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________________ १३२ त्रिविक्रम - प्राकृत-व्याकरण 1: भिस-पिऊहिं । सुप्-पिऊसु । विकल्पपक्षमें पिआर, इत्यादि । और आin छोडकर, ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण इन पूर्व ॠ का उ नहीं होता) । उदा. -सु-पिआ । अम्-पिअर । पिअराणं ॥ ४८ ॥ आर: सुपि ।। ४९ ॥ (स्व) ऋकारान्त शब्दों में (अन्त्य ऋ को), विभक्तिप्रत्यय आगे होनेपर, आर ऐसा आदेश विकल्पसे होता है | उदा. भत्तारो । भत्तारा । भत्तारं । भत्तारे । भत्तारेण । भतारेहिं । इसीप्रकार अन्य शब्दों के रूप उदाहरण के रूपमें लेना । लुप्त हुए विभक्तिकी अपेक्षासे 'भत्तार विहिअं' (ऐसा होता है ) || ४९ ॥ सु, अम् प्रत्ययें। के आम् मातुरा अरा || ५० ॥ मातृ शब्द में (अन्त्य ऋ को) आ और अरा ऐसे आदेश होते हैं । उदा. -माआ. माअरा माआओ माअराओ । माआइ माअराइ | माअं माअरं । बहुलका अधिकार होनेसे, (मातृ शब्दका) माँ अर्थ होनेपर आ ( आदेश होता है) और देवता अर्थ होनेपर, अरा ( ऐसा आदेश होता है)। उदा. - माआर कुच्छिआए । णमो माअराणं । 'इदुन्मातुः ' (१.२.८२) सूत्रानुसार (मातृ में ऋ का ) उ होनेपर, माउणि ( ऐसा होगा ) । 'उद्यतां स्वस्वमामि' (२.२.४८) सूत्रानुसार (ऋका) उ होनेपर, माऊण माऊए (ऐसे रूप होंगे) । समत्तिअं वन्दे । सुप् प्रत्यय आगे होनेपरही (मातृमें ऋ को ऐसे आदेश होते हैं, अन्यथा नहीं ) । उदा. -माइदेवो । माइगणो ।। ५० ।। संज्ञायामरः ।। ५१ ।। संज्ञावाचक ऋकारान्त शब्दों के आगे विभक्ति प्रत्यय होनेपर, (ऋ को) अर ऐसा आदेश होता है । उदा. -पिअरा पिअरो । पिअरं । पिअरे । पिारेक पिअरेहिं । जामाअरो जामाअरा । नामाअरं जामाअरे । जामाअरेण जामाभरेहि ॥ ५१ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001735
Book TitlePrakritshabdanushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrivikram
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1973
Total Pages360
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size19 MB
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