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१५८ ] [ रत्नसेन-पद्मिनी गोरा वादल सवन्ध खुमाण रासो
चौपाई खडग युद्ध विसमों में सही, कूडी रीस न कीजें कही। मुझ तन हाथ न घाली सको, भोगी स्वाद लहें जे थको ॥३॥ असपति घडि विसमा वींदणी, भमुह चढावें मेलें अणी। जरह कंचुकी भीडत अंग, विलकुलियो मुख रातो रंग ॥४०॥ मल मयमत नारी जेम, वचन विरस चित न धरे पेम। अमंगल सींधू नद गावती, छल धर ती डा कुल वावती ॥४१॥ पोरस तणो देखालिस तेज, तिण दिन आविस ताहरी सेज। जालिग पिसुण वखाणे नही, गुणीयण विरुद न चे उमही ॥४॥ तां लग केहा सूर सधीर, वल्लभ माने जेह सरीर । लोही सांटे चाढ़ें नीर, ते कुल दीपक वावन वीर ॥४३॥ जब नारी जंप कर जोड, अवर नही को ता ह] रेंजोड। भलो भलो कहेंसी ससार, सामधरम रहेंसी आचार ॥४४|| जिम बोले छ तिम निरबहें, मत किण वातें जाए ढ़हें। लाज म आणो कुल आपणे, सामी साहस जूझ घणें ॥४शा जीवन मरण सदानुनाथ, हुं नवी मुकुप्रीतम साथ । घणो घणों हिवें कासु कहुँ, जिम करज्यो तिम हु गहगहुं ॥४६॥ कंत कहें साभल सुदरी, मोटा वश तणी कुअरी। वोल्या वोल भला ते एह, हित वाछे सोही ससनेह ॥४७॥ ओछा घर की आव नार, कुमत दीए पूछया भरतार । तें कुलवंती नारी तणों, महीयल सुजस वधाव्यो घणो ॥४८॥