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१७२] [रत्नसेन-पद्मिनी गोरा बादल संवन्ध खुमाण रासो
कवित्त सुणि वादल कहें साह, वाह तुम बोल भलाई। मुख मीठा दिल कूड, इहें हींदू न कराई। पदमण करी कबूल, तुझे सिरपाव दराया। छोड़या राण रतन्न, सवे दल दूर वलाया। अव लडिहां खग वुलहू अकथ, काफर गुडाई धरहुं । हम सरिस चूक देखहुँ सुतो, मुरख अण खूटी मरहुं ।।७३।। कहें वादल सुण माह, राह पहेंली तुम चूकें । दे वाचा गढ़ देख, बहुर तुम राव ही रुक्के । हम हींदू के मीर, निरख रखही कुलवह । पदमणी दे ल्ये धणी, इहे हम लाज निपट्टह । अब करहुँ जुद्धि जूठा न कहुं, कहा रह्यो रम हम तुमह । ग्रही खग लडहु म वरहुं गरव, वर तस नहि अवसान इह ॥४॥
चापाई आलम ताम हुआ असवार, जोधा मुगल पठाण जुझार । भिड्या खाग रिण मचियो दूठ, सुभट न दाखें कोई पूठ ।।७।। खेहाडंबर उड्यो इसो, सूरज जाणे वधुल्या जिस्यो। बांण विछूट चिहुँ दिश घणा, रुड्या नगारा सींधू तणा ||७६|| खडग झलक्क [ज] जल धार, जाणक विज]जल घण अधार । संन्नाहें तूटें तरवार, जागे झाल अगनि अण पार ॥७७|| कुंत अशी फुटं सूमरा, तूटे कालज ने फेफरा । उडे बूर वहें रत खाल, गुंजे सी घाम] घण असराल ॥७८||