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[गोरा वादल कवित्त
कहइ न वात कछु अवही, कवही कर द्रव्य मिलिही मुम, कहइ न वात जनारदार, मइ सबद सुनीय तुम । काल कोस फकीर, तीर सायर फिरि आवहि, निखुता नाहि निलाट, लख्या नहीं कोरी पावहि । तव कोप कलंदर कहइ, क्या किताब दुनिया दीया, संक्यउ स विप्र संसहि पड्यउ, एह योगनि तइं क्या कीया ॥११ तव योगिन मन धरीय, करीय सेवा मइ कबीय, वचन सौध नवि लहूं, वाच नह पालइ सञ्चीय । वचन शुद्धि तउ लहइ, भक्ष जउ मोरउ जाणइ, वेगि जाउ दरवेस कहुं जउ मंखण आणइ इहां राति किहा मंखण लहुं, तव घीउ लेउ करि संचर्य . अल्लावदीन सुरतांण को, सीस छत्र तुम सिरि धर्यउ ॥१६॥ तव कोप किलंदर कहइ, क्या तुफाना उठायज तू चोलइ सब झूठ, राज मुझ पई किहा आयउं एह वात सुणइं सुरताण, करइ टुकटुक तन मेरा करइ नहिं कछु विलंब, अउर सिरि कट्टइ तेरा। उच्चरइ विप्र दरवेस सुं, अलख लिख्या सो पई कहुं, जउ सीस छत्र तुम कउं मिलइ, क्या इनाम हुभालहूं ॥१७॥ तव खुसी भयउ दरवेस, कर्म करतार करहि जव तोहि हइ गइ पाइक, करइ तसलीम तोहि सब तखत तलइ मेरइ तुंही, तुहि दिल्लीवइ जाणू कहे तुहि सव साच अउरका कह्या न मानु