Book Title: Mahavir Aapki aur Aajki Har Samasya ka Samadhan
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर आपकी और आज की हर समस्या का समाधान श्री चन्द्रप्रभ For Personal & Private use only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर आपकी और आज की हरसमस्या का समाधान श्री चन्द्रप्रभ For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर आपकी और आज की। हर समस्या का समाधान श्री चन्द्रप्रभ संपादक श्रीमती लता भंडारी 'मीरा' प्रकाशन वर्ष : मार्च 2012 प्रकाशक : श्री जितयशा फाउंडेशन बी-7 अनुकम्पा द्वितीय, एम. आई. रोड, जयपुर (राज.) आशीष : गणिवर श्री महिमाप्रभ सागर जी म. मुद्रक : चौधरी ऑफसेट, उदयपुर For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व स्वर भगवान ऋषभदेव के पूर्व से प्रारम्भ हुई श्रमण - संस्कृति की अनवरत धारा भगवान महावीर के बाद तक सतत प्रवहमान है । सूत्रधार बदलते गए लेकिन प्रवाह जारी है। युगानुरूप तथ्य जुड़ते चले गए लेकिन मूलभूत स्वरूप कायम रहा। समय की धारा को गतिमान बनाए रखकर ही हम मूल सच्चाइयों के साथ आगे बढ़ सकते हैं। केवल सत्य और तथ्य का ढिंढोरा पीटकर या लकीर के फ़क़ीर बनकर जनमानस को नहीं सँवारा जा सकता । जनमानस को सँवारने के लिए समय और विज्ञान के साथ कदमताल करनी होती है और इसमें कोई संदेह नहीं कि यह कार्य महान जीवन-द्रष्टा पूज्य श्री चंद्रप्रभ ने बख़ूबी किया है । वे समय की, विज्ञान की, समाज और युवाओं की नब्ज़ अच्छी तरह पहचानते हैं भौतिकवादी युग में संस्कारों का निर्माण करना गुरुवर अपना दायित्व समझते हैं इसलिए भगवान की दुरूह से दुरूह वाणी को सरलतम रूप में प्रस्तुत करते हुए उसे जीवन में कैसे आचरित किया जाए इसकी हृदयस्पर्शी व्याख्या करते हैं। उनका कहना है कि धर्मग्रन्थों को पढ़ने या रट लेने से कुछ नहीं होने वाला है जब तक जन्म-जन्मांतरों के राग-द्वेष और वासनाजनित संस्कारों से छुटकारा न पाया जाए। ये कर्म - संस्कार हमारे मन को विकृत व जटिल रूप से For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जकड़े हुए हैं। हमारे मन पर पड़े हुए इन आवरणों को परत-दर-परत उघाड़ना ही इन दिव्य प्रवचनों का उद्देश्य है । तभी तो श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं कि मन के भाव ही पाप या पुण्य हैं। शुभ भाव होने पर विचार भी शुभ होंगे, विचारों की शुभता से वाणी मंगलमय होगी, वाणी की मधुरता से व्यवहार शुभ और प्रीतिकर होगा । जहाँ व्यवहार प्रीतिकर होगा वहाँ आचरण, जीवन, चरित्र तथा संबंध सभी शुभ और मंगलमय होंगे। I श्री चन्द्रप्रभ अल्बर्ट आइन्स्टीन के अनुगामी प्रतीत होते हैं क्योंकि इस वैज्ञानिक का सिद्धांत था कि विज्ञान धर्म के बिना अंधा है और धर्म विज्ञान के बिना लँगड़ा है। इस सत्य का प्रतिपादन करते हुए ही श्री चन्द्रप्रभ धर्म और विज्ञान में अद्भुत सामंजस्य बिठाते हैं। उनका मानना है कि जीवन में वास्तविक प्रगति व चरित्र-निर्माण तभी होगा जब धर्म व विज्ञान मिलकर शांतिपूर्वक सत्य की खोज करेंगे। वे प्राचीन आख्यानों के संदर्भ से आधुनिक जीवन में संस्कारों के निर्माण की दिशा निर्धारण करते हैं । चरित्र-निर्माण के प्रबल पैरोकार श्री चन्द्रप्रभ का कथन है कि समाज का सही निर्माण करने के लिए चारित्रिक दृढ़ता ज़रूरी है। इसके लिए वे मार्ग सुझाते हैं कि हम जागरूकतापूर्वक अपने दायित्वों का वहन करें और चित्त में सदा सकारात्मकता रखें। सुदृढ़ चरित्र जीवन-निर्माण का प्रथम पायदान है । चारित्र के निर्माण से दर्शन और ज्ञान की प्राप्ति होती है और सामान्य-सी दिखने वाली घटनाएँ जीवन का रूपान्तरण कर देती हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ में श्री चन्द्रप्रभ ने महावीर के शान्ति - पथ और उनके सिद्धान्तों का सहज-सरल भाषा में प्रतिपादन किया है। श्री चन्द्रप्रभ बात को बोधगम्य और सरल बनाने के लिए यथास्थान कहानी, घटना या काव्य पंक्तियों को भी उद्धृत करते हैं। कभी भी भाषा और ज्ञान का प्रवाह टूटने नहीं पाता है । उनमें जनमानस को प्रभावित करने की अपूर्व क्षमता है । वे सहज-सरल तरीके से संवाद करते हुए दिल को छू लेते हैं। उनकी प्रभावी वाणी उनकी पहचान है वे हमारे लिए प्रकाश-स्तम्भ और मील के पत्थर की तरह मार्गदर्शक हैं। 1 श्री चन्द्रप्रभ बहिर्मुखी व्यक्तित्व को अन्तर्मुखी बनाने में ग़ज़ब की क्षमता रखते हैं। वे कहते हैं कि बाह्य सांसारिक व्यापारों के चलते हुए भी संकल्पशील व्यक्ति अन्तर के पटों का उद्घाटन कर सकता है। आवश्यकता है केवल मोह - For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और राग के रेशमी जाल से बाहर निकलने की। उनका मानना है कि अगर अंतर प्रकाशित हो गया तो व्यक्ति कभी बाहर के अंधकार में नहीं भटक सकता और यही धर्म का वास्तविक स्वरूप है। इसके लिए भी वे अध्यात्म के मैनेजमेन्ट के गुर देते हैं और आत्मज्ञान का रास्ता साफ़ करते हैं। आध्यात्मिक प्रबंधन की बात करते हुए वे कहते हैं चौबीस घंटे में से व्यक्ति स्वयं के लिए दो घड़ी वक़्त निकाले और इसमें ध्यान-साधना का अभ्यास करे । जीवन में धर्म को कैसे मैनेज़ किया जाए प्रस्तुत पुस्तक बखूबी बताएगी। जब गुरु स्वयं चिकित्सक बनेंगे तभी आत्मा की पीड़ा मिट सकेगी। गुरु वही है जो रूढ़ियों से धर्म को मुक्ति दिलाकर जनसामान्य को उसमें डुबाने की सामर्थ्य रखे और श्रद्धेय श्री चन्द्रप्रभ ने यह कार्य खूबसूरती से किया है। उन्हें पता है कि रूढ़ियाँ विकास को अवरुद्ध कर देती हैं। जीवन के साथ जिसका सीधा संबंध हो वही तो धर्म है। धर्म तो जीवन में व्याप्त होना ही चाहिए लेकिन कौनसा और कैसा धर्म ? इसका प्रतिपादन करते हुए श्री चन्द्रप्रभ ने कहा - जो सहज हो और जिसे जीवन में आचरित किया जा सके वही धर्म है। महावीर की वाणी को आधुनिक संदर्भ देते हुए श्री चन्द्रप्रभ ने उन्हीं तथ्यों को रेखांकित किया है जो कभी स्वयं महावीर ने किए थे। वे कोई कट्टरता नहीं अपनाते, कर्मकांडों से परे रहकर उदारतापूर्वक धर्म को जड़ता से बचाते हुए हमें धार्मिक बना देते हैं। श्री चन्द्रप्रभ का कहना है कि धर्म का सार ज्ञान, ज्ञान का सार संयम और संयम का परिणाम मुक्ति है। हम सभी इसी मुक्ति-पथ के अनुयायी बनकर भगवान की वाणी में डुबकी लगाएँ इसी सद्भावना के साथप्रभुश्री के चरणों में अहोभाव भरे प्रणाम ! - मीरा For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकम » १. महावीर का बुनियादी मार्ग २. महापुरुषों के अनुभव चुराएँ ३. मन्त्र : धर्म का प्रवेश-द्वार विश्व-शांति का रहस्य ५. कैसे सुधारें विश्व का माहौल __ अहिंसा को जीने के प्रेक्टीकल पाठ ७. कैसे जिएँ आनंद से ८. सुख की राह ९. शुभ भाव : शुभ लाभ : शुभ खर्च १०. गृहस्थ-धर्म के सरल नियम ११. इन्सान का सच्चा धर्म १२. संसार भी हो, संन्यास भी १३. साधना-पथ की समझ १४. मुक्ति का सरल मार्ग १५. कैसे जिएँ संयम से १६. कैसे मुक्त हों अन्तर्मन के घेरों से १७. आध्यात्मिक जीवन के छ: नियम १२९ १४४ १९४ २० २२४ २४० For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. कैसे करें जीवन का आध्यात्मिक प्रबंधन १९. आत्मा का रहस्यबोध १०. कैसे साधे आत्म-जागरूकता २१. मैं मृत्यु सिखाता हूँ For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीरका बुनियादी मार्ग आज से हम एक ऐसे समुद्र-तट पर चहलकदमी करने का प्रयत्न करेंगे जहाँ से हमें इस किनारे का सौन्दर्य तो नज़र आएगा ही, साथ-ही-साथ प्रयास रहेगा कि अथाह समुद्र के उस छोर को देखने की कोशिश कर सकें। एक किनारा यह है जहाँ हम खड़े हैं और दूसरा किनारा वह है जहाँ से हम सब लोगों के लिए एक मद्धिम पुकार आ रही है। ऐसे लग रहा है जैसे मीरा का करताल बज रहा हो, कहीं तुलसीदास के चंदन घिसने की आहट हो रही हो, कहीं से मोहन की मुरलिया का आमंत्रण मिल रहा हो, तो कहीं से महावीर का मौन मुखरित होकर हम सब लोगों के भीतर मुक्ति की प्यास जगा रहा हो। इस किनारे का आनन्द तो दुनिया के हर व्यक्ति ने लेने का प्रयत्न किया है लेकिन उस किनारे का आनन्द तो केवल उन्हीं ने लिया जो महावीर की तरह संन्यासी होकर निकल पड़े या बुद्ध की तरह अभिनिष्क्रमण कर गए या मीरा की तरह दीवाने होकर घरबार छोड़ निकल चले। अभी हम लोग उस किनारे के आनन्द से वाक़िफ़ नहीं हैं, लेकिन हृदय में उठती हुई हिलोर इस बात की अभीप्सा और प्यास जगा रही है कि उस किनारे पर भी कुछ है। उस किनारे की अपनी रोशनी है, उसका अपना आनन्द और स्वाद है। जब हम शिखरों की For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यात्रा करते हैं तब ही उस पार के दृश्यों का आनन्द उठा सकते हैं । तलहटी पर रहकर हिमालय के शिखर को नहीं छुआ जा सकता। इसके लिए हिमालय की यात्रा करनी होती है । जीवन में अध्यात्म की हिलोर तब ही उठती है जब इंसान के जीवन में दो चीजें एक साथ मुखरित होती हैं - एक ओर बुद्ध का बोध, दूसरी ओर महावीर का मौन । हाँ, इसमें अगर मीरा का इकतारा भी जुड़ जाए, तो क्या कहना ! जहाँ 1 - बुद्ध का बोध, महावीर का मौन, मीरा का इकतारा, सूर का करताल और चैतन्य महाप्रभु का अहोनृत्य - ये सब चीजें एक साथ मिलती हैं वहीं जीवन का सच्चा आनन्द और महोत्सव होता है। दुनिया में महोत्सव दो घड़ी में बनते हैं और दो घड़ी में मिट भी जाते हैं । जब कोई अपना जन्म दिन, शादी की सालगिरह या अन्य कोई उत्सव मनाता है तो उसकी खुशियाँ अवश्य ही सिर चढ़कर बोलती हैं लेकिन तभी तक जब तक प्लेटों में सामान सजा हुआ है । लेकिन बिखरी हुई प्लेटों और टूटे हुए साजो-सामान को जब देखा जाता है तो महसूस होता हैहमारी ख़ुशी पल में पैदा होती है और पल में बिखर जाती है जैसे पौधों पर पल में गुलाब खिलता है और पल में बिखरने लगता है। पल-पल में खिलने और बिखरने वाला तत्त्व ही अगर ग़म और ख़ुशी है तो इंसान ग़म और ख़ुशी की तराज़ू पर तुलता रहेगा । तब कभी एक पलड़ा भारी तो कभी दूसरा पलड़ा भारी । हमने बचपन में गीत है सुना सुख-दुःख दोनों रहते जिसमें, जीवन है वो गाँव । कभी धूप तो कभी छाँव । जिन लोगों की समझ सामान्य है, वे केवल इसी किनारे का आनन्द लेते रह जाते हैं, उनके लिए कभी धूप है, कभी छाँव । लेकिन जिसने महावीर जैसी अन्तर्दृष्टि प्राप्त कर ली, पतंजलि की योगदृष्टि को उपलब्ध कर लिया, बुद्ध जैसी बोध - दृष्टि को अख़्तियार कर लिया उनके लिए संसार एक आँख मिचौनी का खेल है। वे संसार को आँख खोलकर धैर्यपूर्वक समझते हैं, जीवन में घटित होने वाली हर घटना, जन्म, यौवन, रोग, बुढ़ापा और मृत्यु होने पर निकलने वाली अर्थी को भी समझते हैं । उन्हें नहीं लगता कि दूसरे की मृत्यु हुई है, उन्हें तो वह मृत्यु भी खुद की मृत्यु लगा करती है। किसी दूसरे का जन्म अपना जन्म, - For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरे की जवानी अपनी जवानी, दूसरे का रोग अपना रोग, हर किसी की पीड़ा अपनी पीड़ा और दूसरे का बुढ़ापा अपना बुढ़ापा लगता है। जब सचेतन और आत्म-जागरूक व्यक्ति किसी अर्थी को निकलते हुए देखता है तो वह जीवन के बहुत सारे अर्थ निकाल लिया करता है। साधक व्यक्ति अगर ठोकर खाता है तो यह ठोकर भी उसे आत्म-जागृत करती है। आत्म-साधक दूसरे की जलती हुई चिता को देखकर अपनी चेतना को जगा लेता है। वह व्यक्ति किस काम का जो दूसरे की चिता को देखकर अपनी चेतना न जगा पाए, दूसरे की अस्थियों को बिखरता देखकर अपनी आस्था न जगा पाए । ज़िन्दे और मुर्दे में यही फ़र्क है कि जिन्दा जग सकता है और मुर्दा केवल सोया रहता है। जो व्यक्ति घटी हुई घटना को देखकर अपने भीतर किसी भी बोध की किरण नहीं उतार पाता ऐसा व्यक्ति मरा हुआ है। भगवान कृष्ण ने कभी अर्जुन से कहा था कि सामने खड़े हुए जिन लोगों को तुम अपना भाई, काका, मामा, पितामह समझते हो, लेकिन यदि वे धर्म का पथ छोड़ चुके हैं तो वे लोग मर ही चुके हैं और मरे हुए को नीचे गिराना पाप नहीं है। वे भाग्यहीन हैं जो सोए रहते हैं। सौभाग्यशाली होते हैं वे जो जाग जाते हैं। उगता सूरज हमें जगाता है और डूबता सूरज सुला देता है। ज़िंदगी में भी हम इसी तरह सोते और जागते हैं। जिसने समझ लिया कि 'नानक दुखिया सब संसार' - वे लोग जग जाया करते हैं और जो जग जाते हैं उन्हीं के लिए महावीर, बुद्ध, राम, रहीम और नानक का मार्ग सार्थक होता है। मार्ग की सार्थकता आत्म-जागृत लोगों के लिए ही है। श्री अरविंद ने एक अच्छा शब्द प्रयोग किया है - अभीप्सा, प्यास – कि जिसे बुझाए बगैर चैन ही न मिले । जब ऐसी तड़फन पैदा होती है तो जिनेन्द्र का, जितेन्द्र करने वाला मार्ग सार्थक होता है। आज से हम जिस मार्ग की ओर कदम बढ़ा रहे हैं, जिस समुद्र-तट पर चहलकदमी करने जा रहे हैं उसके प्रति सावधान रहें क्योंकि रास्ते में ज्वार-भाटे भी आएँगे और अपने ही भीतर के घेरे हमें घेरेंगे । मुमकिन है चलते-चलते हमें भी कोई प्रज्ञा की पतवार, जीवन की ऐसी नौका मिल जाए जो हमें इस किनारे से उस किनारे पहुँचाने में मददगार हो जाए। पता नहीं चलता कब कौन हमारा माँझी बन जाए। साधारण-सा दिखने For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाला भी, हमारे जीवन का माँझी बन जाता है। जैसे कि राम को नौका से नदी पार करवाने के लिए केवट के रूप में माँझी मिल गया। ताज्जुब की बात तो यह है कि राम नदिया पार करने के बाद अपनी ओर से केवट को कुछ मूल्य चुकाना चाहते हैं। यहीं हम ग़लती कर जाते हैं क्योंकि गुरु जो हमें पार लगाते हैं उन्हें भी हम भौतिक पदार्थ दे-देकर प्रसन्न करना चाहते हैं। ये तो माँझी ही केवट जैसा समझदार होता है जो राम को भी इस बात का बोध करा देता है कि जो इन्सान इन्सान को पार लगाता है उसे भौतिक पदार्थों से नहीं तौला जा सकता, उसको तौलने के लिए आध्यात्मिक भाव-भूमिका चाहिए । राम ने जब मूल्य चुकाना चाहा तो केवट ने यह कहकर लौटा दिया कि - प्रभु जी तुम भी पार लगाने वाले हो और हम भी पार लगाने वाले हैं। आज आपका काम अटक गया तो हमने आपका काम निकाल दिया, कल जब हमारा काम अटक जाए तो आप हमारा काम निकाल देना । राम समझ न पाए कि यह माँझी कहना क्या चाहता है। केवट मुस्कुराकर, आँखों में श्रद्धा के आँसू लाकर कहने लगा - जब एक नाई दूसरे नाई का और एक धोबी दूसरे धोबी का काम करता है तो पैसे नहीं लेता है। ऐसे ही रामजी ! तुम भी माँझी हम भी माँझी। माँझी ने माँझी का काम किया तो अहसान नहीं किया। आज तुम्हारा काम पड़ा हमने तुम्हें पार लगा दिया, कल जब हम संसार रूपी नदिया को पार लगाने आएँ तो तुम भी हमारे सामने चले आना, हमारी डूबती नैया को भव से पार लगा देना । आज मैंने अपना दायित्व निभाया है, कल जब मैं पुकारूँ तब तुम अपना दायित्व निभाना । मेरी करुण पुकार अनसुनी न कर देना। यह जो प्रभु को पुकारने की तमन्ना है यही हमें पार ले जाती है। उस पार से हमें न्यौता और मीठी पुकार आ रही है। जो सुनेगा वही किसी नौका की व्यवस्था करेगा। जो नहीं सुनेगा वह इसी किनारे पर चहलकदमी करते हुए अपने घरौंदे में वापस लौट जाएगा। बच्चे घरौंदे बनाते और तोड़ते हैं। माँ की पुकार आती है और बच्चे घरौंदे तोड़-तुड़ाकर निकल जाते हैं। जब तक हमें उस किनारे की पुकार नहीं आती है तब तक हम उन घरौंदों से मोह रखते हैं। अन्य किसी की पुकार पर घरौंदे नहीं तोड़ते लेकिन खुद की माँ, खुद के खुदा की ओर से जब पुकार आ जाती है तो इन घरौंदों से मोह नहीं रहता और अपने हाथों से For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनाए घरौंदों को अपने ही पाँवों से रौंदते हुए निकल जाते हैं। तब न कोई बच्चा होता है, न ही बीबी, न माँ-बाप और न ही कोई ज़मीन-जायदाद रोक पाती है। ये तो सब अपने मन की कमजोरियों के परिणाम हैं । जब तक मन कमज़ोर है तब तक ये सब घरौंदों की तरह लुभाते हैं, पर जिस दिन मन उस किनारे की पुकार सुन लेता है तो तोड़ देता है उन घरौंदों को और निकल पड़ता है दूसरे किनारे की खोज पर। महावीर का मार्ग तो जीतने का, उस पुकार को सुनने का मार्ग है। यह मार्ग होंठों को मौन रखने का और कानों को खोलकर सुनने का मार्ग है । महावीर ने शब्द दिया : ‘श्रावक' । श्रावक वह जो उस किनारे की पुकार को सुनता है। महावीर ने एक शब्द और दिया : ‘श्रमण' । श्रावक पहली सीढ़ी है और श्रमण दूसरी सीढ़ी है। जो सुनता है वह श्रावक और जो सुने हुए पर श्रम करता है, उसे साधता है और सिद्धि के मार्ग पर बढ़ जाता है वह श्रमण । केवल श्रावक होने से काम नहीं चलेगा। तब तक कोई भी व्यक्ति पक्का श्रमण नहीं बन पाता जब तक वह पक्का श्रावक नहीं बन जाता है। श्रमण तो बन जाएँगे, पर जब तक सही मार्ग सना और समझा ही नहीं तो श्रमण बन जाने से क्या होगा ? तब बीच रास्तों में भटक जाओगे, चौराहों पर जाकर खो जाओगे। आज अगर कुछ श्रमण कच्चे निकल जाते हैं तो इसका मूल कारण यही है कि वे पहले अच्छे श्रावक न बन पाए । वे मार्ग को ठीक ढंग से समझ न पाए। बिना सोचे-समझे कोई भी आदमी चलेगा तो परिणाम क्या होगा? आगे जाकर लौट आएगा। क्रिया महत्त्वपूर्ण नहीं है, क्रिया से भी महत्त्वपूर्ण है उसका ज्ञान । तपस्या महत्त्वपूर्ण है, पर उससे भी ज़रूरी है जो तपस्या की जा रही है उसका ज्ञान ! नहीं तो व्यक्ति तपस्या तो करेगा, पर साथ ही क्रोध भी करता जाएगा। तपस्वी क्रोध करता हुआ नज़र आता है, वज़ह ? वजह यही कि वह तपस्या के उद्देश्य को नहीं समझ पाता है, परिणाम-स्वरूप तपस्या कषाय के बंधन का निमित्त बन जाती है। पहले श्रावक बन जाएँ तो समझ में आ सकता है कि हमारी तपस्या का उद्देश्य ही कर्मों की निर्जरा करना है, कषायों का निरोध करना है। तब हमें भान रहेगा कि क्रोध, मान, माया और लोभ की कषाय रूपी चांडाल चौकड़ी को ख़तम करने के लिए हम तपस्या कर रहे हैं। पूर्व में बँधे प्रगाढ़ कर्मों को क्षय For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने के लिए तपस्या की जाती है। तपस्या करके भीतर के तमोगुण, रजोगुण और मनोविकारों के कर्दम से बाहर निकलने का प्रयत्न होता है। संत या मुनि महाराज बनने मात्र से कोई मुक्त नहीं हो जाता । मुक्त तो केवल वे ही हो पाते हैं जिनको भीतर का बोध जग जाता है, जिन्हें भीतर में उधर की पुकार सुनाई दे जाती है। जिन्हें उधर के किनारे की प्यास हो, तड़पन हो, वे ही लोग उस ओर कदम बढ़ा सकते हैं। मुक्ति के मार्ग की बातें सुन लेने से कुछ न होगा। त्याग की बातें करने से क्या मिलेगा ? त्याग का आदर्श उपस्थित करना होगा तभी सामान्य जन पर उसका प्रभाव होगा। भलाई के मार्ग को खुद के साथ जोड़ना होगा तभी सर्व साधारण पर उसका प्रभाव होगा। भलाई के मार्ग को खुद के साथ जोड़ लिया तो साधना बन जाएगा और दूसरों के साथ जोड़ लिया तो परमार्थ हो जाएगा। महावीर का मार्ग तो जीतने का मार्ग है, खुद को और खुद के स्वार्थों को, स्वयं के मोह-विकारों को जीतने का मार्ग है। महावीर की बातें तो गीता का शंखनाद है। जागें तभी सवेरा । सूरज उगने से सवेरा नहीं होता, सूरज तो रोज ही उगता है, मगर हम रोज ही सोए रहते हैं। सवेरा तब नहीं जब सूरज उगता है वरन् सवेरा तब है जब हम जगते हैं। अगर हम अमावस की रात में भी जग जाएँ तब भी सवेरा हो जाएगा। कहते हैं - गुरु नानकदेव को, आधी रात में प्रभु से मिलन हुआ, प्रभु का प्रकाश मिला। बताएँ, नानक के लिए सवेरा कब हुआ ? सूरज उगा तब या प्रकाश मिला तब ? ज़रूरी नहीं है कि कोई व्यक्ति संत बन गया तो सवेरा हो ही गया है। संत बनने के बाद भी सवेरा कई सालों के बाद हो सकता है। यह तो ईश्वर जिसके जीवन में सवेरा चाहता है उसके जीवन में सवेरा होता है। प्रभु के अनुग्रह के बिना, उनकी अनुपम कृपा के बिना फूल खिल नहीं सकता, प्रकाश उपलब्ध हो नहीं सकता। इसलिए चाहने के नाम पर प्रभु का अनुग्रह चाहो, करने के नाम पर प्रभु की प्रार्थना करो, धरने के नाम पर प्रभु का ध्यान धरो, प्रभु से अपनी लौ लगाओ, ईश्वर के साथ जिओ । यही वह बंदगी है जो हमें बंधनों से मुक्त करती है। एक संत भगवान का कीर्तन करते हुए रास्ते से आगे बढ़ता जा रहा था कि अचानक सामने से एक युवक आया और संत से टकरा गया । संत ने गालियाँ दे For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डालीं, अन्धा है क्या, दिखता नहीं है? युवक ने कहा - गुनाह माफ़ हो । मैं अपनी प्रेमिका को याद करते हुए चल रहा था कि कहीं वह घर से चली न जाए। इसी याद में मैं अपनी सुधबुध खो बैठा था और आपसे टकरा गया। मुझसे ग़लती हो गई। संत ने कहा - तेरे से इतनी बड़ी ग़लती हो गई है कि तूने मेरा ध्यान भंग कर दिया । युवक ने कहा - महाराज ! आपका ध्यान भंग हो गया, इसके लिए तो मैं क्षमा माँगता हूँ, पर मेरे मन में एक प्रश्न है। संत ने कहा - क्या है तुम्हारा प्रश्न ? युवक ने कहा - ध्यान आपका भी था और ध्यान मेरा भी था। आपको प्रभु का और मुझे अपनी प्रेमिका का ध्यान था। आप भी टकराए, मैं भी टकराया, पर मेरे मन में अब भी प्रेमिका का ध्यान है, पर आपके मन से प्रभु का ध्यान कैसे छूट गया ? जितनी गहराई में प्रेमिका या पत्नी बसी है जब उतनी ही गहराई में प्रभु का निवास होता है तब प्रभु हमारे क़रीब होते हैं। महावीर का मार्ग उन लोगों के लिए नहीं है जो मन से हारे हुए हैं, न ही उनके लिए है जो हार से घबरा कर बैठ जाते हैं । यह तो उनके लिए है जो हार जाएँ तब भी, फिर से अपने पैरों पर खड़े होकर चलना शुरू कर देते हैं। महावीर का मार्ग शांति का मार्ग है, यह आत्मा की सफलता का मार्ग है। सफलता कोई एक दिन में नहीं मिलती है। अब्राहिम लिंकन जो अमेरिका के राष्ट्रपति बने वे पहली बार में ही सफल नहीं हो गए। उनकी असफलता की फेहरिस्त इतनी लंबी है कि आश्चर्य होता है, लेकिन दाद देनी होगी उनकी हिम्मत और ज़ज़्बे को कि वे अन्ततः राष्ट्रपति बन ही गए । कहते हैं २१ वर्ष की आयु में शादी की लेकिन पत्नी से नहीं पटी, २२ वर्ष की उम्र में वार्ड मेम्बर का चुनाव लड़ा, हार गए। २४ साल की उम्र में दुकान खोली, उसमें घाटा हो गया। २७ साल की आयु में एम. एल. ए. का चुनाव हार गए। ४२ वर्ष की उम्र में पुनः सीनेट का चुनाव हार गए, ४७ साल में उपराष्ट्रपति का चुनाव लड़ा लेकिन नतीजा वही कि हार गए लेकिन ५२ वर्ष की आयु में वही लिंकन अमेरिका के राष्ट्रपति बने। हर सफलता के पीछे विफलता की कहानी होती है लेकिन दृढ़ इच्छाशक्ति व्यक्ति को अन्ततः सफल बनाती ही है। महावीर का मार्ग भी यही समझाना चाहता है। लिंकन अगर पहली या दूसरी हार में हारकर बैठ जाते या ५ For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निराश हो जाते तो क्या वह राष्ट्रपति-पद तक पहुँच सकते थे? हर तक़दीर के पीछे तदबीर की कहानी होती है। कामयाबी और सफलता के पीछे कोशिश और क़िस्मत दोनों जुड़ी रहती हैं। सफलता पाने के लिए तक़दीर, तदबीर और तकनीक तीनों को जोड़ना होता है। लेकिन अब तकनीक पहले, फिर तदबीर और तक़दीर, तब कहीं तरक्की मिलती है। तकनीक + तदबीर + तक़दीर = तरक्की। जीतने का ज़ज़्बा हो तो इस मार्ग पर आएँ । बनिया बुद्धि से इस मार्ग को नहीं जिया जा सकता। बनिया बुद्धि से चलेंगे तो हम महावीर के मंदिर बना लेंगे, मूर्तियों की प्रतिष्ठाएँ करवा लेंगे, जीमणवारी करवा लेंगे, तब धर्म केवल ऊपर-ऊपर होता रहेगा। परिणाम शून्य रहेगा। मंदिर बन रहे हैं अच्छी बात है, मैं कोई मंदिरों का विरोधी नहीं हूँ लेकिन यह सब ऊपर-ऊपर है, गहराई तक इसका कोई असर नहीं आएगा । गहराई से असर तब होगा जब हम अपने कषायों को जीतेंगे, अपने अहम् भाव को जीतेंगे, तारीफ़ सुनने की तमन्ना से उपरत होंगे, अभिनन्दन-पत्र पाने की आकांक्षा से मुक्त होंगे तब शायद हम महावीर के क़रीब हो सकेंगे। अपनी प्रशंसा और फूलों के हार को खुद लेने के बजाय महावीर की तस्वीर या मूर्ति को समर्पित कर देंगे तो शायद महावीर के अधिक क़रीब होंगे। मुझे आश्चर्य होता है कि लोग महावीर के नाम का चढ़ावा तो लेते हैं और माला महावीर को पहनाने की बजाय समाज से खुद पहन रहे हैं। ऐसे लगता है हम सारे लोग महावीर होने लग गए हैं । जो समर्पण महावीर के प्रति होना चाहिए वह समाज से खुद के लिए करवा रहे हैं। २५०० सालों में महावीर की पूजा बहुत हो गई। शायद पूजा करवाते-करवाते वे भी तृप्त हो गए होंगे। अब महावीर को पूजा की आवश्यकता नहीं है, वे चाहते हैं तुम खुद महावीर बनो। खुद के भीतर कुछ जीतने का ज़ज़्बा पैदा हो तो कह सकते हैं कि हम महावीर के क़रीब हए। नहीं तो महावीर हमसे बहुत दूर हैं। मैं सोचता हूँ या तो महावीर हमसे हजारों कोस पीछे छूट गए हैं या हम सब महावीर से हजारों कोस आगे आ गए हैं। अब न हम महावीर के साथ हैं और न महावीर हमारे साथ ! ऐसा लगता है हम हारे हुए जुआरी की तरह हैं, जीते हुए बाजीगर की तरह नहीं हैं। जीते हुए तेनसिंग-हिलेरी, एडीसन, अब्दुल कलाम, आज़ाद या For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्बानी की तरह नहीं हैं। हम सब हारे हुए लोगों की तरह रोज नया गेम खेलना चाहते हैं, रोज नई लॉटरी खुलने का सपना सँजोते हैं। रोजाना ज्योतिषियों के चक्कर काट रहे हैं। रोजाना नीलम, पुखराज या मोती का रत्न पहनने को लालायित हैं कि कहीं-न-कहीं, किसी-न- - किसी तरह से हमारी गोटी फिट हो जाए। दुनिया चल रही है, हम भी चल रहे हैं क्योंकि ये सब इस किनारे की बातें हैं । उस किनारे की बातें हमको पता ही नहीं हैं। संत भी इस किनारे पर खड़े हैं और शास्त्र भी इस किनारे पर पड़े हैं । कथावाचक भी इस किनारे पर हैं। सारे भव्य समारोह भी इस किनारे पर हो रहे हैं, मंदिरों का निर्माण भी इसी किनारे पर हो रहा है। उस किनारे की सुगंध किसको आ रही है ? वहाँ के मंदिरों की घंटियाँ किसको सुनाई दे रही हैं ? उस किनारे की रोशनी किसको दिखाई दे रही है ? चाँद उधर भी है पर हम तो अपनी ही चाँदनी में मस्त हैं । महावीर की चाँदनी कौन देखेगा ? हमारी कहानी इस किनारे की है। जो प्रबल पराक्रमी होता है वही उस किनारे की तरफ़ बढ़ता है बाकी तो इसी किनारे पर उलझे रहते हैं । ऐसा हुआ । नारदजी विष्णु जी के पास पहुँचे और कहने लगे भगवानजी ! आप यहाँ बैकुंठ में बैठे हो, कभी-कभी धरती पर भी जाया करो । धरती पर लोग कितनी तक़लीफ़ में हैं। वे आपको पुकार रहे हैं, आपके पास आना चाहते हैं और आप हैं कि किसी की सुधबुध ही नहीं लेते। भगवान ने कहा मैं तो सबको अपने पास बुलाता हूँ, पर कोई आना ही नहीं चाहता, मैं क्या करूँ ? नारद जी बोले आप तो ऐसे ही मुझे बना रहे हैं। विष्णुजी ने कहा- ऐसी बात है तो तुम स्वयं धरती पर चले जाओ । नारदजी सचमुच धरती पर चले आए। एक गाँव के बाहर पहुँचे । वहाँ देखा कीचड़ में, गंदगी में एक सुअर पड़ा हुआ था। उन्हें लगा ये सुअर बड़े दुःखी हैं, विष्ठा खाते हैं, कीचड़ में पड़े रहते हैं, गंदा पानी पीते हैं। इससे ज़्यादा नारकीय जीवन तो कोई नहीं जीता होगा । इसी को सबसे पहले बैकुंठ में ले जाता हूँ। उन्होंने सुअर को आवाज़ लगाई सूअरराम ! सूअर ने ध्यान न दिया। चार-पाँच आवाज़ें दीं कभी सूअरचंद, कभी सूअरसिंह । सूअरसिंह सुनते ही सूअर का सिंहत्व जाग उठा कि उसे 'सिंह' किसने कह दिया । कीचड़ से नथुना बाहर निकालकर जोर से फूँ.. ...... किया। फूँ करते ही कीचड़ उछला - For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और नारद जी के कपड़े ख़राब हो गए। नारदजी ने कपड़े झटकाए और सोचा बोलो भाई, क्या बात वे भी किसके पास पहुँच गए। ख़ैर, सूअरसिंह ने कहा है ? पूजा 1 नारदजी ने कहा ज़रा तमीज़ से बोलो, मैं नारद हूँ महर्षि नारद, मेरी तो देवता भी करते हैं। सूअर ने कहा- तुम महर्षि हो तो हमें क्या ? तुम यहाँ किसलिए आए हो । नारद ने कहा तुम्हें बैकुंठ धाम ले जाने के लिए सूअर ने पूछा- बैकुंठ ? यह किस बला का नाम है ? नारद ने बताया वहाँ बहुत सुख है, किसी तरह का दुःख नहीं है । सूअर ने कहा अच्छा, ऐसा भी कोई धाम है ? लेकिन हमें यहाँ भी कोई दुःख नहीं है, हम यहीं स्वर्ग का सुख जी रहे हैं। नारद ने ज़वाब दिया- ये सुख नहीं, भयंकर दुःख है । वहाँ सब कुछ शानदार है, हर ओर मखमल के गलीचे बिछे हैं । सूअर ने कहा मैं तुम्हारी बात मान लेता हूँ पर वहाँ ऐसी मखमली नरम-नरम कीचड़ है ? नारद ने कहा जिसे तुम नरम कह रहे हो वह गंदगी है गंदगी। उसने कहा - तुम्हारे लिए होगी गंदगी, हमारे लिए तो ए. सी. रूम है। अच्छा, बताओ हमें वहाँ पर स्वादिष्ट विष्ठा मिलेगी या नहीं ? - c - - नारद का माथा ठनका, अरे इसे तो बैकुंठ में ले जाना मुश्किल काम है । नारद सोच ही रहे थे कि सूअर ने पूछा क्या वहाँ बच्चे पैदा करने की छूट है ? नारद जी ने कहा वहाँ बच्चे-बच्चे पैदा नहीं किए जाते । सूअरसिंह ने जा रे तेरे ऐसे स्वर्ग का सुख तू ही भोग । जहाँ ऐसा स्वादिष्ट भोजन, यह ए. सी. रूम न मिले और बच्चों को पैदा करने की छूट न हो तो वह कैसा स्वर्ग, कैसा बैकुंठ । नारदजी ने सूअर को हाथ जोड़े और कहा धन्य है तुम्हें ! तुम नरकवासियों को स्वर्ग ले जाना बहुत बड़ी तपस्या है। कहा For Personal & Private Use Only - - - - नारदजी चले गए बैकुंठ धाम में और भगवान जी से कहा प्रभु आप ही अपनी माया जानते हैं। वास्तव में इन पृथ्वीवासियों को नरक में से स्वर्ग में ले जाना बहुत कठिन काम है। भगवान ने कहा- देख लो भाई, मैंने तुम्हें पहले ही कहा था ये सब उस किनारे के खेल हैं । हम लोग तो इस किनारे के लोग हैं I हमारी पुकार तो कोई विरला ही सुन पाता है। जन्म-जन्म से पुण्य अर्जित करने वाला आत्म-योगी ही उस संगीत को सुन पाता है । इस संगीत को सुनने वाले तो Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोई चन्दनबाला, कोई मीरा, कोई चैतन्य महाप्रभु ही होते हैं। उस किनारे पर उन्हें पंडे पुजारी मिलते हैं, इस किनारे के भगवान नहीं मिलते हैं। उस किनारे के भगवान को पाने के लिए व्यक्ति को जप-तप करना पड़ता है, सब कुछ त्यागकर भगवान के भजन में लयलीन होना पड़ता है, ज्योत से ज्योत जलानी और मिलानी होती है तब कहीं वह उस किनारे के भगवान से एकाकार और तदाकार हो पाता है। प्रभु से मिलना तो प्रकाश की ओर कदम बढ़ाने की तरह है। अगर उल्लू से कहा जाए कि दिन में उड़ान भरनी है तो वह कैसे भरेगा ? उसको अंधेरा ही अच्छा लगेगा। हम तो प्रकाश-पुंज के पथिक हैं और जिनके भीतर प्रकाश की ललक होती है, जिन्हें अपने अंधकार का बोध हो गया है, जो अपने मनोविकारों से मुक्त होना चाहते हैं, जो संसार के स्वरूप को समझ चुके हैं, विद्या को विद्या और अविद्या को अविद्या जान चुके हैं, जिन्होंने जड़ को जड़ और चेतन को चेतन समझ लिया है, वे ही लोग प्रभु की तरफ अपने क़दम बढ़ा पाते हैं। उन्हीं लोगों के भीतर प्रभु से मिलने का, प्रभु के साथ एकाकार होने का, निर्वाण और मोक्षपद प्राप्त करने के लिए प्रबल पुरुषार्थ, सत्त्वशील पराक्रम जग पाता है। यह भी एक तपस्या है। महावीर ने भी तपस्या पर बहुत बल दिया, लेकिन लोग भूल गए कि वे किस तपस्या की बात कर रहे थे। लोगों ने उपवास को ही तपस्या समझ लिया। उपवास को महावीर ने उतना ही महत्त्व दिया जितना रुपये में दस पैसे को दिया जाता है। उनकी तपस्या में उपवास के अतिरिक्त विनय रखना, सेवा करना, अच्छे शास्त्र और सत्साहित्य पढ़ना, आत्म-चिंतन करना भी तपस्या है। उनकी दृष्टि में तो भूख से दो कौर कम खाना भी तपस्या है। शीलव्रत का पालन, रूई के गद्दों का त्याग कर घास के बिछौने पर एकान्त शयन करना भी तपस्या है। इसलिए राम को, भरत को तपस्वी कहा गया क्योंकि उनके पास सब कुछ था फिर भी राम वचन की आन रखने के लिए और भरत भाई के दुःखों में उनके दुःखों का साथ देने के लिए घास के बिछौने पर सोने को तैयार हो गए। यह प्रेक्टीकल तपस्या है। उपवास रखते हुए अगर कोई दिन भर शांति, समता रखता है तो यह समता भी तपस्या है। लेकिन व्रत-उपवास में हो-हल्ला, For Personal & Private Use Only www.jainelibrorg Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाली-गलौच, क्रोध-कषाय करते हो तो यह तपस्या नहीं, विषमता है। महावीर का मार्ग जीतना और जिताना सिखाता है। एक जीतने वाला सिकन्दर और एक जीतने वाला महावीर कहलाता है। जीतते दोनों ही हैं, पर फ़र्क यह है कि एक हज़ारों लोगों को जीतता है, दूसरा स्वयं को, अपने-आपको जीतता है। महावीर कहते हैं दूसरों को जीतना आसान है, पर अपने-आप को जीतना हजारों लोगों को जीतने से भी ज़्यादा कठिन है। खुद को जीतना ही परम विजय है। हज़ारों लोगों को जीतने वाला अन्ततः खुद से तो हारा हुआ ही है। वह हारा हुआ है खुद के क्रोध से, अभिमान से, स्वार्थों से, मोह से, पत्नीपति, पुत्र-पुत्री के मोह से, सम्पत्ति-भूमि के व्यामोह से हारा हुआ है। जाति और वंश के नाम पर कहें तो दुनिया में करोड़ों जैन हैं। महावीर की परिभाषा में वास्तविक जैन वही है जिसने स्वयं को जीता है। इस दृष्टि से गिनेचुने लोग ही जैन की श्रेणी में आते हैं और उन्हीं लोगों से जैन धर्म गौरवान्वित है। अगर जाति के नाम पर कहा जाए तो करोड़ों हिन्दू हैं, पर मन की हीन-भावनाओं को दूर करके, कृष्ण के शंखनाद को सुनकर आत्म-विजय की ओर कदम बढ़ा देने वाले लोग गिनती के हैं और इन्हीं गिनती के लोगों के बल पर हिन्दू धर्म टिका हुआ है। कट्टरता फैलाने वाले मुसलमान बहुत हैं लेकिन अपने ईमान पर अडिग रहने वाले गिने-चुने हैं और उन्हीं ईमानदार मुसलमानों से ही इस्लाम धर्म गौरवान्वित है। ईसाई भी करोड़ों होंगे, पर ईश्वर के मार्ग पर हक़ीक़त में चलने वाले लोग, प्राणीमात्र में ईश्वर के दर्शन करने वाले कम ही हैं और उन्हीं से ईसाई धर्म गौरवान्वित है। ये गिने-चुने लोग ही हक़ीक़त में धरती पर देवता के समान हैं। मैं नहीं जानता कि देवलोक में देवता कहाँ रहते होंगे, पर ये थोड़े से हिन्दू, जैन, ईसाई, मुसलमान या अन्य डिवाइन लाइफ वाले लोग ही धरती के जीते-जागते देवता हैं। ऐसे देवता कहीं भी मिल जाएँ तो उनके चरण-स्पर्श ज़रूर करना, उनके पाँव की माटी को अपने माथे से ज़रूर लगाना, ऐसा करना किसी महान से महान मंदिर के, भगवान के चंदन की चुटकी से ज़्यादा मूल्यवान कहलाएगा। मुझे महावीर से प्रेम है क्योंकि उन्होंने खुद को जीता। उनके जीवन से मैंने भी रोशनी लेने की कोशिश की है। मुझे उनसे प्रेम है क्योंकि मैंने उनके चारित्र को १२ For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढ़कर अपने चरित्र को बनाने की कोशिश की है। मुझे उनसे प्रेम है लेकिन मैंने उनकी पूजा अधिक नहीं की है, पर उनके जीवन से बहुत कुछ सीखा है । हज़ारों साल पहले हुए किसी महान् इंसान की पूजा ही करते रहने की आवश्यकता नहीं है। हाँ, उनके जीवन से प्रकाश की एक किरण अपने भीतर, अपने जीवन में उतार लेना सच्ची पूजा और इबादत है। मोहम्मद साहब की जीवन भर इबादत करने की बजाय उनके जीवन से दो गुण भी अगर हम ले लेते हैं तो वे दो गुण हमारे द्वारा हज़ारों बार अदा की गई नमाज़ से ज़्यादा बेशकीमती हो जाएँगे । राम नाम की लोग डायरियाँ भर रहे हैं, भारत में राम के नाम की बैंक चलती है, अच्छी बात है, इसी बहाने लोग महापुरुषों का स्मरण तो करते हैं लेकिन मेरी विनम्र बुद्धि यही प्रेरणा देगी कि राम जी का नाम जिंदगी भर लेने की बजाय जैसा जीवन रामजी और भरत जी गए उसका आंशिक असर भी हम भाइयों के बीच आ जाता है, उसकी दो किरणें भी हमारे साथ जुड़ जाती हैं तो मैं समझता हूँ कि राम का नाम एक लाख दफ़ा लेने की बजाय यह अधिक बेशकीमती होगा। महापुरुषों की एक किरण भी हमारा भला कर सकती है। बाकी दुनिया के किसी महापुरुष ने नहीं कहा कि आप उनके नाम को जीवन भर रटते रहें। महापुरुषों ने सदा यही कहा कि उन्होंने जो नेकी और भलाई का मार्ग बताया है उन रास्तों पर चलें, यही उनका पंथ है, धर्म है। सिख वह नहीं है जो सिर पर केश रखता है, कटार लटकाता है, कंघा रखता है, कड़ा व कच्छा पहनता है। यह तो पहचान भर के लिए है। सच्चा सिख तो वह है जो अपने गुरु के बताये हुए रास्ते पर चलता है, सीख लेता है, शिक्षा लेता है। सिख का अर्थ ही शिष्य है। शिष्य होना ज़रूरी है। जिन्हें गुरु का मान-सम्मान मिल रहा है उन्हें भी यह मानना चाहिए कि वे शिष्य हैं, विद्यार्थी हैं। कोई गुरु माने तो माने यह उनका बड़प्पन है। तुम तो स्वयं को शिष्य मानो, चरण-किंकर मानो, दास मानो। मैं हूँ ठाकुर जी का दास, इसलिए नहीं रहता उदास। स्वयं को दास मानो, विद्यार्थी मानो । मालिक मान लिया तो गलती कर जाओगे। कौन मालिक ? किसका मालिक ? सबका मालिक एक है। कौन For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमीर है यहाँ पर ? दुनिया में दो ही तत्त्व हैं एक ग़रीब, दूसरा ग़रीबनवाज़ | तीसरा शब्द दुनिया के लोगों द्वारा पैदा किए गए शब्द हैं। गरीब अपन हैं और अपना रखवाला ऊपरवाला ग़रीबनवाज़। जब हम खुद ही सोच लें कि हम सारे लोग ही गरीब हैं, एक ऊपरवाला ही मालिक है, फिर किस बात का रहेगा अभिमान । कहते हैं : एक फ़क़ीर सम्राट् अक़बर के पास कुछ माँगने के उद्देश्य से पहुँचा। उसने देखा कि अक़बर नमाज़ अदा कर रहा है और खुदा के सामने झोली फैलाकर माँग रहा है कि हे खुदा ! मेरी झोली भरी रखना । राज दरबार को ठाठ से चलाए रखना। फ़क़ीर ने दूर से सुना और सोचा- ओह ! तो यह भी भिखारी है। मैंने सोचा मैं ही भिखारी हूँ पर यहाँ आने पर अहसास हुआ कि यह भी मेरी तरह भिखारी है। जब इसको और मुझे देने वाला एक ही है तो मैं इससे क्यों माँगूँ। उसी से माँगूँ जो सबको देने वाला है। जो इसकी झोली भरता है वह मेरी भी झोली भर देगा । यही सोचकर फ़क़ीर निकलने ही लगा कि तभी सम्राट् की उस पर नज़र पड़ी। सम्राट ने फ़क़ीर को पुकारा कि अरे भाई जाते कहाँ हो, मेरा नियम है कि जैसे ही नमाज़ अदा करके खड़ा होता हूँ तो जो भी मेरे दरबार में पहला याचक आता है मैं उसकी झोली भर देता हूँ | आओ आओ, तुम खाली हाथ मत लौटो, मेरी नमाज़ पूरी हो गई है, आ जाओ मैं तुम्हारी झोली भर दूँगा । फ़क़ीर ने कहा अब इसकी आवश्यकता नहीं है । अक़बर ने पूछा - क्यों ? फ़क़ीर ने कहा अब समझ में आ गया, जब ऊपर वाला तुम्हारी झोली भर सकता है तब क्या वही मेरी झोली नहीं भरेगा ? — - यह मार्ग उन फ़क़ीरों का मार्ग है जो जीत चुके हैं, जो अब दूसरों के आगे हाथ नहीं फैलाते । हाथ फैलाना होगा तो ऊपर वाले के आगे ही फैलाएँगे । ईश्वर ने हम सब लोगों को देने के लिए बनाया है लेने के लिए नहीं । इन्सान हैं तो इन्सानियत की इबादत करें, इन्सानियत की इज़्ज़त करें । इन्सानियत के हाथ माँगने के लिए नहीं, देने के लिए हों । हमारे दिल में दीन-दुखियों को मदद करने की भावना हो । हम सब किसी कार्य की शुरुआत करते हैं तो सफलता एक दिन में नहीं मिल जाती। इसके लिए सतत प्रयास और श्रम करना होता है। एक दिन में कोई १४ For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चलना नहीं सीखता। गिरते-पड़ते आखिर एक दिन दौड़ने भी लगता है। किसी विश्वविद्यालय का कुलपति एक दिन में उस पद पर आसीन नहीं हो जाता। उसके जीवन की शुरुआत तो तुतलाती भाषा से ही होती है। हम लोग भी जो धर्म के पथ पर चल रहे हैं, यह मानकर चलें कि आरम्भिक दौर में हम गिरेंगे भी, फिसलेंगे भी, दुनिया की मोह-माया भी लुभाएगी, कभी पत्नी का सिंदूर, कभी बहन की राखी, कभी माँ का आँचल, ये सब लोक-लुभावने रूप हैं, जो हमें रोकेंगे। लेकिन जो अन्तर्दृष्टि और बोधदृष्टि से समझेगा वह तो इन लोकलुभावन दृश्यों में भी उधर से आती हई किरण पर नज़र डाल ही लेगा। मगर जो खुद ही उल्लू बनकर बैठा है उसको अगर उधर से कोई किरण आती हुई दिखाई भी देगी तो वह अपनी आँख बंद कर लेगा, सोचेगा यह रोशनी कहाँ से आ गई। उसे यहीं पर सब कुछ अच्छा, प्यारा और रसभीना लगेगा। दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं जैसे कमल और कीड़ा । दोनों कीचड़ में होते हैं। कीड़ा कीचड़ में धंसता जाता है, पर कमल कीचड़ से बाहर निकल आता है। जो कीचड़ में गया वह भव-सागर में गया, जो कमल बन गया वह मुक्त हो गया । हम सब लोग खूब प्यार, मोहब्बत, मिठास से रहें मगर यह बोध रखते हुए कि कहीं मोह, अभिमान और लोभ के कीचड़ में न फँस जाऊँ। हमें मुक्त होना है, कमल का फूल बनना है। भले ही कीचड़ में पैदा हुए हों पर स्वयं को कमल की भाँति ऊपर उठाएँगे। हमारी मृत्यु मृत्यु नहीं, मुक्ति का महोत्सव बन जाए। हमें मौत न आए वरन् मुक्ति का महोत्सव घटित हो। हमारी मृत्यु निर्वाण का पर्व बन जाए । हमारी आँखों में सदा अरिहन्त, सिद्ध, बुद्ध लोग बसे हुए रहें कि जिन्हें याद कर-करके हम लोग आगे बढ़ सकें । हम लोग गुलाब को अपना आदर्श बनाएँगे तो गुलाब तक पहुँचेंगे। चाँद-सितारों को अपना आदर्श बनाएँगे तो वहाँ तक पहुँचेगे। जिसको हम अपना आदर्श बनाएँगे उस तक आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों पहुँच ही जाएँगे। हमारा पुरुषार्थ भव्य और पराक्रमी होना चाहिए । परिणाम अपने आप आएँगे। ऐसा हुआ कि मेरे हाथ में चोट लगी हुई थी तो जैसे ही सभा को सम्बोधित करके खड़ा होने लगा तो मुझे किसी के सहारे की आवश्यकता महसूस हुई। तभी एक युवक मेरे क़रीब आया। मैंने उसके हाथ में अपना हाथ For Personal & Private Use Only www.jainelibrally.org Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रखा और उतर गया। अगले दिन वही युवक मेरे पास आया, कहने लगा - आज के बाद मैं किसी तरह का व्यसन नहीं करूँगा। मैंने कहा - यह तो अच्छी बात हुई, पर आज तो मैंने ऐसी कोई प्रेरणा ही नहीं दी कि जिससे कोई व्यसन-मुक्ति के लिए प्रेरित होता । तुम्हें प्रेरणा कैसे मिली? उसने कहा - प्रेरणा तो इस बात से मिली कि कल जब आप पीठ पर से नीचे उतर रहे थे, आपने मेरे हाथ पर अपना हाथ रखा और नीचे उतरे थे। जैसे ही मैं घर गया मेरी माँ ने मुझसे कहा कि आज तू धन्य हो गया । गुरुजी ने तेरे हाथ पकड़ लिये । मुझे जर्दा खाने की आदत थी सो जैसे ही जर्दा खाने के लिए खैनी अपने हाथ में ली कि दो दृश्य याद आ गए - एक तो आपने अपना हाथ मेरे हाथ में रखा और दूसरा मेरी माँ के वचन कि बेटा आज तो तू धन्य हो गया । तब मेरा मन कहने लगा - जिन हाथों को गुरुजी ने थाम लिया उन हाथों से जर्दा, खैनी, गुटखा खाऊँ यह अब मुझे शोभा नहीं देता । गुरुजी मैं आपसे यही नियम लेने के लिए आया हूँ कि आज के बाद कभी किसी तरह के व्यसन का उपयोग नहीं करूँगा। ___मैंने कहा - चलो आओ। मैंने हाथ तो तुम्हारा अनायास ही थाम लिया था, पर तुमने ऐसा त्याग करके सच्चे तौर पर अपना हाथ मुझे थमा दिया। आओ अब हम नौका पर सवार होते हैं और उस किनारे की तरफ चलने का प्रयत्न करते हैं जिस किनारे की बात मैं कर रहा हूँ। हम सब मिलकर उस नौका को खेवेंगे। कोई भी बड़ा या छोटा नहीं है। हम सब साथ-साथ हैं। कोई आगे या पीछे चल रहा है यह ठीक नहीं है। हम सब साथ-साथ चलते हैं। अगर मैं गिर जाऊँ तो आप लोग थाम लेना । आप गिर जाओगे तो मैं आपको थाम लूँगा। इस तरह एक-दूजे को थामते-थामते हम लोग नैया को पार लगाएँगे, भव से पार लगेंगे और उस किनारे का आनन्द लेकर जीएँगे जिसे महावीर ने मोक्ष, बुद्ध ने निर्वाण, पतंजलि, राम और कृष्ण ने बैकुण्ठ कहने की कोशिश की है। आज प्रेमपूर्वक इतना ही। नमस्कार ! १६ For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुरुषों के अनुभव चुराएँ दुनिया की कोई भी वस्तु छोटी-सी हो सकती है लेकिन यदि उसी वस्तु का सही ढंग से इस्तेमाल कर लिया जाए तो वह साधारण-सी दिखने वाली वस्तु असाधारण परिणाम दे जाती है। यूँ तो शून्य, शून्य ही रहता है लेकिन उसी शून्य के पहले एक का अंक लग जाए तो वही शून्य एक से दस गुना हो जाता है। एक शून्य और लग जाए तो वही दस को सौ गुना कर देता है। हमारा जीवन जो साधारण दिखाई देता है, वह भी असाधारण परिणाम दे सकता है अगर उसका सही उपयोग किया जाए । इन्सान का एक वोट केवल एक वोट दिखाई देता है लेकिन वह एक वोट भी सत्ता-परिवर्तन का आधार बन जाता है। एक अकेला ध्रुवतारा हजारों नाविकों को मंज़िल तक पहुंचा सकता है। इन्सान की एक छोटी-सी मुस्कान सारे बोझिल वातावरण को सौम्य बना देती है। इत्र