SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 271
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५८ त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण यदि को छुडु (आदेश)विहि विणडउ पीडन्तु गह मं धणि कर हि विसाउ। संपइ कडढउँ वेस जिम छुडु अग्घइ ववसाउ ।। ८९।। (हे.३८५.१) (विधिविनटतु पीडयन्तु ग्रहाः मा धन्ये कुरु विषादम् । संपदं कर्षामि वेश्येव यदि अर्घति व्यवसायम् ||) देव विमुख होने दो। ग्रह पीडा दें। हे सुंदरी, विषाद मत कर । यदि व्यवसाय मिलेगा तो पत्तिको वेश्याके समान खींच लाऊँगा। संबंधिन् को केर और तण (आदेश)गअउ सु केसरि पिअहु जलु निञ्चितइ हरिणाई। असु केरएँ हुंकारडएं मुहहु पडन्ति तिणाई ।। ९० ॥ (हे. ४२२.१५) (गतः स केसरी पिबत जलं निश्चिन्ता हरिणाः।। यस्य संबंधिना हुंकारेण मुखात् पतन्ति तृणानि ॥) हे हरिणो, वह सिंह चला गया जिसकी हुंकारसे मुखोंसे तृण गिर पडते हैं। (अब) निश्चितरूपसे जल पिओ। __ जइ भग्गा अम्हहं तणा [७] ॥ दृष्टिको देहि (आदेश)एक्कमेक्कउँ जइ वि पेक्खइ हरि सुठ्ठ सव्वायण । तो वि देहि जहिँ कहिँ वि राही। को सक्कइ संवरेवि दड्ढनअणा नेहें पलुट्टा ॥ ९१ ॥ (=हे. ४२२.५) (एकमेकं यद्यपि प्रेक्षते हरिः सुष्ठु सर्वादरेण । तथापि दृष्टिर्यत्र कुत्रापि राधा। कः शक्नोति संवरीतुं दग्धनयने स्नेहेन पर्यस्ते ॥) यद्यपि अच्छी तरहसे सर्वादरपूर्वक हरि एकेक (गोपी) को देखता है, तथापि उसकी दृष्टि वहाँ है जहाँ कहाँ राधा है। स्नेहसे भरे हुए नयनोंको रोकनेके लिए कौन समर्थ है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001735
Book TitlePrakritshabdanushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrivikram
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1973
Total Pages360
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy