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[नोरा वादल ऋवित्त
तुरीय सहइस पंचास, दोय' सई महगल मंता, राजकुली छत्तीस, लोहड भड सेव करंता । प्रधान लोक विवहारीया, राजलोक सहु सुखी, च्यार वरण गढ महि वस. जती मुनी नहीं कोय दुखी ||८|| एक दिवस गहलन्त, राय बइठ भूजाई, सतर भल्य भोजन्न, मूधि हस कर लेइ आइ । के खारा के मीठ, के कछु स्वाद न आवइ, तव पटरानी कहर, वेग पानी क्यों न लावइ । धरि मछर संघलि सांच, नेव जीत कन्या वरी, पन्नतीज आणि पयन करि': राय रत्नसेन अइसी करी || विप्र एक परदेस थी, फिरत आय विण ठायह, सभा समि जब गया, नयण पेख्य उ तव रायह। फल कीयो तिण भेटि, वरण आसीस पचासइ, विद्यावाद विनोद. वांणि अमृत गुण भास। राघव सभा जब रिजवी. तव राजिन मन भाइयो, हुल पसाव कीन्ही मया, आपस पास रहावीर ||१०|| रत्नसेन रावव. रमति कारणि एक ठायह. जीतो दांण तिहा राव, नांण मंगीउ सुभायह । चच्यो विप्र तव कोप, राव मनि मछर कीउ, ठंब्यो ए अस्थान, देव देसटर दी।
१ पंच। २ यति ।