________________
१६२ ] [ रत्नपेन-पद्मिनी गोरा वादल संबन्ध खुमाण रासो
दूहा सुण साहिव आलम अरज, में पदमणि का दास । यह रुक्का हम दिया, हे इपमें अरदास ॥ ४ ॥ जो में देखु बदन छत्र, मेरे कुछ न चाह । इंन्द्रपुरी किह काम की, प्रीत नही जिस माह ।। ८०॥ रुक्का आलम हाथ स, वाचत धर ऊछाह । ताती बाती विग्ह तें, मेटत ही जल दाह् ॥ ८१ ।। निस बामर आठो पहर, छिन ही न विसरें मोह। जिहा जिहा नयन पमारहुँ, तिहा तिहा देखें तोह ।। ८२ ॥ साह तुमारे दरम कुं, अरध रहयो जिव आय । कहो क्या आग्या देत हो, फिर तन रहें के जाय ॥ ८३ ।। प्रीत करी सुख लेण कु, सो सुख गयो दुराय । जेसें साप छछदरी, पकर पकर पछताय ।। ८४ ।। वाती ताती विरह की, साहिब जरत सरीर । छाती लाती छार हुइ, ज्युन वहत ग नीर ।। ८५ ।।
कवित्त कहें पढमनि सुन साह. वाह तुम रुप बडाई।
अहो काम रूप अवतार, अहो तेरी ठकुराई ।। मुम कारण हठ चढ़े, आप ग्रही खग उनंगें"। पडयो राण रतन्न, वचन विसवास उलंघे ।। अबठा है करि मोन मुख, कहा तुमारे दिल बसी ।। बीकाज एतो कियो, सो क्युन करहो खुशी ॥८६॥