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गोरा वादल कवित्त]
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रे वाले वादल्ल, मनह अपणइ न बुझिसि, रे वाले बादल्ल, केम करि साम्हु झझिसि । गढ वीभ्यउ सब ठाय, असुर दल देखरं भारी, तु नान्हु वाढल्ल, केम करि खग्ग संभारी । इंम कहइ माय वादल्ल सुणि, वयण एक मोहि चिंत धरि, साहण समुद्र सुलताण का, कुण सुवछ अगमिसि भर ॥५६॥ हुँ कित वालउमाय, गहिवि गयन्दतउ खेल, हुँ कित बालउ माय, सेसफण विमुहा पिल्हर । बालउ वासिग कान्ह, नाथि आणीयु भुजा बलि, वलि चाप्यु धर पीठ, वेणि दिधउ स्वामी छल। बाली वाला पउरस घण, दुरजोधन वंधवि लीयु, बादल्ल गयंद इम उचरइ, तव सुणवि माय पिछित कीउ ॥६॥ माय जाय पठवी, वेग तिही नारिज आई, कुच कठोर काटि झीण, रूप जण रंभ सवाई। कोककला कामिनी, पेखि त्रिभुवन मन मोहइ, प्रेम प्रीति अग्गली, अगि लक्षण जस सोहइ । बादल देखी जव आवती, तव सुचित विसमु भयु, लालच्च नारि निरखु हवइ, तु मोहि सूर साहस गयो ॥६१।। तव कमलिणि विस तरंग, नयण सू नयण न मेलिग, वयण वयण न हु मिली, अहर सुअहर न पिल्हिग । अति भुज पवन प्रचंड, कठिण कुच कमल न भिडिग, रहिसेन फरसेग अंग, त्रीय घाए नह पिठिग ।