की छोटी-सी बूंद सारे वातावरण को सुंगधमय बना सकती है, इसी तरह किसी भी महापुरुष के जीवन का साधारण-सा घटनाक्रम भी इन्सान की जिंदगी को बदल सकता है। महापुरुषों का जीवन इतना महान होता है कि उसमें से ली गई एक घटना भी इन्सान को बदल सकती है। जैसे हवा का एक झौंका चलती हुई नौकाओं की दिशा बदल देता है, वैसे ही महापुरुषों के जीवन की छोटी-सी घटना हमारे लिए रोशनी का पैगाम बन जाती है। १७ For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहानी बताती है कि रत्नाकर डाकू को सप्त ऋषि मिले, उनके वचनों ने रत्नाकर को डाकू न रहने दिया, वरन् उसके जीवन को इतना बदल दिया कि वही आगे चलकर महान ऋषि वाल्मीकि हो गया । तुलसीदास की कथा से कौन अपरिचित है ? उनकी पत्नी रत्नावती के द्वारा की गई टिप्पणी कि - तुम्हें जितना राग काम के प्रति है उतना राग यदि राम के प्रति होता तो संसार से मुक्त हो गए होते। इस व्यंग्य ने तुलसी को महाकवि गोस्वामी तुलसीदास बना दिया। कहीं कुछ परिवर्तन होना हो तो छोटी-सी चिंगारी भी काम कर जाती है। सूरज की एक किरण भटके हुए इन्सान को राह दिखा देती है। परिणाम न निकले तो दुनिया के सारे शास्त्र निष्फल हैं। काम करना हो तो एक पंक्ति भी काम कर जाती है और काम न करना हो तो बड़े-बड़े शास्त्र धरे रह जाते हैं। कितनी ही दफ़ा तोप के गोले बेकार हो जाते हैं और बंदूक की गोली कारगर हो जाती है। हजारों सैनिकों का सैन्यबल बेकार हो जाता है और छोटे बच्चे से निकला तीर राजमुकुट को धराशायी कर देता है। तुलसीदास बदल गए, वाल्मीकि बदल गए। चंडकौशिक को महावीर ने कोई बहुत से शास्त्र नहीं सुनाए थे और न ही घंटों उपदेश दिया था। केवल इतना ही कहा था - बुज्झ .. । बोध को प्राप्त हो, हे जीव अब शांत हो । तू कब तक ऐसे क्रोध से परेशान होता रहेगा और कब तक अपनी आत्मा को क्रोध के ज़हर से विषपायी बनाता रहेगा। और चंडकौशिक बदल गया। अंगुलीमाल के लिए कहते हैं कि उसने नौ सौ निन्यानवे लोगों की हत्या करके उनकी अंगुलियों की माला बनाई, अपनी इष्ट देवी को पहनाने के लिए। उस माला में एक व्यक्ति की अंगुलियों की आवश्यकता थी। और तो कोई मिल नहीं पाया, बुद्ध मिल गए। जैसे ही उसने बुद्ध पर तलवार चलानी चाही कि बुद्ध ने कहा - तुम अगर मुझे मारना चाहते हो तो मारो, मैं तुम्हें इसकी रज़ा देता हूँ। लेकिन तुम ऐसा करो इससे पहले मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूँ। मैं तुमसे पूछता हूँ कि तुम्हारी तलवार जैसे मेरा सिर धड़ से अलग कर सकती है वैसे ही क्या इस पेड़ की टहनी को भी काट सकती है ? बुद्ध का तो इतना कहना हुआ कि अंगुलीमाल ने झट से तलवार निकाली और पेड़ की डाली पर चला दी। डाली पेड़ से अलग होकर गिर पड़ी। बुद्ध ने मुस्कराते हुए कहा - काटना तो Jairylucation International For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम्हारे हाथ में था, पर क्या तुम एक काम कर सकते हो ? अंगुलीमाल ने कहा - मैं निर्मम हूँ, मैं कुछ भी कर सकता हूँ । तब बुद्ध ने कहा- तुमने जिस SI को पेड़ से अलग कर दिया है, उसे वापस उसी स्थान पर जोड़ दो। अब अंगुलीमाल के चौंकने की बारी थी । उसने कहा यह कैसे सम्भव है, काटना तो मेरे हाथों में था, पर जोड़ना नहीं है । तब बुद्ध कहते हैं - महान् व्यक्ति वह नहीं होता जो जुड़े हुए को काटता है, वरन् जो कटे हुए को भी जोड़ना जानता है वह महान होता है। अंगुलीमाल अब तक तुमने काटा ही काटा है, अब तुम मेरे साथ आओ, मैं तुम्हें जुड़ने और जोड़ने की कला सिखाता हूँ। अभी तक तुमने मरने और मारने की कला सीखी है, अब मैं तुम्हें जीने की कला सिखाता हूँ। और तब अंगुलीमान के जीवन में परिवर्तन होता है। महापुरुषों का छोटा-सा शब्द भी बड़ा काम कर सकता है । महापुरुष हुए हैं, होते हैं और आगे भी होंगे। जो होंगे उनको हम नहीं देख सकते, जो हैं उन्हें पहचानने के लिए अन्तरदृष्टि चाहिए लेकिन जो हो चुके हैं उन वीतराग अर्हत् पुरुषों की वाणी वेद, पिटक, आगम, जिनसूत्र, कुरान, बाइबिल या गीता के रूप में आज भी हमारे बीच मौजूद है। जैसे लोग सूरज से रोशनी पाते हैं, चाँद-तारों से दिशाओं का निर्धारण करते हैं, हवाओं के आधार पर नौकाओं को पार लगाते हैं उसी तरह भले ही महापुरुष हमारे बीच न हों लेकिन उनकी वाणी आज भी हमारे जीवन में रोशनी का काम करती है। जो महापुरुषों की अंगुली थामने को तैयार हैं वे घर-संसार - परिवार की गोद से बाहर निकलें । वे अपनी मोह-ममता के आँचल से बाहर निकलें ताकि महापुरुष उनकी अंगुली पकड़कर उन्हें इस किनारे से उस किनारे तक, इस पथ से उस पथ तक, तलहटी से शिखर तक ले जा सकें । - महावीर महापुरुष हुए। वे अपने समय में जितने महान कहलाए आज के | समय में कहीं अधिक महान कहला रहे हैं । इस दुनिया की यही रीत है कि यह मरने के बाद ही पूजती है, मरने के बाद हर महापुरुष की प्रतिमा बनाती है, मंदिर बनाती है और उसकी पूजा करती है। जीते जी तो जीसस को सलीब पर चढ़ाते हैं, महावीर के कानों में कीलें ठोकते हैं। यह दुनिया भी ग़ज़ब है जब रामजी चले गए तो सारी दुनिया राम-नाम का जाप कर रही है, पर जब वे थे तब For Personal & Private Use Only १९ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोग उनकी भी आलोचना करते थे । अब सीताराम - सीताराम कर रहे हैं पर जब थे तब सीता पर भी अंगुलियाँ उठाते रहे। जब तक कृष्ण जीवित रहे तब उद्धव जैसे लोगों तक ने यह कहा कि कृष्ण तो गोपियों के पीछे पागल हैं। लेकिन आज उन्हीं गोपियों और राधा को याद कर-करके लोग अपनी जिह्वा को निर्मल करते हैं और अपने भव-भव के पापों को काटने में उनके पुण्य - प्रभाव का उपयोग करते हैं। मरने के बाद पूजना मनुष्य की पुरानी आदत है। यह अज्ञानता है, लेकिन अज्ञानता का पर्दा हटने की वज़ह से ही वह, मरने के बाद महापुरुषों की पूजा शुरू कर देता है। काश, यह पर्दा महापुरुषों के जीते जी हट चुका होता । तब गौशालक, गौशालक नहीं रहता, गौतम बन गया होता, रावण, रावण न होता वह भी बदलकर कोई सुग्रीव, हनुमान या विभीषण बन जाता । महापुरुषों का जीवन प्रकाश - किरण की तरह है । जब हम उन्हें याद करेंगे तो हमारे भीतर भी थोड़ी ही सही, महानता घटित होने की प्रेरणा जगेगी। सूरज को याद करेंगे तो सूरज की किरण प्राप्त करने की इच्छा होगी, फूलों को याद करेंगे तो फूलों की तरह खिलने की तमन्ना होगी, महापुरुषों को याद करेंगे तो उनकी तरह का चरित्र बनाने की भावना उठेगी। महापुरुष भले ही अतीत में हुए हों, लेकिन उन्हें अब भी चुरा लिया जाना चाहिए। हमने अचौर्य - व्रत की प्रेरणा पाई है फिर भी एक चोरी अवश्य कर लेनी चाहिए कि महापुरुषों के जीवन को, उनके अनुभवों को चुरा लें। उनके उस जीवन के मालिक बन जाएँ जिस जीवन के मालिक वे खुद बन गए थे। यह चोरी हमारा भला करेगी। अगर हम उनकी बातों और उनके ज्ञान के मालिक बन गए तो हम वह न रहेंगे जो हम वर्तमान में हैं। हम वो हो चुके होंगे जो वे खुद रहे थे । सोना अगर आग में जाएगा तो कुंदन बनेगा। अगर सोना कुन्दन न बन प्राए तो सोना खोटा । हम महापुरुषों की शरण में गए और प्रकाश की कोई किरण हमारे भीतर न उतर पाई तो इसका मतलब यही है कि हमारे लोहे पर जंग कुछ ज़्यादा ही चढ़ा हुआ है, हमें उसे घिसना पड़ेगा। महापुरुषों की मूर्तियाँ और फोटो तो बहुत बन चुके हैं लेकिन उनकी बातों को जीने वाले लोग कम हो गए हैं । इस दुनिया का भला मंदिरों और मस्जिदों से नहीं वरन् महापुरुषों की बातों २० For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को जीने से ज़्यादा होगा। राम का नाम लेने से भला नहीं होगा वरन् उनकी मर्यादाओं में से पन्द्रह प्रतिशत मर्यादाएँ भी अपने जीवन से जोड़ ली जाएँ तो हमारे घर, जीवन, समाज और व्यवहार में रामायण पुनः घटित हो सकती है। केवल पोथियों का अखण्ड पाठ भर कर लेने पर कबीर जैसे लोग कहेंगे - ___पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय । ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ।। ढाई आखर यानी प्रेम की बात । महापुरुषों से प्रेम कर डालो। पत्नी से प्रेम करोगे तो पत्नी तो एक दिन मर जाएगी। बच्चों से प्रेम किया तो वे तभी तक हमारे साथ हैं जब तक उड़ने के लिए उनके पंख नहीं लगते। तो प्रेम, महापुरुष से करो। गंगा से प्रेम करेंगे तो गंगोदक बन जाएंगे और नाले से प्रेम करेंगे तो गंदला नाला बन जाएँगे। गलत स्थान, गलत किताब, गलत आदत, गलत सोहबत = गलत जीवन । अच्छा स्थान, अच्छी किताबें, अच्छी आदत, अच्छी सोहबत = अच्छा जीवन । यही है जीने की कला। ___ मैं महापुरुषों से प्रेम करता हूँ और मैंने उनके जीवन से बहुत कुछ सीखने का प्रयत्न भी किया है। मैं किताबें टाइम-पास करने के लिए नहीं पढ़ता । यहाँ होने वाली चर्चा भी टाइम-पास करने के लिए नहीं है वरन् यह ज्ञान-चर्चा तो गंगोत्री से गंगाजल का छलकना है। बाती सुलग रही है, रोशनी बिखर रही है। जीवन में कुछ रचनात्मक करने के लिए मैं अच्छी किताबें पढ़ा करता हूँ। दुनिया की हर किताब अच्छी ही हो यह ज़रूरी नहीं है। मैं इस भाव के साथ किताब को पढ़ता या कुछ लिखता हूँ कि इसके जरिए मैं कुछ रचनात्मक काम कर रहा हूँ। __मैंने राम नाम की माला नहीं जपी फिर भी मैं राम से प्रेम करता हूँ क्योंकि मैं उनकी मर्यादा का कायल हूँ। मैंने राम से विपरीत हालातों में भी मुस्कुराना सीखा है तभी तो मैं राम का उपासक हूँ। आप तो राम की पूजा इसलिए करते हैं कि हिन्दू कुल में पैदा हो गए हैं। मैं राम की पूजा इसलिए करता हूँ क्योंकि उनके कुछ गुणों ने मुझे प्रभावित किया है और मैं उन गुणों को अपने साथ जोड़ने के लिए प्रतिबद्ध हुआ। राम की मर्यादा ! राम की मुस्कान ! मजा आता है। ये सब चीजें जीवन को मधुर स्वाद देती हैं। मैं कृष्ण से भी प्रेम करता हूँ। कृष्ण से मैंने कर्म करना सीखा। उनसे सीखा कि सबके बीच रहो फिर भी अनासक्त और For Personal & Private Use Only www.jainelibrarg Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्लिप्त रहो। यह कितनी बड़ी बात है कि हज़ारों गोपिकाओं से घिरा हुआ व्यक्ति भी अनासक्त ! यही तो है वास्तविक साधना-दृष्टि, अन्तर्दृष्टि, आत्मदृष्टि, प्रभु-दृष्टि कि सबके बीच में हैं पर किसी के भी साथ नहीं। हाँ, अगर राजी करना हो तो हज़ारों गोपिकाओं के साथ हजारों रूप में उपस्थित हैं । जीवन एक उत्सव है और कृष्ण के जीवन से यही उत्सवप्रियता सीखने को मिलती है। अगर भारत के धर्म में से कृष्ण को हटा दिया जाए तो यहाँ के सारे धर्म सूखे हो जाएँगे और सभी धर्मों में कृष्ण को जोड़ दें तो हर धर्म हँसता हुआ धर्म हो जाएगा। प्यार से मुस्कुराता हुआ, बाँसुरी की तरह सरसाता धर्म हो जाएगा। मैं कृष्ण की तरह बाँसुरी बजाना तो नहीं जानता, पर उस मुरलीधर को याद करके अपने जीवन को संगीतमय बनाने का प्रयास सदा बनाए रखता हूँ । जीसस ने मुझे सिखाया है कि यदि कोई व्यक्ति तुम्हारे प्रति ग़लत आचरण कर रहा है, अत्याचार कर रहा है, तुम्हें सलीब पर भी चढ़ा रहा है तब भी तुम अपने भीतर दया, प्रेम, करुणा और क्षमा की भावना को इतना जीवन्त कर लो कि तुम, तुम न रहो जीसस बन जाओ। जिस दिन व्यक्ति वह नहीं रहता जो वह है और जीसस बन जाता है, तब वह जीसस भी नहीं रहता, तब वह ईश्वर बन जाता है । मेरे हृदय में जीसस के प्रति सम्मान है । उनकी प्रेरणाएँ मेरे जीवन का लक्ष्य हैं। महावीर मेरे लिए वंदनीय हैं। कुल और जाति की दृष्टि से मेरा महावीर से कोई सम्बन्ध नहीं है लेकिन महावीर की निर्भयता, सहनशीलता, ध्यान-निष्ठा, उनकी प्रबल समाधि हमें उनकी ओर प्रबलता से आकर्षित करती हैं । व्यक्ति से हमें क्या मोह, उनसे हमें क्या लेना-देना । हमने उन्हें देखा या जाना तो नहीं है फिर उनसे कैसा मोह ? वह तो इतिहास की तारीख़ों के हस्ताक्षर बन गये । प्रत्यक्ष रूप से उन्होंने हमारा जीवन भी नहीं बनाया लेकिन फिर भी उनसे प्रेम है, उनका सम्मान है और आदर है क्योंकि उनका जीवन हमें शिक्षा देता है, स्वयं के जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है। उनका जीवन हमारे लिए मील के पत्थर का काम करता है, प्राची में उगने वाले सूरज का काम करता है, आशा का सवेरा जगाता है। जो महापुरुषों के जीवन से प्यार करते हैं वे धन्य हो जाते हैं। उनका २२ For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्याग, तपस्या, प्रबल सहनशीलता को याद करके मन अपने आप ही कहने लगता है : क्या कहूँ कि मैं क्या हुआ आज, कृतकृत्य कहूँ, चिर धन्य कहूँ। जब तुम आए मम हृदयराज, तब निज को क्यों न अनन्य कहूँ।। हे महापुरुषो ! तुम्हें जब याद करता हूँ तो तुम्हें कैसे बताऊँ कि तुम्हें याद करने से हमारे भीतर क्या हो रहा है ? तुम्हें याद करने से दिल देवालय बन रहा है। तुम्हें याद करने से आँखें छलक आती हैं, जिह्वा मिठास से भर जाती है। तुम्हें याद करने से मन, मन नहीं रहता मंदिर बन जाता है। इसीलिए साधारण बातें भी असाधारण परिणाम दे जाती हैं। जो बातें इतिहास हो गई हैं वे ही बातें हमारे लिए चमत्कार कर सकती हैं, हमें बदल सकती हैं, हमारा रूपान्तरण कर सकती हैं। हर बरगद कभी-न-कभी बीज ही होता है। हर विद्वान तुतलाती भाषा बोलने वाला बच्चा ही होता है कभी। बात बदलने की है, अगर बदल गए तो रंग निखरकर आ गया । न बदले तो कीड़ा सदा कीचड़ में ही समाया रहा। जो धंस गया वह कीड़ा बन गया, जो निकल आया वह कमल हो गया। महावीर हमें मुक्ति का कमल थमाते हैं, उनका जीवन ही हमारे लिए मुक्ति का कमल है। महावीर की परम्परा में उनसे पहले पार्श्वनाथ हुए। पार्श्वनाथ से पहले नेमिनाथ और नेमिनाथ से पहले इक्कीस तीर्थंकर और हुए। उनमें ऋषभदेव सर्वप्रथम हैं। यह एक लम्बी श्रृंखला है। जैसे दीप से दीप जलते हैं और आपस में जुड़े होते हैं, कंधे से कंधे मिले होते हैं ऐसे ही महापुरुषों से महापुरुष मोतियों की माला की तरह गुंथे होते हैं। महापुरुषों के नाम की माला फेरने की भूल न कर बैठना, न ही गले में पहन लेना। महापुरुष गले में धारण करने की चीज़ नहीं हैं, दिल में धारण की चीज़ हैं। ऋषभदेव को हुए अनगिनत वर्ष हो गए। वे एक राजकुमार थे, राजा भी बने। मगर दूसरे राजाओं की तरह युद्ध करके राज्यविस्तार नहीं किया। उन्होंने तो दुनिया को जीना सिखाया। ज़रूरी नहीं है कि व्यक्ति महात्मा या संत ही बने । वह राजा होकर भी २३ For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व का कल्याण कर सकता है। अग्रवालों के प्रथम गुरु अग्रसेन, महाराज ही थे, संत नहीं बने थे। फिर भी वे महापुरुष हो गए। अग्रसेन ने राजा होकर भी समाज को संगठित किया। लोगों को अहिंसात्मक तरीके से जीना सिखाया। भाई-भाई के काम आ सके इसका तजुर्बा दिया। इसीलिए आज भी अग्रवाल बंधु सारे संसार में छाए हुए हैं। जो सिखाए वह टीचर लेकिन जो आध्यात्मिक शिक्षा दे वह गुरु, मास्टर । टीचर और गुरु में फ़र्क है। टीचर सांसारिक जीवन चलाने की सीख देता है और गुरु आध्यात्मिक जीवन की पर्ते खोलता है। इस दृष्टि से ऋषभदेव, कृष्ण, नानक, अरविन्द सभी गुरु हुए । ऋषभदेव राजा थे, पर उन्होंने जनता को दोनों तरह की शिक्षाएँ दीं। उन्होंने सिखाया कि कैसे लिखा जाए, कैसे खेती की जाए, कैसे शस्त्र और हथियार चलाए जाएँ तथा कैसे अपनी रक्षा की जाए। इसलिए ऋषभदेव पहले टीचर हुए जिन्होंने राजा होकर भी दुनिया को सिखाया और संन्यस्त होने के बाद अध्यात्म का मार्ग प्रशस्त किया। __ भारतवर्ष के महान सम्राट अशोक ने दुनिया को अहिंसात्मक तरीके से राज्य करना सिखाया। महावीर ने संत होकर दुनिया को अहिंसा का पाठ पढ़ाया । बुद्ध ने श्रमण बनकर करुणा का पाठ सिखाया लेकिन अशोक ने तो राजा होकर अहिंसात्मक तरीके से राज्य का संचालन करना सिखाया। गांधी ने अहिंसात्मक तरीके से देश की स्वतंत्रता हासिल करना सिखाया। दुनिया के इतिहास में ऐसे पन्ने किस्मत से ही लिखे जाते हैं कि देश को अहिंसात्मक तरीके से आज़ाद करवाया जा सकता है। उन्होंने अहिंसा और अपरिग्रह को अपने जीवन के साथ जोड़ लिया था। आज जहाँ राजनेता अपनी जेबें भर रहे हैं वहाँ गाँधी ने ऐसी गाँधीगिरी की टोपी चला डाली कि लोग उस टोपी को सिर पर पहनना भी अपना सम्मान समझते हैं। यह महापुरुषों का जीवन है। ऋषभदेव ने राजा बनकर तो दुनिया को असि, मसि, कृषि की शिक्षा दी ही, लेकिन जब वे श्रमण, वैरागी, जोगी बन गए तो अनुत्तर योग का पाठ पढ़ाया। जंगलों में जाकर जपे-तपे और ऐसे तपे कि न केवल वे स्वयं श्रमण और भिक्षु बने, बल्कि अपने अट्ठानवें पुत्रों को भी संन्यास का मार्ग दे दिया। इतना ही नहीं उनके दो पुत्र भरत और बाहुबली चक्रवर्ती बनने की ललक में २४ For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपस में झगड़ पड़े तो उन्होंने बाहुबली के लिए भी संन्यास का मार्ग प्रशस्त कर दिया। बाहुबली ने अपने बड़े भाई को युद्ध में पराजित करने की बज़ाय, अपनी उठी हुई मुट्ठी से भाई पर प्रहार करने की बजाय अपने सिर के बालों का लुंचन कर लेना बेहतर समझा और बाहुबली श्रमण बन गए। आज भी श्रवणबेलगोला में उनकी विशालकाय आदर्श प्रतिमा विद्यमान है भव्य, सुन्दर और नयनाभिराम । आज भी लगता है जैसे नव्य हो । ऋषभदेव के जीवन से हमें कर्म करने की प्रेरणा मिलती है, साथ-ही-साथ वैराग्य की भी प्रेरणा मिलती है। ऋषभदेव खुद मुक्त हों उससे पहले अपनी माँ मरुदेवी के लिए मोक्ष के द्वार खुलवा दिए । यही तो विशेषता है कि बेटा स्वयं का उद्धार करे उससे पहले अपने माता-पिता की मुक्ति की व्यवस्था कर दे तो उसका संतान होना सार्थक हो जाता है। संतान का जन्म इसीलिए होता है ताकि माता-पिता की गति सद्गति हो सके। नेमिनाथ ऐसे महापुरुष हुए जिन्होंने जीवदया से प्रेरित होकर प्राणी-मित्र और विश्वमित्र की भूमिका निभाई और न केवल पीड़ित जनता वरन् पशु-पक्षियों की पीड़ा को दूर करने के लिए उन्होंने सारे संसार को करुणा का पैग़ाम दिया। नेमिनाथ महाकरुणावतार हैं। राजाओं का जमाना था अतः वैवाहिक व अन्य अवसरों पर बलि दी जाती थी। पशु-पक्षियों का वध किया जाता और मांसाहार करवाया जाता। लेकिन नेमिनाथ ने कहा - मैं ऐसा विवाह नहीं करना चाहता जिसमें किसी एक व्यक्ति के आनन्द के लिए किसी एक व्यक्ति के राज-वैभव को दिखाने के लिए हज़ारों-हज़ार पशुओं की बलि दी जाए । हज़ारों-हज़ार पशुओं के वध की बजाय मैं अपने विवाह की बलि देता हूँ और तब वे विवाह करने की बजाय वापस लौट गए। और निकल गए गिरनार पर्वत की ओर जहाँ उन्होंने वैराग्य धारण कर लिया। तब नेमिनाथ की होने वाली अविवाहिता पत्नी राजुल उनके पास जाकर कहती है - प्रभु आपने मुझे अपनी पत्नी तो नहीं बनाया पर आप मुझे अपने चरणों की दासी बना लीजिए, दीक्षा देकर मुझे धन्य कर दीजिए। तब राजुल ने कहा - सौभाग्य कहाँ सहगमन करूँ, अनुगमन करूँ ऐसा वर दो। जो हाथ, हाथ में नहीं दिया, वह हाथ शीष पर तो धर दो। For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब जो जनम-जनम के मीत थे, वे राजुल और नेमिनाथ मुक्ति के मुसाफ़िर बन गए, मुक्त हो गए । प्रेम हो तो नेमी और राजुल जैसा । अनुराग हो तो नेमी और राजुल की तरह । पति-पत्नी हों तो नेमी-राजुल जैसे जिसमें व्यक्ति मरेगा नहीं मुक्त होगा। अकेला ही मुक्त नहीं होगा, वरन जिसके साथ फेरे लेते वक़्त जीने मरने की कसमें खाई थीं, उसकी मुक्ति का भी प्रबंध करेगा। तब वह अमर सुहाग का मालिक बनेगा। जैसे नेमिनाथ ने संन्यास लिया वैसे ही मेरे पापा ने भी संन्यास लिया और न केवल पापा ने वरन् मेरी मम्मी ने भी संन्यास लिया । जैसे नेमी और राजुल प्रेम के सूत्र में बंध गए थे वैसे ही मेरे मम्मी पापा भी प्रेम के सूत्र में बंध गए थे। उन्होंने पति-पत्नी के रूप में जीवन की शुरुआत ज़रूर की, मगर समापन पतिपत्नी के रूप में नहीं किया। उन्होंने अपने जीवन के समापन के लिए परमेश्वर का हाथ थाम लिया। मेरे पापा ने अकेले ही परमेश्वर का हाथ नहीं थामा, मम्मी ने भी पापा के साथ परमात्मा का हाथ थाम लिया और दोनों ही मुक्त हो गए। मेरे पिता केवल पत्नी का हाथ थामते तो साधारण इन्सान की तरह उनकी मृत्यु हो जाती लेकिन उन्होंने परमात्मा का हाथ भी थाम लिया और संसार से ऊपर उठ गए। मेरी माँ केवल पति का हाथ थामतीं तो सिर्फ सुहागन कहलातीं लेकिन उन्होंने ऐसे पति का हाथ थामा जिसने आगे जाकर परमात्मा का हाथ थामा और उन्हें भी उसी डगर का राही बनाया । तब वो ऐसे पति की सुहागन बनीं कि अमर सुहागन हो गई, उनका सुहाग कभी उजड़ नहीं सकता। सिन्दूर से ही अगर सुहाग का शृंगार करोगे/करते रहोगे तो यह सिन्दूर तो रोज लगेगी और रोज पुंछेगी। सिन्दूर ऐसा लगाओ कि जो हर दूरी को दूर कर डाले । नेमिनाथ मुक्त हो गए, मेरे पिता भी मुक्त हो गए। मैं भी अगर घरगृहस्थी के झमेलों में उलझ जाता तो क्या होता ? एक बीवी होती, दो बच्चे और घर से दुकान, दुकान से घर के बीच 'गधा-खाटनी' वाली दिनचर्या होती, घाट से घर और घर से घाट ! लेकिन मेरी जिंदगी ने भी नए मोड़ लिए, नई दिशाएँ देखीं। परमात्मा का हाथ थामा और अपने हाथों को उसके केसरिया रंग में रंग लिया। आपको हाथ थामना पड़ता है, पर मेरा हाथ तो उसने थाम ही लिया है। प्रभु तो हमारे करीब आने को तैयार हैं, बशर्ते हम थोड़ा-सा प्रभु के करीब जाने २६ For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को तैयार हो जाएँ। प्रभु तो हमें अपनी दौलत देने को तैयार हैं बशर्ते हम अपनी थोड़ी-सी दौलत उन्हें लुटा दें। प्रभु हमारी दरिद्रता हरने को तैयार हैं बशर्ते हम दरिद्रों की दरिद्रता दूर कर दें । प्रभु हमें रास्ता दिखाने को तैयार हैं, बस हम पहले पथहारों को रास्ता दिखा दें। दस कदम उसकी ओर बढ़कर तो देखें वह सौ कदम बढ़कर हमारी ओर आ जाएगा। उसके लिए चार आँसू बहाकर तो देखें वह हमें अपनी आँखों के गंगाजल से अभिषिक्त कर देगा । उसका अनुग्रह अनूठा है, असीम है। उसकी कृपा अपार है। जो घूँट - घूँट पीता है वही जानता है उसकी कृपा कितनी है । जो दिल के देवालय में उसका ध्यान धरता है वही जानता है कि उसकी कृपा कितनी अनूठी है । जो आँखों में उसके दिव्य स्वरूप को बसाता है वही समझता है कि उसका नूर कैसा है। जो उसका नाम लेकर दिन की शुरुआत करता है वही जानता है कि जिह्वा पर उसका स्वाद कैसा है, उसका माधुर्य कैसा है। मैं तो बस महापुरुषों के जीवन से रोशनी लेकर जीवन का मज़ा लेता हूँ और जो रस पाता हूँ वह आप लोगों के साथ बाँट लेता हूँ । 1 राजकुमार पार्श्वनाथ ने गंगा के किनारे कमठ द्वारा की जा रही पंचाग्नि तपस्या को देखा। वे देखते हैं कि कमठ लकड़ियाँ जलाकर तपस्या कर रहा है। वे वहाँ पहुँचे और ध्यान से देखने पर पाया कि लकड़ियों के बीच में साँप का एक जोड़ा भी जल रहा है। उन्होंने कमठ तपस्वी को ललकारा और कहा कि ऐसा तप किस काम का जिसमें जीवों की हिंसा, हत्या हो रही हो । वे लकड़ियों को निकालते हैं और उसमें जलते हुए सर्प और सर्पिणी दिखाते हैं । अग्नि में झुलसे हुए सर्प - सर्पिणी को पार्श्वकुमार धर्म-मंत्र सुनाते हैं । यह घटना हमें सिखाती है कि जीवन में हमें भी अगर कोई घायल इन्सान या पशु-पक्षी मिल जाए तो हमें भी उसे धर्म-मंत्र सुनाना चाहिए और उसके उपचार की तुरंत व्यवस्था करनी चाहिए। धर्म-मंत्र को सुनकर उस नाग-युगल का उद्धार हो गया । वे मरकर धरणेंद्र और पद्मावती के रूप में देव बन गए। हम भी किसी घायल की अन्य किसी प्रकार की सेवा न कर पाएँ तो कम-से-कम धर्म - मंत्र तो सुना ही सकते हैं । यह भी बड़ी सेवा होगी, यह जीवदया और विश्वमैत्री को साधने का सूत्र होगा। हम विश्वमित्र बन जाएँ, सबके मित्र । घर, परिवार, बीवी-बच्चे, रिश्तेदार, समाज सबके मित्र बन जाएँ । धर्म हमें विश्व - मित्र बनने का संदेश For Personal & Private Use Only २७. Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देता है। प्राणी मात्र से मैत्री, सबकी सेवा, सबसे प्रेम । पार्श्वकुमार का जीवन हमें प्रेरणा देता है कि अज्ञान - तप कभी मत करना । तप भी ज्ञानपूर्वक करें ताकि वह आत्मशुद्धि ला सके, मन के विकार क्षय हो जाएँ, मन के विकारों की गाँठें खुल जाएँ । शरीर को तपाना तो एक आधार है । तपाने का उद्देश्य तो मक्खन को तपाने जैसा है। मक्खन से घी बनाने के लिए तपेले को तपाना पड़ता है | काया भी तपेले की तरह है लेकिन इसे तपाना हमारा उद्देश्य नहीं है। हमें साधना मार्ग से अन्तिम लक्ष्य-मुक्ति को पाना है। मक्खन से घी की तरह । मेरा मत है कि भारतवासियों को सप्ताह में एक दिन व्रत अवश्य करना चाहिए क्योंकि प्रायः सभी मोटापे के शिकार हो रहे हैं। शरीर की ताकत कम और फुलाव अधिक हो गया है। अतिरिक्त, एक्सट्रा चर्बी अच्छी नहीं लगती । अज्ञान-तप हटाओ, ज्ञानमूलक तप जोड़ो। सप्ताह में एक दिन व्रत करने पर एक समय खाना खाएँगे तब कुछ समय शरीर से हटकर आत्म-ज्ञान की ओर मन जाएगा। ‘स्वस्थ इन्सान, स्वस्थ संसार' यह हमारा नारा हो जाना चाहिए । इन्सान के स्वस्थ रहने पर ही स्वस्थ समाज का निर्माण होता है। इसलिए ज़रूरी है कि भोजन की आवश्यकता कम की जाए। घर से ही प्रारम्भ हो । घर को तपोवन बनाएँ और जीवन को तपस्या । पार्श्वनाथ तपस्या में रत थे तब मेघमाली ने उन पर बर्फ़ की शिलाएँ गिराईं, उनकी तपस्या में नाना प्रकार से विघ्न डालने की कोशिश की, लेकिन वे अविचल रहे और सारी विषमताओं को सहन करते हुए समता की प्रतिमूर्ति बन गए। जब प्रभु पार्श्वनाथ बर्फ़ की शिलाओं को सहन कर गए तो हम किसी की ग़ालियों को, अपशब्दों को तो सहन कर ही सकते हैं। जीसस कहते हैं - कोई तुम्हारे एक गाल पर थप्पड़ मारे तो तुम दूसरा गाल भी उसके सामने कर दो । यह दया और प्रेम की पराकाष्ठा है। दुनिया में ऐसा कोई करता नहीं है। हाँ, यदि कोई ऐसा करता है तो निश्चित ही वह ईसा मसीह का अमृत पुत्र है । महावीर जैसे बेशकीमती फूल धरती पर कभी-कभी ही खिलते हैं। ऐसा लगता है कि दुनिया के बगीचे में खिला यह अद्भुत, अनूठा स्वर्ण-कमल है। उनका नाम लेने मात्र से जिह्वा पर मिठास आ जाती है। जिनका ध्यान करने मात्र से दिल का स्वरूप दैवीय हो जाता है, जिनका दर्शन करने के लिए मन तृषातुर २८ For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो जाता है हम उनके जीवन को अपना जीवन बना लें। उनकी तपस्या को अपनी तपस्या बना लें। जितना गहन एकान्त, मौन और ध्यान महावीर ने जिया वह हर इन्सान के लिए एक आदर्श है। हर संत और साधक के लिए महावीर अद्वितीय, अप्रतिम प्रेरणा हैं। महावीर को आदर्श बनाए बिना कोई भी व्यक्ति अपनी साधना को पूर्णता नहीं दे सकता। महावीर प्रेरणा के प्रकाश-पुंज हैं। ध्यान में बैठने से पहले हर साधक को दो मिनट के लिए महावीर के जीवन का ध्यान ज़रूर कर लेना चाहिए । महावीर ने लगातार साढ़े बारह वर्ष की जो मौन साधना की, जिस गहन एकांत को देखा उसको दिल-दिमाग में बसाते हुए अपने हृदय के ध्यान में उतरना चाहिए। तब अपने आप चित्त में शांति आएगी और मोह तथा आसक्ति कम हो जाएगी, मन के विकार शिथिल पड़ जाएँगे । महापुरुषों को याद करने का अर्थ और उद्देश्य यही है कि हमारे दिल में निर्मलता और पवित्रता आ जाए। ध्यान में जाने से पहले महावीर के उस पवित्र स्वरूप को, उस दिगम्बर त्यागमय वीतराग मुद्रा को, उस ज्योतिर्मय सिद्ध-बुद्ध-मुक्त स्वरूप को याद कर लीजिए और तब ध्यान में उतरिए। उनके स्वरूप का स्मरण ही किसी सद्गुरु का कार्य कर जाएगा। जैसे पत्थर से पत्थर को रगड़ने से अग्नि पैदा होती है वैसे ही महावीर को याद करने से हमारी मानसिक नपुंसकता दूर हो जाएगी। ___ गीता को लोग इसीलिए पढ़ते हैं कि मन की नपुंसकता दूर हो और भीतर में आत्म-विश्वास की अलख जगे। गीता के भगवान कहते हैं कि अपने हृदय की तुच्छ दुर्बलताओं का त्याग कर आओ और कर्त्तव्य-मार्ग के लिए लग जाओ, घबराओ मत, मैं तुम्हारे साथ हूँ। एक कदम आगे तो बढ़ाओ। हमारा मन नपुंसक और कमजोर हो जाता है। चाहते तो हैं कि कुछ करें पर इससे पहले मन इधर-उधर भटका देता है। महावीर से मौन की, शांति की प्रेरणा लें, एकनिष्ठ ध्यान की प्रेरणा लें। ऐसे गहन ध्यान की प्रेरणा कि किसी भी प्रकार की ध्वनि यहाँ तक कि चिड़ियों की चहचहाहट भी बाधा न बन सके, तभी तो महावीर हमारे लिए सार्थक बनेंगे । महावीर की तरह बोधपूर्वक बोलें, बोधपूर्वक चलें, बोधपूर्वक खाएँ, हर कार्य बोधपूर्वक सम्पादित करें तो यह सब हमारे लिए अहिंसा को जीने का पाठ बन जाएगा। For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं महावीर का उपासक हूँ पर उनकी दिन-रात पूजा नहीं करता हूँ। महावीर को जीने की कोशिश अधिक करता हूँ। महावीर, ऋषभदेव, पार्श्वनाथ, नेमिनाथ आदि महापुरुष हैं तो मोहम्मद साहब, बुद्ध भी महापुरुष ही हैं। महापुरुष तो महापुरुष होते हैं फिर वे शंकराचार्य, नानकदेव, जरथुस्त्र, प्लेटो, सुकरात कोई भी हों । उनके अनुभवों को चुराओ, उनके जीवन को अपने जीवन में जिओ । यदि तुम उनके जीवन के मालिक बन जाओगे तो महापुरुषों को याद करना सार्थक है अन्यथा महापुरुषों के मंदिर तो बहुत बन गए । महज मंदिरों से कोई सुधरने वाला नहीं है। महावीर की अहिंसा, बुद्ध की करुणा, कृष्ण का कर्म दुनिया को सुधारेगा । अहिंसा, अचौर्य, अपरिग्रह और अनेकान्त को जिओ। अगर आप शाकाहारी हैं और अहिंसा को जीना चाहते हैं तो प्रण लें कि महीने में किसी एक मांसाहार करने वाले व्यक्ति को शाकाहारी बनने की प्रेरणा देंगे। अगर वह पूरी तरह शाकाहार ग्रहण न कर पाए तो सप्ताह में एक दिन शाकाहार अवश्य करे । अगर हम ऐसी प्रेरणा दे पाएँ तो लाखों लाख जीवों को कत्ल होने से बचाया जा सकता है। उन लाखों जीवों की करुणाभरी दुआएँ ज़रूर हमारा कल्याण करेंगी। ___ महापुरुष यानी अच्छी संगत, अच्छा स्थान, अच्छी वाणी = अच्छा जीवन । महापुरुषों के सम्पर्क में आकर उनकी वाणी का पठन, श्रवण और पारायण करते हैं और अपने तन, मन तथा जीवन में उनकी सुवास को थोड़ा-सा भी स्थान देते हैं तो ये साधारण-सा दिखने वाला तन-मन असाधारण परिणाम दे सकता है। तब हम कह सकते हैं कि हम वो हैं जो दिखने में कण भर हैं परिणाम आ जाए तो कण से मण भर हो जाएँगे। महापुरुषों के दीप मेरे दिल में जले हैं, आपके दिल में भी जलें, पूरी दुनिया में जलें और उनके ज्ञान का प्रकाश सारी दुनिया में फैलकर सभी को आलोकित करे। हर निष्ठाशील, श्रद्धाशील और उनके भक्तवृंद को यह प्रयत्न करना चाहिए कि महापुरुषों के ज्ञान का प्रकाश सर्वत्र विस्तीर्ण हो। आने वाले कल की रोशनी में और वृद्धि हो, ज्ञान, प्रेम और भाईचारे में और अधिक बढ़ोतरी हो सके, ऐसा प्रयत्न हम सब लोगों का ज़रूर होना चाहिए। ___ आज के लिए प्रेमपूर्वक इतना ही अनुरोध है। ३० For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्र: धर्मका प्रवेश-द्वार जीवन के आध्यात्मिक सौन्दर्य की ऊँचाई प्राप्त करने के लिए धर्म प्रवेश-द्वार की तरह है। जैसे ज़मीन में प्रवेश पाने के लिए बीज एक द्वार का काम करता है, मकान में प्रवेश पाने के लिए मकान का द्वार माध्यम बनता है ऐसे ही आध्यात्मिक ऊँचाइयों को प्राप्त करने के लिए धर्म द्वार का काम करता है। यदि संसार को बहुत बड़ा महल मान लिया जाए तो धर्म उस महल में प्रवेश करने का द्वार है। प्रश्न है कि धर्म में प्रवेश प्राप्त करना हो तो उसका जरिया, उसका आधार, उसका माध्यम कौन होगा? ज्ञानी महापुरुषों की दृष्टि में धर्म में प्रवेश करने का दरवाजा मन्त्र हुआ करता है। मंत्र के जरिए हम धर्म में प्रवेश कर सकते हैं। धर्म का अर्थ है धारण करना। स्वयं को धारण करना, दूसरों को धारण करना, एक-दूसरे को धारण करना ही धर्म है। लेकिन जब हम स्वयं को धारण करने की बात करते हैं, स्वयं में प्रवेश करने को कहते हैं तो मन्त्र इसका पहला पगथिया बनता है। साधारण व्यक्ति भगवान के साकार या निराकार रूप के साक्षात दर्शन कर पाए यह मुमकिन नहीं है लेकिन वह भी भगवान के नाम का कीर्तन या नाम मन्त्र का उच्चारण सरलता से कर सकता है। मन्त्र का उच्चारण, मन्त्र का स्मरण, मन्त्र का ध्यान करना मन्त्र में प्रवेश करने का राजमार्ग है। जो हमारे मन को तार दे उसी का नाम मन्त्र है। जिससे हमारे मन की स्थिति सुधर For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाए वह मन्त्र है। जो हमारे मन के कषायों को, मन की लेश्याओं को, मन के घेरों को निर्मल कर डाले वही मन्त्र है। संसार के प्रपंचों से ऊपर उठाकर जो हमें असंसारी जीवन के दर्शन कराता हो उसका नाम मन्त्र है। मन्त्र कोई सामान्य शब्दावली नहीं है वरन् वह दिव्य प्रकाश-किरण है जिसके सहारे हम सूरज तक पहुँच सकते हैं। मन्त्र रात के अंधेरे में जलने वाला ऐसा चिराग है जिसे थामकर हम कई मीलों का रास्ता पार कर सकते हैं। मैं स्वयं मन्त्र का उपासक हूँ। मैं ही क्यों इस देश का हर व्यक्ति किसीन-किसी मन्त्र की आराधना अवश्य करता है। विश्व भर में जितने भी धर्म हैं उन सबने अपने हिसाब से कोई-न-कोई मन्त्र अवश्य दिया है। फिर चाहे वह गुरुमन्त्र हो या मालाओं में जपने वाला मन्त्र हो अथवा ध्यान में प्रवेश पाने का कोई मंत्र हो। मंत्र का उच्चारण करने से वायुमंडल निर्मल हो जाता है, वातावरण पवित्र हो जाता है। भारत में मंदिरों में शंखनाद होता है उसका उद्देश्य भी यही है कि वातावरण निर्मल हो, ऊर्जस्वी हो, दूषित जीवाणुओं से मुक्त हो। जो काम शंखनाद करता है वही काम मन्त्रनाद भी करता है। मन्त्रों में एक मन्त्र है ओ....म्'। आज भी लोग ओंकारनाद करते हैं। यदि आप अपनी फैक्ट्री में या व्यावसायिक स्थान पर काम प्रारम्भ करने से पहले मालिक और सभी कर्मचारी मिलकर सात बार सामूहिक रूप से ओंकार का उद्घोष करते हैं तो ऐसा करने से आपके कार्यस्थल का वातावरण निर्मल हो जाता है, सारी मशीनें पवित्र हो जाती हैं। यदि व्यक्ति तेज ठंड से ठिठुर रहा हो, उसे बहुत सर्दी लग रही हो तो तेज श्वासोश्वास के साथ मन्त्र का उच्चारण उसकी ठंड दूर करने में सहायक होगा। तिब्बत में लामा लोग बर्फ के मध्य बैठकर साधना करते हैं (क्योंकि वहाँ तो बर्फ ही बर्फ है) फिर भी उनके शरीर से पसीना बहते हुए देखा जा सकता है, कैसे? वे अपने मंत्र ॐ मणि पद्मे हुम्' का तीव्र श्वासोश्वास के साथ प्रयोग करते हैं। इससे शरीर में अतिरिक्त ऊर्जा का संचार हो जाता है, रचनात्मक ऊर्जा का संचार। जो लोग मन्त्र प्रयोग करना नहीं जानते वे हाथ में माला पकड़कर बैठ जाते हैं और मंत्र की आवृत्ति भर कर लेते हैं। ऐसे लोगों के लिए कबीरदास कहते हैं- माला फेरत जुग भया, गया न मन का फेर, कर का मनका छांडि के, मनका मन का फेर। हम तो माला के साथ मन्त्र को इसलिए दोहरा रहे हैं कि किसी गुरुजी ने For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्त्र दिया है और इसे हर हाल में जपना ही है। अगर इस भावना से मन्त्र जाप कर रहे हैं तो कृपा करके माला रख दें। पहले मन्त्र प्रयोग का तरीका सीख लें, उसे समझ लें । मन्त्र को साधने की जो आवश्यकताएँ हैं उन्हें जान लें । यदि पाँच मज़दूर मिलकर किसी गड्ढे की खुदाई करें और पानी न निकले तो खोदना व्यर्थ है। इसी तरह किसी मन्त्र का सतत जाप करने के बाद भी कोई परिणाम न निकले तो इसका अर्थ यही होगा कि हमें अभी तक मन्त्र सिद्ध करने का तरीका न आया। यदि किसी का मन ध्यान में न लगता हो तो मैं कहूँगा कि पहले वह मंत्रोच्चार करे । इतना अधिक मन्त्रोच्चार करे कि उसका रोम-रोम उस मन्त्र से प्रभावित हो जाए और जिस स्थान पर वह मन्त्रोच्चार करे वह स्थान मंदिर की तरह आदरणीय हो जाए। अगर हम पत्थर की मूर्ति को परमात्मा के प्रतीक के रूप में स्थापित करना चाहते हैं और उसे स्थापित करने की कोई विधि नहीं आती तो उस प्रतिमा के मूल स्वरूप को याद कीजिए और उसके मन्त्र के साथ लगातार सवा घंटे तक बिना रुके, मूर्ति को देखते हुए मन्त्रोच्चार करते रहिए। आपकी अन्तर्दृष्टि, आपके द्वारा किया गया मन्त्रोच्चार, मन्त्र-शक्ति ऐसा काम करेगी कि मूर्ति भी जीवंत हो जाएगी, उसकी प्राण-प्रतिष्ठा हो जाएगी। कोई पत्थर फिर पत्थर न रहेगा शिवलिंग, ज्योतिर्लिंग बन जाएगा। __ मन्त्र द्वार है, इसलिए मन्त्र के बिना धर्म की शुरूआत नहीं होती। मन्त्र मन को धर्म से जोड़ने वाला सेतु है। मन्त्र तो रामसेतु का काम करता है, सुईधागे का काम करता है। मन्त्र की शक्ति अद्भुत है। यदि किसी भी मन्त्र को साधने का तरीका आ जाए तो आप अपने मन्त्र के जरिए घर का बड़े-से-बड़ा वास्तुदोष दूर कर सकते हैं, ग्रह-गोचर के अनिष्ट प्रभाव को दूर कर सकते हैं। मन्त्र में ताक़त होती है। पुराने ज़माने में ऋषि-मुनि गुफाओं में बैठकर तपस्या करते थे तो कहते हैं देवताओं को भी हाज़िर होना पड़ता था। आज लोग मन्त्र-जाप करते हैं तो क्या कोई देवता हाज़िर होते हैं ? अगर हाज़िर नहीं होते हैं तो हमें यह सोचना चाहिए कि क्या मन्त्र में कुछ कमी है या देवताओं में खोट आ गई है अथवा हम जाप करने वाले इन्सानों में खोट आ गई है। मन्त्र को साधने का पहला तरीक़ा यही है कि मन्त्र का सबसे पहले For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उच्चारण किया जाए। यदि आधा घण्टा मन्त्र जाप करना चाहते हैं तो दस मिनिट तक लगातार मन्त्र का सबसे पहले उच्चारण करें, ताकि हमारा मन उसके साथ रमे। फिर भी लगता है कि मन नहीं लग रहा तो मन्त्र-उच्चारण के साथ ताली बजाओ। किसी मीरा की तरह इकतारा हाथ में थाम लो, किसी सूर की तरह करताल हाथ में ले लो, किसी तुलसीदास की तरह चंदन घिसना शुरू कर दो, किसी चैतन्य प्रभु की तरह नृत्य करना शुरू कर दो, पर मन का मन्त्र के साथ लगना ज़रूरी है। मन की लगन, मन की एकलयता और मन्त्र जब एक साथ मिलते हैं तो उसमें रहने वाली शक्ति स्वतः उभरकर आती है। महावीर तो वीतराग हैं। फिर भी आम इन्सान को अगर धर्म में प्रवेश पाना है तो उनके लिए महावीर ने भी मंत्र को स्वीकार किया। महावीर के अनुयायी इस बात पर तो भेद खड़ा कर सकते हैं कि मंदिर को माना जाए या न माना जाए लेकिन उनके समस्त अनुयाइयों ने, समस्त परम्पराओं ने मन्त्र को तो अवश्यमेव स्वीकार किया। मंदिर से तो बच सकते हो पर मन्त्र से नहीं बच सकते । बिना मंदिर के चल सकता है पर बिना मंत्र के न चलेगा। मंदिर मन्त्र की पूर्व भूमिका है। मंदिर में भी मन्त्र की शरण तो आना ही होगा। मंदिर धर्म का पहला पगथिया है तो मन्त्र धर्म का दूसरा पगथिया है। केवल मंदिर जाने से ही काम न चलेगा, वहाँ मन्त्र की आवश्यकता होगी। गुरु की शरण में भी चले गए तो गुरु जो देंगे वह गुरुमन्त्र ही होगा। आखिर शरण तो मन्त्र की ही हुई। ध्यान का अपना उपयोग हो सकता है, योग के भी परिणाम हैं, तप और त्याग की भी उपयोगिता है लेकिन इन सबके परिणाम पाने से पहले ज़रूरी है हम मन के साथ तदाकार हो सकें और तदाकार होने के लिए ज़रूरी है मन्त्र की शरण स्वीकार करना। मंत्र संकट का मोचक है, मन्त्र मददगार है, मन्त्र माध्यम है। किसी परम्परा ने राम नाम का मन्त्र दिया, किसी ने कृष्ण के नाम का मन्त्र दिया, महावीर ने भी मंत्र दिया लेकिन वे नहीं कहते कि उनकी शरण में आएँ । महावीर तो महापुरुषों की शरण में जाने को कहते हैं। महावीर का मंत्र अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधुओं की शरण देता है। धर्म की शरण देता है, यही तो व्यक्ति की विनम्रता है। कृष्ण और महावीर में यही फ़र्क है। कृष्ण ३४ For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंखनाद करते हुए कहते हैं - मामेकं शरणं व्रज - तुम मेरी शरण में चले आओ, उधर महावीर विनम्रता से कहते हैं - तुम अरिहंतों की शरण में चले जाओ। एक में मैं को प्रधानता दी गई है दूसरे में मैं को हटा ही दिया गया है। महावीर ने जो मन्त्र दिया उसका प्रारम्भ नमस्कार से होता है - नमो अरिहंताणं.. । नमन अहंकार को झुकाने का तरीका है। महावीर एक राजकुमार थे और भली-भाँति जानते थे कि जब तक ईगो को गो नहीं कहेंगे, अपने अहम् को सर्वम् में नहीं बदलेंगे तब तक मन्त्र आत्मसात न हो सकेगा, धर्म आत्मसात नहीं हो सकता। इसलिए महावीर का धर्म मंदिर या स्थानक से शुरू नहीं होता । महावीर का धर्म विनम्रता से शुरू होता है। यह बहुत खास बात है। उनका धर्म गुरु से भी शुरू नहीं होता, महावीर का धर्म साष्टांग नमन से शुरू होता है। वे कहते हैं णमो - नम जाओ। णमो अरिहंताणं - यानी अरिहंतों को नमस्कार हो । वे चाहते तो अरिहंत शब्द पहले भी दे सकते थे लेकिन महावीर गहन वैज्ञानिक हैं। वे मन की चालबाजियाँ समझते हैं। इसलिए जानते हैं कि पहले मन को ठीक किया जाए । महावीर अरिहंतों को नमस्कार ऐसा नही कहते । वे कहते हैं - नमस्कार हो अरिहंतों को। शब्द का बड़ा चमत्कार है। शब्द को अगर पकड़ लें तो सीढ़ी पकड़ में आ जाती है। शब्द को न पकड़ पाए तो छलांग लगाने की कोशिश होती है। नमन यानी समर्पण । पहले यह माथा झुके तो सही। सिर में जो अहंकार भरा है वह तो झुके । यह नहीं झुकता है तभी तो कहते हैं - ___बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर, पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर । अरिहन्त का रटन तो हो जाएगा पर अरिहन्त से मिलन न होगा। यह तो रास्ता ही ऐसा है कि 'शीष दिए गर प्रभु मिलें तो भी सस्ता जान।' यहाँ तो पहले शीष देने की बात है। ज्ञान तो बाद में मिलेगा पहले नमो तो सही। जब तक आम कच्चा (कैरी) रहता है तब तक ऊपर-ऊपर रहता है और कड़क भी, लेकिन जैसे ही पकने लगता है अपने आप झुक जाता है और मीठा भी बन जाता है। घड़े को पानी में उतारने पर अगर घड़ा पानी में झुकने को तैयार न होगा तो पानी घड़े में आएगा कहाँ से ? कहावत है - कम खाओ, गम खाओ, नम For Personal & Private Use Only ३५ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाओ। जीवन में स्वस्थ रहने के ये तीन मन्त्र हैं। कम खाओ - आवश्यकता अधिक खाने वाले अस्वस्थ रहते हैं । कम खाने से प्रमाद नहीं आता, अधिक खाने से आलस्य आता है । गम खाओ - थोड़ा धीरज रखो और नम जाओ । बगैर नमे कोई काम भी न बनेगा। जे नमे सो सहुने गमे - जो नमता है वह सभी को प्रिय लगता है । जो नम जाता है वह सबके दिल के करीब हो जाता है । महावीर नम गये तो मंदिरों में प्रतिष्ठित हो गए । जो अकड़कर रह गया वह चौराहों का चबूतरा बन गया । हिन्दुस्तान में आज तक कोई भी राजनेता पूजा नहीं गया लेकिन गांधीजी आज भी पूजे जा रहे हैं । कारण ? गांधी नम गए । विनयवान पूजा जाता है, वही कद्र पाता है । विनयशील की भगवान् की तरह इज़्ज़त होती है। अकड़बाज भी अगर विनम्रता का ग्रीस लगा ले तो जीवन की गाड़ी आराम से चलती है। - - कहते हैं युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ आयोजित किया। उसमें युधिष्ठिर ने सभी को योग्यतानुसार कार्यों का वितरण कर दिया, पर कृष्ण को कोई कार्य नहीं दिया । कृष्ण युधिष्ठिर के पास गए और कहने लगे - राजन्, आपने सबको कोई-न-कोई कार्य सौंप दिया है, पर मुझे अभी तक कोई कार्य नहीं सौंपा है। युधिष्ठिर ने कृष्ण से कहा प्रभु आप भी कैसा विनोद करते हैं। आप तो हमारे आदरणीय हैं। हम आपको क्या काम सौंप सकते हैं ? भगवान ने जो ज़वाब दिया वह अनुकरणीय है । उन्होंने कहा आदरणीय हूँ, पर इसका मतलब यह तो नहीं कि मैं अयोग्य हूँ। यह सुनते ही युधिष्ठिर सकपका गए, बोले प्रभु आप यह क्या कह रहे हैं ? अगर ऐसी बात है तो जो काम आपको पसंद आए, आप उसका चयन कर लीजिए। कृष्ण ने जिस काम का चयन किया वह भारत का हर व्यक्ति अपने जीवन में उतार ले तो हमारे यहाँ से गंदगी का नामोनिशान मिट जाए। जो भी इसे अपने जीवन में अपना लेगा वह धन्य हो जाएगा वह कृष्ण प्रिय हो जाएगा। तब कृष्ण ने उस महायज्ञ में आने वाले सभी अतिथियों के पद - प्रक्षालन और भोजन करने के बाद जूठी पत्तलें उठाने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ली। - ३६ यह घटना हमें सिखाती है कि दुनिया में कोई भी काम छोटा नहीं होता । जो जाता है उसे वैसे भी कोई काम छोटा नज़र नहीं आता। जो नमता है वह सभी को प्रिय होता है। सास भी अगर नमेगी तो बहू को