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वर्तमान रूप १९वीं शताब्दी मे प्राप्त हुआ मान लिया गया । माननीय शुक्लजी जैसे विद्वान ने भी अपने इतिहास मे यही लिख दिया कि-'यह नहीं कहा जा सकता कि दलपतविजय असली खुमान रासी का रचयिता था अथवा उसके पिछले परिशिष्ट का।' वास्तव मे हिन्दी के विद्वानों ने इसकी प्रति को देखा नहीं, अतः अन्य लोगों के उल्लेखों के आधार से विविध अनुमान लगाते रहे। लगभग २५ वर्ष पूर्व श्री अगरचन्द्र जी नाहटा ने वीर-गाथा-काल की वतलाई जानेवाली रचनाओं को परीक्षा की कसौटी पर रखा और जेनगूर्जर कविओ भाग १ से खुमाणरासो की १३६ पत्रों की अपूर्ण प्रति का पता लगा कर पूना के भंडारकर ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीट्य ट से प्रति को प्राप्त कर इसके तथ्यों पर सर्वप्रथम निश्चयात्मक प्रकाश डाला। 'नागरी प्रचारणी पत्रिका' वर्प ४४ अङ्क ४ मे प्रकाशित उनके लेख से वह निश्चित हो गया कि यह ग्रंथ १८वीं शताब्दी मे ही रचित है कवि का नाम दलपतविजय नहीं पर उसका प्रसिद्ध नाम दलपत और जैन दीक्षा का नाम दौलतविजय था। •
खमाण रासो की अद्यावधि एक ही प्रति मिली है जो अपूर्ण है और उसमे महाराणा राजसिंह तक का विवरण है। टॉड के संग्रह तथा नागरी प्रचारिणी सभा मे भी इसी प्रतिकी प्रतिलिपि है। कविने प्रस्तुत ग्रन्थ में अपनी गुरु-परम्परा का परिचय इस प्रकार दिया है :