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राजस्थान भारती प्रकाशन न०
पद्मिनी चरित्र चौपई
सम्पादक भवरलाल नाहटा
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राज
रिसर्च
बीकानेर
प्रकाशक
साढूल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्यूट
बीकानेर
प्रथमावृत्ति १०००]
वि० सं० २०१८
[ मूल्य ४)
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प्रकाशक : सादुल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्यूट बीकानेर
मुद्रक : रेफिल आर्ट प्रेस ३१, वडतल्हा न्द्रीट, कलकत्ता-७
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प्रकाशकीय श्री साटूल राजस्थानी रिसर्च-इन्स्टीट्यूट बीकानेर की स्थापना सन् १९४४ में बीकानेर राज्य के तत्कालीन प्रधान मत्री श्री के० एम० पणिक्कर महोदय की प्रेरणा से, साहित्यानुरागी बीकानेर-नरेश स्वर्गीय महाराजा श्री सादूलसिंहजी वहादुर द्वारा संस्कृत, हिन्दी एवं विशेषतः राजस्थानी साहित्य की सेवा तथा राजस्थानी भाषा के सर्वाङ्गीण विकास के लिये की गई थी।
भारतवर्ष के सुप्रसिद्ध विद्वानो एवं भाषाशास्त्रियो का सहयोग प्राप्त करने का सौभाग्य हमे प्रारभ से ही मिलता रहा है ।
___ संस्था द्वारा विगत १६ वर्षों से बीकानेर मे विभिन्न साहित्यिक प्रवृत्तियां चलाई जा रही हैं, जिनमे से निम्न प्रमुख हैं१. विशाल राजस्थानी-हिन्दी शब्दकोश ।
इस संबंध मे विभिन्न स्रोतो से सस्था लगभग दो लाख से अधिक शब्दो का संकलन कर चुकी है। इसका सम्पादन आधुनिक कोशो के ढंग पर, लवे समय से प्रारभ कर दिया गया है और अब तक लगभग तीस हजार शब्द सम्पादित हो चुके हैं। कोश मे शन्द, व्याकरण, व्युत्पत्ति, उसके अर्थ, और उदाहरण आदि अनेक महत्वपूर्ण सूचनाए दी गई हैं। यह एक अत्यत विशाल योजना है, जिसकी संतोपजनक क्रियान्विति के लिये प्रचुर द्रव्य और श्रम की आवश्यकता है । श्राशा है राजस्थान सरकार की ओर से, प्रार्थित द्रव्य-साहाय्य उपलब्ध होते ही निकट भविष्य में इसका प्रकाशन प्रारंभ करना सभव हो सकेगा । २. विशाल राजस्थानी मुहावरा कोश
राजस्थानी भाषा अपने विशाल शब्द भडार के साथ मुहावरो से भी समृद्ध है । अनुमानत पचास हजार से भी अधिक मुहावरे दैनिक प्रयोग मे लाये जाते है। हमने लगभग दस हजार मुहावरो का, हिन्दी मे अर्थ और राजस्थानी में उदाहरणों सहित प्रयोग देकर संपादन करवा लिया है और शीघ्र ही इसे प्रकाशित करने का प्रबंध किया जा रहा है। यह भी प्रचुर द्रव्य और श्रम-साध्य कार्य है।
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[ २ ] यदि हम यह विशाल संग्रह साहित्य-जगत को दे सके तो यह संस्था के लिये ही नहीं किन्तु राजस्थानी और हिन्दी जगत के लिए भी एक गौरव की बात होगी। ३. आधुनिकराजस्थानीकाशन रचनओं काम
इसके अन्तर्गत निम्नलिखित पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं१. कळायण, ऋतु काव्य । ले० थी नानूराम मंस्कर्ता २ आभै पटकी, प्रथम सामाजिक उपन्यास । ले० श्री श्रीलाल जोशी। ३ वरस गाठ, मौलिक कहानी संग्रह । ले० श्री मुरलीवर व्यास ।
'राजस्थान-भारती' मे भी आधुनिक राजस्थानी रचनायो का एक अलग स्तम्भ है, जिसमे भी राजस्थानी कवितायें, कहानिया और रेखाचित्र आदि छपते रहते हैं। ४ 'राजस्थान-भारती' का प्रकाशन
इस विल्यात शोधपत्रिका का प्रकाशन संस्था के लिये गौरव की वस्तु है। गत १४ वर्षों से प्रकाशित इस पत्रिका की विद्वानो ने मुक्त कठ से प्रशमा की है । वहुत चाहते हुए भी द्रव्याभाव, प्रेस की एवं अन्य कठिनाइयो के कारण, त्रैमासिक रूप से इसका प्रकाशन सम्भव नहीं हो सका है। इसका भाग ५ अङ्क ३-४ 'डा० लुइजि पित्रो तैस्सितोरी विशेषांक' बहुत ही महत्वपूर्ण एव उपयोगी सामग्री से परिपूर्ण है । यह अड, एक विदेशी विद्वान की राजस्थानी साहित्य-सेवा का एक बहुमूल्य सचित्र कोश है। पत्रिका का अगला ज्वा भाग शीघ्र ही प्रकाशित होने जा रहा है । इसका अङ्क १-२ राजस्थानी के सर्वश्रेष्ठ महाकवि पृथ्वीराज राठोड का सचित्र और वृहत् विशेपाक है । अपने ढंग का यह एक ही प्रयल है ।
पत्रिका की उपयोगिता और महत्व के सम्बन्ध मे इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि इसके परिवर्तन मे भारत एवं विदेशो से लगभग ८० पत्र-पत्रिकाए हमे प्राप्त होती है। भारत के अतिरिक्त पाश्चात्य देशो मे भी इसकी माग है व इसके ग्राहक हैं। शोधकर्तायो के लिये 'राजस्थान भारती' अनिवार्यत: सग्रहणीय शोधपत्रिका है । इसमे राजस्थानी भापा, साहित्य, पुरातत्व, इतिहास, कला आदि पर लेखों के अतिरिक्त सस्था के तीन विशिष्ट सदस्य डा० दशरथ शर्मा, श्रीनरोत्तमदास स्वामी और श्री अगरचन्द नाहटा की वृहत् लेख सूची भी प्रकाशित की गई है।
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[ ३ ] ५. राजस्थानी साहित्य के प्राचीन और महत्वपूर्ण ग्रन्थों का अनुसधान, सम्पादन एव प्रकाशन
हमारी साहित्य-निधि को प्राचीन, महत्वपूर्ण और श्रेष्ठ साहित्यिक कृतियो को सुरक्षित रखने एव सर्वसुलभ कराने के लिये सुसम्पादित एवं शुद्ध रूप मे मुद्रित करवा कर उचित मूल्य मे वितरित करने की हमारी एक विशाल योजना है। सस्कृत, हिंदी और राजस्थानी के महत्वपूर्ण ग्रथो का अनुसघान और प्रकाशन संस्था के सदस्यो की ओर से निरतर होता रहा है जिसका सक्षिप्त विवरण नीचे दिया जा रहा है६. पृथ्वीराज रासो
पृथ्वीराज रासो के कई सस्करण प्रकाश मे लाये गये हैं और उनमे से लघुतम संस्करण का सम्पादन करवा कर उसका कुछ अश 'राजस्थान भारती' मे प्रकाशित किया गया है । रासो के विविध सस्करण और उसके ऐतिहासिक महत्व पर कई लेख राजस्थान-भारती प्रे प्रकाशित हुए हैं। ७. राजस्थान के अज्ञात कवि जान (न्यामतखां) की ७५ रचनामो की खोज की गई। जिसकी सर्वप्रथम जानकारी 'राजस्थान-भारती' के प्रथम अंक में प्रकाशित हुई है । उसका महत्वपूर्ण ऐतिहासिक काव्य 'क्यामरासा' तो प्रकाशित भी करवाया जा चुका है। ८. राजस्थान के जैन सस्कृत साहित्य का परिचय नामक एक निवध राजस्थान भारती में प्रकाशित किया जा चुका है। ६. मारवाड क्षेत्र के ५०० लोकगीतों का संग्रह किया जा चुका है। बीकानेर एव जैसलमेर क्षेत्र के सैकहो लोकगीत, घूमर के लोकगीत, बाल लोकगीत, लोरिया और लगभग ७०० लोक कथाएँ सग्रहीत की गई है। राजस्थानी कहावतो के दो भाग प्रकाशित किये जा चुके हैं। जीणमाता के गीत, पावूजी के पवाडे और राजा भरथरी आदि लोक काव्य सर्वप्रथम 'राजस्थान-भारती' में प्रकाशित किए गए हैं। १० बीकानेर राज्य के और जैसलमेर के अप्रकाशित अभिलेखो का विशाल मग्रह 'वीकानेर जैन लेख संग्रह' नामक वृहत् पुस्तक के रूप में प्रकाशित हो चुका है।
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[ ४ ] ११. जसवंत उद्योत, मुहता नैणसी री ख्यात और अनोसी आन जैसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रंथो का सम्पादन एव प्रकाशन हो चुका है। १२. जोवपुर के महाराजा मानसिंहजी के सचिव कविवर उदयचद भडारी की ४० रचनायो का अनुसघान किया गया है और महाराजा मानसिंहजी की काव्य-साधना के सवध मे भी सबसे प्रथम 'राजस्वान-भारती' में लेख प्रकाशित हुआ है । १३. जैसलमेर के अप्रकाशित १०० शिलालेखो और 'भट्टि वंश प्रशस्ति' आदि अनेक अप्राप्य और अप्रकाशित ग्रंथ खोज-यात्रा करके प्राप्त किये गये हैं। १४. बीकानेर के मस्तयोगी कवि ज्ञानसारजी के ग्रथो का अनुसंधान किया गया और ज्ञानसार ग्रथावली के नाम से एक ग्रथ भी प्रकाशित हो चुका है । इसी प्रकार राजस्थान के महान विद्वान महोपाध्याय समयसुन्दर को ५६३ लघु रचनाम्रो का संग्रह प्रकाशित किया गया है। १५. इसके अतिरिक्त संस्था द्वारा--
(१) डा० लुइजि पिनो तसितोरी, समयसुन्दर, पृथ्वीराज, और लोकमान्य तिलक आदि साहित्य-सेविवो के निर्वाण-दिवस और जयन्तिया मनाई जाती हैं।
(२) साप्ताहिक साहित्यिक गोष्ठियो का आयोजन बहुत समय से किया जा रहा है, इसमे अनेको महत्वपूर्ण निबंध, लेख, कविताएँ और कहानिया आदि पढी जाती हैं, जिससे अनेक विध नवीन साहित्य का निर्माण होता रहता है । विचार विमर्श के लिये गोप्ठियो तथा भापणमालामो आदि का भी समय-समय पर प्रायोजन किया जाता रहा है। १६ वाहर से ख्यातिप्राप्त विद्वानो को बुलाकर उनके भापण करवाने का आयोजन भी किया जाता है । डा. वासुदेवशरण अग्रवाल, डा० कैलाशनाथ काटजू, राय श्री कृष्णदास, डा० जी० रामचन्द्रन्, डा० सत्यप्रकाश, डा० डब्लू० एलेन, डा० सुनीतिकुमार चाटुा, डा० तिवेरिप्रो-तिबेरी आदि अनेक अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विद्वानो के इस कार्यक्रम के अन्तर्गत भाषण हो चुके हैं ।
गत दो वर्षों से महाकवि पृथ्वीराज राठोड आसन की स्थापना की गई है। दोनों वर्षों के आसन-अधिवेशनो के अभिभाषक क्रमशः राजस्थानी भाषा के प्रकाण्ड
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[ ५ ] विद्वान् श्री मनोहर शर्मा एम० ए०, विसाऊ और प० श्रीलालजी मिश्र एम० ए०, हूंडलोद, थे।
इस प्रकार संस्था अपने १६ वर्षों के जीवन-काल मे, सस्कृत, हिन्दी और राजस्थानी साहित्य की निरंतर सेवा करती रही है। आर्थिक संकट से ग्रस्त इस संस्था के लिये यह संभव नहीं हो सका कि यह अपने कार्यक्रम को नियमित रूप से पूरा कर सकती, फिर भी यदा कदा लडखडा कर गिरते पडते इसके कार्यकर्ताओ ने 'राजस्थान-भारती' का सम्पादन एवं प्रकाशन जारी रखा और यह प्रयास किया कि नाना प्रकार की बाधाओ के बावजूद भी साहित्य सेवा का कार्य निरतर चलता रहे । यह ठीक है कि सस्था के पास अपना निजी भवन नही है, न अच्छा संदर्भ पुस्तकालय है, और न कार्य को सुचारु रूप से सम्पादित करने के समुचित साधन ही हैं। परन्तु सावनो के अभाव मे भी सस्था के कार्यकर्ताओं ने साहित्य की जो मौन और एकान्त साधना की है वह प्रकाश में आने पर सस्था के गौरव को निश्चय ही वढा सकने वाली होगी ।
राजस्थानी साहित्य-भंडार अत्यन्त विशाल है। अब तक इसका अत्यल्प अश ही प्रकाश में आया है । प्राचीन भारतीय वाङमय के अलभ्य एव अनर्घ रत्नो को प्रकाशित करके विद्वज्जनी और साहित्यिको के समक्ष प्रस्तुत करना एव उन्हे सुगमता से प्राप्त कराना संस्था का लक्ष्य रहा है। हम अपनी इस लक्ष्य पूर्ति को पोर धीरे-धीरे किन्तु दृढता के साथ अग्रसर हो रहे हैं।
यद्यपि अव तक पत्रिका तथा कतिपय पुस्तको के अतिरिक्त अन्वेषण द्वारा प्राप्त अन्य महत्वपूर्ण सामग्री का प्रकाशन करा देना मी अभीष्ट था, परन्तु अर्थाभाव के कारण ऐसा किया जाना सभव नहीं हो सका । हर्प की बात है कि भारत सरकार के वैज्ञानिक संशोध एव सास्कृतिक कार्यक्रम मंत्रालय (Ministry of scientific Research and Cultural Affairs) ने अपनी प्राधुनिक भारतीय भाषाओ के विकास की योजना के अंतर्गत हमारे कार्यक्रम को स्वीकृत कर प्रकाशन के लिये रु० १५०००) इस मद मे राजस्थान सरकार को दिये तथा राजस्थान सरकार द्वारा उतनी ही राशि अपनी ओर से मिलाकर कुल रु० ३००००) तीस हजार की सहायता, राजस्थानी साहित्य के सम्पादन-प्रकाशन
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हेतु इस सस्था को इस वित्तीय वर्ष मे प्रदान की गई है, जिससे इस वर्ष निम्नोक्त ३१ पुस्तको का प्रकाशन किया जा रहा है ।
श्री नरोत्तमदास स्वामी
१ राजस्थानी व्याकरण
२. राजस्थानी गद्य का विकास ( शोध प्रबंध )
३. अचलदास खीची री वचनिका
४. हमीराय ए
५. पद्मिनी चरित्र चौपई
६. दलपत विलास
७ डिंगल गीत -
८. पंवार वश दर्पण
६. पृथ्वीराज राठोड ग्रंथावली
-
१०. हरिरस -
११. पीरदान लालस ग्रंथावली१२. महादेव पार्वती वेलि १३. सीताराम चौपई-१४. जैन रासादि संग्रह -
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१५. सदयवत्स वीर प्रवन्ध-१६. निनराजसूरि कृतिकुसुमाजलि - १७. विनयचन्द कृतिकुसुमांजलि - १८. कविवर धर्मवद्ध ेन ग्रंथावली. १६. राजस्थान रा दूहा२०. वीर रस रा दूहा -- २१. राजस्थान के नीति दोहा२२. राजस्थान व्रत कथाएँ२३. राजस्थानी प्रेम कथाएं - २४. चंदायन-
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डा० शिवस्वरूप शर्मा ग्रचल श्री नरोत्तमदास स्वामी श्री भवरलाल नाहटा
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30
श्री रावत सारस्वत
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डा० दशरथ शर्मा
श्री नरोत्तमदास स्वामी और श्री बद्रीप्रसाद साकरिया
श्री बद्रीप्रसाद साकरिया श्री श्रगरचन्द नाहटा श्री रावत सारस्वत
श्री अगरचन्द नाहटा श्री
चन्द नाहटा चोर डा० हरिवल्लभ भायारणी प्रो०
10 मजुलाल मजूमदार
श्री भवरलाल नाहटा
39
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श्री अगरचन्द नाहटा
श्री नरोत्तमदास स्वामी
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77
श्री मोहनलाल पुरोहित
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श्री रावत सारस्वत
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________________ .25 भड्डली श्री अगरचन्द नाहटा - माविनय सागर 26. जिनहर्ष ग्रथावली श्री अगरचन्द नाहटा 27. राजस्थानी हस्तलिखित ग्रथो का विवरण -28. दम्पति विनोद 26 हीयाली-राजस्थान का बुद्धिवर्धक साहित्य पर साहित्य " " 30. समयसुन्दर रासत्रय श्री भंवरलाल नाहटा / 31. दुरसा आढा ग्रथावली श्री बदरीप्रसाद साकरिया जैसलमेर ऐतिहासिक साधन सग्रह (संपा० डा० दशरथ शर्मा), ईशरदास ग्रथावली (संपा० वदरीप्रसाद साकरिया), रामरासो (प्रो० गोवर्द्धन शर्मा ), "राजस्थानी जैन साहित्य (ले० श्री अगरचन्द नाहटा), नागदमण (सपा० बदरीप्रसाद साकरिया), मुहावरा कोश (मुरलीधर व्यास) आदि ग्रथो का सपादन हो चुका है परन्तु अर्याभाव के कारण इनका प्रकाशन इस वर्ष नही हो रहा है / हम आशा करते हैं कि कार्य की महत्ता एव गुरुता को लक्ष्य में रखते हुए अगले वर्ष इससे भी अधिक सहायता हमे अवश्य प्राप्त हो सकेगी जिससे उपरोक्ता सपादित तथा अन्य महत्वपूर्ण ग्रथो का प्रकाशन सम्भव हो सकेगा। इस सहायता के लिये हम भारत सरकार के शिक्षाविकास सचिवालय के आभारी हैं, जिन्होने कृपा करके हमारी योजना को स्वीकृत किया और ग्रान्ट-इनएड की रकम मंजूर की। राजस्थान के मुख्य मन्त्री माननीय मोहनलालजी सुखाडिया, जो सौभाग्य से शिक्षा मन्त्री भी हैं और जो साहित्य की प्रगति एवं पुनरुद्धार के लिये पूर्ण सचेष्ट हैं, का भी इस महायता के प्राप्त कराने मे पूरा-पूरा योगदान रहा है। अतः हम उनके प्रति अपनी कृतज्ञता सादर प्रगट करते हैं। ___ राजस्थान के प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षाध्यक्ष महोदय श्री जगन्नाथसिंहजी मेहता का भी हम आभार प्रगट करते हैं, जिन्होंने अपनी ओर से पूरी-पूरी दिलचस्पी लेकर हमारा उत्साहवर्द्धन किया, जिससे हम इस वृहद् कार्य को सम्पन्न करने में समर्थ हो सके / सस्था उनकी सदैव ऋणी रहेगी।
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इतने थाडे समय मे इतने महत्वपूर्ण ग्रन्यो का संपादन करके संस्था के प्रकाशन-कार्य में जो सराहनीय सहयोग दिया है, इसके लिये हम सभी ग्रन्य सम्पादको व लेखको के अत्यत आभारी है। ___ अनूप संस्कृत लाइब्रेरी और अभय जैन ग्रन्यालय बीकानेर, स्व० पूर्णचन्द्र नाहर सग्रहालय कलकत्ता, जैन भवन संग्रह कलकत्ता, महावीर तीर्थक्षेत्र अनुसधान समिति जयपुर, ओरियटल इन्स्टीट्य ट बडोदा, भाडारकर रिसर्च इन्स्टीट्यूट पूना, खरतरगच्छ वृहद् ज्ञान-भंडार बीकानेर, मोतीचद खजान्ची ग्रंथालय बीकानेर, खरतर आचार्य ज्ञान भण्डार बीकानेर, एशियाटिक सोसाइटी बंबई, आत्माराम जैन ज्ञानभडार बडोदा, मुनि पुण्यविजयजी, मुनि रमणिक विजयजी, श्री सीताराम लालस, श्री रविशकर देरात्री, प० हरदत्तजी गोविंद व्य.स जैसलमेर आदि अनेक सस्थाओं और व्यक्तियो से हस्तलिखित प्रतियां प्राप्त होने से ही उपरोक्त ग्रन्यों का सपादन संभव हो सका है । अतएव हम इन सबके प्रति आभार प्रदर्शन करना अपना परम कर्तव्य समझते हैं।
ऐसे प्राचीन ग्रन्थो का सम्पादन श्रमसाध्य है एवं पर्याप्त समय की अपेक्षा रखता है। हमने अल्प समय मे ही इतने अन्य प्रकाशित करने का प्रयत्ल किया इसलिये त्रुटियों का रह जाना स्वाभाविक है । गच्छतः स्खलनक्वपि भवय्येव प्रमाहतः, हसन्ति दुर्जनास्तत्र समादवति साधवः ।
आशा है विद्वद्वन्द हमारे इन प्रकाशनो का अवलोकन करके साहित्य का रसास्वादन करेंगे और अपने सुझावो द्वारा हमें लाभान्वित करेंगे जिससे हम अपने प्रयास को सफल मानकर कृतार्थ हो सकेंगे और पुनः मां भारती के चरण कमलो में विनम्रतापूर्वक अपनी पुप्पाजलि समर्पित करने के हेतु पुनः उपस्थित होने का साहस वटोर सकेंगे।
निवेदक - बीकानेर,
लालचन्द कोठारी मार्गशीर्ष शुक्ला १५
'प्रधान-मंत्री सं० २०१७
सादुल राजस्थानी-इन्स्टीट्यूट दिसम्बर ३,१६६०.
बीकानेर
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रानी पद्मिनो- एक विवेचन
भारतीय इतिहास के अनेक व्यक्ति भावना विशेप के प्रतीक बन चुके हैं। भगवान् राम मर्यादापुरुपोत्तम है तो कृष्ण तत्त्ववेत्ता और दूरदर्शी राजनीतिज्ञ । पृथ्वीराज विलासप्रिय क्षत्रिय है तो जयचन्द्र मत्सरयुक्त देशद्रोही । एक ओर महाराणा प्रताप है तो दूसरी ओर राजा मानसिंह। इसमे भामाशाह है तो माधव और राघव चेतन्य भी। जहाँ दानवावतार अलाउद्दीन है, वहाँ पातिव्रत्य की रक्षा मे सहायक और जीवदानी गोरा भी। सयोगिता सामान्य जन मानस मे महाभारत रचयित्री द्रौपदी का अवतार है। पद्मिनी अनुपम सौन्दर्य का ही नहीं, बुद्धियुक्त धैर्य, असीम साहस और पातिव्रत्य का भी प्रतीक बन चुकी है, और उसकी गाथा को अनेक रूप मे कवियों ने प्रस्तुत किया है। किन्तु किसी आदर्श-विशेष का प्रतीक वनना या अनेकशः वर्णित होना ही, किसी व्यक्ति की ऐतिहासिकता सिद्ध करने के लिए पर्याप्त नहीं है। सम्भावना अवश्य हो सकती है कि ऐसे व्यक्ति रहे होंगे, किन्तु यह सम्भावना यदि इतिहास से ज्ञात तथ्यों के विरुद्ध हो तो उसे छोड़ने में भी कोई दोष नहीं है। पद्मिनी की ऐतिहासिकता
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भी इसी कसौटी पर परख कर सिद्ध या असिद्ध की जा सकती है।
पद्मिनी का सबसे प्रमिद्ध वर्णन मन् १५४० ई० मे रचित जायसी के 'पद्मावत' काव्य मे है। उसके अनुसार पद्मिनी सिंहलद्वीप के राजा गधर्वसेन की पुत्री थी और रतनसेन चित्तौड का राजा था। हीरामन तोते के मुख से पद्मिनी के नौन्दर्य का वर्णन सुनकर रतनसेन योगी बनकर मिहल पहुंचा
और अन्ततः पद्मिनी से विवाह करने मे सफल हुआ। चित्तौड की राज्य सभा मे गघवचेतन नाम का एक तात्रिक ब्राह्मण था। राज्य से निर्वासित होने पर वह दिल्ली पहुंचा। उसने अलाउद्दीन के सामने पद्मिनी के सौन्दर्य की इतनी प्रशसा की कि सुल्तान ने पनिनी की प्राप्ति के लिए चित्तौड पर घेरा डाल दिया। जब बल से काम न चला तो अलाउद्दीन ने छल से काम लिया । वह अतियि रूप में चित्तौड पहुंचा और दर्पण मे पद्मिनी का प्रतिबिंब देखकर मुग्ध हो गया । जब राजा उसे पहुँचाने के लिए सातव द्वार तक पहुँचा तो अलाउद्दीन ने उसे सहसा पकड़ लिया और केटी बनाकर दिल्ली ले गया। केंद से छुटने की केवल मात्र शर्त यही थी वह पद्मिनी को दे दे। उधर गोरा और वादल की सलाह से पद्मिनी ने भी छल से राजा को छुडाने का निश्चय किया। वह सोलह सौ डोलियों मे बी वेपवारी राजकुमारों को विठला कर दिल्ली पहुंची। थोड़ी सी देर के लिए राजा से मिलने का बहाना कर पद्मिनी
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ने राजा को कैद से छुडाया और स्वयं बलपूर्वक नगर से बाहर निकल गई। बादल उनके साथ चित्तौड़ पहुंचा। गोरा ने पीछा करने वाली मुसल्मानी सेना से लडकर वीरगति प्राप्त की। कुछ समय के बाद राजा ने कुम्भलमेर पर आक्रमण किया और घायल होकर स्वर्गस्थ हुआ। पद्मिनी और उसकी सपत्नी नागमती सती हुई। इतने मे ही अलाउद्दीन ने चित्तौड़ पर फिर आक्रमण किया। इस बार अलाउद्दीन की विजय हुई। बादल युद्ध मे काम आया और चित्तौड पर मुसल्मानों का अधिकार हुआ।
इस रूप मे कथा ऐतिहासिक मी प्रतीत होती है। किन्तु जायसी ने सव कथा को रूपक बतला कर उसकी ऐतिहासिकता को अत्यन्त संशयास्पद बना दिया है। उसने लिखा है, "इस कथा मे चित्तौड शरीर का, राजा मन का, सिंहलद्वीप हृदय का, पद्मिनी बुद्धि का, तोता मार्गदर्शक गुरु का, नागमती ससार के कामों की, राघव शंतान का और अलाउद्दीन माया का सूचक है' ।”
फरिश्ता ने अपनी तवारीख पद्मावत से लगभग सत्तर वर्ष के बाद लिखी। उसकी कथा जायसी की कथा से मिलती
१-देखें डा. ओमा रचित, उदयपुर का इतिहास पहली जिल्द
पृ० १८३-१८७
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जुलती है। किन्तु उसने पद्मावती को राजा रतनसेन की पुत्री वना दी है।
श्री अगरचन्दजी नाहटा के संग्रह मे गोरा बादल कवित्त नाम की एक लघुकाय रचना है। भाषा और शैली की दृष्टि से यह रचना पद्मावत से कुछ विशेप अर्वाचीन प्रतीत नहीं होती । गोरा बादल विपयक अन्य रचनाओ मे इसके अवतरण भी इमकी प्राचीनता के घोतक है । इसमें भी रतनसेन गहलोत चित्तौड़ का राजा है। रानी नागमती के ताने से रुष्ट होकर वह सिंहल पहुंचा और पद्मिनी से विवाह कर चित्तौड वापस आया। खेल में अप्रसन्न होकर उसने राघव चैतन्य नाम के ब्राह्मण को देश से निकाल दिया। राघव चैतन्य ने दिल्ली पहुँच कर सब लोगों को अपनी अद्भुत तांत्रिक शक्ति से विस्मित कर दिया। उससे अलाउद्दीन ने पद्मिनी स्त्रियों के गुण सुने । सिंहल मे पद्मिनीयाँ प्राप्त थी। किन्तु सिंहल और भारत के बीच मे समुद्र होने के कारण वह सिंहल न पहुँच सका। जब उसने सुना कि रतनसेन के घर मे भी पद्मिनी रानी थी तो वह चित्तौड़ पहुंचा। राजाने उसका आतिथ्य किया । बातें करते करते राजा ने दुर्गका अन्तिम फाटक पार किया तो सुल्तान ने राजा को पकड़ लिया। जव मत्रियों ने रानी को दे कर राजा को छडाने का निश्चय किया तो रानी १-विशेष विवरण के लिए उपर्युक्त इतिहास देखें, पृ० १८८-१८९
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गोरा के यहाँ पहुंची। उसने बादल को भी तैयार किया। पाँच सौ डोलियाँ वैयार हुई और एक एक डोली में पाँच-पाँच आदमी वैठे। वादल ने स्वयं पद्मिनी का रूप धारण किया, और राजा को वचा ले गया। गोरा युद्ध मे काम आया । ___ संवत् १६४५ मे जैन कवि हेमरतन ने महाराणा प्रताप के राज्यकाल मे इस वीर गाथा की अपने शब्दों मे पुनरावृत्ति की। 'स्वामिधर्म' का प्रचार सम्भवतः इस नव्य रचना का मुख्य लक्ष्य था इसी कथा का परिवर्धन सवत् १७६० मे भागविजय नाम के अन्य जैन कवि ने किया।
जटमल नाहर रचित 'गोरा बादल चौपई भी इस ग्रंथ में • प्रकाशित हो रही है। इसका रचनाकाल वि० सं० १६८० है । कथा मे कुछ द्रष्टव्य वातें ये है :
(क) चित्तोड़ का राजा रतनसेन चौहान है। (ख) एक भाट से पद्मिनी के विपय मे सुनकर वह सिंहल
जाने का निश्चय करता है। (ग) सिंहलराज ने बिना किसी आपत्ति के रतनसेन और
पद्मावती का विवाह कर दिया और राघवचेतन
को उसके साथ चित्तोड़ भेजा। १-देखें इस संग्रह के पृ०१०९-१२८ २-देखें शोधपत्रिका भाग ३, अङ्क २ पृष्ठ १०५-११४ पर
श्री अगरचन्द नाहटा का लेख । ३-पृ० १८२-२०८
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(घ) राघव को व्यर्थ ही चरित्रभ्रष्ट समझ कर रतनसेन ने
देश से निकाल दिया। (ड, समुद्र के कारण मिहल से पदमिनी स्त्री की प्राप्ति
मे विफल होकर, अलाउद्दीन ने राघव चैतन्य के कहने __ पर चित्तौड़ पर चढ़ाई की। (च) राजा ने अलाउद्दीन को पद्मिनी दिखलाई। (छ) अलाउद्दीन ने द्वार पर राजा को पकड़ा। (ज) मार से घबरा कर राजा ने पद्मावती को देने का
सदेश चित्तौड़ भेजा। (झ) मत्री पद्मावती को देने के लिए तैयार हुए। किन्तु
गोरा और वादल ने युद्ध की सलाह दी बाकी कथा प्रायः वैसी ही है जैसी गोरा चादल कवित्त की और
मम्भवतः उसीके आधार पर रचित है। इसके बाद सम्बत् १७०५-१७८७ में रचित लब्धोदय की पद्मिनी चरित चौपई भी इस संग्रह मे प्रकाशित है। कुछ परिवर्तन द्रष्टव्य है :(क) नागमती के स्थान पर इसमे रतनसेन की पहली रानी
का नाम प्रभावती है। (ख) सिंहल-प्रयाण की कथा कुछ और अतिरंजित है। (ग) पदमिनी के देने का विचार वही है, किन्तु मुख्यतः १-देखें पृ० १-१०८
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इस मत्रणा का दोष सपत्नी प्रभावती के पुत्र वीरभाण
को दिया गया है। (घ) कथा भाग को यत्र-तत्र परिवर्द्धित कर दिया गया है।
दलपत-दौलतविजय के खुमाण-रासो मे भी पद्मिनीकी कथा है' राघवचंतन्य से अलाउद्दीन ने राणा रतनसेन को पकडा । किन्तु इसमे रतनसेन जटमल नाहर की 'गोरा बादल चौपई' का कायर रतनसेन नहीं है, इसका अलाउद्दीन भी कुछ वादशाही शान रखता है। उसने गुण को परखना मीखा है।
राजपूत कालीन राजपूती का सुन्दर वर्णन भी इन शब्दों मे दर्शनीय है। रजपूता ए रीत सदाई, मरणे मंगल हरखित थाई ॥४७॥ रिण रहचिया म रोय, रोए रण भाजे गया।
मरणे मगल होय, इण घर आगा ही लगें ।। ८ ।। इस विपय की अनेक अन्य कृतियां भी प्राप्त है । टॉड ने अग्रेजी मे पदिमनी का चरित्र प्रस्तुत किया है। उसने रतनसेन के स्थान पर भीमसिंह को रखा । पद्मिनी सिंहलद्वीप के राजा हमीरसिंह चौहान की पुत्री है। गोरा पद्मिनी का
१-देखें पृ० १२९-१८१ २-देखें शोध पत्रिका, भाग 3, अङ्क • में श्री नाहटाजी का उपयुक्त
लेख।
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चाचा और वादल गोरा का पुत्र है। राणा के छट जाने पर जब अलाउद्दीन दुबारा चित्तौड़ पर आक्रमण करता है तो राणियां जौहर करती है और भीमसिंह आदि दुर्ग के द्वार खोल कर लड़ते हुए वीर गति प्राप्त करते है। - पद्मावती विषयक इन सब कथाओं मे कुछ बातें एक सी है। पद्मावती सिंहल की राजकुमारी है, कथा का नायक रतनसेन और प्रतिनायक अलाउद्दीन है। दुर्मन्त्रणादायी तान्त्रिक ब्राह्मण राघवचैतन्य है। गोरा बादल पद्मावती की सतीत्व के रक्षा करने वाले हैं, और पद्मावती सती धर्म प्रतिष्ठिता राजपूत वीराङ्गना है। इनमे कौनसी बात तथ्य है और कौन सी अतथ्य यह एक विचारणीय विपय है। जहाँ तक सिंहल से पद्मावती का सम्बन्ध है, डा० श्री गौरीशकर हीराचन्द ओझा तक इसे सिगौली का ठिकाना मानने के लिये विवश हुए है।
जो विद्वान् पद्मावती की ऐतिहासिकता स्वीकार नहीं करते उनकी सख्या पर्याप्त है। डा० किशोरीशरणलाल ने कुछ वर्ष हुए पद्मावती की ऐतिहासिकता का खण्डन किया था। अब इस पक्ष का अंतिम और सबसे अधिक व्यापक विमर्श डा० कालिकारञ्जन कानूनगो ने प्रस्तुत किया है। उनकी मुख्य युक्तियां निम्नलिखित है :4-Studies in Rajput history~A Cutical analysis
of the Padmavati legend.
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६
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(क) कथाओं मे पद्मिनी के विषय मे कोई ऐकमत्य नहीं है। इसके पिता का नाम विभिन्न रूप मे प्राप्त है। जायसी ने इसके पति का नाम रतनसेन तो टॉडने भीमसिंह दिया है। डा० ओझा ने उसके पति का नाम रत्नसिंह माना है, किन्तु वे उसके लिये कोई प्रमाण उपस्थित न कर सके है।
(ख) वरनी, इसामी, निजामुद्दीन आदि मुसलमान इतिहासकारों ने कहीं पद्मिनी के नाम का उल्लेख नहीं किया है।
(ग) डा० आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव ने खजाइनुल फुतूह के आधार पर पद्मिनी की सत्ता को सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। वास्तव मे इस ग्रन्थ में पद्मिनी की ओर किञ्चित्मात्र भी सकेत नहीं है। (घ) पदमिनी सर्वथा जायसी की कल्पना है, और पद्मिनी
विषयक जितने उल्लेख है वे सब जायसी के बाद
के है। उपर्युक्त युक्तियों मे अनेक सत्य होती हुई भी अनैकान्तिक हैं। पद्मावती-विपयक प्रायः सभी प्राप्त कथाएँ घटनाकाल से दो सौ वर्ष से भी अधिक वाद की है । इस दीर्घकाल में वंशादि के विषय मे कुछ भ्रान्तियाँ स्वाभाविक है। पद्मावती और सिंहल का सम्बन्ध कुछ कवि-समय सिद्ध से है। रहा पति का नाम , इस विषय में भ्रान्ति केवल उन्नीसवीं शताब्दी के लेखक टॉड को रही है। महारावल रत्नसिंह के समय का वि० सं०
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१३५६ माघ सुदि ५ बुधवार का एक शिलालेख प्राप्त है ।। अलाउद्दीन ने सवत् १३५६ माघ सुदि के दिन चित्तौड़ पर प्रयाण किया और वि० स० १३६० भाद्रपद सुदि १४ के दिन किला फतह हुआ। इन प्रमाणों से निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि वि० स० १३५६-६० मे रनसिंह ही मेवाड़का राजा था और उसी ने अलाउद्दीन से युद्ध किया। यदि पद्मिनी अलाउद्दीन के आक्रमण के समय चित्तौड़ की रानी थी तो उसका पति वि० स० १३५६ के शिलालेख का यही 'महाराजकुल रत्नसिह रहा होगा। इतिहास के विद्यार्थियो को यह कह कर भ्रान्त करने की आवश्यकता नहीं है कि मेवाड़ के इतिहास से हमे चार रत्नसिंह बात है। अतः हम यह निश्चित ही नहीं कर सकते कि इनमें कौन पद्मिनी का पति रहा होगा।
दूसरी युक्ति केवल मौन के आधार पर है। वास्तव में राजपूत इतिहास का मुसल्मान इतिहासकारो को ज्ञान ही कितना है कि हम कह सकें कि प्रामाणिक इतिहास इतना ही है। इससे अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। स्वयं अलाउद्दीन के विषय में अनेक बातें हैं जिनका वर्णन हिन्दू लेखकों ने किया है, किन्तु बरनी इसामी आदि जिनके बारे मे सर्वथा मौन है। खीची
१० इमारे 'प्राचीन चौहान राजवंश' में हम्मीर और कान्हड़देव के - वर्णन पढ़ें।
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( ११ ) अचलदास की वच निका मे अनेक ऐसे जौहरों का उल्लेख हैं जिनका वर्णन हमे मुसल्मानी तवारीखो मे नहीं मिलता। हम जिस प्रकार मुसल्मानी तवारीखों के मौन के कारण उन्हें असत्य मानने के लिए विवश नहीं है, उसी तरह उनका मौन हमे पद्मिनी को भी कल्पित मानने के लिए विवश नहीं करता।
डा० आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव ने खजाईनुल फुतूह के आधार पर पद्मावती की सत्ता का प्रमाण उपस्थित किया था। डा० कानूनगो ने उसका निराकरण किया है। खजाइनुल फतूह के वर्णन का सारांश बहुत कुछ अमीरखुसरोके ही शब्दो - मे निम्नलिखित है।
८ जमादि उस सानी, हि० स० ७०२ सोमवार के दिन विश्वविजयी ( अलाउद्दीन ) ने चित्तोड जीतने का निश्चय किया। दिल्ली से सेना चित्तौड़ की सीमा पर पहुंची। दो महीने तक 'तलवारो की बाद पहाड़ की कमर तक चढी पर आगे न बढ़ सकी।' उसके वाढ मगरिबियों से दुर्ग पर पत्थरों की वर्षा होने लगी। ११ मुहर्रम, हि० स० ७०३ सोमवार के दिन 'उस युग का सुलेमान' [ अलाउद्दीन ] दुर्ग में पहुंचा। “यह भृत्य [ अमीर खुसरो ] जो सुलेमान का पक्षी है उसके १~श्री नरोत्तमदास जी स्वामी द्वारा सपादित अचलदास खीचीरी
वचनिका में हमारी भूमिका पढ़ें। २-देखें जर्नल ऑफ इण्डियन हिस्ट्री, जिल्द ८, पृष्ठ ३६९-३७१
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( १२ )
साथ था। वे बार बार 'हुदहुद हुदहुद' चिल्ला रहे थे। किन्तु मैं अमीर खुसरो] वापस न लौटा, क्योंकि मुझे डर था कि शायद सुल्तान पूछ बैठे, 'मुझे हुदहुद क्यों नहीं दिखाई पड़ता ? क्या वह अनुपस्थित है और यदि वह ठीक कैफियत मागे तो मैं क्या वहाना करूँगा।" उस समय वर्षाऋतु थी। "सुल्तान के क्रोध की विजली से आहत होकर राय एडी से चोटी तक जल उठा और पत्थर के द्वार से इस तरह उछल निकला जैसे आग पत्थर से निकलती है। पानी मे पड़ कर वह शाही शामियाने की तरफ दौड़ा। इस तरह उसने तलवार की विजली से अपने को बचा लिया। हिन्दू कहते है कि विजली पीतल के वर्तन पर अवश्य गिरती है और राय का मुंह भय के मारे पीतल सा पीला पड़ गया था। यह निश्चित है .
कि वह तलवार और पाणों की विजली से सुरक्षित न रहत्ता, ___ यदि वह शाही शामियाने के दरवाजे तक न पहुंचता।"
इसी अवतरण पर टिप्पण करते हुए प्रोफेसर हबीब ने लिखा था, "हुदहुद वह पक्षी है जो सुलेमान के पास सेबा की रानी बलकिस के समाचार लाता है। यह स्पष्ट है कि सुलेमान के सेवा आदि की तर्फ संकेत के लिये पद्मिनी उत्तरदायी है। " चित्तोड की बलकिस तो उस समय भस्म हो चुकी थी। फिर उम युग के सुलेमान, अलाउद्दीन को उसके समाचार कौन देता? डा० कानूनगो ऊपर दिए हुए अवतरण में पद्मिनी की १~-वही पृष्ठ ३७१, टिप्पणी १
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( १३ )
ओर कोई संकेत नहीं पाते। किन्तु सकेत वास्तव मे तो अत्यधिक अस्पष्ट नहीं है। अन्यथा इसमें हुदहुद, शेवा, सुलेमान आदि के लिए विशेष कारण ही क्या था ?
यह अवतरण अन्य दृष्टियों से भी महत्वपूर्ण है। यह ठीक है कि इससे पद्मिनी के आरम्भिक जीवन पर कुछ प्रकाश नहीं पडना। न हम इसके आधार पर यही सिद्ध कर सकते है कि गोरा बादल पद्मिनी को छडा लाए थे। किन्तु चित्तोड़ में अन्ततः क्या हुआ इसकी झाँकी इसमे अवश्य प्रस्तुत है। चित्तोड का घेरा छः महीने तक चला । जब बचाव की आशा न रही ता राजपूत दरवाजा खोलकर शाही शामियाने की
ओर बढ चले । खजाइनुल फतूह से ही सिद्ध है कि अला__ उद्दीन के हाथो 'हजारों' विद्रोही मारे गए। किन्तु रत्नसिंह
या तो पकड़ा गया, या उसने आत्मसमर्पण किया। दुर्ग वादशाह के हाथ आया किन्तु जिस वलकिस की आशा में युग का सुलेमान वहाँ पहुंचा था, वह उस समय समाप्त हो चुकी थी। वह किसी भी हुदहुद की पहुंच के बाहर थी।
रत्नसिंह की इस अतिम गति का कुछ आभास हमे नाभिनन्दन जिनोद्धार ग्रन्थ से भी मिलता है जिसका रचनाकाल सन् १३३६ ई० है। उसमे अलाउद्दीन की अनेक विजयों का वर्णन करते हुए कक्कसूरि ने यह भी लिखा है कि उसने चित्रकूट के राजा को पकडा, उसका धन छीन लिया, और १-गाही शामियाने पर कूच का वर्णन प्राय हर एक जौहर के बाद है।
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१४
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कण्ठ मे ( रस्मी ) बाध कर नगर नगर में बन्दर की तरह घुमाया (३.४)। यह मानने की इच्छा तो नहीं होती कि मेवाड़ाधिपति को भी ऐसे दिन देखने पड़े थे। किन्तु एक सम सामयिक और निष्पक्ष उद्धरण को असत्य कहकर टालना भी कठिन है। कहा जाता है कि महाप्रतापशाली कवितनवन्दित कविश्रेष्ठ मुख परमार की भी कभी ऐसी ही दशा हुई थी।
पद्मिनी और रतनसेन के जीवन की इस अन्तिम झाकी से पूर्व के वृत्त के लिये हमे पद्मिनी सम्बन्धी साहित्य को ही आधार रूप में ग्रहण करना पड़ता है। यदि पद्मिनी सम्बन्धी मव साहित्य पद्मावत मूलक हो और पद्मावत सर्वथा कल्पनामूलक, तो पद्मावती की ऐतिहासिकता को म बहुत कुछ ममान ही समझ सकते है। किन्तु वास्तव मे ऐसी वात नहीं है। जायसी ने म्पक की रचना अवश्य की है. किन्तु उसने हर एक गुग और द्रव्य के अनुरूप ऐतिहासिक पात्र चुना है। इसमे अलाउद्दीन, चित्तोड और सिंहल ही नहीं, पद्मिनी और राघवतन्य भी एतिहासिक व्यक्ति है।
मन्त्रबादी के न्य में राधव चैतन्य का उल्लेख वृद्धाचार्य प्रबन्धावली के अन्तर्गत जिनप्रभसूरि प्रवन्ध मे वर्तमान है। श्री लालचन्द भगवानदास गाँधी ने इसे पन्द्रहवीं और श्री अगरचन्द नाहटा ने सोलहवीं शती की कृति मानी है। श्री नाहटा जी ने सम्भवतः इसके सवत् १६२६ की एक प्रति भी देखी है। एपिग्राफिआ इडिका, भाग १, पृष्ठ १६२-१९४ में
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( १५ ) प्रकाशित ज्वालामुखी देवी का स्तव भी राघवचैतन्य मुनि की कृति है। यह राघवचैतन्य सम्भवतः जिनप्रभसूरि प्रबन्ध के राघव चैतन्य से अभिन्न है । शाङ्गधर पद्धति , का रचयिता शाङ्गधर राघव का पौत्र था और उसने अत्यन्त आदर पूर्वक श्री राघव चैतन्य के श्लोकों को उद्धृत किया है। इससे सिद्ध है कि राघवचंतन्य की एतिहासिकता जायसी के पद्मावत पर निर्भर नहीं है। और यही वात अव बढता के साथ पद्मावती के विषय में भी कही जा सकती है।
छिताई चरित्र का एक सस्करण प्रकाशित हो चुका है। दूसरा श्री अगरचन्द जी नाहटा द्वारा सम्पादित होकर शीव्र ही इन्दौर से प्रकाशित होने वाला है। इसकी रचना के समय महानगर सारगपुर मे सलही शासन कर रहा था । सलहढी की मृत्यु ६ मई, सन् १५३२ के दिन हुई। इससे स्पष्ट है कि छिताई चरित की रचना इससे पूर्व हुई होगी । विशेष रूप से अन्य रचना का वर्णन इस पच मे है।
पन्द्रह सइ रु तिरासी माता। कछूक सुनी पाठली वाता ||१०|| सुदि आपाढ सातइं तिथि भई ।
कथा छिताई जपन लई ।। इसके अनुसार छिताई चरित की रचना वि० स० १५८३ तदनुसार सन् १५२६ ई० में हुई। पद्मावत का रचनाकाल सन् १५०० है। अतः यह निश्चित है कि छिताई चरित अपनी
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कथा के लिये पद्मावत का ऋणी नहीं हो सकता। अलाउद्दीन के देवगिरि पर आक्रमण के समय जव समरसिंह वहाँ से निकल गया और अलाउद्दीन को यह आशंका हुई कि यादवरान रामदेव की पुत्री भी वहाँ से निकल गई होगी तो उसने राघव चैतन्य से कहा
मेरौ कहिउ न मानइ राउ। बेटी देई न छाडइ ठाऊं ॥४२३।। सेवा करइ न कुतवा पढई। अहि निसि जूझि वरावर चढई। धमि सौरसी देसतर गयो। अति धोखंउ मेरे जीय भयो ॥४२४|| रनथभौर देवल लगि गयो । मेरो काज न एकौ भयो । इ वोलइ ढीली का धनी । मइ चीत्तौर सुनी पदमिनी ॥४५५।। वंध्यौ रतनसेन मइ जाइ। लडगो वादिल ताहि छंडाइ। जो अवके न छिताई लेऊ।
तो यह सीसु देवगिरि देऊ ॥४५६।। "राजा (रामदेव) मेरा कहना नहीं मानता। वह न वेटी देता है और न स्थान छोड़ता है। वह न सेवा करता है, और न (आधीनता सूचक) खुत्वा पढता है। ममरसिंह निकल
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( १७ )
कर देशान्तर में चला गया है। इससे मेरे जी मे अत्यन्त धोखा हुआ है। मैं देवल (देवी) के लिए रणथंभोर गया ; किन्तु मेरा एक काम भी सिद्ध न हुआ।" (फिर ) दिल्ली के स्वामी ने कहा, "मैने चित्तौड मे पदमिनी की सत्ता के बारे में सुना। मैंने जा कर रत्नसेन को बाँध लिया, किन्तु बादल उसे छुडा ले गया। जो अबकी बार मैंने छिताई को न लिया तो यह सिर में देवगिरि को अर्पण करूंगा।" ____ इस अवतरण से सिद्ध है कि जायसी के पद्मावत से पूर्व ही पद्मिनी की कथा और अलाउद्दीन की लम्पटता पर्याप्त प्रसिद्ध प्राप्त कर चुकी थी। जायमी ने पद्मावती, रत्नसेन और बादल का सृजन नहीं किया। ये जनमानस मे उससे पूर्व ही वर्तमान थे। समयानुक्रम से इस कथा मे अनेक परिवर्तन भी हुए होंगे। यह सम्भव नहीं है कि पद्मावती की कर्णपरम्परागत गाथा सोलहवीं शताब्दी तक सर्वथा तथ्यमयी ही रही हो। किन्तु उसे जायसी की कल्पना मानने की व्यर्थ कल्पना को अब हम तिलाञ्जलि दे सकते है। सन् १३०२-३ में रत्नसेन ( रत्नसिंह) की सत्ता निर्विवाद है। राघवचैतन्य ऐतिहासिक व्यक्ति हैं। परम्परा-सिद्ध पद्मावती की सत्ता भी असम्भावना की कोटि मे प्रविष्ट नहीं होती। विषयलोलुप अलाउद्दीन, सती पद्मिनी, वीरव्रती गोरा और बादल ये सब ही तो स्वचरित्रानुरूप है। हर्षचरित मे भ्रातृजाया की रक्षार्थ कामिनी-वेष को धारण कर शत्रुशिविर मे पहुंच कर
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शकाधिपति को मारने वाले साहसाङ्क चन्द्रगुप्त के इतिवृत्त को पढ़ने वालों के लिए तो बादल का वीर कार्य भी भारतीय परम्परा के अनुकूल है। बादल ने केवल अपने स्वामी की रक्षा की। चन्द्रगुप्त ने तो अपनी भ्रातृजाया को बचाया
और 'परकलत्रकामुक' विजयी शकराज का भी हनन किया था। शौर्य और साहस के ऐसे कार्यों से भारतीय इतिवृत्त देदीप्यमान है, और इन्हीं से भारतीय सास्कृतिक परम्परा की रक्षा हुई है।
'नवीन वसन्त'
आश्विन शुक्ला चतुर्थी, वि० सं० २०१८
হায় হামী
१-"भरिपुरेच परकलनकामुकं कामिनीवेशगुप्तश्च चन्द्रगुप्तः शकपतिम
शातयत्" (पृ. १९९-२००)। इसी पर टीका में शङ्कर ने लिखा है, "शकानामाचार्य शकाधिपति । चन्द्रगुप्तभ्रातृजायो ध्रुवदेवी प्रार्थयमानश्चन्द्रगुप्तेन ध्रवदेवी वेषधारिणा स्त्रीवेपजनपरिवृतेन रहसि व्यापादित इति ।"
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प्रस्तावना
भारतीय संस्कृति मे संतपुरुप व सतियों के जीवनचरित का बड़ा भारी महत्व है । महान् व्यक्तियों के उदार चरित युगयुग तक जनता के जीवन-पथ मे दीपस्तंभ का काम करते है। कथानायक चाहे पौराणिक हो या ऐतिहासिक उनकी जीवन सौरभ समान रूप से जनमानस को अनुप्राणित करती रहती है। सती पद्मिनी और गोरा बादल का चरित सतीत्त्व और स्वामीधर्म का प्रतीक होने से मेवाड के कण कण में व्याप्त हो गया और विभिन्न कवियों ने उस पर काव्य बना कर श्रद्धाञ्जली अर्पण की। सं० १६४५ मे कवि हेमरत्न ने, स० १६८० मे नाहर जटमल ने, फिर सं० १७०७ मे लब्धोदय ने, उसके बाद कवि दलपतविजय ने 'खुमाण रासो' में सती पद्मिनी की गौरवगाथा गायी है। इनमे हेमरत्न की कृति को छोडकर अवशिष्ट तीनों कृतियाँ इस ग्रंथ मे प्रकाशित की जा रही है। इन तीनों से पूर्ववर्ती रचना 'गोरा बादल कवित्त' है, जो प्राचीन व महत्त्वपूर्ण होने से इस प्रथ के पृ० १०६ मे प्रकाशित किया गया है। सभी कवियों ने अपने काव्यो मे इस अज्ञात कर्तृक कृति के कवित्तों को उद्धृत कर प्रामाणिक माना है। किस कवि की कृति मे कहाँ कौनसा पद्य अवतरित है यह नीचे की पंक्तियों. मे वताया जाता है।
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गोरा बादल कवित्त का २२वाँ कवित्त हेमरत्न ने पद्याङ्क ५७
और लब्धोदय ने पृ० २८ में उद्धृत किया है। पद्याङ्क २३ व २६ को हेमरत्न ने पद्याङ्क ६६-६६ में दिया है। ५०३१ को हेमरत्न ने थोड़े पाठान्तर से प० ८६ में दिया है। प०३५ कवित्त हेमरत्न ने प०६७ मे उद्ध त किया है। प०४१वें छन्द को लब्धोदय ने पृ० ५८ में एवं खुमाणरासो पृ०
१४३ में उद्धृत किया है। प० ४२ व प० ४३ को हेमरत्न ने प० २५३ व प० २८८ मे उद्धृत
किया है। प०५२ को हेमरत्न ने प० ३६८ में लिया है। ५०५८ कवित्त को हेमरत्न ने प० ३४२ मे व खुमाणरासो पृ०
१५५ मे लिया गया है। प०५६-६० को हेमरत्न ने प० ३४४-४५ मे उद्धृत किया है। प०७२-७३-७४ को हेमरत्न ने प० ३६६-३६७ व ५६६ में
लिया है। प० ७७-७८ को हेमरत्न ने प० ६१२-१३ मे एवं खुमाणरासो
पृ० १७६ मे लिया है। -प० ८१ को हेमरत्न ने प० ६२० तथा खुमाणरासो प० १८० में __उद्धत किया है। - इस मे राणा रतनसिंह को गुहिलोत व गोरा बादल को चौहान वंशीय बतलाया हैं। गाजन्न के पुत्र बादल की आयु २३ वर्ष की बतलाई है जो समीचीन प्रतीत होती है। इसमें -
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( २१ )
राघव को परदेशी विप्र बतलाया है जिसके पाण्डित्य से प्रभावित होकर राणा ने अपने पास रखा। एक दिन खेल मे राघव के पराजित होने पर राजा ने उससे द्रव्य मागा तो वह कुपित हो गया। राजा द्वारा निर्वासित हो वह चितौड से निकला और उसने राणा के पंगें मे वेडियाँ डलवाने की प्रतिज्ञा की। राघव ने मत्रसिद्धि द्वारा योगिनी को आराधन किया और वर प्राप्त कर दिल्ली चला गया। उसने सुलतान अलाउद्दीन को निशिचर्या मे दरवेश के भेप में आने पर दिल्ली का सुलतान होने का आशीर्वाद दिया और प्रतीति प्राप्त कर शाही दरवार मे प्रविष्ट होकर राजमान्य हो गया । छन्द पद्याङ्क ५० मे लिखा है कि गोरा ५ वर्ष से राणा के ग्राम-ग्रास को अस्वीकार कर अपने घर बैठा है।
प्राचीनता की दृष्टि से हेमरत्न की कृति का स्थान गोरा बादल कवित्त के वाद आता है । इसके छन्द भी परवर्ती कवियों ने उद्धृत किये हैं। पद्याङ्क १७०-७१-७२-७३ को लब्धोदय ने पृ० ३१-३२ में उद्धृत किये है तथा खुमाणरासो मे दलपतविजय ने पद्याङ्क ७०-७१-७२-७३ मे उद्धृत किये है । पद्याङ्क २८८ को खुमाणरासो (पद्याङ्क २४६३) मे उद्धृत किया है। जटमलनाहर ने इसके पद्याङ्क ५६७ छन्द को पद्याङ्क ११० मे उद्धृत किया है। लब्धोदय ने अपनी चौपाई के प्रारम्भ मे "पूरव कथा संपेख" शब्दों द्वारा जिस पूर्व रचना का उल्लेख किया है वह कृति जटमल की न होकर हेमरत्न की ही होनी
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चाहिए क्योंकि वह रचना मेवाड मे और विशेष कर नररत्न भामाशाह के भाई कावेडिया ताराचन्द के आग्रह से गुंफित हुई थी । अतः इसका पर्याप्त प्रचार हो गया था ।
हेमरत्न के पश्चात् जटमल नाहर की गोरा बादल चौपई निर्मित हुई, यह कृति अपेक्षाकृत छोटी है और इसमे कुल १५३ छन्द है । इस सुन्दर हिन्दी रचना का निर्माता कवि जटमल नाहर पंजाव का निवासी था अतः हेमरत्न व लब्धोदय आदि इतर कवियों की भांति राणा वंश से अभिन्न न होने के कारण रतनसेन को जायसी की भाति चौहान वंश का लिखा है जब कि वे गुहिलोत वंश के थे । जटमल ने राघव चेतन को सिंहलद्वीप से पद्मिनी के साथ आया हुआ लिखा है जब कि अन्य कवि उसे चित्तौड निवासी मानते है । जटमल एक कथा और भी लिखता है कि राणा ने मोहवश पद्मिनी का मुंह देखे विना अन्नजल न ग्रहण करने को नियम ले रखा था । एक दिन वह दो घडी रात रहते राघव चेतन को साथ लेकर शिकार को चल पड़ा । उसके अत्यन्त तृषातुर होने पर नियम पालनार्थ राघव ने त्रिपुरा की कृपा से पद्मिनी की तादृशमूर्ति बनाई जिसके जंघा पर तिलका चिन्ह कर दिया। राना ने राघव के चरित्र पर संदेह लाकर घर आते ही रुष्ट होकर उसे निर्वासित कर दिया । वह योगी का भेष धारणकर वाद्य-यंत्र बजाते हुए दिल्ली पहुँचा और वनखण्डमे निवास करने लगा । एक दिन सुलतान अलाउद्दीन शिकार खेलने के लिए वन में आया तो
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राघव ने संगीतध्वनि से सारे मृगों को अपने पास आकृष्ट कर लिया। शिकार न पाकर सुलतान राघव के स्थान में आया
और घोड़े से उतर कर उसके पास गया। वह उसकी संगीतकला से इतना प्रभावित हुआ कि उसे अपने साथ दिल्ली ले आया। राघव चेतन ने सुलतान से ५०० गाव प्राप्त किये ऐसा पद्मिनी चरित्र चौपई पृ० २७ में उल्लेख है। । जटमल पद्मिनी के सौन्दर्य की ओर सुलतान को आकृष्ट करने के लिए जीवित शशक की कोमलता व हेमरत्न पाँख लाने का उल्लेख करता है जवकि जायसी का राघव सीधा ही सुलतान के समक्ष पद्मावती का रूप वर्णन करता है। ___ जटमल ने लिखा है कि सुलतान १२ वर्ष तक चित्तौड़ पर घेरा डाले बैठा रहा ( जो कि कवि की अतिरंजना मात्र लगती है । अन्त में राघवचेतन की सलाह से सुलतान ने छलपूर्वक रतनसेन को गिरफ्तार कर लिया और प्रतिदिन उसे गढ़ के नीचे लाकर सब लोगों को दिखाते हुए राणा के कोड़े मरवाया करता जिसकी वेदना से व्याकुल हो कायरता लाकर राणा के मंह से कवि पद्मिनी को देने के लिए खास रुका प्रेषण करने की स्वीकृति कराता है (कवित्त ८० ) जोकि राणा और उसके राजवंश की शान के विपरीत कायरतापूर्ण कदम है। आगे चलकर जब बादल कपष्ट प्रपच रचना द्वारा पद्मिनी को देने के प्रलोभन से सुलतान को वशवर्ती कर राणा को छुडाने आता है तो कवि फिर राणा द्वारा बादल को इस जघन्य कार्य
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( २४ ) ( रानी को देकर राणा को छुड़ाने) के लिए धिक्कार दिलाता है। ये दोनों बातें एक दूसरे से विपरीत है अतः कवि ने यहाँ विरोधाभास किया है।
जटमल तथा अन्य सभी कवियों ने पदमिनी को सिंहलद्वीप की पुत्री बतलाया है जो निरी कवि-कल्पना मात्र है। ओमा जी के अनुसार चित्तौड़ से ४० मील पूर्व स्थित सिंघोली गावही सिंघल होना सम्भव है। सिंहलद्वीप के जल-वायु ने पद्मिनी जैसी श्रेष्ठ लावण्यवती स्त्री पैदा की हो एवं इतने दूर से राजस्थान आई हो यह सभव नहीं। राजस्थान में जैसे पूगल की पद्मिनी प्रसिद्ध रही है उसी प्रकार सम्भव है मेवाड़ मे भी सिंघोली जैसा कोई स्थान रहा हो। खुमाणरासो हमे सूचना देता है कि महाराणा राजसिंह औरगमीर की माग मान कमध की पुत्री को व्याह कर लाया था, उस सुन्दरी को भी कवि ने पद्मिनी लिखा है, जिसने राणा को पत्र लिख कर मुसलमान के घर जाने से बचाकर अपनी रक्षा करने की प्रर्थना की थी। राणा उसे व्याह कर ले आया इसके बाद राणा शिकार के लिए गया, उसने गगा त्रिवेणी गोमती और नागद्रह को देखकर बाँध कराने के विचार से गजधर को बुलाकर शिरोपाव दिया । खुमाणरासो मे यहाँ तक का वर्णन प्राप्त है। अतः राजसिंह की पदमिनी की भाँति रतनसेन की परिणीता पदमिनी सती भी मेवाड़-राजस्थान मे ही जन्मी हुई वीरागना होनी चाहिए। ____ इस ग्रंथ मे कवि लब्धोदय कृत पद्मिनी चरित्र चौपई ही सर्व प्रथम और प्रधान रचना है अतः यहाँ कवि लब्धोदय का यथाज्ञात जीवन परिचय दिया जाता है।
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( २५ ) महोपाध्याय लब्धोदय और उनकी रचनाएँ
राजस्थानी साहित्य की श्री वृद्धि करने मे जैन कवियों का योगदान बहुत ही उल्लेखनीय है। अपभ्रंश से राजस्थानी भाषा का विकास हुआ तव से लेकर अवतक सैकड़ों कवियों ने हजारों रचनाएं राजस्थानी गद्य व पद्य मे निर्मित की। नीति, धर्म सदाचार के साथ-साथ जीवनोपयोगी प्रत्येक विषय की राजस्थानी जैन रचनाएं मिलती हैं। राजस्थानी साहित्य की विविधता और विशालता जैन विद्वानों की अनुपम देन है। पन्द्रहवीं शती तक राजस्थान और गूजरात, सौराष्ट्र, कच्छ और मालवा जितने व्यापक प्रदेश की एक ही भापा थी। तेरहवीं शती से पन्द्रहवीं शती तक की जेनेतर रचनाए बहुत ही अल्प मिलती हैं पर जैन कवियों की प्रत्येक शताब्दी के प्रत्येक चरण मे विविध काव्य रूपों एवं शैलियो की सैकड़ों रचनाएं उपलब्ध होती है। पन्द्रहवीं शती तक की जैन रचनाएं अधिकांश छोटी-छोटी है, पन्द्रहवीं के उत्तरार्द्ध से कुछ बड़े रास रचे जाने लगे और सतरहवीं शताब्दी से
तो काफी बड़े-बड़े रास अधिक संख्या मे रचे गये । , रास, चौपाई, फागु, विवाहला आदि चरित-काव्य पहले
विविध प्रसंगों में व मन्दिरों आदि मे खेले भी जाते थे अतः उनका छोटा होना स्वाभाविक व जरूरी भी था पर जव रास
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( २६
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बड़े-बड़े रचे जाने लगे तो वे केवल गेय-काव्य रह गये, खेलने के नहीं। साधारण जनता, अपनी परिचित स्वरलहरी और बोल-चाल की भाषा मे जो रचनाएं की जाती है उनको सरलता से अपना लेती है। प्राकृत संस्कृत भाषा मे प्राचीन विस्तृत साहित्य होने पर भी उससे लाभान्वित होना जन साधारण के लिए सम्भव नहीं था, इसलिए बहुत कुछ उनके आधार से और कुछ लोककथाओं को धार्मिक वाना पहना कर जैन कवियों ने सरल राजस्थानी भाषा मे प्रचुर चरित काव्य बनाए। प्रातः, मध्यान्ह और रात्रि मे उन्हीं रास, चौपाइयो को गाकर व्याख्या की जाती थी। लोकगीतों की प्रचलित देशियों मे उनकी ढालें वनाई जाने से जनता उन्हे भाव-विभोर होकर सुनती और उन चरित्र-काव्यो से मिलने वाली शिक्षाओ को अपने जीवन का ताना बाना बना लेती। फलतः उस समय का लोक-जीवन इन रचनाओं से बहुत ही प्रभावित था। नीति, धर्म और सदाचार की प्रेरणा देने मे इन रचनाओं ने बहुत बड़ा चमत्कार दिखाया।
अठारहवीं शताब्दी में अनेक राजस्थानी जैन कवि हुए हैं जिन मे महोपाध्याय लब्धोदय की साहित्यसेवा चालीस पचास वर्षों तक निरन्तर चलती रही। उन्होने छः उल्लेखनीय बड़े रास वनाए। लघु-कृतिया भी अनेक वनाई होगी किन्तु वे या तो नष्ट हो गई या किसी भंडारों में छिपी पड़ी होंगी। लब्धोदयजी का विहार मेवाड़ प्रदेश में अधिक हुआ
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( २७ ) और वहा के भंडारों की जानकारी भी कम प्रकाश मे आई है। उनके उल्लिखित, रासों में पद्मिनी चौपाई ही अधिक प्रसिद्धि प्राप्त है, अन्य ३ रासों की एक-एक दो-दो प्रतिया मिली हैं। तीन रासो के तो नाम व प्रतियां भी कहीं नहीं मिली, पर कवि की अन्य रचनाओं मे उनकी सूचना प्राप्त होती है।
आज से ३२-३३ वर्ष पूर्व जब हमने हस्तलिखित-ज्ञान भण्डारो का अवलोकन प्रारम्भ किया और अपने संग्रहालय के लिए प्रतियो का संग्रह प्रारम्भ किया तो कवि लब्धोदय की पद्मिनी चरित्र चौ० की प्रतिया ज्ञानभडारो मे देखने को मिली तथा हमारे संग्रह मे भी १ प्रति सगृहीत हुई। स० १६६१ मे 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका' भाग १५ अङ्क २ मे श्री मायाशंकर याज्ञिक ने अपने 'गोरा बादल की बात' नामक लेख में पद्मिनी चरित्र का सर्व प्रथम परिचय हिन्दी जगत को दिया। उनके 'संग्रह मे इसकी एक प्राचीन हस्तलिखित प्रति थी। उन्होंने पद्मावत और 'गोरा बादल की बात' के कथानक से इस पद्मिनी चरित्र मे जो अन्तर है उसका सक्षिप्त परिचय उस लेख में दिया था। इस ग्रन्थ के रचयिता का नाम उन्होंने भ्रमवश लक्षोदय लिख दिया था और वह भूल काफी वर्षों तक दुहराई जाती रही। अतः हमने 'सम्मेलन पत्रिका' वर्ष २६ अंक १-२ में .'जन कवि लब्धोदय और उनके ग्रन्थ' नामक लेख प्रकाशित करके इस भूल को संशोधन करते हुए कवि की रचनाओं का परिचय भी प्रकाशित किया । सं० १९६२ में 'युगप्रधान श्रीजिन
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चन्द्रसूरि' के पृष्ठ १६३ मे श्रीजिनमाणिक्यसूरिजी की शिष्यपरम्परा का परिचय देते हुए इनकी दो रचनाओं का उल्लेख किया था । कवि ने दूसरी रचना गुणावली चौ० मे इससे पूर्ववर्ती ६ रचनाओं का उल्लेख किया है, इसका भी उल्लेख किया -गया था पर उस समय तक हमे केवल दो ही रचनाएँ मिली थी। इसके बाद खोज निरंतर जारी थी और उसके फलस्वरूप दो रचनाओं की और प्रतियाँ मिली एव दो स्तवन भी देखने मे आए।
आपकी गुरु-परम्परा युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरिजी के गुरु श्रीजिनमाणिक्यसूरिजी से प्रारभ होती है। इस परम्परा मे कई और भी अच्छे अच्छे विद्वान हो गए है जिनमे गुणरत्न न्व महिमोदय आदि उल्लेखनीय हैं। आपने अपने ग्रंथों मे अपनी गुरु-परम्परा का परिचय इस प्रकार दिया है :श्री जिनमाणिकसूरि प्रथम शिष्य, श्री विनयसमुद्र मुनीशजी। श्री हर्षविशाल विशाल जगत मे, सुवदीता जसु सीसजी ॥व० महोवमाय श्री ज्ञानसमुद्र गुरु, वाणी सरस विलासजी। तासु शिष्य उवझाय शिरोमणि, श्री ज्ञानराज गुणराशिजी ॥१० 'विद्यावंत अने वड भागी, सोभागी सिरदारजी। तासु शिष्य लब्धोदय पाठक, सम्बन्ध रच्यो सुखकार जी ।।व०
[रनचूड मणिचूड़ चौ० प्रशस्ति ] यही परम्परा कवि ने पद्मिनी चरित्र चौ० की प्रशस्ति में दी है जो इसी ग्रंथ के पृ० १०६ मे देखना चाहिए।
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( २ )
लर
जन्म समय और दीक्षा
कवि की सर्वप्रथम रचना पदिमनी चरित्र चौपई स० १७०६. में प्रारम्भ होकर सं० १७०७ चैत्री पूनम के दिन सम्पूर्ण हुई है । इस समय ये गणि पद से विभूषित थे, अतः उनकी आयु २७ वर्ष के लगभग होना संभव है इससे इनका जन्म सं० १६८० के लगभग माना जा सकता है। आपका जन्म नाम लालचन्द था उस समय दीक्षा प्रायः लघुवय में ही हुआ करती थी अतः दीक्षा का समय स० १६६५ के आसपास होना चाहिए। और आपका दीक्षा नाम लब्धोदय रखा गया था। अध्ययन और विहार
आपकी गुरु-परम्परा एक विद्वद्-परम्परा थी। विनयसमुद्र वाचक पद से विभूपित थे। उनके शिष्य वाचक गुणरत्न तो जैन साहित्य के अतिरिक्त साहित्य और तर्कशास्त्र के भी अद्भुत विद्वान थे। इनके रचित १ काव्यप्रकाश टीका (श्लोक १०५००),. २ सारस्वत टीका ( क्रियाचन्द्रिका ४००० श्लोक) ३ रघुवंश सुबोधिनी टीका (६००० श्लोक), ४ तर्कभाषा (गोवर्द्धनी प्रका-- शिका-तर्क तरगिणी श्लो० ७४५०) ५ शशधर के न्याय सिद्धान्तः पर टिप्पण ६ मेघदृत पंजिका ७ नमस्कार प्रथम पद अर्थ के अतिरिक्त १ संयतिसंधि २ श्रीपाल चौपई, दो राजस्थानी काव्या उपलब्ध हैं। इनमे से 'तर्कतरंगिणी' की एकमात्र प्रति ब्रिटिश म्युजियम, लंदन में है और न्यायसिद्धान्त' की सम्पूर्ण प्रति अनूपसंस्कृत लाइब्रेरी, बीकानेर में है। 'मेघदूत पंजिका' की भी
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( ३२ ) के पुत्र हसराज और भागचन्द के आग्रह से मुनि श्री लब्धोदय गणि ने पूर्व रचित कथा को देखकर पद्मिनी चरित्र चौ०. की रचना स० १७०६ में प्रारम्भ कर ४६ ढाल व ८१६ गाथाओं मे स० १७०७ चैत्रीपूनम के दिन पूर्ण की। इससे पूर्ववर्ती रचना हेमरत्न की है उसमे 'गोराबादल कवित्त' का उपयोग हुआ है और लब्धोदय ने तो इन दोनों ही रचनाओं का उपयोग किया है। हेमरत्न की रचना मे गा०६३२ हैं और लब्धोदय की गाथा ८१६ है। अतः कवि ने कथा प्रसङ्ग विस्तृत किया है।
इसके पश्चात् कवि ने तीन चौपाइया और भी रची थी पर वे अबतक अनुपलब्ध है। उपलब्ध रचनाओं मे रत्नचूड मणिचूड चौपाई स० १७३६ की है जो ५वीं रचना होनी चाहिए क्योंकि इसके बाद की मलयसुन्दरी चौ० मे उससे पूर्क ५ चौपाई रचने का उल्लेख स्वयं कवि ने किया है।
रत्नचूड मणिचूड़ की प्राचीन कथाको दान-धर्म के माहात्म्य मे कवि ने राजस्थानी पद्य (३८ ढालों) में सकलित किया है। स० १७३६ वसन्तपचमी को उदयपुर मे इसकी रचना हुई। पद्मिनी चरित्र चौ० जिस मन्त्री भागचन्द के आग्रह से बनाई गई थी उसी के आदर से यह चौपाई रची गई है। इसकी प्रशस्ति मे मन्त्री भागचन्द के पुत्र व पौत्रों का अच्छा परिचय दिया गया है। मन्त्री भागचन्द के सम्बन्ध मे ५ पद्य है, उससे उसका महत्व भली-भाँति स्पष्ट है । उसके पुत्र दशरथ, समरथा
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(
३३ )
और अमृत थे इनमे से समरथ के ३ पुत्र महासिंह, मनोहर दास व हरिसिंह थे। दशरथ के पुत्र आसकरण और सुजाण सिंह थे। अमृत के पुत्र गोकुलदास व इन्द्रभाण थे। इस प्रकार मन्त्री मुकुट भागचन्द का परिवार काफी बड़ा था। ७ पाट के बाद मेवाड में खरतर गच्छ की पुनः प्रतिष्ठा करने का श्रेय कवि ने उसे दिया है। इस रचना के समय मन्त्री भागचन्द काफी वृद्ध हो चुके थे, फिर भी उनकी धर्म भावना और शास्त्र श्रवण प्रेम ज्यों का त्यों बना हुआ था। इस चौपाई की एक मात्र प्रति 'हितसत्क ज्ञानमन्दिर' घाणेराव से अभी अभी हमें प्राप्त हुई है। काव्य बडा सुन्दर और रोचक है।। ___ कवि की छट्ठी चौपाई सबसे बड़ी कृति है-मलयसुन्दरी चौपाई। यह भी शील-धर्म के माहात्म्य पर १४२ पत्रों में रची गई है। प्रस्तुत मलयसुन्दरी चौ० सं० २७४३ श्रावण वदी १३ के दिन प्रारम्भ कर गोघदा (मेवाड) मे धनतेरस के दिन पूर्ण की । केवल ३ मास मे इतने इतने बड़े काव्य का निर्माण वास्तव में कवि की असाधारण प्रतिभा का द्योतक है। इसकी रचना कवि के उल्लेखानुसार उनके गुरु महो० बानराज द्वारा स्वप्न* मे दी हुई प्रेरणा के अनुसार की थी। मलयसुन्दरी कथा जैन साहित्य मे काफी प्रसिद्ध है।
* “महोपाध्याय ज्ञानराज गुरु, कयो सुपन में आय ।
पांच चौपाई थे करी, ए छही करो बणाय ।।"
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कवि की सातवीं रचना गुणावली चौपाई ज्ञानपंचमी के माहात्म्य पर निर्मित हुई है। स० १७४५ के मिती फाल्गुण सुदि १० को उदयपुर मे कटारिया मन्त्री भागचन्द जी की पत्नी भावलदे के लिए यह रची गई थी। फा०व० १३ को प्रारम्भ कर फा० सु० १० को अर्थात् केवल १२ दिनमें आपने यह काव्य रच डाला था। ___उपर्युक्त बड़ी रचनाओं के अतिरिक्त कवि ने बहुतसी छोटी रचनाएँ अवश्य बनाई होंगी, पर हमे उनमें से केवल २ ही रचनाओं की जानकारी मिली है। प्रथम धुलेवा ऋषभदेव स्तवन १३ पद्यों का है और उसकी रचना सं० १७१० ज्येष्ठ बदि २ बुधवार को हुई है। दूसरा ऋषभदेव स्तवन १५ गाथा का है जो सं० १७३१ मि० ब० ८ वुधवार को रचा हुआ है। स्वर्गवास __सं० १७४५ के पश्चात् आपकी कोई रचना नहीं मिलती
और उस समय आपकी आयु लगभग ६५-७० वर्ष की हो चुकी थी। अतः सं० १७५० के आस-पास आपका स्वर्गवास मेवाडउदयपुर के आसपास हुआ होगा। शिष्य परम्परा __ कवि लव्धोदय बड़े प्रभावशाली व्यक्ति थे। उनके धार्मिक उपदेशों से प्रभावित होकर अनेक भावुक आत्माओ ने उनका शिष्यत्व स्वीकार किया था। कवि ने अपने 'रत्नचूड़ मणिचूड़ चौपाई' और 'मलयसुन्दरी चौ०' की प्रशस्ति में अपने शिष्यों की नामावली इस प्रकार दी है :
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( ३५ )
"शिष्य रनसुन्दर गणि वाचक, कुशलसिंह मन हरषइ जी। सावलदास शिष्य सोभागी, पासदत्त परसिद्ध जी। खेतसी परमानन्द रूपचन्द, वाची ने जस लिद्ध जी।" ।
[रत्नचूड़ मणिचूड चौ० ] जसहर्प शिष्य वाचक सांभागी, रत्नसुन्दर सिरदार जी। शिष्य कल्याणसागर ज्ञानसागर, पद्मसागर पंडित श्रीकारजी।।
[मलयसुन्दरी चौ०] कवि के शिष्य ज्ञानसागर के शिष्य भुवनधीर अच्छे विद्वान थे, इनके रचित भुवनदीपक वालाववोध सं० १८०६ मे रचित उपलब्ध है।
उपयुक्त शिष्योंमे से कुछ की शिष्य-परम्परा अवश्य ही लम्बे समय तक चली होगी व उनमे कई कवि व विद्वान भी हुए होंगे पर हमें उनकी जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी। ___ संवत् १७०६ से सं० १७४५ तक की रची हुई उपयुक्त रचनाओं से स्पष्ट है कि महोपाध्याय लब्धोदय ने ४० वर्ष तक राजस्थानी भाषा और साहित्य की विशिष्ट सेवा की थी। उनकी पद्मिनी चरित्र चौ० को यहाँ प्रकाशित किया जा रहा -है। अवशिष्ट रचनाओं के प्रकाशन से कवि की काव्य-प्रतिभा का सही मूल्याकन हो सकेगा, क्योंकि यह तो कवि की प्राथमिक रचना है, उसके बाद अन्य रचनाओं मे प्रौढ़त्व अवश्य ही मिलेगा। प्रतिष्ठा लेख आदि
आपके जीवनचरित्र की उपयुक्त सामग्री मे हम देख चुके है कि आपका विहार विशेषकर मेवाड़ में हुआ था । आपने वहाँ जिनमदिर, प्रभु-प्रतिमाएँ व गुरु-पादुओं की प्रतिष्ठा भी
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( ३६ ) करवायी थी। मंत्रीश्वर कर्मचन्द्र के वंशजों द्वारा निर्मापित उदयपुर की बीराणी की सेरी में स्थित ऋपभदेव जिनालय के मूल-नायक भगवान के लेख से विदित होता है कि आपके करकमलों से उपयुक्त प्रतिष्ठा हुई थी। वहाँ के यतिवयं ऋपि श्री अनूपचन्द्रजी द्वारा प्राप्त लेख यहाँ दिये जा रहे है :
"संवत् १७४३ वर्षे वैशाख सुदि ३ श्री वृहत् खरतर गच्छे प्रतिष्ठितं युगप्रधान श्री जिनरगसूरि भट्टारक्स्यादेशान् महोपाध्याय श्री ज्ञानराज गुरुणा शिष्य महोपाध्याय श्री लब्धोदय गणिभिः श्री ऋपभदेव विम्वं कारितं च वच्छावत मं० लखमी चन्देन पुत्र मं० रामचन्द्रजी भ्रातृ सा० रघुनाथ जी भ्रातृजयं सवलसिंह पृथ्वीराज वाई हरीकुमरीकया श्रेयोथं ।
सवत् १७४३ . श्री जिनरंगसूरि विजये युगप्रधान श्री जिनकुशलमृरिणा पादुके कारिते प्रतिष्ठिते च महोपाध्याय श्रीलब्धोदय । संवत् १७२१ (१) वर्ष चंत्र द्वादशी". श्री लब्धोदय गणि। ___ 'श्री जिनकुशलसूरि च० प्रतिष्ठितं महोपाध्याय श्री ज्ञानसमुद्राणा शिष्य महोपाध्याय ज्ञानराज महोपाध्याय श्रीलब्धोदयवाचक रत्नसुन्दरयुक्त। __ इसके अतिरिक्त सं० १७४८ की भी एक जोड़ी चरणपादुका प्रतिष्ठित विद्यमान है । टाइल्स लगा देने से लेख अव दब गए है, एक लेख का निम्नलिखित अंश पढने में आता है :- "शिष्य महोपाध्याय श्री ज्ञानसमुद्राणा महो० श्री ज्ञान'राजाना शिष्य लालचन्द्रोपाध्यायः ।
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गोरा वादल कथा के रचयिता नाहर जटमल
कवि जटमल नाहर की गोरा वादल कथा गद्य मे होने की भ्रान्ति हिन्दी के विद्वानों मे चिरकाल तक रही है । एसियाटिक सोसायटी-कलकत्ता की जिस प्रति के आधार से यह भ्रान्ति फैली थी, उस प्रतिका निरीक्षण कर भ्रान्ति का निराकरण स्वर्गीय पूरणचन्दजी नाहर व स्वामी नरोतमदास जी के प्रयत्न से 'विशाल भारत' पोप १६६० व नागरी प्रचारणी पत्रिका वर्प १४ अंक ४ में प्रकाशित लेखों द्वारा हुआ। यह निश्चित हो गया कि बास्तव में जटमल ने गोरा बादल कथा पद्य मे ही लिखी थी पर उन्नीसवीं शती मे गद्य मे लिखे गए अर्थ के कारण जटमल के गद्यकार होने की भ्रान्त परम्परा चल पड़ी। उसके बाद डा० टीकमसिंह तोमरने 'गोरा बादल कथा' की एक प्रति का पाठ गलत पढ कर जटमल की जाति जाट होने का उल्लेख शोध प्रबन्ध में किया जिसका निराकरण भी नागरी-प्रचारणी पत्रिका द्वारा किया गया।
हिन्दी के विद्वानों को जटमल की केवल 'गोरा वादल कथा' नामक एकही रचना की जानकारी थी। हमने जव बीकानेर के ज्ञानमंडारों का निरीक्षण किया व अपने ग्रन्थालय के लिये हस्तलिखित प्रतियों का संग्रह प्रारम्भ किया तो जटमल की अन्य कई रचनाओं की प्राप्ति हुई। फलतः हमने हिन्दुस्तानी वर्ष ८ अं० २ मे 'कवि जटमल नाहर और उनके
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( ३८ )
ग्रंथ' नामक लेख द्वारा जटमल की समस्त रचनाओं पर सर्व प्रथम प्रकाश डाला।
कवि जटमल नाहर ने अपना परिचय अपनी रचनाओं में इस प्रकार दिया है :(१) धरमसी को नन्द नाहर जाति जटमल नाउ ।
तिण करी कथा बणाय के, विचि सिंबला के गाउ ।।
इति जटमल श्रावक कृता गोरा वादल की कथा संपूर्णा (२) वसै अडोल 'जलालपुर', राजा थिरु 'सहिबाज',
रइयत सयल वस सुखी, जब लगि थिर ध्र राज, ८३ तहाँ वसे 'जटमल लाहोरी', करने कथा सुमति मति दोरी, 'नाहर' वस न कछु सो जानै, जो सरसती कहै सो आने, ८४
इति प्रेमविलास प्रेमलताह सवरसलता नाम कथा नाहर गोत्र श्रावक जटमल कृता ( सं० १७५३ लिखित प्रति)
इस से सिद्ध होता है कि कवि जटमल लाहोर निवासी जैन श्रावक थे और नाहर गोत्रीय थे। आपके रचित (१) गोरा बादल कथा की रचना सं० १६८० में सिंवला ग्राम में हुई है जिसे स्वामी नरोत्तमदासजी व सूर्यकरणजी पारीक द्वारा सम्पादित कापी से यहा साभार प्रकाशित किया जा रहा है। दूसरी कथा प्रेमविलास प्रेमलता की रचना स० १६६३ भाद्रपद शुक्ला ४ रविवार को जलालपुर मे हुई है। (३) वावनी-पजावी भापा के ५४ पचों मे है, इसे 'पंजाबी दुनिया' मे गुरुमुखी मे छपवा दिया है। (४) लाहोर गजल-इसमे लाहोर नगर का
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महत्त्वपूर्ण वर्णन पद्य ६० में है। नगर वर्णनात्मक हिन्दी पद्य संग्रह में मुनि श्रीकान्तिसागरजी द्वारा यह प्रकाशित है। (५) स्त्री ( सुन्दरी ) गजल, (६) हिंगोर गजल, (७) फुटकर कवितादि, हमारे संग्रह मे है। उदयपुर में एक और रचना भी देखने में आई थी।
गोरा बादल कथा की प्रशस्ति में मोछ ग्राम का उल्लेख है। कविवर समयसुन्दर कृत मृगावती रास के एक गुटके की लेखन प्रशस्ति में मोछ ग्राम एवं जटू नाहर का उल्लेख मिलता है। अतः वह गुटका जटमल नाहर के लिखित प्रतीत होता है। प्रशस्ति इस प्रकार है :
संवत् १६७५ वर्षे माघ सुदि ११ तिथौ शनिवारे । पतिस्याह नूरदी आदिल जहागीर राज्ये लिखतं जद नाहर नागउरी मोछ ग्रामे सा० कवरपाल सुतसा वाला देवी पासा तोड़ा रंगा गंगा पुस्तिका बापणा गोत्रे । लिखतं जटू पठनार्थ ।
खुमाणरासो रचयिता दौलतविजय . खुमाणरासो के सम्बन्ध में हिन्दी साहित्य के विद्वानों में बडी भ्रान्ति रही है। खुमाण का नाम देखकर उसका काल हवीं शताब्दी ही रासो का रचनाकाल मान लिया गया। इस मे महाराणा प्रताप का भी वृत्तान्त है अतः यह धारणा बना ली गई कि इस मे पीछे से परिवर्द्धन होता रहा है अतः
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वर्तमान रूप १९वीं शताब्दी मे प्राप्त हुआ मान लिया गया । माननीय शुक्लजी जैसे विद्वान ने भी अपने इतिहास मे यही लिख दिया कि-'यह नहीं कहा जा सकता कि दलपतविजय असली खुमान रासी का रचयिता था अथवा उसके पिछले परिशिष्ट का।' वास्तव मे हिन्दी के विद्वानों ने इसकी प्रति को देखा नहीं, अतः अन्य लोगों के उल्लेखों के आधार से विविध अनुमान लगाते रहे। लगभग २५ वर्ष पूर्व श्री अगरचन्द्र जी नाहटा ने वीर-गाथा-काल की वतलाई जानेवाली रचनाओं को परीक्षा की कसौटी पर रखा और जेनगूर्जर कविओ भाग १ से खुमाणरासो की १३६ पत्रों की अपूर्ण प्रति का पता लगा कर पूना के भंडारकर ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीट्य ट से प्रति को प्राप्त कर इसके तथ्यों पर सर्वप्रथम निश्चयात्मक प्रकाश डाला। 'नागरी प्रचारणी पत्रिका' वर्प ४४ अङ्क ४ मे प्रकाशित उनके लेख से वह निश्चित हो गया कि यह ग्रंथ १८वीं शताब्दी मे ही रचित है कवि का नाम दलपतविजय नहीं पर उसका प्रसिद्ध नाम दलपत और जैन दीक्षा का नाम दौलतविजय था। •
खमाण रासो की अद्यावधि एक ही प्रति मिली है जो अपूर्ण है और उसमे महाराणा राजसिंह तक का विवरण है। टॉड के संग्रह तथा नागरी प्रचारिणी सभा मे भी इसी प्रतिकी प्रतिलिपि है। कविने प्रस्तुत ग्रन्थ में अपनी गुरु-परम्परा का परिचय इस प्रकार दिया है :
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( ४१ ) त्रिपुरा शक्ति तणे सुपसाय, रच्यो खण्ड दूजो कविराय । तपगच्छ गिरुआ गणधार, सुमतिसाधु वंशे सुखकार ।। पडित पद्मविजय गुरुराय, पटोदयगिरि रवि कहेवाय । जयबुध शातिविजय नो शिष्य, जपे दौलत मनह जगीश।।"
अर्थात्-कवि त्रिपुरादेवी का भक्त था और तपागच्छ के सुमतिसाधुसूरि की परम्परा में पद्मविजय शिष्य जयविजय शि० शान्तिविजय का शिष्य था।
खुमाण रासो (अपूर्ण) मे खुमाण से लेकर राजसिंह तक का ही विवरण मिलता है, पर इसके प्रथम खण्ड के अन्तिम दोहे मे महाराणा संग्रामसिंह (द्वितीय ) तक का उल्लेख होने से इसकी रचना सं० १७६७ से सं० १७६० के बीच मे हुई निश्चित है।
विउ सागउ अमरेस सुत, सीसोद्यो सुवियाण ।
राण पाट प्रतपे रिधू, मन हेला महिराण ।। खुमाण रासो के छ? खण्ड मे रत्नसेन-पद्मिनी और गोरा बादल का वृतान्त आया है अतः उसे इस ग्रंथ के [पृ० १२६ से १८१ ] में प्रकाशित किया गया है। यह अंश स्वामी नरोत्तमदासजी द्वारा प्राप्त श्री श्रोत्रिय के की हुई प्रेस कापी से लेकर दिया गया है अतः इसके लिए आदरणीय स्वामीजी और ‘श्रोत्रियजी धन्यवादाह है।
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( ४२ ) इस ग्रंथ के पृ० १०६ में गोरा वादल कवित्त प्रकाशित किया गया है, जिसकी प्रति हमारे सग्रह मे है। लब्धोदय कृत चौपई की प्रति हमारे संग्रह की है, जिसके पाठान्तर गुलावकुमारी लाइब्रेरी, कलकत्ता स्थित बड़ौदा के गायकवाड ओरयण्टलइन्स्टीट्य ट की नकल से दिये गये है। हमारे आदरणीय मित्र डा० दशरथ शर्मा ने अनेक कार्यों में व्यस्त रहते हुए भी भूमिका रूप मे “रानी पद्मिनी--एक विवेचन" शीघ्र लिख भेजा था, पर ग्रथ का कलेवर बढ़ जाने से उसमे और अभिवृद्धि करने के लिए उन्हे दिया गया था, जिसे उन्होंने यथासमय ठीक कर भेजा पर वह डाक की गड़बड़ी मे गुम हो गया। तब उसे पुनः नये रूप मे लिख कर भेजने का कष्ट किया है। पूज्य काकाजी श्री अगरचन्द्रजी नाहटा तो इसके श्रेय के वास्तविक अधिकारी
है ही, अतः इन सभी आदरणीय विद्वानों के प्रति हार्दिक __ कृतज्ञता व्यक्त करने के हेतु उपयुक्त शब्द मेरे पास नहीं है, वह
तो हृदय की भाषा जाननेवाले सुवीजन स्वतः अवगाहन कर लगे। सुनेषु किं बहुना,
कलकत्ता पौष कृष्णा १० पार्श्वनाथ जन्म दिवस )
मॅवरलाल नाहटा
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पद्मिनी चौपाई का कथासार
भगवान ऋषभदेव, महावीर, शारदा और ज्ञानराज गुरू को नमस्कार कर कवि लव्धोदय सती पद्मिनी का चरित्र निर्माण करते है । इसमे वीर शृंगार प्रधान नवरसों का सरस वर्णन है। वीर गोरा, बादल की स्वामीभक्ति और शौर्य, सती के शीलव्रत के साथ क्षीर घृत और खाड के संयोग की भाति सुस्वादु हो जाता है। पहली ढाल मे कवि ने चितौड़ का वर्णन किया है। वे कहते हैं-मेवाड का चितौड दुर्ग सब गढ़ो में प्रधान है यह गगनस्पर्शी कैलाश से टक्कर लेता है। यहा बहुत से तापस तीर्थ, चित्रा नदी, गोमुख कुण्डादि है, कूप, सरोवर, जिनालय, शिवालय, ऊचे ऊंचे महल है, यह बाग बगीचों
और करोडपतियों की लीलाभूमि है। चितौड में महाराणा रतनसेन नामक प्रतापी राजा राज्य करता था. जिसकी सेवा मे दो लाख सुभट एव कई राजा थे। पटरानी प्रभावती अत्यन्त सुन्दर और सब रानियों मे सिरमौर थी, वह राजा की प्रियपात्र और प्रतापी कुमार वीरभाण की माता थी। रानी प्रतिदिन राजा को अपने हाथ से परोस कर प्रेमपूर्वक भोजन कराती थी। एकदिन रत्नजटित थाल मे नाना व्यंजन युक्त स्वादिष्ट भोजन भारोगते हुए हास्य-विनोद में राणा ने कहा
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आजकल भोजन विलकुल निरस और स्वादरहित होता है। तुम्हारी चतुराई कहा चली गई ? रानी ने तमक कर कहा-मैं तो कुछ भी नहीं जानती, मेरे में चतुराई है ही कहां ? स्वादिष्ट भोजन के लिए नवीन पद्मिनी न्याह कर ले आइये। रानी प्रभावती के वाक्य राणा के हृदय में तीर की तरह चुभ गए, वह भोजन त्याग कर उठ खड़ा हुआ और रानी का मान मर्दन करने के निमित्त पद्मिनी से पाणिग्रहण करने के हेतु बढ़प्रतिज्ञ हो गया।
राणा ने दो घोड़ों पर बहुत सा धनमाल लेकर खवास के साथ गुप्तरूप से चितौड़ से प्रस्थान किया। जब वे बहुतसी भूमि उल्लंघन कर गये तो सेवक के पूछने पर राणा ने अपनी यात्रा का उद्देश्य प्रगट किया, पर दोनों ही व्यक्ति पद्मिनी स्त्री का ठाम ठिकाना नहीं जानते थे। उन्होंने एक वृक्ष के नीचे विश्राम किया तो एक भूख-प्यास से व्याकुल पथिक आकर राणा के चरणों में उपस्थित हुआ। राणा ने उसे खान-पान और शीतोपचार से संतुष्ट किया और स्वस्थ होने पर पूछा कि तुमने कहीं पद्मिनी स्त्री का ठाम-ठिकाना देखा-सुना हो तो बताओ। पथिक ने कहा-राजन् । दक्षिण समुद्र के पार सिंघलद्वीप मे अप्सरा की भाति पद्मिनी स्त्रियाँ होती है | राणा ने दक्षिण का मार्ग पकड़ा और नाना जंगल पहाड़ों को उल्लंघन करता हुआ खवास के साथ समुद्र तट पर पहुंचा। .
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राणा को दुलंध्य समुद्र को पार करने की चिन्ता मे घूमते हुए सहसा औघड़नाथ योगी से साक्षात्कार हुआ। राणा ने उसे विनय-भक्ति से संतुष्ट कर पद्मिनी के हेतु सिंघलद्वीप पहुंचाने की प्रार्थना की। योगी ने अपने दोनों हाथो में दोनों सवारों को लेकर आकाशमार्ग द्वारा सिंहलद्वीप पहुंचा दिया
और स्वय अवश्य हो गया । राणा प्रसन्नचित्त से भ्रमण करता हुआ सिंहलद्वीप की शोभा देखने लगा। जब वह नगर के मध्य भाग में पहुंचा तो उसने ढढोरे का ढोल सुना और पूछने पर ज्ञात हुआ कि सिंहलपति की तरुण बहिन पद्मिनी उसी व्यक्ति को वरमाला पहनायगी, जो उसके भ्राता को सतरज के खेल मे जीत लेगा । राणा ने पटह-स्पर्श किया, वह पद्मिनी के समक्ष सिंहलपति के साथ शतरंज खेलने लगा, पद्मिनी भी राणा के सौन्दर्य से मुग्ध होकर मनही मन उसके विजय की प्रार्थना करने लगी। पुण्य प्राग्भार से राणा ने सिंहलपति को जीत लिया, पद्मिनी की वरमाला राणा के गले मे सुशोभित हुई। सिंहलपति ने राणा के साथ पमिनी का पाणिग्रहण बड़े भारी समारोह से कराया और अपनी प्रतिज्ञानुमार राणा को आधा देश भडार समर्पित किया । पद्मिनी को दहेज मे हाथी, घोड़े, वस्त्रालङ्कार और दो हजार सुन्दर दासियाँ मिलीं। पद्मिनी तो अद्भुत रूपनिधान थी ही, उसके देह सौरभ से चतुर्दिक भौंरे गुजार कर रहे थे। कुछ दिन सिंहलद्वीप मे रहने के “पश्चात् सारे धनमाल और परिवार को जहाजो में भरकर
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राणा स्वदेश के लिए रवाने हुआ। सिंहलपति से प्रेमपूर्वक विदा लेकर राणा स्वदेश लौटा।
इधर चित्तौड़ में राणा के एकाएक चले जाने से चिन्तित वीरभाण ने माता से सत्य वृतान्त ज्ञात किया और लोगों के समक्ष राणा के जाप में बैठने की प्रसिद्धि कर स्वयं राज काज चलाने लगा। लोगों को जव छः मास से भी अधिक बीत जाने पर राणा के दर्शन न हुए तो नाना प्रकार की आशंकाएँ उठ खड़ी हुई। इसी समय राणा रतनसेन दो हजार घोड़े, दो हजार हाथी एवं पालकियों के परिवार से परिवृत चित्तौड़ के निकट पहुंचा। पद्मिनी की स्वर्ण-कलशों वाली पालकी, मध्य मे सुशोभित थी। दूर से विस्तृत सेना आती हुई देखकर परदल की आशका से वीरभाण ने सैनिक तैयारी प्रारम्भ कर दी। इतने ही मे राणा का पत्र लेकर एक दूत राजमहल मे पहुँचा, सारा वृतान्त ज्ञात कर चित्तौड़ में सर्वत्र आनन्द छा गया और स्वागत के लिए जोर-शोर से तैयारियाँ होने लगी।
स्थान स्थान मे मोतियों से वधाते हुए, ध्वजा पताका सुशोभित उल्लासपूर्ण वातावरण मे महाराणा ने चित्तौड मे प्रवेश किया। रानी प्रभावती को राणाने अपनी प्रतिज्ञापूर्ण कर दिखा दी। राणाने पद्मिनी के लिए विशाल एवं सुन्दर महल प्रस्तुत किया, जिसमें वह अपनी सखियों के साथ आनन्दपूर्वक रहने लगी। महाराणा अहर्निश पद्मिनी के प्रेमपाश में बँधा हुआ
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"नाना क्रीडा, विलास में रत रहता था। एक बार 'राघव चेतन' 'नामक प्रकाण्ड विद्वान ब्राह्मण, जोकि महाराणा द्वारा सम्मानित होने के कारण वेरोकटोक महलों मे जाया करता था, पद्मिनी के महलमें जा पहुंचा। महाराणा अपने क्रीड़ा-विलास के समय उसे आया देखकर कुपित हो गए और असमय में व अनाहूत आने की मूर्खता पर बहुत सी खरी-खोटी सुनाई। धक्का देकर निकाल दिये जाने पर अपमानित व्यास राघव चेतन शीघ्र ही चित्तौड़ त्यागकर दिल्ली चला गया। थोड़े दिनो मे उसकी विद्वता की प्रसिद्धि शाही-दरबार तक पहुंच गई। सुलतान अलाउद्दीन ने उसे दरबार में बुलाया और प्रसन्न होकर पाँचसौ गाँव देकर अपना दरबारी वना लिया।
राघव चेतन ने राणा से प्रतिशोध लेने के लिए एक भाट और खोजे से घनिष्टता कर ली। राघवचेतन ने उसे किसी प्रकार पद्मिनी स्त्री की वात छेडने के लिए कहा, तो भाट राजहस की पाँख लेकर दरवार मे आया और सुलतान के किसी अनोखी वस्तु की वात पूछने पर पद्मिनी स्त्री के सौन्दर्य व सुकुमारता की प्रशंसा की। सुलतान ने कहा कि तुमने कहीं पद्मिनी देखी सुनी हो तो कहो! भाट ने कहा-श्रीमान् के 'महल मे हजार स्त्रियाँ है जिनमें कोई अवश्य होगी। खोजे ने कहा कि रावण की लका में पदमिनी खी सुनी गई थी और तो कहीं भी संसार मे नहीं है। यहाँ तो सव सखिनी स्त्रियाँ है। भाट-खोजे के विवाद मे सुलतान ने रस लिया और पूछा
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क्यो वे, हमारे महल मे सभा सखिनी है ? पद्मिनी एक भी नहीं ? खोजे ने कहा-यह तो लक्षण, भेदादि के शास्त्र-मर्मज्ञ राघवचेतन ही वतला सकते है ! सुलतान के पूछने पर व्यास ने चारों प्रकार की स्त्रियों के गुण-लक्षणादि विस्तार से समझाये। सुलतान ने अपने महल की स्त्रियों की परीक्षा कर पद्मिनी जाति की स्त्री बताने की आज्ञा दी और उनका प्रतिबिंब देखने के लिए मणिगृह का आयोजन किया। राघवचेतनने सवको देखकर कहा कि आपके महल मे एक एक से बढ़कर रूपवती हस्तिनी, चित्रणी तो है, पर पदमिनी स्त्री एक भी नहीं है।
सुलतान ने कहा--विना पदमिनी स्त्री के मेरा जीवन ही वृथा है, पद्मिनी स्त्री कहाँ मिलेगी ? व्यास ! मुझे बतलाओ! राघव चेतन ने कहा-सिंघलद्वीप मे पद्मिनी स्त्रियाँ होती है। तो सुलतानने १६ हजार हाथी और २७ लाख अश्वारोही सेना के साथ सिंहलद्वीप की ओर प्रस्थान कर दिया। समुद्र-तट पर पहुंचने पर हठी सुलतान ने सिंहलपति पर आक्रमण करके गिरफ्तार करने की आज्ञा दी। सुभट लोग नौकाओं में वैठ कर दरिया के बीच गए तो भँवरजाल में पड़कर वाहण टूट-फट गए। सुलतान ने कुपित होकर और सुभटों को भेजने की आज्ञा दी। उसे केवल एक ही धुन थी कि लाखों सेना भले ही समुद्र में समाप्त हो जाय, पर सिंहलपति को अवश्य हराकर पदमिनी प्राप्त की जाय। सुभटों ने राघव चेतन से कहा
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किसी प्रकार सुलतान को लौटाने की युक्ति सोचो, अन्यथा बेकार लाखो की प्राणाहुति हो जायगी। राघव चेतन की सलाह से ५०० हाथी ५००० घोड़, करोड़ दीनार एवं नाना प्रकार की भेंट वस्तुएँ प्रस्तुत कर अज्ञात व्यक्तियों द्वारा वाहनों मे भरकर प्रात:काल होने से पूर्व ही समुद्र मे उपस्थित कर दिये
और उन्हें सिंहलपति के प्रधान लोग दण्ड स्वरूप लाये हैं, बतला कर विनय वचनों से सुलतान को समझाकर सुलह करा दी। सुलतान ने सिंहलपति की कथित भेंट स्वीकार कर उनके प्रतिनिधियों को सिरोपाव देकर लौटा दिया और सिंहल से आई हुई भेंट को अपनी सेना मे बाँट कर दिल्ली की ओर लौटने का आदेश दे दिया।
जब सुलतान दिल्ली आये, तो बडी बेगम ने कहा-आप कैसी पद्मिनी लाए है, हमे भी दिखाइये। सुलतान के मन मे फिर पद्मिनी प्राप्त करने की तमन्ना जग उठी और राघवचेतन से कहा-सिंघलद्वीप के सिवा और कहीं पद्मिनी स्त्री हो तो बतलाओ । राघव चेतन ने कहा-चित्तौड़ के राणा रतनसेन के यहाँ पद्मिनी अवश्य है, पर शेषनाग की मणि को कौन ग्रहण कर सकता है ? सुलतान ने अभिमान पूर्वक बड़ी भारी सेना तय्यार कर चित्तौड पर चढ़ाई कर दी। राणा की सेना ने सुलतान के साथ वडी वीरता से युद्ध किया और उसके सारे प्रयत्न विफल कर दिये । सुलतान ने सफलता पाने के लिए गुप्त छल करने का निश्चय करके अपने प्रधान पुरुषों को सुलह करने
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( ५० ) के लिए राणा के पास भेजा। उन्होंने राणा से कहा-सुलतान चाहते है कि अपने परस्पर प्रीति की वृद्धि हो। अतः वे गढ़ देखकर, पद्मिनी के दर्शन व उसके हाथ से भोजन कर विना किसी प्रकार के दण्ड, भेंट लिए वापस दिल्ली लौट जायेंगे। राणा रतनसेन कपटी सुलतान की मीठी बातों के चक्कर में आ गया और सुलतान के अधिकारियों के सुस-प्रतित्रा पूर्वक कहने पर उसने थोड़े लश्कर के साथ चित्तौड़ दिखा कर गोठ जिमाने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।
सुलतान अलाउद्दीन के पास व्यास राघव चेतन राणा के घर का पूरा भेदू था। उसकी मंत्रणा के अनुसार ही वह अपना कपट-चक्र संचालन करता था। सरल स्वभावी राणाने म त्रियों को स्वागत के लिए भेजकर सुलतान को बुलाया। गढ़ के द्वारा खोल दिये गए। सुलतान तीस हजार सैनिकों के साथ गढ़ में प्रविष्ट हो गया। इतने सैनिक देख राणा के मन में खटका हुआ और उसने अपनी सेना को तैयार होने का सकेत कर दिया। सुलतान के यह कहने पर कि क्यो सेना एकत्र करते हो, हम गढ़ देखकर लौट जावेंगे, तो राणा ने कहाअपने वचनों के विपरीत आप तीस हजार सवार क्यो लाये ? मेरी सेना के वीर इन्हे क्षण मात्र मे पीस डालेंगे। सुलतान ने छलपूर्वक कहा-राणा | आप सदेह क्यों करते हो। मेहमान थोड़े हों या अधिक, आ जावें उनका तो सत्कार करना ही चाहिए। आज तो खाद्यपदार्थ सस्ते है,सुकाल है, यदि भोजन
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( ५१ ) व्यय का विचार आता हो तो हम लौटे चलें । राणा ने कहाभोजन के लिए ऐसी क्या बात है, तुन्छ वात न कहें, इससे दुगुने हों तो भी खान पान की कमी नहीं। इस प्रकार दोनों मेल-जोल से बातें करते महलों मे आये । राणा ने शाही भोजन के लिए बडी भारी तय्यारी की। राणा ने जब पद्मिनी को आज्ञा दी कि वह सुलतान को परोसे | तो उसने अपने जैसी ही रूप रंगवाली दासी को इस कार्य के लिए नियुक्त कर दिया। राणा के सजे हुए मंडप मे सुलतान को पद्मिनी की दासी ने नाना वेश परिवर्तन कर विविध व्यंजन परोसे। सुलतान उसकी रूप-माधुरी से विह्वल होकर कहने लगा-राणा के घर मे तो इतनी पद्मिनिया है, और मेरे यहा एक भी नहीं तव मेरी बादशाही में क्या रखा है। राघव चेतन ने कहा-यह तो पद्मिनी की दासी है | पद्मिनी तो ऊँचे महलों के समृद्ध कक्ष में रहती है, उसके तो दर्शन ही दुर्लभ है । इतने ही में पद्मिनी ने सहज भाव से शाही भोजन-समारोह को देखने के लिए रत्नजडित गवाक्ष की जाली में से झाँका। राघव चेतन ने संकेत से पदमिनी को दिखाया और रूप मुग्ध सुलतान को विह्वल और मूर्छित होते देख, उसे किसी युक्ति से प्राप्त करने की आशा देकर आश्वस्त किया।
भोजनान्तर राणा ने सुलतान को हाथी, घोड़े, वस्त्राभरण भेंट कर परस्पर हाथ मिलाये हुए चित्तौड़ दुर्ग मे घूम घूम कर सारे विषम घाट-स्थान दिखलाए। सुलतान ने राणा से मा
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( ५२ ) जाये भाई के सदृश प्रेम प्रदर्शित करते हुए विदा मागी और हाथ पकड़े पकड़े प्रेमालाप पूर्वक पहुंचाने के बहाने वह उसे गढ के बाहर तक ले आया और राघव चेतन की सलाह से सुभटों द्वारा राणा को कब्जे कर गिरफ्तार कर लिया। राणा के साथ मे जो थोड़े बहुत सुभट थे वे हक्के बक्के और किंकर्तव्य विमूढ हो गए। राणा के हाथ पैर मे वेडी डाल दी गई। गढ मे यह खबर पहुंचने पर सुभटों के बीच बैठकर वीरमाण अपना कर्तव्य स्थिर करने के लिए विचार विर्मश करने लगा। इतने ही मे दो शाही दूत आये और उन्होंने यह शाही सन्देश सुनाया कि-सुलतान पद्मिनी को प्राप्त करके ही राणा को मुक्त कर सकता है, उसे और किसी वस्तु की वाला नहीं है ! यदि आप लोग पद्मिनी को नहीं दोगे, तो शाही सेना द्वारा दर्ग को चूर कर राज्य छीन लिया जायगा । वीरभाण ने सोचविचार कर प्रातः काल उत्तर देने का कह कर दूतो को विदा। किया।
वीरभाण ने सुभटों से नाना विचार विमर्श कर निश्चय किया कि पद्मिनी को देकर राणा को छुड़ा लेना ही श्रेयस्कर है ! निर्नायक सुभट निरुपाय होकर सत्वहीन हो गए। वीरभाण के हृदय में अपनी माता के सौभाग्य उतारने में कारणभूत पद्मिनी के प्रति सद्भाव की न्यूनता थी ही। अतः पद्मिनी के लिए अपना रास्ता स्वयं निर्धारित करने के सिवा और कोई चारा नहीं रहा । वह अपनी शीलरक्षा के लिए प्राणों
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( ५३ ) की आहूति देने के लिए प्रस्तुत थी ही, पर किसी युक्ति से राणा भी मुक्त हो जाय और उसे भी तुकों के कब्जे में न जाना पडे, ऐसा उपाय सोचने लगी।
पद्मिनी ने सुना था कि गोरा वादल नामक वीर काकाभतीजा किसी वात पर राणा से नाराज होकर घर जा बैठे है
और उन्होंने ग्रास-गोठ को भी त्याग दिया है। वे चित्तौड़ त्याग कर काम-काज के लिए अन्यत्र जाने को प्रस्तुत हो रहे
थे, उसी समय अचानक शाही आक्रमण हो गया, अतः उन्होंने चित्तौड़ छोडना स्थगित कर दिया है। अपने गाँठ का खर्च खाकर वे घर पर बैठे हुए है, (खेद है) ऐसे आत्माभिमानी वीरों को कोई नहीं पूछता। अतः उपस्थित समस्या का न्यायपूर्वक हल भी कैसे हो ? पद्मिनी उनके शौर्य की प्रसिद्धि से प्रभावित हो चकडोल पर बैठकर म्वयं वीर गोरा के घर गई। गोरा ने उसका स्वागत करते हुए कहा-माताजी! आज मेरे घर पधार कर आपने बडी कृपा की, घर बैठे गगा प्रवाह आने से मैं पवित्र हो गया, मेरे योग्य जो काम सेवा हो उसे फरमाइये ! पद्मिनी ने दुःख भरे शब्दों में कहा-क्या करूं? ऐसे विकट समय में सुभटों ने क्षत्रवट खो कर मुझे तुर्कों के यहाँ भेजना स्वीकार कर लिया है,अब मुझे एकमात्र आपका ही भरोसा है, मैं इसी हेतु आपके पास आई हूँ ! गोरा ने कहा-माताजी ! हमें कौन पूछता है ? हम तो अपनी गांठ का खर्च खाकर घर में बैठे हैं, पर आपने हमारे घर को चरण-धूलि से पवित्र कर
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( ५६ ) और वह बादल की बात को सर्वथा सत्य मानकर गारूडी मन्त्र-प्रभावित साप की भांति पूर्णतया उसके अधीन हो गया। सुलतान ने कहा-मेरी लाज तुम्हारे हाथ है, वादल । जिस किसी प्रकार से सुभटों को समझा-बुझाकर पद्मिनी को मर पास भेजने में उन्हें सहमत कर लो। सुलतान ने बादल को सिरोपाव सहित लाख स्वर्णमुद्राएं देते हुए कहा कि काम वन जाने पर तुम देखना, मैं तुम्हारी कितनी इज्जत बढ़ाऊंगा। सुलतान ने पदमिनी को प्रेम-पत्र भेजना चाहा तो वादल न कहा-पत्र किसी अन्य व्यक्ति के हाथ लग जाने से ठीक नहीं। अतः मैं आपके सारे समाचार मौखिक ही सुनाऊंगा। इस प्रकार बादल ने मीठे वचनों से सुलतान को प्रसन्न कर विदा ली, सुलतान उसे पोलि द्वार तक पहुंचाने आया। बादल जब प्रचुर धन राशि लेकर घर लोटा तो माता व स्त्री को अत्यन्त प्रसन्नता हुई। गोराजी ने कहा-बादल अवश्य ही अपने काम में सफल होगा। पदामिनी को भी अपने पतिमिलन का विश्वास हो गया। सब लोग उसके बुद्धिचातुय्ये से हर्प विभोर हो गए।
बादल ने राज-सभा में जाकर गुप्त मन्त्रणा की आ किया कि दो हनार सुन्दर चकडोल जरी के वस्त्र अरिख कलश मंडित तैयार हों, और प्रत्येक में दो दो शखधारा सन्नद्ध बद्ध रहें। बीच की प्रधान पालकी में गोराजी को बिका कर पदमिनी के रूप मे उनका परिचय दिया
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( ५७ ) से इस प्रकार वेष्टित किया जाय कि मानों पद्मिनी के सौरभ से आकृष्ट भ्रमर-गुजार से बचने के लिए ही ऐसा किया गया हो! सुभटों वाली पालकियों में पद्मिनी की सखियाँ है ऐसा "प्रचारित किया जाय। गढ़ से लेकर सेना पर्यन्त इस प्रकार 'पालकियाँ आयोजित हों कि उनकी कड़ी सी जड़ जाय। इस सारे काम को सम्पन्न करने में कुछ विलम्ब करना इधर मैं सुलतान के पास जाकर पहले राणाजी को छुड़ा ल उसके बाद धात किया जायगा ! इस प्रकार बादल अपनी सारी योजना समझा कर सुलतान के पास गया। सुलतान हर्षपूर्वक उससे मिला और पूछने लगा कि काम बनाया कि नहीं ? बादल ने कहा-किसी प्रकार समझा-बुझाकर पद्मिनी को सखियों के परिवार सहित लाया हूँ, सारी पालकियाँ गढ से उतर कर आ ही रही है । पर सब लोग इस बात से शंकित है कहीं राणा भी न छूटे और रानी भी चली जाय। अतः उनके आश्वस्त होने के लिए आपकी सेना का यहा से प्रयाण हो जाना आवश्यक है । यदि आपको भय हो तो पाच हजार सेना अपने पास रख सकते हैं । पद्मिनी से मिलनोत्सुक सुलतान ने कहा-मैं भला किससे डरू? जगत मेरे से भय खाता है। तुमने भी बादल, चतुर होते हुए यह खूब कही! उसने तुरंत चार हजार सुभटों को छोड़कर बाकी समस्त सेना को तुरन्त कूच करने की आज्ञा दे दी।
सुलतान ने पुनः बादल को सिरोपाव पूर्वक लाख स्वर्ण
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दिया तो अब किसी प्रकार का भय न लाकर निश्चिन्त रहें ! आप जैसी रानी को देकर राजा को छुड़ाने का घटिया दाव खेलने से तो मर जाना ही श्रेयष्कर है। रानी ने कहा-इस तुच्छ वुद्धि के धनी तो राजा की तरह गढ को भी खो बैठेगे ! अतः इसीलिए मैं तुम्हारे शरण में आई हूँ। गोरा ने कहा(तो ठीक है) मेरा भाई गाजण बड़ा भारी शूर वीर था, उसके पुत्र वादल से भी चल कर सलाह कर ली जाय।
गोरा और पद्मिनी, वादल के यहा गए। उसने सविनय जुहार करते हुए आने का कारण पूछा। गोरा ने सारा वृतान्त बताते हुए कहा कि-अपन दो व्यक्ति किस प्रकार शाही सेना को शिकस्त दें। पद्मिनी ने कहा भैया मैं तुम्हारे शरणागत हूँ, यदि बचा सको तो बोलो, अन्यथा एक वार मरना तो है ही, में हर हालत में अपनी शील रक्षा तो करूंगी ही। पद्मिनी की प्रेरणा दायक बातें सुनकर बादल ने तत्काल राणा को छुडा लाने की प्रतिज्ञा की। पद्मिनी कृत-कार्य होकर अपने महल लौटी। बादल की माता और स्त्री ने उसे इस दुस्साहसपूर्ण प्रतिज्ञा से विचलित करने के लिये नाना मोह जाल फैलाया पर उस दृढ़-प्रतिज्ञ बादल को विचलित करना तो दूर, उलटे वीरोचित प्रेरणा उत्साह दिला कर अपने हाथों हथियार बँधा कर विदा करना पड़ा। वह काका गोरा के पास अश्वारूढ़ होकर कार्यक्षेत्र मे उतरने की आज्ञा माँगने के लिए गया। जब गोरा ने उसे अकेले न जाने का कहा तो बादल ने उसे
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यह कहकर आश्वस्त किया कि युद्ध में अपने दोनों साथ चलेंगे, अभी तो मैं केवल चास-भाष देखकर आता हूँ। ___ वादल तत्काल मेवाड़ी सुभटों की सभा में पहुंचा। उसे अचानक आये देखकर सब लोगों ने खडे होकर सम्मान प्रदशिन किया। वीरभाण कुमार आदि से खब विचार-विमर्श करने के अनन्तर वह अकेला अश्वारूढ़ होकर शाही सेना की खबर लेने के लिए चल पड़ा। सुलतान ने जब अकेले बादल को आते देखा तो चमत्कृत होकर सम्मानपूर्वक उसे अपने पास बुलाया। वादल ने कहा मै पद्मिनी का भेजा हुआ आया हूँ। अपना पूरा परिचय देते हुए उसने कहा-पद्मिनी ने जव से आपको देखा है, आपसे मिलने के लिए तडफ रही है, वह उस घडी की प्रतीक्षा मे है, जब आप से उनका मिलना होगा। यह लीजिये उसने मुझे आपको देने के लिए चिट्ठी भी दी है, जिसमे अपनी आतरिक अवस्था और विरह गाथा यत्किञ्चित प्रदर्शित की है। आपका संदेश जब पद्मिनी को आपके यहाँ भेजने के लिये गढ़ मे पहुंचा तो सुभटों ने तो मरने मारने की तैयारी कर ली, पर मैं किसी प्रकार कुँवर वीरभाण व सुभटों को समझा-बुझाकर आया हूँ और आशा करता हूँ कि आपका व पद्मिनी का मनोरथ पूर्ण करने मे मुझे अवश्य सफलता मिलेगी। __ बादल के प्रस्तुत किये नकली प्रेमपत्र को पढ़कर सुलतान पानी-पानी हो गया। उसके हृदय पर इसका सीधा असर हुआ
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मुद्राएँ दीं। वह सारा धन घर मे रख आया और सुभों को सारे संकेत समझाकर सुखपाल के आगे आगे स्वयं चलने लगा। बादल को देखकर सुलतान ने उसे अपने पास बुलाया। सयोग की बात थी कि राघवचेतन बडा भारी बुद्धिमान था, पर स्वामिद्रोह के पाप के कारण उसकी बुद्धि पर पत्थर पड़ गये, अस्तु । बादल ने निवेदन किया-पद्मिनी ने सदेश भेजा है कि आपकी सब रानियों मे मुझे पटरानी स्थापित करना होगा। सुलतान के सहर्ष स्वीकार करने पर वह वारबार स्वर्णकलश वाली तथा कथित पद्मिनी के पालकी और सुलतान के बीच सदेश लाने के बहाने फिरने लगा। उसने कहा-पद्मिनी ने कहलाया है कि हमे आते-आते बहुत देर हो गई, अब कृपाकर राणाजी से एक बार अंतिम मिलन का अवसर दें, क्योंकि लोक व्यवहार मे मै उनके साथ व्याही गई थी, तो दो बात कर, उनसे अन्तिम विदा तो ले आऊँ ! सुलतान को पद्मिनी का यह शिष्टाचार योग्य लगा और उसने तत्काल राणा रतनसेन को बन्धन मुक्त कर देने का आदेश दे दिया। जब यह शाही आज्ञा लेकर बादल राणा के पास गया तो राणा ने कुपित होकर बादल से कहा-धिक्कार. हो वादल! तुमने क्षत्रियत्व को लजाने वाला यह क्या सौदा किया ? स्वामीद्रोह करने के साथसाथ तुमने सदा के लिये मेरे. कुल मे भी कलक लगा दिया ! बादल ने कहा-चिन्ता न करें, यह खेल दूसरा है, आपके भाग्य से सब अच्छा ही होगा।
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इन वचनों से राणा मन ही मन सब कुछ समझ गया । सुलतान ने उसे पद्मिनी को जल्दी विदा देने की आज्ञा दी। राणा पालकियों के बीच में से वादल के संकेतानुसार तीर की तरह निकलता हुआ तुरन्त गढ़ में जा पहुंचा। उसके सकुशल पहुँचने के उपलक्ष मे संकेतानुसार जंगी नगारे निसाण वजा दिये गये। चित्तौड़ गढ़ मे राणा के पहुंचने से सर्वत्र हर्ष उल्लास. छा गया।
जव गढ मे नौवत बजते हुए सुने तो गोरा बादल ने समस्त सन्नद्धवद्ध सुभटों के साथ शाही सेना मे मार काट मचा दी। विस्तृत शाही सेना तो पहले ही कूच कर कोशों दूर पहुंच चुकी थी। अतः जो चार हजार सुभट सुलतान के पास थे, गोरा और बादल ने घमासान युद्ध करके उनका सफाया कर डाला। अन्त में गोरा ने जब सुलतान पर आक्रमण किया तो वह भागने लगा। यह देख बादल ने कहा-काकाजी इस कायर निर्वल को छोड दो। भगते पर वार करना क्षात्र धर्म के विपरीत है। किले पर खड़े राणा आदि सभी लोग गोरा के वीरत्व की भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे थे।
इस युद्ध मे गोराजी काम आये, बादल ने सुलतान को जीवित छोड़ कर शाही लश्कर को लूट लिया। दो दिन के . वाद सुलतान एक खवास के साथ मारा माग फिरता नमान के समय लश्कर के निकट पहुंचा। खवास के खवर करने पर अमीर उमराव आकर सुलतान से मिले। उसे भूखा प्यासा
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__ और वेहाल देखकर उन लोगों ने पूछा कि अपना कटक और ___ पद्मिनी आदि सब कहाँ रह गये ? सुलतान ने कहा-बादल
ने हमारे से धोखा किया, पद्मिनी के भरोसे आई हूई पालकियों में से सुभट कूद पड़े और हमारे लश्कर को समाप्त कर डाला। मैं तो रहमान की कृपा से बड़ी मुश्किल से बच पाया हूँ। मैं वस्तुतः पद्मिनी के मोहजाल में भ्रान्त हो गया था, अन्यथा हिन्दू लोगों की मेरे सामने क्या बिसात थी। इसके वाद सुलतान अपने लश्कर के साथ दिल्ली चला गया। जब वेगमों ने सुलतान से पद्मिनी दिखाने की प्रार्थना की तो उसने कहा - पद्मिनी का मुंह काला किया, खुदा की दुआ से खरियत हुई। सुलतान की बेगमे खमा | खमा! करने लगी, माता ने कहा-स्त्री के कारण रावण जैसों का राज गया, अब तो खुदा का ध्यान करते हुए आनन्द से राज करो।
सुलतान के भगने पर रणक्षेत्र शोधकर वादल चित्तौड दुर्ग में प्रविष्ट हुआ राणा ने उसे हाथी पर बैठाकर छत्र ढलाते हुए गढ़ में लाकर नाना प्रकार से सन्मानित किया। पद्मिनी ने आशीर्वाद की झड़ियाँ लगा दी। उसे तिलक करके मोतियों से वधाते हुए पद्मिनी ने उसे अपना भाई करके माना। क्या घरो मे और क्या वाजार मे सर्वत्र वादल के यशोगान किये जा रहे थे। माता ने वादल को चिरजीवी होने का आशीर्वाद दिया और स्त्रियों ने धवल मंगलपूर्वक हर्ष व्यक्त किया। काकी ने पूछा तुम्हारे काका ने किस प्रकार शत्रुओं से लोहा
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(
१
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लिया । बादल ने कहा-माता | काकाजी की वीरता का कहाँ तक वर्णन करूं। उन्होंने तो शत्रुसेना का इतना सफाया किया कि मात्र सुलतान अकेला किसी प्रकार बच पाया। काकाजी का शरीर इस महायुद्ध में तिल तिल-सा छिद्रित हो गया और वे स्वर्गपुरी के मेहमान हो गये। उन्होंने गढ की लज्जा रखी और अपने वंशको उज्वल किया।
पति की वीरता का बखान सुनकर गोरा की स्त्री के रोमरोम में वीरत्व छा गया और वह पतिपरायणा सतवती सत मे अभिभूत होकर वादल से कहने लगी-बेटा | ठाकुर स्वर्ग में अकेले हैं और विलम्ब होने से अन्तर परता जा रहा है । अतः अव काकी को शीघ्र ही ठिकाने लगाओ। बादल ने काकी के सत्त की प्रशंसा की। वह सुसज्जित होकर अश्वारूढ़ हुई और राम-राम उच्चारण करते हुए (गोरा के शव के साथ ) अग्निप्रवेश कर गई।
बादल ने अपने बुद्धिबल, स्वामिभक्ति और शौर्य के बल पर राणा को छुडाया, दिल्लीपति को जीता और पद्मिनी की रक्षा की। उसका यश नवखण्ड मे फैला। इस तरह पद्मिनी के शील-प्रभाव और बादल के सानिध्य से रत्नसेन राणा निर्भय राज्य करने लगे। ___ इसके बाद कवि लब्धोदय पद्मिनी चरित्र को सुखान्त समाप्त करता है और प्रशस्ति मे अपनी गुरु परम्परा, वर्तमान आचार्य तथा राणा जगतसिंह की माता जबूवती के प्रधान
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( ६२ )
कटारिया मंत्री भागचद-जो इस रचना के प्रेरक थे-के वश का परिचय देता है। अलाउद्दीन के पुनराक्रमण और पद्मिनी के जौहर की घटनाओं के सम्बन्ध में लब्धोदय तथा दूसरे सभी कवि मौन है।
मलिक मुहमद जायसी के 'पद्मावत' में लिखा है कि । राणा को सुलतान अलाउद्दीन गिरफ्तार कर दिल्ली ले गया था पर जटमल प्रतिदिन गढ़ के नीचे राणा को लाकर उसके कोड़े मरवाने का उल्लेख करता है। तथा लब्धोदय आदि ने भी स्पष्ट लिखा है कि राणा को शाही शिविर मे कैद किया गया था, और छुडा कर लाने की सारी घटनाएँ और संकेत इसी बात को पुष्ट करते है। नाभिनंदनोद्धार प्रबन्ध ( रचना सं० १३७३ ) मे श्री कक्कसूरि चित्रकूटपति को पकड कर गले मे रस्सी बाँध कर नगर नगर मे घुमाने का उल्लेख करते हैं जो चित्रकूट से अन्यत्र गमन के पक्ष में है। संभव हैं यह घटना पुनराक्रमण से सम्बन्धित हो। ऐतिहासिक तथ्यों को शोध कर प्रकाश मे लाना विद्वानों का काम है।
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पनिनी चरित्र चौपई
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पद्मिनी चरित्र चौपई
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पद्मिनी महल, चित्तौड
(फोटो-सार्वजनिक संपर्क विभाग-राजस्थान]
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कवि लब्धोदय कृत कझिनी चरित्र चौबई
प्रथम खण्ड मंगलाचरण
दोहा श्री आदीसर प्रथम जिन, जगपति ज्योति सरूप । निरभय' पद वासी नमुं, अकल अनंत अनूप ॥१॥ चरण कमल चितस्युं नमुं, चउवीसम जिणचंद । सुखदायक सेवक भणी, साचो सुरतरु कद ।। २॥ सुप्रसन सामणि सारदा, होयो मात हजूर । वुद्धि दियों मुम ने बहुत, प्रगट वचन पंडूर ।।३।। ज्ञाता दाता दान धन, 'ज्ञानराज' गुरुराज । तास प्रसाद थकी कहुं, सती चरित सिरताज ॥४॥
कथा-प्रसङ्ग गौरा वादल अति सगुण सूर वीर सिरदार । चित्रकूट कीधो चरित, स्वामीधर्म साधार ॥५॥ सरस कथा नवरस सहित, वीर शृंगार विशेप। कहस्यु कवित कल्लोल स्यु, पूरव कथा संपेख ।। ६ ।। पदमणी पाल्यो शीलव्रत, वादल गौरा वीर। शील वीर गावत सदा, खाड मिली घृत खीर ॥ ७॥ १-निरमय २ हुइज्यो ३ ज्ञानधर ४ गुणी
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[ पद्मिनी चरित्र चौपई ढाल १-चउपई नी, राग रामगिरी
चित्तौड़-वर्णन देश बडो 'मेवाड' दयाल, प्रारथिया दुखिया प्रतिपाल । 'चित्रकूट' तिहा चावो अछ, पहोवी गढ बोजा तमु पर्छ ।।१।। गावै मीठे सुर गंधर्व, सुरनर किन्नर देखे सर्व । तापस तीर्थ तिहा अति कडा, राम जिहा वनवासे रह्या ||२|| अंचो गढ लागो आकास, हर मूल्यो जाण्यो कविलास । हर राणी तव कीधोहास, हिम' गढ चढ़ीयो हेमाचल पास ||३|| वले अति बाको छै गढ घणो, ऊंची पोलि अनैं सोहामणो। कोसीसा जे ऊचा कीया, गयण आलंवन थाभा दिया ॥४॥ वह नदी सीमा विस्तार, कूप सरोवर' वावि अपार । गौमुखकुंड प्रमुख बहुकुंड, पाणी जास पीई पट खंड ॥२॥ संचा वस्त अनेको तणा, का न रहइ मननी कामिणा । ऊ चा तोरण महल अनेक, एक-एक थी अघिका एक ॥६॥ सोवन दण्ड धजा करि सोहता, मनड़उ भविक तणा मोहता। दीपै तिहा जिन शिव देहरा, मोटा सिहर सरद मेहरा ॥५॥ वारू चउरासी बाजार, हुँसी बैठा हारो हार । राज महल अति रलीयामणा, पुण्य बिना ते नहिं पावणा ||८|| च्यारे वर्ण वसइ अति चंग, पवन अढारे मन में रंग। माणिकचउक न लहैं माग, वन वाड़ी फल फूल्या वाग ।।६।।
१ इम २ रच्यौं ३ वलय तीन ४ चित्रा ५ कूवा सरवर
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[३
पद्मिनी चरित्र चौपई ] इन्द्रपुरी जाणे अवतरी, कोडीधज लोके करि भरी। नगर वर्णनो नावे पार, देव रचई ए गढ सार ॥१०॥ चतुर सुणयो देइ नई चित्त, गुर मुख ढाल अरथ सुपवित्त । 'लब्धोदय' कहै पहली ढाल, आगइ सुणता अछे रसाल ||११||
[सर्व गाथा १८ ] राजा वर्णन
दोहा
सूर वीर अति साहसी, सब राई मइ सिरमौर । 'रतनसेन' राणो तिहां, जा सम भूप न और ॥ १ ॥ जाकइ तेज प्रताप थई, दुरजन भागे सब दूर। अंधकार कैसे रहइ, उदइ होइ जीहा सूर ।।३॥ अविचल आज्ञा अवनि परि,न्याय निपुण निरभीक । अरिगज भंजन केसरी, राखे खत्रीवट लीक ।। ३ ।। मानी मरदाना वली, दरबारइ दोय लाख । सुभट खड़ा सेवा करई, सुरपति वदइ ज्युं साख ॥४॥
ह्य गय रथ पायक हसम, करि न सके कोउ मान । रयण द्युस ठाढइ रहे, सनमुख सव राय राण ॥५॥
पटराज्ञी वर्णन पटराणी 'परभावती', रूपे रम्भ समान ।
देखत सुरनर किन्नरी, अइसी नारि न आन ।। ६॥ १ नीमीयो २ अरिजन गये ज दूर
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४]
[ पद्मिनी चरित्र चौपई
चंदवदन गजराज गति, पनग वेणि मृग नयण । कटि लचकनीकुच भार तई, रति अपछर हई अयन ॥७॥
ढाल २ योगिना रा गीतनी राग-मल्हार राणी अवर राजा तणें जी, रूप निधान अनेक । पिण मनडो परभावती जी, रंज्यो करीय विवेक । राजेसर ॥१॥ चतुराई चित दीध, राजेसर, मन मोती गुण वींध ॥रा० च०।। सतर भक्ष भोजन समें जी, नित-नित नवली' भाति । रा० व्यंजन रूड़ी विध करइजी, खाता उपजें खाति । रा० ॥२॥ चा रूपवंत नइ रागणी जी, गुणवंती गज गेलि राण मन राजा रो मोहीयो जी, सोक्या सहुइ ठेलि । रा०॥३॥चा भोजन तो परभावती जी, हाथ परुसइ हूँस ।रा वीजी राणी वारण जी, सहजें जावा सुंस ।रा०॥४॥ च० ॥ माहो माही मोहस्यु जी, रति सुख माणइ राय । स० । खिण एक विरह नवी खमइ जी, दीठा दोलति थायराशाच०॥ पालइ राम तणी परइ जी, न्यायइं राज नरेस । रा० आप भुजा अरीअण हण्या जी, सरद कीया सहुदेस ॥६॥च०॥
राजकुमार वर्णन जनम्यो पुत्र महाजसी जी, प्रतापी पुण्यवंत । रा० 'वीरभाण' वखते बड़ो जी, दिन दिन अधिक दीपंतापाच॥
१ नव नव
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पद्मिनी चरित्र चौपई]
[५
__ भोजन प्रसंग एकण दिन भोजन समई जी, दासी वोलैं राज । रा० पीउ पधारो भोजन समई जी, ठाढो होवै नाज ॥रा०८|च०॥ सिंहासन सोवन तणो जी, आवै बैठा राज ।रा रतन जड़ित थाली वड़ी जी, कनक कचोला बाज' रा०||१|च०॥ रुडी परई परुसई रसवती जी, राजा जीमइ राग ।रा। खाटा मीठा चरपरा जी, सखर वणाया साग ।रा०॥१०॥चा कदली दल हाथै करी जी, ढोले सीतल वाय रा०॥ विचि विचि मीठी वातडी जी, जोमता घणो जीमाय।।१शाच॥ मोसा दोसा मसकरी जी, हास, वीनती तेहरा कहिवो हुवे ते सहु कइइ जी, भोजन अवसर जेह ।।१२।०॥ जीमता रूडी जुगति स्युं जी, कहि राजा किण हेतरा स्वाद रहित सव रसवती जी, का न करो चित चेत ।।१३।।च॥ आजकालिए रसवती जी, निपट करो निसवाद राण कहि चतुराइ किहा गइ जी, के पकस्यो परमाद ॥१४॥चा तव तटकी बोली तिसई जी, राणी मन धरि रोस ।रा राणी आणो का नवी जी, द्यो मति मुझनै दोस।।१शाचा म्हे केलवि जाणा नहीं जी, किसो अ करीजें वाद राण पदमणि का परणो नवी जी, जिम भोजन हुवे स्वाद ॥१६॥च०॥
१ साज २ नारी ३ झूठ
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[ पधिनी चरित्र चौपई
AchAAM
राजा गुरु स्त्री आगि नो जी, नवि कीजें आसग ।राण 'लव्धोदय' इण परि कहें जी, वीजी ढाल सुरंग ॥१७ाच०॥
[सर्व गाथा ४२] पद्मिनी पाणिग्रहण प्रतिज्ञा
दोहा
रीसाणो उठ्यो तुरत, तजि भोजन तिण वार। राणो तो हुँ रतनसी, परशुं पदमणि नारि ॥१॥ मोसा तो बोल्या मुनें, जई मे राख्यो मान । हिवें परj तरुणी पदमणी, गालुं तुज्झ गुमान ।। २॥ मूरिख तें मुझ ने गण्यो, वचन कह्यो अविचार । जो पदमणि हाथे जीमस्युं, तो आयु तुझ बार ॥३॥ मान गहेली माननी, विरुअउ वोल्यो वयण । विण आदर न रहें कदे, सिंह सूर ने सयण ॥ ४॥
गाहा जणणी जण वंधू, भजा गेह धण च धन्नं च । अवि माणया पुरिसा देस दूरेण छंडंति ।। ५॥
दोहा कीधी परतज्ञा इसी, मन सेती महाराय । पदमणि परणु तो धरि रहुं, नहिं तो गिरि वनराय ॥३॥
१ सुचग
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पद्मिनी चरित्र चौपई ]
सिंहलद्वीप प्रस्थान
ढाल (३) राग-मारू केदारी, चाल करतासु तो प्रीति सहुँ हूँसी कर
इम चित विमासी राय, अश्व दोय घन भरया रे । अ० साथें एक खवास, छाना नीसत्वा रे । छा० ॥२॥ छल करि दोन्यु असवार कि, चाकर ने धणी रे। चा० जाता नवि जाणे कोइ कि, गया ते भूय घणी रे !! भू० ॥२॥ स्वामी कहूँ कारिज साच कि, सेवक इम भणे रे । से० अणजाण्यां आधि न सेठ कि, दोड्या किम वणे रे । दो० ॥३॥ विण गाम किंहा थी सीम कि, मेह विण वादलइ रे । मे० उखर नवि ऊगै अन्न कि, न खेती विण हलइ रे । न० ॥४॥ तिण हेतइं भाखो मुझ कि, गुझ हिरदै तणो रे । गु० कीजै तसु उपरि काज कि, विचारी आपणो रे। वि० ॥शा तब बोल्यो राजा एम कि, परणु पदमणी रे । प० आदरि करि करिहु उपाय कि, बात कहुँ सी घणी रे। वा०॥६॥ बोलें सेवक धन्न मो पास कि, असंख्य गाने घणो रे । अ० पिण नवि जाणुगृह गाम कि, ठाम पदमणि तणो रे । ठा॥७॥ थानिक जाणे विण मारग कि, कह्यो वूमया किण रे । क० । तरु तलि लीधो विश्राम कि, ते बेहु जणे रे। ते० ॥८॥
१ चिंतवि मन मई
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८]
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[ पद्मिनी चरित्र चौपई तिण बेला पंथी एक कि, भूख त्रिस भेदीयउ रे । भू० विण अमले गहिले देह कि, पंथ' अति देखियउ रे। पं018|| अटवी माहि माणस एक कि, जोता नवि जुड़यो रे। जो० तदि देख्यो राजा तेण कि, पगि आवी पड़यो रे । ५० ॥१०॥ कीधा सीतल उपचार कि, अमल पाणी दीयो रे । अ० भोजन सेवा वहु भाति कि, राय संतोपीयो रे । रा०॥११॥ पंथीक ने कोतिक वात कि, राय पूछे वली रे। रा० देख्यो ते पदमणी देश कि, किहा हि सांभली रे । कि० ॥१२॥ सुणि राजन सिंघलद्वीप कि, दक्षिण दिशि अछ रे । द० आडो वहै जलधि अथाह कि, पार जेहनो न छ रे । पा० ॥१३॥ विहा पदमणि नारि अनेक कि, रूपें अपछरी रे। रू० सुणि राजा देइ कान कि, सीख तिण सुं करी रे। सी० ॥ १४ ॥ मनिं आणिद्यो महाराय कि. दीप सिंघल भणी रे। दी० चालविया चपल तुरंग कि, पवन थी गति घणी रे। प० ॥१५॥ लाध्या गिर नगर निवाण कि, सूर अति साहसी रे । सू० दोन्यु आया दरिया तीर कि, मन मांहि अति खुशी रे म०॥१६॥ जगि पुण्य सहाइ जास कि, तास पूजें मन रली रे । ता० मुनि 'लब्धोदय' कहै एमकि, को न सके कली रे । को० ॥१७॥
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~
१ पंख २ खेदियर
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पद्मिनी चरित्र चौपई ]
[ह
समुद्र वर्णन
दोहा जल भरीयो दरीयो घणो, उछलता उद्धान । कल्लोले कल्लोले थी, उदक वध्यो असमान ॥ १ ॥ मच्छ कच्छ माहि घणा, न सकें जाय जीहाज । न चले जोरो नीरस्युं, कीज्ये किसो इलाज ॥२॥ चिंता मन भूपति चतुर, स्युं कीजै जगदीस । वेलि महा वीहामणी, पूजें केम जगीस ॥३॥ पदमणि स्यु पाणीग्रहण, विचि वारिधि अति क्रूर । ऊखाणो साचो हुओ, वाघ नदी जल पूर ॥४॥ गुड़ मीठो ऊंडी नदी, आय मिल्यो ए न्याय । हिकमति सी वीजी हिवे, कीजें कोउ उपाय ॥५॥
योगी मिलन जावई आघो जेहवे, सेवक लीधो साथ । जोग पंथ साधइ जुगति, निरख्यो अउघडनाथ ॥ ६ ॥ काने मुद्रा कनक की, आसण चीता चर्म । लगाय विभूति तप जप करें, ते साधे शिव धर्म ॥७॥
৭ হাম
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१० ]
[पद्मिनी चरित्र चौपई ढाल (8)-सिहरा सिहर मधुपुरी रे, कुमरा नदकुमार रे एदेशी
राग-कालहरो
सिध साधक योगी भणी रे, जाय कीयो आदेश रे। वार वार वीनति करी रे, लागो पाय नरेश रे ॥१॥ वाल्हेसर सांमी, मानि न तु अंतस्यामी, मानि ने शिवगति गामी, वीनतड़ी मुझ मानो वा०॥ आकणी॥ मुझ मनि सिंघलद्वीप नी रे, पदमणि देखण चाह । तुझ परसादे सहु हस्ये रे, हिव मुझ सी परवाह रे वा० ॥२॥ विविध विनय वचने करी रे, सुप्रसन्न हुओ साम । आँखि उघाड़ी देखीयो रे, वोलायो ले नाम रे । वा०॥३॥ भूपति मन अचरिज थयो रे, किम जाण्यो मुमनाम । ए ज्ञानी आयस अछे रे, पूरवस्य मुझ हाम रे ।वा०४। जोगी जपे राणजी रे, तु आयो मुझ थान । कारिज थारो हुँ करुं रे, जो गुरु लागो कान रे ।
वाश ईम कही साही समरणी रे, हाथे वेऊ असवार रे। आयस अंवर ऊडीयो रे, लागी वार न लिगार रेवा०६
सिंहलद्वीप प्रवेश
सिंघलद्वीपे मूकि ने रे, आयस हूअउ अलोप रे। राना रो मन रंजीयो रे, देख्यो नगर अनोप रे ।। वाण
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पद्मिनी चरित्र चौपई ]
[११ पदमिनी दर्शन सोवन महल सोहामणा रे, इन्द्रपुरी अवतार । रतनजडित गोख भली रे, बैठी राजकुमार रेवा०८॥ साथै सखी रे झलरें रे, गज गति चालें गेल । चतुरा मनड़ो मोहती रे, साची मोहन वेलि रे ।वाला। थानिक थानिक नव नवा रे, नाटिक निरखें राय । हय गय हाट पटण घणा रे, जोता आघा जायरे ।वा॥१०॥
ढढेरा श्रवण नगर मध्य आया तिसें रे, ढंढेरा नो ढोल। राजा वाजा साभली रे, वोलै एहवा बोल रे ।वा०॥११॥ पष्टह छची नई पूछीयउ रे, ढोल वाजे किण काज । तव बोल्या चाकर तिके रे, वात सुणो महाराज रेवा०॥११॥ सिंहलद्वीप नो राजीयो रे, 'सिंघलसिंघ' समान । तास वहिन पदमणी रे, रूपें रभ समान रे।।वा०।१३।। । जोवन लहस्या जाय छे रे, परण नहिं ते वाल। परतिज्ञा जे पूरवे रे, तासु ठवे वरमाल रे वा॥१४॥ जीपें वाधव नई जिकोरे, ते परण भरतार । तिण कारण मुझ राजीयोरे, पडह दीयो तिण वार रेवा०॥१॥ 'रतनसेन' राजा कहै रे, हुं जीपू निरधार। मल्लाखाडे रण मुखें रे, रामति करण प्रकार रे ।वा०।१६।।
राजा मन आणंदीयो रे, रामति जीपें एह । . सुणि पंथी शत्रुजनी रे रामति जीपं जेह रे ।वा॥१७॥
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१२]
[पद्मिनी चरित्र चौपई
वाचा साची आपस्यु रे, आपु अति सनेह । अर्द्ध राज भंडार नो रे, भग्नीपति हुइ जेह रे ।वा०||१८|| राजा मन आणंदियो रे, रामति जी एह । 'लव्धोदय' कहै सदा रे, पुण्य सहाय तेह रेवावा१६||
क्रीड़ा विजय
दोहा 'रतनसेन' राजा कहे, पूछो सिंघल भूप । कओल थकी चके नहि, कीजें खेल अनूप ॥ १॥ सेवक जाइ विनम्यो, हरख्यो सिंघल राय । वोलावी बहु मानसु, वइठण दीधौ नाय ।। २।। रामति रमवा रंग स्यु, बैठा वेऊं आय। जाण सूर अनें ससी, मिलीया एकण ठाय ॥३॥ पासे वेठी पदमणी, कोमल कंचन काय । राणो रूड़ी विधि रमे, तिम तिम आवें दाय॥४॥ ए छे कोई राजवी, रूपवंत रति राज ।
जो जी किम ही करी, तू तोठो महाराज ॥५॥ ढाल (५) दु ढणीया री मेवाडी देशी, मेवाडि देशे प्रसिद्धास्ति रमता हे सखि रमता रूडी रीत,
रसीयो हे सखि रसियो पदमणि मन वस्यो जी। जीतो हे सखि जीतो हे राणो जोध,
सिंघल हे सखी सिंघल हास्यो मन उलस्यो जी ।।१।।
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पद्मिनी चरित्र चौपई ]
[१३
दोहा पान पदारथ सुघड नर, अण तोल्या विकाय । जिम-जिम पर भूयें संचरें, (तिम) तिम मोल मुहुंगा थाय ॥१॥ हंसा ने सरवर घणा, कुसुम घणा भमराह । सुगुणा' ने सज्जन घणा, देश विदेश गयाह ॥ २ ॥
पमिनी विवाह
ढाल तेहिज रगे हे सखि रंगे घालै वरमाल,
___घाले हे सखि घालै हे जयमुख उचर जी ।" सिंघल हे सखि सिंघल भूप सनेह,
रूड़ी हे सखि रूडी हे साहमणि करें जी ।२।" वहिनी हे सखि वहिनी हे पद्मणि विवाह,
कीधो हे सखि कीधो लीधो जस घणो जी। आधो हे सखि आधो हे देस भंडार,
दीधो हे सखि दीधो कओल सुहामणोजी ।।. दासी हे सखि दासी हे दोय हजार,
रूपे हे सखि रूपे हे रति रम्भा वणी जी।' हाथी हे सखि हाथी हे हेवर हेम,
परिघल हे सखि परिघल चैं पहिरावणी जी।४। राणी हे सखि राणी हे अति हे सरूप,
एहवी हे सखि एहवी नारि म को अछै जी।। १ सापुरिमा थानिक घणा
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१४]
[पद्मिनी चरित्र चौपई
भमरा' हे सखि भमरा भमई अनन्त,
नारी हे सखि नारि हे सहु तिण पछे जी ॥ परिमल हे सखि परिमल महकै पूर,
वासें हे सखि बास हे भमरा चमकीया जी। माणस हे सखि माणस केही मात,
हीसे हे सखि हीसे हे देव तणा हिया जी।६। राणो हे सखि राणो हे अति रढाल,
घरणी हे सखि घरणी मनहरणी वरी जी। अननी हे सखि मननी हे पूगी आस,
सफली हे सखि सफली परतग्या करीजी १७) दिन दिन हे सखि दिन दिन नव नव भोग,
पूरे हे सखि पूरे हे सिंघल सुख सहु जी। रलीया हे सखि रलिया दिन ने रात,
रहता हे सखि रहतां हे दिवस बहू जी ।। अवसर हे सखि अवसर हे पामी राय
मागे हे सखि मागे घर नी सीखडी जी। वीनती हे सखि वीनती हे तुम्ह स्यु एह,
मा सुहे सखी मासु हे मति करयो अड़ी जी ॥६॥ १ रम्मा हे सखि रम्मा रति इंद्राणी, अपछर हे सखि अपछर पदमणि रइ पछै जी २ वसिकीयाजी ३ गात
'साहसियां लच्छी हुवइ, नहु कायर पुरुषाह काने कुण्डल रयणमइ, मसि फज्जल नयांह १
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पद्मिनी चरित्र चौपई ]
[१५
राजा हे सखी राजा हे सिंघल नाम,
राणी हे सखि राणी हे पहुंचावण भणी जी। सार्थे हे सखी साथे सैन्य अपार,
आवे हे सखि आवें हे तटि दरिया तणे जी ॥१॥ पूर्या हे सखी पूस्त्या हे सथ्थल जीहाज,
वैठा हे सखी बैंठा दोन्यु राजा रंगस्युजी। पहुंच्या हे सखी पहुंच्या हे वारिधि पार,
सेना हे सखी सेना हे घणी चतुरंग स्युजी ।११। तंबू हे : सखी तंबू हे दरीया तीर,
___ खाच्या हे सखि खाच्या हे दल वादल भला जी। महीमानी हे सखी महीमानी हे घणे हेत,
मांडया हे सखी माड्या हे भोजन भला' जी ।।१२।। माहो माहिं हे सखी मांहो माहि हे रंग,
गाढा हे सखि गाढा सुख दोन्युसगा जी। चलीयो हे सखी चलीयो हे सिंघल भूप,
पुहुंचावी हे सखी पहुंचावी हे दरिया लगे जी ॥१३॥ जाणी हे सखी जाणी हे राणा जाति,
हरख्यो हे सखी हरख्यो हे सिंघलपति सही जी। 'सीधा हे सखि सीधा हे वंछित काज,
पद्मणी हे सखि पद्मणी हे मन मे गहगही जी ॥१४॥
-
१ मटकलाजी
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१६]
[ पद्मिनी चरित्र चौपई
पुण्ये हे सखी पून्ये हे सघला सुख,
रन' मई हे सखि रन में हे रंग लीला लहै जी। पामें हे सखी पामे हे नव निधि सुख, मुनिवर हे सखी मुनिवर हे लब्धोदय कहे जी ।।१।। परवत्ती चित्तौड़ प्रसंग
दोहा वात सुणो हिव पाछली, राजा नी मन रंग। छानो छटक्यो भूपती, कोई न लीधो संग ।। १ ।। राजा विण सोभे नहीं, राज सभा ने रात । सोझो गढ सारै कीयो, पिण नवी जाणी वात ॥२॥ जाय पूछयो महल में, राणी भाख्यो साच । पदमणि परणेवा सही, चाल्यो पालण वाच ॥३॥ सभा माहि बैठो सकज, वीरमाण वड़ वीर। कूड़ी वातज केलवी, पाले राज सधीर ॥४॥ लोका आगे इम कहै, माहि बैठा जाप। जपें प्रथवीपति जेहथो, पहवी वधई प्रताप ।। ५॥
ढाल ६-ता भव बंधण थी छोडि हो नेमीसर जी, ए देसी इम पालता राज हो राजेसर जी,
वउल्या पट खंड मास उपर वलि दिन घणा । संकाणा मन मांहि हो राजसर जी,
सहु कोई सेवक राणा तणा जी ॥१॥ १ रन्नइ हे सखि रन्नइ वेलाउल लहैजी २ मवि लाधी बात
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पद्मिनी चरित्र चौपई ]
[१७ बाहिर नव-नव खेल हो रा० राति दिवस करतोरहतोखडोजी। मुहल मूल न देइ हो रा० मास्यो होइं रखे राजा बडो जी ।।२।।
चित्तौड़ आगमन करता एहवी बात हो रा० राजा आयो रतन सुहामणो जी। हवर दोय' हजार हो रा० गेंवर दोय सहस गाजे घणा जी॥३॥ पालखी परधान हो रा० दोय हजार सहेली सुंदरी जी। पटराणी ता वीच हो रा० सोवन कलसे पालखी करी जी ।।४।। मदमाता मातंग हो रा हींसे हय पायक वल अति घणाजी। आया ते चित्रकोट हो रा० शूरा पूरा सुभष्ट सुहामणा जी ॥शा नेजा कुहक वाण हो रा० वाजे वाजा पंच शवद भला जी। सूणीय नासें शत्रु हो रा० रजि उडी रवि छायो वादला जी॥६॥ परदल आया जाणि हो रा० कोलाहल हलचल हुई अति घणीजी। चित चमक्यो वीरभाण हो रा० धाया शूर सुभट
जूझण भणी नी ॥७॥ तेहवें नृप नउ दूत हो रा० कागल लेई राजमहले गयो जी। वाची सगली बात हो राजेसर जी
__गढपति आयो गढ आणंद थयो जी॥८॥
चित्तौड़ प्रवेशोत्सव बोलावी कोटवाल हो रा० बुहारी' जल छाट्या वली जी। फूल अवीर विछाय हो रा०सिणगाख्या बाजारहो सोभाभलीजी।।
१ चार २ बुहरावै जल छंटाव्या गली जी
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१८]
[पद्मिनी चरित्र चौपई तोरण बाध्या वार हो रा० पोलि आरीसा सूरीज जलहले जी। बाजे गहीर नीसाण हो रा० घरि-घरि ऊँची गूढी ऊछलेजी ॥१०॥ सोवन साखित सार हो रा० झूलमती चाले आगे हीसता जी। सीसें तेल सिंदुर हो रा० गयवर जाणे परवत दीसताजी ।।११।। सूहब करि सिगगार हो रा० पूरण कलस ले आवे कामनी जी। मलपति गावै गीत हो रा०
धन दिवस आयो अम्ह गढ़ धणी जी ॥१२।। सोवन चउक पुराय हो राजेसरजी,
__मोतीया वधावे राय राणी भणी जी। जीवो कोड़ि वरीस हो राजेसर जी,
गज गामनि असीस दीइ' घणी' जी ।।१३।। पाए लागे दोड़ि हो रा० कुमर सकल सेवक साथै करी जी। बात करै कुसलात हो रा० राजा प्रजा सगली राज रीजी ।।१४।। गज चढ़े ढलकती ढाल हो रा०पाउ पधास्या राजा गढ़ ऊपरेंजी। जग हूवो जसवास- हो राजेसर जी,
धन राजा राणी जगि उचरे जी ।। १५ ।।
छठी ढाल रसाल हो रा० सामहेलें घरि आयो राजियो जी। 'ज्ञानराज' गणि सीस हो राजेसर जी,
मुनि 'लालचंद' कहै हरख्यो हीयो जी ।। १६॥
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पद्मिनी चरित्र चौपई]
[१६ दोहा राणी आयो रतनसी, लोक सहू आणंद । महिला पउधार तर, मेट्यौ सगलौ दंद ।। १ ।। जाइ मिलिया परभावती, म्हे पाली बोली वाच ।
अब थां सुं ऊरण हुया, पदमणी आणी साच ॥ २ ॥ ढाल (७) रागधन्यासी, १ जाइरे जीयरा निकसि के एहनी देसी,
२ बात म काढो व्रत तणी ए देशी मोटा महेंल मनोहरू, पदमणी वासा जोगो रे। विचरै साथ सहेलीया, भोगवती सुख भोगो रे ।। मोटा महल भनोहरु |आकणी।। रतनसेन राणो गयो, पटराणी ने पास रे। परणे आया पदमणी, हिवै दीज्यो सवासो रे ॥२शमोगा वचन तुम्हारो मैं कियो, अमनें केहो दोसो रे। स्वाद करी जीमस्या हिवै, करस्या केहो' सोसो रे ॥३॥मो॥ वचन सुणी दीवाण ना, वीलखी हुई ते नारी रे । परभावती मन चिंतवै, हिवें कीज्य किसं विचारो रे ॥४||मो०|| मे मारे हाथें कियो, केहो कीजे सोसो रे। . दोस जिको मुझ वचन नो, कीजे किणसुरोसोरे॥शा मो
१ कायापोसोरे - आत्मानों मुख दोषेन, बध्यन्ते शुक सारिका । बकास तत्र न बध्यते, मौनं सर्वार्थ साधनः
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२० ]
[ पद्मिनी चरित्र चौपई
प्रथम खंड प्रशस्ति गिरुओ गच्छ खरतरतणो, जाणे सकल जीहानों रे। गच्छनायक लायक बडो, जंगम युगिपरधानो रे ॥६।मोगा श्री जिनरंगसीसरु, तसु श्राविक सिरताजो रे। कुल मडण कटारीया, मंत्रीसर हंसराजो रे ॥णामो०॥ जेहनो जस जगि महमहें, करणी सुकृत कुवेरो रे। परम भगति गुरुदेव रा, वड दाता मन मेरो रे ॥८॥मो०। भाई डुंगरसी भलो, लघु बंधव गुण वृदो रे। दुखिया दलिद्र भंजणो, भागचंद कुलचंदो रे । मो०॥ तास तणो आदर करी, संवंघ रच्यो सिरताजो रे। पाठक ज्ञानसमुद्र तणा, शिष्य मुख्य ज्ञानराजो रे ॥१०||मोका सुपसाई श्री गुरु तणे, 'लब्धोदय' गणि भाखें रे । प्रथम खंड पूरौ कियो, धरम तणे अभिलाषै रें ॥११॥मो॥ इति श्री राणा श्रीरतनसिह पदमणी परणी पनोता
प्रथम खण्ड ||
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इति श्री पद्मिनी चरित्रे ढाल भाषा वध श्रीज्ञानराजगणिराजाना शिष्यमुख्य पंडित लब्धोदय गणि विरचित कटारिया गोत्रीय मंत्रीश्रीहंसराज मंत्री श्रीभागचंदानुरोधेन राणा श्री रतनसिंह पदमणी परणयनो नाम प्रथम खड ॥१॥
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द्वितीय खण्ड
मंगलाचरण वाणी निर्मल विस्तर, नव खडेहि नाम । तिण हेते श्री गुरुभणी, प्रथम करूं प्रणाम ।।१।। सुगण सुणेज्यो श्रुतिधरी, परहो तजो प्रमाद । बीजें खंड वखाणता, सुणता उपजै स्वाद ||२|
पद्मिनी सौंदर्य वर्णन
ढाल १ बागलीया री राति दिवस भीनो रहै रे, पदमणि स्यु बहु प्रेम रे रग रसीया । पंच विषय सुख भोगवै रे, दोगंधक सुर जेम रे रंग रसीया ।।१।। राय राणी मन बसिया, अविहड
जिम जोडी रसिया, जिम कंचन रस रसीया। जिम जोड़ी सारसीया रे, अविहड़ लागी प्रीत रे रंग रसीया आग जीव एक नई जूजूई रे, देही दीसें दोइ रे रग० । चित लागो चतुरां तणो रे, चोल तणी परि जोइ रे रंग ॥२॥
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२२ ]
[ पद्मिनी चरित्र चौपई
चंदवदन ऊपरि घटा रे, सोह वेणीटण्ड रे रग०। (अथ) मृगानयणी ऊपरड रे, बायो जाल 'प्रचण्ड रे रग० ||३|| ताटी मरकत मणि तणी रे, अथवा जाणि भुजंग रे रंग घाटी मन घेरण तणी रे, पाटि वणीय सुचंग रे रंग ॥४॥ सैंघो सिंदूरइ भयो रे, जाणे रविकर एक रे रंग। कब तम पामी एकली रे, बाधी सव धरि टेक रे रंग०॥५॥ सीसफूल तारा भला रे, अरधचंद सम भाग रे रग। विंदी जाणे मणि धरी रे, पीवत अमृत नाग रे रंग ॥६॥ श्रवण किना सोवन तणी रे सीप सुघट मन फंढ रे रग० । कुंडल रे मिसि देखवा रे, आया सूरज चंद रे रंग ॥५॥ अणियाले काजल भरी रे, निपट रसीले नयण रे रग० । चंचल चतुरां चित हरइ रे, देखत उपजे चैन् रे रंग० ॥८॥ नयण कमल ऊपरि वण्या रे, भूहा भमर समान रे रंग दीपशिखा सम नासिका रे, देखण रूप निधान रे रंग ॥ नासा शुक सोवन तणी रे, बेसर मोती जेह रे रंग आव सोवट ये चंच में रे, विधु वालक सस्नेह रे रंग ॥१०॥ काया सोवन तसु तणी रे, गोरा गाल रसाल रे रंग। आरीसा कंदर्प तणा रे, चंद" सरीसो भाल रे रंग० ॥११॥ पाका बिंव मधु समा रे, ओपित विद्रुम जाण रे रंग । मामोल्या जिम रातड़ा रे, अधर सुधारस खाण रे रंग० ॥१२॥ १ कंचि २ अंव मउर ३ ताया सोवन तवक सा ४ नो ५ कुकम जेवा लाल रे०
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पद्मिनी चरित्र चौपई]
[२३ (जाणे) मोती लड़ पोई धस्या रे, अधर विद्रम विचि दंत रे रंग चमकै चूनी सारिखा रे, दाडिम कूलीय दीपंत रे रंग० ।। १३ ।। कोकिल कंठ सुहामणो रे, पति भुज वल्ली खम्भ रे रंग । मोतिन की दुलड़ी वणी रे, त्रिवली रेख अचंभ रे रंग० ॥ १४ ॥ भुजादण्ड सोवन घड्या रे, कोमल कलस' सुनालि रे रंग० । मूगफली चम्पा कली रे आंगुलिया सुविशाल रे रंग० ॥ १५॥ कनक कुंभ श्रीफल जिसा रे, कुच तटि कठिन कठोर रे रग० । पाका वील नारिंग सा रे, मानुं युगल चकोर रे रंग० ॥ १६ ॥ कोमल कमल ऊपरें रे, त्रिवली समर सोपान रे रंग। कटि तटि अति सूछिम कही रे, थूल नितंब वखाण रे रंग० ॥१७॥ जघा सुडा करि वणी रे, उलटो कदली खंभ रे रंग०॥ सोवन कच्छप सारिखा रे, चरण हरण मन दंभ रे रंग० ॥१८॥ सकल रूप पदमणि तणो रे, कहत न आवै पार रे रंग० । 'लव्धोदय' कहै आठमी रे, ढाल रसिक सुखकार रे रंग० ॥१९॥
दोहा हंस गमणि हेजई हीइं, राति दिवस सुख संग। राणो लीण हुओ तुरत, जिम चन्दन तरुहि भुजंग ।। १ ।। दूहा गूढा गीत स्यु', कवित कथा बहु भाति । रीझवियो राणो चतुर, क्रीड़ा केलि करंति ॥२॥
१-कमतसुमाल २ पृथुल
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२४ ]
[ पद्मिनी चरित्र चौपई राघव चेतन का दरवार प्रवेश इम रहता सुख सुसदा, जे हूओ छ विरतंत । सुणयो चित्त देइ सुगण, मन थिर' करी एकंत ॥३॥ राघव चेतन दोइ वसे, चित्रकूट मे व्यास । राति दिवस विद्या तणो, अधिको अछे अभ्यास ॥४॥ राजा मान दियो घणो, भारथ वाचे आय । राज लोक मे रात दिन, महल अमहले जाय ।। ५ ।।
राघव चेतन पर कोप ढाल ( २ ) राग-गौडी, मन भमरा रे० ए देसी, एकणि दिन पदमणि तणे मन रंगे रे,
संगई बैठो राय लाल मन रंगेरे। क्रीड़ा आलिंगन करें मन रंगे रे, तेहवें व्यासजी जाय लाल ॥१॥ राघव ऊपरि कोपीयो मन०, मूह चढ़ाई राय लाल मन रंगें रे। होठ वेहुं फुर फुर करइ मन०, किम आयो अण प्रस्ताव लाल०॥२॥ फिट रे पापी बंभणा मनरंगें रे, मूरिख जगमार लाल मन रगेंरे । फिट रे थोथा पंडीया मन रंगे रे,
मूल न समझ गमार लाल मन रगें रे ।। ३ ।। अणरुचती वातां करें म० अणतेड्यो आवें गेह लालक वोल अणवोलावीयो म० साचो मूरिख तेह लाल० ॥४॥
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१ कान २ तन : पोथा ४ साचठ मूरिखि विचार ।
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पद्मिनी चरित्र चौपई]
[२५ आपही वात कहें हसें म० वेसणो आप ही लेह लाल विहु आलोच करता विचै म० जावै चतुर न तेह लाल० ॥५॥ गैरमहेंल नृप मंदिरें म० एकते नर नारि लाल लाज समें जावई जिको म० ते मूरिख निरधार लाल० ॥६।। निभ्रंछयो राघव भणी म० काढ्यो हाथ ज साहि लाल. ‘जाता मुँइ भारी पडी म० पहुतो निज घर माहि लाल०॥णा राजा रूठो इम कहें म० पदमणी देखी व्यास लाल० आँखि कढावं एहनी म० तो मुझ ने स्याबास लाल० ॥८॥ वात सुणी राजा तणी म० एम विचार व्यास लाल० राजा मित्र न जाणीइ म० सिंह किसो वेसास लाल० ॥६॥ काके सौचं, द्यूतकारेषु सत्यं ज्ञाने भ्रातिः स्त्रीषु कामोपशाति क्लीवेधैर्य मद्यपे तत्वचिन्ता, राजा मित्रो केन दृष्टं श्रुतं वा ।। अत्यासन्न विनासाय दूरस्था निष्फला भवेत् । सेव्यता मध्यम भावेन राजा वन्हि गुरुस्त्रियः राजा री रीस भली नहीं म०चितचमक्यो राघव व्यास लाल० न हुवे दोन्यु वातड़ी म० एक वैर में वास लाल० ॥१०॥ आलोचे मन आपणे म० छोड्यो गढ चीतोड़ लाल० द्रव्य देई नई नीकल्या म० राघव चेतन जोड़ लाल० ॥११॥ त्यजेदेकं कुलस्यर्थे, ग्रामार्थे च कुलंत्यजेत् । ग्रामं जनपदस्यार्थ, आत्मार्थपृथिवी त्यजेत्
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२६]
[ पद्मिनी चरित्र चौपई
राघव चेतन दिल्ली गमन नंदिन थोड़े दिल्ली गयो म० नगर हुओ जस नाम लाल योतिष जाणे अति घणो मन० विविध विद्या गुण धाम लाल० ॥१२।। शास्त्र अनेक वाचे भणे म० नव रस पोपइ नित लाल० सौ सौ अरथ नवा कर म० चतुरा मोहें चित्त लाल० ॥१३।। वल पूरो विद्या तणो म० तेहने स्यो परदेश लाल 'लालचन्द' कहै सांभलो म० विद्या मान नरेश लाल० ॥१४॥
शाही दरवार प्रवेश
दोहा सद्विद्या धन सासतो, विद्या रूप सुहाग। मान महातम' जस अधिक, विद्या मोटो भाग ।।१।। पातिस्याह दिल्ली तदा, जास अखंडित आण । अविचल तेज अलावदी, प्रतपो वारह भाण ||२|| एक छत्र महि भोग, जस नव खडे हि नाम । सुर नरपति जाथें डरे, सेवकहि कर सिलाम ।।३।। सेना सतावीस लख, भंजै अरि भड़वाह । तिण सुणीया बाभण गुणी, तेडायो धरि चाह ॥४॥ श्लोक कवित अभिनव करी, आया आणंद पूर। आदर सुंआसीस चै, हजरति साहि हजूर ॥शा
१ महतजस भोग सुख
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पद्मिनी चरित्र चौपई
ढाल (३) अलबेल्या नो। कहिनइ किंहाथी आविया रे लाल ए चालक श्लोक कवित्त कथा करीरेलाल, रीझ्यो निपट' पतिसाहि रेसो। सकल लोक धन-धन कह रे लाल, विद्यावंत अथाह रेसो० ॥१॥ चतुर पंडित ब्राह्मण गुणनिलो' रे लाल । आकणी पातिसाहि दिल्ली तणो रे लाल, ये नित मोज अनेक रे सोभागी गाम पाचस अति भला रे लाल,
___ मनमइं धरीय विवेक रे सोभागी ॥२॥च॥ इम रहता आणंद स्युरे लाल, दिल्लीपति रै पास रे सोभागी। एक दिन राणा जी दीयो रे लाल,
तेह वैर चितारें व्यास रे सोभागी ॥३॥चा
राघव चेतन का प्रतिशोध षड़यन्त्र
वयर वालू हिवें माहरो रे लाल, छूड़ायो गढ गेहरे सोक तो काढू चित्रकूट थी रे लाल, अपहरी पदमणी तेहरे सो०४ सैंमुखी काम न कीजिइं रे लाल, जे पर पूठे थायरे सो० आलोची मन आपणे रे लाल, माड्यो एह उपाय रे सो० ॥शा भाईपणो एक भाट स्यु रे लाल, खोजा स्युमन खंति रे सो मान दान देई घणो रे लाल, मित्र कीयो एकति रे सो० ॥६॥ साहि तणे दरवार में रे लाल, पदमणि केरी बात रे सो० जिण तिण भाति काढज्यो रे लाल, मुझ मन एह सुहात रे सो० ॥णा,
१~मानि २ गुणी
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२८]
[पद्मिनी चरित्र चौपई
एक दिन कोमल पाखडी रे लाल, भाट लेइ निज हाथ रे सोग आवी सभा मे वीन रे लाल, चिरंजीवो नरनाथ रे सो० ॥८॥
अथ भाट वार्य
॥ कवित्त ।। एक छत्र जिण पुहवी, निश्चल कीधी घर उप्पर । आणं कित्ति नव खंड, अदल कीधी दुनीय प्पर ।। नल वीनल विभाडि, उदधि कर पाउ पखालिय । अंतेउर रति रंभ, रूप रंभा सुर टालीय ॥ हेतम दान कवि मल्ल कहि, अमर धुन्नि वे वखत गनि । दीठो न कोइ रवि चक्क लगि, अलावदी सुलतान विणि ।।
ढाल तेहिज पातिसाह अलावदी रे लाल, देखी अनोपम तेहरे सोभागी साहि झ्यो तेरे हाथ मे रे लाल, भाट कहो क्या एहरे सो०६ राजहस' पंखी रहें रे लाल, मान सरोवर माहि रे सो०।। तिण पंखी नी पाखडी रे लाल, ते देखी पतिसाहि रे सो० १० मोज देई मे ने इम कहें रे लाल, वाह वाह वे वाह रे सो०। कहुँ वे ऐसी अउर भी रे, चीज देखी कहिनाह रे सो०॥१शाच०॥
पद्मिनी स्त्री के प्रति आकर्षण ता परि भाट कहै सुणो रे लाल,
सब गुण पदमणि माहि रे सो०। १ कर सलाम मट चितवई रे लाल सुग दिल्ली पति साह रे सो०
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पद्मिनी चरित्र चौपई]
[२१ उआ की ओपम ने द्यु रे लाल,
अउर ऐसी कोई नाहिं रे सो० ॥१२॥च०॥ अदभुत जाणे अपछरा रे लाल,
अति सुन्दर सुकमाल रे सो०। पतली कणयर कंबसी रे लाल,
पदमणि रूप रसाल रे सो० ॥१३॥चा' दील्लीसर कहै भाट स्यु रे लाल,
अंसी पदमणि नारि रे सो० ॥ तें कहा ही देखी सुणी रे लाल,
कहि तु साच विचारि रे सो० ॥१४||चा' भाट कहै तुम महेंल में रे लाल,
नारी एक हजार रे सो० ॥ तामै पदमणि सही होसी रे लाल,
दोय चारि निरधार रे सो० ॥१३॥ च०॥' -दूजी ठाम न साभली रे लाल,
कैसी कहिइ झूठ रे सो०।। इम निसुणी खोजो कहै रे लाल,
आसंग मन धरि दूठ रे सो० ॥१६॥च०॥ वात फरोसतई क्या कहै रे लाल,
वांभण साहि हजूर रे। सो०॥ कहाँ वे सुरनर मोहनी रे लाल,
पदमणि पुण्य पडूर रे सो० ॥१८।। च० ॥
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३२]
[ पद्मिनी चरित्र चौपई धवल कुसुम सिणगार, धवल बहु वस्त्र सुहावै मोताहल मणि रयण, हार हीई' ऊपरि भावं अलप भूख त्रिस अलप, नयण लहु नींद न आव आसण रंग सुरंग, जुगति सु काम जगावे भगति जुगति भरतार री रहै अहोनिश रागणी कहै राघव सुलतान सुणि, पहोवी हुवें इसी पमदणी ॥४॥
श्लोक पनिनी पद्म गन्धा च पुष्प गन्धा च चित्रणी हत्तनी मच्छ गन्धा च दुर्गन्धाभवेत्सखणी ॥१॥ पद्मिनी स्वामिभक्ता च पुत्रभक्ता च चित्रणी। हस्तिनी मातृभक्ता च आत्मभक्ता च संखणी ॥२॥ पद्मिनी करलकेशा च लम्बकेशा च चित्रणी। हस्तिनी उर्द्धकेशा च लठरकेशा च संखिणी ॥३॥ पद्मिनी चन्द्रवदना च सूर्यवदना च चित्रणी। हस्तिनी पद्मवदना च शूकरवदना' च संखणी ॥४॥ पद्मिनी हंसवाणी च कोकिलावाणी च चित्रणी। हस्तिनी काकवाणी च गर्दभवाणी च संखणी ।।५।। पद्मिनी पाबाहारा च द्विपावाहारा च चित्रणी। त्रिपाटा हारा हस्तिनी बया परं हारा च संखणी ॥६॥ चतु वर्षे प्रसूति पद्मन्या त्रय वर्षाश्च चित्रणी। द्वि वर्या हत्तनी प्रसूतं प्रति वर्ष च संखिनी॥७॥
१ हृदयस्थल २ क्षीरगन्वा ३ काक
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[फोटो-सार्वजनिक सपर्क विभाग-राजस्थान]
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३०
[ पद्मिनी चरित्र चौपाई
रावण घरि पदमणि सुणी रे लाल,
अउर नहिं ससार रे सो०। साहि घरे सव संखिणी रे लाल,
क्या' कहिह अविचार रे सो० ॥१८॥ च०|| माहोमाहि सकेत स्यु रे लाल,
भाट' खोजें कियो वाद रे सो। 'लालचंद' मुनिवर कहै रे लाल,
सुणता उपजे स्वाद रे सो० ॥१|| च० ॥
दोहा हसि के साहि कहै इसो, क्युवे खोजा खूब । हम महले सब संखणी, नहिं पदमणि महबूव ॥ १॥ तापरि खोजो वीनमै, बूझो राघव व्यास । सव लक्षण गुण पदमणि के, जाण शास्त्र अभ्यास ॥२॥
साहि कह्यो राघव भणी, स्त्री के केती जाति । कैसा लक्षण पदमणी, साच कहो. ए वात ॥३॥
सुविचारी राघव कहै, स्त्री की चारु जाति । 'पद्मणी' चित्रणी हस्तणी संखणी' असी भाति ॥४॥
स साहि रुस्यो तिण वार रे सो २ बामण ३ नारि का
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पद्मिनी चरित्र चौपाई ]
३१
, पद्मिनी आदि स्त्री के लक्षण
॥ कवित्त ॥ रूपवंत रति रंभ, कमल जिम काया कोमल 'परिमल पहोप सुगंध, भमर भमें बहुपरिकरे उत्पल चपकली जिम रंग, चंग गति गयंद समाणी शशि वदनी सुकमाल, मधुर मुख जपे वाणी चंचल चपल चकोर जिम, नयण काति सौहै घणी। कहै राघव सुलतान सुणि, पहोवी हुवे अइसी पदमणी ॥१॥ कुच युग कठिन सरूप, रूप अति रूड़ी रामा। हस्त वदन हित हेज, सेज नितु रमें सुकामा रुसे तूस रंग, संगि सुख अधिक उपाव राग रंग छतीत्त, गीत गुण ज्ञान सुणावै । स्नान मजन तंवोल स्यु, रहई अहोनिश रागणी कहे राघव सुलतान सुणि, पहोवी हुइइसी पदमणी ॥२॥ वीज जेम मलकंत, काति कुदण जिम सोहै। सुर नर गण गंधर्व, रूप त्रिभुवन मन मोहै। त्रिवली तन वेउ लंक, वक नहु वयण पयंपइ पति सु प्रेम अपार, अवर सु जीह न जंपइ स्वामी भगति ससनेहली, अति सुकुमाल सुहावणी । कहै राघव सुलतान सुणि, पहोवी हुइ इसी पदमणी ॥३॥
१ बहु भमै बलावल २ इसी हुई
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पद्मिनी चरित्र चौपई
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पनिनी श्वेत शृंगारा, रक्त शृंगारा चित्रणी। हस्तिनी नील शृंगारा, कृष्ण शृंगारा च सखणी ।।८।। पद्मिनी पान राचन्ति, वित्त राचति चित्रणी। हस्तिनी दान राचन्ति, कलह राचंति संखिणी ॥६।। पद्मिनी प्रहर निद्रा च, द्वि प्रहर निद्रा च चित्रणी। हस्तिनी त्रय प्रहर निद्रा च, अघोर निद्रा च सखिणी ॥१०॥ चक्रस्थन्यो च पद्मिन्या, समस्थनी च चित्रणी। उर्द्धस्थनी च हस्तिन्या, दीर्घस्थनी सखिणी ॥११॥ पद्मिनी हारदन्ता च, समदन्ता च चित्रणी। हस्तिनी दीर्घदन्ता च, वक्रदन्ता च संखणी ।।१२।। पद्मिनी मुख सौरभ्यं, उर सौरभ्यं चित्रणी । हस्तिनी कटि सौरभ्यं, नास्ति गंधा च सखणी ॥१३॥ पद्मिनी पान राचन्ति, फल राचन्ति चित्रणी। हस्तिनी मिष्ट राचन्ति, अन्न राचन्ति संखिणी ॥१४॥ पद्मिनी प्रेम वांछन्ति, मान वाछन्ति चित्रणी। हस्तिनी दान वाछन्ति, कलह वाछन्ति संखिणी ।।१।। महापुण्येन पद्मिन्या, मध्यम पुण्येन चित्रणी। हस्तिनी च क्रियालोपे, अघोर पापेन संखिणी ।।१६।। पद्मिनी सिंघलद्वीपे च, दक्षिण देशे च चित्रणी। हस्तिनी मध्यदेशे च, मरुधरायां च सखिणी ।।१७॥
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३४ ]
[ पद्मिनी चरित्र चौपई अन्तः पुर को बेगमों में पद्मिनी गवेपणा
ढाल (8) रागमारू, वाल्हाते विदेशी लागइ वालही रे' ए गीतनी देशीइण परि पद्मिणी रा गुण साभली रे, हरख्यो मन सुलतान । हम महेलैं पद्मणी केते अछरे. परखो व्यास सुजाण ||२|| इणना सुन्दर सहेली पद्मणी मन वसी रे || आकणी ।। व्यास कहै आलिम साहिव सुणो रे, किम निरखं तुम नारि ।। निरख्या विगर न जाणु पद्मणी रे, कीजे कवण विचार।२।। सु०॥ तव दिल्लीपति महेल करावियो रे, मणिमय एक अनूप । व्यास बुलाय कहे पद्मणी रे, निरभया देखी स रूप ।।३।। सु०॥ सकल नारि प्रतिबिंब निरखियो रे, बैठी मणगृह माहि । देखी हरम हस्तनी चित्रणी रे, यामे पद्मणी नाहि ॥४॥ सु०॥ व्यास कहै सुर नर मन मोहनी रे, अद्भुत रूप अनेक । है चित्तहरणी तुरणी महल में रे, पिण नहीं पद्मणी एका||सुना
पद्मिणो के लिए सिंहलद्वीप पर चढ़ाई एह वात सुणी आलिमपति कहै रे, क्या मेरा अवतार' । कैसी पतिसाही विण पद्मणी रे, अउरति अउर असार ।।६।।सुंगा (विण) पद्मणी सेजे पोढुं नहीं रे, हेजे न करूं रे सग। पद्मणी ऊपर कीजे उवारणा रे, राज रमणी सवंग ॥७॥ सु०॥ मनडो लागो मारु भुरट ज्युरे, पद्मणी परणवा चाह । व्यास वतावो चावी पद्मणी रे, इम बोले पतिसाह ॥८॥ सु l
१ वालउ रे सवायउ वैर हु माहरौ २ जमवार ।
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__ पद्मिनी चरित्र चौपई ]
[ ३५ सिंहलदीप अछै दक्षिण दिसइजी, आडो समुद्र अथाग! व्यास कहै पद्मिणी ठावी तिहाजी, पिण महा दुर्घट माग ॥९॥ साहि कहै मुम आगे व्यासजी, दरीया है कुण भात ! मुझ देखे सुरनर सहुको डरैरे. सोखु सायर सात ॥१०॥ सु०॥ तुरत चढ़ाई सिंहलदीप ने रे, कीधी दिल्लीनाथ । धुधुंधु नीसाण घरे भलाजी, शूर सुभट ले साथ ।।११।।सुगा मोले सहस मेंगल मदभरता भला रे, जाणे घन गजति । लाख सतावीस हवर हींसतारे. चचल गति चालंति ।।१२॥ सु.॥ च्यार चक राजन संसय पडया रे, धर हर धूजेरे सेस । रज ऊड़ीरे गयणे रवि ढाकियोरे, सक्यो मनहि सुरेसा॥१३शासंगा इलगार करि करी उलघी मही रे, आया दरीया तीर । रिण रंढाला मरदाना वली रे, साथे बहु सूर नै वीर।।१४||सु॥ देख्यो दरियो भरियो जल घणेजी, तब वोले नरनाथ । वारिधि पूरो हल वीहला हुइरे, मु छा घाले हाथ ।।१।। सु०॥ दल बादल डेरा ऊभा किग से, ऊतरीयो सुलतान । सिंहलदेश दुहाई फेरि के रे, पकडो सिंघल राण ।।१६।। सुला 'लालचंद' कहै साहि अलावदी रे, बोलाया बड़ वीर । सझ हई' सिंहलद्वीप ने ते, जे मरदाना वीर ॥१७॥ सुना
दुहा हुकम लही आया वही, जिहा सायर गम्भीर । - जल सु जोर न कोई चलें. चूडण लागा मीर ॥१॥
१ वड़ा, २ करि।
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३६]
[पद्मिनी चरित्र चौपई
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सायर ऊपरि हठ' कीयो, आलिम साहि अपार । प्रवहण नवा घडावि ने, चोठ्यारे बहु जूझार ||२|| साहि कहै सुभटा भणी, आ वेला छ आज । लड़ी भड़ी गढ भेलिज्यो, पकड़ज्यो सिंघलराय ॥३॥ लाख लाख मोजा दीइं, चलीइ वकारें स्वामि । कहें तदि पाछो कुण रहै, सूर सुभट रे नाम ||४|| वैठा ते दरीया विचे, जेहवे आघो जाय । आय पड़या भमरया बिचइ, बाजै सबलो वाय ।।५।।
ढाल (५)राग-मल्हार सहर भलो पिण साकडो रे नगर मलो पण दूर, ए देशी। तेहवे दरीयो ऊछल्यो रे, भागी वेडी भटाक मेरे साजना। फिरी आदइ आलिम भणी रे, बूडें तेह' कटक । मेरे साजना ॥१॥ जल सुजोर न को चलै रे, सुभट रह्या जल माहि मेरे० पदमणी परही जाणि यो रे, छोडो केडो साहि मेरे० ॥२॥ आलिमपति इणि परि कहै रे, मैं नवि छोड़ केडि मेरे० मो आगे दरीयो रहे रे, अव नाखुगो उथेडि मेरे० ॥३॥ वरस रहुँ पदमणी वरु रे, पकडुसिंघलराय मेरे० । वीजा सुभट वुलाइये रे, मुआ ति गइअ वलाय मेरे० ॥४॥ सुभट मन मे संकीया रे, फोकट दरीया माहि मेरे० काम बिना किम दीजिई, रे, साहि विचारत नाहि मेरे० ॥१॥ १ कोपियो, २ चाल्या, ३ लहइ, ४ वलि वपुकारे ।
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पद्मिनी चरित्र चौपई] आलिम अमरस मनि घणो रे,पिण दरीयो भरपूर मेरे० खाणो पीणो परिहस्यो रे, वैठो चिंता पूर मेरे० ॥ ६ ॥ चिंता निद्रा परिहरड रे, चिंता ले जाइ दुक्ख मेरे० । चिंता अहनिशि तन दहइ, चिन्ता फेडइ भुक्ख मेरे० ॥७॥ चिंता चिता समाख्याता चितातो चिन्ताधिका । चिता दहति निजीवं चिन्ता जीवंतप्यहो । साहि कहे तेहने घणो रे, धुंगा देश भंडार मेरे० दरीयो खोदि मारग' करई रे, जावईवारिधि पार मेरे० ॥८॥ लालचिया निरधार२ तिहा रे, मानि हुकम तिहा जाय मेरे० देखि दरीयो इम कहै रे, खोदे कुण खुदाय मेरे० ॥६॥ जे सिंहल पहुंचे जाइ रे, ते पावइ लाख तुरंग मेरे। ते दूणो पावइ पटउ रे, जे भेलइ सास दुरंग मेरे० ।। १०॥ जे मार सिंघल धणी रे, तिगुणो तास पसाय मेरे० जे आणे पदमणी भणी रे, ते सव गढ़नो राय मेरे० ॥ ११ ॥ इम लालच देखाडीयो रे, तो पिण न वहै इम मन मेरे० नव लख सुभट स िथया रे, मानि नहिं साहि वचन मेरे ।।१२।। दो तड वाघ तणउ वण्यउरे, लसकरिया ने न्याय मेरे० इक दिस डर पतिसाह रउ, वीजे नाखे समुद्र वहाय मेरे० ॥१३॥ सुभटा व्यास वोलाइयो रे, आलिम सु एकान्त मेरे० पापी व्यास कुमतो कीयो रे, माड्यों सुभटा अन्त मेरे० ॥१४॥
१ पाधर २ निरधन घणा ३ मानण
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___ ३८
पझिनी चरित्र चौपाई
दहा वचन विमासी बोलियइ, ए पंडित नो न्याय । अविमासी कारिज करइ, ते नर मूरख राय ।।१।। स्त्री वालक पुहोवीधणी रे, ए तिहुँ एक सभाव । मेरे० रढ नवि छाडे आपणी रे, भावे तो घर जाय । मेरे० ॥१६॥ आवी अनाथ जाणे नहीं रे, वालिभ ए जण च्यार मेरे० दालक मगण प्राहुणो रे, लाड गहेली नार मेरे० ॥ १७ ॥ एहवो कोइ मतो करो रे, आलोची मन आप मेरे० आलिमपति पाछो फिर रे, तो चकें सब पाप मेरे० ॥ १८ ॥ आपणो मन आलोचि ने रे, जे करसी निज काज मेरे० ते पामे सुख सम्पदा रे, 'लालचन्द' मुनिराज मेरे० ॥ १६ ॥ शाही हठ का छल से प्रतिकार कर दिल्ली पुनरागमन
व्यास कहै तुमे साभलो, सुभट होइ सव एक । हिकमति एक करो हिवै, फिरें साहि रहे टेक ॥ १॥ मदझर मातंग' पाचसे, सोवन जडित साधार। पाखरिया पंच सहस, कोडि एक दीनार ॥ २ ॥ सिणगार्यो पटकूल सु, नव नव भाते नाव ।
सोवन कलस सरस रच्यो, भरयो वस्तु बहुभाव ।।३।। १ माता २ साखित सार ३ वलि पाखरिया सइससय ४ सा सिर ठवङ
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पद्मिनी चरित्र चौपई]
[३६
अणजाण्या नर सीखवो, ए सिंघल मूक्यो दंड। हुं तुम्ह नी पग खेह छ, अव तु आलिम छंड ॥४॥ नाक नमण इण परि करो, और न कोई उपाय । अहंकार इम राखज्यो, जिम आलिम फिर जाय ॥शा डाल (६)-कोई पूछो वांभणा जोसी रे ए देशी । अथवा यत्तनी इम व्यास वचन अवधारी रे, हरखी तव सेना सारी रे। सहू सच कीयो तिण रातें रे, दंड ल्याया ते परभात रे ।। १ ।। दिन ऊग्या आलिम जागै रे, देख्या प्रवहण मन रागें रे। कहो क्या वे आवत सूझ रे, अइंसउ सेवक कुबूझ रे ॥ २ ॥ तव व्यास कहै सुणि सामी रे, सही तोहै एह सलामी रे। सिंघल राजा तुम मुकी रे, सवली आग्या प्रभुजी की रे ॥ ३ ॥ सोना कलसे अति सौहै रे, चमकत चूनी मन मोहे रे । फरहरें नेजा धजा फावइ रे, बहु नेड़ा प्रवहण आवै रे ॥४॥ देखत आलिम सुख पावै रे, वाहण दरीया तटि आवे रे सुलतान चरण धाइ लागें रे, सब पेसकसी धरी आगे रे ।।५।। सिंघल तुम पग नी खेहा रे, सेवक सुराखो सनेहा रे । बदे कुसाहि निवाजै रे, ए चूनो तुम पान काजै रे ।। ६ ।। तुम दिलीसर जगदीसो रे, नमठेह सुं केही रीसा रे। इम विनय वचन सुणीइजे रे, सिरपाव सिंघल ने भेजे रे ।। ७ ।। पहरायो ते परधानो रे, दीधो तेहनै बहु मानो रे। सिंघल मक्यो ते लीधो रे, सुभटा ने बांटे दीधो रे।।८।। १ कइ २ मानि ३ मतउजइ
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४० ]
[पद्मिनी चरित्र चौपई सिंघल सों कीधो सनेहो रे, मान देई मूक्या तेहो रे । समारी सहू राघव वातो रे, जिम तिम वणी आवै धातो रे ।।६।।
दूहा जेहनइ घटि बहु वुद्धि हुवइ, तेसारइ सहु काम । भंजइ गंजइ वल घड़इ, वलि आणइ निज ठाम ।। १ ।।
ढाल (७) यतनी-मनसा जे आणी एह अलिसपति कूच करायो रे, वेघो दिल्ली गढ आयो रे । घरि घरि गूठी ऊछलीयाँ रे, बहु मंगल धुनी रंग रलीयाँ ॥१॥ बैठो तखत पतिसाहो रे, गढ सकल थयो उछाहो रे। मिलि मिलि नर नारी भाखै रे, यो' आयो पदमणी पाखें ।।२।। आलिमपति महेला आया रे, भिंतरि हथियार धराया रे। सेवक घरि' पाछो जावै रे, तव बड़ी बीबी वुलावै ।। ३।। तुम साहिव पदमणी परणी रे, ते दिखलावो हम तुरणी रे। देखा दीदार एकवार रे, केसी हुवे पदमणी नारि ॥४॥ जसु घरि नहिं पदमणि नारी रे, केसो कहीइं घर बार रे । केंसी तेरी पतिसाही रे, पदमणी नाहि एकाही ॥५॥ विण पदमणी खाना खावै रे, इम वार वार संतावै रे। विलखो होय खोजी आवै रे, आलिम नैं बहुत भखावै ॥६॥ गच्छ मोटो खरतर गायो, महावीर पाट चल आयो रे। सूरीश्वर श्रीजिनरंग रे, तसुशासन श्रावक चंग रे ।।७।।
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१ किम २ धरि ३ आवइ ४ वडकण बीवी बतलावइ ५ खाली नावड
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पद्मिनी चरित्र चौपाई ]
मंत्रीसर श्रीहंसराज रे, वड़ दातारा सिरताज रे। पुण्यवंत महा परवीण रे, गुणरागी नइ धर्म लीण ॥ ८॥ समरथ सगलइ ही कामइ रे, तास भ्रात डुगरसी नामइ रे। भागचंद बड़उ भागवत रे, मन मोटइ लखमी कात ।।६।। दीपक सम राजदुवारइ रे, कुल आभ्रण सोभा धारइ रे। तसु आग्रहि कीधउ एह, खंड बीजउ संपूरण तेह ।। १० ।। 'पाठक श्री ज्ञानसमुद रे, गणि ज्ञानराज मुनीचंद रे। गुरुराज तणे सुपसाया रे, मुनिलब्धोदय गुण गाया रे ।। ११ ।।
॥इति द्वितीय खण्ड सम्पूर्णम् ॥ इति श्रीपद्मिनीचरित्रे ढाल भापाबंधे उपाध्याय श्री ज्ञान समुद्र गणि गजेन्द्राणा शिष्य मुख्य विद्वद्राज श्रीज्ञानराज वाचक चराणा शिष्य पं० लब्धिउदय मुनि विरचिते कटारिया गोत्रीय मत्रिराज श्री हंसराज म० श्री भागचंदानुरोधन राणा श्री रतन सिंहलद्वीप गमन श्री पद्मिनी पाणिग्रहणं श्री चित्रकूट दुर्गागमन सम्बन्ध प्रकाशो नाम द्वितीय खड ॥ राघव चेतन दिल्लीगमन साहि वारिधि यावत् गमनागमन सम्बन्ध
प्रकाशनो नाम द्वितीय खड २ ( बड़ौदा प्रति)
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तृतीय खण्ड मंगलाचरण
दूहा
मात पिता बधव हितु, गुरु सम अवर न कोय । तिण हेतइं गुरु प्रणमतां, मनवंछित फल होय ॥१॥ तिणकु राग करी नम्, इष्ट देवता आप। खड कहुं अब तीसरो, सुणतां टलै संताप ॥२॥
पद्मिनी की पुनर्गवेषणा अणख' बोल बीवी तणा, सुणि के आलिम साहि। धमधमीयो कोप्यो घणो, अति अमरस मन माहि ।।३।। ततखिण व्यास बुलाइ ने, इम पूछे सुलतान । सिंहलद्वीप विना अवर, पदमणि आहीठाण ।।४।। चावो गढ चीतोड़ छै, पहोवी माहि प्रधान । रतनसेन रावल' जिहा, राजें अमली माण ।। ५॥ शेपनाग सिरमणी जिसी, तस घरि पदमणि नारि । लेई न सक्क कोइ तिण, किम कहिई अविचार ।। ६ ॥ एवड़ो सिंहलद्वीप नो, फोकट कीध प्रयास । गड चीतोड़ किसो गजो, साहि कहै सुणि व्यास ।। ७॥
१ नाजुक २ राणउ तिहा।
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पद्मिनी चरित्र चौपई]
[४३ चित्तौड़ पर चढ़ाई
ढाल (१) राग-आसा सिन्धू भणइ मन्दोदरी दैत्य दसकंध सुणि एह कडखा री चाल चढयो अलावदी साहि सवलं कटक,
सकज सिरदार भड साथ लीधा । मीर बडवीर रिणधीर जोधा मुगल,
सलह कारी सावता तुरत कीधा ॥१॥चा इन्द्र ने चद्र नागेन्द्र चित चमकीया,
धडहड्यो शेप ने लचकि किचकीचकर पीठ कूरंमतणी,,
__हलहलें मेरु दिगदत कूज ॥२॥०॥ आवियों साहि चित्रोडरी तलहटी,
लाख सतवीस उमराव लीधा। गाजती राजती जाणीइं गज घटा,
__ आप करतार नवी पार लीधा' ||३|चा तरणि छिप गयो रयणि जिम तारिका,
खलकि खुरताल पाताल पाणी । गुहीर नीसाण धन घोर जिम घरहरे,
हलहिवे वेग ल्यो हिंदुवाणी ॥४॥ गजा सिर धजा बहू नेज वाला करी,
उरमि मुरमि रहें पवन बाधो। हयवरा गेवरा उमरा सातरा,
आप करतार नवी पार लाधो ॥शाच॥ १ ममत गजरान गजगाह कीधइ
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"४४ ]
[पद्मिनी चरित्र चौपई
amaramr
m mrarrrrrrrr . - maxmmmmmmm
राण कुल भाण सुलतान आयो सुणी,
झटक दे कटक सहु सम कीधो। मुंछ बल घालि बहू रोस भाखे रतन,
हलाहिव साहि नईकरां सीधो च०॥ भला तु आवियो मुझ मन भावीयो,
दूत रजपूत मूकी कहायो। हूं हिजें साहि हुसीयार हिवें जाह मत,
भलां सिंघल थकी भाजि आयो ।॥७॥च०॥ माहरा साथ रा हाथ हिवें देखज्ये,
ढीलिपति रहैं मति हिवै ढीलो । भाजता लाज तुम का ज आवै नहिं,
देखयो साहि मोटो अडीलो ८० कीयो गढ सातरो नाल गोला करी,
माडीया ढीकली अरहट्ट यंत्रं । धान पाणी घणा वसत संचा किया,
मिली' बुद्धिवंत करे बहु मंत्रं हाचा तुरत रा तीर जिम वैंण रावल तणा,
सुणत परमाण पतिसाहि रूठो। भभकति आग में जाणि घृत भेलीयो,
___ साहि कहे हलां करि सुभष्ट रूठो ॥१०॥च०॥
१ महा मंत्रवी २ ततारा ३ राणा ४ सुलतान
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पद्मिनी चरित्र चौपई]
[४५
कोट करि चोट उपाडि अलगो करो.
बुरज गुरजां करी करो हिवें भूक । ढाहि ढम ढेर गढ घेरि करि पाकडो,
करो हिवें बदि दिन अंध घूक ||११||च०॥ करै मुख रगत युवगत आलिमधणी,
डारि द्यु फूकि थकी गढ चीतोड़। राण सु पदमणी चिडी जिम पाकडू,
कवण हिंदू करें हम तणी होड ॥१२॥च०॥
युद्ध वर्णन होय हुसीयार हथीयार गहि उठीया,
मीर वड वीर रिणधीर रोसइ । सुणो पतिसाहि अल्लाह अब क्या करे,
___ देखि तुम साथरा हाथ मोसें ।।१३।।चा. इम कहि मुगल सिर चुगल जिम मूडीया,
धाय गढ कंगुरे आय लागा। पीठ परि रीठ पाधर' तणी पड पडै,
अडवडै लडथड़े भिडै आगा ॥१४॥च०॥ भड़ा भड़ि भड़ा भड़ि नाल छूट भली,
__कड़ाकड़ि कूट वार्जे कुठारा । तड़ातड़ि तड़ातड़ि सबद गढ ठावता,
बड़ाबडि बाण लागे ऊठारां ॥१५शाच०॥ १ गढ सकल २ पाथर
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४६]
[पद्मिनी चरित्र चौपई
झू बीया लूबीया मीर गढ ऊपरा',
गोफणा फण-फणा वह गोला । गडा गड़ि गिर तणा गडागरि गिर पड़े,
___ चडाचडि उछल मुगढल्ल रहो ला ।।१६।। जालमी आलमी जोध मिलि झूझीया,
धरहरै धरा धमचक धूनी । सरस सग्राम री ढाल ए पनरमी,
सुगुरुराज ग्यान 'लालचद' वाजी ॥१७॥च०।।
एकण दिशि रावल अनम्म, आलिमपति दिशि एक । भभकारे' बेहुं सुभट, राखण रजवट टेक ॥१॥ खाणो दाणो पूरव, रावल रण रंढाल । भारथ मे योद्धा भिड़े, रिणयोद्धा जिम काल ||२|| आलिम चिंता अति घणी, पदमणि पेखण प्रेम। गढ हाथै आवें नहीं, कहो हवै कीजै केम ॥३॥ दिल्लीपति दाखै इसौ, सुभटा ने समझाय । सहु तुमे हिव सामठा, जुड़ो तुरंगा जाय ॥४॥ नेडा होय गढ सुनिपष्ट, खोटो खानि सुरंग। बुरजा तणा पुरजां करो, देशी धड़ा दुरंग ॥५।।
१ कागुरे २ भूधल होला ३ वांची ४ रणउ वपुकारे ५ मड़ : रिम ७ जडठ दुरगे
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[४७
पद्मिनी चरित्र चौपई ]
ढाल ( २ ) चरणाली चामु डा रण चढे एहनी साहि कहै सुभटा भणी, होज्यो हिवे हुसीयारो रे। मरदानी मरदा तणी, देखेंगे इण वारो रे ।।१।। रिण रसीयो रे अलावदी, नीर वड़ा रण-धीरो रे। हलकारे हल्ला करे, मुगल सूकी वड़धीरो रे ।।२।। रिण० मरण तणो डर कोई नहिं, मरना है इक वारो रे। बहुत निवाज वडा करू , ह बहु देश भंडारो रे ॥रिणा दिल्ली अब दूर रही, हिकमति' अब मति हारो रे। रोड़ो इक-इक खेसता, होय पाधर दरहालो रे !|४|| रि०॥ कुटका कोट तणा करो, खोदि करो खल खटो रे । कूट पाड़ो कागुरा, नेडा होइ निपटो रे ।।५।। रिका निसरणी ऊंची करो, सुभट करो पैसारो रे । आणो रावल' इण घड़ी, कुहण न्यासु गमारो रे ।।६।।रि०|| तुरत उठ्या तडभडि करी, सुणि के माहि वचनो रे।। मीर मुगल मसती हुआ, सलह पहरी यतनो रे ॥७॥ रि०॥ धेठा होय ने धपटीया, दड़बड़ लागा डागा रे। वानर जेम विलगीया', लपटी गढ में लागा रे ॥८॥ रि० गणण गणण गोला वहे, जाणं सींचाण अजाणो रे ।। सगग सगग सर छूटता, बगग वगग कूहकवाणो रे ।।९।। रिol
१ हिम्मति २ राणठ ३ जोसण पहर जतन्न रे ४ जाणे ५ विलविया जाण सीचाणा जाणो रे
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४८]
[पद्मिनी चरित्र चौपई मार मीर महावली, ताके वाहै तीरो रे। कूटे कोटनै कागुरा, धुव' खडे बड धीरो रे ॥१०॥ रिका रिण रहीया हय हाथीया, कीधा जाणे कोटो रे। रुधिर तणी रिण नय वहइ, सूर कमल दड' दोटो रे ।।११।। रि० आतसवाजी उछली गयणे घोर अधारो रे। आरा वे नर ऊछल, जाणे सूरातन रिण सारो रे ॥१२॥ रिक नारद नाचें मन रुली, डिम डिम डमरू बाजे रे। जोगणिया खप्पर भर, रुहिर पीवै मन छाजे रे ॥ १३॥ रि०॥ डडकारा” डाकणि कर, राक्षस देवइ रासो रे। रुडतणी माला रच, अमयापति उल्लासो रे ।। १४ ।। रि०॥ सुर भणी सुरलोक स्यु, ऊतरै अमर विमाणो रे। अपछर आरतीया करइ, कामणि कंचन वानो रे ।। १५ ।। रि॥ मुगल बसत लूट घणी, माम कोठार भंडारो रे। माथे कीधी मेदनी, हूओ गढ़ हाहाकारो रे ।। १६ ।। रि० ।। हेरा करें डेरा हौं, राति वाहै राजो रे । मुगल घणा तिहा मारीया, सवल लूटाणा साजो रे ॥१७॥ रि० सांझ लगै दिन प्रति लड़ें, पिण कोई न सीझइ कामो रे । फोकट मुगल मरावीया, आलिम चितै आमो रे ॥ १८ ॥ रि॥ कल बला दोन ले करइ, तउ कारिज चढइ प्रमाणो रे । 'लालचंद कहें साहि सुवीस कहई इम वाणो रे ।। १६ ।। रि० ।
१-ध्रोव पडै २ दल ३ सुत ४ मत वाजै रे, ५ डडडाटा ६ गोठि
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पद्मिनी चरित्र चौपई ]
T४
कपट प्रपंच रचना
दूहा छानो कोइक छल करो, मति प्रकासो मम । कपटै वात करो इसी, जिम रहै सगली सर्म ।। १ ।। करो सुस जेते कहै, बोल बंध सवि साच । हम मुसाफ उपारि है, विचलां नहिं वाच ॥ २ ॥ इम विचारि गढ मूकीया, जे पाका परधान । रावल' सुइण परि कहै, करी तसलीम सुजाण ।। ३ ।। मेल करण हम मूकीया, जो तुम मानो बात । प्रीत वधे हम तुम प्रगट, सबही एह सुहात ॥ ४ ॥ दरस देखि पदमणि तणो, भोजन करि तसु हाथ । आहीठाण गढ देखि नै, साहि चलंगे साथ ॥ ५॥ ढाल (३) बात म काढो व्रत तणी ए देशी २ काची कली अनार की रे तासु तणी वातां सुणी, वोलै राव रतनो रे । सुणि हो राजन्ना। गढ तुम हाथ आव नहीं, जो करो कोड़ि जतनो रे ॥ १॥ ता० पाणी वलतो ही पतीजीई, जो उठावै मुसापो रे । सुस कर मन सुध स्यु, छोडै सकल कलापो रे ॥२॥ ता० वलि प्रधान इम वीनवे, सुणि हिन्दू पतिसाहो रे। देश गाम दूहवा नहीं, दंड तणी नहिं चाहो रे ।। 3 ।। ता०॥ राजकुमारी मागा५ नहि, नहिं तुमस्यु दिल खोटो रे। नाक नमणि हम सुकरो, देखाडो चित्रकोटो रे ॥ ४॥ ता०
१ राणा २ चलें ले ३ पिण जउ मेल करइ मछइ रेहां, तउ उठावी मसाफ ४ किलाफ ५ परणउ ६ अउ तुम ।
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५०]
[पद्मिनी चरित्र चौपई । मैं अपणा कृत कर्म सु, असुर कुले अवतारो रे । पूरब पुण्य प्रमाण सु, तू हिंदूपति सारो रे ॥शाता। जीव एक काया जूई, तू पूरव भव मुझ भ्रातो रे । हम तुम सू मेलो हुओ, बैठि करई दोय बातो रे ॥६॥ता०॥ हरख बहुत हमकु अछ, भोजन पदमणी हाथो रे । दीदार पदमणी देखिय, ओरण चाहै आथो रे॥णाता॥ पाछै दिल्ली कुं चलें, हम तुम होय सनेहो रे। तब रावल' तिणसु कहै, जो नवि जोर करेहो रे ||ाताo|| तो नचिंत पावधारिइं, लसकर थोड़ो लेइ रे। आरोगो आणंद सुं, हम घर प्रीति धरेइ रे हाता॥ साहि भणी वाता सहु, जाय कहै परधानो रे। सुस सपति' निज वाह सु, झूठे मनि सुलतानो रे ॥१०॥ इलोक-मुखं पद्मदलाकारं, वाचाचंदन शीतलं ।
हृदयं कर्तरी तुल्यं, त्रिविधं धूर्त लक्षणम् ॥१॥ राघव मंत्र' उपाईयो, रावल झालण कालो रे। छेतरवा छल माडियो, साहि कीयो बहु साजो रे ॥१शाता०॥ घरभेदू राघव मिल्यो, सामिधरम दियो छेहो रे। घरभेदू थी घर रहै, खोवै पणि घर तेहो रे ॥१२॥ता घर भेदइ लंका गई रेहा, रावण खोयो राज ।सु० घररउ उंदिर दोहिलउरेहा, सुगम अवर मृगराज ॥१३॥
१ पीछे दिल्ली कुच ढेरहों २ राणौ ३ सबदि ४ द्यइ ५ कीधठ मत्रणउ, राणा।
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पद्मिनी चरित्र चौपई]
सुलतान का चित्तौड़ प्रवेश पोलि उघाड़ी गढ तणी, सरल सभावै राणो रे । मुंक्या तेडण' मंत्रवी, वेघ' पधारो सुलतानो रे ॥१४॥ तीस सहस लोह लुवीया, ले पैठो सुलतानो रे। समचा सुते संचरथा, जाण पडि नहिं राणो रे ॥१।। देखवा कोतिक मिल्या तिहा, नरनारी जन वृदो रे। पिण किणहि जाण्यो नहिं, दिलीपति रो छंदो रे ॥१६॥
सुप्त गुप्तस्य दम्भस्य, ब्रह्माप्यंतं न गच्छति ।
कौलिको विष्णु रूपेण, राजकन्या निसेवते ॥२॥ कपट कोई नवी लिखी सके, जो करी जाणे कोई रे । 'लालचंद मुनीवर कहै, पिण भावी हुई सो होई रे॥१७॥
आया दीठा सामठा, आलिम सु असवार । खुणस्यो मन मांहि खरो, रावल जी तिण वार ||१|| बूलाया आया तुरत, सम कीयाह सुभट । दल बादल आई मिल्या, हिंदू मुगलां थट ॥२॥ दिलीपति ढीलो हुवो, पहुंचे कोई न पाण । अचरिज' आसंगी न सके, बोले एहवी वाण ॥३।। काहे कु मेलो कटक, खोटो म करो खेद । हुँ लड़वा आव्यो नहीं, नहि छै को छल भेद ||४||
१ मोटा २ पाउ धारठ ३ सब ४ सयनी किये ५न को उपाय ६ आसग सके न कोइ किण, आलम खेलइ दाप ।
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५२]
[पद्मिनी चरित्र चौपई
कोतिग देखी गढ तणो, हुं जास्युनिज ठाम । वली रावल जी इम कहै सुणि दिलीपति साम ॥१॥
ढाल (8)
१ तिण अवसर वाजै तिहा रे ढंढेरा नो ढोल ए देसी
२ मेवाड़ी दरजणी री ढाल एतला आण्या सा भणी रे, तीस सहस असवार। विण कारण वानर जिसा रे, माता मुगल्ल जे इणवार रे ॥१॥ धुरत दिल खोटा रे, काई रे तु साहिब मोटा, वाचा चको रे, आलिम वाची चूको । आकणी । चूक कियो तो चूरस्यु रे, सेक्या पापड़ जेम रे। पीसी न्हां पलक में रे, आटा में सिंधव जेम रे ॥२॥धु।' हलकारैः हलकां करी रे, ऊठ सुभष्ट अपारी सार मुखें तिल तिल कर रे, एकेको एक हजार ॥३॥धु०॥ गढगंजन सुभटां भणी रे, तनक हुकम है मुझ । तो चिड़ीया जिम पाकड़े रे, ए तीस सहस दल तुम रे ॥४धु०॥ आलिमपति इम चिंतवै रे, राय सुणों अरदास निज घरि आया पाहुणा रे, कहो किम कीजे उदास रे ॥५ धु०॥ सगते केम सत्ता करो रे, काय पचारो पाण। । थोड़ा ही होवे घणा रे, लीज्य मेलि महमान रे॥६॥५०॥ १ वदइ २ एतइ ३ हलकारनां हेक नइ रे ४ चिडियाँ री परि।
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पद्मिनी चरित्र चौपई ]
[५३ राणा का आतिथ्य . हम जीमवा आया हुता रे, नहिं लड़वानो काज । 'घणो मामलो काय नहीं रे, आज सुभक्ष सुहगा नाज रे॥७ जीमता जो आणो अछो रे, खरच तणो मनि खेद।। कहो तो फिर पाछा फिरा रे, ते भाखो हम सुभेद रे ॥८॥ भणइ रावल आलिम भणी रे, भलै पधार्या साहि ।। चीजा वोलावो वले रे, जीमवा नी सी परवाह रे ॥६॥ ओछा बोल न बोलीई रे, दिल में राखी योग। बोल बोल वेऊं हस्या रे, हाथ देई तालि जोग रे॥१०॥ मांहो माहि मिलि गया रे, सवल हुओ संतोष । दोष सहु दूरे किया रे, राख्यो रावल रो तोष रे॥१॥ रावल भगति भोजन तणी रे, सहअ कराई सझ । रूड़ी व्यंजन रसवती रे, आरोगण आलिम कन्ज रे॥१२॥ पदमणि सुप्रीतम कहै रे, खरी धरी मन खति । जिण विधइंजस रस रहै रे, भोजन दीजइ तिण भंति रे ॥१३॥ श्रीतम सु पदमणि कहै रे, हु नहिं परुसुहाथ । मो सम दासी माहरी रे, ते परुसस्यै दिलीनाथ ॥१४॥ मानि वचन महाराय जी रे, सिणगारी जव दासि । काम तणी सेवा जसी रे, रूपे रंभा गुण राशि रे ॥१॥ खाति करी खिजमति करें रे, आसण बैसण देह । साख तिहुँ सावती करी रे, तेड़ई दिलीपति तेह रे ॥१६॥
१ साखित सहु ।
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५४]
[पद्मिनी चरित्र चौपई हरखित चित आवै हिवरे, दिलीपति सुलतान । 'लालचन्द' मुनिवर कहै रे, सुणयो हिव चतुर सुजान रे॥१७॥
दूहा ऊंचा अमर विमाण सा, मोटा महेंल अनेक । गोख झरोखा जालिया, धोल ति शुद्ध विवेक ॥१॥ सरग मृत्य पाताल सव, सुन्दर वन आराम । चात्रक मोर चकोर वहु, चितरीया चित्राम ॥२॥ कनक थंभ कलसे करी, मंडित मोहण गेह । मिगमगि ज्योति जडाव की, चलकती चन्दरुएह ।।३।। रंगित मंडप माहि हिव, जाजिम लांबी जेह । वारु कर वीछामणा, मोल घणा छ जेह ॥४॥ मोखमल मोटा मोल रा, पंच रग पटकूल । जरी कथीपा जुगति सु, सखर विछावे सूल शा तरहदारविण मई ठव्यो, सिंहासण तिण' वार । माणिक मोती लाल बहु, जड़ीया रतन अपार ॥६॥ तिहां आवी बैठा तुरत, सवल साथ सुसाहि । चितई मानव लोक मे, आणी भिस्त अल्लाह ॥७॥
भोजन सत्कार
ढाल (५) अलवेल्या नी पहरी पटोली पाभड़ी रे लाल, दासी सुन्दर देहः मन मान्या रे एक आधी आसण ठवे रे लाल, रूप अधिक गुण गेह, मन०॥
१ सुखकार ।
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पद्मिनी चरित्र चौपई]
[५५ भोजन भगति भली कर रे लाल, सुंदर रूप अचंभ । मन० दासी पदमणि सारखी रे लाल, रूपै जाणे रंभ । मन० ॥२॥ सोवन भारी जल भरी रे लाल, कनक कचोला थाल । मन० . ले आवै भावै घणे रे लाल, कामणि अति सुकमाल । मन० ॥३॥ नाना व्यंजन नव नवा रे लाल, चतुर समास्या चाख । मन० खाटा मीठा चरपरा रे लाल, रूड़े स्वाद राखि । मन० ॥४॥
आंवा नींबू कातली रे लाल, माहि वूरो मेलि। मन० कूकणीया केला तणी रे लाल, कीज्ये ठेला ठेलि । मन० ॥५॥ नीली चउला नी फली रे लाल, काकड़िया कालिंग। म० काचर परवर टीडसी रे लाल, टौंडोरी अति चंग । म०॥६॥ मुमवड़ी पेठावड़ी रे लाल, खारावड़ी मन खंति । मन० डबकवड़ी दाधावड़ी रे लाल, व्यंजन नाना भंति। मन० ॥णा राय डोडी राजा दनी रे लाल वली खुरसाणी सेव । मन । दाडिम दाख सोहामणा रे लाल, खरबूजा स्यु टेव । मन० ॥८॥ खाति समारया खेलरा रे लाल, राईता ईमेलि, मन० घोलवड़ा काजीवड़ा रे लाल, माट भरया छ ठेलि । मन० ॥६॥ कारेली ने काचरा रे लाल, तली मूकी घृत संगि । मन० पापड़ एरंडकाकड़ी रे लाल, सीरावड़ीय सुचंग । मन० ॥१०॥ मोठ मठर चूंला फली' रे लाल, छमकास्या देइ वघार । मन० । मुल फूल फल पानड़ा रे लाल, अथाणा सुखकार । मन० ॥११॥
१ पाखड़ फइर २ चिणा ३ संधाणा
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[ पद्मिनी चरित्र चौपई
सुंदरि परूस्या सालणारे लाल, हिव पकवाने हूंस । मन० । खारिक निमजा खोपरा रे लाल, प्रीसतां रूडी रुस मन०।१२।। दाख विदाम चिरंजीया रे लाल, मेवा सगली जाति । मन०। खाजा ताजा खांडरा रे लाल, घेवर बूरो घाति । मन० । १३॥ सखरा लाडू सेवीया रे लाल, मोती मनोहर जाति' मन घेवर वडलां हेसमी रे लाल, पैड़ा कंद बहुभांति ।मन० ॥१४॥ पेंडा" डीडवाणा तणा रे लाल, पूड़ी लापसी तेर मन। मुहम तणीअ तिलंगणी रे लाल, जलेची बीकानेर । मन०॥१५॥ पहुआवर धनपुर तणा रे लाल, गुप चुप गढ ग्वालेर । करणसाही लाडू भला रे लाल, वारु बीकानेर ।।१६।। वयानइ रानीपना रे लाल, गुदबड़ा गुणखाण । म० गुदवडा पाया तणा रे लाल, आंवा रायण आण मन०] रुस्तक रा दाणा भला रे लाल, गुदपाक सुख खाण मन०१णा सीरा फीणी सँहालीया रे लाल, सावूनी सुखकार । मन० । इन्द्रसा नै दहीथडा रे लाल, इम पकवान अपार ।मन० ॥१८॥ रायभोग गरड़ा तणी रे लाल, साठी सखरी सालि मन० . देव जीर परुसै भला रे लाल, दिल माने ते दालि। मन०।१६।। मूंग मोठ तूअर तणी रे लाल, राती दाल मसूर ।मन० । उड़द चिणा ऊपरि घणारे लाल, सुरहा घृत भरपूर मन०॥२०॥
१ रूप २ वावरह समी ३ केला ४ रूप ५ गट्टा ६ पेंडा नागपुरीय ७ गुपचुप गढ ग्वालेर; जलेबी सु जीय
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पद्मिनी चरित्र चौपई]
[५७
भोजन री मुगले भली रे लाल, कीधी भाड़ा झाडिमन उपरि गौरस आथणी रे लाल, परुसै पदमणि माड़।मन० ॥२१।। चलू करी मूछण दीयारे लाल, लूग सुपारी पान । मन० । 'लालचंद' कहै साभलो रे लाल, तुरक कर अति तान ।मन॥२२॥ दासी के सौन्दर्य पर मुग्ध सुलतान को राघव चेतन का
पमिनी दिखाना
दोहा ज्यु ज्युदासी नव नवी, सझि आवइ सिणगार । देखि देखि चित चमकीयो, आलिम भोजन वार ॥१॥ रूप अनूपम रंभसम, उवा पदमी कहै याह । वार वार विह्वल थको, पै आलिम साहि ॥२॥ एक नहीं अम घर ईसी, कैंसा हम पतिसाहि । याकै एती पदमणी, देखत उपजै दाह ॥३॥ वार वार झवखो किसुं, राघव बोलै एम । ए दासी पदमिणी तणी, आप पधारइ केम ॥४॥ चुंप दे के देखो चतुर, विचली म करो वात । सहस दोय सहेलीया, रहै संग दिन राति ॥ ५॥ ढाल (६) हसला ने गलि चूघरमालकि हसलउ भलउ, ए देशी व्यास कहै सुणि साहिबा, पदमणि नो हे साचो सहिनाण कि। काची कंचन वेलसी, नहिं रूपे हे एहवी इंद्राणि कि ।। १ ।। “मवकै जाणे वीजली, अंधारै हे करती उजासकि । भमर सदा रुणझुण करई, मोह्या परिमल हे नवी छंडे पास कि
||सुन्दरि भनी।
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[ पद्मिनी चरित्र चौपई
ते आवी न रहइ छिपी, जे मोहइ हे त्रिभुवन जन मन्न कि । सुं० खिण विरहउ न खमि सकइ,
जतने करि राखइ राणउ रतन्न कि । सु०३r (राणो) रात दिवस पासे रहै, धन्य देखे हे एहनो' आकार कि। साहि कहै सुणि व्यास जी,
किण विधसु हे देखै दीदार कि । सु० ॥४॥ व्यास कहै सुणि साहिवा' अति ऊँचो हे पदमणि आवास कि। मुजरो कोई पामे नहिं,
रावल ही हे लहै भोगविलास कि । सु० ॥५॥
कवित्त
लाख दस लहै पलिंग सोडि तीस लख सुणीजें गाल मसरया सहस सहस दोय गिंदआ भणीनें ॥ तस उपरि मसोड़ि मोल दह लखे लीधी। अगर कुसम पटकूल सेम कुकम पुट दीधी।। अलावदी सुलतान सुणि विरह व्यथा खिण नवी खमैं । पदमणि नारि सिणगारि करि रतनसेन सेझा रमैं ॥१२॥ ढाल तेहीजजे देखइ पदमिणि भणी, ते गहिलो हे होवे गुणवंत कि । सुं० मान गलइ बहुनारि ना, इम बातां हे वे करि बुधवंत कि । सु०६.
१ ए रति रूप उदार कि २ करि हे इम होइ० ३ सामिजी ४ दोपड़ि
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पद्मिनी चरित्र चौपई ]
[ ५६
इण' अवसरि पदमणि कहै,
सहीयां देखा हे केहवो पतिसाहि कि । सु। जाली में मुख घाली नै,
गयगमणी हे देखै मन उच्छाह कि ॥७॥ सुना ते देखी व्यासैं तिसें तब बोले हे देखो सुलतान कि सु। रतन जडित जाली विचइ,
बइठी वाला हे गुणवंत सुजान कि । सु० ॥८॥ तुरत देखी ने पदमणी, बोलइ आलम हे नागकुमारिकि । सू। भद्र कि नाथा रुकमणी,
किन्नर किन होय अपछर नारि कि राह| सु०॥ वाह-वाह वे पदमणि ऐसी नहीं हे इन्द्र घरि इन्द्राणि कि । सुं० या कइ अंगूठा समि नहीं,
नारी हे जगि मांहि सुजाण कि । सु११०॥ देखी आलिम अचरिच थयो,
नहिं एहवी नारि संसारिकि । सु० ॥११॥ किती बात याकी कहों,
मुम मन हे मृग पाड्यो प्रेम पास कि । सु०॥ मुरछित हो धरणी पडयों,
वलि मुके हे मोटा नीसास कि सु० ॥१२॥ व्यास कहै सुणि साहिवा, स्यं खोवे हे फोकट निज साखि कि। और बुद्धि इक अटकला,
तव लगे हे मन धीरज देउ राखि कि । सु।।३।। १ तिण २ कोई बुधि
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[ पद्मिनी चरित्र चौपई
जो रावल जिम तिम करी, पकड़ीजे हे तो पहुंचे मन' हूँस कि। आलोची मन आपण, धीरज धरि हे मन पूगै हूंस' कि ।।सु॥१४॥ केसरि चन्दण कुमकुमा, छंटीज्ये हे कीज्ये रंग रोल कि । सु। वारू दीध पहिरावणी,
हय गय रथ हे आभरण अनेक कि । सुं० ॥१५॥ भगति जुगति राणइ भली, संतोज्या हे सकल राय राण कि। सुक लालचंद कहि साभलउ,
अस बोलइ हे सइंमुखि सुलतान कि सु॥१६॥
वाह झालि सुलतान कहें, राय सुणो महाराउ । महमानी तुम बहुत की, अब हम गढ़ दिखलाउ ॥१॥ रतनसेन साथे हुओ, विषमी विषमी ठोड़। देखायो सुलतान ने, फिरि-फिरि गढ चीत्तोड़ ॥२॥ विषम घाट बाको घणो, देख्या छूट गरब । खोट नहीं किण वात नो, साज सातरो सरव ||३|| कीन्ये कोडि कलप्पना, तोहि न आवै हाथ । इम विचारी आपणे, इम जपे दिल्ली नाथ ॥४॥ काम काज हम सु कहो, बंधव जीवन प्राण । बहु भगति तुम हम करी, अब सीख' मागे सुलताण || एम कही वगसं वसत, आलम वारम्वार । कनक रतन माणक जडित, आभ्रण शस्त्र अपार ||६||
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१ प्राणकि २ जीमिया धान ३ विदा देहु महाराण
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पद्मिनी चरित्र चौपई ]
[६१ आलिम कहै ऊभा रहो, करयो मया सढीव । रावल कहै आगे चलो, ज्यु सुख पावे जीव ।।६।। ईम कहि गढ बारणे,' संचरीयो महाराव । खुरसाणी खोटे मनै, देखें दाव उपाव | ___ राघव चेतन की कुमंत्रणा
ढाल (७) राग-मारु १ पंथी एक संदेसडो, २ कपूर हुवै अति ऊजलोरे एदेसी व्यास कह नहिं एहवो रे, औसर लहस्ये ओर । कहस्यो पछै न कह्यो किणे, थे मति चुको इन ठोर ।।१।। साहिवजीथे मानल्यो मारी बात, वलि एहवी न पायवी घात । सुनि सुलतान मन चिंतवै रे, साच कहै छै एह । अवसर चूक गमाडियो, मोल न लहीइ तेर ।।२।। सा० । हुकम कीयो हल्ला करी रे, विचल्यो साह वचन्न । जूझारे जाइ झालियो रे, कपटइ राण रतन्न ।।३।। सागा,
राणा की गिरफ्तारी हम महिमानी तुम करी रे, अव तुम हम मेहमान । पेशकशी पदमणी कीया, हिवें छूटेवो राजान ।।४||सा०॥ साथे सुभट हुँता तिके रे, तेह हुआ मति मंद। हिकमति काइ न केलवी, राय पड़यो बहु फद ।।शासाला वेडी घाली वेसाणीयो रे, राह ग्रह्यो जिम चंद । जोरो कोई चालीयो, सिंह पड़यो जिम फंद सा०॥
१ वाहिरै २ हिम्मति
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६२]
[पद्मिनी चरित्र चौपाई
गढ ऊपरि वार्ता गई रे, हलहलियो हिंदुआंन । गढ़पति माल्यो आपणो जी, कीज्ये केहोपान ॥णासाला गढनी पोलि जड़ाइ नइरे, मिल्यो कटक गढ माहि। लोक सहु कहै राय जी, मुरिख अकलि सुनाह साना काई कीयो कपटी तणों रे, असुर तगो वीसास । राय ग्रह्यो हिव पदमणी ने, गढनो करसी ग्रास सा०| आय वैठो सुभटा विच रे, वीरभाण बड़ वीर । आलोचे मिल एकठा जी, सूर सुभट रिणधीर ॥२०॥साका एक कई गढ मे थका रे, सबलो करो सग्राम । एक कहै रूडो हुवै रे, राति (दिवस) वाहें काम ||१शासागा दाणो न मिले जूझता जी, संकट माहिं सामि । एक कहै नायक विना जी, न रहे जूझया मामि ||१२||सागा
हतं ज्ञानं क्रियाहीनं, अज्ञानं च हतं नरं । हतं निर्नायकं सैन्यं, अभारि स्त्रियो हतं ॥१॥ सबला सं जोरो कीया रे, कारिज न सर कोय। कहें एक मरवो अछे जी, ज्यु भाव त्यू होय ॥१३॥सा०॥ मूआ गरज न का सरै जी, छल विण न सरै काज । 'लालचन्द' छल बल कीया जी, अविचल पामै राज ॥१४॥
चितौड़ दुर्ग में शाही दूत द्वारा पद्मिनी की मांग .
मिलि मिलि मोटा मत्रवी, सूर सुभट रजपूत । इण विधि आलोचे तिस, आयो आलिम दूत ॥१॥
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पद्मिनी चरित्र चौपई]
आलिम' आया दूत वे, बूलाया देइ मान । आलिम साहि तणा वचन, ते परकासै परधान ।।२।। आलिमसाहि अलावदी, मूक्या करिवा प्रीति ।
मानो जो ए मंत्रणो, तो रंग वाधइ बहुप्रीति ।।३।। ढाल ( ८ ) मेवाड़ी राजा रे चीत्रोडी राजा रे, एहनीमुझ मानो वाता रे जिम होवे धाता रे,
वले एहवी रे घाता धाता दोहरी रे ॥ १ ॥ साहि पदमणि तेड़े रे, तुम राजा छोड़े रे,
वहु कोडै कर तोड़े बेड़ी लोहनी रे ॥२॥ गढ कोट भंडारा रे, धन सोवन तारा रे,
हय गेवर सारा माणिक जवहरु रे ।।३।। अवर नहिं मागे रे, तुम देश न भाग रे,
मांगे मन रंगे पदमणी मनहरु रे॥४॥ मन माहि विचार रे, बहु जूझ निवार रे,
जो तुम देस्यो नारी सारी पदमणी रे ।।५।। तो देस्यो राजा रे, धन मानै ताजा रे,
नहिं छूटण इलाजा बीजा तुम धणी रे ॥६॥ जो वातें सीधी रे, राणी नवि दीधी रे,
. तो हो गढ तोड़ें नाखुईण घडी रे॥७॥ भाजे तुम देस्यां रे, भागी ट्रक' करेस्या रे
तुम राज हरेस्या तुम सेती लड़ी रे ॥ ८॥ + तिहा ने तेदो मृकि नै २ बहुमान ३ तुम ४ अलम ५ भकभूर
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[ पद्मिनी चरित्र चौपई
ईम भाखी चाल्या रे, परधाने पाल्या रे,
वाहे करि झाल्या आल्या धन वह रे॥६॥ हम सिर तुम खोले रे, वीरमाण इम बोले रे
___हम गढ तुम ओलैं राय राणी सहू रे ।। १० ।। आलोची रातें रे, कहस्या परभात रे,
जाते रहवातै सुख हम तुम सही रे ॥ ११ ॥ पाउधारेंउ डेरै रे, आलिम पंति हेरै रे;
विसटालु चर' पाछा फिर इम कही रे ।। १२॥ आलोचई के. रे, न हुंता जे डेरै२ रे,
आधा ले ते. हेडै स्यु होसी रे ।। १३ ।।
पथविचलित वीरमाण आलिम अडीलो रे, किण ही परि ढीलो रे,
होवे न रढीलो तुरक गयो गुसे रे॥१४॥ जो दीज्य राणी रे तो न रहै पाणी रे,
विण दीधे गढ जाणी हाणि होवै पर्छ रे ॥१॥ जोरें जो लेसी रे, बहु वंद करेसी रे,
तो काइ नव रहसी रजवट जे अछे रे ॥१६॥ आ पदमणी दीज्य रे, घर सुत संधीजे रे,
विण दीधा बंधीजे, छीने जन घणो रे ।। १७ ।। कोई वोल्यो वाणी रे, ए मुंकी अडाणी रे,
राणी धर लीजे राणो आपणो रे ।। १८॥ १नर २ नेडै ३ वलि
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पद्मिनी चरित्र चौपई ] वीरभाण विचारइ रे, मन वैर संभारइ रे,
इण सोहाग उतात्यो मुझ माता तणो रे ॥१६॥ __ जो परही दीज्ये रे, सहिजइ छूटीज्ये रे,
कीज्ये न विलंभ इण वातें घणो रे ॥२०॥ सुभट समझावै रे, ए वात सुणावै' रे,
सगला सुख थावै जउ दीजइ इणै रे ।। २१ ।। किणही मनमानी रे, भलीय न जाणी रे, सुभटा ने न सुहाणी रे
विण नायक न ताणी वोल कह्यो किणे रे ।।२२।। यस्मिन्कुले यत्पुरुषः प्रधान. सएव यत्ने न हि रक्षणीय । ।
तस्मिन विनप्टे सकलं विनप्टे नानाभि भंगे हरकावहति ॥ मन दुरमत' आवी रे, सगला मन भावी रे,
__ वीरभाण सोहावी भावी जे हुवे रे ।। २३ ॥ सगला ही विचारी रे, परभातै नारी रे,
__ दीज्यै निरधार उठि ईम कहै रे ।। २४ ।। सुणि पदमणी सोचै रे, नयणे जल मोचे रे,
परधाने पौचे मन मे खलभली रे ॥२५॥ सुभटां सत हास्यो रे, राय वधास्यो५ रे,
अम काज विचास्यो भव हारण वली रे ॥२६॥ १ वणावै २ दुश्रीनी ३ समचावी रे ४ सोहावीजै सही रे ५ वंदि पधारो रे
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___ ६६]
[पद्मिनी चरित्र चौपई।
पद्मिनी का स्वावलम्बन किण सरणे जाऊं रे, दीन भाष सुणाउं रे,
सतहीण न थाउं मन कीज्ये खरो रे।। २७ ।। ए सुभट कुजीहा रे, सी कीजइ ईहा रे
मुख असुर न पेखरं जीहा खण्डि मरउं रे ॥२८॥ समझी मन सेती रे, खत्री धर्म खेती रे,
मन' धीर धरेती जिम एती सती रे ॥ २६ ॥ सीता ने कुती रे, द्रोपदि बहु भंती रे,
लही सकट न सील चूकी रती रे ॥३०॥ सत सील प्रभावइ रे, दुख नइ मउनावइ रे,
वहु आणंद बधावइ, दिन रयणी गरवइ रे।।३।। हिवे सील प्रभावें रे, सुणयो मन भाव रे,
__ मुनि 'लालचन्द' गाव पावे सुख ध्रुवे रे ।। ३२ ।। वीर गोरा के घर पद्मिनी गमन
गोरो रावत तिण गढे, वाढल तस भत्रीज । - वल पूरा सूरा सुभट, खत्री धर्म (राख) तेहीज ||१|| तजी सेवा रावल” तणी, किणही कुवोल विशेष । चाकर गयर थका रहें, गास गोठ तजि रेख ।।२।।
--- १ बहु २ कष्ट न चूकउ 'सन एका रती रे ३ सत ४ बिहुँ, ५ श्री राम नी।
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[
७
पद्मिनी चरित्र चौपई] जेहवे ते जाता हुता, अवर ज सेवा कर्म । तेहवें गढ रोहो हुवउ, रहिया खत्रीवट धर्म ॥३॥ गाठि खरच' खाता रहै, अभिमानी वड़ वीर । गढ रोहो किम नीसरै, पर दुख काटण धीर ॥४॥ एहवा ने पूछ नहीं, न्याय हुवे तो केम। पंडित नै आदर नहीं, मूरख सुवहु प्रेम ॥क्षा
___ ढाल (e) एक लहरीले गोरिलारे-ए देशी गढ नी लाज वहै घणीरे, गोरो वादल राउरे । ते सुणीया मोटा' गुणी, बुद्धिवंत सूर साहाउरे ॥१॥
गढ नी लाज वहै रे । आ॥ चित सुएहवो चिंत रे, चालि चढी चकडोलो रे। साथ सहेली ने झूलरै रे, ते गई गोरा नी पोलो रे ॥१॥ गा बैठो दीठो वारणे, गोरोजी गात गयदो रे। हरषित मनि पदमणी हु1, ए दूर करेसी दंदो रे ॥३॥ ग०॥ सामो धायो उलही, प्रणमें पदमणी पायो रे। मया करी मो ऊपरै रे, गोरिल बोले माय रे ॥४ाग०॥ आज दिवस धन्य माहरो रे, आवी आलसुआ में गंगो रे। पवित्र थयो घर आगणो, अधिक पवित्र मुझ अंगो रे ॥शाग०॥ काज कहो कुण आविया, माताजी मुझ आवासो रे। तब वलती पदमणि कहै, अवधारो अरदासो रे ॥६॥ ग०॥
१ गरथ २ कातर ३ पदमिणी ।
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६८]
[ पद्मिनी चरित्र चौपई सुभटें सीख दीधी सहु रे, खोई खत्रीवट लीको रे । असुरा घरि अमनें मोकले, कुमतीया लाज कितीको रे ॥७॥गा सीख द्यो हिव मुझ नै, आई छु इण कामो रे । ग्यान किस मुझ ने गिणे, कहै गोरा इण गामो रे ॥८॥०॥ खरच न खावां केहनो, कोई न पूछ कामो रे। तोपिण हिव चिंता तजो, आया जो इण ठामो रे ।।।।ग! अलगो भय असुरा तणो, हओ हिव मात निचितो रे। जाण्या सुभट वड़ा जिके, जिण दीधो-एह कुमतो रे ॥१०॥ग०|| वर मरवो इण वात थी, राणी देई राओ रे। छूटावीज्ये ,एहवो, सुभट न खेल डाओ रे ॥११॥ग०॥ करसी ते जीवी किसु, थाप्यो जिण ए थापो रे। कर जोड़ी राणी कहै, इण घरि एह अलापो रे ॥१२॥ ग॥ खोयो राय गढ खोवसी, इण वुद्धि सारू एहो रे। तिण तुझ हुं सरणो तकी, आई छ इण गेहो रे ॥१३॥ ग०, सिंह तणो स्यो स्यालीइ, कारिज करे समारो रे। गज पाखर गजस्युचलै, भीत निवाहै भारो रे ॥१४॥ग०॥ ए कारिज तुम स्यु हुवै, तू हिज बीडो झालि रे। सुभट बड़ो तुमाहरोरे, दोहरी वेला में ढालि रे ॥१शाग०॥ सुणि माता सुभटा वड़ो, गाजण थो मुझ भ्रातो रे । तस सुत वादल तेहने, पिण पूछीजे वातो रे ॥१६॥ग०॥
१ देह २ इतरइ ३ हिव ।
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पद्मिनी चरित्र चौपई ]
[६६ गोरा के साथ वादल के घर जाना वेऊ चाली आविया, वादल ने दरवारो रे। विनय करी ने वादले रे, आय कीध जुहारो रे ॥१७॥ग०|| पूछै कारिज पय नमी, कहो आया किण काजो रे । 'लालचंद' कहै' तस अखीइं, जस' मुख हुवै लाजो रे॥१८॥ग॥
दूहा गोरो कहै वादल सुणो, पदमणि साटै राय। छूडावीज्य एहवो, सुभटे कीयो उपाय ॥१॥ ते ऊपरि ए पदमणी, आई आपा पासि । स्युं करिवो सूधो मतो, वेघो कहो विमासि ॥२॥ सरम छोड़ी बैठा सुभट, आपे अछा उदासि । छोड़ी दीधो रायनो, गाम गोठि तजि ग्रास ॥३॥ लाजत छै नीची दियां, कुल खत्री धर्म सार । डीले दोय आपां सुभट, आलिम कटक अपार ॥४॥ किण विधि जीपीजइ किलो, ते भाखो भत्रीज । तिणए आवी तुम कन, पदमणि आपेहीज ॥३॥ ढाल (१०) नाहलिया न जाए गोरी रे वणहटै रे, ए देशी । राग-मारू पदमणि बोले वीरा वादलारे, सुणि मोरी अरदास । हुँ सरणागति आवी ताहर, साभलि तुझ जसवास ॥१॥पद०॥ हिव आधार छै एक तुम तणो रे, दोहरी वेला दाखि ।
सगति न हवे तो सीख द्यो, राखि सके तो राखि ॥२॥पद०॥ - १ तसु दाखीय २ जेहनइ ३ जे ४ लार ५ एकिलो ६ तिणले आयो तुम्ह लगि
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७०]
[पद्मिनी चरित्र चौपई नहिंतर पाछे मन जाण्यो करूंरे, देखुछ तुम वाट । सील न खंडं जीभड़ी खंडस्युरे, कै नाखु सिर काट 1॥३॥पदा पच्छिम ऊगै रवि पूरव थकी रे, वारिधि चूकै ठीक । जलणी जलु के जल मे पडुरे, पिण नहु लोपु लीक ||४||पदा एक वार आगै पाछै सही रे, इण भव मरवो होय । तो स्युकलं हिव जीव नै रे, एक भव मे हुवै दोय ॥शापद। जउ उदयागत आवइ आपणइ, पूरव कृत पुण्य पाप । विण भोगविया ते नवि छटियइ, करता कोड़ि कलाप ॥५०॥ किण जाण्यो थो एहवा कष्ट में रे, पड़सी रतन' पडूर । पिण एहवी भावी वणी रे, जेहवो कर्म अंकूर ॥७॥१०॥ सिंहल देश किहां दरिया परै रे, किहा मेवाड़ सुदेश । किहां सिंघल वीरारी वइंनडी रे, किहा महाराण नरेश Ir कोइक पूरव भव संबंधसुरे, आइ मिल्यो संजोग । भवितव्यता रइ जोग मिलइ इस्यो रे, वणियो एम वियोग ।।६।। पिण मन माहि हिवै जाणु अछुरे, कोइक पुण्य प्रमाण । बधव जी तुम सुभेष्टो हुओ रे, तो भय भागो सुलतान ।।१०।। मात पिता थे बंधव माहरा रे, हिवे तुम सगली लाज । सील प्रभाव मुम आसीस थी रे, जैत करो महाराज ॥१शापना अविचल नाम नव खंडे करी रे, भाजो अरि भडवाय । राखो पदमणि रतन' छुडाइ ने रे, थंभो गढ जसवाय ॥१२॥
१, २, राण ३ थाउ।
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पद्मिनी चरित्र चौपई ]
[७१ जैत थायज्यो रिपु जीपिनें रे, पूरो सुजन जगीस। वादल वीरा ए मुझ वीनती रे, जीवो कोड़ि वरीस ।।१३।।१०।। साहसि करता मन वंछित सरै रे, वरदायक सुर होय । ए काची काया थिर नवि रहै रे, जग में थिर जस सोय ॥१४॥ इम सती वचने प्रेरियो रे, मन थयो मेरु समान । लालचंद' कहै' चढती कला रे, सामीधर्म गुण जाण ॥१॥
बादल द्वारा राणाको मुक्त कराने की प्रतिज्ञा
सुणि वाता मन उल्लसी, बोलें वादल वीर । केहरि जिम बाडकि ने, अतुली बल रिणधीर ॥१॥ बाबा सुणि वादल कहें, सोई रहो सुभट । तो भत्रीज हुं ताहरो, खलां करुतिलवट्ट ।।२।। एकण पासे एकलो, एकणि साहि कटक । वावा तो हुँ बादलो, मारि करुं दहवट्ट ॥३॥ मात पधारो निज महल, पवित्र थयो मुझ गेह । चित में चिंता मती करो, जेर करू सव जेह ॥४॥ पाव धरूं पतिसाह ने, छोडावू श्री राजान' । जो वासे जगदीस छै, तो करस्युवचन प्रमाण ॥५॥
ढाल (११) मधुकर नो काम घणा श्री राम ना, कीधा श्री हणमंत रावत । तिमहं श्री रावल तणा, करस्यु काम अनंत रावत ।११
१ मुनिवर २ खलखट्ट ३ जोज्यो ४ राण ।
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७२]
[ पद्मिनी चरित्र चौपई
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वीडो झाल्यो वादलई, आप भुजावल जोर रावत । मूकउ मनधरी खलभली, द्यो नोवति सिर ठउर रावत ||२|| सामिधरम सुपसाउलें, नई तुम्ह सत पसाय रावत।। परदल ने भाजी करी, ले आवो महाराय रावत ॥३॥वी०॥ जिण तुम सुइम दाखियो, जावो असुरा गेह रावत । जीभ जलो' तिण मनुष्य री, खत्रीवट न्हाखी खेह रावत ॥४॥ विरुद वखाणी पदमणी, सिर पर लूण उतारि रावत । सूर सुभट' सिर सेहरो, तू अमलीमाण संसारि रावत ॥५॥बी० गोरो जी सुणि वोलड़ा, मन तन हरखित दोय रावत । सुर होवे असुरा मिल्या, कायरे कायर होय रावत ॥६॥वी०|| मन नचिंत तुमे करो, महल पधारौ माय रावत । बादल बोल न पालटइ, जो कलि उथल थाय रावत ॥णाबी०॥ सूरिज ऊगै पच्छिमे, मूकै समुद मरयाद रावत । ध्रुव चले पिण न चलइ, सापुरिपा रा साद रावत ।
बादल की माता के मोह वचन महल पधार्या पदमिणि, तेहवै वादल माय रावत । सगली वात सुणी करी, पासै ऊभी आय रावत ।।६।।वी०॥ नैण झरै मन दुख करई, मुख सूकै नीसास रावत । विनो करी सुत वीन, किम दीसो मात उदास रावत ।।१०।। मो जीवंता मातजी, चिंता सी तुम चित्त रावत । काय तूं आमणदूमणी, कहो मुझ स्युथरी प्रीत रावत ।।११।।
१ बलो।
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पद्मिनी चरित्र चौपई]
। ७३ पूत सुणो माता कहै, सगते स्यो जंजाल रावत। काय माड्यो किण रै वलै, ए घर जाणी ख्याल रावत ॥१२॥ पूठै स्यु देखो घणो, आगे पाछे तुम एक रावत । तू मुझ आधा लाकड़ी, तु कुल थभण टेक रावत ।।१३।।वी। जीव जड़ी तुमाहरे, तू मुझ प्राणआधार रावत । तो विण वेटा माहर, सूनो ए संसार रावत ||१४||वी०॥ हिव त जूझण ऊमह्यो, पोति समाही काल रावत । दांत अछै तुझ दूधरा, अजी अछै तुवाल रावत ॥१शावी०॥ तुम ने लाज न कोई चढे, गढ मे सुभट अनेक रावत । प्रास न कोई भोगवा, राय तणो सुविवेक रावत ॥१६॥बी०॥ कदी कीधा जाणो किसा, वेटा तें संग्राम रावत । लब्धोदय' कहै बहु परै, माय समझावै आम रावत ॥१७॥
दूहा
रिणवट रीत जाणे नहीं, विचि विचि बोले एम। किम अणजाण्यो कीजिए, कारिज अनड़ नि तेम ॥१॥ अजी न साधी घर घरणि, कहता आवै लाज । अती उच्छक उतावलो, रखै विगाड़े काज ॥२॥ कीधा कदे न आज लगि, एक त्रिणा थी दोय । बालक बेटा वादला, किलो किसी परि होय ॥३॥
१ लालवद २ वजि वजि बोले बाल ३ पुत निटोल । -
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७४ ]
[ पद्मिनी चरित्र चौपई
वादल का मां को प्रत्युत्तर तव हसी वादल वीनव, हुं कित बालो माय । पूछु तुझ ने पय नमी, ते मुझ ने समझाय ॥४॥ पोटु हिवे न पालणे, फिरि' फिरि न चखुधाय । आडो करतो आगले, धान न मागु माय || ढाल (१२) श्रेणिक मन अचरिज थयो, ए देशी वादल इण परि वीनमैं, मात नहीं हुँ बालो रे रिणवट आलिम साह सु, जोइ करू ढक चालो रे ॥शावा०॥ थापी नै वली उथपु, राय राणा सुलतानो रे। तो सुकारज ए हुवै, काय मन मे डर आणो रे ॥२॥पा०|| नान्हइ किसनइ नाथियो, वासिग नाग वडेरो रे। नास करई रवि नान्हड़ो, अंधकार बहुतेरो रे ॥३॥वा॥ बालूडो केहरी वचो, भाजे गैवर थाटो रे। तो हुँ थारो छावड़ो, रिपु न्हाखु दहवाटो रे ॥४॥वा०॥ मति जाणो थे मात जी, कुल में लाज लगाऊं रे । गंजण छावो गाजतो, आज करी ने आऊरे ॥शावा०॥ जो पाछा पग चातरुतो जाणो मति रजपूतो रे । कायर वाणी किम कहैं, देखो सुत करतूतो रे ॥६॥वा०॥ सूर वचन रजपूत ना, चित मे चिंता व्यापी रे। मन माही बहु खलभली, सीख न तास समापी रेणावाला
१ धूड़ि न चूधु थाइ २ थान ३ सुनि पुत्र नउ ।
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पद्मिनी चरित्र चौपई]
[७५ वादल की पत्नी का प्रयास बहुआ नै आइ कहै, माहरो वचन ज मानो रे। थे समझावो जाय ने, जो क्युही नेह पीछाणी रे ॥८॥वा०॥ सोल शृंगार समि करी, सुकलीणी सुविलासो रे। जाणे झत्रकी वीजली, आवी प्रीउ नै पासो रे हावा॥ रूपह रंभा सारिखी, मृगनयणी गज गेलि रे। कंचनवरणी कामिनी, साची मोहन वेलि रे ॥१०॥वागा विनय वचन करि वीनवइ, हसत वदन हितकारो रे । साहिव वीनति सांभलो, तन मन प्राण आधारो रे ॥१२॥वा साथ सबल पतिसाह नो, मुगल महा दुरदंतो रे । एकाकी इण परि कहो, किम पूजीजे' कंतो रे ॥१२शावागा कहें वादल सुण कामनी, जोइ करूँ जे जंगो रे। वन घणो नानो हुवई, तोडै गिरि उत्तंगो रे ॥१३॥वा०॥ वात करंतां सोहिली, पिण दोहली रिण वेला रे। सामी एहवइ मंत्रणइ, काय करो जन हेलां रे ॥१४॥वाणा सूर पणे वादल कहै, स्यानै भय देखावो रे। तेह नाहिं हुं वादलो, हिव द्यु हेठो दावो रे ॥१शावा॥ बोलई मोटा बोल, निश्चई निरवाहइ नहीं। तिण माणस रौ मोल, कोडी कापड़ियो कहइ ॥१॥ गोला नालि वहै घणा, हय गय रथ भड़ झूम रे । घोर अंधार रिण रजकरी, सूरिज सोइ न सूझ रे ॥१६॥वा!!