प्रिय लगेगी और बहू भी - For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगर नमेगी तो सबको प्रिय लगेगी। मित्र के साथ मित्र नम्रता से पेश आएगा तो उसको भी अच्छा लगेगा। पिता अपने छोटे से बच्चे के साथ भी नम्रता से पेश आएगा तो वह पिता भी अच्छा लगेगा। नम्रता के साथ जीवन और धर्म की गाड़ी आराम से चलेगी। जीवन में सदा नम्रता की धुन बजती रहनी चाहिए। ज़िन्दगी आनन्द है। इसका आनन्द रोज़ लिया जाना चाहिए । जीवन में आनन्द की मस्ती किसी-न-किसी द्वार से ही आती है। आनन्द की मस्ती लेने के लिए अगर हम नमोकार मंत्र को द्वार बनाते हैं तो यह न समझ लेना कि यह मन्त्र केवल महावीर के अनुयाइयों का मन्त्र है। हमने ऐसे लाखों लोगों को नवकार मन्त्र सिखाया है जो जन्म से महावीर के अनुयायी नहीं हैं, पर कर्म से महावीर को मानते हैं। नवकार-मन्त्र ऐसा मन्त्र है जो हमें ईश्वर या महान तत्त्व के प्रति नमन करने का भाव पैदा करता है। दोनों हाथों को जोड़कर पलकें बंद कर मस्तक झुकाकर नमन करना, समर्पण करना ही मन्त्र का अभिज्ञान है। इस मन्त्र की शुरुआत होती है - नमो अरिहंताणं से - यानी अरिहंतों को नमस्कार हो । मन्त्र का उच्चारण शुद्ध होना चाहिए । मन्त्र के साथ उच्चारण-शुद्धि ज़रूरी है। जैसे कुंती और कुत्ती में केवल बिंदु का फ़र्क है, चिंता और चिता में भी केवल एक बिंदु का फ़र्क है, लेकिन बोलने की अशुद्धि से अर्थ का अनर्थ हो सकता है। उच्चारण की शुद्धि के साथ-साथ स्थान-शुद्धि, वस्त्र-शुद्धि भी होनी चाहिए। भगवान के आगे निर्वस्त्र आदमी चल जाएगा, पर अशुद्ध कपड़े पहने हुए व्यक्ति नहीं चलेगा। मुख-शुद्धि भी ज़रूरी है। झूठ बोलने वाला व्यक्ति मन्त्र-जाप न करे। किसी भी प्रकार का व्यसन करने वाला व्यक्ति भी मन्त्र-जाप न करे । जैसा व्यक्ति स्वयं होगा वैसे ही जाप के परिणाम आएँगे। राम की शुद्धि राम का परिणाम देगी और रावण की अशुद्धि व्यक्ति को रावण की तरह परिणाम देगी। एक में दैवीय शक्तियाँ प्रगट होंगी और दूसरे में आसुरी प्रवृत्तियाँ जगेंगी। ___अरिहन्तों को नमस्कार यानी जिसने अपने भीतर के शत्रुओं (अरि) का हनन किया है। शत्रुओं का हनन तो महावीर और सिकन्दर, चंगेज खां, तैमूर लंग, नेपोलियन सभी ने किया, मगर हनन करने में फ़र्क है। इन्होंने बाहरी शत्रुओं का हनन किया मगर महावीर ने भीतर के शत्रुओं को पराजित किया। For Personal & Private Use Only www.jainelibraorg Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्ति हजारों पर भले ही विजय पा ले तब भी अपने-आप से तो हारा हुआ ही रहेगा क्योंकि मौत से तो हर कोई व्यक्ति हार जाता है। मौत के आगे विवश सिकंदर ने २४ घंटे के बदले अपना पूरा साम्राज्य दाँव पर लगा दिया था, पर वह हार गया। पैसे से सब कुछ खरीदा जा सकता है, पर जब खुद की साँस चुक रही हो तो किस पैसे से खुद को तौलोगे ? अरबपति के पास अगर एक अरब रुपये हों और साँस निकल रही हो तो वह अपनी हर साँस के लिए हजारों रुपया देने को तैयार हो जाएगा । कहते हैं एक आदमी फैक्ट्री की छुट्टी होने के बाद किसी काम से वहाँ रुका रहा। फैक्ट्री का नियम था कि पाँच बजते ही सारे दरवाजे बन्द कर दिए ते थे। बाहर से बिजली का मेन स्विच भी ऑफ कर दिया जाता । वह अंदर ही बन्द रह गया, आवाज़ भी बाहर नहीं पहुँच सकती थी । उसने देखा चारों ओर जवाहरात ही जवाहरात पड़े थे। वह तीन दिन वहीं रह गया, खाने को कुछ न मिला। सोमवार को ही फैक्ट्री खुली तो उसने बाहर निकलते ही अपने हाथ के खून से लिखा कि जवाहरात से भी ज्यादा ज्वार के दाने (रोटी) मूल्यवान होते हैं I 1 जिसकी साँस चुक रही हो वही जान सकता है कि ज़िन्दगी का मोल क्या है ? एक जीतता है बाहर के शत्रुओं को और एक जीतता है भीतर के शत्रुओं 1 को । हजारों योद्धाओं को जीतना शायद आसान हो, पर अपने आपको जीतना बहुत कठिन है। अपने क्रोध, अभिमान, प्रशंसा की आकांक्षा को जीतना, भीतर के आक्रोश को जीतना सौ योद्धाओं को जीतने से भी ज़्यादा कठिन है । जिस दिन हमने यह व्रत लिया उसी दिन हमारे मन की तपस्या हो गई । तन को खूब तपाया पर मन फिर भी अछूता रहा। मैं अंतरमन की बात करता हूँ। अंतरमन का साधक हूँ, अन्तरमन के गीत गाता हूँ। हर व्यक्ति अन्तरमन की प्रेरणाओं से ही जीता है । इसलिए हर व्यक्ति को अपने अन्तरमन को सजाना और सँवारना चाहिए । मन मैला और तन को धोए, फूल को चाहे काँटे बोए । करे दिखावा भक्ति का तू, उजली ओढ़े चादरिया ।। भीतर से मन साफ किया, बाहर माँजे गागरिया । परमेश्वर नित द्वार पे आया, तू भोला रहा सोए ।। कभी न मंदिर में तूने, प्रेम की ज्योति जलाई । ३८ For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख पाने को दर दर भटका, जन्म हुआ दुःखदाई ।। अब भी नाम सुमिर ले हरि का, जन्म बैठा क्यों खोए । श्वासों का अनमोल ख़ज़ाना, दिन-दिन लुटता जाए ।। मोती लेने आया तट पे, सीप से मन बहलाए । साँचा सुख तो वो ही पाए, शरण प्रभु की होए ।। बाहर के घर को खूब सजाते हैं, पर भीतर का घर ? बाहर में अगर झाड़ निकालते हुए चार तिनके झाड़ में से निकल भी जाएँ तो क्या ? मैंने देखा एक बूढ़ी माँ झाड़ लगा रही थी, कुछ तिनके गिर गए तो वह उन्हें इकट्ठा करके वापस झाड़ में खोंसने लगी। मैंने बुढ़िया माँ से पूछ ही लिया कि - अम्मा दो तिनके गिर भी गए तो क्या फ़र्क पड़ता है। उसने कहा - महाराज ! यों ही दो-दो तिनके रोज गिरेंगे तो झाड़ ही ख़तम हो जाएगी। हम अपने मकड़जाल में इतने उलझे हैं कि झाड़ के तिनके तो जाते हुए नज़र आते हैं पर जाती हुई जिंदगी नज़र नहीं आती। अन्तरमन दूषित हो रहा है वह हमें नज़र नहीं आता। छोटी-सी बात भी हम सहन नहीं कर पाते हैं, धर्म की मोटी-मोटी बातें की जाती हैं। दूसरों को उपदेश देना बहुत सरल काम है, लेकिन उस पर अमल करना बहुत ही मुश्किल है। ज्ञान देने की नहीं, जीवन में उतारने की चीज़ है। ज्ञान-चर्चा रोशनी का लेनदेन है। वह प्रवचन केवल भाषणबाजी है जिसमें कथा बांचने के बाद आरतियाँ होती हैं और आरती में आए पैसे कथावाचक अपनी जेबों में डालकर चले जाते हैं। ज्ञानचर्चा तो वह है जिसमें हम प्यासे चातक की तरह बैठते हैं और अमृत बूंदों की प्रतीक्षा करते हैं कि वह कहीं से हमारे भीतर उतर जाए और हमारी जन्मों की प्यास बुझ जाए, अंधेरे में खड़े इन्सान को रास्ता सूझ जाए। ___नमो सिद्धाणं- सिद्धों को नमस्कार । जो हो गए हैं अब निर्दोष, जिनके सारे दोषों का शमन हो गया है, जिन्होंने स्वयं तो मुक्ति पा ली है और औरों को भी मुक्त कर रहे हैं, ऐसी मुक्त चेतनाओं को नमस्कार । इस संसार में प्रथम पूज्य वही होता है जो स्वयं मुक्त हो गया है और दूसरों की मुक्ति के लिए पदचाप छोड़ता है। उस किनारे पहुँचना है तो महावीर, राम, कृष्ण, बुद्ध को जिन्होंने उस पार का स्वाद चख लिया है, उस पार के शिखरों का स्पर्श कर चुके For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं, उन लोगों को आदर्श बनाते हुए निकलना पड़ेगा। हो सकता है हम चाँदतारों के लिए निकलें और वहाँ तक न पहुँच पाएँ फिर भी कम-से-कम कुछ बगीचों तक तो पहुँच ही जाएँगे। जिसने अपने भीतर के राग-द्वेष, काम-क्रोध, लोभ-प्रपंच, वैर-वैमनस्य, ईर्ष्या-द्वेष, हर भेद का हनन कर लिया और जिनके भीतर समदर्शिता, शुक्ल ध्यान और परम पवित्रता आ गई वे ही भीतर के कारागारों से बाहर आ सके। हम उन्हीं को नमस्कार कर रहे हैं। और नमस्कार कर रहे हैं सिद्ध, बुद्ध और मुक्त जनों को। इस मार्ग पर चलना कठिन है, पर मन्त्र उस माँ की अंगुली की तरह है जिसे थाम धीरे-धीरे चलकर उस पार पहुँच सकते हैं। अगर मन्त्र में सीधे मन न लगे तो मंदिर चले जाना। मंदिर जाने के बाद मन्त्र की शरण स्वीकार कर लेना । जब लगे कि मन्त्र थोड़ा-थोड़ा श्वासोश्वास में रमने लगा है, उसके साथ तदाकार हो रहा है तब मंत्र को भी एक किनारे कर देना । मन्त्र के मूल तत्त्व के साथ जुड़ जाना। अरिहंतों को नमस्कार - नमो अरिहंताणं, सिद्धों को नमस्कार - नमो सिद्धाणं, आचार्यों को नमस्कार - नमो आयरियाणं, उपाध्यायों को नमस्कार - नमो उवज्झायाणं, लोकवर्ती समस्त साधुओं को नमस्कार - नमो लोए सव्व साहूणं । ये पांच नमस्कार - एसो पंच णमुक्कारो, हमारे सब पापों का नाश करें - सव्व पावप्पणासणो, सारे मंगलों में हमारे लिए प्रथम मंगलकारी हो - मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवई मंगलम्। नवकार-मन्त्र हनुमान की तरह संकट मोचक है। यह तो गणपति की तरह प्रथम प्रणम्य मन्त्र है। यह शिव-शंकर की तरह सबका कल्याण करने वाला है, विष्णु की तरह सबका पालन करने वाला है, ब्रह्मा की तरह सबको ज्ञान देने वाला है। महावीर की तरह महानिर्वाण और महामोक्ष प्रदान करने वाला है। अगर आपके घर में अशांति हो तो घर के सारे लोग मिलकर घर के बीच आँगन में ब्रह्म स्थान पर बैठकर, आँखें बंद कर सभी ताली बजाते हुए २७ बार इस मन्त्र का एक स्वर में पाठ करें तो निश्चित ही घर की अशांति दूर होगी और शांति का संचार होगा। कुल मिलाकर इहलोक और परलोक के लिए यह मन्त्र कल्याणकारी साबित होगा। खास तौर पर साधना-मार्ग पर चलने वाले ४० For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोगों को तो साधना शुरू करने से पहले ९, ११, २१ या २७ दफा अवश्यमेव ___ ही चाहें तो पाँच पद या पूरा नवकार मंत्र का पाठ कर ही लेना चाहिए । चाहें तो णमो अरिहंताणं से णमो लोए सव्वसाहूणं तक ३५ अक्षर या पढमं हवई मंगलं तक ६८ अक्षरों का पाठ कर सकते हैं। ३५ अक्षरों की वंदना से ३५ आगमों की वंदना और ६८ अक्षरों की वंदना से ६८ तीर्थों की यात्रा का पुण्यफल अर्जित होता है। नवकार मंत्र के ३५ या ६८ अक्षरों का उच्चारण न कर पाएँ तो प्रथम पद को ही ले लें - णमो अरिहंताणं - जिन्होंने जीता है अपने आप को उन्हें हमारे नमस्कार हों। ऐसे निर्दोष लोगों को प्रणाम करने से हम भी निर्दोष होंगे। श्रीमद् राजचन्द्र ने कहा है - ते प्राप्त करवा वचन कौनूं, सत्य केवल मानवू । निर्दोष नर नूं, कथन मानो, तेह जेणे अनुभव्यूं। अर्थात् किस व्यक्ति का कथन अपने जीवन में स्वीकार करें ? उस व्यक्ति का कथन स्वीकार करो जो व्यक्ति निर्दोष हो चुका है। जो सारे दोषों से मुक्त हो चुका है, उस व्यक्ति के कथन को हम आदर्श बनाएँ । तब मन्त्र निश्चित रूप से हमारे लिए कल्याणकारी साबित होगा। अतीत में भी हजारों लोग मन्त्र से प्रेरित और प्रभावित हुए हैं। मन्त्र बोलते ही हम अनन्त-अनन्त सिद्ध, बुद्ध, मुक्त आत्माओं से एकाकार होने लग जाते हैं। मंत्र पराशक्तियों से जुड़ा हुआ तत्त्व होता है। हम लोग एकाग्र मन से मन्त्रोच्चारण करें । एकाग्र मन से किया गया मन्त्र-जाप, ध्यान, मन्त्र-स्मरण हमारे तन और मन को स्वस्थ करेगा। मंत्र हमारे लिए भीतर और बाहर दीपक का काम करेगा। मन्त्र तो देहरी का दीप होता है। अब हम प्रेम से आँखें बंद करेंगे और मन्त्र का उच्चारण करेंगे। (मन्त्रोच्चारण प्रारम्भ.....) ४१ For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व-शांति कारहस्य वर्तमान समय में प्रबुद्ध और शांतिप्रिय व्यक्तियों का यह दायित्व है कि वे संसार में प्रेम, भाईचारा और शांति की स्थापना में अपनी आहुतियाँ समर्पित करें। यदि संसार सुखमय, शांतिमय और आनन्दमय रहेगा तो इसमें रहने वाला प्रत्येक इन्सान, प्रत्येक प्राणी का जीवन सुख, शांति और आनन्द से परिपूर्ण हो सकेगा। आज अगर दुनिया में कहीं भी त्राहि-त्राहि मचती है, बम विस्फोट होता है, कत्ले आम किया जाता है तो यह न समझें कि यह किसी एक देश में हो रहा होगा, उसका प्रभाव पूरी दुनिया पर पड़ता है। क्योंकि जिस तरह सागर में एक लहर उठती है तो वह वहीं तक सीमित नहीं रहती जहाँ से वह उठ रही है। वह आगे बढ़ती जाती है तब तक जब तक उसको समाप्त होने के लिए किनारा नहीं मिल जाता। उसी तरह संसार के किसी भी देश में घटने वाली घटना का विश्व-व्यापी प्रभाव होता है। आज के युग में जिस तरह से हिंसा और आतंक का साया बढ़ता जा रहा है, उस साये की चपेट में कोई भी आ सकता है। हम, आप, प्रत्येक समाज, प्रत्येक देश, प्रत्येक पंथ-परम्परा के लोग उसकी चपेट में आ सकते हैं। इसलिए वर्तमान में प्रत्येक धर्म, पंथ-परम्परा और प्रबुद्ध व्यक्ति का पहला दायित्व यही बनता है कि विश्व-शांति स्थापित हो सके, विश्व में और अधिक भाईचारे का For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कम विस्तार हो सके इसका प्रयत्न करे। यह बात हमारे लिए अहमियत रख सकती है कि हम लोग पानी छानकर पिएँ, पैदल चलें अथवा हमारे द्वारा कम- -से-व हिंसा का दोषपूर्ण कार्य हो ऐसा विवेक रखा जाए लेकिन इन सबसे बढ़कर ज़रूरत है कि हम सारे विश्व में प्रेम, शांति और अहिंसा का वातावरण बनाने का प्रयत्न करें। कोई भी व्यक्ति विश्व से बड़ा नहीं हो सकता। हम सब विश्व की इकाई हैं और पूरे विश्व को सुरक्षित रखना हम लोगों का दायित्व बनता है । प्रबुद्ध लोगों को चाहिए कि वे अपने को किसी एक गाँव या शहर तक ही सीमित न रखें वरन् अपने-आपको अन्तर्राष्ट्रीय संस्कृति जितना विशाल बना लें, विश्व में शांति स्थापित करने में अहम् भूमिका निभाएँ । हमें वाणी, कार्य और व्यवहार के द्वारा शांति की अनुमोदना करनी होगी । सारा विश्व एकमात्र अहिंसा के धरातल पर टिक सकता है। हज़ारों वर्ष पूर्व भी मानवमात्र को अहिंसा के धरातल की आवश्यकता आई थी और आज फिर उसी अहिंसा की आवश्यकता आ पड़ी है। अहिंसा का अर्थ होता है इंसानियत का वह अनन्त प्रेम जिसमें दूर-दराज के गाँव और आम लोग सम्मिलित हो जाएँ। अहिंसा तो इतनी विराट होती है जिसमें अनन्त लोगों के प्रति अनन्त प्रेम समाहित रहता है। एक के प्रति प्रेम होना राग कहला सकता है, लेकिन अनन्त जीवों के प्रति अनन्त प्रेम का उद्भव होना, मंगल मैत्री- भाव होना अहिंसा की मूल आधारशिला है। आज आवश्यकता ही अहिंसा की है। इस विश्व को शस्त्रों के बल पर खड़ा नहीं रखा जा सकता । शस्त्र भय और अनुशासन का वातावरण निर्मित कर सकते हैं लेकिन प्रेम का नहीं । विश्व मात्र अहिंसा के बल पर ही टिका रह सकता है। घर, परिवार और समाज भी अहिंसा के बल पर ही टिके रह सकेंगे। यदि हम किसी की निंदा-चुगली करते हैं, किसी के दिल को ठेस पहुँचाते हैं, किसी का अपमान करते हैं तो ऐसा करने से घर-परिवार दुःखी होगा। समाज में भी ऐसा वातावरण बनता है तो समाज टूटेगा । विश्व में भी एक देश दूसरे देश का अपमान करेगा, आलोचना करेगा तो देश भी टूटेंगे। विश्व के साथ-साथ समाज और घर परिवार के लिए भी अहिंसामूलक वातावरण ज़रूरी है। अहिंसा धर्म की माता और पिता दोनों है। धर्म से अहिंसा का नहीं बल्कि अहिंसा से धर्म का जन्म होगा। For Personal & Private Use Only ४३ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और अहिंसा एक-दूसरे के पूरक हैं। धर्म से अहिंसा मिलेगी यह सोचने की बजाय हमें मानना चाहिए कि अहिंसा के पालन से हमारे जीवन में धर्म का आचरण होगा। अहिंसा अकेला ऐसा मन्त्र है जिसके द्वारा व्यक्ति धर्म के सम्पूर्ण स्वरूप को अपने में जी सकता है। अहिंसा वह मंत्र है जिससे सारे विश्व में प्रेम, शांति और भाईचारे की स्थापना की जा सकती है। अहिंसा अपने-आप में सम्पूर्ण व्रत, मंदिर और तीर्थ है। अहिंसा अपनेआप में एक आश्रम है। इंसान की मानसिक चेतना, वाणीगत चेतना और शरीरगत चेतना अहिंसा के द्वारा सुरक्षित और गौरवान्वित रहेगी। दुनिया में हिंसा के दो स्वरूप चल रहे हैं- एक है आतंक - जिसके नाम पर इंसान इंसान के खून का प्यासा बना हुआ है, दूसरा है मांसभक्षण - जिसमें इन्सान अपने से कमज़ोर पशु-पक्षियों का वध करके उनके मांस का उपयोग करता है। आतंकवाद में व्यक्ति अस्त्र-शस्त्र के द्वारा पूरे विश्व में आतंक और उग्रवाद फैलाकर लोगों को भयग्रस्त कर खुश होता है और मांसभक्षण के लिए लोग मूक पशु-पक्षियों को जीवन देने की बजाय उनके प्रति अदया करते हैं और उन्हीं को खा जाते हैं। हमें पूरे विश्व के प्रति जागरूक होने की ज़रूरत है क्योंकि हमें इसी विश्व में रहना है। इस पृथ्वी-ग्रह पर हम लोगों का पालन-पोषण हो रहा है तो इसकी सुरक्षा करना, सड़कें, वातावरण, नदी, जल सुरक्षित हों, प्रेममय हों यह हमारा दायित्व है। भगवान श्री महावीर ने जिस अहिंसा की बात की, आज उनके अनुयायी अहिंसा का पालन अवश्य कर रहे हैं। उनके संतजन, मुनिजन, श्रमण तो अहिंसा की ऊँचाई तक इसका पालन कर रहे हैं, यहाँ तक कि नंगे पाँव पैदल चल रहे हैं ताकि उनके द्वारा सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव की भी हिंसा न हो। लेकिन आज समस्या सूक्ष्म जीवों को बचाने की नहीं वरन् पूरे विश्व को बचाने की है। मैं तो चाहूँगा कि अहिंसा में आस्था रखने वाले मुनिजन अपने आपको केवल भारत देश तक ही सीमित न रखें वरन् पूरे विश्व में फैलने का प्रयत्न करें। पूरे विश्व में भगवान महावीर के पवित्र संदेशों को जन-जन तक पहुँचाएँ ताकि यह विश्व सुरक्षित हो सके। आज हम अपने निजी जीवन में अहिंसा का अनुपालन करने के लिए पानी को छानकर उपयोग में ले रहे हैं लेकिन पूरा विश्व जल रहा है, आतंक बढ़ रहा है ४४ For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और हम लोग धार्मिक प्रवचन कर रहे हैं, सत्संग कर रहे हैं लेकिन वही लिमिटेड लोगों के बीच। ऐसी स्थिति में हमें चाहिए कि हम अपने देश की संस्कृति और अहिंसा को पूरे विश्व तक फैलाने में अपनी भूमिका निभाएँ । आज जहाँ विश्व - शांति के लिए निःशस्त्रीकरण की, अहिंसा की और अहिंसामूलक वातावरण की आवश्यकता है वहीं अगर हम हक़ीक़त में जीवदया में विश्वास रखते हैं तो हमें चाहिए कि हम शाकाहार को अधिक से अधिक प्रोत्साहन दें । अहिंसा में आस्था रखने वाले सभी लोग संकल्प लें कि प्रतिमाह एक मांसाहारी को शाकाहारी बनाएँगे तो इस देश के जो पचास करोड़ शाकाहारी हैं उनके द्वारा आने वाले तीन साल में यह पहल ऐसा रंग ला सकती है कि पूरा भारत शाकाहारी और अहिंसा का भारत कहला सकता है। एक ऐसा देश जिसकी पहचान राजनीति, ताजमहल या कुतुबमीनार के कारण नहीं वरन् इसकी अहिंसा, इसके जीवनमूल्य, इसके प्रेमभाव और शांति के कारण होगी। भारत वह देश होगा जहाँ इन्सान के कारण किसी को भी किसी तरह का ख़तरा नहीं होगा । देश की आबोहवा बदले । हमारी सोच बदले । अहिंसा को हम अपने व्यक्तिगत जीवन तक ही सीमित न रखें वरन् इसे सामाजिक, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी फैलाएँ। हमारी दुनिया, हमारा समाज और हमारा देश अहिंसा के आधार पर ही टिक सकेगा। हिंसा और लड़ाई के बल पर न हम, न हमारा परिवार, न समाज, न देश और न संसार टिक सकता है। प्रेम और मोहब्बत की दहलीज़ पर आकर ही हम दुनिया, देश, समाज और परिवार को सुरक्षित रख सकते हैं। कहते हैं : एक व्यक्ति चौराहे पर खड़ा था । लोग उसे मूर्ख समझते थे । उसने अपने आगे से किसी सेना की टुकड़ी को जाते हुए देखा। उसने पास में खड़े एक व्यक्ति से पूछा - ये लोग कहाँ जा रहे हैं? उसे ज़वाब मिला- युद्ध करने जा रहे हैं। उसने पूछा- युद्ध से क्या मिलेगा? फिर जवाब मिला- शांति मिलेगी। मूर्ख ने कहा जब युद्ध करने से शांति मिलेगी तो ये बेवकूफ़ लोग जहाँ से जा रहे हैं, वापस वहीं क्यों नहीं चले जाते । शांति पाने जा रहे हैं मगर जहाँ से जा रहे हैं वापस वहीं लौटकर आ जाएँ तो अशांति का वातावरण ही निर्मित नहीं होगा। शांति थी, शांति है और शांति बनी रहेगी। न - For Personal & Private Use Only YU Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुनिया में हिंसा कम होनी चाहिए, इसके लिए हम सब लोगों का दायित्व है कि व्यक्तिगत हित समष्टिगत हित में बदल जाना चाहिए। 'वसुधैव कुटुम्बकं' - सारी वसुधा हमारा परिवार है का सिद्धांत देने वाला देश केवल व्यक्तिगत स्तर पर अपने आप को सीमित नहीं रख सकता । अगर ऐसा होता है तो यह हमारा स्वार्थ ही कहलाएगा। परमार्थ यही है कि हम भी सुख से जिएँ और औरों के लिए भी सुख से जीने का वातावरण निर्मित करें। विशेष रूप से जो इन्सानियत में आस्था रखते हैं और वे लोग जो धर्म के प्रचार और प्रसार में लगे हुए हैं, हैं, प्रेम व शांति के मार्ग को बढ़ाने में तत्पर हैं उन सभी का यह दायित्व है। हम सभी को चाहिए कि हम लोग शाकाहार को प्रोत्साहन दें और उग्रवाद तथा आतंकवाद पूरी दुनिया से कम हो सके इसके लिए अहिंसा के प्रचार और प्रसार को प्रोत्साहन दें। ऐसा पवित्र कार्य करते हुए अगर कुछ संतों की आहुतियाँ भी हो जाती हैं, वे आतंकवाद के काल के ग्रास भी बन जाते हैं तो यह कुर्बानी विश्व की, देश की सुरक्षा के लिए होगी । आखिर भगतसिंह बने बगैर देश या धर्म की सेवा नहीं की जा सकती । - हम विश्व की तरफ बढ़ेंगे तो हो सकता है कि हमारी आवाज़ को सुनकर, इन्सानियत और मोहब्बत के पैगाम को सुनकर यदि किसी के दिल को ठेस पहुँचती है और वह हमें गोली से उड़ा भी देते हैं तो संत वेलेन्टाइन की तरह हम भी कुर्बान हो जाएँगे । संत वेलेन्टाइन प्रेम के लिए कुर्बान हो गए तो हम भी अहिंसा के लिए कुर्बान हो जाएँगे। यह हमारे लिए गरिमा की बात होगी । शरीर तो सबका एक-न- एक दिन छूटना ही है, पर अहिंसा, धर्म और ईश्वरीय पैग़ामों को दुनिया में पहुँचाने के लिए यह शरीर काम आता है तो यह हमारा सौभाग्य कहलाएगा। भगवान श्री महावीर अहिंसा के अवतार कहलाते हैं। उन्होंने व्यक्तिगत रूप से भी अहिंसा को जिया, सामाजिक तौर पर भी अहिंसा को स्थापित किया और सारे विश्व को अहिंसा का पैग़ाम देने के लिए वनवासी भी हो गए। उसके बाद भी इस मानसिकता के साथ वापस इन्सानियत के बीच में लौटकर आ गए कि अगर उनकी वजह से दस लाख लोग भी अहिंसा का मार्ग अपना लेते हैं, अहिंसापूर्वक जीवन जीने का संकल्प लेते हैं तो यह वनवासी का सौभाग्य ही ४६ For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होगा। आत्मसाधना के लिए जंगलों में गए महावीर परमार्थ भाव से वापस शहरों की तरफ लौटकर आ गए। हम लोगों की ताक़त भले ही विश्व तक पहुँचने की न हो, लेकिन जितना भी अवसर मिलता है अहिंसा के लिए प्रयत्न करना चाहिए। हम सभी को जीवों से प्रेम है, प्राणीमात्र से प्रेम है, इस पृथ्वी-ग्रह के प्रति प्रेम है, धरती पर फूल खिलने चाहिए, धरती पर जीवन रहना चाहिए, जीवन का आनन्द और जीवन का पैग़ाम रहना चाहिए। कौन कहता है जीवन का अंजाम मौत होना चाहिए । जीवन का अंजाम केवल जीवन ही होना चाहिए।। हम लोग दुनिया के प्रति भी अहिंसा का वातावरण बनाने का प्रयत्न करेंगे और स्वयं में भी अहिंसा को आत्मसात करने का प्रयत्न करेंगे। वैसे तो हम सभी शुद्ध शाकाहारी हैं, अहिंसावादी हैं। व्यक्तिगत जीवन में यह पूरा प्रयत्न करते हैं कि हमारे द्वारा किसी भी तरह का हिंसामूलक दोष न हो जाए। हमारे द्वारा किसी भी प्राणी के दिल को ठेस न पहुँचे इसका भी विवेक रखते हैं। यहाँ तक कि हमारे द्वारा किसी चींटी की, सिर में चलने वाली जूं की भी हत्या न हो जाए, पानी में रहने वाले छोटे-से-छोटे सूक्ष्म किटाणुओं की भी हत्या न हो जाए इसका हम सभी विवेक रखते हैं। इस विवेक के चलते ही हम आहार की दृष्टि से भी अहिंसा को जीते हैं, शाकाहार लेते हैं। अहिंसा में आस्था रखने वाले लोग तो शाकाहार ही नहीं वरन् शाकाहार में भी जमीकंद यह मानते हुए उपयोग नहीं करते कि जिन खाद्य पदार्थों को सूर्य की रोशनी नहीं मिलती उनमें जीवाणुओं की उत्पत्ति ज्यादा हो जाती है इसलिए व्यावहारिक जीवन में हिंसा का कम-से-कम दोष लगे इस उद्देश्य से ही जमीकंद का उपयोग नहीं करते। अब तो जैन फूड' के नाम से प्रायः हर जगह शाकाहारी भोजन उपलब्ध है। यह शाकाहार की पराकाष्ठा है कि लोग जैन भोजन को जानने लगे हैं कि उसमें आलू, प्याज, लहसुन, गाजर, मूली आदि जमीकंद का उपयोग नहीं होता है। इस तरह आहार भी अहिंसामूलक लेने का प्रयत्न करते हैं। कपड़ों में भी इस बात का विवेक रखते हैं कि हमारे द्वारा ऐसे कपड़े न पहने जाएँ जो जीवों से या पशुओं से प्राप्त होते हों जैसे- रेशम, कोमल जानवरों की खाल आदि। इस प्रकार के कपड़े हिंसा के निमित्त होते हैं। जिन लोगों For Personal & Private Use Only www.jainelibrar७rg Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में विवेक जग जाता है वे अपनी देह पर चमड़े के बेल्ट और जूते भी धारण नहीं करते हैं। आजकल तो इतने संसाधन हो चुके हैं कि रेग्ज़ीन, रबर, कपड़े के जूते आदि अच्छी क्वालिटी के आने लगे हैं जिनके उपयोग से हम किसी भी जानवर की सूक्ष्म हिंसा के दोष से बच सकते हैं। जो अहिंसा में आस्था रखते हैं वे व्यापार भी उन्हीं वस्तुओं का करते हैं जिसमें हिंसा का कम-से-कम दोष लगे - जैसे - आभूषण या वस्त्र आदि। हाँ, एक व्यापार अवश्य है जिसे अहिंसा में आस्था रखने वाले लोग कर रहे हैं वह है- ब्याज या सूद का व्यापार। जो भी ब्याज का धंधा कर रहे हैं वे एक दिन में चाहे इसे न छोड़ पाएँ, पर धीरे-धीरे इससे मुक्त हो सकते हैं। यह व्यापार धनार्जन की दृष्टि से भले ही लाभप्रद हो, पर कुल मिलाकर है तो गरीबों का शोषण ही। जो लोग प्याज को हिंसा का निमित्त मानकर छोड़ना चाहते हैं, जिनके लिए प्याज खाना हिंसा है उनके लिए ब्याज खाना अहिंसामूलक कैसे हो जाएगा? प्याज छोड़ना हमारा व्यक्तिगत धर्म है, पर ब्याज खाना छोड़ना हमारा मानवीय और सामाजिक धर्म है। अगर एक फैक्ट्री वाला दूसरी फैक्ट्री वाले को धन देता है और ब्याज लेता है तो ठीक है क्योंकि उसमें किसी का शोषण नहीं है। यह तो व्यापार के लिए एक दूसरे को सहयोग है। पर गरीब व्यक्ति से उसके आभूषण रखना, ज़मीन-जायदाद गिरवी रखना और इसके बदले उसे दो-चार रुपए सैंकड़े पर ब्याज पर पैसा देना अवश्य ही दोषपूर्ण है। यह अहिंसा का अतिक्रमण कहलाएगा और ऐसा करने वाले को प्रतिक्रमण की दरकार होती है, उसे प्रायश्चित करना चाहिए। रोटी, कपड़ा और मकान जो हमारी निजी आवश्यकताएँ होती हैं उनमें विवेक रखना चाहिए कि इनके उपयोग में हमसे हिंसामूलक कार्य कम से कम हों । कम-से-कम हिंसा करना ही महावीर के अनुयाइयों की विशेषता है। एक बात तय है कि दुनिया की सुरक्षा अहिंसा के बलबूते ही होगी। हिंसा के बल पर दुनिया को अधिक समय तक नहीं टिकाया जा सकेगा। अगर हम अपने परिवार को भी छोटा-सा संसार मानते हैं तो वह भी अहिंसा के बल पर ही टिका हुआ रह सकेगा। सास-बहू के बीच में प्रेम हो, ननद-भाभी के बीच संतुलन हो, पति-पत्नी के बीच अहिंसामूलक व्यवहार हो। यदि हम आपस में गाली-गलौच करते हैं, एक दूसरे पर विपरीत टिप्पणियाँ करते हैं, एक दूसरे का Jan Education International For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपमान करते हैं यह भी एक तरह की हिंसा है। हिंसा के क्रियामूलक और विचारमूलक दो रूप होते हैं। क्रियामूलक हिंसा तो हम कम से कम करते हैं लेकिन विचारमूलक, भावमूलक हिंसा हम लोगों के द्वारा हो ही जाती है। विचारमूलक या भावमूलक हिंसा पर व्यक्ति का नियंत्रण होना चाहिए। हालाँकि इसके पीछे हमारी अपनी कमज़ोरियाँ भी हैं क्योंकि विचार पूरी तरह से हमारे नियंत्रण में नहीं होते । होश और बोध रखने के बावजूद विचार अपने आप पैदा हो जाते हैं, जबकि क्रिया हमारे द्वारा सम्पादित की जाती है। क्रिया पर तो हम अंकुश लगा सकते हैं लेकिन विचारमूलक हिंसा पर पूरी तरह अंकुश लगा पाना हमारे लिए कठिन होता है । जैसे- किसी का अपमान करना बुरा है, किसी को गाली देना हिंसा है यह सूक्ष्म हिंसा है। फिर भी अनजाने में ही सही क्रोध आने पर सहनशीलता कमज़ोर हो जाती है और न चाहते हुए भी मुँह से टेढ़े शब्द निकल ही जाते हैं। हम लोग विचारमूलक हिंसा पर अंकुश लगाने की कोशिश करेंगे, पर क्रियामूलक हिंसा पर तो हमारा अंकुश लग ही जाना चाहिए। घर साधना-मार्ग का अनुसरण करने वालों को क्रियामूलक अहिंसा का पालन करने के लिए चलते-फिरते भी अहिंसा का बोध रखना चाहिए कि जाने-अनजाने में भी छोटे से छोटे जीवाणु की हत्या न हो जाए। वाहन चलाते समय सड़क पर आने वाले जीवाणु को तो हम नहीं बचा सकते, पर विवेक की बात यह होगी कि से वाहन निकालते समय यह देख लें कि उतने रास्ते पर तो कोई जीवाणु नहीं चल रहा। उसे बचाने के लिए पहले वहाँ सफाई कर लें तब गाड़ी को गैरेज से बाहर निकालें, उनकी हिंसा के दोष से तो हम बच जाएँगे । खाना खाने में हिंसा का दोष लगता ही है लेकिन बिना खाए रह नहीं सकते इसलिए यह विवेक अवश्य रखें कि ऐसे पदार्थों से स्वयं को बचाएँ जिनसे हिंसा का अधिक दोष लगता हो । माना कि हमारे सामने आलू, टिंडसी और अंडा तीन चीजें हैं अब हमें अपने विवेक से निर्णय लेना होगा कि किसे खाएँ और किसे छोड़ें। अंडे और आलू में से चुनना हो तो आलू बेहतर विकल्प है, आलू और टिंडसी में से टिंडसी को खाना चाहिए क्योंकि आलू जमीकंद है अतः उसे छोड़ देना चाहिए । टिंडसी को सूर्य की रोशनी मिल चुकी होती है। उसमें जीवाणु कम होते हैं। अहिंसा के विकल्प अगर मौजूद हैं तो हमें उन्हें ही चुनना चाहिए । For Personal & Private Use Only - ४९ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चलते समय अहिंसा का पालन करने के लिए गपशप करते हुए न चलें वरन् नज़र को नीचे डालते हुए चलें ताकि हमारे पैरों के नीचे आकर छोटे-छोटे जीवों की हत्या न हो जाए। चलते समय अहिंसा का पालन करना धर्म का प्रथम चरण है। ऐसा न हो कि हम बड़े-बड़े धर्माचरणों के प्रति तो जागरूक रहें, पर छोटे धर्मों के प्रति लापरवाह हो जाएँ। अगर बच कर चला जा सकता है तो ज़रूर बचकर निकल जाना चाहिए, पर लगे कि अन्य कोई विकल्प नहीं है तो कुछ नहीं किया जा सकता, पर हाँ, तब भी हम उस हिंसा के दोष से बच न पाएँगे। माना कि शहर में प्लेग का रोग फैल गया, उससे बचने के लिए चूहों को मारना ही पड़ेगा, तब ऐसा नहीं कि दोष नहीं लगेगा। दोष तो लगेगा ही क्योंकि हत्या हो रही है, पर तब चूहों को मारना विवशता हो जाएगी। चलते समय अहिंसा का बोध रखना क्रियामूलक अहिंसा होगी। धर्म बहुत सरल होता है। यह तो छाया की तरह सदा हमारे साथ रहता है। हमें बोध, होश और जागरूकता हमेशा अपने में बनाए रखनी होती है। अगर साधक खा-पी भी रहा है तो खान-पान में भी अहिंसा का आचरण और अनुपालन हो। एक दफा मैं बौद्ध गुरु दलाई लामा के पास था। हम लोग आपस में जैन और बौद्ध धर्म की विशेषताओं के बारे में चर्चा कर रहे थे। मैंने पूछा- क्या आप लोग मांस का उपयोग करते हैं? उन्होंने ईमानदारी से स्वीकार किया और बताया कि - भारत में रहते हुए उन्हें मांस के उपयोग की आवश्यकता नहीं होती लेकिन तिब्बत में कभी-कभी उपयोग कर लेते थे। मैंने पूछा - भारत में क्यों नहीं? उन्होंने कहा - यहाँ अन्य बहुत से विकल्प मौजूद हैं। शाकाहार, दाल, चावल, रोटी आदि यहाँ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं कि हमें आवश्यकता ही नहीं होती कि हम मांसाहार करें। जीवन जीने के लिए तो व्यक्ति को किसी-न-किसी चीज़ का उपयोग करना ही पड़ेगा, पर जहाँ श्रेष्ठ शाकाहार के साधन उपलब्ध हैं वहाँ अन्य विकल्प के बारे में सोचने मात्र से ही दोष लगता है। भोजन बनाने में भी अहिंसा का बोध रखना चाहिए। खाना बनाने से पहले गैस के चूल्हे, सिगड़ी आदि का परिमार्जन करें तब तीली सुलगाएँ । बर्तन आदि भी देखकर साफ करके उपयोग में लें। पानी छानकर प्रयोग करें। भोजन करते समय मौनपूर्वक भोजन करें। होंठ खुले रखकर ५० For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खाने से संभव है भोजन की खुशबू से कोई मक्खी मुँह में जा सकती है। अहिंसा के आचरण के लिए ही रात्रि-भोजन का निषेध किया गया है। रात के समय कृत्रिम रोशनी तो की जा सकती है, हमें उसमें दिखाई भी ठीक से देगा, पर इस रोशनी में इतने कीड़े और मच्छर हो जाएंगे कि उनकी हिंसा का दोष तो हमें लगेगा ही। जिन दोषों से बचा जा सकता है उनसे बचा जाना चाहिए। अब लोग सुविधाभोगी हो गए हैं, व्रत भी करते हैं और छूट भी रखते हैं। लोगबाग रात्रि - भोजन त्याग का व्रत ले लेते हैं पर कहते हैं पाँच-छ: दिन की छूट रखी है। क्यों ? क्योंकि कहीं समारोह में - शादी, जन्मदिन, गृह-प्रवेश आदि में जाना है तो रात में खाना ही पड़ता है। अरे भाई, जब अहिंसा को प्रतिष्ठित करने की बात आई तो असफल हो जाते हैं और रात्रि में भोजन कर लेते हैं। घर में तो हिंसा अहिंसा को देखने वाले हम स्वयं ही हैं। इमेज तो बाहर बनानी चाहिए। समाज में बड़े-बड़े जीमण बंद होने चाहिए क्योंकि इनके लिए खाना दो दिन पहले से ही बनना शुरू हो जाता है। रात भर भट्टियाँ चलती रहती हैं। बना भी रात में, खाया भी रात में तो दोनों एक जैसे ही हो गए। जब हम दिन में खाते हैं तो भोजन भी दिन में ही बनना चाहिए। हमें अपनी प्रेक्टीकल लाइफ के साथ अहिंसा को जोड़ना चाहिए। साधना-भाव रखने वाले व्यक्ति को तो यह विवेक रखना ही चाहिए कि जब रात को नहीं खाते हैं तो खाना रात में नहीं बनाएँगे। जैसे रात को भोजन करना दोषपूर्ण है वैसे ही बनाना भी दोषपूर्ण है। होटल के खाने से परहेज रखें क्योंकि होटल का खाना बासी, अस्वास्थ्यकर और बिना साफ-सफाई के बनता है। घर का खाना शुद्ध, सात्विक और साफसफाई का ध्यान रखकर माँ, बहिन, पत्नी प्रेमपूर्ण तरीके से बनाती हैं। महिलाएँ कभी भी हिंसामूलक आहार नहीं करवाएँगी। इतना ही नहीं, अगर हम मल-मूत्र का विसर्जन करने जाएँ तो वहाँ भी विवेक रखें कि अहिंसा का पालन करें। बाथरूम या शौचालय में कीड़े-मकोड़े हैं तो पहले उन्हें साफ कर देना चाहिए। सर्जन और विसर्जन दोनों ही अहिंसामूलक होना चाहिए। यह व्यक्ति के जीवन में क्रियामूलक अहिंसा होगी। पारिवारिक अहिंसा के पालन में हमें कटु वाणी, आरोप या आक्षेप की भाषा नहीं बोलनी चाहिए जो किसी के दिल तक को आहत कर जाए। वर्तमान में जो आत्म-हत्याएं हो रही हैं वह अभाव, कर्ज या दहेज़ के लिए नहीं वरन् दूसरों For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के द्वारा कहे जाने वाले अप्रिय, कटु वचनों को सहन नहीं कर पाने के कारण हो रही हैं। वाणीगत हिंसा से बचने के लिए वाणी में मधुरता लानी चाहिए। अगर रिश्तों में कड़वाहट आ चुकी है तो आपसी सौम्य व्यवहार से रिश्तों में मिठास लानी चाहिए। पारिवारिक वातावरण में भी अहिंसा को जीने का बोध रखना चाहिए। कटु वाणी, आलोचना, निंदा, चार लोगों के मध्य अपमान नहीं करें। ऐसा कुछ न बोला जाए कि व्यक्ति को अंदर तक चोट लगे और उसकी आत्मा दुःखी हो जाए। कटु वाणी के द्वारा हम हत्या के समान दोष के भागी बन जाते हैं। हम पर्युषण पर्व आने पर तो एक-दूसरे से क्षमापना कर लेते हैं लेकिन क्या वाकई में क्षमापना हो पाती है? हम पर्युषण पर्व की प्रतीक्षा क्यों करें जो भी जमा खर्च करने हैं वह हाथोहाथ ही कर लेना ठीक है। अगर लगता है कि हमारी वाणी से किसी के दिल को ठेस लगी है और सामने वाला भी हमें यह अहसास करवा दे कि हमें ऐसा नहीं कहना चाहिए था तो यह न सोचें कि हमने जो कहा वह बिल्कुल सही कहा। हमारी दृष्टि में वह सही हो सकता है पर अगले को सही नहीं लगा न्, जितना जल्दी हो सके मामले को सुलझा लेना चाहिए। ज़्यादा तैश में आकर न बोलें, प्रेम से बोलें, धीरे बोलें। जो बात तैश में कही थी वही प्रेम से कहने पर हिंसा का दोष नहीं लगता और रिश्ते भी नहीं टूटते, दिल में खटास नहीं पड़ती। पानी छानकर पीना आसान होता है लेकिन घरपरिवार में एक दूसरे को नीचा दिखाना, अपमान करना, विपरीत टिप्पणी करना यह बहुत बड़ी हिंसा है। इस तरह की हिंसा जीववध, प्राणीवध के समान ही हिंसा है। पारिवारिक वातावरण में हमारे द्वारा अहिंसा का आचरण हो, धार्मिक वातावरण में हमारे द्वारा अहिंसा का आचरण हो। समाज में किसी का अपमान न करें, बड़ों का सम्मान करें। समाज में प्रतिष्ठित लोगों को पब्लिक के बीच में अपमानित नहीं करना चाहिए। धार्मिक रूप में भी अगर हम अहिंसा को जीने का बोध रखते हैं तो ख्याल रहे कि ऐसा कोई समारोह न हो जिससे हिंसा का दोष लगे। जब हम फूल में जीव मानते हैं तो परमात्मा के श्री चरणों में दो फूल चढ़ाने की थोड़ी-सी हिंसा के दोष को स्वीकार किया जा सकता है, पर भक्ति के नाम पर पूरे मंदिर को फूलों से ५२ For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शृंगारित करना कौन-सा धर्म और कौन-सी अहिंसा हुई। वह धर्म कैसा धर्म जिसमें हिंसा का दोष लगता हो। जिसमें अहिंसा को नहीं जिया जा सके वह धर्म कैसे कहला सकता है। यह अहिंसा का अतिक्रमण और अमर्यादा है। सम्मान देने लेने के लिए फूलों की माला की बजाय मूर्ति, शास्त्र, शॉल, साहित्य आदि भेंट दिए जा सकते हैं। शादी-विवाह में भी फूलों के बुके भेंट दिए जाते हैं और दूसरे दिन फेंक दिए जाते हैं। इसकी बजाय भजन की सी.डी., प्रवचनों की सी.डी., पुस्तकों के सेट देंगे तो वह दीर्घकाल तक याद रखेगा। ऐसा सार्थक प्रयास किया जाए जिससे अहिंसा का सम्मान हो और हिंसा का दोष कम-से-कम लगे। साम्प्रदायिक समन्वय बना रहे इसके लिए हम एक-दूसरे के प्रति टिप्पणियाँ न करें। भगवान महावीर ने इसीलिए तो अनेकान्त का सिद्धान्त दिया कि तुम्हारा उसूल भी ठीक हो सकता है और दूसरे का उसूल भी ठीक हो सकता है। हम अगर स्वयं को ही सही समझते हैं तो यहीं ग़लत हो जाते हैं। दूसरे की बात भी सुनें, उसके भी कुछ उसूल हैं। हमें एक-दूसरे के धर्मों का सम्मान करना चाहिए। हिन्दू को मस्जिद के सामने और मुसलमान को मंदिर के सामने अकड़कर नहीं, सिर झुकाकर चलना चाहिए क्योंकि दोनों ही स्थान इबादत के हैं। यही तो अहिंसा और मोहब्बत है कि दोनों ही आदरणीय हैं। हमें एक-दूसरे की परम्परा का सम्मान करना चाहिए। तभी परस्पर प्रेम, सौहार्द और समन्वय स्थापित हो सकेगा। जब तक हम अहिंसा का वातावरण नहीं बनाएँगे तो ख़तरा हमेशा बना रहेगा। इसलिए आज महावीर की, राम की, मोहम्मद साहब की, जीसस की अहिंसा की आवश्यकता है। मतलब न राम से है, न रहीम से, न ही महावीर से, न ही बुद्ध से है। मतलब केवल अहिंसा से है जिसके ऊपर दुनिया टिकी रह सकती है, सुरक्षित और एक-दूसरे के करीब रह सकती है। ये वे बातें हैं जो हमारे लिए देश, दुनिया और समाज के लिए कल्याणकारी बन सकती हैं। आप सभी को अमृत प्रेम। ५३ For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कैसे सुधारें विश्व का माहौल विश्व के समस्त आत्मज्ञानी महापुरुषों ने प्राणीमात्र को यह बोध देने का प्रयास किया है कि व्यक्ति संसार में अकेला ही आता है और अकेला ही जाता. है। चाहे बंद मुट्ठी आता हो लेकिन जाता तो खुली मुट्ठी ही है। गीता में श्रीकृष्ण पूछते हैं - तुम आए थे तो साथ में क्या लेकर आए और जब यहाँ से जाओगे तो सोचो क्या लेकर जाओगे । जहाँ स्वयं भगवान व्यक्ति को आध्यात्मिक चेतना, आध्यात्मिक बोध प्रदान करने की कोशिश करते हैं कि न साथ कुछ आता है न ही साथ कुछ जाता है फिर व्यर्थ के प्रपंच क्यों किए जाएँ । जीव अकेला आता है। अकेला जाता है, पर जीवन भर अकेला रहता नहीं है। व्यक्ति समुदाय, समाज, परिवार के बीच में रहता है। इसीलिए हम सभी सामाजिक प्राणी कहलाते हैं। हाँ, यदि हम अकेले रहते हों, अपने एकत्व का बोध हो तो अकेले रहने वाला व्यक्ति न तो कभी हिंसा करता है, न ही झूठ बोल सकता है, न ही चोरी या व्यभिचार कर सकता है क्योंकि वह अकेला है। पाप दुकेलेपन का परिणाम है। जब एक के साथ दो आ जाते हैं तब कोई बात छिपानी भी पड़ती है, डाँटना-डपटना भी पड़ता है, चोरी भी हो जाती है अर्थात् दो के होते ही नैतिकता की आवश्यकता आ पड़ती है । जहाँ द्वैत है वहीं सामाजिक मूल्यों की आवश्यकता है। जहाँ अद्वैत है वहाँ व्यक्ति स्वयं ही नैतिक होता है। ५४ For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो के आते ही राग पैदा हो सकता है, अकेला रहे तो राग भी नहीं है । दो के आते ही द्वेष पैदा हो जाता है, राग और द्वेष, मोह और नफ़रत - एक से दो, दो से चार, चार से दस होने पर ही उत्पन्न होते हैं । जन्म से अगर अकेला आया है और जीवन भर अकेला ही रहता है तो कहीं राग और द्वेष के निमित्त खड़े ही न हो पाएँगे। जब हम दो-चार - दस... सौ . .. हजार हुए तब एक व्यापक समाज का निर्माण हुआ । इस निर्मिति के साथ ही हम लोगों के जीवन में सामाजिक और नैतिक मूल्यों की आवश्यकता होती है । यदि जीवन भर इस एकत्व का बोध रहे कि वह अकेला आया है और अकेला ही जाएगा तब वह स्वतः आध्यात्मिक चेतना का स्वामी बन जाता है । व्यक्तिगत चेतना के दो पक्ष हैं - एक स्वार्थमूलक, दूसरा अध्यात्ममूलक । अपने परिवार के लिए जीने वाला व्यक्ति स्वार्थी कहलाता है और ध्यान-साधनामूलक जीवन जीने वाला आध्यात्मिक । जब ऋषि वाल्मीकि से उनके गृहस्थ-जीवन में पूछा गया कि तुम यह सब हिंसात्मक कार्य किसके लिए करते हो ? क्योंकि तब उन्होंने सप्त ऋषियों पर आक्रमण कर दिया था। उस समय वे एक डाकू थे। तब ऋषियों ने उनसे कहा तुम अपनी आजीविका के लिए ऋषियों पर भी आक्रमण करने को तत्पर हो गये, सोचो जब इस पाप का उदय आएगा तब कौन भोगेगा । वाल्मीकि ने कहा- कौन क्या भोगेगा, सभी लोग मिलकर भोगेंगे। ऋषियों ने पूछा- तुम यह पाप किसके लिए कर रहे हो ? कहा - सभी के लिए कर रहा हूँ । मैं, मेरी पत्नी, बच्चे, मेरे माता-पिता सभी के लिए। ऋषि बोले जब इस पाप का उदय आएगा तो क्या वे भी सहभागी बनेंगे ? ऐसा करो, इस बात को घर जाकर पूछ आओ । वाल्मीकि घर जाते हैं, वहाँ घर के सभी लोग इंकार कर देते हैं और कहते हैं - हम तो सुख के साथी दुःख तो इंसान को अकेले ही भोगना पड़ता है । हैं, WWII - तब वाल्मीकि चौंक जाते हैं। उनका हृदय परिवर्तित हो जाता है। सामाजिक जीवन में भी यदि हम कुछ भी उचित - अनुचित करते हैं तो हमें याद रखना चाहिए कि हमसे जुड़े हुए सभी लोग स्वार्थी चेतना वाले ही हैं । गुफावासी व्यक्ति भी जीता है लेकिन खुद के लिए, वह भी स्वार्थी है स्व + अर्थ के लिए जीने वाला । उसका जीवन स्वान्तः सुखाय होता है । For Personal & Private Use Only www.jainelible.org Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ भी अपने लिए जीता है और एक संत अथवा साधक भी अपने लिए जीता है। उसे दुनिया से कोई प्रयोजन नहीं होता, लेकिन फ़र्क है। व्यक्तिगत चेतना तो दोनों की है पर फ़र्क यह है कि परिवार के स्वार्थ में रहकर कोई भी कार्य करना व्यक्ति की चेतना का अधःपतन कहलाएगा और गुफावास स्वीकार करके स्वयं के जीवन के लिए संसार से मोहमाया छोड़ देना ऊपर उठभा कहलाएगा। दोनों के कार्य व्यक्तिगत स्तर पर हो रहे हैं, पर एक में व्यक्ति नीचे गिरता है दूसरे में ऊपर उठता है। हर व्यक्ति आध्यात्मिक चेतना का स्वामी बने, आध्यात्मिक सौन्दर्य से दीप्त हो, उसका आभामंडल आध्यात्मिक हो, यह ज़रूरी है, पर हर व्यक्ति जो स्वार्थों में रत है उसकी चेतना में कहीं भी अध्यात्म की हवा, अध्यात्म की आभा देखने को नहीं मिल सकती। महावीर चाहते हैं कि व्यक्ति भले ही पत्नी और बच्चों के साथ रहता हो, पर उसकी आध्यात्मिक चेतना का निर्माण हो । उसका आध्यात्मिक सौन्दर्य बढ़ सके, आध्यात्मिक आभामंडल निर्मित हो सके, उसकी सामाजिक चेतना बेहतर बन सके, इसके लिए ज़रूरी है कि जिस समाज के मध्य वह रहता है वहाँ वह कुछ सामाजिक नियमों को, सामाजिक मूल्यों को अपने जीवन में स्वीकार करे। ऐसा करने के लिए उन्होंने खास संदेश दिया है - व्रत। व्रत का अर्थ है विरत होना, अलग होना। किनसे अलग होना ? गलत कार्यों से, अंधविश्वासों से, बुराइयों से स्वयं को अलग करने का नाम व्रत है। सामान्यतः हम व्रत का अर्थ भूखे रहने से लगा लेते हैं कि आज संतोषी माता का व्रत है, कि आज एकादशी है, कि आज शिवजी या महावीर जी का व्रत है। व्रत यानी कि आज एक समय ही खाना खाएँगे और दिन में दूध, चाय और फल आदि ग्रहण कर लेंगे। यह तो आहार का व्रत हआ। महावीर ऐसे व्यक्ति हैं जो आहार को ही केवल व्रत के रूप में नहीं ढालते वरन् इन्सान के आचरण, वाणी, व्यवहार अर्थात् उसके पूरे जीवन को ही व्रत की परिधि में लेना चाहते हैं। ___महावीर ने - अहिंसा, सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य - ये पाँच व्रत दिए। देखा जाए तो ये व्रत मानवजाति के लिए पंचामृत हैं। व्यक्ति अगर शांतिमूलक, स्नेहपूर्ण, स्वयं के द्वारा दूसरों के प्रति, दूसरों के द्वारा स्वयं के प्रति सौम्य व्यवहार, कोमल और मृदु व्यवहार चाहता है तो उसे स्वयं भी ये पाँच व्रत For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारण करने होंगे और दूसरे को भी इन व्रतों की अनुपालना करनी होगी। वास्तव में ये पाँच व्रत दुनिया को दिए गए वे संदेश हैं जो दुनिया को सामाजिक स्तर पर एक दूसरे के साथ जोड़कर एक-दूसरे के लिए सहयोगी बनाते है। महावीर ने जिसे पंच व्रत का नाम दिया है बुद्ध ने इन्हीं पाँच सिद्धान्तों को पंच शील की संज्ञा दी है और पतंजलि ने इन्हें पाँच यम कहा है। आज अगर महावीर, बुद्ध और पतंजलि तीनों की धाराओं को एक कर दिया जाए तो वह सिद्धांत किसी एक धर्म का नहीं, बल्कि सम्पूर्ण राष्ट्र का सिद्धांत कहलाएगा, सम्पूर्ण भारत का धर्म कहलाएगा। हम इन पाँच सिद्धान्तों को भारत के सिद्धांत समझें, मानवता के सिद्धांत जानें। पहला सिद्धांत, पहला व्रत है अहिंसा । अहिंसा भारत की आत्मा है, विश्व-प्रेम और विश्व-शांति की धुरी है। अहिंसा से बढ़कर कोई धर्म नहीं और हिंसा से बढ़कर कोई पाप नहीं। आपके हाथ में अगर अहिंसा का दीप है, तो इसका मतलब है आपके हाथ में विश्व-प्रेम की पताका है। मैं अहिंसा का पथिक हूँ। महात्मा गाँधी अहिंसा के पुजारी थे। नेल्सन मंडेला अहिंसा के पोषक हैं। सम्राट अशोक पर अहिंसा को गौरव है। अहिंसा यानी मन, वचन, काया के द्वारा हिंसा का त्याग करना ही अहिंसा है। अपने भाषण और कृत्य के द्वारा किसी को भी ठेस न पहुँचाना अहिंसा है। ऐसी भाषा का उपयोग न किया जाए जो दूसरों के लिए मर्मांतक हो और ऐसे कृत्य या कार्य भी न किए जाएँ जो दूसरों के लिए हानिकर हों। अहिंसा का मतलब है - 'जिओ और जीने दो।' 'जिओ और जीने दो' छोटा-सा सिद्धांत है, पर इन चार शब्दों में चारों वेदों का ज्ञान समाया है। मैं समझता हूँ पूरे संसार का अस्तित्व बचाए रखने के लिए हमें इसी सूत्र की आवश्यकता है कि खुद भी जिओ और दूसरे को भी जीने दो। खुद भी शांति से जिओ और दूसरों को भी शांति से जीने का अधिकार दो। अगर हम शांति-पथ के उपासक बनना चाहते हैं तो हमें शांति भरे शब्दों का प्रयोग करना चाहिए। शांति की बातें तो सभी करते हैं, पर शांति भरी शब्दावली का प्रयोग नहीं कर पाते हैं। जब शांति भरे शब्दों का इस्तेमाल नहीं करते तो अशांति खड़ी हो जाती है और अशांति के आते ही हिंसा के निमित्त उत्पन्न हो जाते हैं। For Personal & Private Use Only www.jainelibagorg Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज लोगों में गर्मी बहुत चढ़ गई है। थोड़ी-सी बात भी सहन नहीं हो पाती। लोग बात-बात में गोली चला बैठते हैं । आज रावण का शासन आ गया है। हर वर्ष रावण के पुतले फूंकते हैं, पर फिर भी रावण मर नहीं रहा । अच्छा होगा कि हम पुतलों को फूंकने की बजाय भीतर बैठे रावण को फूंकने का जतन करें। भारत के अशोक चक्र के नीचे सत्यमेव जयते लिखा जाता है। यह नारा अब पुराना हो गया है। घिसापिटा-सा लगता है। अब नया नारा हो, नया सूक्त हो और वो हो - जिओ और जीने दो, लिव एंड लेट लिव । आपकी जिज्ञासा है कि 'जिओ और जीने दो' का सिद्धांत किसके लिए है - साधक के लिए या गृहस्थ के लिए ? ध्यान रहे सिद्धांत प्राणिमात्र के लिए होते हैं बस साधक इसे परिपूर्णता के साथ जीता है और आम व्यक्ति आंशिक रूप से जीने का प्रयत्न करता है । यह धरती 'जिओ और जीने दो' के सिद्धांत पर ही टिकी रह सकती है - मरो और मारो के सिद्धांत पर नहीं। अगर मरो और मारो का सिद्धांत चल पड़ा तो सोचिये यह धरती कितने दिन टिकी रह सकेगी। यह परम्पराओं के बुनियादी भेद हैं जिसमें एक परंपरा मरने-मारने की और दूसरी परंपरा जीओ और जीने दो की बात करती है। जो परंपरा मरने-मारने की कहते हैं वे दुनिया में मारकाट मचा देते हैं, खून-खराबा करते हैं। जबकि जिओ और जीने दो वाले कहते हैं कि तुम खुद भी शांति से जिओ और हमें भी शांति से जीने दो। न हम मरना चाहते हैं और न तुम्हें मारना चाहते हैं। लेकिन कोई हमें मारने पर आमादा हो जाए तो हिंसा की गली खोलनी पड़ सकती है, पर हिंसा इस दुनिया का समाधान नहीं है। इस दुनिया में समाधान केवल अहिंसा से ही मिल सकता है। अतीत में भी अहिंसा ही समाधान बना और भविष्य में भी यही समाधान बनेगा। ____ आज हमें आतंकवाद और उग्रवाद का सामना करना पड़ रहा है। इसके चलते न केवल हमारे देश को बल्कि समूचे विश्व को अपनी आधी ताक़त आतंकवाद से जूझने में लगानी पड़ रही है। कितना अच्छा हो जो ताक़त सुरक्षा पर लगाई जा रही है, अगर वही ताक़त सृजन पर लगाई जाती तो विश्व प्रगति के नये द्वार खोलता। आधी दुनिया की गरीबी मिटाई जा सकती थी। पर क्या किया जाए ? समझने को कोई तैयार ही नहीं है। Jan Education International For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा के सन्दर्भ में - जो लोग मांस-मदिरा का उपयोग करते हैं उनके लिए यही कहना है कि सभी को जीने का अधिकार है। क्या हम चाहते हैं कि कोई हमारी निंदा करे, मारपीट करे, अपमान या उपेक्षा करे ? हम अपने लिए तो चाहते हैं कि कोई हमारे साथ ऐसा न करे, पर जब हम दूसरों के साथ ऐसा करें तो ? इसका मतलब है कि हम अपने लिए तो अहिंसामूलक वातावरण चाहते हैं पर दूसरों के साथ हिंसामूलक व्यवहार करने में हिचकिचाते नहीं हैं। कौन है जो खुद को नुकसान पहुंचाना चाहता है लेकिन दूसरों को हम नुकसान पहुँचा ही देते हैं। गैर-शाकाहारियों से मैं कहना चाहता हूँ कि आज दुनिया में आवागमन के इतने अधिक साधन हैं कि खाद्यान्न एक स्थान से दूसरे स्थान तक सहजता से पहुँचाया जा सकता है। ऐसी स्थिति में कोई भी किसी जीव की हत्या क्यों करे ? जो मांस का उपयोग करते हैं क्या उन्होंने कभी किसी सागर के किनारे खड़े होकर अन्य मछलियों के साथ आमोद-प्रमोद नहीं किया ? उनसे प्रेम नहीं किया ? जो व्यक्ति बकरों को काटते हैं क्या उन्होंने कभी उसकी देह पर प्यार से हाथ नहीं सहलाया ? जब प्यार से सहलाया होगा तो उन्हें ज़रूर अहसास हुआ होगा कि इस प्यार को वह मूक प्राणी भी महसूस कर रहा है। ऐसे में वह उनकी हत्या कैसे कर सकता है। धर्म तो इस बात की कभी इज़ाज़त देता ही नहीं है, मानवीय पक्ष से भी यह उचित नहीं है कि साग-सब्जियों के उपलब्ध होते हुए भी मांसमछली-मुर्गे का उपयोग करें। हमें मछली खाने की बजाय उसे पानी में तैरते हुए देखने का आनन्द लेना चाहिए। किसी पक्षी पर तीर चलाने की बजाय उसे खुले आकाश में उड़ते हुए देखने का मज़ा लेना चाहिए क्योंकि कुदरत हमें उनके ज़रिये आनन्द देना चाहती है। हर प्राणी जीना चाहता है। हमें उन्हें मारने का अधिकार तभी है जब हम उन्हें वापस जीवित करने की क्षमता रखते हों। यदि हम किसी को जीवन नहीं दे सकते तो उसे मार कैसे सकते हैं। एक माँ बच्चे को चाँटा मारती है लेकिन उसी हक के कारण जिससे वह प्यार भी करती है। अगर माँ बच्चे को प्यार नहीं करती तो उसे चाँटा मारने का अधिकार भी नहीं है। अहिंसा को हमें अधिक से अधिक जीना चाहिए, पर इसका केवल इतना अर्थ नहीं है कि हिंसा मत करो बल्कि अपने से जो कमजोर हैं उनके प्रति दयाभाव, करुणाभाव, सहयोग और दान की भावना रखें । यह अहिंसा का व्यावहारिक पक्ष है। इसीलिए कहते हैं - ५९ For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाप मूल अभिमान । दयाधर्म का मूल है, 'तुलसी' दया न छोड़िए, जब लग घट में प्रान ।। जब तक इन्सान की देह में प्राण हैं तब तक उसे दया धर्म नहीं छोड़ना चाहिए। कौन कितना धार्मिक क्रियाओं में व्यस्त है यह मत देखो बल्कि यह देखो कि उसके दिल में कितनी दया, शांति और समता है । यह मत देखो कि कौन कितना बड़ा है, यह देखो कि वह छोटों को माफ़ करने के लिए अपने बड़प्पन का कितना उपयोग करता है। कौन संत पुराना है और किसने अभी-अभी संन्यास लिया है इस उम्र को मत देखो वरन् यह देखो कि वह संत अपने जीवन में कितनी अधिक सज्जनता रखता है । गुण के आधार पर उसकी पूजा होनी चाहिए। क्या हम उसे तपस्वी कहेंगे जो तीन दिन तो उपवास करता है लेकिन चौथे दिन ही अभद्र व्यवहार करता है । हम शायद उसे तपस्वी स्वीकार करने को तैयार न हो पाएँ । व्यक्ति की दया बताती है कि वह हिंसक है या अहिंसक । केवल कहने से अहिंसा नहीं होती। भले ही कहते रहें कि थप्पड़ नहीं मारा, पर प्यार भी तो नहीं किया। थप्पड़ नहीं मारने से हम अहिंसा के अनुयायी तो कहला सकते हैं, पर किसी को प्यार और मोहब्बत करके हम दया और मैत्री के उपासक बन सकते हैं । केवल हिंसा न करना ही अहिंसा का आचरण नहीं है बल्कि हिंसा से बचते हुए दिल में दया, करुणा, क्षमा की भावना को अधिक से अधिक स्थान देना अहिंसा को सकारात्मक रूप से जीने का प्रेक्टिकल तरीका है । आप जो यह जानना चाहते हैं कि मेडीकल की पढ़ाई के लिए, शोध कार्य और जाँच के लिए जो छोटे-छोटे जीवों की हिंसा होती है वह कहाँ तक दोष कहलाएगा? हालाँकि इन्सान के लिए जो चिकित्सा उपलब्ध करवानी है उसके लिए बेहतर है कि जो प्राणी मृत हो चुके हैं उनके शव पर प्रयोग किया जाए। आप जानते ही होंगे कि विद्यार्थियों को शवों पर ही कार्य करने को कहा जाता है। शव पर ही चीर-फाड़ करके सीखा जाता है। जब बंदर, चूहे, मेंढक, बिल्ली आदि पर प्रयोग किये जाते हैं तो निश्चित ही यह हिंसा है और विज्ञान को इसका विकल्प भी अवश्य ही ढूँढना चाहिए। हाँ, विज्ञान भी तभी विकल्प ढूँढेगा जब वह स्वीकार करेगा कि मांसाहार पाप है, अमानवीय है, दुराचार और Jair ducation International For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षम्य अपराध है। जीवित प्राणियों को अगर वे गाजर-मूली ही समझते रहे तो इनकी हत्या करने में उन्हें कोई तकलीफ़ होगी ही नहीं। लेकिन ज्यों-ज्यों उनके भीतर मानवता जगेगी त्यों-त्यों निश्चित रूप से वे इसके ख़िलाफ़ होंगे और इससे बचना चाहेंगे। इसलिए जो शुद्ध शाकाहार ग्रहण करना पसंद करते हैं वे दूध और इससे बने पदार्थों का प्रयोग भी नहीं करते हैं। आजकल बहुत से लोग वरक का प्रयोग भी नहीं करते हैं क्योंकि वरक बनाने में चमड़े का उपयोग होता है। पर वरक का उपयोग न करने वाले वे ही लोग चमड़े की वस्तुओं का उपयोग कर रहे हैं। लेकिन जैसे-जैसे विवेक जाग्रत होगा लोग इस प्रकार की वस्तुओं का उपयोग नहीं करेंगे और जब चमड़े का त्याग करेंगे तो हिंसा भी छोड़ेंगे । अभी तक अहिंसा पूरे विश्व में स्थापित हो नहीं पाई है, बस प्रयत्न चल रहे हैं। कुछ ही कौम, कुछ ही जातियाँ, कुछ ही परम्पराएँ ऐसी हैं जो शुद्ध रूप से शाकाहार लेती हैं और मांसाहार का वर्जन करती हैं । अभी भी व्यक्ति के भीतर मानवता को पैदा होने में वक्त लगेगा । हम सभी को प्रयत्न करने होंगे कि इन्सान इस बात की बुनियादी समझ प्राप्त कर सके कि किसमें हिंसा है और किसमें अहिंसा है। जो परंपराएँ विशिष्ट पशुओं के लिए यही समझती हैं कि ये तो खाने के लिए ही हैं वे परंपराएँ सूक्ष्म अहिंसा को कैसे स्थापित कर पाएँगी, कैसे जी पाएँगी। आज महावीर और बुद्ध की पुनः आवश्यकता है तभी वे अपने विशिष्ट व दिव्य ज्ञान के द्वारा दुनिया को जाग्रत कर सकेंगे और समझा सकेंगे कि दुनिया का अस्तित्व किस आधार पर टिका रह सकता है। दूसरी परम्पराओं में भी दया व क्षमा का विधान है लेकिन जीव-जंतुओं के प्रति जितनी दया की आवश्यकता होती है उतनी प्रेरणा न तो दी गई है और न ही व्यवहार में लिया जा रहा है। अभी हम सूक्ष्म हिंसा के प्रति जागरूक नहीं हो पाए हैं इसलिए मिठाई आदि पर वरक का प्रयोग कर लेते हैं और मंदिरों में भगवान की आंगी के रूप में वरक का उपयोग कर लिया जाता है। अच्छा तो यही होगा कि अगर हम सूक्ष्म हिंसा के प्रति भी जागरूक हैं तो इस वरक का उपयोग न तो अपने लिए करना चाहिए और न ही परमेश्वर के निमित्त करना चाहिए। पर जो सूक्ष्मता के साथ अहिंसा का पालन नहीं करते हैं और जो स्थूल रूप से पालन करते हैं वे ही वरक का उपयोग करते हैं। अगर इससे बचा जाए तो For Personal & Private Use Only ६१ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अच्छा ही है। इसके उपरान्त भी जो उपयोग कर रहे हैं वे स्थूल रूप में ही अहिंसा का पालन करते हैं, सूक्ष्म रूप से नहीं। इसलिए वे इसे स्वीकार कर लेते हैं। यह अवश्य है कि अगर मंदिरों में इन चीजों से बचा जा सके तो अच्छा ही है। मंदिरों में फूल भी बहुत सारे नहीं चढ़ने चाहिए। प्रभु के प्रति श्रद्धा रखने के लिए पाँच-दस पुष्प पर्याप्त होते हैं। अधिक हिंसा-प्रतिहिंसा से बचना चाहिए। शादी-विवाह के मौकों पर होने वाले अत्यधिक फूलों के उपयोग से बचना चाहिए । फूल इन्सानों के लिए हार बनने को नहीं हैं। परमेश्वर को समर्पित किए जाएँ वहाँ तक मन स्वीकार कर लेता है लेकिन इन्सानों को प्रेम और सम्मान का इजहार करने के लिए अन्य तरीके अपनाने चाहिए । जहाँ तक हो हमें हिंसा के दोषों से बचना ही चाहिए। फूलों में भी जीव है। जो हिंसा आवश्यकीय है, वही हिंसा स्वीकार्य है, शेष हिंसा का वर्जन होना चाहिए। दूसरी है वाचिक हिंसा । हम वाणी के द्वारा दूसरों को ठेस पहुंचा देते हैं और परवाह भी नहीं करते । शुद्ध अहिंसावादी, आत्मचेता व्यक्ति यही कहेगा कि किसी को भी मर्माहत करने वाला शब्द कहना उसकी हत्या के समान ही है। बेहतर यही होगा कि वाणी के द्वारा हम किसी की आलोचना न करें, ज़्यादा टेढ़ी बात न कहें, उग्र प्रतिक्रिया न करें। यह विवेक तो रखना ही चाहिए कि इतनी उग्र प्रतिक्रिया न हो जाए कि संबंध ही बिखर जाएँ। दुनिया में दो बातें चलती हैं - अकड़ और पकड़। पकड़ का अर्थ है। जिन बातों को हमने पकड़ लिया हम उन्हें छोड़ते ही नहीं हैं। पकड़ भी कमज़ोर हो जानी चाहिए। जितनी जल्दी उसे भुला दिया जाए अच्छा है। दूसरी है - अकड़। अगर अकड़ रखेंगे तो टेढ़े शब्द बोलेंगे। अकड़ रखेंगे, तो कोई उपेक्षा कर देगा तो सहन नहीं होगा। तब वाणी के द्वारा हिंसा का यह दौर चलता रहेगा। भले ही हम किसी जीव-जंतु की हत्या न करते हों तब भी हिंसा जारी रहेगी। मेरे विचार से अहिंसा का केवल इतना - सा मतलब नहीं है कि हम हिंसा नहीं करेंगे अपितु अहिंसा का अर्थ है हम दया-धर्म का पालन करेंगे, दीन-दुःखियों की मदद करेंगे। मैंने सुना है - अमेरिका के महान राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन राष्ट्रपति भवन से संसद के लिए जा रहे थे कि रास्ते में एक गड्ढा नज़र आया जिसमें सूअर फँसा हुआ था। वह आर्त आवाज़ में पुकार रहा था। लिंकन को ६२ For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लगा कि यह बेचारा फँस गया है इसे निकाल देना चाहिए। वे सूअर के पास पहुँचे, अपने कपड़ों को ऊँचा उठाया और गड्ढे में उतरकर सूअर को खींचकर बाहर निकाल दिया। सूअर बाहर निकला और फड़फड़ाया। फड़फड़ाते ही उसके शरीर का कीचड़ उछला और लिंकन के सफेद सूट पर जा गिरा। लिंकन ने कीचड़ झटकाया और संसद में जा पहुँचे । जब कीचड़ सने कपड़े लोगों ने देखे तो लिंकन ने सबसे पहले देर से पहुँचने के लिए क्षमा माँगी और सूअर के बारे में बताया। लोगों ने कहा - आपके कपड़े भी गंदे हो गए हैं। उन्होंने कहा - कोई बात नहीं, कपड़े तो धुल जायेंगे। कम-से-कम एक सूअर की जान तो बच गई। तब कहा गया - आप सचमुच दयालु हैं। आपने एक सूअर का दुःख दूर किया। लिंकन ने कहा - नहीं भाई, मैंने उसका नहीं, अपना ही दुःख दूर किया, उसकी नहीं, अपनी ही पीड़ा दूर की क्योंकि उसकी पीड़ा को देखकर मैं पीड़ित हो गया था। अगर मैं उसे न बचा पाता तो मैं यहाँ आकर भी स्वयं को माफ़ नहीं कर पाता। इसे कहते हैं दया - जहाँ व्यक्ति ने अपने कपड़ों की परवाह नहीं की और पीड़ित प्राणी को बचा ही लिया। अहिंसा व्यक्ति को जीना सिखाती है और हिंसा मरना तथा मारना । यह बुनियादी फ़र्क है और यह दुनिया एक दूसरे को जीवन देकर ही बचाई जा सकती है, किसी को मारकर नहीं। दूसरों को प्रेम करो, खूब स्नेह करो, दोस्ती निभाओ । कृष्ण भगवान कहलाने लगे, महलों में रहने लगे, सम्राट् हो गए, फिर भी उन्होंने सुदामा के साथ मित्रता नहीं छोड़ी। जैसे ही पता चला कि उनका पुराना मित्र आया है उन्होंने उसके दुखड़े को दूर किया। दोस्ती अंतिम समय तक रहनी चाहिए। बिना मंगल मैत्री-भाव के हम दुनियाँ में सुख से जी नहीं सकते। ‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्'- हम सब यहाँ एक दूसरे पर अवलम्बित हैं। हम सभी एक दूसरे के सहयोगी हैं। कोई यह न समझे कि वही सब कुछ कर रहा है। अगर एक कमा रहा है तो घर में महिला खाना बना रही है, बच्चों को सँभाल रही है। वृद्ध दादा-दादी, नाना-नानी तुम्हारे बच्चों को संस्कार दे रहे हैं, तुम्हारे घर का ध्यान रख रहे हैं, घर में रहने वाले लोगों की हिफ़ाज़त कर रहे हैं। सभी की उपयोगिता है। दुनिया एक दूसरे पर निर्भर है। For Personal & Private Use Only www.jainelibr G Borg Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ अहिंसावादी बनना है तो केवल यह मत सोचो कि पानी के जीव नहीं मरने चाहिए या ज़मीन पर चलने वाली बारीक चींटी, कीड़े-मकोड़े नहीं मरने चाहिए। यह ठीक है कि इस प्रकार की भी हिंसा हमसे नहीं होनी चाहिए, लेकिन निंदा, आलोचना, उग्र प्रतिक्रियाएँ भी हिंसा का ही एक रूप हैं। प्राणी मात्र के लिए मैत्री-भाव रखो। ध्यान-प्रार्थना के बाद अपने विरोधी के लिए प्रार्थना करें कि ईश्वर उसे सद्बुद्धि दे। मेरे मन में उसके प्रति सद्भाव है, उसके मन में भी मेरे प्रति सद्भाव हो । इससे हमारा आभामंडल निर्मल होगा । हमारे मन की धाराएँ निर्मल होंगी। अन्यथा शब्दों में तो कहेंगे कि विरोध नहीं करते, पर विरोध हो ही जाएगा। चाहे-अनचाहे, जाने-अनजाने विरोध हो ही जाता है। हिंसा का निषेध ही न हो, अपितु सबके प्रति प्रेम हो, मैत्री हो, सम्मान हो। ऐसा काम हो कि दूसरों को सुकून मिले। सास द्वारा बहू को सम्मान देना पारिवारिक अहिंसा है और उसे लताड़ना पारिवारिक हिंसा है। भाई द्वारा भाई की मदद पारिवारिक सहयोग है, दया है और अपने ही भाई को कोर्ट में पहुँचाना पारिवारिक हिंसा है, पारिवारिक नफ़रत और घृणा है। अगर हम परिवार में ही अहिंसा को ठीक ढंग से नहीं जी पाते तो समाज में कैसे जी पायेंगे। इसलिए जीव-जंतुओं की हिंसा को ही हिंसा न समझें बल्कि जिस परिवार और समाज में हम जीते हैं उनकी हिंसा से भी बचना चाहिए और उनके लिए सहयोग का द्वार खोलना चाहिए। दूसरा व्रत है 'सत्य'। 'अहिंसा' - अगर धर्म की धुरी है, ‘अहिंसा' अगर धर्म की माता है तो 'सत्य' धर्म को जन्म देने वाला पिता है। 'सत्य' वह अकेला धर्म है जिसमें दुनिया के सभी धर्मों को समाविष्ट किया जा सकता है। कहा भी तो यही जाता है - सत्यमेव जयते । यह भारत का आदर्श वाक्य है, पर भारत के नागरिक इस आदर्श वाक्य को जी न पाये । भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी के चलते सत्य हमारे हाथ से चला गया। धर्मशास्त्र कहते हैं : सत्यं शिवं सुन्दरम् । सत्य है तो शिव है, शिव है तो सुन्दर है। केवल सौन्दर्य किस काम का अगर वह कल्याणकारी न हो। वही सौन्दर्य सही है जिसके भीतर शिव समाया हुआ है, कल्याण-भाव समाया है। और शिव-भाव उसी में है जिसमें सत्य है। सत्य Jalolucation International For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्ति की शक्ति है, सत्य व्यक्ति की ताक़त है। हमने अगर सत्य को ही गिरवी रख दिया तो सब कुछ ख़त्म हो जाएगा। अगर हम सत्य को जीवन में जीना चाहते हैं तो १. वाणी का सत्य ज़रूरी है। २. आचरण का सत्य अपनाया जाए। ३. आमदनी का सत्य बनाए रखा जाए। सत्य अर्थात् ईमान, सत्य यानी प्रामाणिकता। जो कह दिया उस पर कायम रहना - प्राण जाय पर वचन न जाहि। अभी की बात है, एक व्यक्ति टाइल्स दिखाने के लिए आया था। उसने बताया कि उसका सेठ सिन्धी है और बहुत अच्छा आदमी है। मैंने कहा - आपने अपने सेठ को अच्छा कहा, कोई वज़ह ? कहने लगा - अभी टाइल्स के रेट सोलह रुपये चल रहे हैं, कहीं बड़ा ऑर्डर मिल रहा था तो मैंने चौदह रुपये में सौदा तय कर लिया। जब वापस दुकान पर पहुंचा तो पता चला कि उस दिन जो माल उतरा है वह अठारह रुपये में पहुँचा है। सेठ ने कहा - अब क्या किया जाए ! कर्मचारी ने कहा कि मैं जाकर उनसे कह देता हूँ कि माल महँगा हो गया है और हम चौदह रुपये के रेट में नहीं दे पाएँगे। तब सेठ ने कहा - नहीं ऐसा नहीं हो सकता। माल हमारे यहाँ भले ही महंगा आया हो, पर तुम हमारी फर्म में काम करते हो और तुमने चौदह रुपये बोल दिया है तो माल उसी रेट पर जाएगा। मेरे सेठ को मेरे कारण साढ़े आठ हजार रुपये का नुकसान उठाना पड़ा। केवल इसी कारण कि वह अपने कर्मचारी की बात को भी स्वयं का कहा मानता है। हानि-लाभ तो होते रहते हैं, पर हमारा शब्द, हमारा वाक्य, हमारा सत्य परिवर्तित नहीं होना चाहिए। वाणी का सत्य भी सत्य है। चाहते तो दशरथ भी कह सकते थे कि कैकेयी वह तो युद्ध के मैदान में दिया गया वचन था, राजमहल में दिया जाने वाला वचन नहीं है कि मैं कह दूँ राम को वनवास मिले और भरत का राज्याभिषेक हो जाए। नहीं, ऐसा नहीं हो सकता । वचन अगर मुंह से निकला है तो उस वचन के लिए स्वयं के प्राण भी त्यागने पड़ें और अपने सबसे प्रिय पुत्र को भी कुर्बान करना पड़े तो मैं करूँगा, लेकिन अपने सत्य की आन रखूगा । साँच साँच सो साँच - जो सत्य है वह सत्य ही होता है। जहाँ साँच तहाँ आप है - जहाँ सत्य होता है वहीं प्रभु (आप) का निवास होता है। Truth is God - सत्य ही ईश्वर है। वाणी से अगर बोल C . For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिया है तो उसे निभाओ । बोलना ज़रूरी नहीं है, मौन बहुत ज़रूरी है, पर बोलने पर अगर कोई शब्द निकल गया है तो उसे अमल में लाने के लिए भले ही दूसरा व्यक्ति जागरूक न हो, पर हमने कहा है तो हम उसे अमल में लाएँगे । जो लोग रामायण से प्रेरणा लेना चाहते हैं वे प्रेरणा ले सकते हैं - प्राण जाहि पर वचन न जाहि । दिए हुए वचन को और लिए हुए नियम को मर के भी निभाना चाहिए फिर चाहे जैसी स्थिति आए । वचन देने से पहले सोचो कि पालन कर भी सकोगे या नहीं। और अगर बिना सोचे वचन दे दिया तो जो बाधाएँ आएँगी वे आएँ, पर वचन तो निभाना ही होगा । हरिश्चन्द्र जैसे लोग आज भी सत्य के कारण संसार में पूजे जाते हैं। जिसने मरघट में बिकना स्वीकार कर लिया, पर सत्य को नहीं छोड़ा। फाँसी के फंदे पर लटकना स्वीकार कर लिया । राजमहलों में राजा बनने की बजाय भिखारी बनना पसंद कर लिया, अपने सत्य को नहीं छोड़ा । सत्य बहुत बड़ा धर्म है । हमारे आचरण में सत्य होना चाहिए । हमारी वाणी में सत्य होना चाहिए। हमारी आमदनी में सत्य होना चाहिए। झूठ की कमाई चोरी कहलाएगी। पर महावीर को कमाई में भी सत्य की आवश्यकता पड़ी इसीलिए उन्होंने तीसरा व्रत ही ‘अचौर्य' बना दिया कि व्यक्ति कमाई में भी झूठ और चोरी न करे । आज पूरे संसार में पैसे का इतना महत्त्व बढ़ गया है कि सत्य को तो किनारे कर दिया है और पैसा ही परमेश्वर बन गया है । जब पैसा ही भगवान बन गया है तो लोग अपने ईमान को सुरक्षित नहीं रख रहे हैं और अपने पैसे को येन-केन-प्रकारेण बढ़ाने की जुगत लगाते रहते हैं । कुछ प्रशासनिक व्यवस्थाएँ ऐसी हो गई हैं, कुछ टैक्स इतना बढ़ गया है कि पैसा ब्लैक, व्हाइट होता रहता है। इस वजह से भी व्यक्ति झूठ बोलने लगा है। अगर इन व्यवस्थाओं को हटा दिया जाए तो इन्सान झूठ नहीं बोलेगा, चोरी नहीं करेगा। मैंने सुना है विदेशों में ग़लत काम किये जाने पर तुरंत सजा हो जाती है लेकिन हमारे यहाँ मामले लंबित होते रहते हैं । वहाँ लोग सत्य को धर्म समझते हैं और हम सत्य को नहीं, अहिंसा को धर्म मानते हैं । वे लोग जल्दी से झूठ नहीं बोलते, चोरी नहीं करते, टैक्स नहीं चुराते। वे छोटे-मोटे नहीं, लंबे गेम खेलते हैं। हमने अहिंसा को सुरक्षित रखने की कोशिश की, वह भी कुछ कौम ही દદ For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसा कर सकीं, पर सत्य को किनारे कर दिया। आजकल अहिंसा पर भाषण दिये जा सकते हैं, पर अहिंसा को पूर्ण रूप से जिया नहीं जाता । चोरी की आदत जाती नहीं है क्योंकि व्यक्ति को लगता है कि बिना मेहनत किए यूँ ही मिल जाता है फिर उसके लिए मेहनत कौन करे। जो काम एक दिन में हो जाता है उसके लिए लंबा इन्तज़ार कौन करे । जो लोग कर्मयोग नहीं करना चाहते, मेहनत नहीं करना चाहते और शीघ्र ही पैसा पा जाना चाहते हैं वे ही चोरी-चकारी करते हैं। फिर तो इस कहावत के अनुसार तय है कि चोरी का धन मोरी में । उनका धन जैसे आता है वैसे ही व्यर्थ चला जाता है। बहुत समय तक सुरक्षित नहीं रहता। ईमान का, साँची कमाई का पैसा कोई भी व्यर्थ नहीं करना चाहता । वह व्यर्थ हो भी नहीं सकता क्योंकि जब कुछ बहुमूल्य खो जाए और पुनः वापस मिल जाए तो यही कहते हैं - सच्ची कमाई का था, खो कैसे सकता है। इन्सान सत्य को अपने जन्म के साथ लेकर आता है लेकिन झूठ तो बाद में अर्जित होता है। एक बालक झूठ बोलना नहीं जानता क्योंकि प्रकृति सत्य रूप में ही पैदा करके भेजती है लेकिन समाज के, झूठे लोगों के सम्पर्क में रहकर, माँ-बाप को झूठ बोलते हुए देखकर, भाई या दादा-दादी को झूठ बोलते हुए देखकर वह झूठ बोलना सीख जाता है। झूठ तो बाहर से आया हुआ दुर्गुण है और सत्य भीतर से सहज स्वाभाविक रूप में पैदा होने वाला गुण है। सत्य के प्रति हमें जागरूकता रखनी चाहिए कि हम झूठ न बोलें, झूठे कार्य न करें, घपलेबाजी न करें। बिना कोई धर्म-क्रिया किए, बिना मंदिर-मस्जिद गए अगर हम केवल सत्य को ही अपने जीवन में जी लेते हैं तो निचित ही हम सब धार्मिक हो जाएंगे। सत्य को जीना अपने आप में धर्म का आचरण करने के समान है। जो व्यक्ति झूठ बोलने का आदी होता है वह किसी भी रूप में झूठ बोलेगा, लेकिन जो सत्य बोलने का आदी है वह किसी भी प्रकार के निमित्त क्यों न आ जाए, वह मौन रह लेगा, बात घुमा-फिराकर कह देगा, पर झूठ को स्थापित नहीं करेगा । व्यवस्थाएँ भी बदलनी चाहिए और व्यक्ति की आदत भी। अगर कोई सत्यनिष्ठ होने का व्रत लेता है तो व्यवस्थाएँ चाहे अनुकूल बनें या प्रतिकूल वह सत्य पर ही कायम रहेगा। मेरा मानना है व्यक्ति को झूठ तब ही For Personal & Private Use Only www.jainelibr.६७rg Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोलना चाहिए जब इज़्ज़त दाँव पर लग जाए या फाँसी का फंदा कसने वाला हो। वैसे तो सबसे भली चुप । क्योंकि सच बोलना नहीं चाहते और झूठ बोलने की इच्छा नहीं है सो मौन । जहाँ तक संभव हो सत्य बोलने का प्रयास ही करना चाहिए, पर ऐसा सत्य भी मत बोलो जो दूसरों के दिलों को ठेस पहुँचाए । इसलिए अहिंसा और सत्य दोनों को साथ रहना चाहिए । अहिंसामूलक सत्य हो । किसी की हिंसा हो जाए ऐसा सत्य न हो। ऐसा सच भी न बोलो कि दूसरे को कारागार में डाल दे। प्रभु ने हमें बुद्धि दी है इसका इस्तेमाल करते हुए विवेकपूर्वक सत्य बोलें और आवश्यकता पड़ने पर मौन भी रहें । सत्य केवल बोलने के लिए नहीं, जीने के लिए होता है । I इस तरह तीसरा व्रत अचौर्य है अर्थात् बिना दिए किसी वस्तु को ग्रहण करना चोरी है । अमानत में खयानत चोरी है। भगवान कहते हैं बिना स्वीकृति के ली गई चीज़ तुम्हारे लिए चोरी का दोष बन जाएगा। इसलिए इज़ाज़त ज़रूरी है। चोरी भी कई तरह की होती है - किसी भी वस्तु को बिना पूछे ले लेना द्रव्यचोरी है। किसी की जमीन को हड़प लेना, उस पर कब्जा कर लेना, क्षेत्र - चोरी हो गई। किसी से पैसा लिया है और लौटाते समय, कर्मचारी को पूरे दिनों के पैसे न देना यह काल - चोरी हो गई । हमने उसका समय एक दिन आगे-पीछे करके चुरा लिया। ब्याज पर पैसे देने वाले भी एक दिन आगे-पीछे करके काल- चोरी कर लेते हैं । दूसरे के विचारों को, भावों को अपने भाव - विचार बनाकर कह देना भाव-चोरी हो गई । या तो चिंतन-मनन के द्वारा अपने निष्कर्ष निकाले जाएँ तब बातों को कहा जाए अथवा आपको पसंद आये हैं तो जिसके विचार हैं उनके नाम का स्पष्ट उल्लेख कर पेश किया जाए अन्यथा भाव - चोरी का दोष लगेगा । सत्य और अचौर्य जब आपस में जुड़ेंगे तभी प्रामाणिकता आएगी । यह व्यक्ति का सामाजिक व नैतिक मूल्य है कि अर्जन तो करें, पर व्यर्थ के झूठे प्रपंच न करें। चौथा व्रत अपरिग्रह है अर्थात् सीमित मात्रा में परिग्रह रखा जाए । अलमारियों में कितना भरेंगे ? घर को कितना सजायेंगे ? परिग्रह-परिमाण - व्रत अर्थात् अपरिग्रह को जीने के लिए आवश्यकतानुसार ही वस्तुओं का संग्रह हो । ६८ For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे देश में एक सुन्दर परम्परा है कि दीपावली के पूर्व घरों में साफ-सफाई होती है, यह अच्छी परम्परा है। और यह परिग्रह को हटाने का, अपरिग्रह व्रत को जीने का सीधा-सरल तरीका है कि साल में एक बार सफाई की जाए और घर में जितनी भी अनावश्यक वस्तुएँ हैं उन्हें निकाल दिया जाए । यह परिग्रह को सीमित करने का आसान-सा नुस्खा है। घर का अटाला कम करने से घर की दरिद्रता दूर होती है। साफ-सुथरे घर से वास्तु-दोष भी दूर रहता है। इससे वास्तु की पवित्रता होती है। पवित्र घर एक मंदिर है। आज के भौतिक युग में परिग्रह बहुत बढ़ गया है लेकिन आवश्यकतानुसार ही परिग्रह उपयोगी होता है, शेष तो सब दिखावा है। परिग्रह इन्सान की आवश्यकता भी है, समृद्धि उसकी जरूरत भी है, लेकिन हमें इस पर एक अंकुश ज़रूर रखना चाहिए। संतोषी सदा सुखी ! कितना कमाएँ, कितना इकट्ठा करें, कितना खाएँ - इसकी कोई सीमा तो है नहीं, ये सब चीजें अनलिमिटेड हैं। अंततः व्यक्ति को भोग-परिभोग पर एक अंकुश लगाना होगा। हमारी परिग्रह-बुद्धि के चलते ही झूठ-चोरी-रिश्वतखोरी में इजाफा हुआ है। अभी हाल ही मेडिकल लाइन से जुड़े एक व्यक्ति के घर पर १८०० करोड़ रुपये नगद और डेढ़ टन सोने के आभूषण उपलब्ध हुए। अब कोई उस बेवकूफ से पूछे कि भाई माल तो तूने इतना इकट्ठा कर लिया, पर उम्र को तू घटा-बढ़ा सकता है क्या ? जब सभी यहीं छोड़ जाना है, साथ में एक मुट्ठी आटा और नीम की छाया भी नहीं ले जा सकता, फिर किसके लिए इतने झूठसाँच कर रहा है ? अम्बानी बंधुओं के पास इतना अनाप-शनाप पैसा है फिर वे शांति से क्यों नहीं जीते। भाई-भाई आपस में क्यों थूक-फ़ज़ीती करते हैं। महावीर कहते हैं अपनी परिग्रह-बुद्धि पर नियंत्रण लाओ और जीवन में इज़्ज़त के साथ ज़रूरतें पूरी हो सकें, बस, इतना ही परिग्रह बटोरो । कहीं ऐसा न हो जाए कि हम परिग्रह को इतना बढ़ाते रहें कि महावीर के अपरिग्रह सिद्धान्त का ही चीर-हरण हो जाए । महावीर ने बड़ी पराकाष्ठा से अपरिग्रह को जिया, गांधी ने अपरिग्रह को फिर चरितार्थ किया । अब फिर से गांधी की ज़रूरत आ पड़ी है, जो गरीबों की, ज़रूरतमंदों की पीड़ा को समझे और देश के चरित्र को अपरिग्रह का चरित्र बनाए। For Personal & Private Use Only www.jainelibr६९rg Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतिम पाँचवाँ व्रत है - ब्रह्मचर्य । यह व्रत हमारी दृष्टि की पवित्रता के लिए है, आचरण और जीवन की पवित्रता के लिए है। ब्रह्मचर्य अर्थात् शील-व्रत, ब्रह्मचर्य अर्थात् चरित्र-निष्ठा । हमारे हाथ में अगर हमारा चरित्र है तो हमारे पास दुनिया की सबसे बड़ी ताक़त है। चरित्र चला गया, तो जीवन को ही चूना लग गया। कृपया अपने चरित्र को चूना मत लगाओ। चरित्र का दीप सदा रोशन रखो। कहते हैं - रावण के दस सिर थे। इस नाते उसके बीस आँखें थीं। रावण के आँखें बीस थीं, पर नज़र एक औरत पर थी। हमारे सिर एक है और आँखें दो, पर नज़र हर औरत पर है। सोचो, असली रावण कौन है ? । कुल मिलाकर महावीर के ये पाँच व्रत, पाँच सिद्धांत जीवन की शुद्धि के लिए हैं, जीवन के नैतिक मूल्यों के लिए हैं। हमारे नैतिक और सामाजिक मूल्यों के लिए ये पाँच मूल्य घर-घर, व्यक्ति-व्यक्ति पर लागू हों, यही महावीर हमसे चाहते हैं, यही बुद्ध और यही पतंजलि चाहते हैं। बस इतना काफी है। सभी को अमृत प्रेम और नमस्कार । ७० For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा को जीने के प्रेक्टीकल पाठ जीवन को जीना स्वयं ही एक साधना है, तपस्या है, धर्म का आचरण है। जीवन को अच्छी तरह से जीना आ जाए तो यही जीवन का प्रबंधन है। अव्यवस्थित तरीके से जिया गया जीवन स्वच्छंदता है। हम सभी को चाहिए कि हम ऐसे जिएँ कि खुद भी सुख से रहें और दूसरों को भी सुख पहुँचे । तुलसीदास ने कहा है - ‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई।' जीवन-प्रबंधन हमें इस बात की समझ देता है कि हमें वही कार्य, वही व्यवहार और उसी वाणी का उपयोग करना चाहिए जिनके द्वारा हमारा भी हित हो और दूसरों का भी हित सधे । कोई भी व्यक्ति ऐसा कार्य जल्दी नहीं करेगा जिसमें स्वयं का अहित और दूसरे का हित होता हो । मेरे विचार से धर्म की सहज-सरल परिभाषा यही होगी कि धर्म वही है जिसमें व्यक्ति के द्वारा किया गया आचरण स्वयं के लिए भी सुखदाई हो और दूसरों के लिए भी सुख में सहायक हो। जिससे स्वयं का भी मंगल होता हो और दूसरे का भी मंगल होता हो, उस कार्य और व्यवहार का नाम धर्म है। धर्म हमें यही सिखाता है कि स्वयं के साथ दूसरों के सुख का भी प्रबंध करना चाहिए। उसी सुखपूर्वक जीवन जीने के लिए ही तथागत महावीर ने अहिंसा, सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य के रूप में पंचामृत प्रदान किए। For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ये पाँच व्रत पूरे विश्व के माहौल को पवित्र, निर्मल, सहयोगी, सहभागी बनाने में महान भूमिका निभा सकते हैं । विशेष रूप से विश्व-शांति, विश्व - प्रेम, विश्व - भाईचारे की स्थापना के लिए इन पाँच व्रतों को आम जन-मानस में नए एवं वैज्ञानिक तरीके से स्थापित करने का प्रयास करना चाहिए । जीवन वीणा के तारों की तरह है जिन्हें न तो अधिक कसा जाए और न ही अधिक ढीला छोड़ा जाए। मैं मानता हूँ कि व्यक्ति को न तो अधिक तप करना चाहिए न ही अति भोग करना चाहिए। अति तप व्यक्ति के तन को कृशकाय करता है अतः तन को अधिक तपाने की बजाय अपने मन को अधिक संस्कारित करने का प्रयत्न करना चाहिए। अर्थात् हमें तपस्या को तन की बजाय मन के साथ जोड़ना चाहिए। बिना अन्न के हम दो दिन, दस दिन रह सकते हैं पर बिना क्रोध के ज़िंदगी भर रह सकते हैं। बिना मिठाई खाए दो महीने रह सकते हैं लेकिन बिना अभिमान किए जिंदगी भर रहा जा सकता है। व्यक्ति को अन्ततः तन का पोषण करना ही पड़ेगा। ऐसी स्थिति में अपने तन को अधिक कृशकाय करने के, अधिक तपाने की बजाय अपने मन के साथ तपस्या को जोड़ना चाहिए। मन को तपस्या की साथ जोड़ने का अर्थ है - अपने क्रोध पर काबू किया, अपने विकारों पर संयम रखा, अपने अभिमान को विनम्रता का पाठ पढ़ाया, माया और प्रपंच करने की बजाय हमने संतोष धारण किया । प्रकृति - प्रदत्त भोग - परिभोग जैसे - आहार का सेवन, पेय पदार्थों का सेवन, संगीत या अन्य विषयों का भोग करना हो, देह का उपभोग करना हो तो इन्हें अपने जीवन में संयमपूर्वक जीने का प्रयत्न करना चाहिए। ये कहीं बेलगाम न हो जाएँ, निरंकुश न हो जाएँ। अतिभोग भी हमारे लिए दुःखदायी व कष्टदायी है । अतिभोग असमय में बुढ़ापे को न्यौता देने वाले हैं, अकाल मृत्यु का आधार हैं । इसका निर्णय हमें स्वयं ही करना है कि किस तरह से अपना जीवन नियोजित करें जिसमें नट द्वारा रस्सी पर नृत्य करने के समान अपने जीवन को संतुलित कर सकें। जीवन संतुलन के आधार पर ही चलता है और इस संतुलन को ही हमें स्थापित करना है । इसी संतुलन को स्थापित करने के लिए भगवान ने अहिंसा पर अत्यधिक बल दिया । उनकी दृष्टि में अहिंसा विश्व का सर्वश्रेष्ठ धर्म है। अहिंसा खुद में ही सर्वश्रेष्ठ शास्त्र है । ऐसा समझें सभी तीर्थंकरों का, ७२ For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समस्त अवतार और पैग़म्बरों के उपदेशों का सार ‘अहिंसा' शब्द में पिरोया जा सकता है। 'अहिंसा' माँ के दूध के समान है, वर देने वाले कल्पवृक्ष के समान है। अहिंसा दीन-दुःखियों को तारने वाला तीर्थ है। यह वह आधार है जिस पर धरती टिकी रह सकती है, हम एक-दूसरे से प्यार-मोहब्बत कर सकते हैं, दीन-दुःखियों के लिए सहायक बन सकते हैं, एक-दूसरे को गले लगा सकते हैं अर्थात् अहिंसा के द्वारा इन्सान इन्सान बन सकता है। इन्सान अगर थोड़ा-सा और ऊपर उठना चाहे तो उसके लिए सत्य, ब्रह्मचर्य, अनासक्ति, तप और त्याग जैसे अन्य रास्ते भी उपयोगी बन जाएँगे, पर पहली नींव, पहला पड़ाव तो ‘अहिंसा' ही है। आज तक संसार में दो ही पहलू रहे हैं - हिंसा और अहिंसा। राम का धर्म अहिंसा है और रावण का धर्म हिंसा है। कृष्ण का धर्म अहिंसा है और कंस का धर्म हिंसा है। हिंसा और अहिंसा का यही मापदण्ड चलता रहा है। रावण क्षण भर में तलवार उठा सकता है, कंस पल भर में अत्याचार कर सकता है, पर कृष्ण और राम अपने हाथ में तीर और धनुष तभी उठाएँगे जब अहिंसा की हत्या हो रही हो, जब धर्म का हनन हो रहा हो , जब सत्य का चीरहरण हो रहा हो। तभी ये अपनी ओर से हिंसा की गली खोलने की कोशिश करते हैं अन्यथा ये सभी अहिंसा के अवतार हैं, अहिंसा की पैरवी करने वाले, अहिंसा के मित्र हैं। शांतिदूत हैं। विशेष रूप से महावीर तो अहिंसा के ही पैरोकार हैं। कोई महावीर को ईश्वर का पुत्र या अवतार माने या न माने लेकिन कोई भी इस बात से इन्कार नहीं करेगा कि वे अहिंसा के अवतार थे। और जो अहिंसा का अवतार है वह अपने-आप ही ईश्वर का पुत्र हो जाता है। अहिंसक कभी किसी को मारता नहीं है। जो किसी को मारता नहीं है वह कभी मरता नहीं है, इसलिए वह अमर है। सीता के सामने जब अग्नि-परीक्षा की घड़ी आती है तब सीता यही कहती है कि यदि मैंने मन में भी, सपने में भी राम को छोड़कर किसी अन्य पुरुष का चिंतन भी किया हो, विकल्प भी किया हो, विचार भी किया हो तो यह अग्नि मुझे जला दे, मुझे भस्म कर दे और यदि मन, वचन, काया से मैंने केवल श्री राम को ही अपने प्रियतम, परमेश्वर के रूप में चुना हो तो यह अग्नि शांत हो जाए। और कहते हैं अग्नि शांत हो जाती है। यदि ऐसी ही संकट की वेला ७३ For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर के सामने आ जाती तो महावीर यही कहते - यदि मैंने मन-वचन-काया से स्वप्न में भी, विचार में भी किसी का वध किया हो, किसी को कष्ट पहुँचाया हो तो इस दुनिया से मेरा नामोनिशान मिट जाए। यदि किसी चींटी के भी नुकसान का विकल्प या विचार भी मेरे मन में आया हो तो मेरा ही नामोनिशान मिट जाए। जो व्यक्ति अहिंसा को इतनी बारीकी के साथ जीकर चला गया वह निश्चित ही सारे संसार का मित्र है, सारे संसार का कल्याण चाहने वाला है। कहते हैं महावीर का महाविषधर सर्प चंडकौशिक से सामना होता है। चंडकौशिक उन्हें डसने लगता है पर महावीर करुणा-मूर्ति बने रहते हैं। उनकी करुणा-दृष्टि चंडकौशिक को बदल देती है। उनके चरणों से खून की बजाय दूध की धार निकल पड़ती है। हो सकता है, खून ही निकला होगा, पर चंडकौशिक को दूध की धार दिखाई देती है। वह शांत हो जाता है। वह चंडकौशिक से भद्रकौशिक हो जाता है। यह परिवर्तन है। हिंसा पर अहिंसा की विजय है। क्रोध पर क्षमा की जीत है। सामने महावीर हों तो चंडकौशिक बदलेगा, बुद्ध हों तो अंगुलिमाल सुधरेगा। जिसके हृदय में जितनी महान करुणा होगी, उसके द्वारा उतना ही चमत्कारिक परिणाम आएगां। __महावीर वह तीर्थंकर हैं जिन्हें हम विश्व-शांति, विश्व-प्रेम का प्रवर्तक और विश्व-भाईचारा का पुरोधा कहेंगे, अग्रगण्य और आदिपुरुष कहेंगे। हम सभी अहिंसा के हिमायती हैं। जीवन और जगत का प्रबंधन करने के लिए, जीवन और जगत के संबंधों को वीणा के तारों की तरह साधने के लिए हमें अहिंसा की शरण में आना ही होगा। केवल पाठ्यपुस्तकों की शिक्षा से बहुत कुछ होने वाला नहीं है, हम सभी को जीवन के पाठ पढ़ने होंगे। जीवन की पाठशाला में अहिंसा का पाठ पढ़ना होगा । जीवन की पाठशाला यही सिखाती है कि जीवन का पहला चरण ही अहिंसा से जुड़ा होना चाहिए। कहते हैं कि कौरव और पांडव गुरु द्रोणाचार्य के पास शिक्षा पाते थे। गुरु द्रोण ने पाठ दिया - क्षमाम् कुरु - क्षमा करो। सरल-सा पाठ था, दूसरे दिन सभी ने सुना दिया, लेकिन अकेला युधिष्ठिर यह पाठ न सुना सका । गुरु ने कहा - तुमने अपना पाठ नहीं सुनाया। उत्तर मिला - गुरुजी कोशिश कर रहा हूँ। गुरु ने सोचा - मंदबुद्धि बालक होगा सो याद नहीं कर पाया होगा। दूसरे ७४ For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिन फिर पूछा लेकिन पुनः यही जवाब मिला कि गुरुजी कोशिश कर रहा हूँ। युधिष्ठिर राजकुमार थे इसलिए गुरु भी अधिक बोल न पाते थे। तीन-चार दिन तक भी जब पाठ न सुना पाए तो गुरु को गुस्सा आ गया और उन्होंने युधिष्ठिर के कान मरोड़ कर दो थप्पड़ लगा दिए । जैसे ही थप्पड़ पड़े वे चुपचाप जाकर बैठ गए । गुरुजी ने डाँटते हुए कहा - बता याद हुआ कि नहीं। युधिष्ठिर खड़े हुए, हाथ जोड़कर कहा - गुरुदेव अब मुझे पाठ याद हो गया है। गुरुजी ने कहा - लातों के भूत बातों से नहीं मानते । दो चाँटे पड़े तब ही तुम्हें अक्ल आई। युधिष्ठिर ने कहा – गुरुदेव पाठ तो मुझे लगा कि मुझे उसी समय याद हो गया जिस समय आपने विद्यार्थियों को प्रदान किया था। लेकिन वह पाठ कैसा पाठ कहलाएगा जो हमारे जीवन में चरितार्थ न हो पाए। अभी तक कोई ऐसा प्रसंग ही न बना था जिसकी वजह से मैं कह सकता कि मुझे पाठ याद हो गया। आज ऐसा प्रसंग बना गुरुदेव आपने मुझे डाँट लगाई, मुझे चाँटा मारा तब मैंने अपने मन को समझा, अपने धैर्य को पहचानने की कोशिश की, मुझे लगा मुझे गुरुजी की मार से गुस्सा नहीं आया। तब मुझे लगा क्षमाम् कुरु - मैंने क्षमा कर दिया। क्षमातत्त्व मेरे जीवन में आचरित हो गया है. तब मैंने तत्काल कह दिया कि मुझे पाठ याद हो गया है। कहा जाता है कि गुरु द्रोण ने युधिष्ठिर की पहली दफ़ा पिटाई की थी जो अंतिम पिटाई भी साबित हुई। उन्हें अहसास हो गया कि यह बालक केवल पाठों को याद करने के लिए पाठशाला में नहीं आया है। यह जीवन के पाठ सीखने के लिए विद्यालय में आया है। युधिष्ठिर पांडवों के मध्य बहुत अधिक निपुण नहीं रहे थे, अर्जुन की तरह शस्त्र-विद्या नहीं सीख पाए थे, भीम की तरह ताक़त नहीं थी। इसके बावजूद द्रोण उनकी बहुत इज़्ज़त करते थे। इतना ही नहीं, इसकी असली परीक्षा तब होती है जब युद्ध के मैदान में महाभारत के प्रांगण में हाथी का वध कर दिया जाता है तब कहा जाता है - अश्वत्थामा हतः नरो वा कुंजरो वा । भीम चिल्लाकर कहता है अश्वत्थामा मारा गया, अश्वत्थामा मारा गया। तब गुरु द्रोण कहते हैं मुझे विश्वास नहीं होता कि मेरा बेटा मारा गया हो। तुम लोगों का तो मुझे भरोसा नहीं है, लेकिन अगर युधिष्ठिर कह दे कि अश्वत्थामा मारा गया तो मैं इसी समय अपने अस्त्र-शस्त्रों का त्याग कर दूंगा। सबके सामने समस्या खड़ी हो जाती है क्योंकि युधिष्ठिर किसी भी स्थिति में झूठ नहीं बोलते। ७५ For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युधिष्ठिर को मौत कबूल थी । वह द्रोण के पास पढ़ा ऐसा छात्र था जिसने केवल पाठ नहीं जीवन के पाठ पढ़े थे । वह जीवन की पाठशाला में पढ़कर आया हुआ छात्र था । मज़बूर होकर क्योंकि गुरु द्रोणाचार्य के सामने पराजय होती दिखाई दे रही थी तब उन्हें अपने भाइयों के सामने आधा झूठ बोलना पड़ा कि अश्वत्थामा हतः नरो वा कुंजरो वा । 'अश्वत्थामा हतः ' तो उन्होंने जोर से कहा लेकिन 'नरो वा कुंजरो वा' धीरे से कहा । युधिष्ठिर ने जीवन भर प्रबल पुण्य सँजोए थे लेकिन इस झूठ का दाग़ उन पर लगा रह गया कहा जाता है कि द्रोणाचार्य ने अपने अस्त्र-शस्त्र का त्याग कर दिया और अश्वत्थामा जो युधिष्ठिर का बहुत चहेता था एकमात्र इस कारण से उनका दुश्मन हो गया। क्योंकि उसने उसके पिता के साथ छल किया, झूठ का उपयोग करते हुए उसके पिता का वध करवाया । वास्तव में वे लोग जीवन का पाठ पढ़ने वाले लोग थे I - सौ बार सच बोलने वाला अगर एक बार भी झूठ बोल दे तो निन्यानवे पर पानी फिर जाएगा । निन्यानवे बार व्यक्ति जब सच बोलता है तो उसकी कसौटी नहीं होती लेकिन जब उसकी कसौटी होती है उस समय अगर फेल हो गया, असफल हो गया तो निन्यानवे बार भी वह असफल ही कहलाएगा। हम लोग भी अगर अहिंसा के, जीवन के प्रबंधन के पाठ पढ़ते हैं तो अहिंसा को किस तरह से अपने जीवन में जिया जा सकता है इसके पाठ पढ़ने होंगे और अपनी प्रेक्टीकल लाइफ में अहिंसा को, नॉन-वॉयलेन्स को किस तरह अपनाया जा सकता है इसका अनुभव लेना होगा। सामान्यतः हम सभी पानी छानकर पीते हैं - जो अहिंसा का पहला पाठ है। मांसाहार का पूरी तरह वर्जन करते हैं - यह दूसरा पाठ है। रात्रि - भोजन से अधिकांशतः बचने की कोशिश करते हैं - यह अहिंसा का तीसरा पाठ है। किसी भी प्राणी का वध नही करते - यह अहिंसा का चौथा पाठ है। आज हम इन पढ़े हुए पाठों की चर्चा नहीं करेंगे वरन् अहिंसा को किस तरह सहज-सरल रूप के साथ जिया जा सकता है, उसकी चर्चा करेंगे। अहिंसा को जीने का पहला मंत्र है - अपने प्रत्येक कार्य को सावधानी से करो । सावधानीपूर्वक कार्य करने से सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव की भी हिंसा नहीं होगी । लापरवाही करते हुए बोलेंगे तो बोलने में चूक हो सकती है। खाना ७६ For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनायेंगे तो हाथ जल सकता है, चलेंगे तो ठोकर लग सकती है - यह सब असावधानी के कारण हुआ करता है । प्रचलित कहावत है - सावधानी हटी कि दुर्घटना घटी। अर्थात् एक चूक होते ही सौ किलोमीटर सावधानी से तय किया गया रास्ता भी अचानक टक्कर लगती है और कार खाई में जा गिरती है। जब भी दुर्घटना या हादसा होता है वह उस पल में असावधानी हो जाने का परिणाम होता है। जीवन के प्रत्येक घंटा, प्रत्येक मिनट, प्रत्येक सैकण्ड, प्रत्येक पल पर जिस चीज़ की ज़रूरत है वह सावधानी है। इस सावधानी को दूसरी भाषा में सचेतनता कहेंगे, जागरूकता awareness कहेंगे । लोग समझते हैं कि धर्म और अध्यात्म की बातें, उनके शब्द बहुत ऊँचे होते होंगे, पर ऐसा नहीं है। सावधानी कहते ही सचेतनता आ गई है। सावधानीपूर्वक प्रत्येक कार्य को सम्पादित करना ही अहिंसा को जीवन में आचरित करना है। सावधानी जीवन के प्रत्येक कार्य को अहिंसापूर्वक सम्पादित करने का गुरुमंत्र है। सजगता, सचेतनता - जीवन के प्रत्येक कार्य को अहिंसापूर्वक करने का राजमार्ग है। _ भगवानश्री कहते हैं सावधानी को जीने का तरीका होता है व्यक्ति जतन से, ध्यान से जिए । जतन से जीना धर्म को जीना है । जतन से जीना, धर्म का पालन करना है । जतन से जीना अपने आपको धर्म में बढ़ाना है। जतन से जीना - स्वयं के लिए और दूसरों के लिए भी सुखदायी है । जतन से करो यानी ध्यान से करो। शब्द कितने ही हों पर अर्थ एक ही है कि ध्यान से करो, विवेक से, सावधानीपूर्वक करो। महावीर ने अहिंसा को तीर्थ के रूप में स्थापित किया। महावीर की धर्म-सभा का जो समवसरण था, सभा-मंडप था, उसका नाम ही था - अहिंसा समवसरण । एक ऐसा सभा-मंडप जहाँ किसी की हिंसा नहीं होती वरन् सभी को अहिंसापूर्वक जीने का अधिकार मिलता था, बैठने का, सुनने का अधिकार मिलता था । कहते हैं महावीर जब बोलते थे तब केवल गरीब-अमीर, क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र ही नहीं पशु-पक्षी भी आते थे। प्राचीन पुस्तकों में तो यह भी पढ़ने को मिलता है कि उन्हें सुनने के लिए देवता तक आते थे। जहाँ छत्तीस कौम के लोग बिना भेद के सुनने For Personal & Private Use Only www.jainelibragerg Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आते हों, एक-दूसरे के गले मिलते हों वह सभा-मण्डप अहिंसा का तीर्थ बन ही जाता है। प्रश्न है कि इस अहिंसा को प्रेक्टीकल रूप में कैसे जिएँ, सावधानी और जतन से कैसे जिएँ ? तब महावीर पहले चरण में कहते हैं - सावधानी से चलो। महावीर ने दो शब्द दिए हैं - समिति और गुप्ति । समिति का अर्थ है - सावधानी से प्रवृत्ति करना। और गुप्ति का अर्थ है - सावधानी से प्रवृत्ति करते हुए भी यदि हमसे कोई असावधानी हो जाए तो पुनः स्वयं को नियंत्रण में कर लेना ही गुप्ति है। समिति अर्थात् सम्यक् प्रवृत्ति और गुप्ति अर्थात् गोपन, नियंत्रण । जैसे खेतों पर काँटों की बाड़ लगाई जाती है ताकि उसमें दूसरा कोई प्रवेश न कर सके। हाथी पर अंकुश भी हाथी को नियंत्रण में रखने के लिए है। इसी तरह यह सावधानी भी हमें स्वयं पर नियंत्रण करने के लिए है। ग़लती किसी से भी हो सकती है। हम मनुष्य हैं और कितने भी ज्ञानी क्यों न हो जाएँ ग़लतियाँ होने की सम्भावना बनी ही रहती है। जो जितनी जागरूकता से जिएगा उससे उतनी कम ग़लती होगी, पर ग़लती होगी। जब तक हम सम्पूर्णतः आत्मज्ञानी नहीं हो जाते, सम्पूर्णतः मुक्त नहीं हो जाते, तब तक ग़लतियाँ होना स्वाभाविक है । ग़लती हो जाना ग़लत नहीं है पर ग़लती को दोहराते चलना निश्चित ही गलत है। ग़लती को कोई प्रोत्साहन नहीं देता। अगर कोई किसी को पत्थर मार दे तो उसकी प्रशंसा नहीं की जा सकती कि तुम जो करते हो बहुत अच्छा करते हो । ग़लती होने पर डाँट भी पड़ेगी। यह मनुष्य का स्वभाव है कि उसके द्वारा ग़लती हो सकती है। तभी तो बड़े लोग शिक्षा देते हैं कि इस बारे में सावधानी बरता करो, ध्यान रखा करो। तुम ग़लती पर ग़लती करो यह ठीक नहीं है। ग़लती होना स्वाभाविक है, नैसर्गिक है, लेकिन उस ग़लती को न दोहराना यह व्यक्ति की जागरूकता, सचेतनता, सावधानी है और यही अहिंसा का बुनियादी पाठ है। ___सावधानी से चलना अहिंसा का पहला पाठ है । असावधानी से चले तो कई नुकसान हो सकते हैं। जैसे- (१) ठोकर लगेगी। (२) कोई जीव-जानवर पाँवों के नीचे आकर मर सकता है । (३) काँटा गड़ सकता है, (४) ठोकर लगने से खुद के खून आ सकता है। (५) हम अस्पताल में जा सकते हैं (६) नगरपालिका के गटर में गिर सकते हैं। कहने का तात्पर्य है कि असावधानी के ७८ For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नुकसान ही हैं। सावधानी से चलने पर प्राणी का रक्षण होगा, हमारे द्वारा किसी का वध नहीं हो पाएगा। जैन मुनि इसीलिए तो पैदल चलते हैं कि उनके द्वारा सूक्ष्म से सूक्ष्म प्राणी की भी हिंसा न हो जाए। जैन मुनि अगर ठेलागाड़ी में चलेंगे, व्हील-चेयर पर चलेंगे और पीछे से आदमी उन्हें धक्का देते हुए चलाएगा तो मेरे जैसा व्यक्ति उसे कतई अहिंसा नहीं कहेगा। किसी इन्सान के द्वारा धक्का दिलवाना भी हिंसा का दोष है। यह हिंसामूलक कृत्य हो गया। पैदल चलने का एकमात्र उद्देश्य यही है कि व्यक्ति द्वारा ईर्या समिति का पालन हो अर्थात् उसकी तरफ से सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव की भी हिंसा न हो। और जब व्हील चेयर या ठेलागाड़ी पर ही चलना है तो इन्सान द्वारा धक्का लगवाए जाने से तो अच्छा है पेट्रोल-डीज़लचलित वाहन का प्रयोग कर लिया जाए। इससे कम ही हिंसा होगी। _ (बीच में किसी ने प्रश्न पूछा है -) इस बारे में जागरूकता कैसे आएगी ? यह तो इन्सान को ज्यों-ज्यों समझ आ रही है, इन्सान प्रबुद्ध हो रहा है, संत भी ज्ञानी होते हैं, प्रज्ञाशील होते हैं - ज्यों-ज्यों उन्हें बात समझ आएगी वे आगे बढ़ेंगे। आजकल जब बीमार पड़ जाते हैं तो उन्हें समझ आने लगा है कि कार या एम्बुलेन्स का उपयोग कर अस्पताल शीघ्रतापूर्वक पहुँचा जा सकता है। वे इसमें बहुत बड़ा दोष नहीं मानते हैं। पच्चीस वर्ष पूर्व जैन मुनि फोन या मोबाइल का उपयोग नहीं करते थे लेकिन आज कई लोगों द्वारा प्रगट में या अप्रगट में, प्रत्यक्ष में या अप्रत्यक्ष में फोन, मोबाइल का उपयोग होने लगा है। खुद न छूते हों पर फोन करवा लेते हैं, करना-कराना अनुमोदन है। विज्ञान के आविष्कारों को हम हिंसा-अहिंसा से नहीं जोड़ सकते हैं। उपयोगिता के आधार पर जोड़ा जा रहा है कि यह बहुत उपयोगी है। हम किसी को बात करने के लिए अपने पास बुलायेंगे तो रास्ते में आने-जाने पर जो जीव हिंसा होगी उसकी बजाय तो फोन से संदेशा दे दिया जाए वह ज़्यादा ठीक है। इसलिए लोगों को उसकी उपयोगिता समझ में आने लगी है। परम्परागत रूप से जीने वाले समाज में भी जैसे-जैसे समझ आएगी वैसे-वैसे पुराने अंधविश्वास टूटेंगे, रूढ़िवादिताएँ कमज़ोर होंगी। बस आप प्रतीक्षा कीजिए। आने वाले वर्षों में बहुत कुछ बदल चुका होगा। दुनिया बहुत तेजी से बदल रही है, इसी के साथ मानव-जाति को, धर्म-संघ को भी For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बदलना पड़ेगा और अगर नहीं बदलते हैं तो ये धर्म-कर्म बहुत पीछे छूट जाएँगे और दुनिया बहुत आगे निकल जाएगी। घर में भी अगर बड़े-बुजुर्ग, दादा-दादी, नाना-नानी हैं और वे युग को नहीं समझेंगे और युग के अनुसार चलना पसंद नहीं करेंगे तो उनके बच्चे बहुत आगे बढ़ जाएँगे और वे घर में अकेले पड़े रह जाएँगे या वृद्धाश्रम में जाकर उन्हें अपनी ज़िंदगी गुज़ारनी पड़ेगी । उन्हें युग को समझना पड़ेगा क्योंकि जो नई पौध आ रही है वह जन्म से ही विकसित दिमाग के साथ विकसित युग में पैदा हो रही है। हम पचास साल या पच्चीस सौ साल पुराना धर्म या परम्परा या इस तरह की प्रवृत्ति उन पर नहीं थोप सकते। अच्छा है परिवर्तन होना चाहिए। हाँ, जो व्यक्ति पहला परिवर्तन करेगा वह आलोचना का शिकार बनेगा । इन्सान को केवल दूसरों की बनाई लकीरों पर ही नहीं चलना चाहिए वरन् खुद भी इतनी हिम्मत बटोरनी चाहिए कि वह भी नई लकीर का निर्माण कर सके। प्रवर्तक वही कहलाता है जो नई लकीर का निर्माण करता है और दूसरे उसका अनुगमन या अनुसरण करते हैं। ऐसा भी है कि जब नया काम किया जाता है तो कभी सफलता मिलती है और कभी असफलता भी मिलती है । जीवन तो रिस्क है। सारी दुनिया रिस्क पर ही तो टिकी है। कुल मिलाकर बात वहीं आ जाती है कि सावधानी से चलो। पैदल चलने वाले को अपनी नज़र सात हाथ तक रखनी चाहिए और वाहन में चलने पर हमें सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव को भी बचाने की कोशिश करनी चाहिए। अतिसूक्ष्म जीवों को तो हम वाहन के द्वारा नहीं बचा सकते, पर सामान्य जीवों को अवश्य ही बचा सकते हैं । अहिंसा का दूसरा पाठ है - सावधानीपूर्वक बोलो जब हम वाणी का उपयोग करते हैं तब ध्यान रखें कि गलत भाषा का प्रयोग न करें, अभद्र शब्द न बोलें। चाहे क्रोध पैदा हुआ, कोई उपेक्षा हुई, टेढ़ा शब्द निकल गया - कोई भी वज़ह बन रही हो, संयम रखेंगे। हमारी बोली से अगर किसी को गुस्सा भी आ गया हो तब हम अपनी सावधानीपूर्ण बोली के द्वारा, अच्छी भाषा के जरिए दूसरे का गुस्सा ठंडा कर सकते हैं । किसी मुस्लिम सम्राट् की प्यारी सी कहानी है कि बादशाह हारून रशीद के साथ उनका बेटा भी राजसभा में उपस्थित हुआ और कहा कि अमुक ८० - For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेनापति के लड़के ने मेरे साथ दुर्व्यवहार किया और मुझे गालियाँ दीं। सभा में जैसे ही अन्य मंत्री, वज़ीर, सेनापतियों ने यह बात सुनी तो वे गुस्से से भर गए कि यह किसकी ताक़त कि कोई राजकुमार को गालियाँ दे सके। इस पर महामंत्री ने सलाह दी कि अगर सेनापति के पुत्र ने राजकुमार को गंदी गालियाँ दी हैं तो उसे देश निकाला दे देना चाहिए। दूसरे ने कहा - उसकी तो जीभ ही काट देनी चाहिए। तीसरे ने सलाह दी उसे फाँसी पर लटका दिया जाना चाहिए । - बादशाह ने इन सब बातों को सुनकर अपने बेटे को पास में बुलाकर गद्दी पर बिठाया और कहा- बेटा, अगर तुम्हें किसी ने अपशब्द कहे हैं तो मेरी यही सलाह है कि तुम उसे माफ़ कर दो । यदि तुम अपराधी को क्षमा कर सकते हो तो यही तुम्हारी सच्ची वीरता होगी। अगर तुम ऐसा नहीं कर सकते हो तो मैं तुम्हें रज़ा देता हूँ कि तुम भी उसे गाली दे दो। पर हाँ, जब गाली देने की कोशिश करो तब बस इतना-सा सोच लेना कि क्या गाली देना तुम्हें शोभा देगा ! जैसे उसके गाली देने पर लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि उसकी ज़बान काट ली जाए, वैसे ही कल को तुम्हारे लिए भी कहा जा सकता है कि राजकुमार की ज़बान काट ली जाए क्योंकि उसने गाली दी है । क्रोध करने का कारण उपस्थित हो जाने के बावज़ूद जो व्यक्ति शांत रहता है वही सच्चा वीर होता है । क्रोध करने का कोई निमित्त ही न हो तो सभी शांत हैं पर क्रोध करने की वज़ह होने पर भी जो स्वयं को शांत रखने में सफल हो जाए तो यह सच्ची वीरता होगी । यही है असली उपशम, यही है असली क्षमा । सावधानीपूर्वक हम तभी बोल पायेंगे जब यह भाव भी रखेंगे कि सच्ची वीरता इसी में है । हमारी छाती तभी ३६ इंच की होगी जब हम औरों के प्रति क्षमा और प्रेम की भावना भी अपने साथ रखेंगे। बोलें पर सावधानी से बोलें ताकि बोलने में हमसे कम-से-कम ग़लती हो । याद रहे भाषा के कारण ही सैकड़ों झमेले शुरू होते हैं और इस भाषा के जरिए ही पचासों झगड़े सुलझ और सँवर जाते हैं । यही ज़बान ठीक से चले तो रिश्ते बनाती है और ठीक से न चले तो रिश्तों में खटास लाती है, रिश्तों को तोड़ती है, महाभारत रचती है। मेरे विचार से जीवन में सबसे अधिक आवश्यकता इस जबान को संयम में, नियंत्रण में रखने की है। जिसने अपनी ज़बान को नियंत्रण में रख लिया वही असली For Personal & Private Use Only ८१ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयमी है। क्योंकि जीवन की नब्बे प्रतिशत समस्याओं को वह अपनी इस एक ज़बान के जरिए सुलझा लेता है। यह बहुत बड़ा संयम है। अभी मैंने अखबार में पढ़ा कि एक ही धर्म के अलग-अलग परम्पराओं के दो संतों में किसी धर्म-स्थान पर रहने के लिए कहा-सुनी हो गई और कहा-सुनी इतनी बढ़ गई कि अखबारों को विज्ञापनों के माध्यम से लाखों रुपये की आमदनी हो गई क्योंकि दोनों ही पक्ष अपने-अपने समर्थन में विज्ञापन देने लगे। दोनों सड़क पर आ गए, धर्म सड़क पर आ गया। केवल दो परम्पराएँ नहीं, पूरा धर्म सड़क पर आ गया । तब मुझे लगा कि ये कैसे संत हैं जिनमें इतनी भी समझ और शांति नहीं है । पहले के जमाने में तो लोग घर छोड़ कर जंगलों में चले जाते थे और इन लोगों को धर्म स्थानकों को छोड़कर बाहर निकलना मंजूर नहीं हो रहा है। दोनों ने अपने ही आग्रह रखे, दोनों ही अपने अनेकांत धर्म को भूल गए, दोनों ही अपने महावीर प्रभु को भूल गए और अपनी छिछली भाषा में आमने-सामने आ गए। केवल कपड़े बदलकर महाराज बनने से क्या होता है ? असली साधुता वाणी में आनी चाहिए। मर्यादित बोलना भाषा समिति है और प्रत्येक साधक को, संत को, गृहस्थ को इसका विवेक रखना चाहिए कि वह बोलते समय मर्यादा की भाषा बोले। बड़े का मान-सम्मान, दूसरे का मान-सम्मान, हमारे पड़ोस में रहने वाले का मान-सम्मान । याद रखें - घमण्डी का खुदा नहीं होता, ईर्ष्यालु का कोई पड़ोसी नहीं होता, पर क्रोधी और टेढ़ी भाषा बोलने वाला खुद का भी नहीं होता, वह दूसरों का क्या होगा । भाषा शिष्ट हो, इष्ट हो, मिष्ट हो । कहते हैं : महान दार्शनिक कन्फ्यूशियस जो नब्बे वर्ष की उम्र में समाधि लेने जा रहे थे, अपने सारे शिष्यों को एकत्रित किया और मुँह खोलते हुए पूछा - मेरे मुँह में क्या है ? अब नब्बे वर्ष के वृद्ध के मुँह में क्या हो सकता है ? जीभ ही ! शिष्यों ने भी यही ज़वाब दिया - गुरुदेव आपके मुँह में तो केवल जीभ है। पूछा - मुँह में जीभ क्यों है ? उत्तर मिला - जीभ तो नरम होती है इसलिए अभी तक है। गुरु ने पूछा - मुँह में और क्या होता है ? तुम्हारे मुँह में क्या है ? उत्तर आया - दाँत ! पुनः प्रश्न उठा - तब मेरे मुँह में दाँत क्यों नहीं हैं ? शिष्यों ने कहा - दाँत कड़क होते हैं इसलिए चले गए। कन्फ्यूशियस ने ८२ For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा - मैं जाते-जाते अपने सभी शिष्यों को यह उपदेश देना चाहता हूँ कि जो कड़क होते हैं वे जल्दी गिर जाया करते हैं और जो नरम होते हैं वे आखिरी दम तक रहा करते हैं। जो नरम है वह जीभ है और जो कड़क है वह दाँत है । अकड़ और कड़कपन काम के नहीं होते । अपन लोग जो मधुर भाषा का उपयोग करते हैं फिर भी कभी-कभी भाषा कड़क हो जाती है और जब भी भाषा कड़क हो जाए तो हमें मानना चाहिए कि आज अहिंसा का अतिक्रमण हुआ । आज अहिंसाव्रत में दोष लगा। शाम को जब हम संध्यावंदन करते हैं, प्रतिक्रमण करते हैं उस समय अगर ऐसा कोई दोष लग जाए तो उसके लिए क्षमाप्रार्थना करनी चाहिए। बोलते समय ध्यान रखें कि (१) आवाज़ धीमी हो, (२) इतनी धीमी भी नहीं कि सुनाई ही न पड़े, (३) विवेकपूर्वक सत्य बोलें, (४) ऐसी सत्य भाषा न बोलें जो दूसरे को ठेस पहुँचाए, (५) भाषा मीठी, मधुर और दूसरों के दिल को छूने वाली हो। (६) अगर लगता है कि मिठासपूर्वक बोलना नहीं आता तो मौन का अभ्यास करना चाहिए । प्रत्येक व्यक्ति को कम-से-कम दो घंटे मौन रखने की आदत डालनी चाहिए। मौन रखने से वाणी की ऊर्जा पुनः संग्रहीत होती है। इस तरह बहुत से लाभ हो सकते हैं । हमें ख़याल रहे कि बोलते समय किन-किन बातों का ध्यान रखा जाए। हमें आत्मावलोकन करते हुए निर्णय लेना होगा कि बोलते हुए आपसे वाणी-व्यवहार में कहाँ-कहाँ चूक हो जाती है। विवेक वह शस्त्र है, चिराग है, रोशनी है जो हमारे द्वारा बोली गई असभ्य, अभद्र और अनुचित भाषा के प्रयोग पर अंकुश लगाता है। I आप सभी ने सुकरात का नाम तो सुना ही है उनके पास एक ज्योतिषी पहुँचा और कहने लगा इनका यह मोटा नाक ही बता रहा है कि यह व्यक्ति बहु क्रोधी स्वभाव का है। असल में सुकरात बहुत सुंदर नहीं थे, कहा जाए तो बदसूरत ही थे । वह और पास पहुँचा और बोला - चेहरे से ही लग रहा है कि यह राजद्रोह करने वाला व्यक्ति है । थोड़ा और पास जाकर ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की - यह व्यक्ति स्वभाव से अच्छा मालूम नहीं होता। और थोड़ा नज़दीक जाकर बोला - इसके चेहरे की रेखाओं से लगता है यह कामी लम्पट आदमी होगा। सुकरात ज्योतिषी की सारी बातें सुनते जा रहे थे, जब वह उनके For Personal & Private Use Only ८३ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पास जाकर बैठ गया तो शिष्यों ने कहा - गुरुदेव, इसने आपके लिए कितनी अभद्र और बद्तमीजी की भाषा का उपयोग किया। आपको बुरा नहीं लगा ? सुकरात मुस्कराए और कहने लगे - इसमें बुरा मानने की क्या बात है। मैं इस ज्योतिषी से कहना चाहता हूँ कि इन्होंने जितनी बातें कहीं वे बिल्कुल सत्य हैं। क्योंकि मेरे भीतर क्रोध रहा है, कामुकता रही है, राजद्रोह की प्रवृत्ति भी मेरे भीतर जगी है। मैं हमेशा सत्य बोलने का आदी रहा हूँ, स्पष्ट वक्ता हूँ। लेकिन इस ज्योतिषी ने एक चीज़ पर गौर नहीं किया, इसने सारी बातें तो कह दीं पर यह एक चीज़ नहीं देख पाया, और वह है विवेक । मैंने विवेकपूर्वक अपने सभी दुर्गुणों पर, अवगुणों पर विजय प्राप्त करने की कोशिश की है, बाकी यह जो कह रहा है वह सब सत्य है। दुनिया का हर ज्ञानी और विद्वान स्वयं को ज्ञानी और विद्वान कह सकता है लेकिन सुकरात की जो बात मुझे छूई वह वाक्य है - I know that I know nothing. मैं जानता हूँ कि मैं कुछ नहीं जानता । मेरा ज्ञान मुझे बतलाता है कि मैं कुछ नहीं जानता, ज्ञान इतना अनंत और अथाह है। इंसान के अहं को तोड़ने के लिए सुकरात की इस अज्ञान-स्वीकृति की बात को याद रखा जाना चाहिए । चलने में सावधानी हटी तो ठोकर लग सकती है, पर बोलने में असावधानी बरती तो बहुत ख़तरे हैं - सारे कषायों के अनुबंध हो सकते हैं, सारे रिश्तों में खटास पड़ सकती है, क्रोध पैदा हो सकता है, कैरियर चौपट हो सकता है, स्वास्थ्य बिगड़ सकता है, दिमाग असंतुलित हो सकता है। मैंने सुना है एक क्रोध में भरी महिला ने अपने रोते हुए बच्चे को दूध पिला दिया वह बच्चा मर गया। यह भी पढ़ा है कि एक क्रोधी व्यक्ति के खून का इंजेक्शन किसी खरगोश को लगा दिया, वह खरगोश तड़फ-तड़फ कर मर गया। क्रोध खून को ज़हर बनाता है। भगवान महावीर अपनी पवित्र वाणी से संदेश देना चाहते हैं कि हम अपनी भाषा में भाषा-समिति का विवेक रखें और कभी अनचाहे दिमागी असंतुलन से अभद्र भाषा निकल गई तो इससे जुड़ा सूत्र दिया - वचन-गुप्ति। सही भाषा का उपयोग करते हुए अगर कभी गलती हो जाए तो 'वचन-गुप्ति' अर्थात् वापस अपने आप पर लगाम लगा लें। तत्काल सोचें - नहीं, मुझे ऐसा ८४ For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं बोलना चाहिए । व्यक्ति जब क्रोध में होता है तब मुँह तो खुल जाता है, पर आँखें बंद हो जाती हैं। जब व्यक्ति का मुँह खुल जाए और वह बेलगाम बोलने लगे तब हमें समझ जाना चाहिए कि इस व्यक्ति को क्रोध पैदा हो गया है । क्रोध पैदा हो जाए तो सीधा-सा उपाय है उस स्थान से हट जाएँ, नहीं तो जो उसका मुँह खुला है वह सब अपने ऊपर ही आकर गिरेगा। घर में किसी को भी क्रोध आए, वहाँ से हट जाओ, दस-पाँच मिनिट में उसका क्रोध अपने आप ठंडा पड़ जाएगा। अगर हम सामने रहे तो क्रोध और भड़केगा। इसलिए सावधानी से जागरूकतापूर्वक बोलना चाहिए। इसके उपरान्त भी कुछ ऐसा बोलने में आ जाए कि दूसरे को ठेस लग जाए जो क्षमा माँगने में नहीं हिचकिचाना चाहिए। रिश्तों में पुनः मिठास घोल लेनी चाहिए। संभव है रिश्ते न भी बन पाएँ तब भी अगर हमारे कारण किसी के दिल को ठेस लगी नहीं रहनी चाहिए। कोई हमें देखकर खुश हो या न हो, पर हमें देखकर क्रोधित तो न हो। उसके भीतर वैर-विरोध की गाँठ तो न बन जाए। भगवान हम सभी की रक्षा चाहते हैं इसीलिए वे कहते हैं सावधानी से। ___सावधानी से खाना - अहिंसा का तीसरा पाठ है। कितना सरल धर्म है यह, कितनी सरल बातें हैं । खाओ तो दिन भर मत खाओ, किसी का दिमाग मत खाओ (हँसी), खाओ तो ध्यान रखो कि जितनी ज़रूरत है उतना ही खाओ और ज़रूरत से ज़्यादा मत खाओ। अहिंसा का पाठ सिखाता है कि खाने वाले व्यक्ति को चार बातों का ख़याल रखना चाहिए जिससे स्वास्थ्य का भी संबंध बनता है - पहली बात है उगाना, दूसरी बात है पकाना, तीसरी बात है चबाना और चौथी बात है पचाना। जब अन्न उगाया जाए तो हिंसामूलक खेती का उपयोग न हो । जो हमने उगाया है उसमें भी धर्म की आभा होनी चाहिए । जो हमने उगाया वह हमारे लिए स्वास्थ्यवर्धक होना चाहिए। आजकल खेती में कीटनाशकों का उपयोग किया जाता है और इससे भी आगे बढ़कर दस लिटर पानी में एक लिटर शराब मिलाकर खेतों में छिड़की जा रही है और कहा जा रहा है कि अपने आप ही सारे कीटाणु मर जायेंगे। इस तरह शराब पी-पीकर जो अन्न पक रहा है वह अन्न खाकर हम भी आधे शराबी की तरह व्यवहार करेंगे । दुनिया तो व्यापार कर रही For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, उसे स्वास्थ्य और अहिंसा से क्या लेना-देना, उसे तो व्यापार से मतलब है । उसे तो पैसे से, अर्जन से मतलब है, उन्हें सृजन से मतलब नहीं है । मेरा तो मत है कि व्यक्ति को थोड़ी-बहुत सब्जियाँ तो अपने घर में उगा ही लेनी चाहिए । अगर उगाना स्वस्थ होगा तो हमारा स्वास्थ्य भी ठीक रहेगा। याद रहे महावीर 1 धर्म में ऐसी कोई भी बात नहीं है जो स्वास्थ्य के ख़िलाफ़ हो । वे स्वयं के और दूसरों के स्वास्थ्य का ध्यान रखते हैं। अहिंसा की बात भी अपने और दूसरों के भले के लिए ही है। अगर आज हम दूसरों का बुरा करेंगे तो कल हमारा भी बुरा होगा । आज हम किसी का वध करेंगे तो कल हमारा भी वध होगा । आज हम किसी का भला करेंगे तो कल हमारा भी भला होगा । उगाना स्वस्थ हो, अहिंसामूलक हो । आजकल तो सब्जियाँ और फल भी इंजेक्ट आते हैं। अब तक तो दूध इंजेक्ट आया करता था । लोग दूध ज़्यादा निकालने के लिए जानवरों को इंजेक्शन दिया करते थे। अब तो सब्जियों को भी इंजेक्शन लगाया जाता है, ताकि वे जल्दी पक जाएँ। पानी भी आजकल गंदे नालों का उपयोग करने लग गए हैं। पहले सब्जी - सलाद उपयोगी होता था, अब तो सब्जी पकाए बग़ैर खाना रोग का कारण है । भले ही दो पैसे ज़्यादा लगें, पर सब्जी ऐसे मालियों से खरीदो जिनके खेतों में शुद्ध पानी का उपयोग होता हो । बड़े शहरों में रहने वाले लोग इस बात पर विशेष ध्यान दें । | ढक्कन दूसरा है 'पकाना' जब हम खाना बनाते हैं तो उसमें भी अहिंसा का विवेक रखना चाहिए। एक बार गांधीजी के लिए पानी उबाला जा रहा था । वे सुबह नाश्ता लेते थे उसमें एक गिलास गरम पानी में नींबू शहद डालकर लेते थे मोरारजी भाई उनके लिए पानी उबाल रहे थे, गांधीजी वहाँ से निकले, उन्होंने कहा भाई मोरारजी तपेले पर ढक्कन लगा दो। मोरारजी बोले खुला है तो पता चल जाएगा कि पानी कितनी मात्रा में उबला है। गांधीजी ने कहा पानी कितना उबला है इसके लिए ढक्कन उठा देना, पर ढक्कन इसलिए लगा दो क्योंकि तेज गरम भाप के कारण हवा में चलने वाले सूक्ष्म क्यों, जीवाणु मरें । - - यह विवेक से सावधानीपूर्वक पकाने की बात हो गई। अगर हम गैस, ८६ For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूल्हा या सिगड़ी जलाते हैं तो यह सब जलाने से पहले एक नज़र ज़रूर डाल दो। पहले चूल्हे की सफाई करो, संभव है वहाँ पर चींटियाँ हों। चूल्हा, चक्की, पानी का घड़ा ये सब हिंसा के मूलभूत स्थान हैं जहाँ पर छोटे-छोटे जीवाणु रहते हैं जो हम लोगों से मर जाते हैं और हमें पता भी नहीं चल पाता । आजकल के लैट्रिन, बाथरूम, चाशनी की मिठाइयाँ कीड़ों को पनपने के खास स्थान हैं इनका प्रयोग सावधानी से किया जाए । कर तीसरी बात का ख़्याल रखें और वह है चबाना । 'चबाना' भी अहिंसामूलक होना चाहिए। यह मर्यादा की बात है कि जैसे ही कौर मुँह में जाए होंठों को बंद लें । पशु की तरह मुँह चला चलाकर न खाएँ । मुँह में कौर रखने के बाद होंठ बंद करके चबाना शिष्टता की बात है । खाना पूरी तरह अच्छे से चबाएँ, इससे पाचन में भी सुविधा रहेगी | फटाफट खाना निगलें नहीं। इससे पेट और आँतों पर जोर पड़ता है । - - चौथा है 'पचाना' - अर्थात् दिन भर न खाते रहें । दिन भर खाने से स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। यूँ तो सभी महापुरुषों ने व्रत, उपवास की प्रेरणा दी है लेकिन हम उपवास नहीं कर सकते तो कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं कि एक बार खाना खाने के उपरान्त चार-पाँच घंटे तक पानी के सिवा कुछ न खाएँ या कभी जूस ले लें। लोग अधिक खाने से बीमार पड़ सकते हैं, कम खाने से नहीं । चार-पाँच घंटे तक न खाना भी एक तपस्या है। दिनभर खाने की प्रवृत्ति के कारण ही पान, सुपारी, गुटखा आदि का प्रचलन बढ़ता ही जा रहा है। I हमारी संस्कृति तप-त्याग की प्रेरणा देती है । कोई कितना भी मनुहार करे आप दृढ़ रहें तभी आपके पेट को आराम मिलेगा, आप स्वस्थ रहेंगे। हम जीने के लिए खाते हैं न कि खाने के लिए जी रहे हैं । खाना शरीर की व्यवस्था है केवल इसलिए खाना खाते हैं अन्यथा हम तो ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि वह हमारे शरीर को इतना समर्थ बनाए कि रोज खाना और निकालना इस प्रवृत्ति से मुक्त करे। यहाँ पर बाला सतीजी हुई हैं जिन्होंने बयासील वर्ष तक अन्न-जल ग्रहण नहीं किया। माना कि हमारा शरीर इतना समर्थ नहीं है कि पूरी तरह निराहार रह सके पर छोटा-छोटा तप तो हम लोग कर ही सकते हैं For Personal & Private Use Only ८७ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस तरह उगाना, पकाना, चबाना, पचाना - यह भी अहिंसामूलक व सावधानीपूर्वक हो । भगवान चौथा सूत्र देते हुए कहते हैं - अगर हम किसी वस्तु को उठाते हैं और रखते हैं तो वह भी हमें सावधानीपूर्वक रखनी और उठानी चाहिए। अर्थात् वस्तु को रखने के पूर्व देख लेना चाहिए वहाँ कोई जीव-जन्तु तो नहीं है। कहीं भी बैठने से पहले उस स्थान पर देख लें कि वहाँ कोई जीवजन्तु तो नहीं है। अगर है तो पहले उसे हटाएँ फिर वहाँ पर बैठे। महावीर प्रभु की अंतिम बात है - व्यक्ति मल-मूत्र का विसर्जन भी सावधानीपूर्वक करे । जहाँ आप मल-मूत्र विसर्जन कर रहे हैं उस स्थान को भी एक बात ज़रूर देख लें कि वहाँ किसी जीव का बिल तो नहीं है अथवा चींटियाँ-मकोड़े आदि तो नहीं हैं। यह भी अहिंसा-धर्म का पालन है। यहाँवहाँ कहीं भी थूक या कफ न गिराएँ क्योंकि उस पर मक्खियाँ आदि आ जाती हैं अतः उस पर भी मिट्टी डाल दें। अन्यथा वे मक्खियाँ दूसरी जगह जाएँगी तो रोग के कीटाणु भी इधर-उधर ले जाएँगी। रोगों को न फैलाना अस्पताल बनाने का पुण्य कमाने के समान है। इस तरह हम अहिंसा को जीवन में जीने के ये छोटे-छोटे पाठ अपने साथ जोड़ सकते हैं। अहिंसा वास्तव में कोई फिलोसोफी नहीं है, बल्कि जीवन-शैली है। व्यक्ति जितना अहिंसक ढंग से जिएगा, वह उतना ही स्वस्थ, सफल और मधुर जीवन का मालिक बन सकेगा। आप सब अहिंसा-धर्म के अनुयायी बनें, यही शुभेच्छा है। इसी मंगल भावना के साथ नमस्कार ! ८८ For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कैसे जिएँ आनंद से , हमारे जीवन के दो पहलू हैं जिन्हें हम सुख और दुःख कहते हैं। सुख हमारा सपना है और दुःख हक़ीक़त । जीवन में चाहे सुख हो या दुःख इसके पीछे कारण ज़रूर रहता है। बिना वज़ह के न सुख मिलता है और न दुःख । सुख पाने के लिए प्रयत्न करना होता है और दुःख तो हमने ज़रूर ऐसे बीज बोए होंगे जिनके परिणामस्वरूप दुःख भोगने को मिलते हैं । जीवन में न सुख सुख है न दुःख दुःख वरन् दोनों ही हमारे किए गए कर्मों के परिणाम हैं। प्रकृति का विज्ञान यही समझाता है कि हर कार्य के पीछे कारण अवश्य छिपा होता है। हर मंज़िल को पाने का कोई-न-कोई रास्ता अवश्य होता है । हर बरगद के अतीत में बीज ही छिपा हुआ है। बिना कारण के कार्य सम्पादित नहीं होता, बिना वज़ह किसी भी चीज़ का वज़ूद नहीं होता । ज्ञानीजनों ने हक़ीक़त को समझा । उन्होंने सपनों को भी देखा और उन्हें पूरा करने का रास्ता भी समझने की कोशिश की। लेकिन जब उन्होंने दुःख को समझा तो उनकी अन्तरात्मा में यह ज्ञान - दृष्टि अवश्य विकसित हुई कि दुःख का कारण न व्यक्ति है, न वस्तु है, न परिस्थिति है । दुःख का कारण कुछ और है। उन्होंने दुःख के जो कारण समझे महावीर ने उसे अपनी भाषा में कहने का प्रयत्न किया तो बुद्ध ने अपनी भाषा में। दोनों ने जो कुछ भी कहा पहले उसके For Personal & Private Use Only ८९ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मर्म को समझने की कोशिश की और इतनी गहराई से समझा कि वे लोग राजकुमार न रहकर संन्यासी और श्रमण बन गए । केवल हक़ीक़त को समझने से काम नहीं चलता। उसकी वज़ह जानना भी ज़रूरी है । मैं दुःखी, आप दुःखी यह कहने से कुछ न होगा । दुःख को मिटाने के लिए उसके कारणों को ढूँढ़ना होगा। मैं बीमार, मैं बीमार - यह कहने से कुछ हासिल न होगा, बीमारी की वज़ह ढूँढ़नी होगी। स्वस्थ होने के लिए दवा की तलाश करनी होगी। दवा लेने से भी कुछ काम न चलेगा। पहले हमें स्वयं को उस वातावरण से अलग करना होगा, जिस वातावरण की वज़ह से हम बीमार पड़ते हैं - तन से, मन से । हम जानते हैं बुद्ध ने प्रसूतिग्रस्त महिला को देखा तो दुःख को समझा और इसकी वज़ह को भी समझा तो उन्हें लगा कि जन्म भी एक दुःख है । बूढ़े आदमी को लाठी टेककर चलते हुए देखा तो उन्हें बुढ़ापा भी एक दुःख महसूस हुआ । वमन करते हुए इन्सान को देखकर जाना कि रोग भी एक दुःख है और जब शवयात्रा में अर्थी को देखा तो उसे देखकर भी दुःख तत्त्व का बोध हुआ । तब वे गहराई तक उतरे, दुःख की वज़ह ढूँढ़ी, तब उन्होंने यह निर्णय लिया कि दुःख को मिटाया जा सकता है, दुःख को मिटाने का मार्ग अवश्य है और तब बुद्ध ने चार आर्य सत्य स्थापित किए । चार आर्य सत्य यही हैं। (१) दुःख है, (२) दुःख का कारण है, (३) दुःख को मिटाने का मार्ग है और (४) दुःख को मिटाया जा सकता है। T महावीर ने भी अपनी तरह से दुःख को और इसकी वज़ह को समझा । महावीर ने इन्सान के मूलभूत तत्त्व और कारण को राग और द्वेष कहा । इसलिए महावीर ने अपना प्रसिद्ध वचन कहा राग और द्वेष कर्म के बीज हैं। कर्म मोह से उत्पन्न होता है। वह जन्म-मरण का मूल है । और जन्म-मरण को ही दुःख का कारण कहा गया है । वे कहते हैं कि इन्सान के भव में भ्रमण करने का कारण उसके कर्म हैं। कर्म- जो हमसे कुछ करवाए। जिससे प्रेरित होकर हम कुछ करते हैं वह कर्म । कर्म अर्थात् हम जो कुछ खुद करते हैं । इस तरह इन्सान का प्रारब्ध भी उसका कर्म है। चाहे पाप हो या पुण्य, शुभ हो या अशुभ, मंगल हो या अमंगल सबके पीछे उसके कर्मों की ही भूमिका होती है । जो किया सो पाया। मैं करूँगा मुझे मिलेगा, आप करेंगे आपको मिलेगा । कर्म कर्ता का I ९० — - For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुगमन करता है। यह एक विराट सत्य है कि व्यक्ति सबकुछ छोड़कर जा सकता है, यहाँ तक कि पत्नी को तलाक दे सकता है, बच्चों को घर से निकाल सकता है, मरकर शरीर को भी छोड़कर जा सकता है पर कर्म उसके साथ ही जाते हैं। जैसे हमारा साया हमारे साथ चलता है वैसे ही हमारे कर्म भी हमारे साथ चलते हैं। इसलिए दूसरे को निमित्त बनाना ग़लत है कि उसकी वजह से जीवन में दुःख है, बल्कि स्वयं के कारण जीवन में दुःख है यह कहना ज़्यादा ठीक होगा। यह सोचना ग़लत है कि वह है इसलिए आपकी प्रगति नहीं हो रही है वरन् आपके अपने कर्म ही इतने प्रबल नहीं रहे कि आपकी प्रगति हो सके। आपकी गति और दुर्गति का आधार कोई दूसरा नहीं है। दूसरे के होने या न होने से आपकी हक़ीक़त में फर्क नहीं पड़ता है। आपके स्वयं के पुण्य प्रबल होने चाहिए । कोई राजा है और कोई रंक तो सबके पीछे खेल उन्हीं कर्मों का चलता है। यही कारण है कि समुद्र-मंथन में विष्णु को लक्ष्मी और शिव को विष मिलता है। सबकी अपनी किस्मत है, कर्म भी अपने हैं, प्रारब्ध अपना है। बैकुंठ में आराम से रहने के बावजूद विष्णु को राम के रूप में अवतार लेकर जंगलों की खाक छाननी पड़ी । दुनिया के महादेव कहलाने के बावजूद हिमालयपति शंकर को हाथ में खप्पर लेकर भिक्षा माँगने निकलना पड़ता है। ये कर्म हैं। महावीर की नज़र में ये कर्म इसलिए हैं कि हमारे जीवन में, हमारे संबंधों में, हमारे अन्तर्मन में राग और द्वेष के पुनः पुनः जगने वाले संकल्प और विकल्प हैं। क्रिया इन्सान को नहीं बाँधती है, मन में पैदा होने वाले राग और द्वेष के संकल्प और विकल्प ही उसे बाँधते हैं। इसीलिए कहते हैं - मन चंगा तो कठौती में गंगा । मन ठीक है तो सब ठीक है। मन अगर मोह में पड़ गया तो मन मंदिर न रहा, मदिरालय बन गया । मन अगर निर्मोही हो गया तो तुम चाहे जंगल में रहे या नगर में कोई फ़र्क न रहा । राग और द्वेष मूल कारण हैं। संन्यास लेकर अगर कोई राग और द्वेष करता है तो संन्यस्त होना निरर्थक है। संन्यास लेकर भी राग और द्वेष के अनुबंध अपने साथ बाँधकर रखे तो संन्यास लेने का क्या अर्थ है ? अगर राग-द्वेष को न जीता तो संन्यासी बनने का क्या मतलब ? माना कि संन्यास महत्त्वपूर्ण है, यह तो इस बात का प्रमाण है कि अब उसने राग-द्वेष को जीतने का प्रयत्न प्रारम्भ कर दिया है । वीतराग For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और वीतद्वेष होने के लिए स्वयं को स्थापित करने का नाम संन्यास है । एक ओर राग है, दूसरी ओर द्वेष है - जो हमारे कर्मों का बीज है । राग अर्थात् जुड़ जाना और द्वेष वह हथौड़ा जिसने संबंधों को तोड़ा। राग जोड़ता है द्वेष तोड़ता है। राग चिपकाता है मगर द्वेष दूर करता है । द्वेष से तो कोई लाभ होता ही नहीं है, राग का फिर भी कोई फ़ायदा देखा जा सकता है। मोह ममता का फ़ायदा हो सकता है लेकिन द्वेष का कभी कोई फ़ायदा नहीं होता । द्वेष में 1 तुम्हारी आत्मा गिरेगी, सामने वाले की आत्मा भी गिरेगी । एक दफ़ा इन्सान राग - अनुराग कर लेगा तो चल सकता है, पर द्वेष आत्मा को जन्म-जन्म तक भटकाएगा। इसलिए राग शुभ भी हो सकता है और अशुभ भी लेकिन द्वेष कभी शुभ और अशुभ में नहीं बाँटा जा सकता । ध्यान को शुभ और अशुभ ध्यान कहा जा सकता है, मानसिक एकाग्रता को शुभ या अशुभ कहा जा सकता है पर द्वेष ! इसका कोई शुभ पहलू होता ही नहीं है । इसलिए बुद्ध ने कहा न हि वैरेण वैराणि सम्मंति ध कुदाचन, अवैरेण च सम्मंति एस धम्मो सनंतनो । संसार का सनातन धर्म यही है कि वैर से कभी वैर शांत नहीं होता । प्रेम के द्वारा ही वैर को शांत किया जा सकता है। राग घातक है, राग बाँधता है, राग डबरा है, नाला है, पर द्वेष राग से भी अधिक ख़तरनाक है। राग ज़हर तो है पर शरबत में मिला हुआ, पर द्वेष खालिस ज़हर है, शुद्ध ज़हर है। इसमें कोई मिलावट नहीं है । राग के कारण हम एक दूसरे को दैवीय रूप में भी निभा सकते हैं, पर द्वेष में तो इन्सान कभी कोई कमठ बनेगा, कभी कोई मेघमाली बनेगा, कोई चण्डकौशिक बनेगा, तो कोई अंगुलीमाल या अर्जुनमाली बनेगा । इसलिए द्वेष रखना व्यर्थ है । महावीर चाहते हैं कि व्यक्ति सुख के दरवाजों की ओर बढ़े और दुःख से मुक्ति पाए । और मुक्ति की ओर चलना है तो हमें सबसे पहले दुःख के दरवाजों को बंद करना होगा और दुःख के दरवाजों को बंद करने के लिए राग-द्वेष के दरवाजों को बंद करना होगा । हमारी हालत यह है कि हम प्रतिदिन राग और द्वेष के संकल्प - विकल्प करते रहते हैं। अगर कोई अच्छा बोल जाता है तो राग हो जाता है और बुरा बोल दे तो द्वेष हो जाता है । गति, दुर्गति और सद्गति क्रिया के आधार पर कम, संकल्प और विकल्पों के आधार पर अधिक होती है । हम लोग फुलके खाते हैं ९२ - For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो जो अच्छे से फूला हुआ हो, ठीक ढंग से सिका हो, नरम हो वही अच्छा लगता है। यही राग का कारण बनता है और जो फुलका कच्चा, जला हुआ, पिचका-सा हो तो वही फुलका हमारे चित्त में द्वेष के संकल्प-विकल्प पैदा कर देता है। बनाने वाला वही है, आटा भी वही है लेकिन संकल्प-विकल्प के कारण राग-द्वेष हो जाता है। यही राग-द्वेष हमें बाँधते और मुक्त करते हैं, अन्य कुछ भी न बाँधता है न मुक्त करता है। ऐसा नहीं है कि कोई जमीकंद खाता है तो नर्क में ही जाएगा और न खानेवाला गारंटी के साथ स्वर्ग में ही जाएगा। जमीकंद नहीं खाकर स्वर्ग का रास्ता खोल सकते हो पर क्रोध करके तो ज़रूर ही नरक में जाओगे। संकल्प-विकल्प ही बाँधते हैं। संसार की वज़ह, दुःख की वज़ह, कर्मों के अनुबंध बाँधने की वजह हमारे संकल्प-विकल्प होते हैं। एक योगी जंगल में एक पाँव पर, एक हाथ ऊँचा करके दीर्घ तपस्या कर रहा था। वहाँ से किसी राजा की सवारी निकली। राजा उसकी प्रशंसा करने लगा कि - यह योगी धन्य है जो इस तरह जंगल में खड़ा होकर स्वयं को तपा रहा है। वह अनुमोदना करते हुए आगे बढ़ जाता है। जब राजा तारीफ़ कर रहा था उस समय अगर योगी की मनोदशा को समझा जाता तो पता चलता कि वह योग की है या रोग की। कहानी बताती है कि राजा से पहले उसके अंगरक्षक गए तो एक ने दूसरे से कहा - अरे, धन्य हैं ये महाराज जो अपने आपको साध रहे हैं। दूसरे ने कहा - क्या धन्य हैं, ये महाराज तो पाखंडी हैं। इन्हें नहीं पता कि इनके छोटे बच्चे को जिसके भरोसे इन्होंने राजगद्दी छोड़ी है उसे षड्यंत्र के साथ दो दिन में मारा जाने वाला है। मंत्री ने बगावत कर दी है, सेनापति ने भी बगावत कर दी है और दो दिन में उसका अंत हो जाएगा। एक ने प्रशंसा की तो मन में राग के भाव जगे, दूसरे ने आलोचना की तो द्वेष के भाव पैदा हुए। संकल्प-विकल्प मन में चलने लग गए। जब राजा ने उनकी अभिवंदना की थी तब उनके मन के आधार पर अगर यमराज को निर्णय देना होता तो वह यही कहता कि यह योगी मरकर नरक में जाएगा; क्योंकि मन के भाव दूषित हो गए। ____ महावीर की विशेषता थी कि वे न केवल विकल्प-मुक्त थे, निर्विकल्प थे वरन् वे संकल्पों से भी मुक्त थे। वीतराग व्यक्ति विकल्प ही नहीं करता ९३ For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न बल्कि किसी तरह का संकल्प भी नहीं करता । राग और द्वेष से मुक्त होने के लिए ज़रूरी है कि व्यक्ति सहज जीवन जीए। मैं तो कहूँगा आनन्द से, प्रेम से ओ। न राग से जीओ न द्वेष से जीओ प्रेम से जीओ। न झगड़ा करके, वैर-विरोध करके अपितु आनन्द से जीओ । हम सभी की जिंदगी बहुत जल्दी समाप्त हो जाने वाली है। इसलिए जितना भी जीवन है आनन्द से जी लें। जितनी ज़िंदगी है उसे राग-द्वेष से मुक्त होकर जिएँ । आप स्वयं अच्छे हैं इसलिए तारीफ़ कर रहे हो, दूसरे को बुराई दे रहे हो तो तुम बुरे हो इसलिए बुरा कह रहे हो। तारीफ़ में बुराई में निरपेक्ष रहना, यही साधना है । मन जो घड़ी के पेंडुलम की तरह है इधर-उधर डोल रहा है वह बीच में स्थिर हो जाए, इसी का नाम साधना है । सहजता से अपना जीवन जीओ । - राग-द्वेष से ऊपर उठ सकें इसके लिए सबसे पहले स्वयं पर संयम रखें और दूसरों के साथ प्रेम करें। दूसरों से प्रेम रखेंगे तो द्वेष नहीं बनेगा और स्वयं पर संयम रखेंगे तो राग नहीं होगा । तप-त्याग करना स्वयं पर किया जाने वाला संयम है। अपने राग-द्वेष की कसौटी करते रहना चाहिए कि समता-भाव आया या अभी भी चित्त में विषमता है । सभी लोग पंच महाव्रत तो धारण नहीं कर सकते लेकिन छोटे-छोटे व्रत तो धारण किए ही जा सकते हैं जैसे कि एक माह में पाँच या चार सप्ताह माने जाएँ तो एक सप्ताह तक अहिंसा को पूरी तरह जीएँ with perfectness. दूसरे सप्ताह में सत्यव्रत को जीएँ परिपूर्णता के साथ, तीसरे सप्ताह में संकल्प लें कि अचौर्य व्रत को जीएँगे, चौथे सप्ताह में शीलव्रत का पालन करें और पाँचवें सप्ताह में नए क्रय-विक्रय से बचें। यह हो गया सरलीकरण । जैसा कि संकल्प है पहले सप्ताह में अहिंसाव्रत के पालन का तो किसी को कठोर वाणी नहीं बोलेंगे, क्रोध नहीं करेंगे। अगर कुछ विपरीत वातावरण बन भी जाए तो संयम रखें, बार-बार ख़याल में लें कि यह अहिंसा-सप्ताह के व्रत का समय है इसलिए विपरीत स्थितियों की उपेक्षा करें । इसके उपरान्त भी अगर सामने वाला सुनने को तैयार न हो तो उसे प्रेम से बता दें कि आपका अहिंसा-सप्ताह चल रहा है, इसलिए जो कहना-सुनना हो अगले सप्ताह बात करेंगे। अगला सप्ताह अगर सत्य का है तो किसी भी स्थिति में हम झूठ नहीं बोलेंगे। सत्य को परिपूर्णता के साथ जीएँगे । आयकर - बिक्रीकर के ९४ For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छापे पड़ जाएँ या माल बिके अथवा न बिके पर सत्य को जीने के सप्ताह का ध्यान रखेंगे। यह हो गया संयम । तीसरा सप्ताह अचौर्य है तो व्रत रहे कि सेल्स टैक्स, इनकम टैक्स नहीं चुराएँगे, बिना बिल के माल नहीं बेचेंगे। चौथा सप्ताह है शीलव्रत का तो शील का पालन, ब्रह्मचर्य का पालन करेंगे, मन को किसी भी स्थिति में विचलित होने से बचाएँगे। वाणी के द्वारा, काया के द्वारा भी असंयम नहीं करेंगे। यह हो गया शील का पालन । भोजन के प्रति राग-द्वेष, संकल्पविकल्प पैदा होते हैं तो उस पर नियंत्रण आ सके इसके लिए माह में एक दिन नमक का त्याग कर दें। अब जिस दिन तय है कि फीकी सब्जी ही खाएँगे तो मन को बुरा नहीं लगेगा क्योंकि हमारा संकल्प मज़बूत है, व्रत जो लिया है। जैन धर्म में व्यवस्था है कि व्यक्ति आयम्बिल तप करता है - उसमें घी, तेल, मिर्च, मसाले, नमक, हरी सब्जी, दूध, चाय, कॉफी सबका निषेध होता है। केवल उबला हुआ अन्न ही खाता है। यह तपस्या है, संयम है। जब कभी हम स्वाद को लेकर राग-द्वेष भरी वाणी कह जाते हैं तो यह उस पर संयम करने का तरीक़ा हो सकता है। जैसे कि माह में या सप्ताह में एक ही बार खाएँगे, एकासना करेंगे । एक दिन के लिए तो कम-से-कम स्वयं को तपस्वी बना लेंगे। ऐसे स्वनिर्णय हमको खुद ही करने होंगे तभी राग-द्वेष कुछ कम हो पाएँगे। नहीं तो राग-अनुराग, द्वेष-विद्वेष से बाहर न निकल पाएँगे। राग-द्वेष की व्यवस्थाएँ तो संसार में चलती ही हैं लेकिन अगर हमें भव-तृष्णा और भव- चक्र को काटना है तो स्वयं को राग-द्वेष से मुक्त करना होगा। ध्यान की दशा में हम यही अभ्यास करते हैं, यही प्रशिक्षण लेते हैं, यही कोशिश करते हैं कि सुखद संवेदना का अनुभव करते हुए राग नहीं करें और दुःखदायी संवेदना का अनुभव होने पर द्वेष नहीं करेंगे । राग और द्वेष से मुक्ति के लिए सहजता से जीना ही श्रेष्ठ है। ऐसा हुआ, एक दफा हम जयपुर में थे, किसी के यहाँ आहार लेने के लिए गए हुए थे। उन्होंने हमें बादाम देनी चाही तो मैंने यह कहते हुए इन्कार कर दिया कि गर्मी के मौसम में बादाम अनुकूल नहीं रहती। उन्होंने तुरंत कहा - क्या महाराज सा'ब, आप बादाम के लिए इन्कार कर रहे हैं, मीराबाई तो ज़हर का प्याला भी बिना कुछ बोले पी गई थी। और आप... ? उस दिन मुझे लगा जब हम अपने अंदर विराजित प्रभु को अर्घ्य चढ़ाते हैं तो सच में इन्कार For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कैसा । यह भी उसे ही समर्पित । तब से मैं अपने पात्र में आने वाली खाद्य चीज के लिए इन्कार नहीं करता हूँ और खाते समय हाथ जोड़कर प्रभु को समर्पित कर देता हूँ। मैं का भाव नहीं रखता हूँ, वह खाना भी श्रीप्रभु को अर्घ्य के रूप में चढ़ा देता हूँ। जब तक पेट तृप्त होता है खा लेते हैं। किसी भी चीज के लिए इन्कार नहीं कि यह अच्छी लगती है या नहीं पसंद है । इन्कार इसलिए नहीं कि वह वस्तु राग-द्वेष, संकल्प - विकल्प का कारण बनती है, इसलिए उसका भी मजा ले लेते हैं। अनुकूल रहे या प्रतिकूल इन्कार नहीं करेंगे। यह तरीका है अपने संकल्प-विकल्पों को कम करने का । सहजता से जीवन जीकर हम सुख के साथ जी सकेंगे। किसी बात को सुनकर तनाव आया, बुरा लगा, इसका अर्थ यह कि आप अपनी सहजता से हट गए, आपकी सहजता दुष्प्रभावी हो गई। मैं तो कहता हूँ जीवन में मस्ती होनी चाहिए। वह इन्सान ही कैसा जिसके जीवन में मस्ती न हो । मस्ती वही है जिसे कोई भी बाधा, कोई भी विकार, कोई भी दुःशब्द प्रभावित न कर पाए। उसका नाम अखण्ड मस्ती है । उसी का नाम ज़िंदगी है। ज़रा-ज़रा-सी बातों पर लोग रोने लग जाते हैं अर्थात् सहजता से नहीं जी रहे । हमें हाकुइन की वह कहानी हमेशा याद रखनी चाहिए जिसमें पड़ोस में रहने वाली लड़की किसी मछली व्यापारी के साथ प्रेम करके गर्भवती हो जाती है और घर के लोगों को सत्य नहीं बता पाती और तब संत हाकुइन का नाम ले लेती है । जब घरवाले हाकुइन के पास जाकर यह बात कहते हैं कि तुमने संत होकर ऐसा कर दिया, उसकी प्रतिक्रिया में संत इतना ही कहते हैं - ओह, तो ऐसा है, ठीक है। और अपने ऊपर लगाए गए लांछन को, कलंक को सहजता से ले लेते हैं । कहते हैं कि चार साल बाद जब वह लड़की मृत्यु - शैय्या पर थी तो मरने से पहले प्रायश्चित करती है और बताती है कि - उसका जो बच्चा है वह उस संत का नहीं बल्कि मछली व्यापारी का है घर के लोग संत के पास जाकर कहते हैं - हमें क्षमा करें, बहुत खेद की बात है कि हमारी बच्ची ने आप पर लांछन लगाया, और इतना बेइज़्ज़त किया। संत ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की, यही कहा- ओह, तो ऐसा है ? Is that so ? ठीक है। 1 पुनः ९६ For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह है वास्तविक वीतराग और वीतद्वेष स्थिति । यह सहजता ही जीवन में असली सुख को जन्म देती है। न गृहस्थी दुःख का निमित्त है, न संन्यास सुख का आधार है, व्यक्ति की दोनों ही स्थितियों में रहने वाली सहजता ही सुख का आधार है। जब-जब हम अपनी सहजता को खंडित करते हैं तब-तब तनाव, चिंता, स्ट्रेसनेस बढ़ती है। अगर व्यक्ति प्रकृति की व्यवस्था को समझ जाए कि यहाँ सब कुछ बदलता है तो सहजता आएगी ही। अगर कोई मुस्कुराकर बोल रहा है तो ज़रूरी नहीं है कि सदा-सदा ही मुस्कुराकर बोलेगा। Everything is changing. आप बदल रहे हैं, विचार बदल रहे हैं, यहाँ निश्चित ही सब कुछ बदलेगा। इसलिए न राग, न द्वेष । इस बात को दिल में उतार लें। किसी के शब्द आपको टेढ़े लग गए तो वही आपके जीवन की शांति की कसौटी बन जाएँगे। अगर दस बार आप खरे उतर गए तो ग्यारहवीं बार कहने वाला व्यक्ति सँभल जाएगा, आपकी निंदा न कर सकेगा। एक पिता अगर अपने पुत्र से कुछ पूछे और वह सच बोले तब भी पिता को विश्वास न हो पाए और अपने पुत्र को दंडित ही करे तब भी पुत्र सच ही बोले, बार-बार दंडित किये जाने के बावजूद बच्चा सत्य का दामन न छोड़े तब पिता को विश्वास हो जाएगा कि मेरा बेटा झूठ नहीं बोलेगा, उसे चाहे जितना दंडित किया जाए। इसलिए सहजता से जीओ। तभी तो कहते हैं जो फिकर का फ़ाक़ा करे वही फ़क़ीर । चिंता फ़िक्र कुछ नहीं, मस्त रहते हैं फ़क़ीर। धर्म हमें मस्त रहना ही सिखाता है। मुक्ति का अर्थ ही मस्ती है। आनन्द से जीओ, प्रेम से जीओ, सहजता से जीओ । खास तौर से अपनी निंदा सुनकर, अपने प्रति कड़वे वचनों को सुनकर, अपने प्रति लगाए गए आक्षेपों को सुनकर, जीवन में किसी ख़ास नुकसान को देखकर - अपनी सहजता को बरकरार रख पाते हैं तो आप घर में रहते हुए भी संत हैं और व्यापार करते हुए भी मुक्त हैं। सहजता से जीओ, सुख से जीओ। राग-द्वेष से मुक्त होना है, इसके संकल्प-विकल्पों को क्षीण करना है तो दूसरी बात यह है कि अपने जीवन में हमें ‘सम्मान' तत्त्व को अधिक जोड़ना होगा कि आप दूसरों को अपनी ओर से सम्मान देने का प्रयत्न करेंगे। अगर किसी का असम्मान हो गया तो यह अविवेक, अधर्म, पाप होगा फिर भी अपनी २७. For Personal & Private Use Only www.jainelibraly.org Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ओर से यही कोशिश रखना है कि जितना हो सके उतना अधिक से अधिक सम्मान देने का प्रयत्न करेंगे। हाँ, असम्मान हो जाए तो प्रतिक्रमण किया जाए कि आज आपसे किसी का असम्मान हो गया । द्वार पर कोई संत आए या भिखारी, दोनों को सम्मान दो । अगर दरिद्र और भिखारी को कुछ नहीं दे पाते हो तो सम्मानपूर्वक उससे क्षमा माँगकर विदा कर दो। दरिद्र के पास भी आत्मा होती है और हममें से किसी को भी किसी की आत्मा का अपमान करने का अधिकार नहीं है । जैसे हमें अपना अपमान अच्छा नहीं लगता वैसे ही भिखारी को भी उसका अपमान अच्छा नहीं लगता। बच्चों से भी प्यार और सम्मान की बात करें, हर वक्त क्या डाँटते रहना । सास बहू के साथ सम्मान से पेश आए, हर वक्त किच-किच न करे अन्यथा बहू या तो ज़वाब देने लगेगी या सुनेगी ही नहीं। कभी-कभी अगर कोई कुछ कह भी दे तो उसे माफ़ किया जा सकता है। रोज़-रोज़ कड़क भाषा का प्रयोग करने से राग-द्वेष के अनुबंध प्रगाढ़ होंगे । पति - पत्नी को भी एक सीमा तक ही दाम्पत्य का सेवन करना चाहिए अन्यथा राग और मोह के बंधन इतने प्रगाढ़ हो जाएँगे कि वह कामान्धता भव-भवान्तर तक पीछा नहीं छोड़ेगी। अगर आपका असम्मान हो जाए तो पहले चरण पर - सहजता पर आ जाना लेकिन हमारी ओर से तो सम्मान ही दिया जाना चाहिए । सम्मान दो, मधुर भाषा का उपयोग करो । तीसरी बात 'प्रेम से जीओ' । चार दिन की ज़िंदगी है । प्रेम करने के लिए ज़िंदगी छोटी पड़ती है । उसमें वैर-विरोध डालकर जिंदगी क्यों बर्बाद करते हो । द्वेष निम्न वस्तु है, इन्सानियत से गिर जाने की वस्तु है । द्वेष दो कारणों से पैदा होता है । क्रोध और ईर्ष्या के कारण । राग भी दो कारणों से पैदा होता है - मोह और लोभ के कारण । और अगर राग-द्वेष चलते रहे तो हमारा भव-चक्र भी चलता रहेगा । - मोह और लोभ से, क्रोध और ईर्ष्या से निकलकर क्यों न हम अपना सहज जीवन जीएँ । क्यों न इसका विवेक रखें कि आप सबसे प्रेम करेंगे, सबको सम्मान देंगे तब क्रोध आएगा ही नहीं । भगवान ने सामायिक की प्रेरणा ही इसीलिए दी है कि विपरीत स्थितियों में भी सामाि समता रख सको, सहनशीलता रख सको । अड़तालीस मिनट तक आसन पर स्थिर होकर बैठना ९८ For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांति - समता का अच्छा अभ्यास है। उस दरमियान किसी ने कुछ कह दिया तो सहन कर जाएँगे। हाँ, यह भी अभ्यास हो कि सामायिक के उपरान्त उस बात पर कोई प्रतिक्रिया नहीं करेंगे, तभी सामायिक करना सार्थक होगा। इस अभ्यास को बढ़ाना होगा और टेढ़े शब्दों पर कोई प्रतिक्रिया नहीं करनी होगी क्योंकि आप सामायिक में हैं । I 1 चौथी बा प्रेम से जीते हुए ‘क्षमा-भाव' रखो। दूसरों से अगर कुछ ग़लत हो गया है तो क्षमा को मूल्य दो । महावीर ने तो कानों में कीलें ठोंकने वाले तक को माफ़ कर दिया। जीसस ने तो सलीब पर चढ़ाने वालों तक को क्षमा कर दिया । मंसूर ने हाथ काटने वालों को, मीरा ने जहर का प्याला देने वालों को भी माफ़ कर दिया । माफ़ी बहुत बड़ा धर्म है । दिगम्बर जैन परम्परा में तो क्षमा की पूजा की जाती है । जैसे शेष परम्पराओं में तीर्थंकरों की, अरिहंतों की, अवतार-पुरुषों की पूजा होती है वैसे वहाँ पर क्षमा-धर्म की पूजा होती है। लोग ईश्वर की आराधना करते हैं वहाँ क्षमा-धर्म की भी आराधना की जाती है। जैन परम्परा की यह व्यवस्था कि वर्ष भर में एक बार 'संवत्सरी' मनाएँगे अर्थात् वर्ष एक दिन क्षमापना के रूप में मनायेंगे। यह अद्भुत बात है । मेरा मानना है कि शेष दुनिया को भी इस बात की प्रेरणा लेनी चाहिए कि वर्ष भर में एक ऐसा दिन निर्धारित किया जाए कि, चाहे वह 31 दिसम्बर ही क्यों न हो, हम उस दिन संध्या को सभी लोग बैठकर प्रार्थना करेंगे, मंगल मैत्री भाव की प्रार्थना करेंगे कि वर्षभर में किसी के भी प्रति वैर-विरोध हुआ हो तो क्षमापना करेंगे, माँगेंगे, क्षमा कर देंगे। साल का आखिरी दिन है, पूरे वर्ष का लेखा-जोखा उस दिन समाप्त कर ही देना चाहिए कि नववर्ष में शुद्ध और निर्मल हृदय से प्रविष्ट हो सकें। उस दिन मन के बर्तन को साफ-सुथरा कर, जीवन के, सम्बन्धों के बर्तन को धो-पौंछकर जब नए साल में 1 जनवरी को सम्बन्धों की शुरुआत करेंगे तो वह हमारी प्रेमपूर्ण, उत्साहपूर्ण, आत्मविश्वास से भरपूर शुरुआत होगी। ऐसी शुरुआत जिसमें न राग है, न द्वेष है, किसी दर्पण के समान हम सूरज के सामने खड़े होंगे कि वहाँ उसका प्रतिबिम्ब निर्मल बनेगा। अगर इस दर्पण को साफ न किया तो यह जन्म-जन्मान्तर तक क्रोध, ईर्ष्या, मोह, लोभ, राग-द्वेष पीछा करते रहेंगे और हम कीचड़ के कीड़े बनकर दुनिया में जीते रहेंगे । - क्षमा - - हमें तो मुक्ति का स्वर्ण-कमल बनना है । हमारे द्वारा राग का पोषण कम से कम हो सके इसलिए केवल 'मैं और मेरा परिवार' का ही पालन-पोषण न ९९ For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते रहें वरन् दीन-दुःखियों के लिए भी उदारतापूर्वक दान देने का उपक्रम करें। जितनी भी बन सके दूसरों की मदद करने का प्रयास करें। अपनी क्षमता के अनुरूप मदद ज़रूर करें । प्रेम के साथ करुणा को भी स्थान दें। मैं किसी से भी द्वेष नहीं रखता, मैं प्रेम का पथिक हूँ, वीतराग नहीं हूँ लेकिन वीतद्वेष ज़रूर हूँ। मैं प्रेम का पुजारी हूँ, प्रेम ही मेरी प्रार्थना है, प्रेम ही मेरी साधना है, धर्म है, यही मेरा सद्गुण है, यही मेरा पंथ है। ध्यान के परिणाम ने मुझे प्रेम दिया और प्रेम ने मेरे हृदय में अनंत करुणा को साकार किया । इसलिए दीन-दुःखियों, जरूरतमंदों के प्रति जितना मुझसे बन पड़ता है उससे अधिक करने का प्रयत्न करता हूँ। मुझे तो लगता है वह दुःखी नहीं है, उसकी जगह मैं ही आ चुका हूँ और उतना ही दीन-दुःखी, अपाहिज़, करुणा का पात्र समझने लगता हूँ तब अपने-आप ही भीतर से सहानुभूति और करुणा बरसने लगती है। मैं मानता हूँ कि जितना बड़ा धर्म अहिंसा है उससे बड़ा धर्म करुणा है, मानवता और भाईचारा है। ऐसा तो नहीं कह सकता कि करुणा के बदले करुणा लौटकर आएगी लेकिन यह प्रकृति की व्यवस्था है कि अच्छे के बदले में अच्छा और बुरे के बदले में बुरा लौटकर मिलता है। एक प्यारी-सी घटना है - एक बच्चा अपने माँ-पिता से बिछुड़ गया था और चलते-चलते किसी मकान की चौखट पर पहुँचा। वह बहुत भूखा था, उसने देखा कि एक महिला मकान से बाहर निकल कर आई है लेकिन वह खाना माँगने की हिम्मत न जुटा पाया, केवल इतना ही कहा - माताजी, क्या आप मुझे एक गिलास पानी पिलाएँगी, बहुत प्यास लगी है। उस महिला ने महसूस किया कि बच्चा भले ही पानी माँग रहा है लेकिन भूखा भी लगता है। वह अंदर जाकर पानी की बजाय एक गिलास दूध लाकर बच्चे को देती है। बच्चा दूध पी लेता है। महिला की इस करुणा भरी सद्भावना पर वह शुक्रिया अदा कर चलने लगता है तो महिला कहती है - फिर ज़रूरत हो तो आ जाना मैं तुम्हें दूध पिला दूंगी। बच्चा चला गया। बात भुला दी जाती है। कोई बीस-पच्चीस वर्ष बाद वह महिला बीमार पड़ती है,अस्पताल में भर्ती किया जाता है। पता चलता है कि उसे हृदय-रोग हो गया है और ऑपरेशन किया जाता है। ऑपरेशन के बाद जब १०० For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिल चुकाने की बात आती है तो डॉक्टर कहता है - आप इसकी चिंता न करें, घर जाएँ, मैं बिल घर ही भिजवा दूंगा। महिला रवाना होती है। डॉक्टर बिल बनते हुए देखता है कि नाम पर नज़र जाती है, वह उस महिला का नाम पढ़ता है, पता पढ़ने को मिलता है, वह चौंक जाता है कि क्या यह वही महिला है ! बिल लेकर वह उस मकान पर जाता है, और देखता है कि अरे, यह तो वही मकान है। तब अपने ब्रीफकेस में से अपना लेटर-पैड निकालता है और लिखता है - माँ जी, मैंने ऑपरेशन किया है इसलिए मुझे निश्चित ही भुगतान मिलना चाहिए था लेकिन मुझे यह बताते हुए गौरव होता है कि इसका भुगतान मुझे पच्चीस वर्ष पूर्व ही मिल गया था। वही एक गिलास दूध पीने वाला बच्चा। यह पत्र लिफाफे में डालकर वह उस महिला को देकर रवाना होता है। महिला पत्र निकालकर पढ़ती है, वह केवल इतना ही कहती है - ओह, मेरे बेटे ! इतना कहकर वह ज़मीन कर गिर पड़ती है कि डॉक्टर की नज़र पुनः उस महिला पर जाती है। वह दौड़कर वापस आता है और माँजी को उठाता है। उस स्नेहभरे आलिंगन से माँजी होश में आ जाती हैं और दोनों प्रेमपूर्ण आलिंगन में आबद्ध हो जाते हैं। अगर तुम दीन-दुःखियों के लिए हाथ बढ़ाते हो तो प्रभु किसी-न-किसी माँ का रूप रखकर तुम्हें गले लगाने को आतुर हो जाएँगे। राग-द्वेष हमारे लिए कर्म के बीज का निमित्त बनते हैं। ये कड़वे बीज हमारे जीवन में न बोए जा सकें इसलिए राग की चिंता छोड़ो और द्वेष की चिंता भी छोड़ें और अपना सहज जीवन जीएँ, वीतद्वेष रहें, किसी से वैर-विरोध न रखें, सबके साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार करें, अपने जीवन में प्रेम की मिठास बढ़ाएँ। कुल मिलाकर प्रेम से जीएँ, आनन्द से जीएँ, वैर-विरोध का त्याग करें। अपनी ओर से प्रेमपूर्वक इतना ही निवेदन करता हूँ। For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखकी राह HA gro PRESETHel o a2016 2006anoger '3040 * C .." .. 1300+ A यह संसार का सत्य है कि यहाँ प्रत्येक वस्तु और प्रत्येक परिस्थिति के दो पहलू होते हैं - एक पॉजिटिव, दूसरा निगेटिव । एक धूप का, दूसरा छाँव का। ऐसे लगता है जैसे कि दुनिया में धूप और छाँव का खेल चलता रहता है। कभी दुःख चलता है कभी सुख चलता है। कहीं किसी के जन्म पर थाली बजती है तो कहीं किसी की मृत्यु पर आँसू छलकते हैं। कहीं किसी के मिल जाने पर खुशियाँ छा जाती हैं तो कहीं किसी के बिछुड़ जाने पर मन मायूस हो जाता है। लेकिन मुख्य बात यह है कि सुख और दुःख एक ही गाड़ी के अलग-अलग पहिए हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों में से किसी एक को अलग नहीं किया जा सकता। जैसे इन्सान की परछाईं उसके साथ चलती है वैसे ही सुख के साथ दुःख और दुःख के साथ सुख की परछाईं चलती है। लेकिन साधक व्यक्ति सुख-दुःख, धूप-छाँव के खेल को सचेतनतापूर्वक समझ लेता है और अपनी ज्ञान-दृष्टि के कारण दोनों ही स्थितियों में सहज रह लेता है। तारीफ़ मिलने पर प्रायः व्यक्ति अहम् भाव को पोषित करता है और निन्दा सुनने पर मन आर्त और रौद्र ध्यान करने लगता है। सचेतन साधक अनुकूलताओं को पाकर न तो घमंड करता है और न प्रतिकूलताओं को पाकर चित्त में ग्लानि या खेद का अनुभव करता है । मैं तो साधना का भाव दो शब्दों में १०२ For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहूँगा कि दो विपरीत ध्रुवों के बीच में व्यक्ति द्वारा तटस्थ रहना ही साधना है। क्योंकि परिस्थितियाँ तो बनती और बिगडती हैं । कोई भी अरबपति ऐसा नहीं हुआ जिसकी सात पीढ़ियाँ अरबपति रही हों । संसार का नाम गति है । गति में नीचे का पहिया ऊपर और ऊपर का पहिया नीचे आता है । इसलिए व्यर्थ का घमंड करने की बजाय कि आज हमारे पास इतना ज्ञान, इतना सौन्दर्य या इतना धन है व्यक्ति को इस बात का बोध रखना चाहिए कि रूप भी ढलता है, ज्ञान और बुद्धि की क्षमता भी कमज़ोर होती है और लक्ष्मी चंचल है। उसका पता नहीं आज है और कल नहीं है । जब हर चीज ही परिवर्तनशील है तो इन्सान किसी भी बात को लेकर अपने चित्त में खेद या घमंड क्यों करे । जीवन तो खेल है चाहे चित गिरे या पट । जब दो खिलाड़ी खेलेंगे तो एक हारेगा यह भी तय है। जीवन में भी कोई कार्य करें उसके दो ही परिणाम निकलेंगे या तो सफलता मिलेगी या असफलता मिलेगी । इन्सान चलेगा तो या तो गिरेगा या पहुँच जाएगा। दो में एक रास्ता हमेशा खुला रहता है परिस्थितियाँ बदलती हैं और इस परिवर्तन का नाम ही संसार है । ज्ञानियों ने संसार को समझने की कोशिश की है इसीलिए वे संसार के प्रति मूर्च्छित नहीं हुए, उन पर माया का प्रभाव न पड़ सका । 1 - 1 कहते हैं एक व्यक्ति जंगल से जा रहा था कि तभी उसने शेर के दहाड़ने की आवाज़ सुनी। वह भागा, जंगल में घास-फूस उगी हुई थी । उसे सही रास्ता नज़र न आया। वह दौड़ते-दौड़ते एक गहरे गड्ढे में गिर गया, कुएँ में गिर गया। गिरते ही उसके हाथ में पेड़ की जड़ आ गई जो उसने पकड़ ली। लेकिन उसने देखा कि जिसको उसने पकड़ा है उसे चूहा काट रहा है, उसने देखा जिस पेड़ की वह जड़ है उसे हाथी चोट मार रहा है, अपनी सूँड से उसे हिलाने और गिराने की कोशिश कर रहा है । वह यह भी देख रहा है कि अगर बाहर निकल आया तो भी ख़तरा है, भीतर नज़र डाली तो चौंक गया क्योंकि वहाँ भी एक साँप फन फैलाए था कि वह नीचे गिरे तो डँस ले। वह पसोपेश में पड़ा हुआ था कि क्या करे तभी देखा कि जहाँ वह लटका है वहाँ से अचानक एक शहद की बूँद उसकी नाक पर आकर गिरी और होठों से छूती हुई जिह्वा पर आ गई। उसे बहुत स्वाद लगा, आनन्द और मज़ा आ गया । वह कुछ और सोचे कि तभी - For Personal & Private Use Only १०३ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक बूंद और टपकी, उसे फिर स्वाद मिला। उसने ऊपर-नीचे देखा कि एक बूंद और आ गिरी, उसे स्वाद मिलने लगा। उसके दोनों ओर मौत खड़ी थी लेकिन व्यक्ति मौत की चक्की में पिसते हुए भी कहीं-न-कहीं स्वाद लेने की कोशिश कर रहा है और इसी का नाम संसार है। व्यक्ति यही सोचकर संसार में जीता है कि शायद दो बूंद शहद की और मिल जाएँ। अज्ञानी यही देखता है कि शायद दो बूंद और मिल जाएँ लेकिन ज्ञानी व्यक्ति उस शहद की बूंद को देखने के बजाय ऊपर और नीचे दोनों ओर खडी हई मौत को देखता है और सोचता है कि अब बीच में मुझे क्या करना चाहिए। इसीलिए कबीर ने कहा था चलती चक्की देखकर, दिया कबीरा रोय । दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोय ।। ये दो पाट हैं - कभी सुख के, कभी दुःख के, कभी प्रशंसा के, कभी निन्दा के, कभी आज्ञाकारिता के, कभी अवज्ञा के, ऐसी स्थिति में ज्ञानी व्यक्ति जाग्रत हो जाता है और समझ जाता है कि यह परिस्थिति है जो कभी अनुकूल और कभी प्रतिकूल हो जाती है। वह मोहित नहीं होता क्योंकि उसने दोनों परिस्थितियों को जान लिया है, समझ लिया है। वह ज्ञानी हो गया है। ज्ञानी वह नहीं है जिसने बहुत-सी किताबें पढ़ ली हैं या जो प्रोफेसर हो गया है या जिसने डॉक्टरेट अथवा महोपाध्याय की डिग्री हासिल कर ली है। ज्ञानी वह है जिसने इन दो पाटों को समझ लिया और इनसे निकल पड़ा तब उसका ज्ञान जीवन में चरितार्थ हो गया । ज्ञान यही है कि सुख और दुःख हमारे साथ-साथ ही चलने वाले हैं इसीलिए किसी भी परिस्थिति के प्रति खिन्न और प्रसन्न होने की बजाय, हमें सहज होने की कला सीख लेनी चाहिए। कोई आकर पाँवों में झुककर प्रणाम कर दे तो उससे स्वयं को बड़ा समझने की ज़रूरत नहीं है। वह प्रणाम परम पिता परमेश्वर को समर्पित कर देना चाहिए। तब यही भाव रखना चाहिए कि हे प्रभु, इसके प्रणाम तुम स्वीकार करो, मैं तो तटस्थ रहूँ। अगर प्रणामों को अपने तक ही सीमित रखा तो इतना अहंभाव पोषित होगा कि अगर किसी ने प्रणाम न किया तो चित्त उद्विग्न और खिन्न हो जाएगा । यह मानो ही मत कि तुम प्रणम्य हो, यही मानो कि प्रभु ही सदा प्रणम्य हैं। मैं तो केवल मूर्ति की तरह सामने खड़ा हूँ। मैं १०४ For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसके तो केवल माध्यम हूँ। वह प्रणाम कर रहा है इसलिए आदरणीय नहीं हूँ । भीतर आदर पैदा हुआ है इसलिए वह प्रणाम अर्ज़ कर रहा है। इसके विपरीत अगर वह अपना जूता दिखा दे तो भी बुरा मत मानना । वह जूतों की माला भी पहना दे तो संत - प्रकृति का बन जाना । साधु - प्रकृति चौबीसों घंटे नहीं रखी जा सकती लेकिन अपमानित होने की अवस्था में साधु - प्रकृति का स्मरण कर लें। मान लें कि इस माला में दस जूते हैं और मैं उन सभी को प्रणाम करते हुए समझता हूँ कि इस बहाने मुझे एक साथ दस लोगों को गले लगाने का सौभाग्य मिला । अथवा समझें कि ये भी प्रभु की ओर से भेजा गया संदेश है, इसे सहजता से स्वीकार कर लेना । यह सहजता ही साधना है शेष तो सभी चीज़ें चित्त को उद्विग्न करेंगी। सहज रहना ही हर परिस्थिति को स्वीकार कर लेना है। साधना का मर्म ही सहजता है । सुख का मर्म भी सहजता है । मुझे याद है - एक संत रास्ते से चला जा रहा था, तभी उसका विरोधी व्यक्ति आया और संत की पीठ पर जोर से लाठी का प्रहार कर दिया। संत गिर पड़ा। विरोधी ने इतनी जोर से मारा था कि लाठी भी हाथ से छूट गई। उसे लगा अगर मैंने लाठी उठानी चाही तो संत भी कमजोर नहीं है वह भी प्रहार कर सकता है तो वह लाठी छोड़कर भागा। संत खड़ा हुआ, लाठी उठाई, कुछ कहने को हुआ कि उसकी नज़र ऊपर गई । उसने लाठी को देखा और कहा - अरे भाई, तुम जो भी हो वापस आकर अपनी लाठी ले जाओ। पास खड़े एक मुसाफ़िर ने संत को देखा और पूछा - महाराज ! इसने आपको लाठी मारी। क्या आपको गुस्सा नहीं आया? आप तो उसे मारने की बजाय लाठी ही लौटा रहे हैं । संत हँसे और कहने लगे जो बात तुम कह रहे हो वही बात मेरे दिल में भी आई लेकिन जैसे ही लाठी उठाकर खड़ा हुआ मेरी नज़र ऊपर की ओर गई। मैंने देखा कि यहाँ एक पेड़ खड़ा है तो मुझे लगा कि मैं उस युवक के पीछे भागूँ, उसे लाठी से मारूँ उससे पहले ही मेरी प्रज्ञा जग गई और मैं सहज हो गया। मैंने स्वयं से कहा - संत जरा सोच, काश तुम इस पेड़ के नीचे से गुजर रहे होते और पेड़ की एक डाल तेरी पीठ पर आकर गिर जाती तो क्या तुम पेड़ को मारने के लिए मचलते ? मुझे लगा यह लाठी नहीं, पेड़ से ही किसी टहनी का मेरी पीठ पर गिरना हो गया। मुसाफ़िर ने कहा - महाराज ! वह तो संयोगभर कहलाता, - For Personal & Private Use Only १०५ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर उसने तो जान-बूझकर मारा है। संत हँसे और कहने लगे - जब मैं उसे संयोग मान सकता हूँ तो इसे संयोग क्यों नहीं मान सकता । और दोनों को ही संयोग समझ लेने के कारण मेरे चित्त का क्रोध शांत हो गया, वैर-वैमनस्य की धारा शांत हो गई और इस तरह लाठी खाने के बाद भी सहज हो गया। यह जो चित्त की समता है, समभाव है, इसी का नाम साधना है। हर साधक को समझ लेना चाहिए कि कोई परिस्थिति सदा एक-सी नहीं रहेगी। दुनिया बदलती है, प्रकृति बदलती है, परिस्थितियाँ, वस्तु और यहाँ तक कि व्यक्ति भी बदलता है। विचार, वाणी, नज़रिया बदलता है। लोग बदलते हैं, उनका व्यवहार बदलता है। यहाँ सब कुछ बदलता है। This too will pass. जब वह बीत गया तो यह भी बीत जाएगा। दुनिया में कुछ भी शाश्वत नहीं है, न समाज, न इन्सान, न धर्म । यहाँ सब कुछ बदलता है। हर युग में धर्म ने अपनी नई करवट बदली है। हर युग में हर पंथ और परम्परा ने कई परिवर्तन देखे हैं। अभी पिछले पच्चीस वर्षों की ही बात की जाए तो हमने देखा है कि केवल युवा पीढ़ी ही नहीं, बुजुर्ग भी बदले हैं। बुजुर्ग ही नहीं, संत भी बदल गए हैं, धर्म-परम्पराएँ बदल गई हैं, पूजा-पद्धतियाँ बदल गई हैं। रहन-सहन के तौर-तरीके बदल गए हैं, एक दूसरे को अभिवादन करने का तरीका बदल गया, खान-पान बदल गया। कोई कितना ही पुरातनपंथी क्यों न हो फिर भी बहुत कुछ बदल गया क्योंकि अनुयायी बदल गए हैं। इसलिए गर्व और खेद न हो क्योंकि सब कुछ बदलता है। प्रकृति शब्द का अर्थ ही परिवर्तन होता है। हर पल जहाँ कुछ-न-कुछ बदलता रहे वही प्रकृति । ऋतुएँ बदल रही हैं, दिन रात में ढल रहे हैं और रात दिन में बदल रही है, मौसम बदलते हैं, पेड़ों के पत्ते-फूल बदल रहे हैं, कोयल की आवाज बदल रही है। सब कुछ बदल रहा है। आप कभी भी नदी के एक ही पानी में हाथ न डाल पायेंगे । बहुत सा पानी बहा चला जा रहा है। इसलिए साधक जब धैर्यपूर्वक साधना करता है तो वह अपनी आती-जाती श्वासों पर ध्यान देता है। इस परिवर्तनशीलता को समझने के लिए साँस बहुत बड़ा माध्यम है। एक साँस आई कि नई प्रकृति का उदय हुआ, एक साँस ढल गई कि पुरानी प्रकृति का विलय हुआ। आती-जाती साँस बदल रही है। साँस चलती है तो साँस के साथ शरीर में संवेदनाएँ भी बदल रही हैं। कभी १०६ For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूख लग रही है तो कभी निवृत्ति की शंका हो रही है। जो लोग खाने के प्रति आग्रहशील हैं वे सोचें क्या खाया हुआ शाश्वत रहा है ? हमें हमारे चित्त में जो परिवर्तन होते हैं उनके अहसासों से मुक्त होकर सहजता में जीना सीखना होगा। एक दफा मैंने अपनी माँ से पूछा - माँ, तुम्हें जिंदगी में कभी गुस्सा आया ? माँ हमेशा यही कहती - गुस्सा आता तो था पर इसलिए नहीं किया क्योंकि बड़े डाँट देते तो सहजता से इसलिए लेती कि बड़ों ने डाँटा तो उन्हें कहने का अधिकार है और छोटों पर गुस्सा इसलिए नहीं कर पाई कि सोचती बच्चे हैं, बच्चों से गलती नहीं होगी तो किससे होगी । बस दोनों ही परिस्थितियों को समझते ही चित्त सहज हो जाता। यह जो चित्त की सहजता है इसी का नाम सामायिक है, साधना, मुक्ति तथा मोक्ष है। अगर आपको लगता है कि कहीं स्थान विशेष में मोक्ष है कि व्यक्ति संसार से मुक्त हुआ और जाकर कहीं बस गया तो मैं यही कहँगा कि बसना ही तो है, इस संसार में बसे तो भी संसार है और उस संसार में बसे तो भी संसार है। फिर चाहे संसारियों का संसार हो या मुक्त जीवों का । संसार तो दोनों ही हैं। इस झंझट को छोड़ो, बस अगर हम इस संसार में हैं तो भी मुक्ति को जिएंगे और उस संसार में जाएँगे तो भी मुक्ति को जीएँगे। बस, आनन्द-दशा रहनी चाहिए। चित्त में प्रमोद भाव, प्रसन्नता रहनी चाहिए। तभी तो बुद्ध ने कहा - अपनी वीणा के तारों को न तो ज़्यादा ढीला छोड़ो न ज़्यादा कसो। अर्थात् अपनी जीवन की वीणा को साधो, अपने मन को साधो । मनड़ो मेरो लागो यार फकीरी में। जो सुख पायो रामभजन में सो सुख नाहीं अमीरी में। हाथ में लोटा बगल में सोटा, चारों दिशि जगीरी में। प्रेम नगर में रहनि हमारी, भलि बनि आई सबूरी में। आखिर यह तन खाक मिलेगा कहाँ फिरत मगरूरी में। कहत कबीर सुनो भई साधो साहब मिले सबूरी में। चित्त में सब्र, धैर्य, शांति, प्रसन्नता, प्रमोद - भाव धारण करो । फ़क़ीर बना नहीं जा सकता है कि घर छोड़कर निकल जाएँ, पर फ़क़ीर हुआ जा सकता है। फ़क़ीरी और संन्यास कोई वस्तु या बाना नहीं है कि जिसे सब लोग धारण १०७ For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने लग जाएँ। यह तो मानसिक अवस्था है जिसे हर व्यक्ति को धारण कर लेना चाहिए। इसीलिए जब पढ़ता कि वैदिक युग में संतों, ऋषियों, मुनिमहात्माओं के बच्चे थे तो चौंक पड़ता था कि उनके पत्नियाँ थीं तब भी उन्हें ऋषि, मुनि-महात्मा की संज्ञा दी गई। उस समय तो बड़ा आश्चर्य होता था लेकिन धीरे-धीरे इस बात की समझ आ गई कि संन्यास और ब्रह्म-ज्ञान का संबंध पति-पत्नी या बच्चों से नहीं है बल्कि इसका संबंध व्यक्ति के अन्तर्मन से है। मानसिक अवस्था का नाम संन्यास है। गांधीजी के पास एक संत पहुँचे और कहने लगे - महात्मन् ! मैं भी देशसेवा में लगना चाहता हूँ। आप भी देश-सेवा और आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहे हैं। मैं भी आपके समान ही कार्य करना चाहता हूँ। आप मेरा मार्गदर्शन करें । गांधीजी ने बहुत मजेदार बात कही – उन्होंने कहा - अगर आप देश सेवा करना चाहते हैं तो सबसे पहले आपको यह संन्यास का बाना उतारना होगा। संत महाराज चौंके कि गांधीजी यह क्या कह रहे हैं। फिर भी संत ने कहा - अगर मेरे पास यह बाना रहेगा तो लोग मुझे ज़्यादा चाहेंगे और मैं अधिक से अधिक देश-सेवा कर सकूँगा, लोगों से और अधिक सहायता करवा सकूँगा। यह तो सहायक बनेगा । तब गांधीजी ने कहा - आप पहले यह तय कर लीजिए कि आप देश की सेवा करना चाहते हैं या खुद की सेवा करवाना चाहते हैं। अगर आप संन्यास का बाना पहने रहेंगे तो दुनिया आपकी सेवा करेगी और यह बाना उतार देंगे तो आप देश और दुनिया की सेवा कर पाएंगे। मुझे नहीं पता कि उन्होंने संन्यास का बाना उतारा या नहीं, पर इतना अवश्य जानता हूँ कि हर संत और हर व्यक्ति को यह बोध रखना चाहिए कि संन्यास मानसिक अवस्था है, मानसिक वस्तु है। यह भीतर में घटित होना चाहिए । क्या फ़र्क पड़ेगा अगर तुमने कुछ छोड़ा या तुमने कुछ खा लिया। फ़र्क वहाँ है जहाँ तुम्हें उस वस्तु को खाने की ललक पैदा हुई या मन सहज रहा। 'मन लागो यार फकीरी में'- मन फ़क़ीरी में लग जाना चाहिए, मन मस्त हो जाना चाहिए। मन अगर यह समझ ले कि यहाँ सब परिवर्तनशील है तो उठा-पटक बंद हो जाती है। प्रशंसा और निंदा को सुनकर मन स्वतः ही समभाव में आ जाता है। संयोग और वियोग की अनुकूलता और प्रतिकूलता को १०८ For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देखकर चित्त में कहीं कोई हलचल नहीं होती। यह जो मन के सरोवर का शांत और निस्तरंग होना है इसे मैं समाधि कहता हूँ । इसे आत्म - दशा कहता हूँ, आत्मवान होना कहता हूँ । जहाँ बाहर की उठा-पटक चित्त को प्रभावित न कर सके उस अवस्था को मैं अनासक्त योग कहता हूँ । 1 गीता के कृष्ण ने इस अनासक्ति पर बहुत जोर दिया है । जितेन्द्रियों में भगवान महावीर ने इस पर अधिक ज़ोर दिया है कि तुम जीत जाओ क्योंकि परिस्थितियाँ बदलेंगी। महावीर ने दुनिया को देखा। कहा जाता है कि जब बुद्ध और महावीर पैदा हुए तो जन्म के साथ ही भविष्यवक्ताओं ने घोषणा कर दी थी कि ये राजकुमार बड़े होकर महान चक्रवर्ती सम्राट् बनेंगे या फिर तीर्थंकर और बुद्ध पुरुष बनेंगे। उनके पिताओं ने उन लोगों के लिए हर तरह की सांसारिक सुविधाएँ प्रदान कीं, लेकिन दुनिया में दिखने वाला दुःख उनसे अछूता न रह पाया और दुनिया के दुःख ने उन्हें पसीज दिया । वे करुणार्द्र हो गए। पैदा तो राजकुमार के रूप में हुए, लेकिन आगे जाकर वे करुणावतार बन गए । वे सोचने लगे कि दीन-दुःखियों के दुःख कैसे दूर किए जाएँ । दुखियों का दुःख वही दूर कर पाएगा जो उनके दुःख को समझेगा। अगर हम किसी को दुःखी देख रहे हैं तो यह न समझें कि वह दुःखी है, बल्कि खुद को वहाँ ले जाकर स्थापित कर दें, फिर देखें । तब पाएँगे कि वह दुःख उसका नहीं हमारा दुःख बन चुका है। तब आप वह सब कुछ करना चाहेंगे जो अपने दुःख को दूर करने के लिए कर सकते हैं । वह दूसरा न लगेगा। इसीलिए महावीर ने कहा कि अगर तुम दूसरे की हिंसा करते हो तो यह उसकी नहीं तुम्हारी हिंसा है। जब दूसरे को प्रेम करते हो तो वह दूसरों को नहीं स्वयं को प्रेम करना हुआ । I महावीर के शब्द हैं - जीव वहो अप्प वहो, जीवदया अप्पणो दया होई - जीव का वध अपना ही वध है और जीव की दया अपनी ही दया है। इसलिए दूसरों से द्वेष करोगे तो स्वयं से ही द्वेष करना कहलाएगा और दूसरों से प्रेमचर्या करोगे तो स्वयं से ही प्रेम करना कहलाएगा। इसीलिए महावीर ने कहा जो तुम अपने लिए चाहते हो वही दूसरों के लिए भी चाहो, जो तुम अपने लिए नहीं चाहते वह दूसरों के लिए भी मत चाहो । यही महावीर के धर्म का सार है, सिद्धान्तों का अनुशासन है । 1 - For Personal & Private Use Only १०९ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहते हैं राजकुमार बुद्ध रथ पर बैठकर राजमहल से निकले थे तब उन्होंने एक प्रसूतिग्रस्त महिला को देखा, उसकी पीड़ा को समझा और उन्हें एहसास हुआ कि जन्म एक दुःख है। वे थोड़े और आगे चले । उन्होंने देखा एक आदमी वमन कर रहा है, तो पता चला कि रोग भी एक दुःख है । उन्होंने किसी को लाठी के सहारे चलते देखकर पाया कि बुढ़ापा भी दुःख है । एक अर्थी को जाते हुए, उसके पीछे रोते हु लोगों को देखकर उन्हें अहसास हुआ कि मृत्यु भी दुःख है। महावीर ने भी इस दुःख को जाना और कहा संसार में सर्वत्र दुःख ही दुःख दिखाई दे रहा है। संसार का नाम ही दुःख में बहना है । जो दुःख में बहते हैं फिर भी सुख के मधुबूँद का स्वाद ढूँढते रहते हैं, यही संसार है । महावीर, दुःखों के बीच सुख का क्या राजद्वार हो सकता है उसे ढूँढ़ने की कोशिश करते हैं । महावीर के शब्द हैं जन्म दुःख है, बुढ़ापा दुःख है, रोग दुःख है, मृत्यु दुःख है। अहो ! संसार दुःख ही है जिसमें जीव क्लेश पा रहे हैं । महावीर कहते हैं - जीव जन्म-मरण और उनसे मिलने वाले दुःख को भी जानता है फिर भी जानते - बूझते हुए भी वह विषयों से विरक्त नहीं हो पाता । उस मधुबूँद का स्वाद फिर-फिर इन्सान को अपने करीब बुला लेता है। - बुद्ध का चचेरा भाई राजमहल में ही था। जब बुद्ध महल में आए तो वह उनके स्वागत के लिए खड़ा हुआ, उस समय उसकी पत्नी स्नान कर रही थी। जब वह नहाकर आई तो राजकुमार उसके बालों को सहला रहा था कि तभी बुद्ध आ गए। जब बुद्ध आए तो स्वागत के लिए जाना ही पड़ा । बुद्ध को महल में आहारचर्या करवाई गई। सम्मानवश चचेरा भाई उन्हें विदा करने के लिए साथ में चल पड़ा। जैसे ही वह निकलने लगा तो पत्नी ने कहा- तुम जा तो रहे हो, पर मेरे सिर के बाल सूखें इसके पहले लौटकर आ जाना । बुद्ध के साथ राजकुमार चला गया। जहाँ वे पहुँचे वहाँ बुद्ध ने वैराग्य भरी बातें कहीं, जिसे सुनकर कई लोग प्रभावित हुए, भिक्षु बन गए । बुद्ध ने अपने चचेरे भाई से भी पूछा । वह शरम के कारण इन्कार न कर सका । उसे भी भिक्षु बना दिया गया। वह भिक्षु तो बन गया लेकिन जब तक वह जिया अपनी पत्नी के इन शब्दों को न भूल पाया कि 'जब तक मेरे बाल सूखें इसके पहले तुम लौटकर आ जाना।' इसी का नाम माया है, मोह है, मूर्च्छा है । व्यक्ति नहीं भूल पाता, प्रेम ११० For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से कहे गये दो शब्दों को नहीं भूल पाता । पता नहीं चलता कि मोह-माया किस तरह के शब्दों से हमारा रास्ता रोक लेगी। यह जीवन का सच है । ज्ञानी इन दुःखों को समझते हैं, वे इसे दूसरे का नहीं अपना दुःख समझते हैं और इसे दूर करने का प्रयत्न करते हैं । दुःख को समझ लेने के कारण ही वे संसार में नहीं रहते, चार कदम बाहर निकलकर संन्यासी बन जाते हैं । कितनी बड़ी बात है कि एक राजकुमार संन्यासी बन गया । भोगी थे मगर योगी हो गए। उत्तर हर तरह का था लेकिन वे खुद अनुत्तर बन गए। समाधान पाना है तो समस्याओं से जूझना तो होगा। नदी का संगीत सुनना है तो नदी में गिरे हुए पत्थरों का सामना करना होगा। माया को, मकड़जालों को काटना होगा । अपनी-अपनी लेश्याओं को भी समझना होगा । हर व्यक्ति बाहर के संसार में कम, भीतर के मकड़जाल में अधिक उलझा हुआ है। जब व्यक्ति दूसरे के दुःख को अपना समझ लेता है तभी असली दया, असली करुणा और असली अहिंसा का जन्म होता है। तब स्वतः आत्मिक तौर पर आध्यात्मिक सहानुभूति पैदा होती है, अंतरंगीय सहानुभूति उत्पन्न होती है । 1 अभी-अभी मैंने सुना कि एक लड़का रास्ते पर खड़ा था और वहाँ से निकलने वाली हर कार को हाथ हिला-हिलाकर, आवाज़ें लगा-लगाकर रोकने की कोशिश कर रहा था । पर कोई भी कार रोक ही नहीं रहा था । आखिर उससे रहा न गया, उसने पत्थर उठाया और अगली आने वाली कार के काँच पर मार दिया । काँच फूट गया । कार चलाने वाला गुस्से से भर गया । उसने गाड़ी रोकी, वह जल्दी में था, अपने बच्चे को लेने जा रहा था और यहाँ उसकी कार के शीशे को तोड़ दिया गया । वह नीचे उतरा, उस बच्चे को पकड़ा और जोरदार पिटाई कर दी। चिल्लाया - बद्तमीज, तूने मेरी नई कार का शीशा फोड़ दिया । लड़के ने रोते हुए कहा सर, आप मुझे भले ही और मार लें, मेरा इरादा आपकी कार को नुकसान पहुँचाने का नहीं था, मैं तो बस आपकी कार रोकना चाहता था । उसने पूछा - किसलिए रोकना था । बच्चे ने बताया कि सड़क की दूसरी ओर एक घायल लड़का पड़ा है 1 अगर उसे मदद न मिली तो वह मर जाएगा। मैंने कई कार वालों को रोकने की कोशिश की पर कोई रुका ही नहीं। मेरे पास कार को रोकने के लिए इसके For Personal & Private Use Only १११ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | अलावा अन्य कोई विकल्प न बचा था। सर आप मुझे मार लें पर कृपा कर उस बच्चे को अस्पताल पहुँचा दें। उस आदमी को गुस्सा आया हुआ था, वह कार बैठा और जैसे ही दरवाजा बंद करने लगा कि उस लड़के ने अपना हाथ फँसा दिया। उसका हाथ लहुलूहान हो गया । वह दरवाजा बंद न कर पाया, मज़बूर होकर वह बाहर निकला । उस लड़के ने कार मालिक के पैरों में गिरकर कहा सर, मैं नहीं जानता कि वह लड़का कौन है, मेरा उससे कोई स्वार्थ भी नहीं है, वह मर जाएगा, आप मदद कर दीजिए। कार मालिक को तभी उस लड़के के आह की, कराह की आवाज़ सुनाई दी। वह चौंका, क्योंकि यह आवाज तो उसके अपने बेटे के जैसी लगी। वह दौड़कर उसके पास पहुँचा । वहाँ देखा वह तो उसका अपना ही लड़का था। तुरंत कार में डाला गया, अस्पताल लेकर गए । वहाँ ख़ून की ज़रूरत आ पड़ी । पिता का ब्लड ग्रुप बच्चे से न मिल सका तब उस लड़के ने अपना खून देने की पेशकश की कि वह तो नहीं जानता कि यह लड़का कौन है पर अगर उसका ख़ून काम आ सके तो वह देने को तैयार है । उसके ख़ून की जाँच हुई, ग्रुप मिल गया। अब उस लड़के का खून घायल लड़के को चढ़ाया गया। इधर का खून उधर जा रहा था। तभी कार मालिक ने सोचा कि आज मैंने नई कार खरीदी थी, उसी खुशी में लड़के को लेने जा रहा था कि सबसे पहले अपने बेटे को चढ़ाएगा पर अब वह निर्णय नहीं कर पा रहा था कि जब वह यहाँ से निकले तो अपनी कार में किसे पहले बिठाए अपने बेटे को या बेटे की जान बचाने वाले लड़के को । - जो दूसरे की पीड़ा को अपनी पीड़ा समझ लेते हैं वही सच्चे अहिंसक होते हैं। सच्ची दया, सच्ची करुणा उन्हीं में पैदा होती है। इसी करुणा से प्रेरित होकर महावीर जैसे महापुरुषों ने मानवता के कल्याण के लिए, समाज को अपने ज्ञान की रोशनी बाँटी । वरना उन्हें क्या ज़रूरत थी, जिसने अखंड साढ़े बारह वर्षों तक मौन रखा, जंगलों में रहे, फिर समाज में आकर, इन्सानों के बीच आकर अपना ज्ञान बाँटने की । यह उनकी महाकरुणा थी कि उन्होंने ज्ञान की रोशनी बाँटी। हम सभी उन महापुरुषों की करुणा के कृतज्ञ हैं कि जिस ज्ञान को पाने के लिए उन्होंने इतनी साधना की, उस साधना से प्राप्त ज्ञान उन्होंने हमें भी दिया । हमें तो वह ज्ञान मुफ़्त में ही मिल गया । जो ज्ञान उन्होंने पाया, उसके लिए कठोर तपस्या की, पर हमें तो बिना साधना के ही केवल उनकी शरणागति ११२ For Personal & Private Use Only - Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेने मात्र से उस ज्ञान का फल मिलने लग गया। यह उनकी महान करुणा और हमारे लिए महान उपकार है । यह हमारे प्रबल पुण्योदय हैं कि उनके ज्ञान का प्रकाश हमें मिल गया । पुण्य का उदय तो हो गया कि महापुरुषों की वाणी सुनने को मिल रही है। अब आवश्यकता एक और पुण्योदय की है कि सुनने के बाद इस पराक्रम और पुरुषार्थ को जगाएँ कि जिस ज्ञान को उन्होंने पाया हम उसे जी सकें । हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ज्ञान देने की नहीं, जीने की चीज़ है। मैं अपना ज्ञान जीता हूँ इसलिए बोल रहा हूँ। जो ज्ञान केवल बोला जाता है और जीवन में नहीं जिया जाता वह ज्ञान न होकर भाषणबाजी होती है । राजनीतिज्ञों जैसी भाषणबाजी, जिनमें कोई दम नहीं होता । माना कि संसार में दुःख है और कुछ लोग इस दुःख को बढ़ावा भी दे रहे हैं - कोई आतंकवाद फैलाकर, कोई उग्रवाद फैलाकर, कोई बलात्कार करके, कोई अपराध करके । वहीं दूसरी ओर कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इस दुःख को कम करने में लगे हैं - कोई संत बनकर, कोई सत्संग करके, कोई शिविरों का आयोजन करके, कोई सम्बोधि - साधना के जरिए, कोई विपश्यना के जरिए, कोई आर्ट ऑफ लिविंग के जरिए तो कोई वे ऑफ गुड लाइफ के जरिए, तो कोई राजयोग के जरिए तो कोई प्रेक्षा के जरिए। इस तरह कुछ लोग दुनिया के दुःख को दूर करने में लगे हुए हैं तो कुछ लोग दुःखों को बढ़ाने में लगे हैं । यह तो हम खुद ही सोच सकते हैं कि दुनिया में किस तरह के लोग चाहिए - शांति को बढ़ावा देने वाले या अशांति का विस्तार करने वाले ? पृथ्वी को उर्वरा करने वाले लोग ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं या उजाड़ने वाले लोग ज़्यादा महत्वपूर्ण है? ओसामा बिन लादेन ने जितना परिश्रम आतंक और उग्रवाद को बढ़ावा देने में किया उतना परिश्रम अगर अहिंसा और शांति के लिए करता तो आज तस्वीर दूसरी होती । वह भी किसी नोबल पुरस्कार का हकदार हो जाता । शायद उसे भी गांधी और गोर्बाच्योव की तरह याद किया जाता। अगर उसकी ऊर्जा रचनात्मक बन जाती तो वह आतंकवाद का नहीं अहिंसा का पर्याय बन जाता । जिन देशों के माध्यम से आतंकवाद की पाठशालाएँ चल रही हैं अगर वे अहिंसा की पाठशालाएँ चलाते तो दुनिया से दुःख दूर हो जाता । और वे देश जो अस्त्र-शस्त्र और हथियारों पर, परमाणु बमों पर जितना खर्चा कर रहे हैं उसका आधा खर्च भी For Personal & Private Use Only ११३ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्सानियत के निर्माण के लिए लग जाए तो दुनिया चमन हो जाए, दुनिया का नक्शा बदल जाए । लेकिन हम तो केवल प्रार्थना कर सकते हैं। महावीर जानते थे आतंकवाद की पाठशालाएँ चलेंगी, उग्रवाद के मदरसे चलेंगे, तभी उन्होंने अहिंसा की उद्घोषणा की। आतंक के मदरसों को अहिंसा और शांति के मदरसे बनाने की पहल होनी चाहिए । इन्सानियत की पूजा और इबादत हो। केवल नमाज अदा करने से या पूजा-प्रार्थना करने से न तो खुदा और न ही ईश्वर प्रसन्न होंगे। ईश्वर और खुदा का रहम तो इन्सानियत की इबादत से, उसे खुश करने से ही होगा। मंदिर और मस्जिद या धर्म स्थानों में बैठकर ही पूजा-प्रार्थना मत करो बल्कि इनसे बाहर निकलकर जो रो रहा है उसे उठाओ, उसके आँसू पोंछो । हम सब ईश्वर की रचनाएँ हैं, एक रचना दूसरी रचना के करीब आए, हम सब एक दूसरे के करीब आएँ, इसी शुभ भावना के साथ आज इतना ही - नमस्कार। For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभ भाव शुभ लाभ शुभखर्च विश्व के कुछ ज्ञानियों का मत है कि शरीर में वात, पित्त और कफ के असंतुलन से व्यक्ति को दुःख और पीड़ा का सामना करना पड़ता है। कुछ ज्ञानी मानते हैं कि जन्म-कुंडली के ग्रह-गोचरों में अनुकूलता या प्रतिकूलता के आने पर व्यक्ति को जीवन में उतार-चढ़ाव का सामना करना पड़ता है लेकिन आत्म-ज्ञानियों का अभिमत है कि व्यक्ति अपने जीवन में जैसे कर्म करता है उसके ही प्रतिफलों का सामना जीवन में करना होता है। कर्म व्यक्ति के अपने-अपने होते हैं। हाँ, अगर हम ग्रह-गोचरों में विश्वास रखते हैं तो उनका प्रभाव हम पर नहीं, ग्रह-गोचरों पर ही पड़ना चाहिए। लेकिन जब निजी तौर पर हमें प्रतिफलों का सामना करना होता है तो इसका अर्थ यही है कि हमारे कर्म ही समस्त सुख और दुःख के उत्तरदायी हैं। कर्मों का अनुबंध करते हुए तो व्यक्ति को कोई बोध नहीं रहता लेकिन जब कर्मों का प्रतिफल मिलता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। प्रतिफलों के समय एहसास होता है कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं ! यह कितनी विचित्र बात है कि समुद्र-मंथन के समय ज़हर भी निकला था और लक्ष्मी भी निकली थी। विष्णु के हाथ में लक्ष्मी आई तो शंकर को विष मिला । तो क्या यह किसी वात, कफ, पित्त का अथवा ग्रह-गोचर का प्रभाव है कि एक को ११५ For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्ष्मी और दूसरे को ज़हर मिल रहा है । यह तो उनके कर्मों का भुगतान है जिसके कारण एक को अनुकूलताएँ और दूसरे को प्रतिकूलताएँ मिलती हैं। तभी तो एक ही माँ की कोख से जन्मे पाँच बेटों के भाग्य, विचार, जीवन-शैली और जीवन के परिणाम अलग-अलग होते हैं। आखिर कोई-न-कोई तो ऐसा कर्म है जिसके कारण विष्णु भगवान को बैकुंठ धाम में निवास करने के बावजूद दस-दस अवतार लेने पड़े। इतना ही नहीं, अवतार तो लिया ही, दुनिया के दुःखों का सामना भी करना पड़ा। क्या यह किसी भगवान का कर्म नहीं कहलाएगा कि किसी अवतार में उन्हें अपनी पत्नी सीता के लिए दर-दर भटकना पड़ता है तो दूसरे किसी जन्म में गोपियों से घिरे रहकर जीवन का आनन्द लेना पड़ता है। अलग-अलग रूप में अवतार लेकर अलग-अलग संकटों का सामना करना पड़े तो यह निश्चित ही अवतारों के, इन्सानों के, प्राणी मात्र के कर्मों का फल ही कहलाएगा । यहाँ तक कि त्रिकालदर्शी होने के बाद भी राम मायावी मृग को न पहचान पाए, स्वयं महालक्ष्मी का अवतार होते हुए भी सीता को रावण के चंगुल में जाकर फँसना पड़ा - ये कर्म ही हैं, जिसके चलते महादेव को हाथ में खोपड़ी लेकर भिक्षा माँगने को मज़बूर होना पड़ा। जब कर्मों के फल भुगतने पड़ते हैं तब इन्सान यही कहता है कि उसने ऐसा कोई कर्म नहीं किया जिसका फल अस्पतालों में भोगना पड़ रहा है। यूँ तो हम प्रत्यक्ष वध नहीं करते हैं पर कड़वे वचन तो कह ही देते हैं, किसी का दिल दुखा ही देते हैं। हमें लगता है कि हमने कई तरह के पाप कर्म नहीं किए लेकिन पाप करने का पता नहीं चलता । कभी पाप काया के द्वारा, कभी वाणी से, तो कभी मन से पाप हो जाते हैं। अगर किसी के प्रति मन में भी बुरा सोचा तो पाप का अनुबंध हो जाएगा। और अगर मन में ही किसी के प्रति शुभ भावनाएँ की, कल्याण की कामना की, मंगल-मैत्री भाव रखा तो ऐसा करना भी पुण्योपार्जन का सबब बन जाएगा। महावीर का प्रसिद्ध वचन है कि जिस समय व्यक्ति जैसे भाव करता है उस समय वह वैसे ही शुभ या अशुभ कर्मों का बंध करता है। भावनाएँ व्यक्ति के कर्मों का आधार बनती हैं, क्रिया से भी ज़्यादा महत्त्वपूर्ण हमारे मन की भावनाएँ हैं। शुभ भाव - पुण्य हैं, अशुभ भाव - पाप हैं। व्यक्ति शादी तो एक ही से करता है पर मन में कई दफा कइयों से प्रेम कर लेता है। ११६ For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहता तो एक ही मकान में है लेकिन मन में कइयों की जमीन हड़पने की कोशिश कर लेता है। मन के भाव ही पाप या पुण्य हैं। शुभ-भाव होने पर विचार भी शुभ होंगे, विचारों के शुभ होने पर वाणी भी मंगलमय और शुभ होगी, वाणी के मंगलमय और शुभ होने पर व्यवहार भी शुभ और प्रीतिकर होगा, व्यवहार शुभ और प्रीतिकर होने से हमारा जीवन, हमारा आचरण, चरित्र संबंधी सभी चीजें शुभ और मंगलमय होंगी । जीवन को शुभ करने के लिए सोच और भावनाओं को शुभ करना ज़रूरी है। कहते हैं - जंगल से एक व्यक्ति जा रहा था, भूख लगी। उसने देखा पेड़ पर फल और फूल तो हैं नहीं, सोचा पत्ते खाकर ही पेट भर लिया जाए। पत्ते तोड़े और खाए तो जाना कि पत्ते कड़वे हैं, उसने तुरंत थूक दिया और सोचा चूँकि पत्ते कड़वे हैं इसलिए सारे पत्तों को काट दिया जाए और पत्ते काट डाले। तब सोचा डाली तो मीठी होगी उसे ही चूस लें, पर डाल भी कड़वी निकली। अब तो उसने सारी डालियाँ, टहनियाँ भी काट दी और तने को चूसकर भूख शांत करनी चाही पर तना भी कड़वा ही निकला। वह समझ न पाया कि यह कसैलापन कहाँ से आ रहा है। मैं भी उसी रास्ते से जा रहा था, वह राहगीर मुझे मिला, उसने मुझे बताया कि उसने पत्ते भी तोड़े, डालियाँ, तना सभी तोड़े पर सबके सब ही कड़वे निकले । वह मुझसे इस कड़वेपन का राज जानना चाहता था। मैंने कहा - क्या तुम मुझे वह वृक्ष बताओगे? वह मुझे उस वृक्ष के पास ले गया और पत्ते, डाल व तना दिखाया। मैंने कहा - तुमने बाहर की कड़वाहट को तो समझा लेकिन ध्यान रहे जीवन में कोई भी कड़वाहट बाहर बाद में, जड़ों में पहले आती है। क्योंकि बीज ही कड़वा था इसलिए इसकी जड़ें ही कड़वी हो गईं फलस्वरूप तना, डालियाँ, पत्ते सभी कुछ कड़वे निकले। हम भी अगर अपनी भावनाओं में कड़वे बीज बोएँगे तो विचार, वाणी, व्यवहार सब कुछ कड़वे होते जाएँगे। वहीं भावों को शुभ रखने पर हमारा आभामंडल भी निर्मल और प्रभावशाली होगा, हमारे वाणी-व्यवहार भी प्रभावशाली होंगे। इसलिए ज़रूरी है कि हम अपनी भाव-दशाओं को सदा बेहतर रखें। मेरा मत है कि एक बहू और एक सास एक-दूसरे के प्रति शुभ-भाव रखती हैं तो यही पुण्य है। केवल दान देना, धर्मशाला बनवाना, कुएँ खुदवाना For Personal & Private Use Only ११७ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और मंदिर बनाना ही पुण्य नहीं हैं क्योंकि रोज-रोज तो ये कार्य होते नहीं हैं। रोज-रोज तो इस तरह धन खर्च नहीं किया जा सकता लेकिन भावों को ही शुभ रख लेना हमारे जीवन का महान पुण्य है । मन में दूसरों के लिए दुर्भावनाएँ रखना ही पाप है। अगर भाई-भाई साथ रहते हों तो यह पुण्य है और अगर वे एकदूसरे के प्रति गलत भाव, वैर-वैमनस्य, ईर्ष्या रखते हैं तो साथ में रहना भी पाप है। यदि हम महावीर के शब्दों पर गौर करें तो जानेंगे कि सास-बहू का, भाई-भाई का एक-दूसरे के प्रति शुभ, अच्छे भाव होना यह जीवन का पुण्य ही कहलाएगा। एक बहिन ने मुझसे कहा कि उसके सास-ससुर उसके लिए देवता के समान आदरणीय हैं। आप तो माता-पिता का सम्मान करने के लिए कहते हैं, पर हमारे घर में तो सास-ससुर ही माता-पिता के समान हैं। वे हम बच्चों का पूरा मान और सम्मान करते हैं। वे हमारे लिए देवता की तरह आदरणीय हैं । मैंने कहा - बहिन, वह क्या कारण है जिससे आप अपने सास-ससुर को देवता के समान सम्माननीय कह रही हैं। उसने बताया - रहते तो वे अपने बड़े बेटे के यहाँ हैं। दस महीने उनके पास रहते हैं और दो महीने हमारे यहाँ रहते हैं। मैंने कहा - इसीलिए आप उन्हें आदरणीय कह रही हैं, क्योंकि आपके पास तो दो महीने ही रहते हैं । बहिन ने कहा - प्रभुवर, ऐसी बात नहीं है, बड़े बेटे के पास जहाँ रहते हैं वहीं पास में मंदिर है, स्थानक है, गुरुजनों का निवास रहता है तो उन्हें पूरा धर्म-लाभ मिल सके इसलिए वहाँ रहते हैं। हम लोग तो छोटे नगर में रहते हैं वहाँ हमारे घर के पास न मंदिर की व्यवस्था है, न स्थानक उपाश्रय है कि वहाँ जाकर वे अपनी धर्म-आराधना कर सकें। लेकिन जब वे दो महीने के लिए हमारे यहाँ आते हैं तो हम सब लोग साथ रहते हैं। उनके आने के दिन से ही हमें कुलदेवता के आगमन का अहसास हो जाता है। और वे घर में मेहमान की तरह नहीं आते । सासू जी आते ही रसोई सँभाल लेती हैं और कहती हैं - अब हम आ गए हैं दो महीने तक तुम्हें रसोईघर में आने की जरूरत नहीं है। अब तुम आराम करो । मैं कहती हूँ - मम्मीजी आप यह कैसी बात कर रही हैं, मैं बहू हूँ और बहू के होते हुए सास खाना बनाए यह तो शोभनीय नहीं है । तब वे कहती हैं - बेटा, दस महीने तुम मेरे बेटे को सँभालती हो, कम से कम दो महीने तो मैं भी सँभाल लूँ। और अपने हाथों से तुम दोनों को गरम-गरम खाना खिला दूँ। ११८ For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और मेरे ससुरजी जिस दिन आते हैं उस दिन से अपने पोते-पोती की सार-सँभाल में जुट जाते हैं और हमें निर्देश मिल जाता है कि उन दोनों को खिलाना, स्कूल पहुँचाना, घर में किराने का सामान, साग-सब्जी लाना उनकी जिम्मेदारी है। दस महीने तक हम ऑफिस और घर दोनों सँभालते रहे इसलिए वे कहते हैं - हम तो फ्री हैं, रिटायर्ड हैं, मंदिर, महाराज हैं नहीं यहाँ । इसलिए पोते-पोती के लाड़-दुलार में ही अपना समय बिताएँगे। बताइए महाराजजी, हमारे सास-ससुर देवी-देवता के समान हैं या नहीं। यह केवल इसलिए है कि व्यक्ति के भाव इतने अच्छे हैं कि वाणी और व्यवहार भी अच्छे हो ही जाएँगे। मन के भाव अगर दूषित होंगे तो कौन सासबहू एक-दूसरे से पानी माँगेंगे और कौन पानी लाकर देगा। सास माँगेगी तो बहू लाकर देगी यह पूरे देश की संस्कृति की व्यवस्था है लेकिन जहाँ बहू को बेटी ही समझा जाता है वहाँ सास कहती है - बेटा तू बैठ, पानी मैं लाकर देती हूँ। तुमने तो दिन भर काम किया हुआ है, बैठ जा बेटा, तेरे बच्चे को खाना मैं खिला देती हूँ। यह शुभ-भाव धारा ही धर्म है। मैं धर्म को बहुत सीधा और सरल समझता हूँ। क्योंकि इसके स्वरूप को अगर अख्तियार कर लिया जाए तो यह घरपरिवार को, व्यक्ति के जीवन को स्वर्ग बनाता है। मन अगर तनावमुक्त है, बेहतर, शानदार, शांत और आनन्दपूर्ण बन चुका है तो उस स्वर्ग की ख़्वाहिश किसे होगी जो मरने के बाद मिलता है। उनका स्वर्ग तो यहीं धरती पर होगा। हम ध्यान करते हुए यही भावना करते हैं कि - हम अपने देह-पिंड को पवित्र कर रहे हैं, मन को पवित्र कर रहे हैं, देह पिंड के विकारों को, मनोविकारों को शांतिमय बना रहे हैं। वर्तमान को जिसने स्वर्ग जाना, वर्तमान क्षण को जिसने स्वर्ग बनाया उसका भविष्य भी स्वर्गमय हुआ करता है। जब हम एक-दूसरे के प्रति शुभ-भाव रखते हैं तो कर्मों के अनुबंध भी वैसे ही होंगे । हमें भविष्य में वही मिलेगा जैसे आज हम बीज बोएँगे। ___ कहते हैं - एक बूढ़ी माताजी को तहखाने में छोड़ दिया गया। वहीं एक मिट्टी की थाली रख दी गई, उसी में उन्हें भोजन दे दिया जाता था। एक दिन For Personal & Private Use Only ११९ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोता गेंद से खेल रहा था कि गेंद उछलकर मिट्टी की थाली में लगी और थाली टूट गई । दादी माँ रोने लगी कि एक ही तो थाली थी उसमें जैसे-तैसे वह भोजन कर लेती थी। अब दूसरे दिन से वह भोजन किसमें करेगी। पोते ने पूछा – दादी माँ, क्या आप इसमें खाना खाती हैं ? दादी ने कहा - हाँ बेटा, मेरे भाग्य ही ऐसे हैं कि मुझे इसमें खाना खाना पड़ता है। दाँत भी टूट गए हैं पर सूखी रोटी के टुकड़े खाने पड़ते हैं। पोते ने कहा - दादी माँ, आज तक तुमने जो खाया सो खा लिया, पर कल से तुम्हें इस मिट्टी की थाली में खाना नहीं खाने दूंगा। दादी ने पूछा - तो क्या हाथों से खिलाओगे ? नहीं, दादी माँ ! कल देखो क्या होता है - पोते ने कहा। उसने झटपट वे मिट्टी के टुकड़े इकट्ठे किए, कपड़े में लपेटे और अपनी माँ के पास जाकर कहा - मम्मी, जरा अलमारी की चाबी देना । माँ ने बेटे को चाबी पकड़ा दी। बच्चे ने अलमारी खोली और मम्मी जहाँ अपने गहने रखती थी उस लॉकर में उस गठड़ी को रख दिया। साँझ को मम्मी को किसी किटी पार्टी में जाना था, और जब गहने निकालने के लिए लॉकर खोला तो उसमें कपड़े की गठड़ी मिली। उसे देखकर सोचा कि जरा देखू तो इसमें क्या है। गठड़ी खोली तो उसमें मिट्टी की थाली के टुकड़े मिले । पति से पूछा – ये किसने रखे। पति ने कहा - उसे नहीं पता। बेटे से पूछा - यह करामात किसने की है ? बेटे ने कहा - माँ ! यह गठड़ी मैंने ही रखी है। माँ तो बौखला गई। उसने सटाक् से बेटे के गाल पर चाँटा जड़ दिया कि बेवकूफ यह तूने यहाँ लाकर रख दी। बच्चे ने कहा - मम्मी, इतना बुरा क्यों मानती हो । तुम भी तो एक-न-एक दिन बूढ़ी होओगी और तब इन्हें चिपकाकर तुम्हें इसमें खाना खिलाऊँगा। माँ ने कहा - क्या कहना चाहते हो तुम? बेटे ने कहा - माँ मैं कुछ नहीं कहना चाहता, मैं तो बस इतना ही बताना चाहता हूँ कि कुदरत वही लौटाती है जो तुम बीज बोते हो। अरे भाई! जब वही लौटकर आने वाला है तो क्यों न ऐसे शुभ-भावना के बीज बोएँ कि परिणाम भी शुभ ही आए। जब भी मन में कुछ गलत पनपने लगे तो अपने आप से कहें - नहीं, ऐसा सोचना मेरे लिए पाप है, मुझे अपने मन की धाराओं को बदल लेना चाहिए। हम लोग जब ध्यान करते हैं तब अपने आप १२० For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 से रू-ब-रू होते हैं । न कोई आरोपण करते हैं, न ही कहीं जाते हैं और मन कहीं चला भी जाए तो उसे वापस लाने का प्रयत्न करते हैं। भगवान कहाँ हैं ऊपरवाला जाने, देवता कहाँ हैं - स्वर्गवाले जानें, यमराज कहाँ है - पाताललोक वाले जानें, हम कहाँ हैं यह हम जानते हैं। इसलिए जब ध्यान करते हैं तो कहीं और नहीं जाते, किसी और में नहीं जाते, कुछ और नहीं होते । जो वह है, अपने आपसे रू-ब-रू होता है। ध्यान अर्थात् Self-inquiqry. अपने आप में बैठकर अपने आपको जानना, अपने आपको समझना है । इसलिए ध्यान में प्रज्ञा जागे प्रत्येक क्षण, विद्या जागे प्रत्येक क्षण, ज्ञान जागे प्रत्येक क्षण, बोधि जागे प्रत्येक क्षण। प्रत्येक साँस और प्रत्येक क्षण के साथ हम रू-ब-रू हो रहे हैं । हमारे भीतर जो भी उदय और विलय, उत्पाद और व्यय, हमारे भीतर कभी सुखद और कभी दुःखद, कभी प्रेम और कभी द्वेष, कभी सम्मान, कभी ईर्ष्या जो भी उदय होता है हम उसके साक्षी होते हैं और भीतर ही भीतर विश्रामपूर्ण, पूर्णतः आरामयुक्त स्थिति में ले आते हैं। देह को भी पूर्ण विश्राम और चित्त में भी पूर्ण विश्राम - यह चित्त की शांत स्थिति, हृदय की शांत स्थिति का नाम ही ध्यान है । ‘मनड़ो लागो यार फकीरी में' - कि मन अपने आप में लग गया, खुद से रू-ब-रू हो गया। अगर मंदिर-मस्जिद में भगवान होते तो वहाँ चोरियाँ क्यों होतीं ? भगवान मंदिर में नहीं हुआ करते, हम वहाँ तो अपनी श्रद्धा व्यक्त करने के लिए जाते हैं । भगवान की पहली किरण तो हमारे अपने ही भीतर है । आत्मा हममें ही विद्यमान है, वह कब प्रकट होगी उसकी अपनी इच्छा पर निर्भर है । पर हम ध्यान करके अपने इस देहपिंड को और अपने छ:- सात इंच के दिमाग को जिसमें चित्त की, मन की, संस्कारों की, शुभ-अशुभ भावों की खटपट चलती रहती है - शांत और मौनपूर्वक उससे रू-ब-रू होते हैं। माना कि जैसे प्रत्येक तत्त्व की प्रकृति होती है वैसे ही शरीर की भी अपनी प्रकृति है, हवाओं की भी प्रकृति है और तेज हवाओं से बचने के लिए किसी ओट का सहारा ले सकते हैं । हमारी देह का गुणधर्म है आहार, निद्रा, भय और मैथुन । इसलिए कोई रोटी खा रहा है तो न वह शुभ कर रहा है न ही अशुभ, वह प्रकृति के अनुरूप हो रहा है। नींद ले रहा है अर्थात् प्रकृति प्रकृति में आ गई। कोई मैथुन कर रहा है मतलब प्रकृति प्रकृति में प्रभावी हो गई। दो ही तत्त्व हैं - पुरुष और प्रकृति । १२१ - For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुष अगर प्रभावी हो जाए तो व्यक्ति अध्यात्म को उपलब्ध कर लेता है और प्रकृति प्रभावी हो जाए तो व्यक्ति देहपिंड से हार जाता है। इसलिए जब ध्यान करते हैं तो अपने आपको जीतते हैं, अपने देह-पिंड को जीतने का प्रयत्न करते हैं, देह पिंड को जीतने का अभ्यास करते हैं। पौन घंटा जो ध्यान में बैठे हैं इसमें अपने पिंड को, मन को, विकारों को, अज्ञान को, कषायों को, उत्तेजनाओं को, वैर-विरोध की भावनाओं को - इसकी ग्रंथियों को, इन्द्रियों के गुणधर्मों को जीतने का अभ्यास करते हैं। यह अभ्यास है, इसका अर्थ यह नहीं है कि जीत ही गए। ध्यान में अभ्यास किया, अब व्यवहारिक जीवन में जब निमित्त मिलेंगे तब पता चलेगा कि हम जीत पाए या नहीं जीत पाए। आनन्द-आसन करते हुए देह को विश्राम दे रहे थे, अब विश्राम मिला या नहीं मिला यह तो खड़े होने के बाद ही पता चलेगा कि तनाव है या तनाव मिट चुका है। बच्चा स्कूल जाता है तो ऐसा नहीं कि स्कूल जाते ही एम.ए. पास हो गया। वह स्कूल जा रहा है, कोशिश कर रहा है, अभ्यास कर रहा है, धीरेधीरे आगे बढ़ रहा है, अभ्यास करते-करते परीक्षा में पास भी हो जाएगा ऐसी उम्मीद करते हैं। पास हो ही जाएगा इसकी कोई गारण्टी तो है नहीं। हम ध्यान करते हुए अपने क्रोध को शांत करने का प्रयास कर रहे हैं, समझ रहे हैं कि क्रोध बुरा है, क्रोध के दुष्परिणाम भी जानते हैं और समझते हैं कि अब क्रोध नहीं करेंगे। पर इसका अर्थ यह तो नहीं है कि क्रोध करेंगे ही नहीं। समझ रहे हैं, धीरे-धीरे कोशिश कर रहे हैं. चित्त में समता घटित करने का प्रयत्न कर रहे हैं, अभ्यास कर रहे हैं। अब कोई संत बन गया, संन्यास ले लिया तो कोई खुदा या भगवान तो नहीं बन गया। है तो वह भी इन्सान ही। संत बन गया तो अब वह स्वयं को शांत करने का अभ्यास कर रहा है। संत में और सामान्यजन में अधिक फ़र्क नहीं है। दो-चार कदम आगे-पीछे का फ़र्क होगा। आप अभी अभ्यास करना शुरू कर रहे होंगे। वह अभ्यास कर रहा होगा। जिस दिन उसका अभ्यास पूरा हो जाएगा वह पास हो ही जाएगा। उस दिन केवल बोधि, केवलज्ञान, निर्वाण शांतम् की स्थिति उसे उपलब्ध हो जाएगी। हम सब इसीलिए अभ्यास कर रहे हैं, प्रयत्न कर रहे हैं। और प्रयास ज़रूर रंग लाते हैं। मन की भाव-धाराएँ शुभ हों, हृदय की भाव-धाराएँ शुभ हों। शुभ १२२ For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभ सोचोगे तो शुभ-शुभ बोलोगे। शुभ-शुभ बोलोगे तो शुभ-शुभ करोगे। शुभ लाभ होगा तो शुभ खर्च भी होगा। लाभ ही अगर खोटा है तो फिर शुभ खर्च कहाँ से हो जाएगा। इसलिए इधर भी शुभ, उधर भी शुभ । खर्चा भी शुभ करो, लाभ भी शुभ करो। येन-केन-प्रकारेण पैसा तो इकट्ठा हो जाएगा। सुख-सुविधाएँ, ऐशो-आराम के साधन भी हाज़िर हो जायेंगे लेकिन कर्मों का ऐसा उदय आता है कि छप्पन भोग भी सामने हों, पर डॉक्टर ने कह दिया कि जौ का रस पीने को मिलेगा। इसके अतिरिक्त और कुछ पी लिया तो तबियत बिगड़ जाएगी। सबसे महंगी कार दरवाजे पर खड़ी हो, लेकिन जाएँ कैसे ? शरीर को लकवा हो गया है। खरा-खोटा करके पैसा तो इकट्ठा किया जा सकता है, पर उपभोग भी हो सके इसके लिए शुभ कर्म चाहिए । इन्होंने शुभ लाभ नहीं किया, शुभ खर्च नहीं किया। केवल लाभ ही लाभ किया, खर्च ही खर्च किया - उसके साथ शुभ नहीं जोड़ा । अब बताइये इन रईसों में और झोपड़ियों में रहने वालों में क्या फ़र्क हुआ? वे भी जौ की रोटी खा रहे हैं। ये भी उसी का रस पी रहे हैं। झोपड़ी में रहने वाला फिर भी सब्जी में तेल, मिर्च-मसाला डालता होगा पर बँगलों में रहने वालों का मिर्च-मसाला छूट गया, तेल-घी पर पाबन्दी लग गई। चौबीस घंटे में एक चम्मच तेल-घी, दूध भी मलाई उतारकर, अब बताएँ लाभ के नाम पर तो खूब लाभ हुआ मगर वह अपने आपसे दुःखी हो गया। हम सब अपने आपसे दुःखी हैं। मैं तो खूब आनन्द लेता हूँ, खुद शहंशाह हूँ। कहते हैं पहले राजा-महाराजा खूब मजे मारते थे पर मैं तो आज भी राजा-महाराजा हूँ क्योंकि मन की इच्छाएँ ही नहीं हैं। तृप्त हूँ खूब । जो तृप्त होता है वह शहंशाह होता है। कहते हैं न् चाह गई चिंता मिटी मनुवा बेपरवाह ; जिनको कछु न चाहिए सो शाहन के शाह । वो शहंशाह हैं जो परितृप्त हैं। लोग पैसे में सुख मानते हैं, पर पैसे में सुख कहाँ ! सुख के बीज बोने हैं तो एक हाथ में शुभ लाभ भी रखो, दूसरी ओर शुभ खर्च भी लिखो। मैं आपसे अनुरोध करूँगा कि हमेशा लाभ पर ध्यान देना, पर लाभ शुभ हो इस पर ज़रूर गौर करना । अगर लगे कि आज का लाभ अशुभ हो गया - जैसे कि व्यापार में कोई गलती से आपको अधिक धन दे गया और आप उसे जानते भी नहीं हैं, फोन नम्बर, पता आदि भी कुछ नहीं है कि वापस लौटा सकें For Personal & Private Use Only १२३ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो इस अतिरिक्त धन को किसी शुभ कार्य में, गौशाला आदि में दे दें । जीवदया के निमित्त इस धन को खर्च कर सकते हैं । और अगर आपको पता चल जाए कि अमुक व्यक्ति भूल गया तो आपका ईमान इसी में है कि आप उस रकम को लौटा दें। ऐसा हुआ, बालोतरा के एक सेठ हैं श्री घेवरचंदजी नाहटा - उन्होंने यहाँ संबोधि धाम में मंदिर का शिलान्यास किया और कहा कि वे सवा लाख रुपये मंदिर-निर्माण में समर्पित करेंगे। संयोग से हम निकट ही नाकोड़ा तीर्थ में थे । वे गांधीधाम में रहते हैं। वे नाकोड़ा तीर्थ आए हुए थे और कुछ रुपये देते हुए कहा कि इन्हें हम अपने मंदिर के ट्रस्ट में भिजवा दें। उस समय हमारे सामने जो कर्मचारी था उसे रुपये दे दिए कि पहुँचा देंगे। वह कर्मचारी पैसे गिनने लगा । पैसे गिने तो पता चला कि वे नोट सौ के नहीं हजार के नोट दादाजी देकर गए हैं। तुरंत उन्हें फोन किया कि आप गलती से सौ के बजाय हजार रुपये के नोट का बंडल दे गए हैं। वे वापस भी आए और कहने लगे - गलती तो हो गई पर धर्म के निमित्त मैं ले आया हूँ । इसलिए अब वापस घर में तो नहीं ले जाऊँगा यह धन । गलती कुछ भी रही हो, पर अब यह घर में वापस नहीं जाएगा । तब निर्णय हुआ कि जिस गाँव में वे रहते हैं, वहाँ भी एक मंदिर बना दिया जाए और अतिरिक्त धन वहाँ खर्च किया जाए। शुभ लाभ, शुभ खर्च । मैं शुभ-शुभ की बात करता हूँ, शुभ सोचने, कहने, शुभ शुभ बोलने और शुभ करने की बात करता हूँ। जितना हमसे हो जाए उतना ही अच्छा है । ईमानदारी से देखें तो हम लोग दान नहीं करते हैं । स्वेच्छा से तो शायद ही करते होंगे। मज़बूरी में ज़रूर कर देते हैं कि अब समाज के लोग आ गए हैं तो देना ही पड़ेगा या साधु - महाराज - संतों के इशारे पर धन भेंट करना होता है । लेकिन स्व-प्रेरणा से, स्व-इच्छा से दान देना महत्त्वपूर्ण है फिर चाहे वह दो मुट्ठीआटा ही क्यों न हो। हमारा चातुर्मास भीलवाड़ा में था, वहाँ आजाद चौक में प्रवचन देने जाते थे। रास्ते में देखते कि एक पेन्टर की दुकान थी, वह प्रतिदिन दो-ढाई सौ रुपये के सिक्के लेकर बैठ जाता और वहाँ भिखारियों की लाइन लग जाती, वह हरेक को एक-एक रुपया देता जाता, न कम न अधिक । यह हुआ स्वेच्छा से दान। दूसरों की प्रेरणा से नहीं, खुद के द्वारा की गई दया । शुभ लाभ १२४. Ja Qucation International For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का दरवाजा खुला रखना चाहते हैं तो शुभ खर्च का दरवाजा भी खुला रखिए। मैंने कभी गीत सुना था - 'तुम एक पैसा दोगे, वह दस लाख देगा' - यह शायद ज़्यादा हो गया फिर भी दस गुना तो मान ही लेते हैं। एक बीज के बोने पर दस गुना फल तो मिल ही जाते हैं। भगवान की पवित्र देशना तो यही है कि हमें हमेशा शुभ भाव धाराओं को प्राथमिकता देनी चाहिए और शुभ भाव-धाराएँ बन सकें इसके लिए मन को, दिमाग को ठीक करें। अगर मन में किसी प्रकार का वैर-वैमनस्य है तो उसे भुला दें। अन्यथा दुश्मन को देखते ही दिमाग असंतुलित हो जाएगा। घर में जेठानी से या भाई से विरोध है तो सबसे पहले उन्हें गले लगा लें। ये ईद के, दीपावली के पर्व इसीलिए आते हैं कि हमारे पाप कटें, वैर-वैमनस्य कम हों। पर्दूषण की सांवत्सरिक क्षमापना का भी यही अर्थ है कि वर्ष भर में जो गिलेशिकवे, वैर-विरोध रहा उनसे बाहर निकलें। क्षमा कर दें। क्षमा करना मन को स्वस्थ करने का सबसे सरल और सबसे अच्छा साधन है। क्षमा मांगने और क्षमा करने से मन तनावमुक्त हो जाता है। दिमाग में जो बोझ पड़ा रहता है वह उतर जाता है। जहाँ पहले खून खौल जाता था अब वहाँ खून बढ़ जाता है। कभी-कभी गले भी मिलना चाहिए। इससे एक-दूसरे की तरंगें आपस में प्रभावित करती हैं। कभी-कभी यह ध्यान भी करना चाहिए कि जिसके प्रति मन में दुर्भाव है उसे अपने पास बिठा लें, दोनों एक-दूसरे का हाथ पकड़ लें फिर दोनों ही ध्यान करें। वह तुम्हारे लिए और तुम उसके लिए मंगल मैत्री-भाव ले आएँ। इन शुभ भावधाराओं के कारण पूर्व में किए गए सारे वैर-विरोध के अनुबंध खुल जाते हैं, सारे पाप धुल जाते हैं और दोनों की आत्माएँ निर्मल व पवित्र हो जाती हैं। शुभ कार्य में देरी न करें, तुरंत कर डालें। अशुभ कार्य कल पर टालें। क्षमा माँगें, क्षमा करें। चित्त को हलका करने का, चित्त में पड़े अशुभ भावों को दूर करने का यही सबसे सीधा और सरल तरीका है। अगर हमारे चित्त में जल्दी तेजी आती हो और इस कारण गलत-सलत बोलने लग जाते हों, हमारी भाव धाराएँ अशुभ हो जाती हों तो कृपया अपनी उत्तेजनाओं का त्याग कीजिए । एक घटना मैं बार-बार दोहराता हूँ और लगता है कि जीवन को बदलने के लिए, जीवन में शांति और संयम रखने के लिए मैं इस प्रेरक घटना को श्रेष्ठ मानता हूँ। For Personal & Private Use Only १२८ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुए क्रोध और उत्तेजना को शांत करने वाली घटना यह है कि - एक एस. पी. दंगों पर काबू करने के लिए गया । जिस मोहल्ले में वह पहुँचा वहाँ के लोग क्रोध में भरे थे। उनमें से एक युवक आया और एस. पी. के मुँह पर थूक दिया। पास में खड़े थानेदार को गुस्सा आया, उसने रिवाल्वर निकाल ली और जैसे ही चलाने को ठहरो! थानेदार ने कहा उद्यत हुआ कि एस.पी. ने रोका और कहा क्या बात हुई सर, उसने आप पर थूका । एस.पी. ने कहा ठीक है थूका, पर क्या तुम्हारे पास रुमाल है ? हाँ, सर है - थानेदार बोला । और रूमाल निकाल कर दिया । एस. पी. ने रूमाल लिया और थूक पोंछकर फेंक दिया। कहा - आओ चलो । थानेदार बोला- सर, उसने आप पर थूका और आप कहते हैं चलो। एस. पी. ने कहा - भाई, एक बात जीवन भर याद रखना कि जो काम रूमाल से निपट सकता है उसके लिए रिवाल्वर चलाना बेवकूफी है। - - १२६ जो काम सुई से हो सकता है उसके लिए तलवार क्यों चलाई जाए। तलवार, रिवाल्वर अंतिम उपाय हैं। अगर गाली से काम चल सकता हो तो थप्पड़ क्यों मारी जाए, अगर डाँट से काम चल सकता है तो गाली क्यों दी जाए, प्रेम से समझाने से काम चल सकता हो तो डाँटा भी क्यों जाए ? इसका उलटा भी हो सकता है कि प्रेम से समझाने पर काम न चले तो डाँटो, डाँटने से काम न चले तो गाली दो, गाली से भी काम न चले तो थप्पड़ भी मारो। लेकिन पहले चरण में ही गेट आउट करना ठीक नहीं । यह तो असंयम की, अशांति की बात हो गई, अप्रेम की बात हो गई । - सबसे प्रेम करो, अपनी उत्तेजनाओं का त्याग करो, सबको सम्मान दो । जहाँ तक हो सके परिवार में, समाज में, पड़ोस में प्रेम - मिठास बाँटें । दूसरे के दुःख-दर्द में ज़रूर काम आएँ । देवरानी की डिलवरी होने वाली हो तो जेठानी आगे बढ़कर उसकी जिम्मेदारी सँभाले । तब देवरानी के दिल में आपके लिए अपने-आप जगह बनेगी । फिर भले ही वे अलग-अलग घर में रहते हों । ऐसे चार कदम आगे बढ़ने से, खुद मदद के लिए तैयार हो जाने पर हो सकता है दीवारें फिर भी बनी रहें, पर यह भाव ज़रूर उठेगा कि इस दीवार में एक दरवाजा ज़रूर निकाल लिया जाए, ताकि इधर-उधर आवागमन हो सके । प्रेम-मोहब्बत बढ़ती जाएगी। मैं तो प्रेम का पथिक और पुजारी हूँ, प्रेम का संत For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और प्रेम का गुरु हूँ। हम सब एक-दूसरे को खूब प्रेम दें, मिठास दें। पर अगर तुम ही कदम बढ़ाने को तैयार नहीं हो तो अगला कहाँ से और कैसे आगे बढ़ेगा। वह तो अड़ियल है ही, पर हम साधक होकर भी अड़ियल हो गए तो हमारी साधना कैसी ? साधक की तो कसौटी ही यही है कि वह व्यावहारिक जीवन में स्वयं को स्नेहिल बनाए। ___ करुणापूर्ण हृदय के साथ हमारे द्वारा मदद का कोई-न-कोई हाथ आगे ज़रूर बढ़े। कुल मिलाकर हमें अपनी भावधाराओं को शुभ और मंगलमय बनाना है, निर्मल और पवित्र बनाना है। इसके लिए स्वनिर्णय लेने होंगे कि स्वयं की शुभ भावधाराओं के लिए क्या करना चाहिए और अपनी प्रेक्टीकल लाइफ में किन-किन बातों को जोड़ने की जागरूकता, सचेतनता और अधिक बनानी चाहिए। भावे भावना भाविए, भावे दीजे दान । भावे जिनवर पूजिए, भावे केवलज्ञान ।। कहते हैं जैसी आपकी भावना होगी, प्रभु की मूरत भी वैसी ही दिखाई देगी। हम लोग एक पुराना गीत गाते हैं - "थाली भरकर लाई रे खीचड़ो, ऊपर घी री बाटकी। जीमो म्हारा श्याम धणी जिमावे बेटी जाट की।" जाट की बेटी कहती है - भगवानजी, आप आ जाइए और जीम के चले जाइए। भगवानजी भी फ़िक्र में पड़ गए होंगे कि रोज़ तो इसका काका-बाबा जिमाता है और आज यह जिद पर आ गई है। गीत के आगे की पंक्तियाँ हमें बताती हैं - "बाबो म्हारो गाँव गयो है, ना जाणे कद आवेला, बाबे रे भरोसे सांवरिया भूखो ही रह जावेला।" - अगर तुम मेरे बाबा के भरोसे रह गए तो भूखे ही रह जाओगे इसलिए जल्दी-जल्दी आ जाओ। बाबा कह के गया है कि प्रसाद पहले प्रभु को चढ़ाना उसके बाद तुम खाना । वह दो-तीन दिन में दूसरे गाँव में जाकर वापस आ जाएगा। सांवरिया तू आ जा। सांवरिया नहीं आया, नहीं आया तो सोचने लगी - बाबा क्या-क्या करते थे। उसे याद आया कि बाबा आगे खाट लगाते थे तब प्रसाद चढ़ाते थे। वह खाट के पास गई पर खाट उठ न पाई तो सोचा परदा कैसे लगाऊँ । बच्ची थी खुद ही जाकर उल्टी खड़ी हो गई और लहंगे को दोनों हाथों से फैला दिया और कहा - प्रभु जी लो यह मैंने १२७ For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम्हारे लिए परदा कर दिया अब तो खा लो। कहते हैं सांवरिया भी चले आए और खिचड़ा खाने लगे। भगवान तो भावनाओं के भूखे होते हैं। उन्हें कौनसी रोटी खानी होती है, वे तो कृपालु हैं, दातार हैं, अपन लोगों को देते हैं तो अपना पेट भरता है, अपने चढ़ाए से क्या भगवान का पेट भरेगा। हम तो उसमें भी कंजूसी करते हैं मिठाई का डिब्बा ले जाते हैं और एक या दो डली चढ़ाकर पूरा डिब्बा वापस ले आते हैं। गीत के आगे की पंक्तियाँ हैं - “सांची प्रीत प्रभु से हो तो मूरत बोले काठ की” – तब काठ की मूर्ति भी बोलने लगती है। खिचड़ा खाकर सांवरिया पुनः मूर्ति में समा जाते हैं। बापूजी आते हैं और पूछते हैं - तूने सांवरियाजी को प्रसाद चढ़ाया ? उत्तर मिलता है - मुझसे क्या पूछते हो, सांवरिया का मुँह दिखता नहीं है क्या ? यह सब भावनाओं का खेल है। भाव अच्छा रखेंगे तो सब कुछ अच्छा-अच्छा हो जाएगा। भावनाएँ एक मंदिर बन जाए । भावनाएँ फूलों का गुलदस्ता बन जाए। भावनाओं का संसार अगर अच्छा रहेगा तो हमारे कर्म, कर्म की प्रकृतियाँ, मनोदशाएँ, संबंध, यह संसार सब कुछ अच्छा, बेहतर और अनुकूल होगा। सार की बात इतनी-सी है कि शुभ भाव हो, शुभ लाभ हो, पर खर्च शुभ हो, कर्म शुभ हो। बस, इतनी जागरूकता रखें। सभी को बहुत-बहुत प्रेमपूर्ण नमस्कार । १२८ For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ धर्मके सरल नियम बहुत पुरानी कहानी है। एक ब्राह्मण पंडित जगह-जगह जाकर गीता का पाठ सुनाया करते थे। एक बार वे अपने गाँव से दूसरे गाँव के सेठ के निमंत्रण पर उन्हें गीता-पाठ सुनाने के लिए जा रहे थे। रास्ते में एक नदी आई। वहाँ एक मगरमच्छ रहता था। उसने ब्राह्मण से गीता-पाठ सुनाने का अनुरोध किया और कहा कि इसके एवज में वह उन्हें मोतियों की माला उपहार में देगा। ब्राह्मण तैयार हो गया क्योंकि जो भी उसे धन देगा वह उसे गीता का पाठ सुना देगा। ब्राह्मण देव ने उस मगरमच्छ को गीता का पाठ सुनाया और उसने अपने वादे के मुताबिक मोतियों का हार ब्राह्मण को भेंट में दे दिया। गीता-पाठ सुनकर उस मगर को बहुत आनन्द आया। उसने कहा - अगर तुम कल भी मुझे अन्य कोई शास्त्र सुनाओगे तो मैं तुम्हें मोतियों का एक हार और दूंगा। धन के लोभ में आकर वह ब्राह्मण तैयार हो गया और दूसरे दिन पुनः वहाँ पहुँचा तथा किसी अन्य पवित्र शास्त्र का पाठ किया । उसे सुनकर मगरमच्छ प्रसन्न हुआ तथा एक हार और दे दिया। साथ ही अनुरोध भी किया कि दूसरे दिन आकर फिर किसी अन्य पवित्र शास्त्र का श्रवण करवा दें। कहते हैं इस तरह बहुत दिन बीत गए, पंडित जी वहाँ आते रहे और वह मगरमच्छ उनके पवित्र उपदेश को सुनता रहा । एक दिन उस घड़ियाल ने कहा – पंडित जी आप For Personal & Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतने दिन से आकर मुझे पवित्र वाणी सुनाते रहे, आपकी बातों को सुनकर मुझे अपने पूर्व जन्मों के कृत पापों को धोने के प्रबल भाव होते जा रहे हैं। मेरी इच्छा हो रही है कि अगर आप मुझे त्रिवेणी तक पहुँचा दें तो मैं आपको मोतियों से भरे हुए पाँच घड़े दूँगा । लालच जो न करवाए सो कम है। पंडित तैयार हो गया उसे त्रिवेणी की यात्रा करवाने के लिए । एक ठेलागाड़ी की व्यवस्था कर, उस पर मगर को डालकर त्रिवेणी की यात्रा के लिए चल पड़ा । त्रिवेणी पहुँचकर उस मगरमच्छ को पानी में उतारा गया। पानी में डुबकी लगाकर वह मगर आनन्द - विभोर हो गया। खुशी के मारे उसकी आँखों से अश्रु ढुलकने लगे। वह पंडित को बार-बार साधुवाद देने लगा। उनका कृतज्ञ हुआ कि पंडित जी की वज़ह से त्रिवेणी स्नान करने का आनन्द मिल पाया। वादे के मुताबिक उसने पाँच घड़े मोतियों के पंडित को दे दिये। घड़े लेकर जब पंडित जी जाने लगे तो वह घड़ियाल जोर से मुस्करा दिया। उसकी हँसी सुनकर पंडित जी ठिठके और हँसने का कारण पूछने लगे । घड़ियाल ने कहा क्या करोगे जानकर, रहने दो। पंडित जी बोले- नहीं, नहीं । तुम्हें बताना ही पड़ेगा। ठीक है, तब आप ऐसा कीजिए कि आप वहीं जाइए जिस गाँव से हम लोग आए हैं, वहाँ एक धोबी रहता है, उसके पास जो गधा है वही मेरी हँसी का राज़ बता सकता है। उसने सोचा ऐसी क्या रहस्यमय बात है कि गधा उसे ज्ञान करवाएगा । पास जाकर कहा पंडित जी रवाना हुए, अपने गाँव पहुँचे तथा उस धोबी को ढूँढ़ा और गधे के क्या तुम मुझे बता सकते हो कि वह घड़ियाल क्यों हँसा ? अचानक गधा मनुष्य की भाषा में बोलने लगा और कहा - महाराज बात तो हँसने की ही है। पंडितजी ने पूछा - ऐसी क्या बात है ? तब गधे ने कहा - सुनो ! सौ साल पहले इस नगर में एक राजा हुआ करता था । इसी तरह राजा धर्म - शास्त्रों का श्रवण करता था और सुनते-सुनते उसके मन में भी भाव उठ गये कि वह यहाँ से हरिद्वार जाए और वहाँ जाकर गंगा स्नान करे । उसने अपने सबसे विश्वसनीय सेवक को, जो अंगरक्षक भी था, अपने साथ लेकर राजा निकल पड़ा। हरिद्वार पहुँच कर उसने गंगा स्नान किया। गंगा स्नान करते हुए वह इतना आनन्द-विभोर हो गया कि उसने वापस लौटने का विचार त्याग दिया - १३० - For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और वहीं रहकर संन्यास-जीवन धारण कर शेष जीवन को धन्य बनाने का संकल्प कर लिया। राजा ने संन्यास ग्रहण कर लिया और अपने कर्मचारी से कहा - अगर तुम चाहो तो तुम भी यहाँ रह सकते हो और इच्छा हो तो वापस अपने घर भी जा सकते हो । हाँ, अगर जाना चाहते हो तो मैं अपने साथ लाई हुई हज़ार स्वर्ण-मुद्राएँ तुम्हें भेंट में देता हूँ क्योंकि तुमने मेरी यहाँ तक सेवा की है, मेरा साथ निभाया है। सेवक ने कहा - मुझे तो जाना पड़ेगा राजन् । अभी पोतेपोती, बहूरानी इनको भी तो कुछ लाड़-प्यार कर लूँ। अभी मन तृप्त नहीं हुआ है। वह सेवक स्वर्ण-मुद्राएँ लेकर लौट आया। गधे ने कहानी जारी रखी - पंडित जी ! वह राजा तो मरकर देवलोक में गया और वह सेवक मरकर मैं गधा बना । क्या आप इस रहस्य को समझे ? वह घड़ियाल आपको देखकर इसीलिए हँसा क्योंकि किसी समय मैंने भी यही मूर्खता की थी। मैंने यह नहीं सोचा कि इस संन्यास में ऐसा क्या है जिसके कारण महाराज अपने सारे राज्य का त्याग करके संत बन रहे हैं और मैं कैसा लोभी निकला कि हज़ार स्वर्ण-मुद्राओं को लेकर वापस आ गया। एक त्याग रहा था दूसरा ले रहा था। राजा ने त्याग करके अपना जीवन सुधार लिया और मैंने लालच में रहकर स्वयं को गधा बना लिया। घड़ियाल इसलिए हँसा कि वह मोतियों के हार, और मोतियों के घड़े देकर त्रिवेणी तक पहुँच गया और तुम त्रिवेणी तक पहुँचकर भी वापस लौट आए। दुनिया में दो प्रकार के लोग होते हैं - एक धर्म को महत्त्व देने वाले, दूसरे जो धन को महत्त्व देते हैं। जो धन को महत्त्व देते हैं वे किसी ब्राह्मण पंडित की तरह या सेवक की तरह धन को लेकर संसार की तरफ चले जाते हैं, दूसरे धन का त्याग करके भी स्वयं के लिए धर्म को उपलब्ध करना चाहते हैं। यह तो व्यक्ति के नज़रिये और चाहत पर निर्भर करता है कि वह जीवन में धर्म या धन किसका संग्रह करना चाहता है। कितने आश्चर्य की बात है कि एक मगरमच्छ को आत्म-बोध जग गया और वह धन का त्याग करने को तत्पर हो गया, लेकिन एक ज्ञानी-पंडित-विद्वान को यह बोध नहीं जग पाया और वह धन के पीछे पागल बना रहा। जो अपने जीवन में धर्म का संग्रह करते हैं, धर्म का अनुसरण करते हैं वे १३१ For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोग किसी घड़ियाल की तरह त्रिवेणी तक, निर्वाण-पथ तक, बैकुंठ तक पहुँच जाते हैं, शेष लोग तो मंदिर की दहलीज़ तक पहुँचकर, संतों के निकट पहुँचकर भी वैसे के वैसे रह जाते हैं। घाणी के बैल की तरह जीवन भर यात्रा करने के बाद भी उन्हें कोई मंज़िल नहीं मिलती। ज्ञान का मूल्य तभी है जब ज्ञानी उसे जीवन में जीता है। धर्म का मूल्य है। धर्म इन्सान के लिए मुक्ति का चिराग है, तनमन को मुक्त करने वाली संजीवनी औषधि है। धर्म इंसान को आगे बढ़ाने वाला, उसकी आत्मा का निस्तार करने वाला किनारा है, नौका है, द्वीप है, शरण है, गति है, प्रतिष्ठा है। घड़ियाल की कहानी हमें बताती है कि केवल धर्म को सुन लेने से, पढ़ लेने भर से किसी का कल्याण नहीं होने वाला । दुनिया में सुनने वाले करोड़ों हैं, बोलने वाले लाखों हैं लेकिन उसको जीने वाले गिनती के हैं । ज्ञान वह नहीं है जो किताबों से पढ़ा जाए, ज्ञान वह है जिसे जीवन में जिया जाए। अगर कोई दीपक को जलता हुआ देखकर आगे से निकल जाए तो दीपक उसका नहीं हो जाता। दीपक उसी का होता है जो उसके प्रकाश का उपयोग करने को तत्पर हो जाए। __ भगवान महावीर जो स्वयं कभी राजकुमार थे उन्होंने धन के महत्त्व को गौण किया और धर्म के महत्त्व को स्वीकार किया। धर्म के महत्त्व को स्वीकार करने के कारण ही वे भी महलों से उसी तरह निकल गये जिस तरह कभी वह राजा गंगा-स्नान के लिए निकल पड़ा कि कोई घड़ियाल त्रिवेणी स्नान के लिए निकल पड़ा। जब तक धन का महत्त्व है व्यक्ति व्यापार करेगा, संसार में रहेगा, सुबह से लेकर रात तक अर्थोपार्जन ही करता रहेगा लेकिन विरले लोगों में धर्म का महत्त्व, धर्म का रंग, धर्म का स्वाद चढ़ जाता है तब वे अपने साथ धर्म की सुवास, धर्म की आराधना को जोड़ लेते हैं। हमारे मन में किसका महत्त्व है सभी कुछ इसी बात पर निर्भर करता है। कोई भोगता है, कोई छोड़ता है। वही व्यक्ति छोड़ता है जिसने भोग को व्यर्थ समझा है। लेकिन जिसके मन में उस प्रभु के प्रति प्रेम न पनपा, भीतर भगवत्ता की प्यास न जगी, अन्तरात्मा की पुकार जिसके भीतर न उठी, स्वयं का कल्याण, स्वयं का उद्धार करने का भाव जिसके भीतर अंकुरित न हुआ वे लोग ही धन को, अर्थ को महत्त्व देंगे। लेकिन जिन्होंने धर्म को समझ लिया वे उस पथ पर चल पड़ते हैं जो उन्हें मुक्ति और निर्वाण की १३२ For Personal & Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंज़िल तक ले जाता है। महावीर ने भी तो पत्नी को छोड़ा था, बच्ची का त्याग किया था, राजमहलों का त्याग किया था, बुद्ध ने भी ऐसा ही किया था आखिर किस वज़ह से ? राम भी तो वनवास में रहे । किस कारण ? धर्म के लिए । इसीलिए धर्म का महत्त्व बढ़ गया । धर्म का महत्त्व बढ़ने से व्यक्ति चार क़दम आगे चल जाता है। 1 किसी भी इंसान को अपने जीवन में आगे बढ़ने के लिए अपनी नींव मज़बूत कर लेनी चाहिए । अगर नींव मज़बूत नहीं है तो मकान बनाने के लिए रखी गई दस ईंटें कभी भी गिर सकती हैं। हर इंसान अपने जीवन के भवन की नींव ठीक ढंग से रख सके, नींव मज़बूत बना सके इसके लिए भगवान महावीर ने अपनी अमृतवाणी के ज़रिये धर्म के संदेश दिये हैं, धर्म का व्याख्यान किया है। महावीर ने धर्म के दो चरण बताए हैं - एक गृहस्थों के लिए, दूसरे जो गृहस्थी का त्याग कर, सांसारिक रसरंग को छोड़कर संत बन चुके हैं। इस तरह एक धर्म होता है संसारी लोगों के लिए और एक धर्म होता है संन्यासी लोगों के लिए । धर्म दोनों के लिए है, पर गृहस्थ और संसारी व्यक्ति के लिए धर्म थोड़ा सरल होता है और संन्यासी का धर्म पूर्ण होता है, कठिन नहीं होता । यह न समझें कि संत का धर्म कठिन होता है। उसे केवल पूर्णता देने की बात है। गृहस्थ में रहने वाला व्यक्ति उसे आंशिक रूप में जीता है, पर संन्यास लेने वाला व्यक्ति उस धर्म को पूर्णता के साथ जीने का प्रयत्न करता है। गृहस्थी में तो प्रायः सभी होते हैं, लेकिन गृहस्थ-धर्म को निभाना नींव मज़बूत करने के समान है। अगर व्यक्ति संन्यास लेना चाहता है तो वह तभी संन्यास को सही ढंग से जी पाएगा जिसने गृहस्थ-धर्म को सही ढंग से जिया है । हर व्यक्ति एकदम से वाल्मीकि नहीं बन सकता। हर व्यक्ति पत्नी की डाँट सुनकर तुलसीदास नहीं बन सकता । यह सब आम आदमी के लिए नहीं हो सकता। आम आदमी को तो एक सिस्टम देना ही होगा । व्यक्ति पहले गृहस्थजीवन में रहकर स्वयं को मजबूत कर ले। धर्म के साथ स्वयं को जोड़ ले। अगर गृहस्थ धर्म को पूर्णता के साथ, परिपक्वता के साथ जीने का प्रयत्न करेगा तो वह संन्यास लेने के बाद संन्यासी जीवन को भी पूर्णता के साथ, शुद्धता के साथ जी सकेगा । For Personal & Private Use Only १३३ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ गृहस्थ भी इतने संयमी और त्यागी होते हैं कि वे संतों जैसा या संतों से भी ऊँचा त्यागी जीवन जी जाते हैं । और कुछ संत भी ऐसे होते हैं जो संतजीवन अपनाकर भी गृहस्थों से भी अधिक गये - गुजरे होते हैं। दोनों तरह की संभावनाएँ हैं। यह तो धर्म के महत्त्व को समझने और स्वीकार करने की बात है। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो घर में रहते हुए भी संतों जैसा श्रेष्ठ जीवन जी लेते हैं। मैंने स्वयं ऐसे कई गृहस्थों और संतों को देखा है। 1 ऐसे महान संतों को देखा है, उनके जीवन को समझने का प्रयत्न किया है, उनके तप और त्याग को देखा है, जाना है, उसका आनन्द लिया है । यहाँ तक कि उनकी उस रोशनी को अपने जीवन में भी ढालने का प्रयत्न किया है । कुछ ऐसे गृहस्थों के भी संपर्क में आया जो त्यागी, तपस्वी रहे हैं । उनके गृहस्थनुमा संत-जीवन को देखकर उन्हें प्रणाम करने के भाव आ जाते हैं । I I कुछ दिनों पूर्व हम जयपुर में थे । वहाँ से एक समाचार-पत्र निकलता है राजस्थान पत्रिका | उसकी मालकिन होंगी अस्सी - पिच्चासी वर्ष की, वे हमसे मिलने आईं और कहने लगीं - महाराज, मुझे भोजन नहीं भाता है। एक कौर भी लेती हूँ तो वमन होने लगता है। खाने की इच्छा भी नहीं होती। एक माह हो गया है, शरीर में दुर्बलता आती जा रही है । आप कुछ ऐसा कर दीजिए कि मैं रोटी खा सकूँ | मैंने कहा - माताजी आप बैठिये । मैंने उन्हें कोई दवा बता कि भूख लगने लग जाएगी। पास में बैठे एक व्यक्ति से दवा मँगवाने लगा कि वे बोलीं- आज तो मेरे उपवास है। मैं दवा नहीं लूँगी। मैंने कहा आज किस बात का उपवास ? तो कहने लगीं - मेरे तो वर्षीतप चल रहा है। मैंने कहा - वर्षी तप ? इतनी उम्र और इतनी कृशकाय, तब भी वर्षीतप ? बोलीं- यह तो मेरा बत्तीसवाँ वर्षीतप है । उनकी इस बात को सुनकर मैं इतना आत्मविभोर हुआ कि कह नहीं सकता। सोचने लगा कोई व्यक्ति गृहस्थ में रहकर, इस वृद्धावस्था में, इतनी उम्र बत्तीसवाँ वर्षीतप ! अर्थात् लगातार बत्तीस वर्षों से एकान्तर गर्म जल के आधार पर उपवास कर रही हैं । 