६२.१) (एषा कुमारी एष वरः एतन्मनोरथस्थानम्। इति मूढानां चिन्तयतां पश्चाद् भवति विभातम् ॥) यह कुमारी, यह (मैं) वर (पुरुष), यह मनोरथोंका स्थान; यही सोचते सोचते मूखोंके (बारेमें) सबेरा हो जाता है । जश्शसोरेइ ॥ ३४ ॥ ____ अपभ्रंशमें एतद् के आगे जस् और शस् होनेपर, उसका एइ ऐसा हो जाता है। उदा.-एइ ति घोडा [...] । एइ पेच्छ, एतान पश्य ॥३४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001735
Book TitlePrakritshabdanushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrivikram
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1973
Total Pages360
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size19 MB
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