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[गोरा बादल कवित्त
कीयो कूड सुरताण, सामि मोरउ ग्रहि बंध्यउ, पदमणि द्यु तु जाउ, काजि कारणह समंधउ । भलो न कीयो किरतार, केम गहिलोत वधीजइ, कीयो मंत्र मंत्रीया, राय राखवि त्रिय दीजइ। तदिन जीभ खंडवि मरउं, योगिणीपुर नवि दिखसउँ, पदमिणी नारि इंम उचरइ, अब कह सरणागति पइठिसि॥४८॥ दुख भरी पदमिणी. एम परिपंच विचारइ, कोई संसारि समरथ, सूर मोहि सरणि उवारइ। जे गढ माही रावत, तेह सवि हीणु भाखड़, इसउ न देखु कोइ, मोहि सरणागति राखइ । उचरइ नारि विलखी हूई, सरण एक हरि संभरउं, पणि राजलोक माहि चंदन रचे, सखी वेगि जमहर करउं ॥४|| सखी एक कहु तोहि, मोहि जउ वयण पतिज्जइ, मनावउ गोरल्ल, दुख सहु तास कहीजइ । वरस पंच तस विखउ, राउ सुकुरखे चलइ, ग्राम ग्रास नवि लीइ, कुण गुण मोहि उथलइ । सुणि राउत्त कुलवट्ट तस, जिण सिर सूप्यउ परकज सउं। पदामिणी नारि इंम उचरइ, तु वादल सरणि पइठसिउं ॥५०॥ चडे संघासण ताम, करह करि कमल उपास्य, जीहा गोरउ वादल, पाउ पदमिणी ताहां धास्यउ। गग उलटी पचिम प्रवाह, भणइ इम गोरउ रावत्तह, ए तुम्ह कुबूझीइ, देत आइस हम आवत्तह ।