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कण्ठ मे ( रस्मी ) बाध कर नगर नगर में बन्दर की तरह घुमाया (३.४)। यह मानने की इच्छा तो नहीं होती कि मेवाड़ाधिपति को भी ऐसे दिन देखने पड़े थे। किन्तु एक सम सामयिक और निष्पक्ष उद्धरण को असत्य कहकर टालना भी कठिन है। कहा जाता है कि महाप्रतापशाली कवितनवन्दित कविश्रेष्ठ मुख परमार की भी कभी ऐसी ही दशा हुई थी।
पद्मिनी और रतनसेन के जीवन की इस अन्तिम झाकी से पूर्व के वृत्त के लिये हमे पद्मिनी सम्बन्धी साहित्य को ही आधार रूप में ग्रहण करना पड़ता है। यदि पद्मिनी सम्बन्धी मव साहित्य पद्मावत मूलक हो और पद्मावत सर्वथा कल्पनामूलक, तो पद्मावती की ऐतिहासिकता को म बहुत कुछ ममान ही समझ सकते है। किन्तु वास्तव मे ऐसी वात नहीं है। जायसी ने म्पक की रचना अवश्य की है. किन्तु उसने हर एक गुग और द्रव्य के अनुरूप ऐतिहासिक पात्र चुना है। इसमे अलाउद्दीन, चित्तोड और सिंहल ही नहीं, पद्मिनी और राघवतन्य भी एतिहासिक व्यक्ति है।
मन्त्रबादी के न्य में राधव चैतन्य का उल्लेख वृद्धाचार्य प्रबन्धावली के अन्तर्गत जिनप्रभसूरि प्रवन्ध मे वर्तमान है। श्री लालचन्द भगवानदास गाँधी ने इसे पन्द्रहवीं और श्री अगरचन्द नाहटा ने सोलहवीं शती की कृति मानी है। श्री नाहटा जी ने सम्भवतः इसके सवत् १६२६ की एक प्रति भी देखी है। एपिग्राफिआ इडिका, भाग १, पृष्ठ १६२-१९४ में