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________________ ( ४५ ) राणा को दुलंध्य समुद्र को पार करने की चिन्ता मे घूमते हुए सहसा औघड़नाथ योगी से साक्षात्कार हुआ। राणा ने उसे विनय-भक्ति से संतुष्ट कर पद्मिनी के हेतु सिंघलद्वीप पहुंचाने की प्रार्थना की। योगी ने अपने दोनों हाथो में दोनों सवारों को लेकर आकाशमार्ग द्वारा सिंहलद्वीप पहुंचा दिया और स्वय अवश्य हो गया । राणा प्रसन्नचित्त से भ्रमण करता हुआ सिंहलद्वीप की शोभा देखने लगा। जब वह नगर के मध्य भाग में पहुंचा तो उसने ढढोरे का ढोल सुना और पूछने पर ज्ञात हुआ कि सिंहलपति की तरुण बहिन पद्मिनी उसी व्यक्ति को वरमाला पहनायगी, जो उसके भ्राता को सतरज के खेल मे जीत लेगा । राणा ने पटह-स्पर्श किया, वह पद्मिनी के समक्ष सिंहलपति के साथ शतरंज खेलने लगा, पद्मिनी भी राणा के सौन्दर्य से मुग्ध होकर मनही मन उसके विजय की प्रार्थना करने लगी। पुण्य प्राग्भार से राणा ने सिंहलपति को जीत लिया, पद्मिनी की वरमाला राणा के गले मे सुशोभित हुई। सिंहलपति ने राणा के साथ पमिनी का पाणिग्रहण बड़े भारी समारोह से कराया और अपनी प्रतिज्ञानुमार राणा को आधा देश भडार समर्पित किया । पद्मिनी को दहेज मे हाथी, घोड़े, वस्त्रालङ्कार और दो हजार सुन्दर दासियाँ मिलीं। पद्मिनी तो अद्भुत रूपनिधान थी ही, उसके देह सौरभ से चतुर्दिक भौंरे गुजार कर रहे थे। कुछ दिन सिंहलद्वीप मे रहने के “पश्चात् सारे धनमाल और परिवार को जहाजो में भरकर
SR No.010707
Book TitlePadmini Charitra Chaupai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1953
Total Pages297
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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