१ पहुंचीजइ।
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[ पद्मिनी चरित्र चौपई
मुगल महाभड़ साहसी, मकै दोय दोय वाणो रे। 'लालचंद' पतिसाह स्यु, पूजे केहो किम पाणो रे ॥१७॥वा०
दूहा शस्त्र ग्रही मोटा सुभट, दय चौकी दिशि च्यार । साहि सबल पति एकलो, भलो न एह विचार ॥१॥ तव वादल हसि ने कह्यो, कही किसी थे वात । रावल छोडावू रतन, तो गाजन मुझ तात ॥२॥ हुं गंजु हय गय सुभट, भाजि करु भकभूर । सतावीस लख दल सहित, साहि करूंचकचूर ॥३॥ नारि कहै' रहो रावलो, किसो जणावो पाण । अजीस नारी आपणी, साधि न हुवे सुजाण ॥४॥ नारी सुन्हाठा फिरो, मिटी न बाली लाज । तो कहो कसी परि जूझस्यो, करस्यौ केहो काज ॥५॥
दृढ़प्रतिज्ञ वीर बादल को स्त्री द्वारा सीख
ढाल (१३) नदी यनुना के तोर उडै दो पखोया --ए देशीतउ वलतो बादल कहै सुण कामनी।
तिण दिन आवीस सेज तुमारे जामनी ॥१॥ जीपी आउं जिण दिन वैरी हुँ एतला ।
छोडावू श्री राण कि लोह' करी के भला ॥२॥
१ कहर हुवी वड़ी २ सीधी नहीं ३ ला करि भलि मला।
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पद्मिनी चरित्र चौपई ]
[७७
तो दस मास न झाल्यो भार मुझ मात जी।
ते भाखीज्ये वात करुतिण मे कजी ॥३॥ सूरातन मन देखी नारी तव इम कहै।
__ भलो भलो भरतार सुमन मे गह गहै ॥४॥ हम है तुमारी दास कि पग की पानही।
निरवाईजो वात जेती मुख स्यु कही ।।शा मति किणही वातइ ढहि जाहु कि लाजवउ ।
वंश बधानउ शोभ विरुद वहु छाजवउ ।।६।। घालैयो ने घाव घणो साहस करी।।
खेसवयों रिण खेत खडग हणी लसकरी ॥णा होय छछोहा लोह घणा थे वावयो। __
हल करयो हथवाह अरी दुल गाहयो॥८॥ यो मति पाछा पाव मरण भय' मति गणो।
जीवण थी इणि वात सुजस काइ द्यो घणो ।।६।। भिड़ता भाजै जेह मरै निहचै करी।
कानि सुणउं एहवात मरुलाजइ खरी ॥१०॥ सुभटा माहिं सोभ घणी थे खाटयो ।
नव खंडे करी नाम अरी दल दाटयो ।।११।। सुभट कहावै नाम सहू ही सारिखो।
पण रिण माहि तास लहिज्य पारखो ॥१२॥
१जउ ।
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७८]
[पद्मिनी चरित्र चौपई
तिम करयो जिम हुं मन मांहिं गहगहूँ ।
छल बल करयो काम घणो कासु कहूँ ।।१३।। जीवन मरणे साथ तुमारो मई कियो।
हिव करयो हथवाह करी करडो हीयो ।।१४।। भूखा घर नी नार पूछी' कुमतो कहै ।
तिण सगले संसारि वहुत अपजस लहै ।।१५।। उत्तम राजकुमार सदा सुमतउ दियइ
धीरज कुलवट रीति रहइ जग जस थियइ ॥१६॥ हिव साची मुझ नार जिणं सुमतो कहयो।
निज कुल राखण रीत हिवै मन गहगहयो ।।१६।। सुभट तणो सिणगार करायो नारी।
बंधाया हथियार भला निज करि लीई ।।१७।। निज माता रा चरण नमी चित हरखीयो।
होय घोड़े असवार गौरिल घर सरकीयो ॥१८॥ करी जुहार कहि राज रहो ता लगै घरै।
जाय आउं एक वार कटक पतिसाह रे ॥१६ कहै गोरो मुझ वात सुणो तुम वादला।
तुम जाओ मुझ छाड रदै किम मुझ कला ||२१|| काकाजी मन माहि न तुम चिंता करो।
रिणवट एको साथ हुसी आपा खरो ॥२२॥
१ पूठी कुमतइ २ सजाओ।
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[६
पद्मिनी चरित्र चौपई ] कौल करु छु दक्षिण हाथ देई करी।
हुँ जाऊ छु चास भास देखण करी ॥२३॥ मेवाडी सुभटों की सभा में
बादल ले आदेश गौरा रावत तणो।
सुभट मिल्या तिहा जाय साहस मन मे घणो ॥२४॥ देखि सभा सगली मनमइं विस्मय थई।
आवइ नहिं दरवार कदे क्यों आवई ।।२।। सुणिज्यइ गाजन नंदण सूर महावली,
सही विचारी वात कोइक रिण री रली ॥२॥ जेठा राजकुमार सुभट सहू एवडा ।
धसि आयो तिण ठाम (सुभट) सहु हुओ खड़ा ॥२७॥ दे आसण सनमान प्रीयोजन पूछ ही।
आया वाढल राज कहो ते किम सही ॥२८॥ आलोची सी बात वादल विहसी कहै।
जिण थी थी सुभटा लाज राज कुसले रहे ॥२६॥ आलोची निज वात माडी नै सहु कही।
राणी देई राय छुडावण री सही ॥३०॥ आलोच्यो आलोच अम्हारो ए अछ।
कीज्ये तेह विचार कहो जे तुम पछे ।।३।। बादल वोले वार कीयो ए मत्रणो।
पिण इक माहरी वात सुणि आलोचणो ॥३२॥
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८२]
[ पद्मिनी चरित्र चौपई
पहिली मति ॐधी करी, आलम तेड्यो माहि रे भाई। तेड्यो तो मारण तणो, कीधउ दाव सु नाहि रे भाई आo) जहर कहर मुगल मिल्या, गढ मे तीस हजार रे भाई। छल वल करि नवि छेतत्या, तौ स्यो सोच हिवार रे भाई ॥१०॥ लसकर माहि जाइ न, ले आव छुवात रे भाई। इम कहि नै अश्वं चन्यो, साहस एक संघात रे भाई ॥१||आoll ऊतरीयो गढ पोलि थी, निलवट निपट सनूर रे भाई। अॅगै आऊध अति भला, प्रतपै तेज पडूर रे भाई ॥१२||आ०|| एकलमल अश्वे चढ्यो, अभिनव इन्द्र कुमार रे भाई। आलिम देखी आवतो, पूछायो तिण वार रे भाई ॥१३॥आ०||
सीह न जोवइ चंदवल न जोवइ घर रिद्धि ।
एकलड़उ बहुआ भिड़ा ज्या साहस त्या सिद्धि ॥ पूछ्या थी वादल कहै, मेलि करण रै मेलि रे भाई । जाइ कहउ हुँ आवियउ, पदमिणि तुम नइ गेलि रे भाई।१४।आ० तुम उपगार करु वड़ो, माने जो मुझ बात रे भाई। सेवक आवी इम कहै, हरख्यो आलिम गात रे भाई ॥१॥आ। तेडायो आदरि करी, दीठो अति बलवत रे भाई। बैसाण्यो दे वैसणो, मान लहै गुणवंत रे भाई ॥१|आ०|
हसा जहाँ जहाँ जात है, तहाँ तहाँ मान लहत । कग्गा बग्ग कग्ग वग, कग वग कहा लहंत ॥
१ अग्नि ।
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पद्मिनी चरित्र चौपई ]
[८३ वुद्धिवंत बादल राइ ने, पूछ श्री पतिसाहि रे भाई। सलाम करी बैठो तिसै, आलिम हूओ उच्छाहि रे भाई।१७आ० 'लालचन्द' कहै वुधि थकी, दोहग दूर पुलाइ रे भाई ।११आ०।
दूहा नाम तुमारा क्या कहो, किसका है तू पूत । क्या महीना रोजगार क्या, किसका है रजपूत ॥१॥ किण भेज्या किण काम कं, आया है हम पास । तव वलतो बादल कहै, वुद्धिवंत हीइं' विमास ॥२॥ बोली जाणइ अवसरइ, माणस कहीइ तेह । बादल इण परि वोलीयउ, जिम वधीयो आलम नेह ।।३।। वल थी बुध अधिकी कही, जउ ऊपजइ ततकाल । वानर वाघ विणासियो, एकलड़इ सीयाल ॥४॥ नाम ठाम कहि वीन- सुभट चढ्या अभिमान । तिण मुंकियो छानों मनै', पदमणीयें परधान ॥॥
ढाल (१५)-सइमुख हुन सकुँ कही आडी आवै लाज जिण दिन थी तुम देखीया जिमवा मउसरि साह । तिण दिन थी पदमिणि मन सिउ तुम्ह मांहो रे ॥१॥ सुण आलिम धणी। विरह विथा न खमायो रे, वात किसी घणी |आकणी।। ते धनि नारी नारी जाणीइंजेहनिइ ए भरतार। इण थी रूप अवधि अछ, काम तणो अवतारो रे ॥२॥सु०
१ मनइ २ पदमनी।
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८०]
[पद्मिनी चरित्र चौपई. सगते सु भट संग्राम करै मन गहगही।
पिण नवि मूक माण वात में संग्रही ॥३३॥ मान विना नर कण विण कुकस जेहवो।
'लालचंद' नर टेक न' छंडै तेहवो ॥३४॥
कवित्त
अगीकृत अनुसरइ होइ सापुरिस जु साचा, अंगीकृत अनुसरइ होइ कुल जातै जाचा । अंगीकृत ईश्वरइ जहर पीधउ दुख हंतइ , वारिध वाड़व अग्गि वहे पाणी सोसंतइ । काछिवउ कंध बहु धावही, अजहु भार एवड़ सहइ । मुनि लाल वयण आदरि जके, सो सज्जन वहु जस लहइ ॥१॥
दूहा काया माया कारमी, जात न लागई वार । सूरपणे कायरपणे, मरणो छै एक वार ॥१॥ तउ ढाढा हुइ किम मरौ, मरउ तउ मरण समारि पत जास्यै पदमणि दीया, अमचउ एह विचारि ॥२॥ राय लीइ राणी दीइं, जाण्या यदि जूझार । मस्तक केस न को रहइ, अपकीरति संसार ॥३।। नाक मु किजो ऊबरया, केहो जीवन स्वाद । देश विदेश छाडो पडो, तजीइ किम कुल मरजाद ॥४॥
१ वात निवाइइ २ कोई मरण न टालणहार ३ छाँटो मरु इम रहइ
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पद्मिनी चरित्र चौपई]
[८१
वीरभाण वलतउ कहइ, बोल्यंई घणे पराण । वादल वात भली कहउ, पिण समझा नहीं तिलमान ॥५॥ बादल वात भली कहो, अनेन समझा मोड। रखे राणी राजा लीयो, तो पति राखो चितोड़ ॥६॥ ढाल १४ म्हारी सुगण सनेही अतमा, ए देशी आलिमपति अलावदी, ईश्वर नो अवतार रे भाई । मुगल महाभड़ जेहने, लाख सतावीस लार रे भाई ।।१।।आ०॥ एक हुकम करता थका, उठे एक हजार रे भाई । सगले थोके सावतो, पहुंचीजे किम पार रे भाई ॥२॥आ०॥ कलै कलै पदमणी राखसु, राय छंडी हजूर रे भाइ। पतिसाह प्रति लोपी ने, धूक अंध नित घूर रे भाई ॥३॥आ०॥ कहि बादल सुण कु वरजी, स्यउ आपा ए सोच रे भाई। काइ आलोचइ केहरी, मारता मदमोच रे भाई ॥४॥आ०|| इम करता जो को मरइ, तउ जगि कीरति होई रे भाई। कन्या साटइ पामता, सु हगी कीरित सोई रे भारे॥शाआ०॥ कुमर कहै इण बात री, कीज्य ढील न काई रे भाई। सोई अरजून जाणीइ', जे वेघो वाले गाय रे भाई ॥६॥आ०॥ रहै पदमणी आपणै, नई वलि छूटईराण रे भाई । इण बातइ कुण नहिं हुवइ, सुप्रसन मनहि सुजाण रे भाई ॥१॥ वादल कहै सहू भलो, हुइ आवीसीइ तुम नाम रे भाइ । करज्यो वासइ कुमर जी, सबलो ऊपर सामि रे भाई ||आ०॥
१ समझिइ, जि कोइ २ बोलइ
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८४]
[पद्मिनी चरित्र चौपई राति दिवस झरती रहें, मूकें मुखि नीसास । नयणे नीझरणा झरें, नारी अधिक उदासो रे ॥३॥सुना जिण दिन थी थे वीछारा, नयणे नेह लगाय । सुख जाणइ यम सारिखो, भुवन भाठी सम थायो रे ॥४०॥ तरुणापउ विस सउ लगइ, सोल शृंगार अंगार। अगनि झालि सम चादलउ, जालण वालण हारो रे ||सु०॥ भूषण जाणि भुजंग सा, चउकी चाक समान । वीछ सम ए विछीया, सिज्या अगनि समानो रे ।।६।सुगा. वार जेह विछावणा, तीखा बरछा जाणि । पड़दउ तेह पहाड सउ, अङ्गण आवइ खाणो रे ॥णासु०॥ देह गई सब सूकि नै, नयने नींद हराम ।। राति दिवस रटती रहें, साहिब जी तुम नामो रे ॥८॥सुगा भूख प्यास लागे नहीं, चिन्ता व्यापी देह । कीधी का तुम्ह मोहिनी, निवड़ लगायो नेहो रे ॥६॥सु०॥ मास लोही नामइ रह्यउ, छाती पड़ियड छेक । दुक्ख दुसह किम करि सहइ, तुम्ह विरह सुविवेको रे ।।१॥सु०॥ पलक गिणे एक मास सउ, घड़ीय गिणे छम्मास । वरस समान दिन नइ गिणइ, इम विरह पीडइ तास रे ।११।सु०॥ तुम्हसुं लागउ नेहलउ, जाण मजीठउ राग। पट्टकूल फाटें थकें, रहें त्रागा सँ लागो रे ॥१२॥सु॥ त जीवन तू आतमा, गत मति प्राण आधार । सासें सासें संभरइ, पदमिणि वार हजार रे ।।१३।।सु०॥
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पद्मिनी चरित्र चौपई ]
[ ८५ मुख करि किम कहतइ वणे, जे तुम्ह सेती राग। ते मन जाणे तेहनो, लागो जिण विधि लाग रे ॥१४॥सु०॥ विगति लहै विरहा तणी, विरही माणस तेह । 'लालचन्द' कहइ मोवतइ, कहियइ न जावइ तेह रे ॥१शासु०॥
दूहा चीठी दीधी चूपस्युं, वाची देखें साहि । समाचार विगते सहित, सगला ही इण माहि ।। १ ।।
वइत हजार दरवदिल मेर सजिइरिया रु चिहुँ नमसु वुइ कुनम् आदिल केवद रद हजार ॥१॥ तन रार वाव साजिम् रंग हाजितार तार दीगर,
सरोजर्ने स्तेव जुज वार योर यार ॥२॥ मइ मन दीनो तोहि, जा दिन तो दरसन भयो। अव एती वीनति मोहि, प्रेम लाज तुम निरवहाँ ।।२।। मइ मन दीनो तोहि, सकइ तो ऊडि निवाहीयं । नातरि कहोइ मोहि, हुँ मनि वरज आपणउ ।।३।। निसि वासर आठ पहर, छिण नहिं विसरु तोहि । जिहि जिहि नइन पसारहुँ, तिहि तिहि देखं तोहि ।।४।। आठ पहोर चोसठि घडी, जवही न देखु तुम । न जाणु तइं क्या कीया, प्राणपीयारे मुझ ।।।। दोवैता दूहा सहित, चीठी एक उपाय । वादल दीधी साहिने, अकलि थकी उपजाय ॥६॥ बले कहै आलिम तणा, यदि आया परधान । सुभटा मरणो आगम्यो, पिण न तजे अभिमान ॥णा
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[पद्मिनी चरित्र चौपई वीरभाण राजा सहित, सुभटा ने समझाय । ज्युज्युकान ढेराई नै, हुं आयो तुम पाय ॥८॥ राणी मूंक्यो मो भणी, घणी वीनती कीध । हिव हुं जाणु तुम तणी, होसी मनोरथ सिद्धि ॥॥
ढाल (१६)-वदणा कर वारवार-ए-देशी-प्राहुणारी वालेसर हो वली परभातें बात, कहस्यु आइ होसी जीसीजी।। दिलीसर हो वाची चीठी बात, सीख करां जावा घरे जी ॥१॥ जोती होसी वाट, विरह व्यथा पीडी थकी जी दिन जाय टालुउचाप्ट, तुम सदेश सूधा करी जी ॥२॥ इण परि साभली वोल, पदमणि प्रेमइ वाधियो जी। आलिम मन झकझोल, कीधो वादल वाय करजी ॥३॥ मूंकै मुख नीसास, चीठी वाचै चूपस्यु' जी। आलिम मन मृगपाश, पदमणि कागद पाठइयो जी ॥४॥ नयणा रे नीर प्रवाह, विरह अगनि व्यापी घणी जीवा ए अचिरज मन माहि, भभकइ अधिकी भीजता जी ॥वा०॥५॥ हृदय समुद्र अथाह, माही विरहानल दहइ जी ।व।। नयन वीजलि रइ नाह, बूठइ न्याय न त्रीसमइ जीवाला घल घट हलीयो रे जाय, प्रेम सुणी पदमणि तणउ जी ।वा० मुख सुकागल लाय, वार वार चुम्बन करइ जी ॥वा०॥७॥ खूब लिख्या इण माहि, संदेशा साचा सहु जी। दिलीसर हो उठे कराहि, काम तणे बाणै हण्यो जी ॥८॥
१ प्रीत तूं।
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पद्मिनी चरित्र चौपई]
[८७
अहि सम आलिम साहि, साहि न सकतो को सही जी। पदमणि मंत्र चलाइ, वादल गारूड़ वसि कीयोजी ॥६॥ पाहुणउ तू हम आज, कहुँ ते महिमानी करा जीवा सगली तुम्ह नई लाज, वादल राज हमा तणी जी ॥वा॥१०॥ सुभटां सहु समझाय, साहि कहै वादल सुणो जी। सगली' तुम ने लाज, थापयो एहिज मतो जी ॥११॥ करतां तुम उपाय, जो किम ही करि पदमणी जी । हाथ चढं हम आय, तो देखे कसी करु जी ॥१२॥ इम कहि हय गय सार, लाख सोनइया रोकड़ा जी। वारु वले२ सिरपाव, वकस कीया वादल भणी जी ॥१३।। रुको द्यु तुम हाथ, प्रीत वचन माहि लिखं जी। जाइ पढ़ें पर हाथ, आलिम इम वचने नहीं जी ॥१४॥ तुम विरह की वात, वचने करि कहिस्यु घणी जी। चिठी आव न घात, कोई जाणे भाजै मतो जी ॥१।। महिर करी हिव मोहि, वीदा करो वेघो घणो जी। आलिम साथे होय, पोलि लगे पहुंचावीयो जी ॥१६।। धन लेड आयो देखि, हरख्यो माता नो हीयो जी। वंछित फल विशेप, “लालचंद" धरमे सहीजी ॥१७॥
खुशी हुई नारी खरी, धन दिवस निज जाणि । गोरोजी मन हरखीयो, करसी काम प्रमाण ॥१॥ ___ १ दूध न डांग दिखाय, २ वस्त्र अपार ३ इलम वच नहीं जी ४ पहुँतो कीयो जी, ५ गोरोपिण मन गरजीयो।
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८८]
[ पद्मिनी चरित्र चौपई
पदमणी पिण मन गहगही, ए मेलवसी भरतार । सुभट सहू मन संकीया, ऐ ऐ बुद्धि भंडार ॥२॥ सगत छिपाई नवि छिपइ, सहजइं प्रगटइ तेह । गांठड़ि इं जोइ वाधिइ, तउही अगनि दहेहि ॥३॥ जइ घट विधना गुण दीपइ, निदइ मनि मतिमन्द । जउ कुडे करि ढाकीयइ, तउ छिप्यो रहत कत चंद ॥४॥ एण समै आया तिहां, जिहा बैठा राय राण । मांड्यो एहवौ मंत्रणो, बादल बुद्धि प्रमाण ॥५॥
ढाल (१७)-साधजी भलें पधार्या आज ए-देशी सोवन कलश सुहामणाजी, करी जरी रमझोल। सहस दोय सावत करो जी, चित्र रचित चकडोल ॥१॥ कुमरजी मानो ए मुझ वात, जिम कारज आवइ धात ।कुआ० तिण माहि दोय दोय भला जी, जे सलह' पहरी जुवान । शस्त्र घणे करि सावता जी, वैसाणो बलवान ॥
२०॥ पदमणि री विच पालखी जी, सखर करें सिणगार। ढाको पदमिणी वस्त्र स्युजी, भमर करइ गुजार ॥३॥कु०॥ गोरो जी वैसाणयो जी, पदमणि जी रे ठाम । पालखीया सखीयांतणी जी, सुभट करो विश्राम ||४|कु०॥ लारो लार लगावयो जी, छेटि म राखो काय । केलवणी करयो इसी जी, जिम बाहिर न दीखाय ॥शाकु०॥
१ जोसण २ लखाय ।
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पद्मिनी चरित्र चौपई ]
[८६ गढ थी माड सेना लगें जी, करयो हारा डोर । वार घणी विलंबयो जी, जतन करेयो जोर वाकु०॥ पातिसाह पासें जाईइंजी, हुं करस्यु जे वात । रावल जी छोडायस्यां जी, पाछे करेस्या घात ॥णाकु०॥ भलो भलो सुभटे कह्यो जी, थाप्यो एहज थाप । इम आलोच आलोचता जी, प्रात हुओ गत पाप ॥८॥कु०॥ सुभट सहु समझाय ने जी, चढीयो वादल वीर । तिम हिज पहुंतो लसकरे जी, धरतो तन मन धीर ||कु०॥ करी तसलीम ऊभो रह्यो जी, हरख्यो आलिम साहि । पूछे वात कहो किसी जी, काम कीयो के नाहि ॥१०||कु०॥ वहुत निवाज तुझ' कुकरजी, वादल वोल्यो साच । सिरे चढे कारिज सहू जी, साची वादल वाच ।।११||कु०॥ सुभटा ने समझाय ने जी, नाकै आई नीठ । पदमणी नी आणी अछै जी, पालखीया गढ पीठ ॥१२॥कु०॥ सुभट सहु मिलि विनती जी, कीधी छै सुणि सामि । जोख पदमणी री करो जी, तो राखो हम माम ॥१३॥कु०॥ पेस करा जो पदमणी जी, तुम' उपजै वीसास । विण वीसास किसी पर जी, कै सहु ने रंग रास ॥१४||कु०॥ कहि आलिम कैसी पर जी, तुम वीसासउ मन । 'लालचंद' कहै साभलो जी, वादल कहेज वचन ॥१५॥कु०॥
१ वदउ २ अविचल ३ जो ।
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१०]
[पद्मिनी चरित्र चौपई
दूहा मन माहि सके सुभट, पदमणि दीधी राय । जो छूटे नहिं तो रखे, दोन्यु स्वारथ जाय ॥१॥ तिण हेते लसकर तुमे, विदा करावो साहि । सहस पंच' राखो नखें जो डर आणो मन माहि । इस सुनि कहइ उच्छक थको, काम गहेलो साह । कहो कुण थे हम डरई, हम सू जगत डराय ||३|| चतुर किहा तू चातर्यो, वक जु अइसी वात । हम सुडरै जो सुर असुर, मानव केही मात ॥४॥ कूच तणो कीधो तुरत, आलिम साहि हुकम । लशकर के लोध्या' घणो, पाम्यो सुख परम ॥५॥ सहस च्यार साऊ सुभट, रहो हमारे पास । अवर कटक सव ऊपडो, ज्यु हिन्दु हुवे वीसास । सहस च्यार पासे रह्या, अउर चल्या ततकाल । कहै साहि कीधो कीयो, अब बादल कओल सुपाल| ढाल (१८) वलध भला छे सोरठा रे-एदेशी लाख सोनइया रोकडारे लाल, सखर देई सिर पावरे सरागी। वादल ने आलिम कहे रे वेगउ पदमिणी ल्याव रे स०१ बुद्धि भली बादल तणी रे लाल, देखी खेलइ दाव रे स० । ले लखमी घर आवियो रे लाल, माता हरख अपार रे सरागी। वले संकेत वणाइयो रे लाल, सुभष्टा ने समझाय रे ॥२॥बुगा
१ चार २ सुभट ३ लोके सवइ ।
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पद्मिनी चरित्र चौपई ]
[६१
ले आवयो पालखी रे लाल, लारो लार लगार रे सरागी । खत्रीवट राखेजो खरी रे लाल, कमियन करजो काय रे ।।३।।बुला इम कहि आघो चल्यो रे लाल, ले लारें सुखपालरे सरागी। आलिम देख्यो आवतो रे लाल, बूलायो दरहाल रे स०४||बु०॥ बुद्धिवंत तो अधिको हुँतो रे लाल, राघव चेतन व्यास रेसरागी सामीद्रोह पणाथकी रे लाल, छल न लखाणो तास रे ॥शाबु०॥ कहे वादल आलिम भणी रेलाल, पदमणी वीनती एह रे सरागी। अव हुँ आई तुम घरे रे लाल, निवहड करेज्यो मेह रे ॥६ ॥ साची माया मन सुद्ध सुरे, मान महत सोभाग रे स० मज एहिज मागु छछु रे लाल राखेज्यो मन राग रेस०॥णावु।। घरे महल तुम्ह कइ घणा रे लाल, खेल करउ मनखास रे स० - पिण पटराणी मुझ भणी रे लाल, करजो एहअरदास रे स०८०० आलिम कहे तुम ऊपरे रे लाल, नाखु तन मन उवारि रेसरागी जीव थकी पिण वालही रे लाल, भावे तु मारि उगारि रे।।।।बु॥. नारि एक करइ नहीं रे लाल, तुझ नख एक समान रे स० तुम सेवक हरमा सवइ रे लाल, मइ बंदा सुलतान रे स० ॥१०॥ तुम कारण' हठ मै कीयो रे लाल, लोपी वचन ग्रह्यो राय रे सरागी राणी ले आवों वादलो रे लाल, ढील न कीज्यो काय रे ।।११।। एम कही पहरावियउ रे लाल, ले आयो वकसीस रे स० । प्रमुदित मन परिजन हुओरे, साहस वसि जगदीश रे।सणा१२॥
१ काजे।
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'१२]
[पद्मिनी चरित्र चौपई
धोवत' पग थे आवियो रे लाल, इम सुभटां समझाय' रे सरागी आयो वले आलिम कनै रे लाल, वारु वात वणाय रे ।।१३।।।। परगट हुई पालखी रे लाल, सोवन कलस सोहात रे सरागी। वार वार विचमे फिर रे लाल, वादल पदमणी वात रे ॥१४॥बु।। होठ वुद्धि जेहने हुवइ रे लाल, दोहरी केही वात रे सरागी। लालचंद कहि बुद्धि थकी रे लाल, वादल खेलइ घात रे ।।१।।
दूहा
'फिर फिर पदमणिरै मिसे, करतो वादल वात । रह्यो पहोर दिन पाछलो, तेहवै पूगी घात ||१|| लसकर पिण अलघो गयो', जूझण वेला जाणि । बड़े वेर हम कुभई, वादल कहें ए वाणि ||२|| एक वार रावल ईहा, मुकी हमारे पासि। दोय च्यार वाता करी, आ तुझ आवासि ॥३॥ हाथें करि परणी हुंती, लोक तण व्यवहार । सीख करी पुसली भली, आवण रो आचार ॥४॥ पदमणी बोल सुणी ईसा, सुणि वादल कहै राय । भली बात पदमिणी कही, हम खुशी हुआ मन माय ।।।
१ थोमत २ सीखाय ३ देखि आलम दुख जात रे ४ पुहती ५ रहयो ६ सुनि वीनति सुलतान ७ साहि ।
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पद्मिनी चरित्र चौपई ]
[६३
ढाल-(१६) सदा रे सुरंगा थे फिरी आज विरगा काय ए देशो साची कही ए पदमणी, जहमे एहवो सुविचार रे लाल । आलिम वले वले इम कहै, धन भगतिवती भरतार रे लाल ॥ बुद्धि करी रे वादलैं, भलो सामी ध्रम प्रतिपाल रे लाल ॥वु० ॥. तुरके तुरत हुकम कीयो, जावो बादल आज रे लाल । रावलजी छोडाय ने, हम मेलो पदमणी राज रे लाल ॥२॥०॥ हुकम लेई ने आवीयो, जिहाछै रतनसेन महराण रे लाल । करी तसलीम ऊभो रह्यो', राय कोप चढ्यो असमान रे लाल ३ फिट रे वैरी वादला काई, सामीद्रोही कीध रे लाल। खत्रीधर्म खोयो तुमे, मो साटै पदमणी दीध रे लाल ॥४॥वु०॥ निरमल कुल मइलो कीयो, मूडी खरीय लगाई खोडि रे लाल । ते निसत्त हुया डर मरणरइ, मुझ लाजगमाई छोडि रे लाल ॥५॥ वलतो वादल वीन₹, ए अवर अछै आलोच रे लाल । भलो होसी तुम भागस्यु, स्यु आणो मन मे सोच रे लाल ॥६॥ भूप चाल्यो मन सममि नई, तव आलिम भाखं एम रे लाल । राय आणो पदमणि मेलि ने, जिम सीख समहेव रे लाल ॥७॥ पदमणी दिशि राय चालीयो, बैठो पालखीया माहि रे लाल । तव वात सहु साची लखी, वादल री बुद्धि सराहि रे लाल ॥८॥ वेला नहीं वातां तणी राय हुउ हुसियार रे लाल । पालखीया री सेन मे, होय पहुंतो गढ रै पार रे लाल ॥॥०॥
१ जिस्यै।
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६४ ]
[ पद्मिनी चरित्र चौपई
mmmwww गढ मे पहुंचि वजाडयो, जागी ढोल निसाण रे लाल। थे' पहुंतो म्हे जाणस्या, साचो ए सहिनाण रे लाल ॥१०॥०॥ वात सुणि हरखित थयो, तुरत गयो गढ माहि रे लाल । कुशले छूटा कष्ट थी, जाणे सूरिज मूक्यो राह रे लाल ॥११॥ आणंद मन माहि ऊपनो, मन हरपित पदमणी नारि रे लाल। मगढ मे रंग वधामणा, धवल मंगल जय जय कार रे लाल ॥१२॥ पदमणी शील प्रभाव थी, वले वादल वुद्धि प्रमाण रे लाल । 'लालचंद' कहै जस घणो, कुशले छूटा श्री राण रे लाल ॥१३॥
दूहा सहनाणी पूरण भणी, हरषित तणो सहिनाण । नोवति ढोल वजाडिया, घणा घुरइ नीसाण ॥१॥ सुणि बाजा गाज्या सुभट, उठ्या योध अनम्म । नवहथा जित भारथा, माणस रूपी जम्म ॥२॥ राघव मुख कालो हुओ, नवि लिखीयो परपच । कूड़ घणो कीधो हुँतो, सीधो काम न रंच ॥३॥ सामी काम हणमंत जाणयो, गोरो गुणह गंभीर । अरिदल देखी उलस्यो, सूरातनह सरीर ॥४|| सुभट धस्या हुइ सामठा, मुखि गोरउ रिम राह । अंग अंगरखी सजी, वगतर सबल सनाह ॥५॥
१ तब २ जागी ३ हनुमानसो।
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पद्मिनी चरित्र चौपई ]
[१५
mmmm.ढाल-(२०) नाथ गई मोरो नाथ गई ए देशी। दिल्ली का नाथ, हिव तु देख हमारा हाथ मिया ऊभो।
उभो रहे रे ऊभो रहै, ऊभो रहैं ऊभो रहे मत छोड़े पाउ, जो पदमणी परणेवा चाह ||१॥
मीया जी ऊभा रहो। अम ऊभा तुम हुती खंति, पदमणि परणेवा बहु भंति ॥२॥मी०॥ मैं आणी छ जे तुम काज, ते हिवे तुझ देखाउं आज । मी०। राणी जाया च्यार हजार, सूर सबल मोटा जुझार ||३||मी०|| दोड़या ले हाथे करवाल, धूम मचायो माड्यो ढक चाल ||४|| दीठा ते दिली रे नाथ, सगलो वूलायो निज साथ ।।मी०॥५॥ रे रे वादल कीधो कूड, सगलो लसकर' मेल्यो झडमी॥५।। रिण रसीयो आलिम रंढाल, हलकारया जोधा जिम काल। करी किलकी जिम दोड्या देत, कायर प्राण
तजे निकसी जैत ॥मी०॥६॥ कठत करें मीलिया दल होइ, जाणे जलहर घन अति धोइ । आई जोगणी जाणे आडंग, जुड़सी आलिम बादल जंग ॥७॥ भुजा वले आलिम सुएम, बोले वादल गोरो जेम" ॥मी० । दिली सुचढि आयो साहि, हि भिड़तो भागै मति जाय ॥८॥ मुंडीयो तो हिव जासी माम, माटी छै तो करि संग्राम मीण कहै आलिम क्या कर खुदाय, ते तो हम सुखेल्यो डाय ॥॥
१ कारिज २ निकास्यइ लेत, ३ जलद कालाहणि होइ ४ मूकि ५ हेव ।
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६]
| पद्मिनी चरित्र चौपई
माहो माहि माड्यो जोध, ऊछलीयो सूरातम क्रोध । मी० । छूटण लागा कुहकबाण, हथनालां करती घमसाण ।। मी०॥१०॥ सर छूटइ करता सणणाट, वकतर फोड़ि कर वे फाट मी० । ध्रुव वाजें वरछी धीव, भाजे कायर लेई जीव ।। मी०।११।। ऊडी रज आकाशे जाय, रवि जिण थी मालिम न थाय ।।मी। घोर अंधारे जाणे घोर, गाजे बाजै नाचे मोर । मी० ॥१२॥ धड़ धड़ वलय धारू जल धार, चमक वीजल जिम जलधार। तूटे सन्नाहे तलवार, उडइ तिणगा अगन सुझाल ॥मी०१३॥ खल हल खलक्या लोही खाल, पावस रित जाणे परनाल मी०॥ रुहिर माहि पंपोटा' थाय, दोड़ी' जोगणी पात्र भरायः ॥१४॥ करवाला धड़ फूटै घाव, छंछउ छलि कीधो भिड़काव ।।मी० । रुहिरज प्रगटउ परिकास, नाच्यो नारद कीधो हास ।।१।। गुडीया जाणे जेम पहाड़, सूर भिडता थाए आड |मी० । मस्तक विण धड जझइ अपार, करि करवाल करंता मार ॥१६॥ खीजे वाह्यो सुरइ खग्ग, आधउ तूटि रह्यउ सिरि नग्ग । मी०। फावइ सिर ऊपरि खुरसाण, सुर लहयो
जाणइ स्वर्ग विमाण ॥मी०॥१७॥ झड ओझड वाहइ रिणघोर, जूझइ राणी जाया जोर । मी० । 'लालचंद कहै समझे सूर, दोन्य दल वीरा रस पूर।।मी०॥१८॥
१ पखोटा २ जाणे उधा ३ तिराय ४ सधिर ५ हासउ हास ६ गयवर।
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[६७
~~~~~~~~~~~~mmmwwwin or
marrrrrr
ror- - -
पद्मिनी चरित्र चौपई ]
दूहा ऊभी जय जय ऊचरै, ले वरमाला हाथ । अपछर आरतीया करै, घालै सूरा वाथ ॥१॥ डिम डिम डमरू वाजता, साथे भूत बहु प्रेत । रुड (तणी) माला संकर रच, सिलो कर रिणखेत ॥२॥ जासक पीवें योगणी, भरि भरि पात्र रगत । डडकारा डाकणि करै, जिण दीठइ डरै जगत ॥३॥ ढाल (२१) कडखा री-गच्छपति गायइ हो जुगप्रधान जिनचद जूझ महाभिड़ मुगल हिन्दू सबल सेन सनूर । तिण माहि मामि आइ जुडीया नाखि फोजा दूरि ॥१॥ गोरिल्ल गाजियो रे अरि गजा भाजन सिंह।। वादल वाचिउ हो भारत (में) भीम अवीह ॥२॥गो०॥ आलिमपति अलावदीनह मुगल्ल मीर मसन्त । रावत गोरिल्ल वीर वादल जानि मैगल मत्त ॥३॥गो॥ धूजियो धड़ हड़ मेरु पर्वत चढी धरणी चक्र । जम वरुण जालिम डस्या दिगपति संकीया मन सक्र ॥४॥गो॥ है कंप हुआ नाग वासिक ईश ब्रह्मा रूप। मुख करै ऊंचो वेलि रै मिस देखि डरइ अकूप गो॥ वाहइ जलोह छछोह हाथे करई कंध कड़क घण घणा हाथै हण्या घण घण पड़े योध पड़क' ॥णागो॥
१दड़क ।
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१८ ]
[पद्मिनी चरित्र चौपई
विहूवाथ घाल घाव घाले डला होवें दोय । सनाह तूटै रगत फूटै पुरज पूरजा होय ॥८॥ गोवा चुचईधारा वहै सारा माचीयो झड झझ। छिन छिन्न धाए लोह लागा रह्या माहि अलूम ||गो॥ वड बड़ा सामंत योध जालिम भिड़ें' वादो वाद । अति अधिक सूरातन वसं आवै न खेड़ा आदि ॥१०॥गो०॥ गुड गुडंत गुहीर नीसाण गाजै देखि लाजै मेह । घाव पड़े तिण घाव नाचे धाम धूमी देह ॥१शागो०॥ रिण चाचरै रजपूत कूदें करै हाको हाक कूट कुटे कीया कण कण मुगल आया नाक ॥१२||गो०॥ आलिम अरेरे अकलहीणा अंध साचा ढोर । इम कही खड़ खड खड़ग वाहे तडातड़ि रिण घोर ॥१३॥गो॥ हुसीयार हुओ हथीयार वाहो रही दिल्ली दूरि। किहां अकलि हीणा एह वभणा अकलि दीधी कूर ॥१४॥गो॥ गृह मात तात अर भ्रात बंधव नेह नाण्यो कोइ । चितारीया नहिं माल मिलकत सुक्ख नारी कोय ।।१५।।गो०॥ होइ लोह गोला मुगल दोला जोर जुड़ीया जंग । हैवरा गलि गज गाह वधै रह्या विडद अभंग ॥१६॥गोगा वाजीया सिंधु राग वारू भलो मारू भेद। जिहा भाट चारण डु व वोलइ विड़द मनह उमेद ॥१७||गोगा
१ पिढइ, २ आण्या, ३ बुद्धि ४ वह्या ।
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पद्मिनी चरित्र चौपई]
[६ साभलें चीला वाप दादा सूरमा न समाय । जूझता सुभटा बैंच निज रथ अर्क देखें आय ॥१८॥गो०॥ तिण' अओसर गोरिल वीर धसीयो जिहा आलिम साहि। वाही वारू घाव घाल खड़ग सेवलो ताहि ।।१हागोगा। भागोज मँडो लेय पाघड़ साहि मुहूडै मूकः । गोरिल वोलै फिट्ट तुझ ने जाति थारी मे थूक ॥२०॥गोगा भाजता नइ घाव घाल्यउ जाय अत्री धर्म वीनवइ वादल छोड़ि काका जाण यो वेशर्म ॥२२॥ उपरि ऊभा किलो देख रावल भाण रतन सहु मिली भाखइ धन वादल गोरिल धन ||२२||गोगा धन सामीधर्मी वीर वादल कहै पदमणि एम । जिण विना माहरो पुरुष इण भव छूटतो कहो केम ।।२३।।गो०| तु जीवव्ये कोडाकोडि वरसा माहरी आसीस। दिन दिन ताहरो चढत दावो करो श्री जगदीस २४||गो०॥ खल हण्यो खत्रीवट लीक राखी, जगत साखी नाम । गोरिल रावत रिणे रहीयो, कीयो साचो नाम ||२५||गोगा लूटीयो ल्हसकर आप वसि कर छोडियो आलिम । जीत्यो पवाडो धर्म आडो आवीयो कृत कर्म ॥२॥गोगा केई न्हासी छूटा मरी खूटा कीया अरीअण जेर । जीवतो मूक्यो साहि आलिम वालि सवल घेर ।।२७ागोगा
१ इण २ वाथ ३ सुक्क ४ मांहि चक्क ५ दुक्ख : साको ताम ।
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१००]
[पद्मिनी चरित्र चौपई कहै साहि सुण सामंत बादल कीयो तें उपगार जीवीदान दीधो सुजस लीधो झालि गढ़ रो भार ||२८|गो०॥ वादल आगे हारि खाधी सीख मागइ साहि । एकलो आयो आप असुरां दला बूजत साहि ।।२६||गो बीजली' मुहें खल खेत्र वेड़े जैत्र पामी जंग। पूरो पवाडो किलें गोरिल सूर वादल संग ॥३०॥गोगा अन्याय मारग जैति न हुवे, जोइ सवलो होई। एकले डीले गयो आलम, एह परतख जोई ॥३||गोवा नीति मारग जइति पामइ, रहइ राज अखंड। कह लालचन्द जगत्ति ऊपर, नाम तेज प्रचंड ॥३॥गो।
दूहा दोय दिना के अंतरै, आलिम एक खवास । निमा साम वेला जई पहूंता ल्हसकर पास ||१|| ढाल-(२२) वाल्हेसर मुझ वीनती गोडीचा । राग-मारू ल्हसकर माहि मुकीयो राजेसर
करिवा खवरि खवास रे राजेसर ऊमराव आया वही दील्लीसर
मुगल पाठण उल्लास रे राजेसर ||१|हमा करी तसलीम ऊभा रहया राजेसर वेकर जोड़ी ताम रे दि०। चूम आलिम साहि सुरा० कटक गयो किण काम रे दी० ॥२॥
१ विजड़ी २ थई।
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पद्मिनी चरित्र चौपई ]
___ [१०१ भूखा त्रिसीया एकला रा० दीसे ए कूण हवाल रे दी। किहा पदमणी परणी तिका रेरा० ए तो दीसै छै ख्याल रे दी०३। कहै पतिसाह कीधो घणो रा० बादल हम सुकूड रे दी। सइतानी सबली करी रा० ल्हसकर मेल्यो धूलि रे दी० ॥४॥ल्ह०।। पटमणी रे मिसि पालखी रा० कीधी पाच हजार रे दी० तिण मे दोय दोय नीकल्या रा० योध करंता मार रे दी० ॥५॥ कहर जूम हम सु कीयो रा० कटक कीयो कचघाण रे दी० हम है या तो ऊवरे रा० मया करी रहमान रे दी० ॥६ाल्ह॥ हम भी भूले मोह ते रा० कछु कीनो पदमणी टौंन रे दी० तोही हम आगइ टिके रेस० नहिंतर हिन्दू कौन रे दी० |७|| इम कही असवारी करी रा० नाक मुकीनइ साहि रे दी० ज्यू आयो तिणही परई रा० पहुंतो दीली माहि रे दी० ॥८॥ आलिम महल पधारिया रा० आई हरम अनेक रे दी० विनो करी पाए पड़ी रा० विनती करै सुविवेक रे दी. हाल्ह।। देखावो वे पदमणी स० हम कु देखण हुस रे दी। कैसी चतुराई अछै रा० रूप जोवा कैसी रूस रे दी० ॥१०॥ल्ह।। पदमणी का मुंह काला किया रा० हम खैर करी है खुटाय रे दी० करीई खमा वीवी कहै रा० हम लागो तुम वलाय रे दी० ॥११॥
दूहा कहि" ममा वेठो तुमा, धरो मन मई ग्यान । धरा पालो अविहड थे, हीइं खुदाय धरि ध्यान ।।२।।
१ दोइ २ कतलान ३ गरव मइ ४ जु ५ कहि मामा बेटा तुर्मा राखठ बहुत गुमान । नारि काज कलमथ करउ धरउ न मन मइ ग्यान ।
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१०२ ]
[ पद्मिनी चरित्र चौपई इन्द्र चद्र नागेन्द्र सब, जस से सुर नर गय । तिण रावण राज गमाडीयो, नारी तणं पसाय ॥२॥ वेटा काहे कुफिरो, करते आप कलेस । बैठा जोख कहो इहा, दिल्ली गढ निज देश || हिव वाढल की वारता, सुणयो देई कान । पातिसाह न्हाठा' पठे, रिण सोध्यो बादल जाण ॥४|| जग मे जस पसत्यो घणो, खायो बड़ो विरुद। गढनी पोलि उघाडीया, लोक कहै जसवट ||५||
डाल (३३) करडो तिहा कोटवाल एदेशी राग-~-खमाइती जाति सोलाकी या मारू रावल रतन सुजाण, सनमुख आए सामेलो करे । सिणगारवा वाजार, हय गय रथ पालखीया बहु परेजी ||१|| मिलया श्री महाराज, वादल सती नेह घणे करी जी। ले आया गढ माहि, बैसाणी गज छत्र सिरइ धरी जी ॥२॥ देई देश भंडार, वादल नइ कीघो अधराजीयो जी। तैं राखी गढनी लाज, आज पर्छ ए जीव तुमे दीयो जी ॥३॥ तुजीवे कोड़ि वरीस, धनमाता जिण तुगरमें धत्यो जी। चै पदमणी आसीस, ते उपगार अम' थी बहु कस्यो जी ॥४॥ मस्तक तिलक वणाय, भरि भरि थाल वधावै मोतिया जी। निज बंधव करि थाप, पहुंचावै निज घरि उछव किया जी ॥५॥
१ चाल्या २ सह ३ वड़ो अमने ।
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__ पद्मिनी चरित्र चौपई ]
[ १०३
आवंतां निज गेह, चउहटइ च्यारों दिश नारी मिली जी। " . बोलइ कीरति बाल, मोतिया वधावै गावइ मन रली जी ॥६॥ इम आयो निज गेह, सयण सबंधी परजन सहु मिली जी। प्रणमै जननी पाय, माताजी आसीस दीडं भली जी ॥७॥ सझि करि सोल शृंगार, अधर विव' निज नारिया जी। आवी आणंद पूर, धवल मंगल करती सुखकारीया जी ||८|| हिवें गोरिल की नार, पूछ तुम काको रिण किम रह्यो जी। कहो किम वाह्या हाथ, किम अरियण मास्या किम जस लडोजी कहै वादल सुणो वात, केहो वखाण करा काका तणो जी। ढाह्या गैंवर घाट, मुगला सुभटां संहार कीयो घणो जी ॥१०॥ राख्यो आलिम एक, तुरका सकल सेन मारी करी जी। तिल तिल हूओ तन, हुओ पाहुणो अमरापुर वरी जी ॥११॥ राखी गढ री लाज, उजवाल्यो कुल गोरेजी आपणो जी। इम सुणी गोरिल नारि, रोम रोम जाग्यो तन सूरापणो जी।१२ विकसित वदन सनेह, भाखै सुणि बेटा रिण वादला जी। वहैलो वारि म लाय, दोहरा बैठा ठाकुर एकला जी ।।१३।। विच छेटी वहु थाय, रीस करेसी अमने श्री राय जी । काकी ठाम लगाय, ढील कीया हिवमइ न खमाय जी ॥१४॥ सुणि कहै वादल वात, धन धन माताजी ताहरो हीयो जी। सतवंती तूंसाच, धन तें आपो आप सूधारीयो जी ॥१।।
१ आमोषउ ले २ खरी ३ गोरिल ।
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१०४]
[ पद्मिनी चरित्र चौपई खरचं धन नी कोडि, तुरंग' चढि सिणगार सह सभी जी। अगनी कीयो प्रवेश, उचरति मुख श्री राम राम जी ॥१६॥ पहुंती प्रीउ नै पासि, अरव आसण दीधी आणद थयो जी। जग पसस्यो जस वास, 'लालचंद' कहे दुख दूर गयो जी॥१७
दहा सूर कहावै सुभट सहू, आप आपण मन । दाव पड्या दुख उधरें, ते कहीये धन धन ।। १ ।। सामीधर्म वादल समो, हुओ न होसी कोय । युद्ध जीयो दिल्ली धणी, कुल उजवाल्या दोय ॥२॥ रावलजी छोडाईया, नारी पदमणी राख । विरुद वड़ो खाम्यो वसु, सुभटा राखी सासि ।।३।। चैन रान चितोड़ को, कीधो वादल वीर । नव खंडे जस विस्तस्यो, सामीधर्म रिणधीर ॥४॥ निरभे पाले राज निज, रतनसेन महाराव । सेवक वादल सानिधे, पदमणि शील पसाव ।। ५ ।।
ढाल (२४) राग-धन्यासीई, चाल-लोक सरूप विचारउ आतम हितमणी सती शिरोमणि साची थई पदमणि लहीयई रे
सुख लहीइं सिरदार पाल्यो कष्ट पड्या जिण शील सुहामणो रे
तन मन वचन उदार ॥१॥ १ तुरीय २ राणी सलहीई ।
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पद्मिनी चरित्र चौपई ]
[१०५ श्री रावलजी छूटा मोटा कष्ट थीरे, सुख हुवो गढ़े जेह । बड़ो पवाड़ो खाट्यो गोरे वादलै रे, शील प्रभावै तेह ॥ २ ॥ शील प्रभाव नासे अरि करि कसरी रे, विपधर जलण जलत । रोग सोग ग्रह चोर चरड़ अलगा टले रे, पातिग दूर टलंत' ॥३॥ श्रीसुधर्मासामि पाट परंपरा रे, सुविहित गच्छ सिणगार । श्री खरतर गच्छ श्रीजिनराजसूरीसरू रे, आगम अरथ भंडार ।।४।। तस पाटि उदयाचल दिनकरुरे, श्री श्रीजिनरंग वखाण । रीझवियो जिण साहजहाँ दिल्लीसरू रे, करिदीधउ फुरमाण ॥शा तास हुकम संवत सतर छीडोतरे, श्री उदयपुर जाण । हिन्दूपति श्रीजगतसिंह राणो जीहा रे, राज करै जग भाण ।।६।। तास तणी माता श्री जवूवती रे, निरमल गंगा नीर । पुण्यवत पट दरसण सेव करइ सदारे, धरम मूरति मतिधीर ॥७॥ तेह तणे प्रधान जग में जाणिइं रे, अभिनव अभयकुमार। केसरी मत्री सुत अरि करि केसरी रे, हसराज हितकार ।। ८ ॥ जिणवर पूजा हेतइ जाणि पुरंदरु रे, कामदेव अवतार । श्रेणिकराय तणीपरि गुरुभगता सही रे, सिंह मुकट सणगार ।।।। पाट सात पाछइ जिण देस मेवाड़मइंरे, थाप्यो गच्छ थिरथोभ । कटारिया कुलदीपक जग जस जेहनउ रे,
श्रीखरतर गच्छ शोभ ।।१०।। तसु बधव डुगरसी ते पण दीपतउ रे, भागचंद कुल भाण । विनयवंत गुणवंत सुभागी सेहरउ रे, वड़ दाता गुण जाण ॥११॥
१ पुलंत।
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१०६ ]
[ पद्मिनी चरित्र चौपई तसु आग्रह करी संवत' सतर सतोतरे रे, चेंत्री पूनम शनिवार । नवरस सहित सरस संबंध रच्यो रे, निज बुद्धि ने अनुसार।।१२ श्री जिनमाणिकसूरि प्रथमशिष्य परगड़ा रे विनयसमुद्र बड़गात । तास सीस वड़वखती जगमई वाचियइ रे, ।
श्रीहर्पविशाल विख्यात ।।१३।। तास विनेय चवद विद्या गुण सागरु रे, वाणी सरस विलास । जस नामी पाठिक श्रीजानसमुद्रजी रे परगट तेज प्रकाश ॥१४॥ साध शिरोमणि सकल विद्या' करि सोभतारे,
वाचक श्री ज्ञानराज । तास प्रसादे शील तणा गुण संथुण्या रे,
श्रीलब्धोदय हित काज ॥१॥ सामिधरम ने शील तणा गुण सामल्या रे, पूमै मननी आस । ओछो अधिको जे कह्यो कवि चातुरी रे, मिच्छादुकड़ तास ॥१६॥ नव निधनै वलि अष्ट महा सिद्ध संपदा रे, दूर मिट दुख दंद। लब्धोदय कहै पुत्र कलत्र सुख संपजे रे,
शीयल सफल सुख कद ॥१७॥
गाथा दूहा ढाल आठ से अतिनंद सीअल प्रभाव संपदा इम जंपड़ लब्धानद ॥१॥
१ चैत्र सुकल तिथि पचनी मृगशिरने वुधवार २ नवऊ ३ गुणेकरि ४ सपदा ।
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__ पद्मिनी चरित्र चौपई ]
[१०७ इति श्री शील प्रभाव पद्मिनी चरित्रे ढाल भाषा वंधे श्री रतनसेन रावल तास सुभट गोरा बादल रिण
__ जय प्रतापैः तृतीय खण्ड सम्पूर्णम् सकल पण्डितोत्तम प्रवर प्रधान शिरोवतंस पंडित श्री ५ श्री कल्याणसागर गणि तच्छिष्य पंडित श्री ५ हर्षसागर गणि तशिष्य पंडित श्री सकल सभा श्रृङ्गार शिरोमणि रत्न पंडित श्री १९ श्री हीरसागर गणि . .. . . . श्री ५ श्री गुणसागर गणि। तच्छिप्य पुण्यसागरेण लिखितेयं ।। सं० १७६१ वर्षे आशु वदि १० भोमे दड़ीवा मध्ये लिखितं ॥ श्रीरस्तु ॥ कल्याणमस्तु । श्री भद्रमस्तु ॥ शुभ भूयात् श्री ॥ श्री ॥ श्री ॥ श्री ॥ श्री ॥ प्रति नं० ३८१४ (वं०८२) श्री अभय जैन ग्रन्थालय बीकानेर । पत्र २० अंतिम पत्र १ तरफ खाली। पंक्ति १५ अक्षर ५६-६० प्रति पंक्ति । अतिम पत्र थोडा नष्ट | (२) इति श्री पद्मिनी चरित्रे ढाल भापा बध उपाध्याय श्री ५ ज्ञानसमुद्र गणि गजेन्द्राणा शिप्य मुख्य विद्वद्वाज श्री श्री ज्ञानराज वाचकवराणा शिष्य पं० लब्धोदय विरचिते कटारिया गोत्रीय मत्रिराज हसराज म० श्री श्री भागचद्रानुरोधेन श्री गोरा वादल जयत प्रापणो नामस्तृतीय खण्ड । तत्समाप्तौ समाप्तमिदं श्री पद्मिनी चरित्र तद्वाच्यमान श्राव्यमान चिरं नढतादाचद्रार्क यावत् लिपि कारिता च सुश्रावक पुण्यप्रभावक
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२०८]
[ पद्मिनी चरित्र चौपई ॥ संवत् अठारेसै १८२३ वर्षे मिती भाद्रवा बद ८ दिने लिपी कृतं । वाचणवाला कुं धरमलाभ छै । लिखतं मकसुदाबाद मध्ये लपि ऋतं ॥ श्री ॥ श्री ॥ [पत्र ४८ जैनभवन, कलकत्ता (३) गाथा दूहा सोरठा, सोल अधिक से आठ । कवित दूहा गाथा मिल्यां, सुणो सुगुरु मुख पाठ ॥१॥ ढाल सरस गुणचालसुं श्लोक तणी संख्या एकादश शत अधिक छ, पंचासत नइ सात, अनुमाने लालचंद कहइ ॥
इति पदिमनी चौपाई संपूर्णम् । सकल पंडित शिरोमणि पं० श्री १०५ श्रीराजकुशल गणि शि० ग० ऋषमकुशल लिखितं आमेट नगरे संवत १७५८ वर्षे ।
[ओरियण्टल इंस्टीच्यूट बडौदा प्रति न० ७३३ की नकल गुलावकुमारी लाइब्रेरी कलकत्ता में ]
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गोरा बादल कवित्त गज बदन गणपति नमू, माहा माय बुधि देय । गुण गूथू गोरल का, जस वादल जपेय ।।१।। चहुआणा कुलि ऊपना, गोरउ अरु गाजन्न' । चित्रकोटि गढ उदया, राउ रत्नसेन मनि रंग ॥२॥ सउहड सिरोमणि निर्मयउ, गाजन मूअ वादल्ल । वरस वीस त्रणि अग्गलउ, भड सूरतांणा सल्ल ॥३॥ दल असंख जिणी गंजीया, असपति मोड्या माण। राखी सरण पद्मावती', बंध छोडायउ राण ॥४॥ काका भत्रीजा बिहुँ, गोरउ अरू वादल्ल । पद्मनी काजि भारथ कीउ, हडमत जिम सर मल्ल ।। ५॥ सोहड सुभट वादल करी, असी न करसी कोय । सोहड़ा सोह चढावीय, गोरा बादल दोय ॥ ६॥ गढ डीली अलावदी, चित्रकोट गहलउत । पद्मणि कारिज साधीयउ, कहसूतेह चरित्र ।।७।।
कवित्त चित्रकोट कैलास, वास वसुधा विख्यातह,
रत्नसेन गहलोत, राय तिहा राज करंतह । १ बादल । २ पद्मणि काज मारथ कीयउ ।
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११२]
[गोरा वादल कवित्त
कहइ न वात कछु अवही, कवही कर द्रव्य मिलिही मुम, कहइ न वात जनारदार, मइ सबद सुनीय तुम । काल कोस फकीर, तीर सायर फिरि आवहि, निखुता नाहि निलाट, लख्या नहीं कोरी पावहि । तव कोप कलंदर कहइ, क्या किताब दुनिया दीया, संक्यउ स विप्र संसहि पड्यउ, एह योगनि तइं क्या कीया ॥११ तव योगिन मन धरीय, करीय सेवा मइ कबीय, वचन सौध नवि लहूं, वाच नह पालइ सञ्चीय । वचन शुद्धि तउ लहइ, भक्ष जउ मोरउ जाणइ, वेगि जाउ दरवेस कहुं जउ मंखण आणइ इहां राति किहा मंखण लहुं, तव घीउ लेउ करि संचर्य . अल्लावदीन सुरतांण को, सीस छत्र तुम सिरि धर्यउ ॥१६॥ तव कोप किलंदर कहइ, क्या तुफाना उठायज तू चोलइ सब झूठ, राज मुझ पई किहा आयउं एह वात सुणइं सुरताण, करइ टुकटुक तन मेरा करइ नहिं कछु विलंब, अउर सिरि कट्टइ तेरा। उच्चरइ विप्र दरवेस सुं, अलख लिख्या सो पई कहुं, जउ सीस छत्र तुम कउं मिलइ, क्या इनाम हुभालहूं ॥१७॥ तव खुसी भयउ दरवेस, कर्म करतार करहि जव तोहि हइ गइ पाइक, करइ तसलीम तोहि सब तखत तलइ मेरइ तुंही, तुहि दिल्लीवइ जाणू कहे तुहि सव साच अउरका कह्या न मानु
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पद्मिनी चरित्र चौपई
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नयनाभिराम चित्तौड़ दुर्ग
[फोटो-सावजनिक संपक विभाग-राजस्थान]
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११०]
[नोरा वादल ऋवित्त
तुरीय सहइस पंचास, दोय' सई महगल मंता, राजकुली छत्तीस, लोहड भड सेव करंता । प्रधान लोक विवहारीया, राजलोक सहु सुखी, च्यार वरण गढ महि वस. जती मुनी नहीं कोय दुखी ||८|| एक दिवस गहलन्त, राय बइठ भूजाई, सतर भल्य भोजन्न, मूधि हस कर लेइ आइ । के खारा के मीठ, के कछु स्वाद न आवइ, तव पटरानी कहर, वेग पानी क्यों न लावइ । धरि मछर संघलि सांच, नेव जीत कन्या वरी, पन्नतीज आणि पयन करि': राय रत्नसेन अइसी करी || विप्र एक परदेस थी, फिरत आय विण ठायह, सभा समि जब गया, नयण पेख्य उ तव रायह। फल कीयो तिण भेटि, वरण आसीस पचासइ, विद्यावाद विनोद. वांणि अमृत गुण भास। राघव सभा जब रिजवी. तव राजिन मन भाइयो, हुल पसाव कीन्ही मया, आपस पास रहावीर ||१०|| रत्नसेन रावव. रमति कारणि एक ठायह. जीतो दांण तिहा राव, नांण मंगीउ सुभायह । चच्यो विप्र तव कोप, राव मनि मछर कीउ, ठंब्यो ए अस्थान, देव देसटर दी।
१ पंच। २ यति ।
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गोरा वादल कविच]
[१११
उचरइ विप्र ऐरिसह वयण, राउ एक प्रतिज्ञा हूँ करू, पइहराउं लोह तुझ पय कमल, तव चित्रकोट बोहड फिरूं ॥११॥ चित्रकोट तव छंडि चित्त एह वयण विचार्य, करवि होम आउध,' सवद' अइसउ संभारउ । वीस भवन महसाण, मंत्र योगिनी आराधी, कहो नइ देव कुण काज, आज ए विद्या साधी। उचरइ विप्र स्वामिनसूणि, एह भेद मुझ अपीइ, आगम निगम सहुइ लहूँ, तउ वाचा दे थर थपीइ ॥१२॥ तव तूठी योगिनी, हुई प्रसिद्धि प्रसनी, ब्रह्म रुद्र करि वाच, वाच निश्चल करि दीन्ही । जिहा हकारइ मोहि," , तोहि साचउ करि जाणइ, आदि अन्त उतपत्ति, विपति तो सहु पीछानइ । आस्थान आप जोगिन हुइ, विप्र पथ आश्रम कर्यउ, आणद अंग ऊलट घणइ, तब डीली गढ संचर्य ॥१३॥ वचन कला उतपन, पवन छतीस मिल्या तिहा, राय राणा मडलीक, खान ऊ बरे खडे तिहाँ । मन सकेत पूरवइ, जेह कछु मन माहि इछइ', जे धन कारन धाय, आय विप्रन कूपूछा। बात सुनी सुलतान एह, वे वजीर सचा कहर, दरवेश वेस अलावदी आय पउहतउ विन पोह ।।१४॥
१ आहुत्त । २ मंत्र । ३ घिव कहइ। ४ परतक्ष । ५ सोहि । ६ दिल्ली। ७ ऊमरा । ८ अच्छइ ।
