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१४२ ] [ रत्नसेन-पद्मिनी गोरा बादल सवन्ध खुमाण रासो भोजन भगत करो हिव इसी, जिम दल्लीपति होवे खुसी। पदमणि नार कहें पिय सुणो, हुं हाथें न कर प्रीसणो ||२|| खट रस सरस करें रसवती, प्रीसेसी दासी गुणवती। सणगारो सघली छोकरी, खात अछे जो तुम मन खरी॥१४॥ पदमणी पास रहें सावधान, वीस सहस दासी रूप निधान । रूप अनोपम रंभातिसी, काम नि सेना होवें जिसी ॥१५॥ आसण वेसण ने विध किया, ऊपर छाया डेरा दिया। गादी मुंडा माहें अनूप, जरी दुलिचा अति हे सरूप ।।१६।। ठोड ठोड ऊभा हुसियार, छडीदार प्यादा पडिहार। सवे महिल सिणगारी करी, चिग पडदा नाखी झालरी ॥१७॥ त्यारी हुई रसोडा तणी, माहे तेड्या दल्ली धणी। देखी साह महिल सत खणा, जाण विमान अछे सुर तणा ॥१८॥ खुस खांणे वेंठो पतिसाह, बेठे खान निवाव दुव्वाह । पदमणि माहें अधिक पंडूर, दासी आय देखावे नूर ॥१६॥ इम मंडे पत्रावलि वाल, माडें एक कचोली थाल। इक झारी भरि हाथ धोवाव, ढोलें चमर वीजें वाव ॥२०॥ इक मेवा प्रीसें पकवान, साल दाल सुरहा घृत धान । विजन विध विध प्रेम सुवास,
सुर पिण मोती [दा] ण कविलास ॥२|| भूलो साही कहें अल्लाह, यह हीदूवाण के पतिसाह । 'देखी दासी रूप विलास, आलिम चित मे हुओ उदास ॥२२॥