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________________ २५४ त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण रे मर्ख, न सरिताओंसे, न सरोंसे, न सरोवरोंसे, न उद्यानोंसे और न बनोंसे देश रमणीय होते हैं, (किन्तु) सुजनोंके निवाससे (देश रम्य होते हैं)। यचद् दृष्टं तत्तद् इसको जाइ डिआ (आदेश)-~ अह रच्चसि जाइटिअऍ हिअडा मुद्धसहाव । लोहें फुट्टणएण जिम घणा सहेसहि ताव ||७७।। (हे.४२२.१७) (अथ रज्यसे यद्यद् दृष्टं तत्र हृदय मुग्धस्वभाव । लोहेन स्फुटता यथा धना सहिष्यसे तावत् ।।) हे पगले हृदय, जिसे जिसे देखते हो उस उसपर अनुरक्त हो जाते तो फूटनेवाले लोहेको जैसे घनके प्रहार वैसा ताप तुम्हें सहन करना पडेगा। पृथक् पृथक् इसको जुअंजुअ (आदेश)एक कुडुल्ली पंचहि रुद्धी तहँ पंचहँ वि जुअंजुअ बुद्धी । वहिणिए तं घरु कह किव नंदउ जेत्थु कुटुंबउँ अप्पणछंदउ ।।७८|| (हे.४२२.१२) (एका कुटी पञ्चभी रुद्धा तेषां पञ्चानामपि पृथक् पृथक् बुद्धिः । भगिनि तद् गृहं कथय कथं नन्दतां यत्र कुटुम्बकं आत्मच्छन्दकम् ।।) __एक (शरीररूपी) कुटी (झोपडा) है। उसपर पाँचोंका अधिकार है (रुद्ध)। पांचोंकी बुद्धि पृथक् पृथक् है। हे बहिन, बता कैसे वह घर -सानंद रहेगा जहाँ कुटुंब अपनी इच्छासे चलता है। भय को द्रवक्क (आदेश)दिवहिँ विढत्तउँ खाहि वढ संचि म एक्कु वि द्रम्मु । को वि द्रवक्कउ सो पडइ जेण समप्पइ जम्मु ॥७९॥ ( हेम. ४२२.४) (दिवसैरार्जितं खाद मढ संचिनु मा एकमपि द्रम्मम् । किमपि भयं तत्पतति येन समाप्यते जन्म ।।). Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001735
Book TitlePrakritshabdanushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrivikram
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1973
Total Pages360
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size19 MB
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