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गोरा बादल कवित्त ]
[ ११३
अल्लावदीन सुरताण की, सीस छत्र काइम रहइ, दरवेस वेस कहि विप्र मुणि, तंहि महि मागइ सोभी लहइ।।१८॥ फेरि वेस सुरताण, ताम निज मंदिर आयउ, ऊग्यर सूर परभात, तवही बंभण बुलायउ । सभा मध्य जब गयो, चित योगिणि समरतउ, छत्र सिंघासण सहित, साह नयणे निरखतउ । संक्यउ सु विप्र असपति सहित, निसचरिज रयणी फिर्यउ । मगइ सु मंगि असपति कहइ, वाचा मोहि ऊरण करउ ॥१६॥
तव सुरतांण निवाजीयु, राघव बहुत उछाह, जे मनि चीतइ सोइ करइ, वसि कीधउ पतिसाह ॥२०॥ मल्ल भाट सुरताण पय, आयउ मंगण कज्जि । मुहुल तलइ जइ द्वा करइ जिहा खडे असपति सज्जि ॥२१॥
कवित्त एक छत्र जिण प्रथीय, धरीय निश्चल धरणि परि, "आण किद्ध नव खंड, अदल किद्धउ दुनि भिंतरि । अनिल नलणि विभाड, उदाधि कर माल पखालिय, अंतेवर रही रंभ, रूप रंभा सुर टालीय । हेतम दान 'कवि' मल्ल भंणि उदधि खंध वे बखत गुनि, दीठउ न कोई रवि चक्र तलि, अल्लावदीन सुरतान धनि ॥२२॥ मम पढि भट्ट कवित, बुद्धि खोजें देइ पूरउ, सुख सवाद करि रोस, सिद्धहर मजलगि सूरज ।
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११४ ]
[ गोरा वादल कवित्त किहां सुणी पदामिनी सेसधर अंती सोहइ, सुरनर गुण गंध्रुव, देखि मुनिवर मन मोहइ । सुखिनी सवे सुरताण घरि, कोप हूउ वेजन कसइ, लावत मारि खोजा निसुणि, पतिसाह मुरके हसइ ।।२३।।
वंदण प्रतइ अलावदी, कहि सु क्यण विचार । कटारी सहिनाण लइ, राघव वेग हकारि ॥२४॥
कुण्डलीयर
आलिमसाह अलावदी, पूछइ व्यास प्रभात । सयल परीक्षा तु करइ, स्त्री की केती जाति ॥२५॥ स्त्री की केती जाति, कहि न रावव सुविचारी, रूपवंत पतित्रता, मूध सोहइ सुपियारी । हस्तनी चित्रणी कर सखिनी, पुहवी वड़ी पदमावती, इम भणइ विप्र साच वयण. आलमसाह अलावदी ॥२६॥
कवित्त
इम जंपइ सुरताण, सुनि वे राघव इक वातह, जाति च्यार की नारि, केम जांणीइ सुचित्तह । गंध रूप सदभाव, केस गति नयण निरत्ती, वयण वाणि तमु अग, कहु किशि तखत किसि भंती। हस्तिनी चित्रणी कइ संखिनी जाति तीन दीसइ घणी, पातसाह अरदास सुणि, दुनी पियारी पदमिनी ।।२७||
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गोरा वादल कवित्त ]
[ ११५
दूहा राघव वयण इम ऊचरइ, साभल साह नरेस । त्रीया लखणे बूझीयइ, कोक तणइ उपदेस ॥२८॥
सलोक पद्मिनो पद्म गधाच, अगर राधाच चित्रणी । हस्तिनी मद्य गंधाच, खार गधाच मंखिनी ॥२९॥ पद्मिनी पुष्फ राचंति, वस्त्र राचति चित्रणी। हस्तिनी प्रेम राचति. कलह राचति सखिनी ॥२०॥
कवित्त गहिर महिर अलावदीन, राघव हकारीय, नयण नारि निरखेवि, देखीइ हरम हमारीय । हसगमण गजचलणि, साहिजादी अतुरत्ती, सुरत्ति सुर नर, स्त्रीया पेखि हस्तीनी, चित्रणी क संखिनी क, किती साह घरि पदमिनी ||३१|| साह आलिम एक बयण, विप्र उच्चरइ सुमिट्ठङ, लोयण ते हेतम कीय, जेणि परिरमणि मुह दिउ कहइ एम सुरताण, कहु कइसी परि किज्जड, काच कुंभ भरि तेल, मुहुल माही रास रचिज्जइ । इक संग रग ठाढी रहइ, सजे सिणगार सवि कामिनी, प्रतिविंव निरखि राघव कहइ, सो कहुं साह घरि पदमिनी॥३२॥ पातिसाह राघव, आय तिण ठामि बइठा, काच कुंभ ढालेइ, भरीय जस तेल गरिठा ।
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११६ ]
[ गोरा वादल कवित्त सजे सिंणगार सवि कामिनी, भूयण मिरि छज्जइ ठढी, के स्यामा के गोर, केह गुण गाहा पढी। निरखंति वयण भुव मज्झि नव, एह वात चित्तह गुणी, दोइ जाति नारि ढीसइ घणी, सु नही साह घरि पदमिनी ॥३३॥ रोस भयु सुरताण, खान अर पान न भावइ, बे ला इत मारि लवार, वेग पदमिणी दिखलावहि । ले किताव कर धारि, करइ वंदिन वीनत्तीय, सघलडीप समुद्र, अछइ पदमिण वहु भत्तीय । हुसीयार होइ अरदास करि, एक अधू पेखइ जिहा, संभली समुद्र ससइ पड्यउ, कोइ खुदीय खुते तिहा ॥३४॥ असपति कीयउ आरम्भ सु दिन साधीयउ दखिण धर, पातिसाह कोपीयउ, कुंण छुट्टइ संघल नर। दल गोरी पतिसाह, जुडइ सग्राम सुहुड भड़, नव लख त्रिगुण तुरंग, चउद सहस मइंगल घड । सूर्ज खेह लोपति गयउ, पातालई वासग दुड्यउ, चिहु चक्करायसासइ पड्या, पातिसाह किसपरि चड्यउ ॥३॥ चड्यउ चंचल सुरताण, खेडि दख्यण तटि आयउ, सेन सहू उत्तरी, तिवही वंभण बोलायउ । चेतकरी चेतन्न, एम जंपइ खूढालम, मई कताव तोही दीयउ, भयु सु दुनीयां मालम । असपति कहइ चेतन सुनि, अव वेगइ संघल संचरउ, जिसी भांति पदमिनी कर चढइ, सोइज मित्र चित्तह धरउ ॥३६।।
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गोरा बादल कवित्त ]
[११७
पातिसाह राघव, आय ऊभा तटि साइर, करउ मंत्र चेतन्न, कटक लंघीइ रिणायर। सुणि आलम वीनती, नीर कउ अंत न जाणत, संघलदीप पदमिनी, घरहि घर अधिक वखाणउं । भंनउ सु कोट असपति कहइ, देखि दाउ तिसकुं दिउ, ग्रहे खग्ग सीस राजा हणउ, पकडि प्राह पदमिणि लिउ ॥३१॥ हठि चड्यउ सुरताण, खणवि धरणि तलि पिल्लउं, वेगि ल्यावि पटमिणी, सेन सवि साइर घल्लउँ । मिलि वइठा मंत्रवी, कहा हम पदमिणी पावइ, वे बंभण तूं कूड, झूठ वातई इहा ल्यावइ । राघव कहइ तुम्ह मति डरउ, हुं करउं मत्र मनि भाईयउ, सुलताण ताम समझाइ करि, वाहुडि डिल्ली लाईयउ ॥३५।। सलहिदार हथियार, लेइ आगइ अवधारीय, सभाले सवि सेल, माहि भेजे चिति धारीय । बीवी तव पूछीयउ, साह पदमिणि किहीं आणी, च्यारि त्रीया घरि नही, किसी तिस की सुरताणी। खुणसि भई सुरताण मनि, तव अदेसा किधा वहु, सचल दल जे पठया हई, वे राघव पद्मिणि कहु ॥३६ ।। तव राघव चिंतवइ, वयर पाछिलउ संभावउ, कहुँ जिहा पदामिनी, साह जु चिंतइ धारउ । गढ चितोड हिंदुआण, राण गहिलोत भणिज्जइ, रत्नसेन घरि नारि, नारि सिंघली सुणिज्जइ।
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११८]
[गोरा बादल कवित्त
उचरइ विन एरिस वयण, लोग विहि जीता तिरी, इसी नही रविचक्र तलि, मई नव खड देख्या फिरी॥४०॥
लाख तूल पल्लिंग सउडि पिणि लख मिलइ तस, अतह पुड सइ पंच, अवर गिदूया सहस जस । तसु ऊपरि ओछाड, रंग बहु मूलई लीधा, अगर कपूर कुमकुमा, कुसम चंदन पुट दीधा । अलावदीन सुरताण सुणि, चेतन मुख सचउ चवड, पदमिणी नारि सिणगार करि, राय रत्नसेन सेजइ रमइ ।।४।।
पलाण्यड अलावदीन, जल थल अकुलाणा, राय राणा खलभल्या, पड्या दह दिसि मंगाणा। हय गय रथ पायक, सेन काई अंत न पावइ, जे मोटा गढपती, तेह पणि सेवा आवइ । तब कोप करवि वल मॅछ धरि, कहइ साह विग्रह करउ , मारउ देस हीदुआण कु, त्रीया एक जीवत धरउ ।।४२||
वकर गढ चित्रकोट, सकति सुरताण न लिज्जइ, ऊठि आई मुसाफ, वोल जस राय पतिज्जइ । डड डोर नवि दिउ, देस पुर गाम न गाहूँ, नाही गढ सु काज, राजकुअरी न व्याहु । राघव कहइ असपति सुणि, कहि राजा मारिन आहुड, रत्नसेन मुझकु मिलइ, तउ नाक नमिणि करि वाहुडउ ।।४।।
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गोरा बादल कवित्त ]
[ ११६
कुडलीउ ॥ दल सझवे सुरताण, आय चित्रकोट विलिज्जइ, भेजउ वेगि विसेट, वात मिलणे की कीनइ । दीजइ कर की वाच, जेम 'गहिलोत' पतीजइ, हम तम विचई खुदाइ हइ, लेइ मुसाफ आदइ धरउ, चितोड देखि वेगई फिरउं, वाचा देइ थायउ खरउ ॥४४||
वेग विसेट चलाइयउ, पुतउ गढह मझार । सभा सहित राय भेटीयउ, बोलइ वयण विचार ||४||
करित ।। वात करी तव मिठ, राय तस वयण पतिनउ, जिण परि कही विसेट, सोइ परि राजा किन्हउ । राजकुली छत्रीस, सहूति सभा भणिजइ, असपति आवणु काउ, कहु किणपरि बुधि कीजइ । मिली प्रधान इम चीतवइ, सेन सहु दुरिहिं पुलइ, जण वीस सहित आवइ ईहा, तु पतिसाह राणा मिलइ ॥४६॥ विधी पोलि चिटकाइ, डस्या गढ तुरक नभाया, गोरी गोधउ मड, साथि लमकरह सवाया । अब तु मेलु भयो, राय जिमणार कराया, त्रीस सहस मेली गया, साथ लसकरह सवाया। खाणाज खाइ जव उठीया, पकड़ि वाह राजा लीया, वात ज करत लंघीय पोली, तब रतनसेन काठा कीया ॥४७॥
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१२०]
[गोरा बादल कवित्त
कीयो कूड सुरताण, सामि मोरउ ग्रहि बंध्यउ, पदमणि द्यु तु जाउ, काजि कारणह समंधउ । भलो न कीयो किरतार, केम गहिलोत वधीजइ, कीयो मंत्र मंत्रीया, राय राखवि त्रिय दीजइ। तदिन जीभ खंडवि मरउं, योगिणीपुर नवि दिखसउँ, पदमिणी नारि इंम उचरइ, अब कह सरणागति पइठिसि॥४८॥ दुख भरी पदमिणी. एम परिपंच विचारइ, कोई संसारि समरथ, सूर मोहि सरणि उवारइ। जे गढ माही रावत, तेह सवि हीणु भाखड़, इसउ न देखु कोइ, मोहि सरणागति राखइ । उचरइ नारि विलखी हूई, सरण एक हरि संभरउं, पणि राजलोक माहि चंदन रचे, सखी वेगि जमहर करउं ॥४|| सखी एक कहु तोहि, मोहि जउ वयण पतिज्जइ, मनावउ गोरल्ल, दुख सहु तास कहीजइ । वरस पंच तस विखउ, राउ सुकुरखे चलइ, ग्राम ग्रास नवि लीइ, कुण गुण मोहि उथलइ । सुणि राउत्त कुलवट्ट तस, जिण सिर सूप्यउ परकज सउं। पदामिणी नारि इंम उचरइ, तु वादल सरणि पइठसिउं ॥५०॥ चडे संघासण ताम, करह करि कमल उपास्य, जीहा गोरउ वादल, पाउ पदमिणी ताहां धास्यउ। गग उलटी पचिम प्रवाह, भणइ इम गोरउ रावत्तह, ए तुम्ह कुबूझीइ, देत आइस हम आवत्तह ।
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गोरा वादल कवित्त]
[१२१
पदामिणी नारि इंम उचरइ, तुम्ह लगइ कीजंति वल, कर ऊभु करइ ज सामि कज, करउ कित्त जिम हुइ कलि ॥५१॥ तुही रावत्त गोरल्ल, तुहीज दल माही वडज, तु ही रावत्त गोरल्ल, तुहीज मोरउ भाईडउ । तुही रावत्त गोरल्ल, तु हीज दल बडउ छजइ, तुही रावत्त गोरल्ल, तु ही देखवि राय गजइ । सुणि गोरल्ल पदमिणि कहह, मोहि दासी करि सुरताण दड, कइ अल्लावदीन सु स्वगधरि, कैराउ रत्नसेन छोडावि लइ ।।२।। सुहुड सुभट गोरल्ल, तांम गहगाउ सुचित्तह, दल भंज सुरताण, नाम तु थु रावत्तह । सांमि कजि अणसरडे, नारि पदमिणी उवेलउ, गढ राखउ भुज प्राणि, मारि असुरा दल पिल्ह। कहइ गोरल्ल सुणि सामिनी, जाउ तुम्हे गाजन्न घरि, अवतार पुरूप विधना रच्यो, सु वीडर चु वादल करि ।।३।। न्लीन्ह पान वादल्ल, रयण हूँ ते गढ भींतरि।। सत्ति तुम्हारइ साहस्स, साह भजउ खिंण अंतरि। . दोइ कुल भेट लाज, तु नाम बादल्ल कहा। गोरी दल विन्नड़, कूटि करि बाधव ल्याउं । जिम राम कज हनुमत करि, महिरावण बव्यउ तिखिणि । काटउ ज वध राउ रत्न के, तु साहस भजउ साह' हणि ।।५४|| चाड कूड विन्नयउ, मंत्री कउ मंत्र भुलाणउ, रतनसेन वधेवि लीय, गढह चिहुं दिसि अहिराणउ ।
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१२२]
गोरा बादल कवित्त
कायर झखइ आल, राणी दे राजा लिज्जइ, अल्लावदीन सुरताण सउ, केस करि खम्ग धरिज्जा। इम कहइ चाड रावत सुणि, हीइ मत्रि निचल धरउ । गढ रहइ राउ छट्टइ सही, त्रीया दई इतउ करउ ।।५।। वयण सुणी रावत्त, रोस करि खरा रीसाणा । दोय चडीया अति कोप, दोय अति चतुर सयाणा । रिण माही अणुसरया, सीस बड समुहा बछी । मोल मुहुगा लहइ, चडड कुंजर सिर तछी। गोरउ गरिष्ट बादल विपम, दोय साहस समुहा सस्था । फुट्ट मुहीयो जिवा गल3, जिणि पदमिणि देणा कल्या ॥५॥ आवि माइ तिणि ठाय, पासि वाटल इम टढीय, तोहि विण पुत्र निरास, तु ह चल्यु मुझण कसीय । नयण मोरउ वादल्ल, वयण वाढल्ल भणावीय, प्राण मोर उ बादल्ल, वार वारई समझावीय । आवती माय अब पेखि करि, उठि बादल्ल प्रणाम कीय, बालक पुत्र जगि जगि जयो, किणइ कुमित्र कुमत दीय ॥५७|| हुं कित बालउ माय, धाइ अचल नहि लराउ , हुँ कित बालउ माय, रोय भोजन नही मग्ग। हुं कित बालउ माय, धूरि धूसर नहीं लिट्ट, हुँ कित बालउ माय, जाइ पालणइ न घुटउं । वालउ ज माय मुझ क्यु काउ, अवर राय रखउँजीउ, सुलताण सेन विनड नही, तव रे माय फट्ट हीउ ॥८॥
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गोरा वादल कवित्त]
[ १२३
रे वाले वादल्ल, मनह अपणइ न बुझिसि, रे वाले बादल्ल, केम करि साम्हु झझिसि । गढ वीभ्यउ सब ठाय, असुर दल देखरं भारी, तु नान्हु वाढल्ल, केम करि खग्ग संभारी । इंम कहइ माय वादल्ल सुणि, वयण एक मोहि चिंत धरि, साहण समुद्र सुलताण का, कुण सुवछ अगमिसि भर ॥५६॥ हुँ कित वालउमाय, गहिवि गयन्दतउ खेल, हुँ कित बालउ माय, सेसफण विमुहा पिल्हर । बालउ वासिग कान्ह, नाथि आणीयु भुजा बलि, वलि चाप्यु धर पीठ, वेणि दिधउ स्वामी छल। बाली वाला पउरस घण, दुरजोधन वंधवि लीयु, बादल्ल गयंद इम उचरइ, तव सुणवि माय पिछित कीउ ॥६॥ माय जाय पठवी, वेग तिही नारिज आई, कुच कठोर काटि झीण, रूप जण रंभ सवाई। कोककला कामिनी, पेखि त्रिभुवन मन मोहइ, प्रेम प्रीति अग्गली, अगि लक्षण जस सोहइ । बादल देखी जव आवती, तव सुचित विसमु भयु, लालच्च नारि निरखु हवइ, तु मोहि सूर साहस गयो ॥६१।। तव कमलिणि विस तरंग, नयण सू नयण न मेलिग, वयण वयण न हु मिली, अहर सुअहर न पिल्हिग । अति भुज पवन प्रचंड, कठिण कुच कमल न भिडिग, रहिसेन फरसेग अंग, त्रीय घाए नह पिठिग ।
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१२४]
[गोरा बादल कवित्त सुख सेजन माणी तन, कंता बाले फल कीय हुय, संग्रांम सामि किम मुझस्यउ, कहुन कुमर गाजन सुय ।।६।। लोअण तेह खिसि पडउ, केय पर त्रीय उल्हासी, चरण तेह गलि जाउ, जेण रिण पाछा नासी । हीयो तेह फुटीयो, लेण मन कीयो दुमंन्नउ, श्रवण तेह सधीइ, जेण हरि सुण्यउ विमंन्नउ । वादल्ल कहइ रे नारि सुणि, असुर सेन त्रिणवडि गिणत, ' नीपजे न सरवर सेन, जुन साह सनमुखि हणउं ।।३।।
कुंडलीया कंता झझिसि कवण परि, किम करवाल ग्रहंति, पेखि सागि अणी अग्गला, किम करवर झालंति ॥४॥ किम करवर झालति, कुत अणी अग्गल फुटइ, खग्ग ताड वाजंति, सुहुड़ अधो धड तुट्टइ। जु प्रीय कायर होय, पेखि गय जूह गजता, तु मोहि आवइ लज, जु तुरिणि भजिसि कंता ।।६।। हय सू य नरदलउँ, हस्ती सू हस्ति पछाड़, कुतकार सुकुंत, खग्ग सुखग्ग विभाड। छत्र छत्र छिनि छिनि, चमर आडंबर नोड, तु जायु गाजन्न. माह समहरि चडि मोडल। बादल्ल कहइ रे नारि सुणि, तब ही तुझ सेजई सरउ, चीतोडि रांण पदमावती, हूं वादल एकत करउं ॥६६।। सुणि स्वामी वीनती, कयण एक कहुँ सु मिठउ, मो सिरि चड कलंक, वाह ककण नहि छट्टउ।
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गोरा बादल कवित्त ]
[ १२५
पूरि आस पदमिणी, मोहि निरासी किन्जइ, आप हाणि घरि होइ, अवर कारणि जीउ दिज्जइ । इंम क्हइ नारि कंता निसुणि, सेन सहुय एकत हुअ, गोरल्ल पुठि समहर चडइ, रहु न कुअर गाजन्न सुय ॥६७|| अथग पवन जु रहइ, वहइ गगा पच्छिम मुह, मेर टलइ मरजाद, जाइ नवखण्ड रसातल हु। सेस भारजु तजइ, चलइ रवि चन्द दखिण धर, सुर असुर सहू टलइ, संक नह धरइ अप्पसर । एतला बोल जउ सहू हुइ, हूँ वयण सच्चउ करउ, बादल्ल गयद इंम उचरइ, तुहि न नारि पाछउ सरउ ॥६८॥ गोरउ अर बादल्ल, आय दोय सभा बयठा, जे गढ माही रावत, तेह सहू मिल्या एकठा । करउ मत्र विचार, बुधि छल भेद करीजइ, देणी कहु पदमिनी, जेम सुरताण पतीजइ। डोली कीजइ पंचसई, सुहड सवे सन्नाहीइ, एकेक डोली आठ आठ जण, इम परिपंच रचाईइ ।।६।। रची एम परिपच, वेगि तव दूत चलायो, खवरि करउ सुरताण, हुं तु पदामिणी पठायो। जे दासी अगरक्ख, हरम सवि डोलइ घल्लङ, हीर चीर सोवन्न, लेई तुम्ह साथे चल्ल। इंम कहइ नारि पदमावती, पातिसाह अरदास सुणि, जिस घड़ीय राय छुट्टइ सही, हुँ न रहुँ ईहां एक खिणि ॥७॥
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१२६]
[गोरा वादल कवित्त
तब खुशी भयउ सुरताण, वेगि फुरमाण चलायउ, सुणि गोरे वादल्ल, साथि करि पदमणि ल्याउ। जे तुम्ह कह सोई करउ, राउ की बेरी कट्ट, बाद गस्त हूं कर, ईहा रहि नीर न घुट्ट। पहिराइ राइ तेजी दिउ, बोल बंध दे पठव', इम कहइ साह वाढल्ल सुणि, तोहि निवाजि दुनिया दिई ।।७।। कीयउ कूड वाढल्ल, आय डोले सपत्तउ, तस माहिं रख्यउ वालः, नाम पदमिणी कहतउ । हूउ हरख सुरताण, जब ही आवत सुणी नारी, गोरी तव पूछीउ, बोल बोलीयउ विचारी। । अल्लावदीन सुरताण सुणि, एक बात मेरी साभलउ, पदमिणी नारि इंम अचस्याउ, एक वार राजा मिलडं ॥७२।। वादल्ल तिहा पठयु, राय जिहा वधन बंधीय, गहीय राय पय कमल, काज अप्पणउ इंम किधीय । हूउ कोप राजान, बहर तई साध्यउ वयरीय, रे रे कुबुद्वीय कुड, नारि किम आणी मोरीय। वादल्ल ताम इम उबरइ, खिमा करउ स्वामी सही, मई वालक रूप पदमिणि करी, राउ नारि निश्चइ नही ।।७३।। वाढल्ल तव लेइ चल्यउ, राउ चकडोल सरसीय, खगधारी सनमुख, भड्यउ सुरताण सरसीय । करी पारसी मुगल्ल, हींदू सब कूड कमाया, लंकामणि उद्धत्त्वउ, अतुल वल सेन सवाया।
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गोरा वादल कवित्त ]
[ १२७ मारि मारि करि उठीया, वाढल्ल तिहा संमुह सस्यउ, जब लगइ झूमि दल पति हृउ, तव लग हईवर पखत्त्यउ ।।७४|| हुई हाक दल माहि, भई कलकली वृवारव, गय गुडिय हय पखरिय, सुहड सन्नाह करइ तब । एको सिर टंति, एक धड धरिणी लुइ, खग्ग ताल वाजंति, वांण सींगणि गुण छुट्टइ। इम भग्यउ सेन असपति सरस, पातिसाह विलखउ भयउ, गोरइ गयंद दल कुट्टायो, बादल्ल राउ तब लेई गयउ ||७५।। करी पइज वादल्ल, नारि उगारी बलहिं छल, मंनि संक्यउ सुरताण कज्ज करि आयउ भुजा वलि । असपति मोडउ माण, सामि आपणउ उवेल्यउ, भजे गय घण घट्ट, मीर मुगला सत मेल्ह्यउ । इम सुणवि माइ आणंद कीय, पुत्त परदल भजीयउ, उवरी वात बादल्ल की, सो पदमणी कंत उवेलीउ ॥७६||
कुंडलीया गोरल्ल त्रीया इंम ऊचरड, सुणि बादल तोहि सत्ति, मो प्रीउ रिण माहि झूझीय, कहि किम वाह्या हत्थ ||७|| कहि किम वाह्या हाथ, वत्थ वइ सुहुड पाछाडीय, भंजी गय घण थट्ट, पाव दे सीस विभाडीय । हय गय रथ पायक, मारि वल्लीयउ बोरिल्ल, वेग माइ सत्ति चडउ, एम रिण पड्यउ गोरिल्ल ||७८|| कहिं धड़ कहिं सिरि कहीं कमंध, कहिंक पजरही पडीउ, कहीं कर कहीं करमाल कहि कहि मरवि छुडीयउ ।
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१२८]
[गोरा वादल कवित्त कहीं एकावली हार, कहिक धरणी धंधोलिय; ... कहीं जम्बुक किहीं अत मस गिरधण विछोडीय ।
गढ छल त्रीय छल सामि छल, बिहुँ छल भिड्यउ सुकवि कहइ, गोरल्ल सूर भेटण चली, सु ख्रिण एक रवि रथ खंचे रहइ ॥७॥ जे सिर पड्यउ धर पिट्ठ, धरा देई इंद्र पठायउ, इंद्र हथ थल स्यु, सोड सिरि ग्रिविण उठायउ । गिरिधण कर छुटेवि, पड्यउ गंगाजल मञ्ज, गंगाजल उत्त ग, हुओ अमृत सिरि बन्ज। इम अंमीय गाह नयण चंदण चूउ, तब कंदल मंड्यउ घणउ, गलि रुंडमाल गुथेवि लीय, तो सर सिद्धि गोरल तणउ ॥८॥ जे वादल्ल जंपति, विरद वादल अरि गंजण, संकडि स्वामि सन्नाह, असुर भारथ अरि गंजण । कीयउ जुद्ध सुरताण हण्या हसती मय मत्तह, आयउ मोरउ कंत, तहिज दिद्धउ अहि वातह । पदमिणी नारि इंम ऊचरड, तोहि धन्य धन्य अवतार हूअ, आरती ऊतारउ हो वर तुरिणि, जे वादल्ल जपंति तूअ ।।८।। अचल कीति श्री राम, अचल हनुमन्त पवन सुअ, अचल कीर्ति हरिचंद, अचल वेली पुहवी हुअ । अचल कीर्ति पाडवा, जेण कइरव दल खंडीय, अचल कीर्ति अहिवन्न, जेणि चक्कावहु मंडीय । विक्रम कीर्ति जिम अचल हूअ, भोज अचल जुग जाणीइ, तिम अचल कीर्ति गोरल तूय, बादल कीर्ति वखांणीयइ ।।८।।
॥ इति श्री गोरा वादल कवित्त सम्पूर्ण ।।
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रत्नसेन पसिनी गोरा बादल संबन्ध
खुमाणा रासो
षष्ठ खण्ड
॥ श्री माऊ अवाय नमः ॥
गाहा ओंकार मंत्र अंबा, जगजननी जगदंवा । लच्छ समप्पो लबा, दलपति तुह चरण अवलंवा ।।२।।
दूहा कमला मात करो मया, मुझ उर वसिइं वास । आपो दोलत ईश्वरी, वाणी वयण विलास ।।२६।।
कवित्त रांणां री वंशावलिका राण प्रथम (ह) राहप, पाट नर सुर नरपत्ति । दिनकर हर सुरदेव, रतन जसवंत नृपत्ति ।। अनतो अभयो रांण, प्रवल पथवीमल पूरण । नाग प्राणग नेंसिंघ, जेंत जगतेश उधारण ।। जयदेव राण जो नंगसी, भारथ पारथ भीमसी। गढ़पति मुगट गढ गंजणो, गाहड़मल गढ़ लखमसी ॥२७॥
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१३० ] | रत्नसेन-पद्मिनी गोरा बादल संवन्ध खुमाण रासो जग असपति जसकरण, नवल विजपाल नरेसुर । नागपाल नरसीह, राण गिरधर राजेसुर ।। पीथड पुनोपाल, मल्ल मोहण मय मत्तह। सीहडमल भीमक, राण भाखर रण रत्तह ।। लणग्ग करण लाखा दलां, मोड मंडल श्री लखमसी। अरसी हमीर खेतल खगां, अवनी सहु लीधी इसी ॥२८॥
चौपाई
राणो रतनसेन गहिलोत, देसपती मोटो देशोत । राज करें नृप गढ चीतोड, राजकुली से कर जोड़ ।।६।। एक दिन नृप बैठो वेसणे, पटरांणी सुं पेमे घणें । भोजन माहें स्वाद न कोय, चतुराई तुम माहें न कोय ॥३०॥ राध न जाणा भोजन भणी, परणो थे सींघल पदमणी। अंजस करे राणो नीसस्यो, गढ़ चीतोड़ थकी ऊतस्यो ॥३॥ अश्वें चढीयो राण उलास, साथै लीधो खान खवास । राणा ने सेवक पूछियो, आफै केथ पयाणो कियो ॥३२॥ आपा जास्या सींघल देश, तिहां नाए पदमण परणेस । अगुवो लीधो साथै भाट, ते सींघल री जाणे वाट ||३३।। रांणो दरियार तट गयो, जालिम सिद्ध जोगी दरसियो। जोगी जपें रतन नरेश, थे किम आया कवण विसेस ॥३४॥ आयस से अधिपति वीनवें, पदमणी वरण जाऊँ हिवें। पार उतारो मुझ गुरदेव, सींघल ले जावो सुज हेव ।।३।।
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रत्नसेन-पद्मिनी गोरा बादल सवन्ध खुमाण रासो ] [ १३१
कर ऊपर दोई असवार, नृप सींघल मुक्यो तिणवार । आयस कीधो ए उपगार, परणण रो मुशकल व्यवहार ।।३।। बहिन अछे सींघलपति तणी, परतिख आप अछे पदमणी। अभिग्रह लीधो एहवो नार, जी मुझ थी पासा सार ॥३७|| अधिपति खाधी हार अनेक, जीपें तस परणु सुविवेक । रमवा वंठो रतन नरेश, हारवी पदमणि ने लघुवेश ॥३८॥ सींघल नृप व्याही पदमणी, दीधी परिघल पहिरावणी । रह्यो केताइक दिन सासरे, चालणरी सीमाई करें ॥३॥ सीख माँग चाल्या घर भणी, साथें लीधी नृप पदमणी। 'घणे भाव बहु प्रीतें घणी, पहुंचाया सींघल रे धणी ॥४०॥ अनुक्रमें आया गढ चीतौड, रतनसेन मन अधि कोड। राणी सुजं राजान, म्हें परण्या पदमणि करि मान ।।४।। थे मोसो मार्नु वाहियो, वोल कह्यो मो निरवाहि [इ] यो। अहनिस गेंर महिल आवास, पदमण सुसेमें करें रजास ॥४२॥ एक दिन आयो राघव व्यास, पदमणि नृप वेठा सुविलास । राणो रतनसेन कोपिओ, पदमणि रूप ब्रामण पेखियो ।।४।। आँख कढ़ाव राघव तणी, इण दीठी निजरें पदमणी। जीव लेइ ने भागो नीठ, अधिपति कोप्यो आकारीठ ॥४४॥ माणस लेइ गढ़ थी उतस्यो, दिल्ली नगर राघव संचस्यो। वाचे राघव शास्त्र अनेक, वात वखाण करें सुविवेक ॥४॥ जस विसतरियो दि [ल] ली माँह, तेडाव्यो पंडित पतिसाह । आलम ने दीधी आसीस, द [ल्] लीपत कीनी बगसीस ४६ ।
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१३२] [ रत्नसेन-पद्मिनी गोरा बादल संवन्ध खुमाण रासो राघव आलम पासें रहें, असपतिरी बगसीसा लहें। राघव कुबधि कियो मंत्रणो, काढुवैर हवें चोगणो ॥४७॥ रतनसेन ऊपर रिम राह, ले जाऊँ चित्रगढ पतिसाह । कोइक करस्युहुँ कलि चाल, रतनसेन भांजुभूपाल ॥४८॥ भाट एक सुभाईपणो, तिण सुकहीयो ए मंत्रणो । अंव खास वेंठो असपन] त, हंस पाँख ग्रही सुविग[त्त ४६ यारो इस सुभी मकशूल, प्रथवी माँ काइ अमूल । हजरत इस सु मेहरी खूब, महिला पदमणी हे महबूब ॥५०॥
गाहा मान सरोवर मज्झे, निवसे कलहंस पंखिया वहवे । ताणतो सुकमाला, इसा पंखी मम हत्थे ।।१।।
चौपाई पूछे आलम पदमणि जेह, सोही वतावो हम कु तेह । अंदर हुरम परिक्खा करो, पदमणि हो सो आगे धरो ॥५२॥ हजरत दीधा खोजा साथ, देख्यो हुरम तणो सहु साथ । हस्तणी चित्रणी ते सखणी, इसमे कोई नही पदमणी ।। ५३।। किस थानिक है कहो हम भणी, सींघलद्वीप अछे पदमणी। जास्यु सींघल लेस्युहेर, जिहा हुवें जिहा ल्याउं घेर ।।४।। सींचल ऊपर थया तियार, आलिमसाह हुआ असवार । ल्हसकर लाख सताविस लार, उदधि पास आव्या तिणवार ।५५ दीठो आगे उदधि अथाग, मानव कोइ न लाभे थाग। उदधि उपर ह [ल]ला करें, आलिम को कारिज नवि सरें ॥५६॥
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रत्नसेन-पद्मिनी गोरा बादल सवन्ध खुमाण रासो] [१३३
जिहा जे वेसाड्या जूझार, बूडा उदधी में तिण वार । जपें आलम रावव व्यास, कीधो कटक तणो सहु नाश ।।५।।
ओर वताओ कोई ठोड, कहें राघव पदमण चितोड़। लेत्ता ते मुसकल अतिघणी, सेसतणी दुरलभ जिम मणी ॥८॥ रतनसेन वाको रजपूत, महा सुभट माझी मजबूत । आलिम कहें हिन्दू का क्याह, गढ़ चीत्तोड चढुंउच्छाह ।।५।। पदमणि गहि वांधु हिंदवाण, तोहुँ तखत वडो सुलताण।
सुण राघव आलिम कहे, कह पदमणि सहिनांण । करु ह(ट्) ठ तस ऊपरें, गढ़ घेरु घमसांण ||६|| सुण हजरत राघव कहें, नवरस महि सिणगार । नांम च्यार हे नायका, वरणव कहुं विचार ॥६२।।
कवित्त सुन हो साह कहें व्यास, धरहुं रस पेम उकत्तह । वाखानहुँ सींगार, सुन हो चित होय सुरत्तह ।। किती भात नायका, कोन गुनरूप विलासह । भाँत भाँत कहि भेद, करिहु निज बुध प्रकासह ॥ आलिम साह' सुनीइं अरज, च्यार जात त्रिय के कहें। नायका तीन सबके घरे, वखत वार पदमणि लहें ६३।। कहें साह सुनि व्यास, करहो सबके वाखाणह । रूप लच्छन गुन भेद, तुम हो सब बात सयाणह ॥
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१३४] [रत्नसेन-पद्मिनी गोरा बादल संबन्ध खुमाण रासो
तनवि चित्रणी विचित्र, हस्तनी मस्त हसती। संखनि कुचित सरीर, नार पदमणी छत्रपती ।। संखनी पाच हस्तनी दसह, पनरह रूप सु चित्रणी। कहें राघव सुलतान सुन, वीस विशवा पदमणी ॥४॥
दूहा
सुनि सब त्रिय के रूप गुण, इम जपहि सुलतान । अब चित पाई पद्मनी, करहुं विशेष वखांण ।।६।। पदमनि निरमल अंग सव, विकसत पदमणि [सु] हेज। प्रेम मगन ऐसी खुलें, ज्यु पकज रवि तेज ॥६६॥
छप्पय चित चंचल वय स्याम नैन मृग भ्रोइ अलिंगन । तिल प्रसून तस समन सिहासन मुख अधर विद्रुमन ॥ अति कोमल सव अंग वयण सीतल अति हंस गति । तन सूछिम कटि छीन प्रगटी दामनि देह द्युति ॥ आनंद चंद पूरण वदन, मन पवित्र सब दिन रहें। आहार निमख इच्छित अमल, विमल ठोर पदमनि लहें ॥६७||
दूहा पदमणि चंपक वरण तन, अति कोमल सब अंग। चिहुं ओर गुंजित भमर, निमखन छारत संग ।।६८।।
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रत्नसेन-पद्मिनी गोरा बादल संबन्ध खुमाण रासो] [ १३५
सवैया बालस वेस रहें सबही दिन, मान करें न कछू दिन लाजें। सेत सरोज सुं हेत धरे, अति ऊजल चीर सरीरहि छाजें। वारिज कोस वन्यो मदन ग्रह वीरज नीरज वास विराजें। देह लही मनमत्त निरंतर रंभा के रूप पदमणी छाजें ।।६।।
कवित्त रूपवंत रतिरंभ, कमल जिम काय सकोमल । परिमल पुहप सुगंध, भमर बहु भमे विलावत । चंप कली जिम चंग, रंग गति गयंद समाणी। ससि वदनी सुकमाल, मधुर मुख जपें वाणी ॥ चंचल चपल चकोर जिम, नयण कंत सोहें घणी। कहें राघव सुलतान सुण, पुहवी इसी ह पदमणी ॥७०॥ कुच युग कठिण सरूप, रूप अति रूडी रांमा। हसत वदन हित हेज, सेझ नित रमे सुकामा ॥ रूसें त्रूसे रंग, संग सुख अधिक उपावें। राग रंग छत्तीस, गीत गुण ग्यान सुणावें ।। सनान मंजन तंबोल सुं, रहे असोनिस रागणी। कहें राघव सुलतान सुण पुहवी इसी तू पदमणी ॥७॥ वीज जेम मलकंत, काति कुंदण जिम सोहें। सुरनर गुण गंधर्व, रूप तृभुवन मन मोहें। त्रिवली, मयतन लंक, वंक नहु वयण पयंपें। पति सुं प्रेम अपार, अवर सुं जीह न जंपें ॥
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१३६ ] [रत्नसेन-पद्मिनी गोरा वादल संवन्ध खुमाण रासो साम धरम ससनेहणी, अति सुकमाल सोहांमणी । कहें राघव सुलतान सुण, पुहवो इसी हे पदमणी ||७२।। धवल कुसुम सिणगार, धवल बहु वस्त्र सुहावें । मुत्ताहल मणि रयण, हार ह्रिदयेस्थल भावें ।। अलप भूख त्रिस अलप, नयण बहु नींद न आवें । आसण रंग सुरंग, जुगति सुं काम जगावें। भगति हेत भरतार सु, रहें अहोनिस रागणी। कहें राघव सुलतान सुण, पुहवी इसी हे पदमणी ।।७३।।
चौपाई पदमणि रा गुण सुणिया एह, जपें असपति सुंण अवेह । करुं चढ़ाई गढ चीतोड, अव हींदू कुनाखु तोड ॥४॥ पोरस आण लेऊ पदमणी, रतनसेन पकडुगढ धंणी। दोडाया कासीद सताव, तेड्या मुगल पठाण नवाव ।।७।। निरमल जोधा जें सम किया, आधी राति दमामा दिया। सवल सेन सु आलिम चढ्यो, धर धूनी वासिग धड़हड्यो ।।६।।
कवित्त हसि वोल्यो सुलतान, माँण कर मुंछ मरोड़ी रतनसेन कुंपकड़, चित्रगढ़ नाखु तोड़ी। . हय कंपें चक च्यार, थरकि जलनिधी अकुलाणों। सरग इंद खलभल्यो, पड़ यो दस दिसीह भगाणों ।। फरवाण देस दिसहि फटें, सब दुनियाण असी सुणी। मारिहें रतन हिंदुआंणपति, साह पकड़िहें पदमणी ।।७७||
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रत्नसेन-पद्मिनी गोरा वादल संबन्ध खुमाण रासो ] [१३७
चौपाई गढ' चीतोड तणी तलहठी, इण पर आयो आलिम हठी। लाख सताविस लसकर लार, डेरा दीधा अति विसतार ॥७८|| धूस नगारें धूजे धरा, गाजें गयण अनें गिरवरा । हठियो आलम साह अलाव, गढ़ भंजण चित मन मे दाव । रतनसेन पण रोसें चढ्यो, पींधो आलम आवी पड्यो । सुभट सेन तेडाया सहू, वह से बलवंत आया बहू ।।७।। रतन सझ्यो गढ़ अवली बाण, छोडें नाल गोला ने वाण । रतनसेन बोले गजखंभ, हींदू धरम तणो उत्तंभ ॥ पतिसाही रणवट पाहुणो, भोजन जीमाडा खगतणो ।।८।। आ [व] ध नाना विध पकवान, आतस गोला खाग विधान । खाठी भगत जिमाडो इसी, खग व्रत मद धारा ना]
मोजसी ।।८।। इसो चखावो अजरोरु [क] क, फिरें न लागें रणवट भु[क] ख । आ पाखें अवर कुण इस्यो, झेले पाहुण आलिम जिस्यो ।।८।। उत अलाव इत रयण नरेश, हींदूपति ने पति असुरेस | माहो माहे करें सग्राम, मुगल पठाण वहु आव्याकाम ।।८३।। असपति कोइ न चालें जोर, रतनसेन राणो सिर जोर। द्ये ऊपर थी भिड मारिका, असपत्ति सहिवें फाटा बका ॥८४॥ कोइक तोत तणा करि मता, रतनसेन पकडा जीवता । वचन तणा दीजें वेसास, विण फदे पाडीजें पास ॥८॥
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१३८] [रत्नसेन-पद्मिनी गोरा वादल संबन्ध खुमाणो रासो
मू कीजे पक्का परधान, एम कहावे द्यो हम मान । तेडी माह खवावो खाण, निजर देखावो आहीठांण ।।८६॥ पदमणि हाथ जीमण तणी, खाँत अछे म्हार्नु अति घणी। काई न मागे आलमसाह, छडा साथ सुं आवें माह ।। ८७ ॥
कवित्त
हमहि पठाए साह, कहण कुं कथ अवल्ली। जो तुम मानों वाच, साह फिर जावें दल] ली। दिखलावो पदमनी, और सब गढ दिखलावो। विग्रह को नवि करही, बाँह दें प्रीत वधावो। गढ़ देख मिलहि सिरपाव दें, बहुत मया आलिम कर (ही)। रतनसेन सुण (हो) वीनती, सुहर माह दुतर तरही ।। ८६ ।।
चौपाई बोल बंध द्यो साचा सही, वाच हमारी विचलें नही। नाक नमण करि कोट दिखाय, पदमणी हाथें मुझ जीमांय 180 माहों माह करे संतोष, हिव मेटो अति वधतो रोष । वलता कहें रतन राजांन, मा [ह] रां कथन सुणो परधान ।।१
कवित्त सुणि वजीर कहें राव, राम सिर पर राखीजें । वाको गढ़ चीतोड़, सगत सुलतान हलीजें। म करहो हठ गुमान, तुमहुँ साहिव तुरकाणे । रजधारी रजपूत, हमही साहिब हिंदवाणे ।
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रत्नसेन-पद्मिनी गोरा बादल संबन्ध खुमाण रासो] [ १३६ क्यु कहें वहुत श्री मुख वयण, हम रखही घर अप्पणो। किरतार कियो न मिटें किण ही, त्याग खाग हिंदू तणो ॥ १२ ॥ कहें वजीर सुनिराव, तुमही क्या ओपम दीजें । तुम सूरज हिंदवांण साह कही एती कीजें। दंड द्रव्य नहिं पेस देस तेरा नहिं चाहु। नहिं हम गढ री प्यास, राजकुमरी नहिं व्याहु। करिहो न तुम करहि फरक्क, राज महल नहिं आहथु । करि नाक नमण करीई रयण, देख कोट' फिर वावडं ॥ १३ ॥ सुण हो बहुरि राजांन, इह हरजत फरमाया । पूछे ग्यान कुरान, तिहा एता दिखलाया। रतनसेन अ [ल] लात्र, पुव्व जन्मंतर भाई। म्हे तप किया असोच, तिण पतिसाही पाई। तें किया पवित्र दिल पाक तप, ही दूपत पायो जनम । हम तुम तेरो समा कुल ही, करत प्रीत रहीइं धरम ॥१४॥
चौपाई खेमकरण वेधक परधान, इम कही सघलि मेलीधान । हिंदू सदा निरमल दिल हुवें, घोलो सहु दूध ज लेखवें ॥६५॥ तेडी राण तणा परधान, पुहतो जई पासें सुलतान । दीधा बोल बाह सुलतान, हम तुम विचें ए छे रहमान ।। ६६ ।।।
श्लोक मुख पय दला कारं, वाचा चंदन शीतलं । हृदय कर्तरी तुल्यं, त्रिविधं धूर्त लक्षणम् ॥ ९७ ॥
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१४०] [ रत्नसेन-पद्मिनी गोरा वादल संवन्ध खुमाण रासो
चौपाई राघव व्यास कियो मंत्रणो, रतनसेन ने भालण तणो। 'नृपमन कोय नहीं छल भेद, खुरसाणी मन अधिको खेद 11६८11 घरभेदू विण घर नवि जाय, घरभेदू थी घर ठहराय । घर भेदं लंकागढ़ गयो, राघव घरभेदू हम कियो |६|| साह माहें पधारो राज, रतनसेन तेड़ें महाराज । आलिम साथ किया असवार, सलह संपूरित तीस हजार २५००
कवित्त चढ़यो गढ सुलतान, खान निवाब लीया संग । तीस सहस असवार, सिलह नख चख ढ़कें अंग । पडे धुस नीसाण, गिरंद चीतोड गडक्कें। । सहिर लोक खलभले, धीर छुटे चित्त धडक्कें। विड्रे रयण मेल्यो कटक, ठोड ठोड सामंत कसें। मनुख देख गयंद मेमत घटा, मयंद कपोरिस उलसें ।।२५०१।।
चौपाई आवि माहें हुआ एकठा, तव सगले दीठा सामठा। रतनसेन मन खुणस्यो सही, आयो आगण आलिम चही २५०२ नृप पण सेना सगली सार, असवारे मिलिया असवार । तुगे तुग हूआ एकठा, जाणक बादल उत्तर घटा ।। २५०३ ।।
... ..... आलिम पिण न सके आंगमी । आलिम ताम कहें सुण भूप, क्युमेलत हो कटक सरूप ॥ ४ ॥
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रत्नसेन-पद्मिनी गोरा बादल संबन्ध खुमाण रासो] [१४१ में लडणे कुं आया नहीं, गढ़ देखण की हे दल सही।। न धरो मन में खोटा खेद, मेरे मन नाही छल भेद ॥५॥
कचित्त कहे रतन सुण साह, चक करि लाह न खटी हुँ। रूक वाव वज्जही, बादल जिम तुम फट्टिहु। तन गुमांन मग धरहुकरहु जिण कोइ कपट्टह ।' आए चली आंगणे, तास हम लाज निपट्टह। गज गाह बाँध ऊमें सुहड, मूछ मरोडी मगज भरि । हम हुकम होत सम फोज सिर, पड़िही कंस सिर वीजड़ि ।।६।।
चौपाई आलम जंप सुण राजान, घर आया बहु दीजें मान। थोडा होवें होवें घणा, झेली लीजे निज पाहुणा ।।७।। धान तणो छ आज सुकाल, घणा घणा काइ करें भूपाल । हम मिलवा आवें ऊमही, लड़वा कुहम आवे नही ।। ८॥ राय कहें साभल पतिसाह, भलें पधारो आलिम साह ।। वलि तेडावो जाणो जिके, पिण लघु बोल म बोली वक्रे॥६ ।। बोलें बोल विहुं हुआ खुसी, हाथें ताली दीधी हसी। माहो माह हुओ संतोष, राय तणें मन मिटियो रोष ।।१०।। करि दरगह वेंठो सुलतांन, आगें ऊभा सबे राजान । फेरवीजें घोडा गजराज, रुपक भेंट करें कविराज ॥१॥ रतन गया तव महिला भणी, भगत करावण भोजन तणी। पदमणि प्रति राजा इम कह्यो, आलम सुं जिम तिमरस रह्यो ।१२।
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१४२ ] [ रत्नसेन-पद्मिनी गोरा बादल सवन्ध खुमाण रासो भोजन भगत करो हिव इसी, जिम दल्लीपति होवे खुसी। पदमणि नार कहें पिय सुणो, हुं हाथें न कर प्रीसणो ||२|| खट रस सरस करें रसवती, प्रीसेसी दासी गुणवती। सणगारो सघली छोकरी, खात अछे जो तुम मन खरी॥१४॥ पदमणी पास रहें सावधान, वीस सहस दासी रूप निधान । रूप अनोपम रंभातिसी, काम नि सेना होवें जिसी ॥१५॥ आसण वेसण ने विध किया, ऊपर छाया डेरा दिया। गादी मुंडा माहें अनूप, जरी दुलिचा अति हे सरूप ।।१६।। ठोड ठोड ऊभा हुसियार, छडीदार प्यादा पडिहार। सवे महिल सिणगारी करी, चिग पडदा नाखी झालरी ॥१७॥ त्यारी हुई रसोडा तणी, माहे तेड्या दल्ली धणी। देखी साह महिल सत खणा, जाण विमान अछे सुर तणा ॥१८॥ खुस खांणे वेंठो पतिसाह, बेठे खान निवाव दुव्वाह । पदमणि माहें अधिक पंडूर, दासी आय देखावे नूर ॥१६॥ इम मंडे पत्रावलि वाल, माडें एक कचोली थाल। इक झारी भरि हाथ धोवाव, ढोलें चमर वीजें वाव ॥२०॥ इक मेवा प्रीसें पकवान, साल दाल सुरहा घृत धान । विजन विध विध प्रेम सुवास,
सुर पिण मोती [दा] ण कविलास ॥२|| भूलो साही कहें अल्लाह, यह हीदूवाण के पतिसाह । 'देखी दासी रूप विलास, आलिम चित मे हुओ उदास ॥२२॥
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रत्नसेन-पद्मिनी गोरा वादल संबन्ध खुमाण रासो] [१४३
देख देख सूरत सब तणी, कहें साह यह सब पदमणी। ऐसी महिरी एक अलाह, हमकु एक न दीधी नाह ।।२३।।
कवित्त कहे व्यास सुण साह, हे तारीफ पदमनी। आफताव महिताब, जिसी वद [ल] ल दामनी ।। सोवन वेल समान, मानसर जेही हँसनी। जिन (ज) तन कमल सुवास, तास गुन सेवही सुरधेन कलपवृछ जेहवी, मोहनवेल चिंतामनी। कवि लघु अक लिइक हे रसन, क्युं वनही सोभा घणी ॥२४॥ लख दस लहें पलंग, सोड सत लख सुणीजें । गालमसूया सहस, सहस गीदूआ भणीजें। तस ऊपर दुपट्टी, मोल दह लक्ख लद्धी । अगर चंदण पटकूल, सेझ कुकम पुट दीधी। अलावदीन सुलतान सुण, विरह विथा खिण नवी खमे। पढमणी नार सिणगार सझ, रतनसेन सेमें रमे ।।२।।
चौपाई अवर न देखें पदमनि कोय, जे देखें तो गहिलो होय । पदमनि पुन्य पखें किम मिलें, जिण दीठे अपछर अब गले ॥२६॥ इम ते व्यास अनें सुलतान, वात करें छे चतुर सुजांन । तिण अवसर पदमणी चिंतवें, आलिम केहवो जो इम चवे ॥२७॥ तितरें दासी जपें एक, गोख हेठ वेंठो सुविवेक। तसुमुख देखण तव गजगती, आवी गोखें पदमावती ॥२८॥
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१४४] [रत्नसेन-पद्मिनी गोरा वादल संवन्ध खुमाण रासो जाली माहें जोवे जिसें, व्यासें पदमणि दीठी तिसें। ततखिण व्यास इसुं वीनवें, स्वामी पदमिण देखो हिवें ॥२६॥ रतन जडित जे छे जालिका, ते माहें बैंठी बालिका । आलिम उंचो जोवें जिसें, पदमणि परतिख दीठी तिसें ॥३०॥ वाह वाह यारो पदमनी, रभ कि ना ए छे रुकमणी। नाग कुमा [f] र किना किन्नरी, इन्द्राणी आणी अपछरी ॥३१॥
कवित्त कहें साह सुनि व्यास कहा मेरी ठकुराई। में मदहीन गयंद मे बलहीन मृगपति । में वद्दल जलहीन, ( में हूँ) विजन विन लुहन । में हीरा विन तेज, में हुं योगी विन मोहन । विन तेज दीपक विण सूर दिन, कहा बहुत फिर फिर कहुं । नही जाऊं दल्ली विन पदमनी, फकीर होय वन मे रहुं ॥३२॥
चौपाई व्यास कहें साभल सुलतान, फोगट काय गमावो माण । धीरज धरि साहस आदरो, अवर उपाय वली को करो ॥३३॥ रतनसेन जो पाने पडें, तो ए पदमणि हाथें चडें। इम आलोची मेली घात, धीरपणा विण न मिलें घात ॥३४॥ इम करता जीम्यो सहु साथ, भगत घणी कीधी नरनाथ । श्रीफल देइ धात तंवोल, माहो माह किया रंग रोल ॥३॥ हिवें इम जंपें आलिम साह, मांहों माह झाली वाह। परिघल' दीधी पहिरावणी, जरकस ने पाटंबर तणी ॥३६॥
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रत्नसेन-पद्मिनी गोरा वादल संबन्ध खुमाण रासो ]
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हाथी घोडा दीक्षा घणा, सतोष्या मगला पाहुणा ।
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रतन सेन
1
तुम महिमानी कीधी घणी, कोट देखावो तुम हम भगी ||३७|| नृप साथै थया, आलिम गढ़ दिखलावण गया । विषम विपम हुती जे ठोड, फरि देखाड्यो गढ़ चीनोड़ ||३८|| विखम घाट अति वाको कोट, माहें न[ही] देखे वाई खोट । गोला नाल वहें ढीकली, कदही कोइ न सकें नीक्ली ||३६|| गढ देख्या गढ़पति ग्रव गलें, एहवो कोट कही नवि भलें । इम जपें ही आलमसाह, तुम हो रतन हमारी वाह ||४०|| काम काज केजी हम भणी, तुम महिमानी कीधी घणी । आलिम रीफ दीई गहगही, सीख दीए वलि उभा रही ||४१||
:
[ १४५
अधिपति कहें अधेरा चलो, मे ददार देखा रावलो । एम कही आवो संचस्त्रो, राणो गढ वाहिर नीरुस्यो ||४२॥ नृप मन मे नहि को (इ) छल भेद, खुरसाणी मन अधिको खेट । व्यास कहें ए अवसर अछें, इम मत कहियो न कहियो पछे । ४३ ॥
यतः
खड सूका गोड मूआ, वाला गया विदेश | अवसर चूका मेहडा, तू ठा कहा करे
||४४॥
चौपाई
असपति हलकास्त्रा, असवार, माहो माहें मिल्या जूकार । रांणो रतन झाल्यो ततकाल, विचली बात हुई असराल ||१५||
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१४६] [रत्नसेन-पद्मिनी गोरा बादल संवन्ध खुमाण रामो rrrrr ~ ~~mrrrrr
दूहा सोरठा असपति अव सरीख, रुखा पुरखा राजवी । मुह मीठा उर वीख, कहो दई केम पतीजिइं॥४६|| नरपति अरि नाहर तणा, को विसवास करेह । जे नर क [च ] चा जाणीइं, आलम एम कहेह ॥४१॥ वैरी विसहर वाघ नृप, ग्रासी गढ़पति आप। छलबल ग्रहीइं दाव सही, कोइ न लागें पाप ॥४८॥ तुम हम महिमांनी करी, अब तुम हम महिमांन । यो पदमणि छोडुपरा, रतनसेन राजान ॥४६||
चौपाई सुहड़ हुंता जे साथ सवेह, तियां चढ़ाई रजवट रेह । आंण्यो पकड ललकर माह, रवि ने ग्रहियो जाणे राह ॥५०॥ वेडि घालि वेसाड्यो राण, जुलम अन्याय कियो सुलताण । राणो रतन हुँतो बलवत, पकड्या निवल हुओ ए तत ॥१२॥
यतः अंगा गमु गते शत्रु, किं करोति परि[च] छद[:]। राहुणा ग्रहते चढ़े, किं किं भवति तारके ॥५२॥
चौपाई सुणी सहू गढ माहे वकी, वात तणी विनठी वानकी । हलबल हुई सेहर बाजार, पकड़ागो राणो सिरदार ।।३।। तेड्या सुहड दशो दिश वली, सेन्या सघली गढ़ में मिली। कटक सझ्यो घण हील किलोल, सवलज ढाई गढरी पोल ॥४||
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रत्नसेन-पद्मिनी गोरा बादल संवन्ध खुमाण रासो] [१४७ कुमती रतन कहीए राण, तेड्यो गढ़ माहें सुलतांण । गढ़ उतरे पहुंचांवण गयो, करे तोत रतन पकडीयो ।।५।। राजा तो पडिया तिण पास, असुर तणो केहो विसवास) पकड यो नृप पदमणि पिण ग्रहें, गढ़ चीतोड-हिवें नहीं रहें ॥५६॥ जसवंत ठां जुडि दरबार, जालिम तेड़ या सह जुमार। मांहो माहें करें आलोच, गढ़ मे हुओ सवलो सोच ॥५७।। एक कहें लडां भूभागढ़ माह, एक कहे घो राती वाह। एक कहें अधिपति सांकड़े, लडता जेहनें भारी पड़ें ॥१८॥ एक कहें नायक नहि माह, विण नायक हतसेन कहाय । एहवो कोइ करो मत्रणो मान रहें हींदु ध्रम तणो ॥५६॥ इम आलेचे सामंत सहू, चिंत उपजी चित में वहू । तितरें आयो इक परधान, हुकम करें , इम सुरतान ॥६॥ तेड्यो माहें नीसरणी ठवी, मंत्री माहें बुध जाणंग की। इम जपें छे आलम साह्, तुमे कहो तेहनें चू बांह ॥६१।। हमकुं नारि दीयो पदमणी, जिम म्हें छोडुगढ़ का धणी। एम कहेने गयो प्रधान, सवि आलोच पड्या असमान ॥२॥ कहो हिवें पर कीजें किसी, विसमी बात हुई या जिसी। जो आपा देस्या पदमणी, तो रिणवट न रहे आपणी ॥३॥ विण दीधा सवि विगसें वात, पदमनि विन न मिले कोइ घात। ऐतो जोरें लेसी सही, जे आया , इण गढ़ वही ॥४॥
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.१४८ ] [.रत्नसेन-पद्मिनी गोरा बादल संबन्ध खुमाण रासो
कवित्त कहें कुंअर जसवत, सुनहो उमराव प्रधानह । रख्खहु गढ की मोभ, धरा रख्खहुं हिंदवाणह ।। हे राजा परवसें, नहे चल देखें भली। देहु नार पदमनी, साह फिर जावें दिल्ली ॥ गढ़ आय राण बेठही तखत, चमर ढलाव हीतूक धर ।। सिल हेठ हाथ आयो सु तो, छल हिकमत काढही सीपर ।।१।।
चोपाई सुभटे सघले थापी वात, हिवें पदमणि देस्या परभात । इस आलोची उट्या जिसे, पदमणि सवि साभलिया तिसें।
कवित्त
कहें, पढमनि सुनि सखी, वात यह कुमर विचारें। हम देई पतिसाह, धरा गढ राण उगारें। मे सींघल उपन्नी, राजपुत्री कहेवानी । गढ़पति रतन नरेश, भई ताकी पटरानी। अब बहुरि नामह किण विध करहुं, म्हे कुलवती कामनी। हिंदवाण वश लछन लगे, थूक थूक कहीइ दुनी ॥३॥ पढ़पति.पकड्यो साह, राह जिम चंद गरासे । विनु दोधे उगहेन, सुभट कहा और विमासें ह] भवति जोग कछु सु वो मिट नही अधीतह आप मुआ जुग वुडिहें, दुनीया नह उकत्तह ।
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रत्नसेन-पद्मिनी गोरा बादल सबन्ध खुमाण रासो] [१४६
मेर मरंत सवही रहीइ धरम, धर रक्खहि रक्खहि धनी। छटहें हठ सुलतान चित, जब मृत्यु सुनिहें पदमनी ॥६८॥ कहें पदमनि सुन स्याम, राम रघु सीता वल्लभ । । दशरथ सुन हो तुज झ, तुमहि ल[ज जा के ओठंभ।
औरन कोई इलाज, आज सकट दिन आयो। धरही चितन मे दया, करहुं सतन को भायो। असुराण राण पकड्यो रयण, चाहे मुझ मन मे चहू। अनाथ नाथ असरण सर[ ]ण, राख राख एकी कहुँ
।
सवैया
कैसें तुम मृगणी के गन निगणे भरथ,
के में तुम भीलणी के झूठे फल खाये थे। केंसें तुम द्रोपदी की टेर सुनि द्वारिका मे,
कसें गजराज काज नाग पर धाए थे। कैसे तुम भीखम को पण राख्यो भारथ मे ?
