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[गोरा बादल चौपई
दूहा
पदमावत के गुण सुणे, चढी चूप चित राय, विन देख्या पदमावती, जनम अख्यारथ जाय ।। ११ ।।
चौपई वसी चित्त-अंतर पदमावत, निसा नींद दिन अन्न न भावत, इम रहताँ इक जोगी आयो, राजद्वार परि धूही पायो । १२ ।।
कवित्त सिद्ध बड़ो जोगेंद्र, देख राजा चित हरस्यौ, ज्यूँ सरोज सर माँझि, सूर देखत ही विकस्यौ । भगत-भाव बहु करी, जुगत कर जोग संतोख्यौ, निसा बैठ नृप पासि, पत्र पंचामृत पोख्यो। संतुष्ट होइ रावल कहै, माग जु तुझ, कछु चाहिये, राजा रतनसेन चहुवाँण कहा, इक पदमण मोहि व्याहिये ।।१३।। कहै ताम जोगेंद्र, दीप सिंघल पदमावत, राज पाट तजि चलौ, भूप जे तुझ मन भावत । कहै राय, करि कृपा, वेग यहु कारज कीजै जो कुछ कहो सो नाथ, साथ सामग्री लीजै। मृग त्वचा बिछाई सिद्ध तब, पढ़ो मत्र तव वैठ करि, उड गये सिंघलद्वीपकों, (राजा) रतनसेन जोगेंद्र वरि ।।१४।।
सुण रावत, जोगी कहै, करि रावल को वेस, इक-सपदी भिख्या करो, यह मेरा उपदेस ।। १५ ।।