कसें राजा उग्रसेन बंध थे छोराए थे ।। मेरी वेर कान तुम कान वद वैठ रहें,
दीनवयु दीनानाथ काहि कु कहाए थे ॥७॥ ,
पंखी इकलो वन्न मे, सो पारधी पचास । अबके जलहो उगरें, अल्] ला तेरी आस ॥१॥ सुभट भए सतहीन सत्र, आलिम पकड्यो राज । साई तेरे हाथ हैं, म्हो अबले की लाज ॥७२॥
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१५०] [ रत्नसेन-पद्मिनी गोरा बादल संवन्ध खुमाण रासो
चौपाई अवसर इण हुओ जें जेह, थिर मन करिने सुणज्यो तेह । तिण गढ़ गोरो रावत रहें, खित्रवट तणी विरुद भुज वहे ||७३।। तास भतीजो वादलराव, सर तानें भरिया दरियाव । ते वेवे छल बल रा जाण, वेवे रावत वे कुल भान ||४|| पिण तेहनें नहि सुनिजर स्वाम, रोकड़ ग्रास नही को गाम । घरे रहें न करें चाकरी, रतनसेन मुक्या परहरी ।।७।। रावत वे जाता था जिसें, गढ रांहो मंडाणो तिसें। रुधेगढ़ नवी जाइतेह, जाता खत्रवट लागें खेह ||६|| तिण [रे] कारण अहिरहिया टेक, हिवें जास्या काइ हुआं एक । अंग तणो न तजें अभिमान, सूर महावल जोध जुवान ||७|| खत्री सोहि खत्रवट चलें, मरण हीए पिण नवि नीकलें। भुंडां भला पटातर जाम, खाया जेम हुवे खगजाम ||७८| पिण तेहनें नवि पूछे कोय, जो पूछे तो इम काइ होय । जाणहार हुवें धरती जाम, सझ जोचंता राखे जाण ||ver चिते चितमांहें पदमणी, गोरो बादल सुणीजें गुणी । त्यांसुजाय करु वीनती, बीजां माहि न दीसें रती 11८०॥ इम आलोची पदमणि नार, सुखपालें वेठी तिणवार । आवी गोरल रें दरबार, साथै सयल सखी परवार ॥८॥ गोरो सांमो धायो धसी, विनय करी ने आयो हसी। मात मया बहु कीधी आज, भले पधास्या दाखो काज ||
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रत्नसेन-पद्मिनी गोरा बादल संबन्ध खुमाण रासो ] [ १५१ मुभटें सगले दीधी सीख, दया धरम री नहिं आरीख । मीख दियो हिवें तुमें पिण सही, जिम असुरा घर जाऊं वही ८३ सुभट सवें हुआ सतहीन, प्रथवी खत्रीवट हुई खीण । सुभटे सगले दाख्यो दाव, पदमनी दे ने लेस्यां राव ॥८४|| हिवें तुमे सीख दिइयो छो किसी, कहोवात अधिकाई किसी। गोरो जपें सुण मुझ मात, होसी सघली रुडी बात ।।८।। जो तुम आया मुझ घर वही, तो असुरा घर जास्यो नही। रजवट तणो नहीं संकेत, नारी देई कीजें जैत ॥८६॥ वलि मावो रजपूतां भलो, आमों सामो करवो कलो । स्त्री देइ ने लीजें राव, सकज न थाइ एह कुदाव ।।
कवित तुं रजधर गोर [ ल्] ल, तु ही सामंत सक [ज] जह । तु ही पुरस हिंदवाण, रांग धर सहु तुज भुज] जह ।। वीरधीर बडवीर, तु ही दल वीडो झलें। तुं मुझ दें अहेंबात, नारि पदमणि इम बोलें।। सुहडा अवर सतहीण सवे, यह जस तो भुजे हेकिलो। अलावदीन सुखगांवली, हींदूपति छोडाविलो ।।८८॥
चौपाई गोरो जपे सुण मोरी वात, गाजण हुँता वडा मुझ भ्रात । तस सुत वादल छे बलवंत, तेहने पण पूछों ए मन ।।८।। तव पद मणि गोरल ससनेह, पोहता जइ वादल रें गेह । देख आवती थयो मन खुशी, वादल सांमो आयो हसी ॥१०॥
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१५२] [रत्नसेन-पद्मिनी गोरा बादल संबन्ध खमाण रासो
विनयवत करि पग परिणाम, काका ने बलि कीध सलाम । गोरो जरें बादल सुणो, संहडे थाल्यो ए मंत्रणो ||६ पदमणि देई लेस्यां राव, अवर न कोई चितें दाव । पदमणि आया आपण पास, आणी आमा मन विशवास ।२। हवे तुजेम कहे ते करां, नीची देता लाजे मरा।। आ डीले छा दो जगा, आलम साथे लसकर घणा ॥३॥ कहो जीपेस्या किम एकला, किला न होव कदही भला ||४|| तिण कारण तो पूछण भगी, आव्यो साथ ले पदमणी । हिवें करवो रणवट ने ठाह, आप वेहु भुजे गजगाह ।।६।। पदमणि वादल सुइम कहें, सरण आवी हु तुम तणे। राखि सको तो राखी मुज्झ, नहि तर तेहिवां दाखो मुझ ।।६।। खाडुजीह दहुँ निज देह, पिण नवि जाउं असुरा गेह । लाखा जु हर करिने वलु, पिण नवि कोट थकी नीलु ॥७॥ सील न खड्डु देह अखड, जो फिर उलटे. देह अभग । सुहड करावें वलि भरतार, मुझ कुल नहीं. हे ए आचार IIE८|| सील प्रभावें होमी फते, रिपुदल लागो म बों मते । रहें [अ] गढ़ में छूटें राय, हुँ पिण रहुं सुजस जग थाय !HERI परमेसर पिण माहस साथ, अंत हथा करसी जगनाथ । लहो सोभाग दीधी आसीस, जीतो वादल कोड वरीस २६००
कवित्तः । कहें पदमनि आसीस, अखें वादल अजरामर । तु मुझ पीहर वीर, धीर चित मोरी चरावर।
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रत्नसेन-पद्मिनी गोरा वादल संवन्ध खुमाण रासो] [ १५३
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खग भाजा खुरसांग, माण ररुखहुँ हिंदवांगह । घुर जेत नामाण, कर दुनीयाण वखाणह । संनाह स्याम सरण सुहड, एह विरुद तुझ भुज लहें । कर घालयां समुछा सुहड, तुझ अंक मार्थे वहे ।।२६०१॥
दहा
ब्रद धर वादल बोलियो, मरद जोस मयमत । गहक केहरी गाजियो, दूठ महा दुरदंत ।।२६८२ ।। काका सुण वादल कहें, केहो कायर काम । रहा व त सारा सुहड, एह अमीणो नाम ।।२६०३।। काका थे [का चिंता म करो, अंग धरिहो उलास । तो हु वादल ताहरां, भत्रीजो स्यावास ॥२६८४|| आलम भाजु एकलो, पाउं पिसुण खग रेस । कुलवट उजवालुकिलों, आणु रतन नरेश ॥२६०५।। चीडो झाल्या वादलें, वोले इम वलवंत । तुसत सीता दूमरो, हूँ दूजो हनुमंत ।।२६०६।। सती तुहारी सामिनो, मिलु महोदल माण । घडि माहें प्राण घरें, रतनसेन राजान ॥णा घरे पधारो पदमणि, मकरो आरत माय । चादल बोल्या बालड़ा, ते नवि झूठा थाय ||८|| प [च] छिम सूर न उगमे, मेर न क वाय । सापुरसा रा वालडा, फिरे न झूठा थाय ||६||
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१५४ ] [रलसेन-पद्मिनी गोरा बादल संबन्ध माण रासो
गोरो सामलि गहगह्यो, सूरिम चढी सरीर।। कायर पूता काप. सूर धरावें धीर ॥१०॥
चौपाई पदमणी घरें पधारी जिमें, बादल माता आवी तिसें। सुणल्यो सगलो ते संकेत, हिवड़ा माह न मावे हेत ॥११|| नयण मरं मके नीमास, माता दीसें अधिक उदाम । इण पर आवी दीठी मात, विनय करें पूछे सुत वात ॥१२॥ किण कारण तू माता इसी, कहो वात मन मान तिमी। आरत केही , तुम तणे, क्यु को चित्त आमण दुमणे ॥१३॥ मात कहें सुग वाढल बाल, मांडे कांय लीयो जंजाल । दूध दही तुं माहरे एक, तुम विण कोई नहिं मुझ टेक ॥१४!! यणा खाए मेगलिया ग्राह, सुहड़ रह्या छतिके विमाह । मासन वास नहीं नृप तणो खरच खावाला निज गाठनो॥१शा रिण विध किम जाणेस्यो सजी, घर विध बात न जाणो अजी। कहि कीधा छ तें संग्राम, अणजाण्या किम कीजें काम ॥१३॥ आलिम किण पर गज्यो जाय, आटें लंण किसा ने थाय । वादल पूत अछे तुं बाल, रिण संग्राम तणो नहि ताल ||१|| अलगा डुंगर रलियामगा, हुंस हुवे अण दीठा तणा। जुद्ध तणा मुख भला अदीठ, वात करंता लागे मीठ ||२८||
यतः दूहा दुगर अलगा थी रलियामणा, दीसें इसरदाम । नेडा जाय निरखिजें जदी, कांटा भाठां ने घास ॥१९॥
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रत्नसेन-पद्मिनी गोरा बादल संबन्ध खुमाण रासो ] [ १५५
चौपाई सीह सवद सुण मेयगल घटा, नासें सगला तेपिण कटा । जिम आलम भांजु एकलो, गढ़ चीतोड़ दिखाउं भलो ।।२०।।
एक संहेस एकलो, एक एकला घणाह । सींघ सहेसें चोटियो, जोखे जणा जणाह ।।२१।।
कवित्त
रे वादल कहें मात, वात वीछ करारी। परिहर मन अभिमान, बोल बोलहुं विचारी। सुभट होयें दसवीस, तास वलि आरंभ कीज्य । आलिम साह अथाह, समुद किम वाह तरीज्य । वालक गत ओछलि, जूझ बूझ जाणे नही। मुझ वयण मान सुपसाय कर, तो सुपूत वादल सही ।।२२।। हुं कित बालो माय, धाय आचल नवी लगु । हुं कित बालो माय, रोय नही भोजन मग्गू हुं कित वाली माय, धूलिढिग माँहि न लोटु हु कित बालो माय, जाय पालणें नही पोदु। जा जुल नाग आलम जुवन, जास जुद्ध छोड़ ग्रहें। रण खेल मचाऊ बाल जिम, नही माय बालो कहें ।।२३।। तव फिर जपें माय, वात सुन पूत अधीरह। गढ रोक्यो असुराण, सुभट सवल ए अधीरह।
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१५६ ] । रत्नसेन-पद्मिनी गोरा बादल संबन्ध खुमाण रासो
पकड्यो राव परहत्थ, कत्थ न हुं झूर करीजें नहि सामंत तुम भीर, झूझ कहा सोभ लहीजें। रढ़ चढ़ हुं लहु बालक जिम, कहें बालक दुख क्यु धरूं। साह ए समु द सुलताण दल, भुजवलि जिम दुतर तरहुं ॥२४॥ कहें वादल सुण मात, कहा फिर फिर वाल (क) कह । जेठी नट जूझार, दाल गायण हे पायकह । वस्त्र सस्त्र कवि रुप, गयंद त्रिय गाह कवित्तह । एते सब बालक्क ह], मोल मुंगा जिन तन्नह । वालुए कान काली दिख्यो, वाले गज देसीस दिय। अरि सेन चाव बालक्क जिम, देखि ख्याल करी दृढ़ हिय ॥२५॥ कहें वादल सुण मात, देखी एह घात विचारी। प्रथम सामी साकडे, कष्ट भुगतहि तन भारी। असपती गढ़ विग्रहो, रह्यो न सुहडा धीर [ज | ज । राजकुमार बाल [क] क, तास निज नाही स वीरज । पदमणी मुझ पयठी सर ण ण पेख्ख विचरखन वात सब । निज वंस अंश ऊजल करण, इह अवसर फिर मिलहि कव ॥२६॥
चौपई
सुतनो सूरपणो साभली, माता मन माहे कल मली। वरज्यो वचन न मानें रती, तब गई मेली मेठलवती ॥२७॥ वात सहू बहू अरनें कही, जई राखो निजपति ने ग्रही। ' म्हारी सीख न माने तेह, रहेंसी भेट तुमारो नेह ॥२८॥
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रत्नसेन-पद्मिनी गोरा बादल संवन्ध खुमाण रासो] [१५७
सवी श्रृंगार सझे मात्रता. पहिरी वस्त्र भला भावता। हाव भाव करें वचन विलास, जिण पर तिण पर पा. पास ॥२।। एम सुणि बहूअर नीकली, झवकती जाणे वीजली । सकुलिणी सम सोल शृंगार, आवे वेगि जिहा भरतार ॥३०॥ ल्प रंभ जिसी राजती, मृगनयणी सुन्दर गजगती। नयणे निरमल देख्यो नेह, सामधरम दाखें ससनेह ॥३॥ कोमल वदन कमल कामनी, दीप दत जिमी दामनी । हस्त वदन बोलें हितकरी, स्वामी वात सुणो माहरी ||३२|| आलिम दूठ महा दुरदत, कहीने किण पर जूझो कन । अरि बहुला ने तु एकलो, इसे मतें नवों दीसें भलो ।।३।। ते हुं पुरख नही वादलो, जोए जिण पर माडु किलो । वलती अरज वली [] इसी, जात नहीं छ जोवा जिनी ॥३४॥ हीसे खेंग सीधुर सारसी, गलबल डूगल करे पारमी। सोखें खिण इक माहें तलाव, मुख मकड चित दुष्ट सुभाव ।३५॥ भुरज उडावे दे दे ढ़ला, मास भखें बाणे अलरला । उडता पंखीया हणे, बाले वाधी कोडी चुणे ॥३६॥ गदल वाले वलतो हसो, ते ए वात कही मुझ किसी। हवर गेवर पायक पूर, एकण हाक [क] रुचकचूर ।। ३७ ।।
दूहा
इह त्रिय सुणि वादल वयण, जंपें तीय जुबान । निया सैम गजी नहीं, किम गंजसी सुलतान ॥ ३८ ॥
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१५८ ] [ रत्नसेन-पद्मिनी गोरा वादल सवन्ध खुमाण रासो
चौपाई खडग युद्ध विसमों में सही, कूडी रीस न कीजें कही। मुझ तन हाथ न घाली सको, भोगी स्वाद लहें जे थको ॥३॥ असपति घडि विसमा वींदणी, भमुह चढावें मेलें अणी। जरह कंचुकी भीडत अंग, विलकुलियो मुख रातो रंग ॥४०॥ मल मयमत नारी जेम, वचन विरस चित न धरे पेम। अमंगल सींधू नद गावती, छल धर ती डा कुल वावती ॥४१॥ पोरस तणो देखालिस तेज, तिण दिन आविस ताहरी सेज। जालिग पिसुण वखाणे नही, गुणीयण विरुद न चे उमही ॥४॥ तां लग केहा सूर सधीर, वल्लभ माने जेह सरीर । लोही सांटे चाढ़ें नीर, ते कुल दीपक वावन वीर ॥४३॥ जब नारी जंप कर जोड, अवर नही को ता ह] रेंजोड। भलो भलो कहेंसी ससार, सामधरम रहेंसी आचार ॥४४|| जिम बोले छ तिम निरबहें, मत किण वातें जाए ढ़हें। लाज म आणो कुल आपणे, सामी साहस जूझ घणें ॥४शा जीवन मरण सदानुनाथ, हुं नवी मुकुप्रीतम साथ । घणो घणों हिवें कासु कहुँ, जिम करज्यो तिम हु गहगहुं ॥४६॥ कंत कहें साभल सुदरी, मोटा वश तणी कुअरी। वोल्या वोल भला ते एह, हित वाछे सोही ससनेह ॥४७॥ ओछा घर की आव नार, कुमत दीए पूछया भरतार । तें कुलवंती नारी तणों, महीयल सुजस वधाव्यो घणो ॥४८॥
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रत्नसेन-पद्मिनी गोरा वादल संबन्ध खुमाण रासो] [१५१
अस्त्री आंण दिया हथियार, सभी आऊध उठ्यो तिणवार। 'विनय करी माता पग वंद, चंचल चढ़ि चाल्यो आणंद ।।।। गोरा पासें आयो गहगही, काका धीरप राखो सही। एक वार देखुपतिसाह, देखु कुंअर तणो पिण माह ॥५०॥ कहें गोरो वादल सुण वात, मुझ तुम एक अछे संघात । तु जावें हुं पाछे रहुं, ए वातें किम सोभा लहुं ।।१।। काका न कीजे काची वात, हूं जावुछ मेलण घात। रिणवट्ट मुझ तुझ हे साथ, इण वातें मुझ देखण हाथ ।।२।। गोरो रावत राखें घरें, वादल चालो साहस धरें। सुभट सहु मिलिया छे जिहा, वादल रावत आवे इहा ।।३।। सांमधरम सरणे साधार, रिम दल गाहण सवल अपार । जाणे कुल कीरत धन धस्यो तेज-पूज सूरज अवतर्यो ॥४॥ सभा सह देखी खलभली, सूरातम सामंत अटकलि । वादल कवहि न आवें सभा, ग्रास न लामें नहि घर विभा ॥५॥ सकें तो काइ विमासी वात, गाजण सुत ए सूर विख्यात । सुभट राय सुत वेठा जिहा, कियो जुहार आवी ने तिहा ॥५६॥ उठ सुभा सहू आदर दिए, बेंठा वादल तव दृढ़ हिए। पूछे सुभा प्रयोजन आज, कहो पधाऱ्या के काज ।।५णा बादल बोलें वहिसे इमो, कहो तुमे आलोचो किसो । सुभट कहें वाढल सभलो, सबल मंडांणो इण गढ किलो ॥५८|| अडियो आलम अवलीवाण, गढ़पति ग्रहियो रतनीस राण। गढ़पिण लेस्य हिवडा सही, द [ल] ली पत वेठो हठग्रही ॥४॥
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१६२ ] [ रत्नपेन-पद्मिनी गोरा वादल संबन्ध खुमाण रासो
दूहा सुण साहिव आलम अरज, में पदमणि का दास । यह रुक्का हम दिया, हे इपमें अरदास ॥ ४ ॥ जो में देखु बदन छत्र, मेरे कुछ न चाह । इंन्द्रपुरी किह काम की, प्रीत नही जिस माह ।। ८०॥ रुक्का आलम हाथ स, वाचत धर ऊछाह । ताती बाती विग्ह तें, मेटत ही जल दाह् ॥ ८१ ।। निस बामर आठो पहर, छिन ही न विसरें मोह। जिहा जिहा नयन पमारहुँ, तिहा तिहा देखें तोह ।। ८२ ॥ साह तुमारे दरम कुं, अरध रहयो जिव आय । कहो क्या आग्या देत हो, फिर तन रहें के जाय ॥ ८३ ।। प्रीत करी सुख लेण कु, सो सुख गयो दुराय । जेसें साप छछदरी, पकर पकर पछताय ।। ८४ ।। वाती ताती विरह की, साहिब जरत सरीर । छाती लाती छार हुइ, ज्युन वहत ग नीर ।। ८५ ।।
कवित्त कहें पढमनि सुन साह. वाह तुम रुप बडाई।
अहो काम रूप अवतार, अहो तेरी ठकुराई ।। मुम कारण हठ चढ़े, आप ग्रही खग उनंगें"। पडयो राण रतन्न, वचन विसवास उलंघे ।। अबठा है करि मोन मुख, कहा तुमारे दिल बसी ।। बीकाज एतो कियो, सो क्युन करहो खुशी ॥८६॥
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रत्नसेन-पद्मिनी गोरा बादल संवन्ध खुमाण रासो ] [ १६३ में तेरी पग दास, में (हूं) तेरी गुण वदी। तुम रहिमान रहीम, मे हुँ त्रिय आव मगी दी। में तो यह पण किया, सेज आलम सुख माणु। ना तर तजिहुं प्राण, अवर नर निजर न आणु। अब करिहुं[ वहु] राज मानहुँ अरज, हुकम होय दरहाल इह । में आय रहुं हाजर खडी, छोडि देहो हिंदवाण पह ॥ ८७ ।।
चोपाई जब भेज आलिम परधान, चो पदमणि छोड़ें राजान। सुहड कहें वलि मरसा सही, पिण पदमणि को देस्या नहीं ॥८८|| मे समझाय सुभट सामंत, वीरभाण कुंअर जगजंत । क्यु क्यु आज ठवं छेकान, तिण जाणु छू विणसे वान ।। ८६ ।। पदमणि मुक्यो हुँ तुम भणी, विनय भगत विनवें घण घणी। वलें जिका होवें छे वात, आवे कहेस्युते परभात ॥१०॥ सीख दियो पत्री पढि सही, पदमणि पासे जाऊं वही। जोती होसी म्हारी वाट, करती होस्ये अति उचाट ॥६१ ।। विरह विथाकुल न ख] मे विरहणी, काम पीड दाहें पदमणी। तुम संदेस सुधारस जिसा, पाउ जाइ कहुं तिहा तिसा ।।२।।
दूहा असपति इण पर सांभली, पदमणि प्रेम प्रगास । वयण वाण वेध्यो घणो, मुके सवल निसास ।।१३।। पत्री वाची प्रेम सु, चतुराई सु- विचार । कागद कर मुके नही, नयण लगाई तार ।। ६४ ॥
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१६०] [रत्नसेन-पद्मिनी गोरा बादल सबन्ध खुमाण रासो
पदमनि घा तो छूट पास, नहितर गढ़री केही आस । गढ जाता कोई न वि रहें, वले करा जे तु कहें हिवे ॥६॥ वादल वाले भलो मंत्रणो, तुम आलांच किया छ घणो । पटमणी आपं देस्या नही, गढपति ने छोडावा मही ॥६॥ इम करता जे आवा काम, कुलपट रहसी नामी नाम । काया साटे कीरत जुडे, [तो] मोले मुंहगी नवी पड ॥१२॥
दोहा मीह न जोवे चंदवल, नवि जावें घर रिद्ध। एकलो ही भाजे किलो, जहा साहस तिहा सिद्ध ।।६।।
चौपाई मूरातन चित धीरज ज्याह, परमेसर त्या आवे बाह । तिवें आदरज्यो सतध्रम तणो, सुहडा धीरज दीज्यो घणो ॥६४। हु जाउंछ लसकर माह, आयु वात सहू अवगाह। करि जुहार बादल अश्व चच्यो, साहस नूर सूगतम चड्यो ।। गढ़री पोल हुती उतत्यो, बुद्धिवंत में साहम भयो। निलवट दीप अविको नूर, प्रत तेज घणो घर पूर ॥६५॥ सलहें अग सझ्या सावता, पहिर्या वस्त्र भला फायना । आव्यो एकल मल असवार, जाणे अभिनव इन्द्र कुआर।।६।। आवत दीठो आलम जिसे, ए आवे हैं कारण किस। पूछण मुक्या सामा दून, क्यु आवत हे ऐ रजत || आयन किमे पूग्यो तेह, बोलें बादल अती सनेह । आव्यो एक कहेवा वात, पदमणि आंण देऊ परभात ॥६॥
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रत्नसेन-पद्मिनी गोरा वादल संबन्ध खुमाण रासो] [१६१
आलिम मांने मुझ मत्रणो, तो उपगार करुं हुं घणो। जाय न किम आलम सुं कह्यो, इम निसुणि असपति गहगह्यो ६ माहें तेडायो देइ मान, दीठो असपति भिड असमान।, । तेज तेख दिनकर थी घणी, हुकम कियो खुस बेसण भणी ||७०) बठो बादल बुद्धि निधान, असपति पूछे करि वहुमान। . क्या तुम नाम कसी का पून, अब किसका हे ते रजपूत ||७१।।। क्या तुमको हे गढ़ मे प्रास, को अव आए हो अब पास । बोलें वादल वलतो हसी, रोम राय घट सहू उगसी ।।७२॥ अवसर बोली जाणे जेह, माणस माहें जणावें तेह। । । विनय करें कर जोड प्रमाण, करिहुं अरज पाऊ फुरमाण ।।३।। नाम ठाम सहू विगतें कह्या, महरवान तव आलम थया। बादल बोल्यो,साहस धरी, स्वामी वात सुणो माहरी ।।७४|| पदमणि मुक्यो हुपरधान, सुहड न मेंले निज अभिमान ।' ! पदमणि देख्या तुम कु हेठ, भोजन करता लागी देठ १७ , तिण दिन थी ते चिंते इसो, कामदेव वलि कहीइ किमो। धन तस नारि तणो अवतार, जिसके आलम हे भरतार ।।६।। विरह विथाकुल वेठी रहें, अहनिस सुहिणे आलम लहें। निपट वणा मु के नीसास, अवला दीसें अधिक उदास ॥३७||
आलम आलम करती रहें, मुख करि वात न किण सुकहें । मुझ तेडी ए दाख्यो भेद, मुक्यो करवा विरह निवेदः ||७६;
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१६४ ] | रत्नसेन-पद्मिनी गोरा वादल संवन्ध खुमाण रासो
कामण वाण कुण सहि सके, दामें सारी देह । । सुन्दर तणा संदेसडा, निपट वधारें नेह ।। ६५ ।। वार वार चुंबन करें, रुका कुंमुखलाय । अजब पढी है पदमणी, खूब लख्या ए माह ।। ६६ ॥ असपति थो अहि सारिखो, सही न सकंतो कोय । खील्यो बाढल गारुडी, पदमणि मंत्र परोय ॥१७॥
चौपाई असपति बोलें बाढल सुणो, तु मेरें वल्लभ पाहुणो। भगत जुगत केती कहजीई, तेरी अकल वसी मुझ हीई ।। ६८ ॥ पदमणि सुकहियो मुझ प्रीत, रुडी पर भाखें सहुरीत । जो हम हाथ आई पदमणी, तो तुम कुंघु धरती घणी ।। ६६|| सुभट सहू समझा घणा, थिर कर थाप ए मंत्रणा । तुझ नु करस्यु देशज धणी, दूध डाग दिखलावे घणी ।।२७००।। इस कही कर सुती निज नाह, पहिराव्यो वादल पत्तिसाह । लाख सोनिया दीधा सार, हेंवर गेवर देश अपार ।। २७०१ ।। रुका लिख देहुं तुम हाथ, माहें लिखहुं प्रीतम गाथ । रुका ल्यु नहि आलम तणा, कोइ वाचें तो भाजे मत्रणा ।। २॥ मुख सुवात करूंगा घणी, विरह वात सहु आलम तणी। मुझकु सीख दीयो सुपसाय, आलम साह दीयो पहोचाय ॥३॥ सोवन पोट हमाला सिर, हय हीसे घंसारव करें। इण पर आया चित्रगढ़ माह,,पूछे वात सहू परचाह ।। ४ ।।
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. रत्नसेन-पद्मिनी गोरा वादल संवन्ध खुमाण रासो] [१६५
रीम मोकली निज घर ज्यार, माता हरख थई तिणिवार । देखी साह तणो सिरपाव, देखी सूरातम दरियाव ॥ ५॥ गोरो रावत मन गहगहयो, करसी वादल सगलो कह्यो। हरखित नार हुई पदमणी, ए मेलवसी सही मुझ धणी ॥ ६॥ सुभट सहू चमक्या मन माह, वादल माहे अधिको आंह । सगत न छानी राखी रहें, वाधी अगन हो तो दहें ॥ ७ ॥
दूहा विधना ज्यां वुहि गुण दियो, नित दो मति मन मद । जे कुंडे किम छाइए, छिप्यो रहे कित चंद ॥ ८॥
चौपाई वादल वम कीयो मंत्रणो, कहुं वात तें सहु को सुणो। वीस सहम सझ कगे पालखी, वात न किणही जाई लखी॥६॥ ऊपर अधिक करो ओछाड, पाखतिया बाधो पतिवाड । दो दो सुभट रहो मा माह, वाधी सस्त्र सलह संन्नाह ॥१०॥ लागे लार करो पालखी, कहमा माहें छे तसु सखी। विचे पालखी पदमणि तणी, परठी सोम करो तिण धणी ।।१।। साचो पदमणि रो सिंगार, ऊपर थापो भंवर गंजार। तिण मे रावत गोरो रहो, वात रखें कोई वारें कहो ||१२|| छेटी बिचें न राखो रती, लारो लार करो पागती। गढरी पोल ममी वार, सेन समीपं आणो पार ।।१३।। एम करी हिवें तुम आवज्यो, वेला वहुली पडखावज्यो। हुं विच जाय करु छ वात, मिलस्यां जिम तिम धातोधात ।१४॥
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१६६] [रत्नसेन-पद्मिनी गोरा बादल सबन्ध खुमाण रासो हुँले आवेसु राजान, पोहचावेस्यु नृप निज थान । पछे करेस्या सवलो कलो, ए आलोच अछे अति भलो ॥१३॥ सुभटे सगले मानी वात, परठ करता थयो प्रभात । भेद सहू समझावी घडी, चाल्यो वादल चंचल चडी ॥१६॥ पोहतो जाय लसकर माह, जहा वेठो छे आलमसाह । जाए वादल करी सलाम, हरखित बोलें असपति ताम ॥१णा वादल साचा कह सदेश, वगसं बोहला तोने देस । वादल अरज करें परगडी, स्वामी वात सिराडें चढ़ी ॥१८॥ कटक सहू समझा नीठ, पदमणि आणी गढ़रें पीठ। सुहड सहू भाखें , ऐह, निसुणी स्वामी विनती तेह ।।१६।। पदमनि सुं ज्यो , तुम काम, तो हिवें राखो मामो माम । अतरो हुवे हमकुं [वे] वैसास, पदमणी आणु जिम तुम पास १२०॥ असपति बोले वलतो एम, कहो विसवास हुवै तुम केम । वादल कहें श्री आलम सुणो, विदा करो लसकर आपणों ।।२१।। सुहड सहू बोले छ मुखें, वेही स्वारथ चूको रखें। पदमणि लेइ न छोडें राव, रखे उपावो असपति दाव ।।२२।। पहिली पण कीधो में कूड, तिण वैसास मिल्यो छे धूड । तिण कारण कहु आलम साह, लसकर सबही करो विदाह ।।२३।।. जो वलि वीहो तो असवार, पासें राखो सहस वे च्यार । अवर द्यो सहुं आगे चलाय, जिम विसवास अमां मन थाय २४ इम सुणीने थयो उतावलो, वोलें आलम अति बावलो। हम अवीह वीहें किस थकी, वादल एसी तें क्या कथी ॥२॥
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रत्नसेन-पद्मिनी गोरा बादल संवन्ध खुमाण रासो] [१६७
हुकम कियो असपति हुंसियार, कच कराव्यो लसकर लार । सहस वे च्यार रहो हम पास, हींदू कुं होवें वैमास ॥२६॥ लसकरिया जत्र लाधो दूदुओ, हरख घणो मन माहे हुओ। लसकर कूच कियो ततकाल, चाल्या सुभट विकट विकराल ॥२७॥ मीर मुगल को [इ] खांन निवाब, मुगल पठाण घणी जस आभ । पदमणी सनम करें जे भणी, आगे चलाए दल्ली भणी ॥२८॥ विया बिया जे जो रण कष्टा, एकेला भाजे गज घटा । डाईल साह नाणं विस्वाम, तिण कारण राखण भिड पास २६ सूरा सूरा सहस बेच्यार, असपति पास रहया असवार । आलिम वोले बादल सुणो, कहियो कीधो हे तुम तणों ॥३०॥ वेग मंगाबो अव पदमणी, पालो वाचा आपापणी । लाख महोर तव रोकड दिया, पहिरावणी वागा समपिया ३१ ते लेई वादल आवियो, हरख्यो माय तणो तव हियो। तब सुड्डा सुं कही संकेत, हवे जगदीस दियो "जैत ॥३२।। तुमै सकेत रूडो राखज्यो, पालखी तुमे लेई आवज्यो । मत किण वात हुओ आखता, रखे लगावो काई खता ॥३३॥ इम कहीने आगो संचरो, पालखिया पूठे परवस्यो । राघव व्यास जे वुद्धिनिधान, स्वामिद्रोह थी नाठी सान ॥३४॥ छलबल एन लिखाणी काइ, लंण हराम तणो परभाइ। असपति दीठो आवत वली, वादल वात करो निरमली ॥३॥ माहिव साभल मुझ वीनती, पदमणि एम कहें गुणवती। आवंछं हजरत तुम गेह, आलिम धरज्यो अधिक सनेह ॥३६॥
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१६८] [रत्नसेन-पद्मिनी गोरा वादल संबन्ध खुमाण रासो
पण सोहागण मुझन करें, एह अरज मन मांहें धरे । एम सुणि ने आलिम कहे, पदमणि आपें आदर लहें ॥३७|| पदमणि नारि तणा नख एक, तिण सरीखी नहि नारी एक । पदमणि कारण म्हें हठ कियो, वयग लोपि रांणो अहि लियो ३८ मुझ मन खात अछे तिण तणी, मानीती करस्यु पदमणि । अवर हुरम करसी पग सेव, पदमण कुपधरावो हेव ।।३।। एम कही वलि वादल भणी, परिघल दीधी पहिरावणी। ते लेइ वादल आवियो, पदमणि नारी वधावियो ।॥४०॥ सुभटा ने सहु भाखी वात, जई मेलावस्यु धातो धात । तुम सहुँ वाह रहेज्यो इहा, वात रिखे को [इ] काढो किहां।।४१॥ आयो बादल असि पर चढ़ी, नव नव वात कहें मन घडी । हो, बुद्धि वसे तेहने, कसी उणारथ छे जेहनें ॥४२॥ वात कहता लागें वार, फिरि वादल आयो तिणवार । परगट आण धरी पालखी, आलिम देखें सहु सारिखी ॥४३॥ वादल विच विच में वलि फिरें, पदमणि [ने] मिस वाता करें। रह्यो पहर दिन एक पाछलो, लसकर दूर गयो आगलो ॥४४|| किला तणी जब वेला भई, तब तिहा वादल बोलें सही। हजरत एम कहें पदमनी, मुझ ऊभां थई वेला घणी ॥४॥ म्हारी एक सुणो अरदाश, जिम हुं आवं तुम आवास । रतनसेन मुको इक्रवार, तिससे वात कम दोय च्यार ४६|| ले राजा आबु दरवार, जेम रहें कुलनो आचार । आलम वोले सुण वादला, पदमनि बोल कहया ते भला ॥४७॥
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रत्नसेन-पद्मिनी गोरा बादल संवन्ध खुमाण रासो] [१६६ यह बोलें हम होवें खमी, पदमणि न्याय कहीजें इमी। हुकम दियो आलम ततकाल, छोड्यो रतनसेन भूपाल ||४|| वादल माहें छुडावण गयो, रांणो रूम अपूठो थयो। फिटरे वाद ल] मुहम दिखाल, सवल लगावी मुझने गाल४!! वरी वर घणो ने कियो, पदमणि साटें मोनॅ लियो। खत्रीवट मांहें नाखी खेह, खत्री निसत थया सवी गेह ।।५।।
कचित्त फिट वादल कहे राव, वाच चूको हिंदवाणह । खत्री ध्रम लजीयो, मिट्यो भिड मान गुमांनह । सांम ध्रम लोपीयो, लण तामीर न कीनी। जीवत शमले खाल, नारी असपति कुं दीनी । कहा कर म्हें परवस पड्यो, वाच लोप आलिम भयो। सत छोड कितो अव जीवहें, तवहीं नीर उतर गयो ।।५।। कहें बादल सुनि राव, वाच हिंदवाण न चुक्कहीं। खत्री भ्रम ऊजलो, सुहड धीरज न मुक्कही ।। सांम ध्रम रख्खहें, जम सवहीं कु प्यारो। भुगतिहो गढ चितोड, इला कीरत विसतारो।। मकर हो] सेव अमपनरी, असपति साहिली मेलियो। महिमान मान दीजें सदा, करहुं आद पुत्व कह्यो ।।२।।
महिल अगनीत गढमधर, ग्रही तस राज गहिल्ल । उस आलम कित हीर सं, सब विध होय सहल्ल ॥ ५३ ।।
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१७०] [ रत्नसेन-पद्मिनी गोरा वादल संबन्ध खुमाण रासो
राख रजा सिर राम की, धरि मन उमग उछाह । राज पधारो चित्रगढ़, सब विध होसी स] लाह ॥५४||
कवित्व जात आदि अक्सरा राव करहुं मन ग्यान, जवनपती हठ हमीरह ।। गुमर किए रस नहीं, ढलकी अजलियह नीरह ।। परा लेखयो कछ धात, निम्यो निस छति रोस छडिइ । डाव विन चाव होवें नही, वाचहुं पढमख्खर हीइ ॥५॥
चौपाई भूप प्रीछ उठ्यो तिणवार, असपति वोलें चित्त अपार । पदमणि ने मिल आवो जाय, पीछे सीख दीए हित भाय ॥५६। राजा चाल्यो पदमणि भणी, सुखपाला देखी घण घणी। पेंठा माहि जिसें पालखी, वाच सहू साची तब लखी ॥५॥
वादल बोलें राणा सुणो, अवसर नही ए वाता तणो । __ एक थकी बीजी अवगाह, गढ लग पहुंचो मविका मांह ।।५८।। स्वामी थाज्यो धणु सजेत, माहें जई कीज्यो सकेत । साचो कीनो ए महिनाण, दीज्यो डाका जेंत निमाण ।। ५६ ।। रतन तुंहार वखतें सही, मत्र भेद पिण हुओ नही। सांमधरम नें सत परिमाण, गढ रहियो में छटो राण ॥ ६०॥ एम सुणी राजा रंजिओ, साई सफल मनोरथ कियो। कुसल खेम पोहंता गढ़ माह, नाणक सूरज मुक्यो राह ॥६॥ कुसल तणा बाजा वाजिया, तव ते सुभट सहू गाजिया। नीसरिया नव हत्त्था जोध, माण दुसासन र विरोध ॥६२।। -
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रत्नसेन-पद्मिनी गोरा बादल संवन्ध खुमाण रासो] [ १७१ राघव तणो हुओ मुख स्यांम, कूड कियो पिण न मरो काम सामद्रोह पातिक परगट्यो, अकल गईने पोरस मिथ्यो ।।६।। साम काम समरथ अतिसूर, गोरो रावत अतिहें गरूर । अरीदल देखी तन उलस, सुभट सहू मन माहें हसें ।। ६४ ।। सूरातन चढ़िया सिरदार, ऊंचा खग जलहल जूझार । दलां विभाडण दूठ दुवाह, रुक हत्त्या दी रिम राह ।। ६५ ।। च्यार सहस निसरिया सूर, एक एक थी अति कस्र । आगुवाणे वाटल गेह, पूठे सांमंत थाट सह ।। ६६॥ घाघट दीसे भिड धणा, सिलह टोप करी रुद्रामणा । धमिया छटी ले तरवार, हलकारे लागा हलकार ॥ ६७ ।। रे रे असपति उभो रह, हिवें नामि मत जावो वहें। म्ह पढमणि आंणी छ जिका, तोनें हिव देखाडा तिका ।। ६८ ॥ तोने खांत अछे तिण तणी, पदमणि नार निहालण तणी । हट हमीर जाणो तो सही, लडें अमा सु अवसर ग्रही ।।६।। इम कहंता भिड आया जिसे, आलिम दीठा अरियण तिसें। एहवी वात कहें पतिसाह, रिण रमियो उठियो रिम राह ।।७।। रे रे कृड कियों वादलें, हिदू आय वाल्या साकलें । हलकारा अमपति निज जोध, धाया किलकी करि करि
क्रोध || माहों मांह मंडाणो किलो, वोलें असपति सुवादलो। पातिसाह मत छाडो पाव, तेरा कूड अमीणा घाव ।। ७२ ।।
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१७२] [रत्नसेन-पद्मिनी गोरा बादल संवन्ध खुमाण रासो
कवित्त सुणि वादल कहें साह, वाह तुम बोल भलाई। मुख मीठा दिल कूड, इहें हींदू न कराई। पदमण करी कबूल, तुझे सिरपाव दराया। छोड़या राण रतन्न, सवे दल दूर वलाया। अव लडिहां खग वुलहू अकथ, काफर गुडाई धरहुं । हम सरिस चूक देखहुँ सुतो, मुरख अण खूटी मरहुं ।।७३।। कहें वादल सुण माह, राह पहेंली तुम चूकें । दे वाचा गढ़ देख, बहुर तुम राव ही रुक्के । हम हींदू के मीर, निरख रखही कुलवह । पदमणी दे ल्ये धणी, इहे हम लाज निपट्टह । अब करहुँ जुद्धि जूठा न कहुं, कहा रह्यो रम हम तुमह । ग्रही खग लडहु म वरहुं गरव, वर तस नहि अवसान इह ॥४॥
चापाई आलम ताम हुआ असवार, जोधा मुगल पठाण जुझार । भिड्या खाग रिण मचियो दूठ, सुभट न दाखें कोई पूठ ।।७।। खेहाडंबर उड्यो इसो, सूरज जाणे वधुल्या जिस्यो। बांण विछूट चिहुँ दिश घणा, रुड्या नगारा सींधू तणा ||७६|| खडग झलक्क [ज] जल धार, जाणक विज]जल घण अधार । संन्नाहें तूटें तरवार, जागे झाल अगनि अण पार ॥७७|| कुंत अशी फुटं सूमरा, तूटे कालज ने फेफरा । उडे बूर वहें रत खाल, गुंजे सी घाम] घण असराल ॥७८||
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रत्नसेन-पद्मिनी गोरा बादल संबन्ध खुमाण रासो] [१७३
वह तीर चणणाट पखाल, मड मातो तातो वरसाल। पडे मार गूरज गोफणी, फोजा फूटें तृटे अणी ।।७।। मार मार कहि वाहें लोह, रण ल्या सामंत छंछोह । खान निवाव गडू थल खाय, हजरत करें खुदाय खदाय ८० नारद कलकी करि करि हाम, गीरध मांश तणा ले ग्रास । । धड ऊपर धड ऊछल पडे, केता सामत मिर विण लडें ॥८॥ रिण चाचर नाचें रजपूत, धुंकल माचवियो रण धूत । धन धन कहें मूरज धीरवें, अपचर माला कंठवें ।।८।।
दूहा उत असपति तोबा वकें, इत हलकारें राण। तिण वेला वादल तणा, अडिया भुज असमान ।।८३।। कुण तोले जल सायरा, कुण ऊपाडे मेर। वादल तो विण सामरें, (हसु) कुण भालें समसेर ।।८४|| दला विभाडण साहरा, ऊपा गज दंत । तु (ज) म भुजा गाजण तणा, बलिहारी बलवंत ।।८।। जावें असपति रीमियो, सुहडा खमी सवाच । खागें खान निवाब ने, ते ऊतारी आव ।।८६|| हसियो आलम जाम सुगि, खग खसियो खत्रि सार। तु वेधालक वादला, अंगद रो अवतार ।।८७| बावा खान निवाबरा, फाटा उभा फेह । वाका सुणिया जग सिरें, वाजंतें डाकेह ।।८८|| महि डोलें सायर सुसे, प(च) छिम ऊगे भाणे ।
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१७४] [रत्नसेन-पद्मिनी गोरा दादल संवन्ध खुमाण मासो
वादल जेहा सूरमा, क्यां चूकें अवसाण ||८|| रिण डोहें फिर फिर खला, धडा धपावें धार । पारीसें पिडहार ज्यु, नह भूलें मनुहार ६०॥ घड पति साई वींदणी, मद जोवन मयमंत । मुझ मन परणेवा तणी, खरी चिलग्गी खंत ।।१ सुण गोरा वादल कहें, तुंसामत मकन । तुंदल नायक हींटुआ, तु(झ) मुंजें रिण लज ६२|| तु सीध चाढ़ण सूरमा, उजवालण कुलबट्ट। तु वाधे पतिसाह सुपेतों डर रणवट्ट ||१३|| वांधे मोड महावली, वाधे असि गज गाह। सिर तुलमी दल घालिया, उहियां खाग दुवाह ||१४|| केसरिया वागा किया, भुज ऊवांणे खाग । जांणक भूखो केहरी, जुड़वा नाई खाग ||६| सूरज हुँत सलाम कर, वलि मुछा वल घाल । सु पतीसाहा सम चढ़े, ओयो रणवट जाल १६|| भरे डांण दईवान भति, राम राम मुख रट्ट । अकल ते रण ऊरियो, माझी लोह मरद ॥६॥ रुडें नगारा सिंधूआं, रिण सूरातन र[स] स । मद आयो गोरो मरद, अडियो सीस डरस्स ।।६८॥ आवें असपति आगलें, इसो उहायो खाग । पायर पाखल पाधरें, जाणे हणुमत वाग |
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रत्नसेन - पद्मिनी गोरा बादल संबंध खुमाण रासो
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हाका करि किलकी हसें, इसे रिमा जिम नाग । तिण वेला त्रिजडा हथो, करें पकंदा घाव ॥२८००|| आडा खल भाजें अनड, फुरलंतो गज भार | आयो असपति उपरें, मुख कहतो हुँसियार || २८०१ || तोले खग तारा लगे, गोरे कीधो घाव |
असपति जीव ऊवेलंता, पाछा दीधा पाव ॥२८०२|| कहें बादल गोरा सुणो, सकजां एक सुभाव । आयो आम गिया पछें, कुण राणों कुण राव || २८०३ || तोनें रिण वाही तणी, वदसी जगत विसेख । दल्लीसर परमेसरो, त्या सुरू केहो तेख ||२८०४|| वण वट नेंजा घाव करि, लडें भडें लें बाह ।
' गोरो रणवट पोढ़ियो, वाही वाह ए लोह ||२८०५ || खमा खमा कहि अपछरा, डर उडे सीर हाथ । गिले डए भग ग्री व्यू, जाव वहें दिन नाथ ॥२८०६ ॥
आवें वादल ऊपरें, करें हथेली छाह ।
दल पतिसाही डोलियां, भागी तुज भूजाह ||२८०७|| अइयो सुरात तणा, अजे अथमाण अथाग । भुज वे वे स्था भला, इक मुछा इक खाग ॥८॥ मुख देखे काका तणो, वांढे मुछा वाल ।
बादल आयो साह सुं चोरंग बंधे चाल ॥६॥
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हलकारें भिड आपणा, वाकारें रिम थाट |
पडिया कोर्से बीस पर, झाडतो खग झाट ॥१०॥
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१७६]
रत्नसेन-पद्मिनी गोरा बादल सबंध खुमाण रासो
लोह छकार ऊडवें, इसा लगाया हाथ । पोधर खेत पछाडियो, सारो असपति साथ ।।११।। रह चवीं सारा कद [सु, ऊभो असपति आप । जा नवि खेस्यो वादले करी गुजाहल ताख ॥१२॥ खल गलिया वादल खगें, पूर हसम खुरमांण । सांमद जाणउ तान सुत, पीधा चलू प्रमाण ||१३॥ पकड्यो असपति वादलें, एकल म ल ल अबीह । मेगल हदा मग दले, गाल वजावें सीह ॥१४॥ फिर छोडे पकडे फिरें, नाच नचावें तेम । रस लागो रामत रमे, भोला बालक जेम ॥१५॥
कचित्त सुण वादल कहे साह, राह ही भ्रम रख्खो। सांमधग्म सुरतान, अकल उसताद परख्खो ।। तुसांमंत सकजह, बुद्धि बल अकल दुवाहो । तुं ही ढाल हीदवाण, तुंही रावत खग वाहो॥ गोरिल सरगि अपकर वरी, तुम दुनी मे यस सुनहुं । पतिसाही दला लाइछरा, बहू भई जब वस करहुं ॥१६॥
दूहा - भ्रम राख्यो राख्यो घणी, (ख)खी पदमणि पूठ । मे। अव रख्खहुँ मेरी अदव, कहें आलिम सुण दूठ ॥११॥ मेरे लाल [तू] झूझे बरो, ए दुनियाण उकन । भातीजें काको भिडे, दीधो न्याव विगत्त ॥२८॥
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पद्मिनी चरित्र चौपई
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रत्नसेन-पद्मिनी गोरा वादल संबंध खुमाण रासो [१७७
चोपाई भो रतनसेन राजांन, दीठो जुद्ध महा असमान । नोया वादल गोरा तणा, हाथ महावल अरिगंजणा ।।१९।। पदमणि ऊभी ये आसीस, जीवो वादल कोड वरीस । सामधरम साचव्यो सवेह, राखी वादल खत्रीवट रेह ॥२०॥ गोरो रावत रण मे रह्यो, आलम सेन सावें खग लहयो। लूटाणो लसकर जूजुवो, साका वादित भारथ हुवो ।।२।। पातिसाह पाहे मुकिओ, एह बले मोटो जस लिओ। साह कहैं साभल वादला, किया पवाडा तें ही भला ॥२२॥ दीवत दान दियो न्हो भणी, किसी करा हिवें कीरत घणी। आलिम नीसर गयो एकलो, गोरो वादल जीत्यो किलो ।।२३।।
दूहा करि कागल वादल सबी, हजरत राखी पास । इक तेरें मुख मुछहे, अइ हींदू स्यावास ॥२४॥ पातसाह दिल्ली गए, भई दुनी सरवात । वाढल भिड रण सोझियो, उवारी अखीयात ॥२॥ हसस खजीनो लुटियो, ग्रह मुक्यो पतिसाह । बोल्यो तु निरवाहियो, अइयो भीचं दुवाह ॥२६॥ उघाड्यो चित्रकोट गढ़, सासा आया राण । मलियो वादल रतनसी, कर वखाण खुमाण ॥ २७ ॥ सामेलो आया सकल, धुरिया जेंत निसाण । वधायो गज मोतीया, गुनियन करें वखान ॥२८||
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१७८ ] [रत्नसेन-पद्मिनी गोरा वादल संबन्ध खुमाण रासो
चोपाई महा महोछव माहें लियो, अरध राज वादल ने दियो । पदमणि नार लिया वारणा, राख्या पण अम दंपति तणा ॥२६॥ इण पर आव्यो महिल मझार, वदीजन वोलें जयकार । आवी लागो माता पाय, मात आसीस दिइं असवाय ॥३०॥ निज नारी ओढ़ी नवी घाट, सभि शृंगार कर तिलक ललाट । अरघ अभोखों देंई करी, मोती थाल भरी संचरी ॥३१॥ कीधा विविध वधावा घणा, कुसले खेमे आया तणा। तव गोरिल री अस्त्री कहें, काको किण विध रण मे रहें ॥३२॥ कहो किसी पर वाया हाथ, केता माऱ्या आलम साथ । वादल वोलें माता सुणो, किंसु वखाण काकाजी तणो ॥३३।। असपति पिण पग पाछा दिया, जत तणा वाजा वाजिया। बीछाया सब खान निवाब, के उसीसे के पयताव ॥३४॥ ऊपर गोरो भिड पोढ़ियो, अवर सुजस तणो ओढियो। तन विखरायो तिल होय, मुछा मरट न मिटियो तोह ॥३॥ कुल उजवाल्यो गोरें आज, सुहडा सीधा चढ़ावि राज । रिण खेती गोरे भोगथी, में तो सिलो कियो पूठथी ॥३६॥ घटा वींदणी गोरे वरी, बाधे मोड महा रिण करी। में तो जानी थकेह मविया, विरुद भुजा छे गोरल लिया ॥३७॥
कंडलियो गोरल त्रिय इम उ [८] चरें, सुण वादल समर त्] थ । पिउ मुम रिण मे झूझते, किम करि वाया ह [न] थ ॥
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रत्नसेन-पद्मिनी गोरा बादल संबन्ध खुमाण रासो ] [ १७६ किम करि वाहया हत्त्थ, ब [त् थ भरि सुहड पिछाड़या । भागा हय गय थट्ट, जाए नेजें असि चादया। गिलिया खांन निबाव, सीस असपति झोरिल। कहें वादल सुण मात, रिण ही इम जुझ्या गोरिल ||३८॥
चौपाई इम सुणि ने कामनी तेह, विकसित वदन हुई ससनेह । रोम रोम सूरिम ऊछली, मुलकी महिला बोलें वली ॥३६॥ सावल वेटा हिवें वादला, ठाकुर दोहिला हुवे एकला। पछे पडें छे छेटी घणी, रीस करेसी मारो धणी ॥४०॥ वहिली होय म लावो वोर, भेला होय काकी भरतार । एम सुणी वादल हरखियो, धन धन मात तुमारो हियो ॥ ४१ ॥ दान पुन्य तव बहुला करी, करि शृंगार चढ़ी भल तुरी। श्रीफल लेई हाथें धरी, जै जै राम कही नीसरी॥ ४२ ॥ ढोल घुरो गूजें चीतोड, वाध्यो सुजस तणो सिर मोड । इण पर आखा उछालती, आवी खतें रिण मलपती ॥४३॥ पूजी गवरी करी सनांन, पहिरी धवल वस्त्र परिधान । खमा खमा कहें धन भरतार, रिण समंद हिलोलण हार ॥४४॥ खट मंदिर पिय खोलें धरी, अगनिसरण कीधो सुदरी। पति पासें नई पोहती विसें, अरध सिखासण दीधो तिसें ॥४॥ अमरापुर वसीया उछाह, जय जयकार हुओ जग माह । चंद सूरज वे कीधा साख, गढ़ चीतोड दल्ली दल साख ॥४६॥
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१८० ] [ रत्नसेन-पद्मिनी गोरा बादल संवन्ध खुमाण रासो करी मृतक्रत देही संसकार, आयो वादल निज घर वार । रजपूता ए रीत सदाइ, मरण मंगल हरखित थाइ ।। ४७॥
दूहा रिण रहचिया म रोय, रोए रण भाजे गया। मरणें मंगल होय, इण घर आगा ही लगें ॥४८॥
चौपाई विरूद वोलावे वादल घणी, साम सनाह सुहडाई तणी। इसो न को बलि हूओ सूर, कमधज वंश चढायो नूर ॥४६॥ पदमणि राख राण राखियो, गढ़रो भार भुजे जालियो । रिण भिडता राखावी रेह, वसो वसो वादल गुण गेह ॥५०॥
कवित्त जय वादल जयवंत, विरुह वादल अरिगंजण । संकट सामि सनाह, भिडे पतिसाहा भंजण । मलण मलीका माण, हणण हाथी मय मत्तह । साम बद छोडणो, दियण वहिनी अहि वंतह । पदमणी नार श्री मुख कहें, इस्यो अवर न कोई हुआ। आरती उतार वर तणी, जे वादल जेवत तुह ।।५।। कहे मात वाढला, भलें सुझ उअर उपन्नो।। कुल दीपक कुल तिलक, रक घर रयण संपन्नो। ग्रहि मोखग पतिसाह, रुक वल गंजण अरी दल । जैत हत्थ जग जेठ, भुज वलिहार भुज बल। १ लाजियो २ नमो नमो
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रत्नसेन-पद्मिनी गोरा वादल संवन्ध खुमाण रासो ] [ १८१ मुख मुछ तुम कुल लज्ज तुही, सारी वेल किया भडा । चीतोड मोड बांध्यो सिरें, दल्लीपति छाडें तडां ।।२।। रांम तणे भिड़या जिम हणुमान, तेम वादल रतनसी राण । पदमणि सत सीता सारिखी, वादल भिड लंघाया रखी ॥५३।। सेवा कीधी अपछर तणी, तिण सोभा वाधी घण घणी। करी दिखावें इसीक कोय, अवरा सुहडा आदर होय ॥५४|| गोरा वादल नी ए कथा, कही सुणी परंपर यथा । सांभलता मन वंछित फलें, राज रिद्ध ल [छ] मी बहु मिलें ॥५॥ सामधरम सापुरसा होय, सील दृढ कुलवंती जोय । हींदू ध्रम सत परिमाण, वाज्या सुज [स] तणा नीसाण ॥५६।।
इति श्री चित्रकोटाधिपति बापा सुमांणान्वये राणा रतनसेन पदमणी गोरा वादल संबंध किंचित् पूर्वोक्त किंचित ग्रंथाधिकारेण पं० दोलतविजयरा विरचितोऽयं अधिकार संपूर्णम्
इति श्री पप्ठ खंड सम्पूर्णम्
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जटमल नाहर कृत
गोरा बादल चउपई
सोरठा
चरण कमल चितलाय, के समरूँ श्री शारदा, मुझ अख्खर दे माय, कहिस कथा चित लायकै ॥ १ ॥ जंबूदीप-मकार, भरतखड खंडा-सिरै ;
नगर भलो इक सार, गढचितौड़ है विखम अत ॥ २ ॥ रतनसेन जिहां राय, पाय कमल सेवै सुभट, सूरवीर सुखदाय, राजपूत रजकौ धणी ॥ ३ ॥ चतुर पुरस चहुवॉन, दान माँन दूनूँ दियै, मंगत र्जिन को माँन, आवै मंगत दूर
तै ॥ ४ ॥
कवित्त
एक दिवस नृप-पास आस करि मंगत आए, च्यार चतुर वेताल, दृष्टि भूपति दिखलाए । दे आसिका - असीस, वीस दस विरद सुनाए, नरपति पूछत भट्ट, कौन सा तै आए । हम आए सिंघलदीप तै, कीरति सुनिकर तुम-तणी, राजा रतनसेन चहुवण है, गढ चितोड़ केरो धणी ॥ ५ ॥
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गोरा बादल चौपई ]
[१८३
राय देय सनमान, पास अपने बैठाये, कहो दीप की बात, जहाँ ते तुम चल आये। क्या-क्या उपजत उहा, दीप सिंघल है कंसा, कहै भाट सुनो राय, कहूँ देख्या है जैसा। उदध-पार अदभुत नगर, सोभा कहि न सकू घणी, ऐरापति उपजत उहाँ, अवर नार है पदमणी ॥ ६ ॥
पदमावति नारी कसी, कहो। भाटजी, वात, भाट कहै, नरपति सुणो, च्यार रमण की जात ।। ७ ।। इक चित्रनि, इक हस्तनी, एक सखनी नार,' उत्तम त्रीया पदमनी, तस गुण अपरंपार ।। ८ ।।
चौपई कहो भाट, पदमावति-लख्खन, गुणी सरस तुम बड़े विचल्खन, रंग-रूप-गुण-गति-मति दाखो,भाखा सकल मधुर-सुर भाखोहि।
कवित्त
पदमावति मुखचंद, पदम-सुर वास ज आवे, भमर भमत चिहुँ फेर, देख सुर असुर लुभावे । अंगुल इकसत आठ, ऊँच सा सुन्दर नारी, पहुली सत्तावीस, ईस चित लाय सँवारी। म्रगण, वैण कोकिल सरस, केहरि-लंकी कामनी, अधर लाल, हीरा दसन, मुँह धनुप, गय गामनी ॥ १० ॥
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१८४]
[गोरा बादल चौपई
दूहा
पदमावत के गुण सुणे, चढी चूप चित राय, विन देख्या पदमावती, जनम अख्यारथ जाय ।। ११ ।।
चौपई वसी चित्त-अंतर पदमावत, निसा नींद दिन अन्न न भावत, इम रहताँ इक जोगी आयो, राजद्वार परि धूही पायो । १२ ।।
कवित्त सिद्ध बड़ो जोगेंद्र, देख राजा चित हरस्यौ, ज्यूँ सरोज सर माँझि, सूर देखत ही विकस्यौ । भगत-भाव बहु करी, जुगत कर जोग संतोख्यौ, निसा बैठ नृप पासि, पत्र पंचामृत पोख्यो। संतुष्ट होइ रावल कहै, माग जु तुझ, कछु चाहिये, राजा रतनसेन चहुवाँण कहा, इक पदमण मोहि व्याहिये ।।१३।। कहै ताम जोगेंद्र, दीप सिंघल पदमावत, राज पाट तजि चलौ, भूप जे तुझ मन भावत । कहै राय, करि कृपा, वेग यहु कारज कीजै जो कुछ कहो सो नाथ, साथ सामग्री लीजै। मृग त्वचा बिछाई सिद्ध तब, पढ़ो मत्र तव वैठ करि, उड गये सिंघलद्वीपकों, (राजा) रतनसेन जोगेंद्र वरि ।।१४।।
सुण रावत, जोगी कहै, करि रावल को वेस, इक-सपदी भिख्या करो, यह मेरा उपदेस ।। १५ ।।
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गोरा वादल चौपई]
[१८५
कवित्त दियो भेख जोगेंद्र, कान मुद्रा पहिराई, कंथा सिंगी गले, अंग बभूत चढाई । कपट जटा, करदंड, मोरपंख विझ्झण झोलै, वज्र कछोटो पहिर, अलख अगचर मुख बोले, कर-पंकज पात्र अनूप ले, राज द्वार जव आवियो, नृप सुता निरख पदमावती, तव सु राज मुरझाइयो ।॥ १६ ॥
दूहा मन मोह्यो पदमावती, देख रूप अति राइ, कहै सखी सुं नीर लै, रावल छंट उठाइ ।। १७ ।।
कवित्त
'छंट उठायो जोग आय, तिहाँ सखी विचख्खण, रावल-रूप अनूप, अंग वत्तीसे लख्खण । तव पदमावति हार, तोड़ नवसर दी भिख्या, मुकताफल भरि थाल, नाथ पै लाई सिख्या । कर जोडि गुरू आगे धरे, देख नाथ असे कहै, जो जिस लायक होय सो, तैसी ही भिख्या लहै ॥१८॥ चल्यो आप जोगेंद्र, चलित राजा-गृह आयो, देख राय हरसियौ, सीस ले चरण लगायो। आज पवित्र भया गेह, नेह धरि गरू पधारे, आज सफल मुझकाज, बड़े हैं भाग हमारे ।
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१८६ ।
[गोरा बादल चौपई तब सुनि आई पदमावती, गुरू चरण ले सिर धरे, आसीस देह रावल कहै, पुत्री तुम कारज सरै ॥१६॥ कहे ताँम राजान, पदम पुत्री सुखदायक, वर प्रापत अव भई, नहीं कोई वर लायक । हूं ल्यायो वर, राय, तोहि पुत्री के कारण, गढ़-चितोड़-राजान, दुष्ट-दुरजन-विडारण। राजा रतनसेन चहुवाण है, तिस समवड़ नहि अवर नर, परणाय देह पदमावती, मान वचन तू सत्तकर ॥२०॥ गुरु-वचन राजान, माँन पुत्री परणाई, रतनसेन के साथ, भई है भली सगाई। दीन्हो बहु दायनो, लाल मुकताफल, हीरे, पाटंबर, पटकूल, थाल भर कंचन नीरे। रावल कहै राजान को, पदमावति मुकलाइये, चीतोड़-लोक चिंता करें, राजा रतन चलाइये ।।२१।। राघव दीयो संग, वेग पदमनी चलाई, रोवत माता भ्रात, कुवरि को कंठ लगाई। उड़न-खटोला चढं राय, पदमावति, जोगी, राघव चेतन संग, उडवि आये गढ भोगी। नीसाण वजे पंच-सवद तहाँ, गोरी मंगल गाइयो, राना रतनसेन पदमावती, ले चितोड़गढ़ आवियो ।।२२।। तजी रानि सब और, राव पदमावति रातो, रैन-दिवस रह पास, अंग आणंद मदमातो।
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गोरा बादल चौपई]
[१८७
नेम नीर को लियो, वीन देख्याँ पदमावत, महा-मोह-वस भयो, रहै असी विध रावत । जब निसा रही इक-दोय घडी, तब सिकार-उद्दम कियो, राजा रतनसेन असवार हुय, राघव चेतन सँग लियो ।।२३।।
वन के भीतर खेलताँ, तृखा वियापी तेम, विन देख्याँ पदमावती, नल पीवण को नेम ॥२४॥
कवित्त तब राघव चित लाय, सरस पूतली सँवारी, त्रिपुरा की कर कृपा, रूप पदमावति नारी । भेख भाव बहु करी, जंध पर तील बनाया, देख राय भयो रोस, पाप सन भीतर लाया । विना रम्याँ पदमावती, तील स क्यूकर जाणियो, मारूं न विप्र, काढ़ नगर, यह सुभाव मन आणियो ।।२।। घरि आयो राजान, विप्रकुदिया निकारा, राघव तिसही समै, वेस वैरागी धारा। भगवें वेस सरीर, नीर भर लिया कमंडल, जंत्र वजावै जुगत, जोग-तत रहै अखडल। दिल्ली सु आय प्रापत भयो, रह उद्यान वन खंड सिर, पातसाह तिहां अलावदी, कर राज सिर नर सुथिर ॥२६॥ एक दिवस सीकार साह खेलत तिहाँ आयो, राघव तिसही समै जुगत कर जंत्र बजायो।
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१८८]
[गोरा वादल चौपई
नंग सब तज वनवास पास राघव के आए, सुणे राग धर कॉन साह म्रग कहूँ न पाए। आयो सु तहाँ अल्लावदी, देख चरित अचरज भयो, उतर तुरंग से साह तव, राघव के आगे गयो ।॥२७॥
दहा रीझ्यौ साह सुराग सुनि, राघव को कह ताम, दिलिपति हम तुम सों कहै, चलो हमारं धाम ॥२८॥ हम वैरागी, तुम ग्रही, अर प्रथवी पतिसाह, हम तुम ऐसा संग है, जैसा चंद कुराह ।।२६।। हठ कीनो पतिमाह तव, राघव आन्यो गेह, राग रंग रीझ्यो अधिक, दिन दिन अधिक सनेह ||३०||
कवित्त एक दिवस नर काइ, ससा जीवत ग्रह ल्यायो, पातिसाह ले तब, गोद ऊपर बैठायो। ता पर फरें हाथ, अधिक कोमल रोमावल, यात कोमल कछु, कहो राघव गुण-रावल । तब हाथ फेर राघव कद, यात कोमल सहस गुण, पदमावति-देह, विप्र उचरं, पातसाह वरि कान सुण ॥३॥
व्याम बुलाए अलावदी, पूछत वात प्रभात, मास्त्र विधि जाणो सकल, त्रियकी कितनी जात ||३२||
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गौरा वादल चौपई ]
[१८६ राघव कहै नरिंद सुन, त्रीय जाति है च्यार, चित्रन हस्तन संखनी, पदमनि रूप अपार ॥३३॥
(अथ पदमनी वर्णनम् ) पदमनि के परस्वेद से, कसतूरी की वास, कमलगंध मुख तें चले, भमर तजत नहिं पास ।।३४।।
कवित्त पदमगंध पदमनी, भमर चहुंफेर भमत अत, चद वदन, चतुरग, अंग चंदन सो वासत । सेत, स्याम अरु अरन, नयन-राजीव विराजत, कीर चुंच नासिका, रूप रंभादिक लाजत । गुणवंत दत दाडिम कुली, अधर लाल, हीरा दसन, आहार पान कोमल अधिक, रस सिंगार नव सत वसन ॥३॥ पान हुते पातरी, पेम-पूरण सू लाजत, भुन म्रणाल सुविसाल, चाल हंसागति चालत । चंपावरण सुचग, सूर ऊजासी भाले, पदम चरण तल रहै, निरख सुरनर मुनि भाले । हर लंक, अंग चंदन-वरन, नार सकल-सिर मुगटमणि, अल्लावदीन सुरताँन सुण, पदमन लच्छन एह भणि ॥३६।।
(अथ चित्रणी वर्णनम् ) चपल चित्त चित्रणी, चपल अति चंचल नारी, कवल-नैन कटि मीन, वेण जू नागन कारी।
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१६०
_[गोरा बादल चौपई पीन पयोहर कठिन, वचन अमृत मुख बोल, जंघा कदली-खंभ, गिडत गंवर गति डोल। संभोग-रीत जॉनत सकल, नित सिंगार-भीनी रहै अल्लावदीन सुलतान सुन, कवि चित्रन-लच्छन कहै ॥३७॥
(अथ हस्तनी वर्णनन् ) हेत वहुत हस्तनी, केस अति कुटिल विराजत, द्रिग देखत मृग नैन, चपल अति खंजन लाजत । कनकलता कामनी, बीज दाडिम दसनावत, पहुप वेस पहरंत, कंत अति हेत सुहावत । अति चतुर, कुच्च कंचन कलस, काम केलि कामिन करे, अल्लावदीन सुलतान सुण, ए लच्छन हस्तन धरै ॥३८॥
( अथ सखनी वर्णनम् ) जटा जूट जोखता, वदन विकराल विकल अति, सुक्कर देह, सरोस, स्वाँन जू सदा घुरकति । गर्दभ-गति, गुनहीन, परै ढरि पीन पयोहर, मंछ-गंध, तन मलन, चुल्ह समतूल भगंदर । अति घोर निद्र, आलस अधिक, अति अहार, गज अंखनी, अल्लावदीन सुलतान सुण, ए लच्छन त्रिय संखनी ॥३॥
श्लोक पद्मिनी पद्म मध्येषु, कोटि मध्येपु चित्रणी, हस्तनी सहस्र मध्येषु, वर्तमानेषु संखनी ॥४०॥
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[१६१
-
गोरा वादल चौपई पद्मिनी पान राचंति, मान राचंति चित्रणी, हस्तनी हास राचंति, कलह राचंति संखनी ॥४१॥ पद्मिनी पद्म गंधन, मद गंधेन चित्रणी, हस्तनी पहप गंधन, मच्छ गंधेन संखणी ॥४२।। पद्मिनी पोहर-निद्रा च, द्वे पोहर निद्रा च हस्तनी, चित्रनी चमक निद्रा च, अघोर निद्रा च संखनी ।।४।।
( अथ पुरप जात च्यार वर्णनम् )
दूहा
अथ सिसा लखण मूख सकोमल, तन, वचन, सीलवंत, सुर ग्याँन, रति विनोद अति रुच नहीं, ससा करत बहु साँन |४४||
अथ मृग लछन मधुर-वचन, मृग मध्य-तन, चपल बुद्धि अति भीर, चतुर, साधू, अति हसत मुख, कामी, कनक-सरीर ।।४।।
अथ वृषभ वृषभ जात भारी पुरुष, दाता, क्रूर-सुभाव, कपटी कछ लंपट हठी, काम केल वहु चाव ।।४६।।
अथ तुरंग तन दीरघ दीरघ चरन, दीरघ नख सिख अग, सुभर-तरुनि-सँग रति-रवन, आलस अधिक तुरंग ।। ४७ ।।
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१६२]
[गोरा बादल चौपई
कवित्त ससिक पुरुष-संयोग, नारि पदमावति लोडै, मृग नर सु चित्रणी, प्रेम पूरण सूजोड़े। वृषभ पुरुष हस्तनी, भोग अत ही सुख पावे, अश्व पुरुष संयोग, नार सखनी सुहावै । मृग ससिक वृपभ अरु अश्व पुनि, जाति च्यारि पुरुषा तणी, अल्लावदीन सुरताण, सुणि, जात च्यार नारी तणी ।। ४८॥
दू
नारि जाति सुण पातिसाह, राघव लियो बुलाय, दोय महस मुझ हुरम है, देखि महल मे जाय ।। ४६ ॥ राघव कदै नरिंद सुनि, गरमहल मे न जाय, छाया देख तेल मे, नारी देऊ वताय ।। ५० ।।
कवित्त हुकम कियो पतिसाह, नारि सिंगार बनावहु, तेल-कुड भर धरो, आय दीदार दिखावहु । हुरमा सकल निहार, तवं राघव यू भाखै, हस गमन, मृग नैन, रूप रंभा को राखे । चिनन, हस्तन, संखनी, पातसाहजादी घणी, सरस त्रिया मे सुन्दरी, नहीं साह घर पदमणी ।। ५१ ।। कहे ताम सुलतान, वेग पदमनी वतावहु, जहाँ होइ तहाँ कहो, जो कछ मांगो सो पावहु ।
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गोरा बादल चौपई]
[१६३ पदमन सिंघलदीप, उद्ध-पै-पार, पयंप, देख समुद्र, सुलतान, हिया कायर का कंपै। यू सुनवि चढ्यौ सुलतान, तब आय उदध ऊपर पड्यौ, पदमनी कहाँ राघव कहो, पातसाह अत हठ चढ्यो ।। ५२ ।।
सोरठा राघव लह प्रस्ताव, पातसाहपै यूं जप । पदमनि नैड़ी ठाँव, रतनसेन चहुवाणपै ॥ ५३ ॥
दूहा सुणवि चढ्यौ सुलतान तब, चलियो गढ़ चीतोड़। दिया ढमामा दिल्लिपत, भई राय पर दोड़ ।। ५४ ।। काँपे सगले राण, चिहूँ चक्क खलभल भई। खुर-रज छायो भाण, चोट नगारै जब दई ॥ ५५ ।।
__ छंद जात रेसाल चढे चिहूँ दिसि साह के दल, धरै धीरज कौन ? । अभिमान-आणंद अंग उपजौ, गिण लगन न सौंन ।। ५६ ।। असवार त्रय लख साथ अदभुत, पाखरे ज तुरंग । ताजी स तुरकी औ अराकी, सबज नीले रंग ।। ५७ ।। कम्मेत, काले, हासिले, सामुद्र, अर तबरेस। अवलक, सुजॉम, सुवाहिरे, सवज नीले नेस ।।५८ ।। मारंग, केहर अरु सरौजी, भले पंच कल्याण । नाचंत पातर ज्यू तुरंगम, रतन-लड़ित पलाँण ।। ५8 ।।
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१६४]
[गोरा वादल चौपई
लग्गाम सोवन मुक्ख सोहै, जेर बंध सु पाट । अब रेसमी कसि तंग ताणे, लटकणा के थाट ।। ६०॥ गजगाह घूघरमाल घमकै, तवल बाज वणाव । कलंगी भली जरकसी पाखर, भलो परचौ भाव ॥ ६१ ।। हलके पचावन साथ हाथी, ढलक नेना ढाल | अति घटा सावण मास जैसी, मर मद परनाल ।। ६२ ।। वग-क्राति कांति सपेद सुंदर, गाजते गजराज । पहिराय पाखर साह राखे, फोज आगे साज ॥ ६३ ।। रथ अर पयादे अवर असवार, गनि सके कह कोण । उमडी चली आतस्सवानी, खलभले त्रय भौण ।। ६४ ॥ डेरा पड़े दस कोस ताँई, करै नाहि मुकाम ।
आइक गढ़ चीतोड़ उतरे, दिया डेरा ताम || ६५॥ ताणे तहाँ पचरंग तंबू, फरहरे नीसाँण । फले पलास वसंत आगम, वद कविजन वाँण ।। ६६ ।।
दूहा गढ-रोहो करकै रह्यो, अलावदीन सुलतान । रतनसेन माँन नहीं, चले गढनस प्रॉन ।। ६७ ।। अंव लगाये ठोर तिह, फल पाके तव जान । वारा वरस वैठो रहौ, अलावदीन सुलतान ।। ६८ ॥
कवित्त कहै ताम सुलतान, कही राघव क्या कीजै ?, गढ़ चितोड है विषम, जोर तें कबहु न लीजै।
वा
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गोरा बादल चौपई ]
[ १६५ राघव कहै, सुलतान, सुनो इक फंद करीजै, उठाइयै मूसाफ, जेण कर राय पतीजै । भेज्यो खवास सुलतान तब, रतनसेन-द्वारै गयौ, ले हुकम-राय दरवाँन तब, खोलि प्रोलि भीतर लियौ ।।६।। कहै ताम सुलतान, मान तू वचन हमारा, कहै फेर सुलतान, करूं तुझ सात हजारा। बहिन करू पदमनी, तुम भाई कर थप्पू, देख गढ चीतोड़, अवर बहु देस समप्पूँ। गल कठ लाय, ठहराय के, नाक नमण कर बाहुडौं, राजा रतनसेन, सुलतान कह, पहुर एक गढपरि चढौं ।।७०।। मान वचन सुलतान, आन मूसाफ उठायौ, महमानी बहु करी, गड्ड सुलतान बुलायो । लिये साथ उमराव, बीस दस सूर महाबल, बहुत कपट मन माँहि, गए सुलतान वहाँ चल । बहु भगत-भाव राजी करी,साह कहै भाई भयौ, पदमनि दिखाव ज्यू जाँह घर, दुरजन दुख दूर गयौ ।।७।।
- दूहा रतनसेन चहुवान कहि, वहिन करी सुलतान । वदन दिखावो वीर कों, दिया साह बहु माँन ॥७२।। चेरी एक अति सुंदरी, दे अपनी सिणगार । वदन दिखायौ साह कू, गिस्यौ सीस के भार ॥७३॥
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१६६]
[गोरा बादल चौपई राघव कहै, सुण पातसाह, यह पदमनी न होय । कहा देख के तुम गिडे, अति सुंदर है सोय ॥४॥
कवित्त लाख लहै ढोलियो, सवा लख लेह तुलाई, अर्ध लाख गीदुवौ, लाख त्रय अग लगाई। केसर अगर कपूर, सेझ परमल पर भीनी, ता ऊपर पदमनी, रामरस-रूप-नवीनी। अल्लावदीन सुलतान सुण, पदम गंध है पदमनी, चन्द्रमा वदन, चमकंत मुख, रतनसेन-मनभावनी ||७||
दूहा बोल्यो तब, अल्लावदी, पकड़ राय को हाथ । दिखलावत हो और त्रिय, कपट कियो मुझ साथ ॥७६||
कवित्त
कदै ताम सुलतान, कहो पदमन-प्रति ऐसो, मुख दीखावो वेग, कपट माड्यो है केसो। मुख काट्यौ पदमनी, ताम बारीक वाहिर, निरख गिर्यो सुलतान, थम लीयौ तसु थाहर । खिन एक संभाले आपकू , साह कहै, डेरै चलो,
क्या सिफत करू मैं राव की, रतनसेन भाई भलो ||७७| फिर्यो ताम सुलतान, प्रोल पहिली जव आयौ, रतनसेन भयो साथ, लाख वकसीस दिवायो।
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[१६७
गोरा बादल चौपई ]
चल्यो ताँम सुलतान, प्रोल दूजी जव आयौ, और दिये दस गड्ड, राय अति बहुत लोभायो। इम लेवे वगसीस, तवह कपट कर फंदियो, राजा रतनसेन अति लोभकर, अहि सुलतान मुबंधीयो ।।७।।
सोरटा रहे प्रोल जड़ लोक, सोर सकल गढ मे भयो । राजा ले गयो रोक, कपट कियो सुलतान तव ||
कवित्त सदा मरावै साह, राय कोरड़े लगावै, कहै, देह पदमनी, जीव तब ही सुख पावें । गढ के नीचे आँण, सहम भूपति दिखलावे, लै राखै लटकाय, लोक सवही दुःख पावै । मारतें राय कायर भयो, पदमावत देऊँ सही, भेजी खवास मारौ न मुझ ले आवै जब लग ग्रही ।।८।।
सोरठा भेयो राय खवास, कहै, देय पदमावती। मुक जीवन की आस, विलम न कीजै एक खिन १८१॥
कंडलियो कह रॉनी पदमावती, रतनसेन राजाँन, नारि न दीने आपणी, तजिये, पीव, पिरान ।
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१९८]
[गोरा बादल चौपई तजिये, पीव, पिरान, और कू नारि न दीजै, काल न छूटै कोय, सीस दै जग जस लीजै। कलंक लगावै आपको, मो सत खोवै जाँन, कह रानी पदमावती, रतनसेन राजॉन ।।८।। पान लियो पदमावती, गई वादल के पास, राखणहार न सूझही, इक बादल तोहि आस ॥ ८३ ॥ बार वरस को बादलो, हाथ ग्रहे चौगान, ले आई पदमावती, बादल खावौ पान ॥ ८४ ॥ कह बादल सुन पदमनी, जा गोरा के पास, पान लियो मैं सीस धर, न करि चिंत, विसवास ॥ ८५ ॥
कवित्त
भई आस, तब लियो सास, गोरा पे आई, पड्यौ स्याँम सकडे, करो कछु अब्ब सहाई। मंत्र कियौ मंत्रिया, नारि पदमावति दीजै, छूटाइयै नरेस, विलम खिन एक न कीजै। अवस तिहारे आप हूँ, ज्यू भाव त्यु राय करि, बीड़ी उठाइ गोरो कहै, जाइ, बहन, अब बैठ घरि ॥ ८६ ॥
दूहा गोरा बादल बैठ के, दिल में कर विवेक, साह साथ कैसे लड़ा, लसकर अमित अनेक ॥ ८७॥
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गोरा बादल चौपई ]
[१६४
कवित्त बादल बोल्यौ ताम पाँचसै डोला कीजै, तिन में बैठे दोइ च्यार कै काँधै दीजै। तिन मे सव हथियार अश्व कोतल करि आगे, कहे. देह पदमनी, तुरक नेड़े नहिं लागे। कटिये बन्धन राय के भुजबल परदल गाहिजे, दीजिय न पूठ द्रढ़ मूठ करि खग्ग साह-सिर वाहिजे ॥ ८८॥
बादल मंत्र उपाइयो, सबके आयो दाय, याहि वात अब कीजिये, बोले राणा राय ॥ ८ ॥
कवित्त तुरत बुलाये सुत्रहार, डोले संवराए, तिन ऊपर मुखमली, गुलफ आछे पहिराए । बेठाये विच सूर, सूर कै काँधै दीजै, तिन-मह सव हथियार, जरह अर जोर न ई जै। अराकी साज, सवार के, बादल मंत्र उपाइयो, वक्कील एक रावल मिलन, पुह सुलतान पठाइयौ ॥ १०॥
दूहा रावल देवत पदमनी, आज तुझे, सुलतान, भेट इसी बहु भॉति सों, खुसी भयो सुलतान ॥६१ ॥ कहै ताम अल्लावदी, सुणि वकील, चित लाय, वेग ले आवो पदमनी, वादल सुकहो जाय ।।२।।
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२००]
[गोरा बादल चौपई आयो हुकम ज साह को, वादल भयो तयार, सुनो, रावतो, कान धर, असी करियो मार ॥६३||
कवित्त प्रथम निकस चकडोल, तुरत चढि तुरी धसावो, नेजा लेकर हाथ जोर, दुसमन सिर लावो । जव नेला तुहवै, तबहि तरवार उठावो, जब तूटे तरवार, तवे तुम गुरज उड़ावो। जब गुरज तूट धरणी पड़े, कट्टारी सनमुख लड़ो, बादक कह हो रावता, स्याँम काम इतनो करो ॥४||
दूहा बादल जूझन जव चल्यो, माता आई ताम, रे वाटल तें क्या किया, ए बालक परवाँन ।।१।।
कवित्त रे बादल वालक्क, तुंही है जीवन मेरा, रे बादल वालक्क, तुझ बिन जुग अंधेरा। रे बादल बालक, तुझ बिन सब जग सूना, रे बादल बालक, तुझ बिन सबहि अलूना । तुझ बिन न सूझ कछू, तूटि वाँह छाती पड़े, छुहत तीर वंका तहाँ, केम साह-सनमुख लहै ।।६।।
दूहा माता बालक क्यु कहो, रोड न माँग्यौ ग्रास । जो खग मारूसाह-सिर, तो कहियो सावास ।।६७||
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गोरा बादल चौपई]
[२०१
सीह, सिं चाणो, सापुरुप, ए लहुरे न कहाय । वड़े जिनावर मारि कै. छिन में लेय उठाय ॥१८॥ सिंह जोन तें निकसतै, गय-धड़ दीठी जाँम । तुट्टवि गन मसतक लड्यौ, आइ रह्यो महि ताँम ।।१६||
कवित्त बादल कह, सुण माय, सत्त तुझ साहस मेरा, लडू साह के साथ, कर संग्राम घणेरा। मारु सुभट अपार, स्याम के बंधन काहूँ, जो सिर गयो त जाहु, सीस दे जग जस खाटू। जिम राम-काज हनुमत कियो, मायौ रावण एक खिण, रोवर गुडाय तोडौं तवर, साह चलाऊँ खग्ग हण ॥१००।। बालक तो परवाँण, जाँम गंवर-घड मोडूं, बालक तो परवाँण, पकड पिलवॉन पछोडू। वालक तो परवाँण, स्याम के बंधन कट्ट, वालक तो परवाँण, साग असवार पलटहूँ। मारूं तो खग साह-सिर, गयवर दलू , सत्य चढूँ, जननी लजाऊँ तुझ कू, जे वाग मोड़ पाछो मुहूँ ॥१०१॥
दूहा जैसा, बादल, तँ किया, तैसा करै न कोय । माता जाइ आसीस दै, अब तेरी में होय ॥१०२।। माता जबही फिर चली, बहुवर दिवी पठाय । मेरो राख्यो ना रह्यो, अब तुम राखो जाय ॥१०३।।
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२०२]
[गोरा बादल चौपई
कवित्त नव सत सज्झे नवल, नारि बादलपै आई, अज हुँ न रम्यौ मुझ साथ, चल्यौ तू करण लड़ाई । अजहुँ न माँणी सेझ, घाव-नख नाहि चमके, कुचन चोट नहि सही, सहै क्युं सांग धमके। छुट्टत नाल गोला तहाँ, तुवि धड़ सिर उप्पर, नारि कहै हो राव, इम मता देखि दलते मुडै ।।१०४।।
कंता रिण मे पैसताँ, मत तू कायर होइ। तुम्है लज्ज, मुझ मेहणो, भलो न भाखै कोइ ।।१०।। जो मूवा तो अति भला, जो उबऱ्या तो राज । बेहुँ प्रकारा हे सखी, मादल घूमै आज ॥१०६।। कायर केर माँस कों, गिरज न कबहुँ खाइ। कहा डंख इन मुक्ख को, हम भी दुरगति जाइ ॥१०॥
कवित्त
मेर चलै, ध्र चलें, भाण जो पच्छिम ऊर्ग, साधु वचन जो चल. पंगु जो गिर लगि पूगे। धरण गिड़े धवलहर, उदध मरजादा छोडै, अरजन चूकै बाँण, लिखत वीधाता मोड़ें। बादल कह, री नार, सुण, एहवो जो होतब टलै, न्दा। न, पूठ देऊ नहीं, बादल दलसूं ना चलै ।।१०८।।
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गोरा बादल चौपई]
[२०३
दूहा त्रीया, तुझकों क्या दिऊँ, सती हुवै मुझ साथ । जूड़ो दीनो काटकै, नारी-केरै हाथ ॥१०६ ॥
ताके ऊपर अरगजा, भमर भमै चिहुं फेर ॥ ११० ॥ सुखपालां सझ पांचस, सोभा घणी करेह । गढ़ ते डोले उतरे, साह न पायो भेद ॥ १११ ॥ गोरा बादल दोइ जण, आप भए असवार। आय मिले पतिसाह सू, किए सिलाँम तिवार ।। ११२ ।। ले आए संग पदमनी, दोड़न लागे मीर। लाज जु लागै हम तुमै, बहुत भया दिलगीर ॥ ११३ ॥ साह ढंढोरो फेरियो, मत कोई देखो ऊठ । गरदन मारू तास कौं, लूँ सब डेरा लूट ॥ ११४ ॥ भी भिर आये साह पै, एक करै अरदास । रतनसेन । हुकम हुइ, जाइ पदमन के पास ॥ ११५॥ मिल विछुरे संग पदमनी, तुमको दीजै आँन । हुकम कियो पतसाहातब, यह विधि मन में जॉन ॥ ११६ ॥
कवित्त बादल तिहा आवियो, राय तिहाँ बाँधण बॉध्यो, लेइ मस्तक आपणौ, चरण ऊपर तस दीधो । हुऔ कोप राजाँन, वैर कीधो तै, वेरी, काधो मूंडो कॉम, नारि आणावी मेरी।
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२०४]
[गोरा बादल चौपई वादल ताँम हँसि वोलियो, कृपा करो साँमी, सही। बालक रूप-पदमावती, राव नारि तेरी नहीं ॥ ११७ ॥
दूहा ले आए संग राव को, मन विच हरख अपार । डोले भीतर पैसताँ, आगे बीच लोहार ।। ११८ ॥ वेडी काटी तुरत तिन, राय कियौ असवार। तवल बाज तिनही समै, निकढे सुभट अपार ।। ११६ ।।
सोरटा रण वाजै रणतूर मारू गावै मंगता। उमग तिहाँ चित सूर, कायर के चित खलभले ॥ १२०॥ ढमके जंगी ढोल, सुरणाई वाजै सरस । घुरै दमामां घोर, सिंधूड़ा ढाढी च ॥ १२१ ॥ साह-कटक पड्यो सोर, ओरू की ओरू भई। रही पदमनी ठोर, रण आये रजपूत रट ॥ १२२ ॥ तीन सहस रजपूत. खाय अमल, चूँ मै खड़े। पड़े क्रपन के पूत, रॉम रॉम मुख ते रटै।। १२३ ॥ जुड़ आये रजपूत, भूत भये कारण भिडण। परिहरि जोर-पूत, खत्री आये खेत पर ॥ १२४ ।। हबक ग्रहे हथियार, हलके हाथी साज के। अंबाड़ी-असवार, पातसाह आयो प्रगट ॥ १२५ ।। गोरा-बादल वीर, सिर फलाँ को सेहरो। केसर छिटके चीर, सूर्य-भीना सापुरल ।। १२६ ।।
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गोरा बादल चौपई]
[२०५
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छंद वीरारस जुडाये जंग, उलसे अग। गोरा वादल, ताने तग ।। १२७ ।।
__ छंद जात रसावलू ___ कर खंग लिय करि करि, विहंड भुजदंड दिखावै,
पाडलिये पाखरी उलट, अपने दल आवै। निज साँम-काज भूपत लड़े, काट-काट लावै कमल, गोरा लगावत जिहाँ खड़ग, तिहाँ पाड़ कर दोइ धड़ ॥ १२८ ।।
छंद पद्धरी ( मोतियदाम ) लडे जव गोरल बाँवन वीर, कमाणक चोट चलावत तीर । न चूकत रावत एकण चोट, ल., गज लोट सपोटालोट ।।१२६।। ग्रहै बरछी जब गोरल राय, सु नागन ज्यूँ नर ऊडत खाय। फोड़त पाखर साथ पलाँण, सुजातन का सिर सुंदर माँण १३० तजै बरछी, पकड़ें तरवार, घणी खुरसाण सो बीजलसार। चलावत मीर उतारत सीस, उडावत एक चलावत वीस ॥१३॥ तनं तरवार गुरज भिड़ाय, दुरज्जन चोट दडब्बड़ ल्याय । करें चकचर गयंद-कपाल, सकै उमराव न आप संभाल ।।१३२।। कई मुख मीर ज आयो काल, डरै नर, दे हथियार संभाल। ग्रहे चिन्ह दंत बड़े-बड़े मीर, न मारहु गोरल राव सधीर ।।१३३।। चल्यो एक मीर ज चोट चलाय, पड्यो धर ऊपर गोरल राय । पुकार पुकारत गोरल नॉम, कर जब वादल ऐसो कॉम ॥१३४॥
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२०६1
[गोरा बादल चौपई
VAAAAA
कवित्त सुभट सुभट सुं लड़ग, पडग तिहाँ खड़ग भडाभड़, जुड़ग-जुड़ग जहाँ जुडग, जुडग तहाँ खड़ग धड़ाधड। मुड़ग मुडग तहाँ मुड़ग, मुडग कोउ अंग न मोडग, गहर गहर गल दंत, भुजे भूपति गह तोड़ग । संग्राम राम-रावण-सुपरि, जुड़े ज्वान ऐसी जुगति, सलसले सेस, सायर सलल, धड़हड़ कंप्यो धवलहरि ॥ १३५ ।।
कवित्त चावक चंचल लाइ, उलट अपने दल आवै, नेजा लेकर हाथ, जोर दुसमन-सिर लावै । नाठे तवहि गयंद, तोफ भीड़ा फड़ पड़ियो, मारे मुगल अपार, बाल वादल इम लड़ियो। खुर-खेह सूर झंपत लियो, रेन-दिवस समसिर भयो, छुटकाय वंध, चाढिय तुरिय, राय भेज घर को दियो ।। १३६ ॥ भारथ भयो अपार, साट सूरों के तूटे, मारे ते रिण माझ, जिना के कालज खटे । बहुत मुए रजपूत, तुरक को अंत न लहिये, चले रुधिर के खाल, तीन लोकन मे कहिये।। भागत मतंग-गज-थाट जब, अपछर मंगल गाझ्यो, रणजीत, राय छुटकाय के, तब वादल घर आइयो ॥ १३७ ॥ वादल की आरती आय, पदमनी उतारै, मुकताफल भर थाल, भरी सिर ऊपर वारे।
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गोरा बादल चौपई]
[२०७ वहुयड़ दे आसीस, जीव तूं कोड वरीसा, सूरवीर वंकडा, तूम गुण गावे ईसा । बलिहारी तस नांव पर, जिण कत हमारो मेलियो। गोरा गयंद वादल विकट, धन धन जननी जनमियो ॥ १३८ ॥
दहा बादल सँ नारी कहै, हूं बलिहारी, कंत । तं खग मायो साह-सिर, दे चरणां गजदंत ।। १३६ ।। पिय मुख पूँछत प्रेम सुँ, धन बादल भरतार। वोल निवाह्यो आपणों, सूर जपें जयकार ।। १४० ॥ काकी बादल सों कहै, गोरल नायो काय । भिड मूवी के भाजि के, सो मुझ बात सुणाय ॥ १४१ ॥ गोरा गिर सू धीर, भिड़े न भाजे भूम तें। मार चलावै मीर, मगर चलावै तीर तें ॥ १४२ ॥ जाके लाए अंग, रंग निकासे ते जड़ग। मारे मनुख तुरंग, गोरा गरने सिघ न्यू॥ १४३ ॥ भला हुआ जे भिड़ मूवा, कलंक न आयो कोय । जस जपे श्री जगत मे, हिव रिण ढढ़ो जोय ॥ १४४ ॥ रिण ढूढे नारी तहाँ, साथे सगला लोइ । सीस न पावै, सो कहा, अंबर वाणी होइ ॥ १४५ ॥
कवित्त गोरे का सिर ताँम, तुरत तिण गिरझ उठायो, मुखते छूटो गिरम, ताँम देवगना पायो।
॥
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२०८]
[गोरा बादल चौपई
देवगना तें छूटि, सोइ सिर गगा पडियो, गगा ते लियो संभु, रुंडमाला में जड़ियो। सो सोह गोरल भरतार इम, सापवित्र मस्तक भयो। यो जूझ परकाज-पर, सो गोरो सिवपुर गयो ॥ १४६ ॥
दूहा नारी इम वाणी सुणी, पिय की पघड़ी साथ । सती भई आणंद स्, सिवपुर दीनो हाथ ॥ १४७॥ गोरा बादल की कथा, पूरण भइ है जाँम । गुरू-सरस्वती-प्रसाद करि, कविजन करि मन ठाँम ॥ १४८॥ सोलैस असिय समै, फागण पूनिम मास । वीरा रस सिणगार रस, कहि जटमल सुप्रकास ॥ १४६ ॥
छंद रिसावला वसै मोछ अडोल अविचल, सुखी रइयत लोक, आणंद घरि-घरि होत ऊछब, देखियत नहिं सोक ॥ १५० ॥ राजा जिहाँ अलिखाँन न्याजी, खान-नासिर-नंद, सिरदार सकल पठान विच है, ज्यों नखने चद ॥ १५१ ॥ धर्मसी को नद, नाहर जात, जटमल नाँउ, जिण कही कथा बनाय के, विच संवला के गॉउ ॥ १५२ ॥ कहताँ तहाँ आनन्द उपजै, सुन्यॉ सब सुख होय, जटमल पयंपे, गुनि जनो, विघन न लागे कोय ।। १५३ ॥
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लब्धोदय कृत पद्मिनी चरित्र चौ0 में प्रयुक्त
देशी-सूची
खण्ड-१ (1) चौपाई-रामगिरी (२) योगनारा गीत री, राग-मल्हार (३) करता हैं तो प्रीति सहु हूँसी करै रे (४) सिहरा सिहर मधुपुरी रे, कुमरा नन्दकुमार (५) दुढणीयां मेवाड़ी देशी-मेवाड देशे प्रसिद्धास्ति () ता भव बन्धण थी छोड़ हो नेमीसर जी (७) जाइ रे जीयरा निकसि के, तथा-वात म काढो रे व्रत तणी
खण्ड-२ (१) बागलिया री (२) राग गौड़ी-मन ममरा रे (३) ढाल-अलवेल्यानी, कहिनइ किहां थी आविया रे लाल (४) राग मारू–वान्हा ते विदेशी लागे वालहो रे, ए गीत नी (५) राग मल्हार-सहर मलो पण साकड़ो रे नगर मलो पण दूर (6) कोई पूछो वामण जोसी रे, ए देसी अथवा यतनी (७) मनसा जे आणी
खण्ड-३ (१) मणइ मन्दोदरी दैत्य दसकन्ध सुण ( राग-आसा सिधु कड़खारी) । (२) चरणाली चामुण्डा रण चढ़े
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( २१० )
() बात म काढो व्रत तणी, काची कली अनार की रे (४) तिण अवसर वाजै तिहा रे ढंढेरा नो ढोल, २ मेवाड़ी दरजण री (५) अलबेल्या नी (s) हसला नै गल गूघरमाल कि हंसलो मलो (७) रागमारु-पंथी एक संदेशड़ो, कपूर हुवे अति ऊजलो रे (८) मेवाड़ी राजा रे चितोड़ी राजा रे (ह' एक लहरी लै गोरिला रे (१०) राग मारू-नाइलियो न जाए गोरी रे वणइटै रे (११) मधुकरनी (१२) श्रेणिक मन अचरन थयो (१३) नदी यमुना के तीर उड़े दोय पंखिया (१४) म्हारा सुगुण सनेही आतमा (१५) सइ मुख हुं न सकु कही आडी आवै लाज (१६) वन्दना करूं वार-चार ए देसी प्राहुणा री (१७) साधजी मले पधार्या आज (१८) वलध मला हे सोरठा रे (१९) सदा रे सुरंगा ये फिरो, आज विरंगा काय (२०) नाथ गई मोरी नाथ गई (२१) गच्छपति गाइयइ हो युगप्रधान जिनचन्द (२२) वाल्हेसर मुझ वीनती गोडीची (२३) करड़ो निहा कोटवाल, राग-खमाइती सोला की या मारू (२४) धन्यासी-लोक सरूप विचारो आतम हित मणी
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अ
१०५
विशेष नाम सूची कल्याणसागर
१०७ अभय (राणा)
१२९ केसरी (मन्त्री)
१०५ अभयकुमार
कोक
११५ भरती (राणा)
१३० अलावदी २६, २८, ४३, ४७, ६३, खरतर गच्छ २०, ४०, १०५ (सुलतान अल्लाउद्दीन) ८१, ९७ खेतल (राणा)
१३० १११, ११२, खेमकरण (प्रधान)
१३९ ११३, ११४, ११५, ११६, खुमाण (राणा) १७७, १८१ ११७, ११८, १३७, १३९, १४३, १५१, १८७, १८८, ग्वालेर १८९, १९०, १९२, १९४, गाजण (गाजन्न) ६८, ७६, १०९,
१२४, १२५, १५१, १७३ अलीखान न्याजी
गोरा, गोरल, गोरिल १, ६६, ६७,
६८, ६९, ७८, ७९, ८७, ८८, आमेट
९४, ९७, ९९, १०३, १०७, १०९, १२०, १२३, १२२, १२५, १२६, १२७, १२८, १५० १५१,
१५२, १५४, १५९, १६५, १७१, उदयपुर
१७४, १७५, १७६, १७७,१८८,
१७९, १८१, १९८, २०३, २०४, ऋषभकुशल
२०५, २०७, २०८
गहलउत (गहिलोत) १०९, ११०, कटारिया २०, ४१, १०५, १०७ ११७, ११९, १२०, १३०
२०८
१०८
ईसरदास
१५४
१०५
१०८
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(२१०)
(२) बात म काढो व्रत तणी, काची कली अनार की रे (४) तिण अवसर वाजै तिहां रे ढढेरा नो ढोल, २ मेवाड़ी दरजण री (५) अलवेल्या नी (e) हसला नै गल गूघरमाल कि हंसलो मलो (७) रागमारु-पंथी एक संदेशड़ो, कपूर हुवे अति ऊचलो रे (८) मेवाड़ी राजा रे चितोड़ी राजा रे (e' एक लहरी लै गोरिला रे (१०) राग मारू-नाइलियो न जाए गोरी रे वणहटै रे (११) मधुकरनी (१२) श्रेणिक मन अचरज थयो (१३) नदी यमुना के तीर उडै दोय पंखिया (१४) म्हारा सुगुण सनेही आतमा (१५) सइंमुख हुं न सकु कही आडी आवै लाज (१६) वन्दना करूं वार-चार ए देसी प्राहुणा री (१७) साधजी भले पधार्या आज (१८) वलय. मला छे सोरठा रे (१९) सदा रे सुरगा थे फिरो, आज विरंगा काय (२०) नाथ गई मोरी नाय गई (२१) गच्छपनि गाइयइ हो युगप्रधान जिनचन्द (२२) वाल्हेसर मुझ वीनती गोड़ीर्चा (२३) करड़ो निहा कोटवाल, राग-खमाइती सोला की या मारू (२४) वन्यासी-लोक सरूप विचारो आतम हित मणी
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( २१३ )
१९३, १९५, १९६, १९७, पधिनी ) १, ११, १२, १३, २३, १९८, १९९, २०३, २०६, पद्मावती १ २७, २९, ४१, ४५, ४६, प्रमावती
३, ४, १९, पदमपी ) ४९,५०, ५३, ५५, ५७,
पुण्यसागर
१०७ ५८, ५९, ६२, ६३, ६४, ६५, पीथड़
१३० .. ६७, ६९, ७०, ७२, ८०, ८१, पुनोपाल
१३० ८२, ८३, ८४, ८६, ८७, ८८, पृथ्वीमल
१२९ ८९, ९०, ९१, ९२, ९३, ९४, ९५, ९९, १००, १०१, १०२, बयाना १०४, १०७, १०९, ११०, ११८, बादल १, ६६, ६७, ६८, ६९, ७१, १२०, १२१, १२२, १२४, १२५,
७२, ७३, ७४, ७५, ७८, ७९, १२६, १२७, १२८, १३०,
८१, ८२, ८३, ८५, ८६, ८७, १३१, १३६, १३७, १३८, ८८, ८९, ९०, ९१, ९२, ९३, १४१, १४२, १४३, १४४,
९४, ९५, ९७, ९९, १००, 1४६, १४७, १४८, १४९, १०१, १०२, १०३, १०७, १५०, १५१, १५२, १५३,
१०९, १२०, १२१, १२२, १५४, १५६, १६०, १६१,
१२३, १२४, १२५, १२६, १२७, १६३, १६४, १६५, १६६, १२८, १५०, १५१, १५२, १६७, १६८, १६९, १७०,
१५३, १५४, १५५, १५६, १७१, १७२, १७६, १७७,
१५५, १५९, १६१, १६४, १७८, १८०, १८१, १८३,
१६५, १६६, १७, १८, ' १८४, १८५, १८६, १८७,
१६९, १७७, १७१, १७२,
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( २१४ )
माखर
१७३, १७४, १७५, १७६, १७७, १७८, १७९, १८०, रतनसेन (रतनसी ३, ११, १२, १% १८१, १९८, १९९, २००, रतनसिह, रतन) २०, ४१, ४२, ४४,. २०१, २०२, २०३, २०४, ४९, ५८, ६१, ७०, ९३, ९९,
२०५, २०६, २०७, २०० १०२, १०४, १०७, १०९, वीकानेर
११०, ११७, ११८, ११९,
१२१, १२९, १३०, १३१,
१३० १३२, १३३, १३६, १३५, मागचन्द (कटरिया) २०, ४१, १०५, १३८, १३९, १४०, १४१,
१०७, १४३. १४५, १४६, १४८, भीमक
१५०, १५३, १५९, १६२, भीमसी
१६८, १६९, १७०, १७२, मोज
१२८ १७७, १८१, १८२, १८४,
१८६, १८७, १९३, १९४,
१९५, १९६, १९७, १९८, २०१ मकसुदाबाद
१०८
१८२, १८४, १८६, १८७, मल्ल कवि (माट) २८, ११३
१९३, १९४, १९५, १९६५ २०८
१९७, १९८, २०३ मुहम
५६
राजकुशल १०८ २, ७०, १०५
राघवचेतन २४, २५, २७, ३०, ३१
३२, ४०, ५०, ५५, ६१, ९१, योगिनीपुर
९४, ११०, ११३, ११४, ११५
१३०
१३०
मोछ
मेवाड़
१२०
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(२१५ )
वीरमाण
११६, ११७, ११८,१३१, १३२, १३३, १३४, १३५, १३६, १४०, १६७, १७०, १८६, १८७, १८८, १८९, १९२, १९३, १९४, १९५,
४, १६, १७, ६२, ६४,
६५, ८१, १६३ श
१०५
शाहजहां श्रेणिक
१९६,
१०५
।
२०८
सिंघलद्वीप ८, १०, ११, ३५, ४१, ४२, सन्धोदय (लालचंद, ३, ६, ८, १२,
(सघलि, संघलद्वीप) ७०, ११०, ११६, लब्धानन्द) १६, १८, २०,
११५,१३०, १३१, १४८ २३, २६, ३०, ३५, ३८, ४१,
१८२, १८३, १८४, १९३ ४६, ४८, ५१, ५७, ६०, ६२,
सिंघलसिंह
११, ३९
सवला गाँव ६६, ६९, ७१, ७६, ८०, ८३, ८५, ८७, ८९, ९२, ९४, ९६,
सीप्रा नदी १००, १०४, १०६, १०७, १०८,
सीहड़मल्ल ।
१३० लखमसी
१२९, १३०
सुधर्मा स्वामी लुणग्गकरण
१३० हमीर
१३०
हसराज (मंत्री) २०, ४१, १०५, १०७ विक्रम
१२८
हर्षविशाल विजपाल
१३० वर्षसागर विनयसमुद्र
१०६ हीरसागर
.
१०५
ho
-
१०६
१०७
८
० -
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सादुल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्यूट के प्रकाशन
राजस्थान भारती ( उच्च कोटि की शोध-पत्रिका) माग १ और ३,
८) रु० प्रत्येक भाग ४ से ७
९) रु. प्रति माग माग २ ( केवल एक अंक),
२) रुपये तैस्तितोरी विशेषाक
५) रुपये पृथ्वीराज राठोड़ जयन्ती विशेषांक ५) रुपये
प्रकाशित ग्रन्थ १ कलायण (ऋतुकाव्य ) ३॥ २. वरसगाठ (राजस्थानी कहानियाँ) १॥ ३. याभ पटकी ( राजस्थानी उपन्यास) २॥
नए प्रकाशन १ राजस्थानी व्याकरण
१३ सदयवत्सवीर प्रवन्ध २ राजस्थानी गद्य का विकास १४ जिनराजसूरि कृति कुसुमांजलि ३ अचलदास खीचीरी वनिका १५ कवि विनयचन्द्र कृति कुसुमांजलि ४ हम्मीरायण
१६ जिनहर्ष ग्रन्थावली ५ पद्मिनी चरित्र चौपाई १७ वर्मवर्द्धन ग्रन्थावली ६ दलपत विलास
१८ राजस्थानी दूहा ७ डिंगल गीत
१६ राजस्थानी वीर दूहा ८ परमार वश दर्पण
२० राजत्यानी नीति दूहा ९ हरि रम
२१ राजस्थानी व्रत कथाएँ १० पीरदान लालस ग्रंथावली २२ राजस्थानी प्रेम-कथाएँ ११ महादेव पार्वती वेल
२३ चदायण __ १२ सीताराम चौपाई
२४ दम्पति विनोद
२५ समयसुन्दर रासपचक पता:-सादूल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्यूट, बीकानेर ।
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