1 उनके इस भव्य पराक्रम, संयम जीवन के इस तप-त्याग के प्रति, धर्म में इतनी अगाध श्रद्धा को देखकर मैंने मन-ही-मन उन्हें नमस्कार किया । जयपुर की ही बात है, एक जाने-माने अतिसम्पन्न परिवार में मेरा दो १३४ - For Personal & Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिन ठहरना हुआ। दोपहर के समय उस परिवार की बहू मेरे पास आई और कहने लगीं - मुझे आयम्बिल के पच्चखाण (प्रत्याख्यान) करवा दीजिए। (आयम्बिल वह तप होता है जिसमें बिना छौंक का, बिना नमक, घी, तेल, शक्कर और बिना किसी प्रकार के मसालों का उबला या पका हुआ अन्न ग्रहण किया जाता है। वह भी दिन में एक बार ही खाया जाता है। एकासन व्रत के समान लेकिन दूध, चाय, ज्यूस या अन्य कोई पदार्थ नहीं, केवल उबला हुआ अन्न।) मैंने उनसे पूछा - आज किस बात का आयम्बिल तप है ? आज तो कोई बड़ी तिथि भी नहीं है। पास में खड़ी सासू माँ ने कहा - आज इनको चौंतीसवाँ आयम्बिल है। वर्धमान तप की आराधना कर रही हैं। वर्धमान तप में व्यक्ति एक आयम्बिल करता है फिर पारणा । दो आयम्बिल उसके बाद पारणा । इस तरह वह बढ़ता जाता है, जैसे तीस आयम्बिल फिर पारणा । बढ़ते-बढ़ते सौ आयम्बिल तक करते हैं फिर पारणा यानी लगातार सौ आयम्बिल करने के बाद पारणा । इस तरह उस महिला के चौंतीसवाँ आयम्बिल था अर्थात् लगातार चौंतीस दिन से अखंड आयम्बिल । मैं सुनकर भाव-विभोर हुआ और लगा कि कुछ अरबपति घरों में अभी भी धर्म का महत्त्व है केवल धन का नहीं। उनकी किस्मत अच्छी है, पूर्वजन्मकृत पुण्य अच्छे हैं कि धन उनके पास है लेकिन वे धर्म के प्रति श्रद्धाशील हैं। अरबपति लोग हैं, खाने-पीने की कुछ कमी नहीं है, हीरे के बड़े व्यापारी हैं लेकिन उन लोगों ने धर्म का महत्त्व कभी नहीं छोड़ा और धर्म-आराधना में रत हैं। यही तो अनुमोदना करने की बात है। कहने का तात्पर्य यही है कि गृहस्थ में भी कुछ लोग इतने श्रेष्ठ होते हैं कि धर्ममय जीवन जीते हैं। संत होना तो सौभाग्य की बात है। पर अब लोग संत जीवन भी कम जीते हैं। सारे महाराज कोई तो मंदिर की प्रतिष्ठाओं में उलझ गये हैं, कोई क्रिया-विधि-विधानों में उलझ गए हैं। अब तप-त्यागमूलक जीवन बहुत कम बच पाया है। अभी ललितप्रभ जी मुझसे कह रहे थे कि नगर में एक संत महाराज आए थे। उन्होंने उनसे अनुरोध किया कि अगर उन्हें सुविधा हो तो हफ़्ता दस दिन के लिए सम्बोधि धाम पधारें, साधना का आनन्द लें। अभी ध्यान-शिविर भी जारी है, कुछ ध्यान का भी आनन्द लें। वे संत महाराज कहने लगे - क्या बताऊँ, अभी तो मुझे जोधपुर से अहमदाबाद जाना है। अहमदाबाद 934 For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से सूरत, सूरत से मुंबई जाऊँगा। मुंबई से हैदराबाद जाना है। वहाँ से लौटकर मारवाड़ जाना है, वहाँ प्रतिष्ठा करवानी है। वहाँ से चातुर्मास करने के लिए मुंबई जाना है। ललितप्रभ जी को भी शायद मज़ाक करने का मन हो गया होगा। उन्होंने कहा - महाराज ! आपको इतनी जगह जाना है, मोक्ष भी जाना है - यह आपको याद है या भूल गये ? प्रभु के दरबार में भी आपको जाना है यह याद है या नहीं ? कौन किसको महत्त्व दे रहा है यह देखने जैसा है। धन को महत्त्व देना पत्नी, बच्चे, व्यापार, संसार, दुनियादारी को, लोकव्यवहार को महत्त्व देना है और धर्म को महत्त्व देना ईश्वर, बैकुंठ, स्वयं की मुक्ति, स्वयं के कल्याण को महत्त्व देना है। किसी के कहने से कुछ होता नहीं है यह तो खुद की चाहत है कि व्यक्ति ने धर्म का महत्त्व समझ लिया और धर्म की ओर मुड़ गया। धर्म करना किसी पर अहसान नहीं, स्वयं का कल्याण है। दूसरे को धर्म करता हुआ देखकर अपन जो आनंद-विभोर हो जाते हैं कि आपको देखकर हम धन्य हो गये। क्योंकि धर्मात्मा को देखना महात्मा को देखने के समान है और महात्मा को देखने से व्यक्ति के पुण्य जाग्रत होते हैं। थोड़े दिन पहले एक युवक मेरे पास एक कार्ड लेकर आया। मैंने उसे पढ़ा और वहीं से उस संत को प्रणाम समर्पित किया जिसने यह कार्ड भेजा था। मैं उस संत से पहले कभी मिला नहीं था लेकिन उनकी प्रेरणा से हो रहे नेक कार्यों की वजह से मैं अभिभूत हो गया। मैंने पढ़ा कि उस संत की प्रेरणा से गौशालाएँ चलती हैं। वे पथमेड़ा के संत हैं, जिनकी प्रेरणा से एक लाख गौएँ पालित और पोषित होती हैं। मुझे लगा कि वे जो भी हों, धन्य हैं जिनके कारण एक लाख गौ माताओं की व्यवस्था होती है। हम तो दो गायों को घास डाल देते हैं और सोचते हैं कि हम भी कुछ दान-धर्म, दया-करुणा कर रहे हैं। उस संत का त्याग तो समझें कि जो प्रतिदिन एक लाख गौओं के लिए घास की व्यवस्था कर रहे हैं। जो भी गौओं के लिए धन खर्च कर रहे हैं वह एक यज्ञ है। मैं स्वामी रामसुखदासजी महाराज से मिला हूँ और उनकी विरासत को भी पढ़ा है। उन्होंने लिखा है मेरे मरणोपरांत मेरी देह का दाह-संस्कार गंगाजी के किनारे किया जाए। और गंगा किनारे न जा सकें तो ऐसे स्थान, ऐसी ज़मीन १३६ For Personal & Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर दाह-संस्कार किया जाए जहाँ प्रतिदिन सौ-पचास गाय-माताएँ चरने के लिए, बैठने के लिए आती हों। क्योंकि जहाँ सौ-पचास गायें आकर बैठती हैं वह जगह मुकुंद-माधव-गोविंद की तीर्थभूमि बन जाती है। जहाँ तक मुझे जानकारी है हिंदू समाज में ऐसे त्यागी-तपस्वी संत कम ही हुए हैं। वे हिंदू समाज के, भारत के गौरव हैं। उन्होंने विरासत में यह भी लिखा कि जब मेरा शरीर छूट जाए तो उसका कोई ड्रामा न किया जाए, कोई प्रचार न किया जाए, अख़बारों में खबर न छपाई जाए । बस प्राणांत के एक घंटे बाद ले जाकर दाहसंस्कार कर दिया जाए। कहीं कोई सूचना न दी जाए, न ही मेरे नाम से कोई चढ़ावा हो, न स्कूल-कॉलेज बने, न ही कोई संस्था बने, न ही कोई जमीन खरीदी जाए। अगर चौबीस घंटे की मोहलत दी जाती तो उस संत के दाह-संस्कार के समय दस लाख लोग एकत्रित हो जाते । लेकिन उनकी धर्म भावना देखें कि किसी को सूचना न दी जाए, कोई सजावट न की जाए, जो कपड़े पहनते हैं उसी की पोटली बनाई जाए, उसी में काया लपेट दी जाए और अन्त्येष्टि कर दी जाए। तो कुछ संत भी ऐसे होते हैं जिन्हें कह सकते हैं कि वे भगवान का दूसरा कई घटनाएँ हैं जिन्हें मैंने देखा है, समझा है और अन्तर्मन में अनुमोदना के भाव का इतना आनन्द लिया है कि जीभ मीठी होती है, मन मधुर हो जाता है। उन्हें जब भी याद करता हूँ पुलक-भाव से भर जाता हूँ। इसीलिए महावीर यह निष्कर्ष देना चाहते हैं कि कुछ गृहस्थ भी ऐसे होते हैं जो संतों जैसे होते हैं या संतों से भी ऊँचे हुआ करते हैं और कुछ संत भी ऐसे होते हैं जो धरती के भगवान बन जाते हैं। उनका त्याग और तप उन्हें महान बना देता है। मेरे सामने अगर प्रभु के नाम पर बना हुआ मंदिर एक ओर हो और दूसरी ओर प्रभु को अन्तर्मन में जीने वाले सिद्ध पुरुष हों तो मैं भगवान के उस पत्थर के मंदिर में जाने की बजाय वहाँ जाकर प्रार्थना करने से पहले उस सिद्ध पुरुष के पाँव छूना पसंद करूँगा, उन्हें पहले मत्था टेकूँगा । हमें ऐसे संत पुरुष मिलें यह जन्मों-जन्मों के सौभाग्य से होगा। वह बड़भागी होगा जिसे ऐसे सिद्ध देवपुरुष, सद्गुरु, दिव्य पुरुष के दर्शन हुए। सच पूछा जाए तो लोगों को कहाँ ऐसे सत्पुरुष मिलते हैं। उन्हें तो वही मिलते हैं जिस स्थिति में वे स्वयं होते हैं। जीवन में ऐसे दैवीय For Personal & Private Use Only www.jainelik३७rg Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुष कभी-कभार ही किसी प्रबल पुण्योदय के प्रभाव से मिल पाते हैं, उनका दर्शन होता है, सान्निध्य मिल सकता है। उनकी चरण - धूलि भी चंदन बनकर सौभाग्य का काम करती है। मैं ऐसे सद्पुरुषों का पुजारी हूँ। भगवान महावीर कहते हैं - एक धर्म सरल होता है, एक धर्म पूर्ण होता है । सरल धर्म सद्गृहस्थों के लिए होता है और पूर्ण धर्म संतजनों के लिए होता है। महावीर ने दो शब्दों में गृहस्थ के धर्म को समझाने का प्रयत्न किया और वह है - १. दान तथा २. पूजा। संतों के लिए भी दो ही धर्म हैं - १. ध्यान और २. स्वाध्याय। अगर कोई गृहस्थ दान और पूजा यह दो कार्य करता है तो वह गृहस्थ नहीं श्रावक है। श्रावक का अर्थ है - सुनने वाला, महापुरुषों की वाणी को सुनने वाला, शास्त्रों को सुनने वाला। दूसरा है संतों का धर्म, श्रमणों का धर्म । श्रमण वह जो सुने हुए को जीता है, उस पर श्रम करता है, उस पर चलता है। 1 - - श्रावक शब्द में तीन अक्षर हैं - श्र, व, क । 'श्र' का अर्थ है श्रद्धा, 'व' का अर्थ है विवेक और 'क' का अर्थ है क्रिया । अर्थात् श्रद्धा सहित, विवेकपूर्वक जो अपनी क्रियाओं को सम्पादित करता है उसका नाम है श्रावक । गृहस्थ और संन्यासी दोनों श्रेष्ठ हैं, किसी को भी खराब या गलत नहीं कहा जा सकता। आम तौर पर हम गृहस्थों को कोसते हैं लेकिन ऐसा नहीं है। गृहस्थी में भी अगर व्यक्ति अपने धर्म, अपनी मर्यादा, अपने शील का पालन करता है तो गृहस्थ भी श्रेष्ठ होता है। और संन्यास लेकर संत बन जाने पर भी अपने नियम, कायदे-कानून, अपने धर्म-तत्त्व को अगर स्वीकार नहीं करता है, उनको अपने जीवन में नहीं उतारता तो उसका संतत्व अधम है । देह के मान से संभव है गृहस्थ का पलड़ा भारी रहे, लेकिन व्यक्ति की आत्मा, उसका अन्तर्मन, भीतर की सुवास, भीतर के प्रकाश को तौलना चाहेंगे तो शायद सद्संत का पलड़ा भारी रहेगा। इन्हीं गुणों से तो गृहस्थ और संन्यासी का फ़र्क़ नज़र आता है। जो ऊपर उठा, जो भीतर से खिला, जो मुक्ति का कमल बना, जो अनासक्त हुआ, जिसमें के प्रति प्रीत लगी वह व्यक्ति ही संत हुआ । प्रभु एक संत से किसी ने पूछा- क्या आप मुझे याद करते हैं ? संत ने कहा हाँ, जब भगवान को भूल जाता हूँ तो तुम्हें याद कर लेता हूँ। | उसने पूछा - भगवान १३८ For Personal & Private Use Only - Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को आप कब भूलते हैं। संत ने कहा - ऐसा दिन आज तक आया ही नहीं कि मैं भगवान को भूला। अर्थात् जो व्यक्ति दिन-रात ईश्वर का स्मरण रखता है वह किसी दूसरे का स्मरण कैसे रख पाएगा। दूसरे व्यक्ति की याद आई अर्थात् जिसके लिए तुम जी रहे थे वह गौण हुआ तब तीसरे की याद आ गई। भगवान को याद रखने वाला व्यक्ति भागवान को कैसे याद रख पाएगा। ___ रोहिणी की शादी जब चन्द्रदेवता से हुई तो कहते हैं कि उसकी छब्बीस या सत्ताईस बहनों की शादी भी चन्द्रदेव से हुई थी। लेकिन चन्द्रदेव केवल रोहिणी को चाहते थे। एक दिन रोहिणी ने अश्रु बहाते हुए अपने पति से कहा - हे देव ! आपके साथ मेरी अन्य बहनों की भी शादी हुई है लेकिन आप उन्हें देखते तक नहीं हैं। आप उन्हें भी तो प्यार किया करें, उन्हें भी तो कुछ समय दिया करें । चन्द्रदेव ने कहा - दिल तो एक है और इस एक दिल में एक को ही रखा जा सकता है, एक दिल में दस-बीस को तो नहीं रखा जा सकता। अगर प्रकृति मुझे दस-बीस दिल देती तो मैं तुम्हारी सारी बहनों को एक-एक दिल दे देता। ___इसी तरह अन्य घटना है - उद्धव गोपियों के पास गये हुए थे। वे टिप्पणियाँ करते कि तुम्हारे घर में कोई है नहीं क्या जो तुम दिन-रात इस गोविंद के पीछे पागल बनी रहती हो । तब गोपियाँ कहती थीं - ऊधौ, मन न भये दसबीस । हे उद्धव, हमारे पास कोई दस-बीस मन तो हैं नहीं जो हम सबको बाँटते फिरें । मन तो एक था जो वह हरिहर हरण करके ले गया। इस तरह दिल तो एक है, अगर भगवान का महत्त्व है, धर्म का महत्त्व है तो उसे बसा लें। धर्म और धन, संन्यास और संसार दोनों एक साथ नहीं चल सकते। दो नावों की सवारी महँगी पड़ जाएगी। तब न माया मिलेगी न ही राम। हमारा लक्ष्य अगर मुक्ति है तो हमें हर कदम फूंक-फूंककर कर रखना पड़ेगा, सचेतनता के साथ जीना होगा। गृहस्थ के लिए दान और पूजा सबसे सरल धर्म है। धर्म के और भी कई चरण हो सकते हैं लेकिन उन सभी को शब्दों में ढालना हो तो दो ही शब्द आ पायेंगे - एक दान, दूसरा पूजा । दान यानी दूसरों की मदद । चूँकि गृहस्थ व्यक्ति के पास ही परिग्रह होता है, सामान, धन होता है इसलिए उसका पहला धर्म बनता है कि वह अपनी ओर से दूसरों की १३९ For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मदद करे । गृहस्थ तो देने मात्र से धन्य होता है। पात्र-अपात्र का ज्यादा विचार मत करो। पात्र-अपात्र के बारे में ज्यादा सोचने लगे तो कभी किसी की मदद ही नहीं कर पाओगे। गृहस्थ का धर्म ही यही है कि वह दे। दानवीर कर्ण ने तो अपना अमर जीवन भी देना स्वीकार कर लिया। अपने कवच-कुण्डल देना भी कबूल कर लिया था। हम लोग किसी भूखे को तो कुछ दान दे सकते हैं। अत्यधिक वस्त्रों में से एक जोड़ वस्त्र का दान तो किया जा सकता है। अपने यहाँ काम करने वाले कर्मचारियों के बच्चों की शिक्षा के लिए तो मदद की जा सकती है। जो भी व्यक्ति मदद लेगा वह देने वाले के प्रति ऋण-भाव रखेगा। आभार-भाव रखेगा। देने वाला हमेशा ऊपर ही रहता है। ईश्वर हमेशा हमें देता ही है। इसलिए हम उसके सामने नतमस्तक हैं। अगर वह देना बंद कर दे तो फिर उसे सेठ या सांवरिया सेठ कौन कहेगा ? उसे जगन्नाथ कौन कहेगा। वह जगन्नाथ इसलिए है कि वह 'नाथ' है - दाता है। जो स्वर्गलोक में रहते हैं उन्हें हम 'देवता' कहते हैं। देवता क्यों कहते हैं क्योंकि वे देते हैं। मेरे विचार से दुनियाँ में दो ही लोग होते हैं एक तो गरीब, दूसरा गरीबनवाज़ । या हम सब हैं या वह एक ऊपर वाला है। वह देता है इसलिए हम सबका भरण-पोषण हो रहा है। कोई यह कहे कि 'मैंने दिया-मैंने दिया'- कोई किसी को कुछ नहीं दे रहा, देने वाला केवल वह है। वह दे रहा है इसलिए हमें अन्न मिल रहा है, हमारा भरण-पोषण होता है, ख़ज़ाने भर रहे हैं। ऊपर वाला देता है इसलिए हमें भी आगे से आगे देते रहना चाहिए। मेरा एक मंदिर में जाना हुआ। वहाँ देखा कि लोग मंदिर के बाहर लड्डू बाँट रहे थे। वे लोग मंदिर में लड्डू चढ़ाने को लाए थे, मंदिर में चढ़ाने के बाद जो बच जाते वह प्रसाद रूप में बाँट रहे थे। मैंने देखा कि एक महिला आई, उसने भी लड्डू चढ़ाए, बचे हुए बाँटे, पर हाथ में दो लड्डू और रह गए थे। उसने सोचा एक लड्डू मैं खा लूँगी, एक अपने बच्चे को दे दूंगी। ऐसा सोचकर वह चलने को उद्यत हुई कि एक भिखारिन अपने दो-तीन बच्चों को लेकर उस महिला के पास आ जाती है और कहती है - माँ जी, हमें भी प्रसाद दो । महिला सोचती है एक लड्डू इनको दे दूँ तो मेरा लड्डू इन्हें चला जाएगा, दूसरा अपने बच्चे को दे दूंगी। उसने एक लड्ड भिखारिन के हाथ में रख दिया। साथ वाले १४० For Personal & Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बच्चों ने भी तुरंत हाथ बढ़ाया और कहा सेठानी, सेठानी, मालकिन हमें भी लड्डू दीजिए। वह सोचने लगी अब क्या करूँ, प्रसाद घर ले जाऊँ या...तभी बच्चों ने फिर आवाज़ लगाई - हमें भी प्रसाद दो। उस महिला ने डिब्बा खोला और जो बचा हुआ लड्डू था वह भी उनके हाथ में पकड़ा दिया। भिखारिन ने देखा कि डिब्बा खाली हो गया था सो महिला ने फेंक दिया । भिखारिन आगे बढ़ी, झट से डिब्बा उठाया और अपने हाथ का लड्डू उसमें रखकर डिब्बा वापस लौटा दिया और बोली बहन यह डिब्बा आप वापस ले जाओ । महिला ने नहीं-नहीं, अब मैंने तुम्हें दे दिया है तुम ही लोग खा लो। भिखारिन ने नहीं माताजी, ऐसा नहीं हो सकता। हमने आपसे जो लड्डू लिया है वह इसलिए नहीं कि हम माँगकर खाते हैं । हमने भी इसे प्रसाद भाव से ही ग्रहण किया था। यह कैसे हो सकता है कि हम तो भगवान का प्रसाद लें और आप वंचित रह जाएँ। इसलिए आप एक लड्डू घर ले जाइए। आप भी बाँटकर खा लेना और हम भी एक लड्डू चारों मिल-बाँटकर खा लेंगे। कहा कहा - — - भिखारियों के भीतर भी इस तरह के भाव होते हैं कि वे भी किसी को दें । मुझे तो लगता है भिखारी को भी अपने से ज्यादा जो दीन-दुःखी दिखते होंगे उन्हें वे ज़रूर ही कुछ- -न-कुछ देते होंगे। मैं तो मानता हूँ लोगों को देते ही रहना चाहिए। हमने वह पुराना गीत सुना है - तुम एक पैसा दोगे वह दस लाख देगा । एक बात तय है अगर हम लोग देंगे तो यही समझना कि हमारी ओर से कुछ भी देना ऐसा ही है जैसे उर्वरा जमीन पर बीजों को बोना । बीजों को बोएँगे तो सौ गुना फसलें लौटकर आएँगी। अगर हम कुछ नहीं देंगे तो पूर्व जन्म के कर्म यहीं घटकर हम खाली हाथ लौट जाएँगे। ईश्वर ने अगर हमें समर्थ बनाया है तो हमें असमर्थ की मदद ज़रूर करनी चाहिए। देने के लिए हम भूखे को भोजन, बीमार को दवा दे सकते हैं। अगर हमारे पास कोई हुनर है, किसी कला में निपुण हैं, किसी प्रकार की शिक्षा - ज्ञान अर्जित है तो यह भी हम दूसरों को दे सकते हैं कोई पशु वध के लिए ले जाया जा रहा है और हमारे प्रयत्न करने पर उसे जीवन-दान मिल सकता है तो ऐसा करने की पुण्य - भावना अपने हृदय में रखनी चाहिए और उस पशु को जीवन-दान दिलवाना चाहिए । एक समय था जब लोग दूसरों की सहायता करना सौभाग्य समझते थे। - For Personal & Private Use Only १४१ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अतिथि आए हुए का सम्मान करते थे । घरों के दरवाजे पर लिखा रहता था देवो भव' । समय बदला, लोग 'सुस्वागतम्' लिखने लगे और समय ने करवट ली 'वेलकम' लिखने लगे। और अब तो अमूमन हर बड़े बँगले और ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं के गेट पर बोर्ड टँगा होता है 'कुत्ते से सावधान' । इन घरों में जाओ तो स्वागत करने वाला घर का सदस्य नहीं मिलेगा । वहाँ मिलेगा एक चौकीदार जो प्रायः अभद्रता से ही पूछेगा - ऐ, क्यों आया, चल बाहर निकल, भाग यहाँ से । क्या मालूम बाहर कोई भगवान ही दूसरे रूप में आया हो। कोई सांई आया हो, कोई गुरु अपना दूसरा रूप धरकर आया हो । अब उन्हें वेलकम करने वाले, शुक्रिया अदा करने वाले लोग तो मिलते ही नहीं, मिलते हैं भौंकने वाले कुत्ते या डंडा दिखाने वाले चौकीदार । लिखा मिलता है 'कुत्ते से सावधान', पता नहीं वह कुत्ता कौन है ? स्थितियाँ ज़रूर बदल गई हैं, लेकिन अपनी ओर से फूल - पांखुरी ही सही देने की पुण्य भावना अवश्य रखनी चाहिए। अपनी ओर से दीन - दुःखियों की मदद ज़रूर करें। भले ही धन से न कर सकें, पर मानवीय सहयोग किसी भी में इन्सान एक दूसरे का कर सकता है, केवल करने का भाव अवश्य रहना चाहिए। अन्यथा आपके पास जो भी है व्यर्थ ही रहेगा । रूप एक भिखारी भीख माँगने के लिए राजपथ पर चल रहा था। सामने से राजा की सवारी आती हुई दिखाई दी । वह मन ही मन प्रसन्न हो गया कि आज तो राजा से कुछ अच्छा ही मिलेगा। लगता है आज घर से निकलते हुए कुछ अच्छा शगुन हो गया है कि राजा सा'ब खुद ही घोड़े पर चले आ रहे हैं। उनके सामने जाकर उन्हें प्रणाम करूँगा और अपना भिक्षापात्र फैलाकर कहूँगा हे महाराज ! हमारी झोली भरें, हमारी गरीबी दूर करें। इन भावों से भरा हुआ वह चला जा रहा था, मगर उसे ताज्जुब हुआ कि राजा का घोड़ा उसके सामने आकर रुका, राजा उस पर से उतरा और हाथ फैलाते हुए कहा - भाई मुझे कुछ दो । भिखारी ने सोचा - मैं तो इससे माँगने वाला था लेकिन यह तो मुझसे ही माँग रहा है। उसे गुस्सा तो बहुत आया, 'ना' भी नहीं कह सकता था क्योंकि सामने राजा खड़ा था । ना करने का परिणाम बुरा हो सकता था । उसके झोले में थोड़े से चावल पड़े थे, उसने हाथ डाला और बमुश्किल एक चुटकी चावल निकालकर राजा के हाथ में दे दिये । राजा ने धन्यवाद दिया और मुस्कुराकर चला गया । १४२ - For Personal & Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिखारी को बुरा तो बहुत लगा कि राजा भी कैसा था। खैर, वह गाँव भर में घूमा और भीख में कुछ चावल और इकट्ठे किए और साँझ पड़े घर लौट आया । घर पहुँचकर पत्नी से कहा - थोड़े से चावल हैं इन्हें ही साफ कर बीन लो और पका लो। पत्नी ने थाली में चावल जैसे ही बीनने के लिए डाले तो चकित रह गई क्योंकि उसमें एक चुटकी चावल के दाने सोने के थे। भागती हुई पति के पास गई और कहा - गलती से आपको किसी ने सोने के चावल दे दिये हैं। उसे याद आया कि ओह ! जो एक चुटकी चावल मैंने राजा को दान में दिये थे वही चावल सोने के बन गए। उसने पत्नी को पूरी कहानी सुनाई। पत्नी ने कहा - क्या ? राजा ने तुमसे माँगा वही चावल सोने के बन गए । अरे जाओ-जाओ और सारे चावल राजा को दे दो, ताकि बचे हुए चावल भी सोने के हो जाएँ। पति ने कहा - ऐसा कभी हुआ नहीं और कभी होगा नहीं कि राजा किसी भिखारी से कुछ माँगे। गाँव में जाने के बाद मैंने सुना है कि राजा को किसी ज्योतिषी ने सलाह दी थी कि तुम सुबह-सुबह राजमहल से निकल जाना और जो पहला भिखारी दिखाई दे उससे माँग लेना। अगर वह तुम्हें दे दे तो समझ लेना कि तुम्हारा काम हो जाएगा और अगर न दे तो समझना कि तुम्हारा . काम अटक जाएगा। राजा निकला, उसने पहली बार माँगा, पर मैं ही कँजूसी कर गया। जितना मैंने दिया वह दुगना, चौगुना, दस गुना होकर सोने के चावल के रूप में मेरे पास लौट आया। जितना देंगे, भगवान के घर से लौटकर तो ज़रूर आता है। तय है कि जो बबूल के बीज बोता है उसे बबूल के पेड़ मिलते हैं और जो आम के बीज बोता है उसे आम के फल मिलते हैं। हम जो बोएँगे वही लौटकर आएगा। भगवान महावीर ने धर्म का यह जो स्वरूप दिया है संत का और गृहस्थ का उस पर थोड़ी-सी चर्चा की है, थोड़ा-सा समझा है। पुनः एक बार फिर उनके अमृत वचनों का आनन्द लेंगे। और अपने जीवन को अधिक खुशहाल, अधिक पवित्र और अधिक धर्ममय बनाने का प्रयत्न करेंगे। सभी को अमृत प्रेम और नमस्कार । १४३ For Personal & Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंसान का सच्चा धर्म आज हम महापुरुषों के उस चिंतन पर अनुचिंतन करेंगे जिसके जरिए व्यक्ति का पारिवारिक, सामाजिक, मानवीय और आध्यात्मिक उत्थान होता है। साधारण भाषा में ज्ञानीजनों ने उसे 'धर्म' की संज्ञा दी है। धर्म शब्द का अर्थ है धारण करना । स्वयं को धारण करना भी धर्म है तो दूसरों के हितों को धारण करना भी धर्म है। जिससे स्वयं का और दूसरों का मंगल होता हो, उस तत्त्व को धारण करना धर्म है। जितने प्रतिशत व्यक्ति स्वयं का और दूसरे का हित धारण कर लेता है वह उतने प्रतिशत धर्म से जुड़ता जाता है। युगों पहले ज्ञानियों ने मानवता के कल्याण के लिए धर्म तत्त्व का आविष्कार और सृजन किया। ऐसा समझें कि ज्ञानीजनों ने धर्म का दीप जलाकर इन्सान के हाथों में हीरे का कंगन दे दिया अथवा पावों में घुघरू पहना दिए जिन्हें बाँधकर इन्सान अपने जीवन में सुख-शांति और आनन्द के संगीत का लुत्फ़ ले सके। हजारों वर्षों से धर्म मानवजाति के कल्याण के लिए अपना प्रकाश देता रहा है और आगे के युगों में भी वह अपने ज्ञान की रोशनी देता रहेगा। जैसे जीने के लिए भोजन की आवश्यकता होती है वैसे ही मनुष्य को जीवन जीने के लिए धर्म की आवश्यकता होती है। कोई भी व्यक्ति धर्म से अलग होकर जी ही नहीं सकता। धर्म से अलग होकर जीने का अर्थ है व्यक्ति अपने मूल स्वभाव से १४४ For Personal & Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 अलग होकर जीने का प्रयास कर रहा है, जबकि किसी भी तत्त्व को उसके स्वभाव से अलग नहीं किया जा सकता। जैसे पानी का धर्म है - शीतल होना, प्यासों की प्यास बुझाना। जैसे फूल का धर्म है खिलना, खुशबू देना । जैसे आग का धर्म है जलना - जलाना । क्या इनमें से कोई वस्तु अपने धर्म से अलग हो सकती है ? अगर ऐसा हो भी जाए तो वह परिस्थितिवश ही होगा अन्यथा वह वस्तु अपने मूल धर्म से अलग हो नहीं सकती। जिस तरह हर वस्तु का अपना स्वभाव होता है उसी तरह हर प्राणी का, हर इन्सान का अपना धर्म हुआ करता है । परिस्थितिवश कोई इन्सान क्रोध कर सकता है, पर कोई भी चौबीस घंटे क्रोध नहीं कर सकता । इन्सान निमित्तों का अभ्यस्त है । वह निमित्तों को पाकर किसी भी विषय के प्रति अनुराग कर सकता है लेकिन चौबीसों घंटे उसमें रत नहीं रह सकता। कोई भी चौबीस घंटे न तो दाम्पत्य जीवन का सेवन कर सकता है, न ही भोग- परिभोग कर सकता है, लेकिन बिना भोग - परिभोग के, बिना क्रोध - कषाय के व्यक्ति चौबीस घंटे रह सकता है । चौबीस घंटे व्यक्ति अपनी सहज शांति के साथ रह सकता है लेकिन क्रोध में चौबीस घंटे नहीं रह सकता। इसका अर्थ यह हुआ कि क्रोध इन्सान का मूल धर्म नहीं है, केवल परिस्थिति या निमित्त के कारण क्रोध पैदा होता है। बिना क्रोध के, बिना लोभ और मोह के रहा जा सकता है । निमित्त, परिस्थिति और वातावरण के चलते एक अतिरिक्त विधर्म हमारे भीतर प्रविष्ट हो जाता है, जबकि प्रेम, शांति, करुणा, आनन्द ये सब हमारे मूल धर्म हैं । धर्म का अर्थ होता है मर्यादा में जीना । भाई अपनी मर्यादा में रहे यह उसका धर्म है। पिता अपनी मर्यादा में रहे यह उसका धर्म है । पत्नी, पति, सास-ससुर, संसार में जितने भी रिश्ते हैं वे अपनी-अपनी मर्यादा में सीमित रहें, यही उनका पहला धर्म है। समाज को अराजकता से बचाने के लिए धर्मशास्त्रों ने, मानव जाति के कल्याण के लिए जो-जो मर्यादाएँ निर्धारित की हैं उनमें सीमित रहना ही धर्म है । जैसे प्रकृति के हर तत्त्व के साथ मर्यादा देखी जा सकती है, सागर अपनी मर्यादा में रहता है, चाँद अपनी मर्यादा में रहता है, सूर्य अपनी मर्यादा में रहता है। अगर सूर्य धरती पर उतर आए तो धरती का अस्तित्व ही न रहेगा, लेकिन हर चीज़ अपनी मर्यादा में रहती है। इसलिए हमें भी अपनी --- For Personal & Private Use Only १४५ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मर्यादा में रहना चाहिए । यही हमारा पहला धर्म है। अगर हम अपनी लक्ष्मणरेखा को छोड़कर बाहर निकलते हैं तो वे स्त्री हो या पुरुष समाज में भी कलंकित होंगे, स्वयं की नज़रों से भी गिरेंगे और आध्यात्मिक दृष्टि से भी उनका पतन होगा। इसलिए वस्तुस्थिति या परिस्थिति जो भी हो हम अपनी मर्यादा में रहें। भारतीय संस्कृति का एक महान शास्त्र है : रामायण जो हमें बताती है कि प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक सम्बन्ध की क्या मर्यादा हो सकती है। रामायण मर्यादा का शास्त्र है। हम जब भी इसे पढ़ेंगे हमें इस बात की प्रेरणा मिलेगी कि हमें जीवन में सम्बन्धों को किस तरह जीना चाहिए। जैसे एक पति ने अपनी पत्नी को वचन दे दिया है स्नेहवश, यह अलग बात है कि पत्नी ने उस वचन का दुरुपयोग किया। और दुरुपयोग के कारण उसे जीवन भर पछताना पड़ा, पति से हाथ धोना पड़ा, बच्चों के प्यार से वंचित हो गई। किसी भी चीज़ का दुरुपयोग करना सूक्ष्म हत्या है। पिता अपने वचनों की रक्षा के लिए बच्चों को वनवास दे देता है और पुत्र की मर्यादा यह हुई कि उसके पिता ने किसी को वचन दिया है तो वह वचन की आन रखे। पत्नी पति के साथ वनवास झेलने जा रही है यह पत्नी की मर्यादा हुई। पति और पत्नी जो चौदह वर्ष वनवास के लिए जा रहे हैं उन्हें पता चल गया कि अब उन्हें संत का जीवन जीना है, तब वे निर्णय लेते हैं कि वनवासी जीवन में शीलव्रत का पालन करेंगे, यह दाम्पत्य की मर्यादा हुई। भाई भाई के लिए जा रहा है यह भ्रातृप्रेम की मर्यादा हुई। पीछे रहने वाले भाई की पत्नियाँ और वन के लिए चले गए भाई की पत्नी सासुओं की सेवा सँभाल रही हैं यह उनकी मर्यादा हो गई। एक भाई राज्य में रहकर राजमहलों में सुख भोगने के बज़ाय बड़े भाई की तरह ही वनवासी जीवन व्यतीत कर रहा है यह उसकी मर्यादा हो गई और बड़े भाई की चरण-पादुकाओं को राजसिंहासन पर रखकर राज्य संचालन कर रहा है यह उसकी मर्यादा हुई। __मेरी दृष्टि में धर्म अपनी-अपनी मर्यादा का सम्मान करना है, अहिंसा, शांति, इन्सानियत, नैतिक दायित्व निभाना - यही धर्म है। अमर्यादा का नाम ही अधर्म है और अधर्म ही पाप है। मर्यादा ही धर्म है और धर्म स्वयं पुण्य है। धर्म इन्सान के लिए शरण है, गति है, प्रतिष्ठा है, द्वीप है, डूबते के लिए सहारा १४६ For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। मैं अपने धर्म को समझता हूँ, आपको अपने धर्म को समझना चाहिए और हमें अपने-अपने धर्म का सम्मान करना चाहिए। धर्म की बात करते हुए दूसरी बात यह कहना चाहता हूँ कि जितना भी धर्म करें वह शुद्धता और पूर्णता के साथ होना चाहिए। कितना और कितनी देर तक धर्म किया यह महत्त्वपूर्ण नहीं है, महत्त्वपूर्ण यह है कि जितनी देर तक भी किया पूर्णता और शुद्धता के साथ किया। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि व्यक्ति ने दिन भर में कितनी मालाएँ जपीं, फ़र्क इससे पड़ता है कि उसने जितनी मालाएँ जपी वह कितने मन से तथा शुद्धता और पूर्णता के साथ जपीं। क्या फ़र्क पड़ता है चार की बजाय आठ माला जप लो या चार की बजाय दो माला जप लो । धर्म चाहे थोड़ा-सा हो, पर पूर्ण हो। जैसे व्यक्ति अगर विटामिन की गोली खाएगा तो उसे दिन भर विटामिन की गोली खाने की ज़रूरत नहीं है। धर्म विटामिन की गोली है, उसे पूरी लो। एक दिन में चौबीस घंटे होते हैं। इनमें से अगर हम एक घंटा भी शुद्धता और पूर्णता के साथ धर्म कर लेते हैं तो उसका प्रभाव पूरे तेईस घंटे बना रहेगा। उचटे मन से किया गया धर्म भी असफलता का आधार बन जाता है। हम छोटा-सा मंत्र बोलते हैं लेकिन उसे भी शुद्धता के साथ बोला जाए तो वह देवलोक में रहने वाले देवताओं को भी आकर्षित करने में समर्थ होता है। इन की दस-पंद्रह बूंदें भी एक मन तेल को सुगंधित करने में समर्थ होती हैं बशर्ते वह शुद्ध हो, पूर्ण हो। अगरबत्ती चार ही जलाई जाती हैं, लेकिन चार ही पूरे कमरे को सुगंधित कर देती हैं। इसलिए जब भी हम क्रियामूलक धर्म करने को आसीन हों, आचरणमूलक जब भी धर्म करें तो उसमें यह होश और बोध रहे कि जितनी देर भी करें शुद्धता और पूर्णता हो। हमें यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि धर्म करने की कोई उम्र नहीं होती। व्यक्ति जब भी चाहे धर्म की शुरुआत कर सकता है। जागे तभी सवेरा । वह जब चाहे धर्म शुरू कर दे। बचपन में भी व्यक्ति धार्मिक हो सकता है, जवानी में भी धार्मिक हो सकता है और बढापे में भी धार्मिक हो सकता है। लेकिन कोई यह सोचे कि वह बुढ़ापे में ही धर्म करेगा तो उसे याद रखना चाहिए कि बुढ़ापे में धर्म की उम्मीद कम होती है, मोह-माया की उम्मीद बढ़ जाती है। १४७ For Personal & Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसे कोई किसी को गोद लेना चाहे तो बच्चे को ही लेगा बूढ़े को नहीं, ऐसे ही धर्म बूढ़े को गोद कैसे ले सकता है। धर्म भी यही चाहता है कि वह भी ऐसे ही किसी को गोद ले जो बचपन से ही या युवावस्था से ही ऐसे संस्कार जिए कि उसका बुढ़ापा सुखमय हो । बचपन अगर संस्कारशील है तो जवानी और बुढ़ापा दोनों ही उत्तम जीवन के आधार बनते हैं। लेकिन बचपन और जवानी ही दूषित रहे तो बुढ़ापा मंगलमय हो जाए इसकी संभावना कम है। शेष तो कभी भी शुभ हो सकता है। बुढ़ापे में भी लोग अच्छे रास्ते पर निकल पड़ते हैं। लेकिन हर आदमी यही सोचे कि बुढ़ापे में ही धर्म करूँगा और उसके परिणाम मिल जाएँगे तो ध्यान रखें कि बूढ़े को नहीं बच्चे को ही गोद लिया जाता है। बूढ़े धर्म की दहलीज पर आ ज़रूर सकते हैं। इतना अवश्य है कि वे क्रियामूलक धर्म तो कर ही नहीं पाएँगे। जहाँ तक विचारमूलक धर्म है बुढ़ापे में तो मोह-माया इतनी अधिक जग जाती है कि व्यक्ति के विचार निर्मोही बन ही नहीं पाते । रह-रहकर पत्नी, पोते-पोतियाँ, जमीन-जायदाद ये सब उसका पीछा करते रहते हैं। फिर बुढ़ापे में धर्म कैसे हो पाएगा ? रिटायर्ड लोगों से रिटायर धर्म ही होगा। ऊर्जावान धर्म को जीने के लिए खुद ऊर्जावान होना ज़रूरी है। हम सभी जानते हैं दुनिया में जो भी महान संत हुए हैं वे कम उम्र में ही संन्यासी हो गए। बचपन से ही उनकी नींव बन गई, उनकी ज्ञान-गंगा को ऐसी धारा मिल गई कि वह जवानी तक पहुँचते-पहुँचते महान शंकराचार्य बन गया या आचार्य बन गया या बहुत अच्छा प्रवक्ता बन गया, लेखक या दार्शनिक बन गया। बचपन में ही कोई धार्मिक संस्कार या धर्म की शरण में आता है तो जवानी और बुढ़ापा अधिक सुखमय होने की आशा है। सुखमय से तात्पर्य है - हम पाप नहीं करेंगे, अनैतिक नहीं होंगे, नैतिकता को जीवन के साथ जोड़कर रखेंगे, मर्यादाओं का सम्मान करेंगे, प्रेम को जीवन का आधार बनाएँगे । ऐसी स्थिति में जवानी और बुढ़ापा मर्यादा में रहने के कारण सुखमय होगा। बचपन और जवानी अगर दोनों ही गलत रास्तों पर चले गए तो बुढ़ापे में बीते हुए जीवन के लिए पछतावे के अलावा कुछ न होगा। वह भगवान से अपने कर्मों के लिए माफ़ी ही माँगता रहेगा। धर्म हमें प्रेरणा देता है कि हम खाते-पीते, उठते-बैठते, सोते-जागते १४८ For Personal & Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा का सम्मान करें। हमारे द्वारा सत्य का समर्थन हो । हमारे द्वारा चोरी कर्म न हो जाए। हम अनावश्यक परिग्रह न करें। हमसे दुःशील, गलत आचरण न हो जाए। धर्म के विचारमूलक और जीवनमूलक जो आचरण होते हैं उन्हें जीवन से जोड़े रखने का हमें विवेक और बोध रखना चाहिए । धर्म का फल ऐसा न समझें कि धर्म करने से अगले जन्म में फल मिलेगा। धर्म हमें इसी जन्म में फल देता है। धर्म करने से इस जन्म में स्वर्ग और न करने से अगले जन्म में नर्क नहीं मिला करता । वास्तव में स्वर्ग-नरक की व्यवस्था व्यक्ति को पापों से बचने और पुण्य पथ पर अनुसरण करने के लिए बनाई गई है। फिर भी अगर स्वर्ग-नरक की कोई भौगोलिक स्थिति होगी तो होगी। जिसने अभी तक पाताल के नरक और आकाश के स्वर्ग को नहीं देखा वह तो यही कहेगा कि हम अपनी ही धरती पर स्वर्ग और नरक दोनों ही देखते हैं। बहुत से अमीर ऐसे हैं जिनके पास पैसा तो बहुत है लेकिन लकवे से ग्रस्त हैं, अपने धन का उपयोग नहीं कर पाते, उठ भी नहीं पाते ढंग से । घर में खूब सम्पन्नता है लेकिन डॉक्टर का कहना है यह मत खाओ, वह मत खाओ, सूखी रोटी और सब्जी भी एक चम्मच तेल में बनाना है। तो स्वर्ग और नरक यहीं हैं। हम नहीं समझ पाते हैं कहाँ स्वर्ग है और कहाँ नरक है। चार बेटे हैं और उनमें से कोई भी माता-पिता की सेवा नहीं कर रहा है तो यह क्या है ? इसे हम स्वर्ग कहेंगे या नरक ? बच्चे माँ-बाप के सामने चाहे जैसे बोल देते हैं, यह स्वर्ग है या नरक ? हमने ऐसे पुण्य नहीं किये कि बच्चे हमारा सम्मान करें, हमारी मान-मर्यादा रखें । यही तो व्यक्ति का पाप है, नरक है कि हमारे अपने ही बच्चे, हमारा अपना ही खून हमारी अवज्ञा करता है, हमारे विरुद्ध खड़ा हो जाता है, बगावत कर देते हैं। जीवन से जुड़ा हुआ धर्म होना चाहिए, वर्तमान से जुड़ा हुआ धर्म हो। धर्म यही है कि क्रोध करोगे तो अशांति मिलेगी और यही नरक है। क्रोध किया अर्थात् गलत रास्ता अपनाया तो इससे अशांति, तनाव मिलना ही नरक है । ऐसा नहीं है कि क्रोध तो आज करेंगे और परिणाम अगले जन्म में मिलेगा। तब व्यक्ति को लगता है फल तो अगले जन्म में मिलेगा अभी तो चाहे जो करो। परिणाम तत्काल मिलता है। जो भी गलत या सही हम करेंगे उसका परिणाम शीघ्र सामने आ जाता है। कोई दुर्व्यसन किया, शराब पी, उससे शरीर में १४९ For Personal & Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नुकसान हुआ, आँतें गलीं तब व्यक्ति को अपने शरीर के साथ ही नरक भोगना पड़ गया। किसी जीव की हत्या की तो परिणाम भी इसी जन्म में मिल जाएगा कि किसी दिन तुम सड़क पर चल रहे थे कि किसी ने टक्कर मार दी, तुम गिर पड़े, दो-चार हड्डियाँ टूट गईं। तुम्हें फल मिल गया। आज तुमने किसी का वध किया, कल कोई और तुम्हारा वध करेगा। आज तुमने किसी को गाली दी, कल कोई और तुम्हें गाली देगा। आज तुमने किसी का अंग-छेद किया, कल कोई और तुम्हारा अंगछेद करेगा। स्वर्ग-नरक, पाप-पुण्य, इनके फल हमारे साथ ही हैं। प्रकृति लौटाती है। जैसा करोगे, प्रकृति वापस वैसा ही लौटाएगी । तुम्हारा हर कृत्य एक बीज है। बीज एक बोते हो, पर फल उससे कई निकलते हैं । कृत्य करते समय सावधानी बरतो, नहीं तो बाद में फलों को काटते या भोगते हुए कष्ट का सामना करना पड़ेगा । संत तिरुवल्लुवर ने एक उदाहरण दिया है। किसी ने उनसे पूर्व जन्म के कर्मों का परिणाम पूछा तो उन्होंने सामने से जाती हुई डोली को देखकर कहा - यही है पूर्व जन्म के कर्मों का परिणाम कि डोली को चार व्यक्ति उठाकर ले जा रहे हैं और उस डोली में एक व्यक्ति आराम से बैठा है । यह अधर्म का फल है कि चार व्यक्तियों को कहार बनकर भार ढोना पड़ रहा है और एक व्यक्ति मालिक बना हुआ आनन्द ले रहा है। इसलिए कि उसने पूर्व जन्म में अच्छे कर्म किए थे। धर्म का यह मानना है कि व्यक्ति का इस जनम के साथ भी संबंध है और पूर्व जन्म के साथ भी सम्बन्ध है । इस जन्म के अच्छे और बुरे फल भी उसे मिलते हैं और पूर्व जन्म के अच्छे और बुरे फल भी उसे मिलते हैं। ध्यान रहे कुछ कर्मों का फल अगले जनम तक जुड़ा रहता है । जैसे व्यवसाय में धन लगाया तो उसका परिणाम जल्दी मिल जाता है लेकिन बैंक में फिक्स डिपॉजिट कर देने पर जितने समय की एफ. डी. की है उतने समय बाद परिणाम मिलता है। कर्म किस तरह के होते हैं यह सब उसकी गहराई पर निर्भर करता है। हमें यह सोचने की बजाय कि हमारे कर्मों का परिणाम अगले जन्म में मिलेगा यह सोचना चाहिए कि इसी जन्म में हमारे कर्मों का परिणाम मिल जाएगा ताकि हम कर्म को करते समय सावधानी रखें। हमसे हर कर्म कम-सेकम गलत हो । हमारे द्वारा नैतिकता, मर्यादा का सम्मान हो । गलत काम, गलत १५० For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचरण, गलत चिंतन हमारे द्वारा न हो। गांधीजी के तीन बंदर - बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो - यही संदेश देते हैं कि हमें गलत कर्म नहीं करना चाहिए। अगर हम गलत करेंगे तो हमारा आभामंडल ख़राब होगा, हमारे मन के विचार ख़राब होंगे, मन के विचार ख़राब हुए तो वाणी भी ख़राब होगी। अगर ग़लत वाणी का उपयोग करेंगे तो लोगों के साथ हमारे संबंध कट जायेंगे, लोग हमें पसंद नहीं करेंगे, वे हमसे दूर रहेंगे। इस तरह ग़लत वाणी हमें तुरंत परिणाम दे रही है। ग़लत कर्म करने से हमारी आत्मा गिरेगी, मन दूषित होगा, समाज में प्रतिष्ठा फीकी पड़ेगी। इस तरह ग़लत वाणी, ग़लत आचरण या ग़लत चिंतन तुरंत परिणामकारी होगा। आत्मा और मन की, जीवन और आचरण की यही तो शुद्धि है कि हम अपनी वाणी, चिंतन, कार्य और व्यवहार को निर्मल बनाएँ । मानवीय स्वभाव के कारण इसमें कोई दोष लग जाए, अथवा कोई गलती हो जाए तो क्षमाप्रार्थना कर लें। हर शाम को हमें यह प्रतिक्रमण या प्रायश्चित्त कर लेना चाहिए कि हे प्रभु ! दिन भर में मेरे द्वारा किसी भी प्रकार का ग़लत चिंतन हुआ हो, ग़लत वाणी बोली हो, ग़लत व्यवहार या कर्म हुआ हो, उसके लिए मैं सरल हृदय से क्षमा-प्रार्थना करता हूँ। हमें हर दिन ग़लत की क्षमा माँग लेनी चाहिए। धर्म वर्तमान से जुड़ा हुआ है, ऐसा हमें सोचना चाहिए, ऐसा ही स्वीकार करना चाहिए । तदुपरान्त भी जीवन में कुछ परिणाम मिले हैं या नहीं मिल पाए हैं तो प्रारब्ध और पूर्व जन्म के कर्म, उन कर्मों के अनुबंध ऐसे रहे कि आपकी चाहत पूर्ण नहीं हो पाती। व्यक्ति परिश्रम और पुरुषार्थ करता है लेकिन ज़रूरी नहीं है कि हर परिश्रम का परिणाम मिले ही। संभव है किसी परिश्रम का परिणाम आने में पचास वर्ष लग जाएँ। अगर अब्दुल कलाम देश के राष्ट्रपति बने तो सत्तर वर्ष की ज़िदंगी बिताने के बाद ही राष्ट्रपति बन सके। लिंकन अमेरिका के राष्ट्रपति बने तो कितनी ही बार अवरोध आए, उनके पुण्य इतने प्रबल नहीं थे कि पहले चुनाव में ही राष्ट्रपति बन सके । लेकिन सतत प्रयास से और आखिर प्रबल पुण्योदय से राष्ट्रपति बनने में सफल हो सके । यह तय है कि इन्सान जो बनना चाहता है बनता ही है। किस्मत उसी को परिणाम देती है जो किस्मत से अपने परिणाम पाना चाहता है। फ़र्क इतना ही पड़ता है कि किस्मत For Personal & Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पॉज़िटिव है तो परिणाम जल्दी मिल जाता है और किस्मत निगेटिव हो तो परिणाम देर से ही सही, मिलता ज़रूर है। अब्राहम लिंकन जिन्होंने इक्कीस वर्ष की आयु में पार्षद का पहला चुनाव लड़ा था लेकिन हार गए । वे हारते चले गए लेकिन वही व्यक्ति बावन वर्ष की उम्र में अमेरिका का राष्ट्रपति बन गया । किस्मत ने उन्हें परिणाम दिये, पर पहले चरण में नहीं। दुनिया में हर किसी को पहले चरण में परिणाम मिल जाए यह ज़रूरी नहीं है। हमें भी यही स्वीकार करना चाहिए कि धर्म के कुछ परिणाम वर्तमान में मिल जाते हैं। कुछ परिणाम भविष्य में मिलते हैं। आओ, हम स्वयं भी धर्म के रास्ते पर चलें और हमसे जुड़ा हुआ व्यक्ति भी हमारा कर्म, हमारी वाणी को सुनकर, हमारे कार्यकलापों को देखकर प्रेरणा ले सके । व्यक्ति अगर मंदिर जा रहा है तो हम प्रेरित हो सकते हैं लेकिन मंदिर के अतिरिक्त उसका जीवन विपरीत दिशा में चल रहा हो तो हम प्रेरणा न पा सकेंगे और न ही उससे प्रभावित हो पाएँगे । व्यक्ति का चौबीस घंटे का जीवन यदि धर्मनिष्ठ, श्रद्धामय, अहिंसामूलक, संयमी, नैतिक जीवन है तो उसका दूसरों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। हमें ऐसा ही जीवन जीना चाहिए जिससे परिवार वालों पर भी अच्छा प्रभाव पड़े। लेकिन होता यह है कि पिता अपेक्षा रखता है कि पुत्र उसके सामने सच बोले और कई दफ़ा पिता ही बच्चों के सामने झूठा साबित हो जाता है। ऐसी स्थिति में बच्चे सोचते हैं कि पापा खुद तो झूठ बोलते हैं और हमसे कहते हैं सच बोलो। दूसरी ओर अगर पिताजी सत्य को जीने वाले व्यक्ति होंगे तो एक-न-एक दिन बच्चे पर अपने पिता के सत्य वचनों का प्रभाव ज़रूर पड़ेगा। पिता को चाहिए कि वह अपने बच्चे को अच्छे रास्ते पर लेकर चले । धर्म का भी यही मतलब है- एक अच्छा रास्ता। धार्मिक जीवन का अर्थ है श्रेष्ठ जीवन, बेहतर मानवीय जीवन । हम राम, महावीर या कृष्ण की तुलना में खड़े नहीं हो सकते तो कोई बात नहीं, पर एक बेहतर इन्सान तो बन ही सकते हैं। नारियाँ भले ही सीता के आदर्श न जी पाएँ लेकिन एक सन्नारी तो बन ही सकती हैं। अगर कोई सोचे कि वह महावीर या बुद्ध बन जाए तो नहीं बन सकता क्योंकि कुछ सीमाएँ हैं, कुछ व्यवस्थाएँ हैं, नियति है, प्रारब्ध है लेकिन एक अच्छा इन्सान तो बन ही सकता है, अच्छा व्यक्ति तो बना ही जा सकता है, यह तो अपने ही हाथ में है तो हमें १५२ For Personal & Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसा बनने का प्रयत्न करना चाहिए । धार्मिक बनने का मतलब यह नहीं है कि महावीर ही बना जाए। धार्मिक होने का मतलब है श्रेष्ठ, भला, नेक, सौम्य, प्रेम और क्षमा से भरा हुआ जीवन जीना । एक युवक सच्चे धर्म की तलाश में निकला । वह सबसे पहले हिन्दू संतों के पांडाल में गया। संतों ने उसका स्वागत किया। युवक ने पूछा - आप क्या बनाते हैं ? संतों ने कहा - हम तुम्हें एक अच्छा हिन्दू बनायेंगे। युवक पता नहीं क्यों, संतुष्ट न हुआ। वह अगले पांडाल में गया। वहाँ पादरी अपना प्रवचन दे रहे थे। वे कहने लगे - हम तुम्हें एक अच्छा ईसाई बनाएँगे। वह वहाँ से भी निकल पड़ा। अगले पांडाल में मौलवी जी उपदेश दे रहे थे। कहने लगे - खुदा की कसम ! हम तुम्हें एक सच्चा मुसलमान बनाएँगे । वह युवक इस तरह कई जगहों पर गया ! आखिर वह हमारे पास भी आया। उसने कहा - अमुक पांडाल में अच्छा हिन्दू बनाते हैं तो अमुक पांडाल में अच्छा मुसलमान । आप क्या बनाते हैं। मैंने कहा - एक अच्छा इन्सान । आओ, हम तुम्हें एक अच्छा इंसान बनना सिखाते हैं। पता नहीं क्यों, उस युवक के दिल में बात उतर गई। वह पांडाल में आकर बैठ गया। हम आपको स्वर्ग देते हैं। स्वर्ग तो और संत भी देते हैं, पर उनमें और हममें फ़र्क यही है कि वे तुम्हें आसमान में बना स्वर्ग देते हैं जिसे उन्होंने खुद ने भी नहीं देखा और हम तुम्हें इसी जीवन को स्वर्ग बनाने का अनुभव देते हैं। अब यह तुम सोचो कि तुम्हें मृत्यु के बाद वाला स्वर्ग चाहिए या जीते-जी मिलने वाला स्वर्ग। धर्म का सम्बन्ध वर्तमान से है। वर्तमान ही शक्तिमान है। सत्संग भी वही सार्थक है जिसका परिणाम वर्तमान में मिले। कुछ दिन पहले की बात है। एक दफा मैं सत्संग करके व्यासपीठ से नीचे उतर रहा था, उसकी ऊँचाई इतनी अधिक थी कि मैंने एक आदमी का हाथ पकड़ लिया ताकि आराम से नीचे उतर सकूँ। उतरकर मैं तो सहज रूप में आगे चला गया। लेकिन दोपहर में वह व्यक्ति आया और कहने लगा – महाराजश्री ! मुझे नियम दिला दीजिए कि भविष्य में मैं तम्बाकू, गुटखा, जर्दा या व्यसन का उपयोग न करूँ। मैंने कहा - यह तो अच्छी बात है, तुम्हें किससे प्रेरणा मिली। उन्होंने झट से कहा - क्या बताऊँ किससे प्रेरणा मिली। हकीकत यह है कि १५३ For Personal & Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्त आज आप ही बने। मैंने पूछा - मैं कैसे निमित्त बन गया। आज तो सत्संग में भी इस तरह की कोई बात नहीं की, और न ऐसी कोई प्रेरणा भी दी, फिर मैं कैसे निमित्त बन गया। वह कहने लगा - हुआ ऐसा कि जब मैं घर पहुंचा तो मेरी माँ और पत्नी ने मुझसे कहा कि आज तो तुम धन्य हो गए कि गुरुजी ने तुम्हारा हाथ थाम लिया। तो दस-पन्द्रह मिनिट बाद जैसे ही मुझे गुटखा खाने की तलब उठी, मेरी माँ और पत्नी मेरे पास आई और कहने लगीं - अब तुम्हें इन हाथों से गुटखा, तम्बाकू, सिगरेट का उपयोग नहीं करना चाहिए। मैंने पूछा - क्यों नहीं करना चाहिए, मैं तो रोज पीता हूँ। कहने लगीं - जिस हाथ को गुरुजी ने थाम लिया है अब उन हाथों में अगर सिगरेट आती है तो यह तुम्हारे हाथों का नहीं उन हाथों का अपमान होगा जिन्होंने तुम्हारे हाथों को थामा है। तो प्रभु इसीलिए मैं आपके पास नियम लेने के लिए आया हूँ। उनकी बातें सुनकर मैं भी आह्लादित हुआ कि मैंने तो यूँ ही किसी का हाथ थामा था लेकिन उनके जीवन में अच्छा सुकून आने का संयोग था और माँ ने इसे पॉज़िटिव अर्थों में लिया, बेटे के लिए प्रेरणा का पैगाम बना दिया और व्यक्ति का जीवन बदल गया। मैं भी गद्गद हो गया। इस तरह तो सभी को खुशी मिलेगी। यह परिवर्तन कहलाएगा। इसे ही जीवन में धर्म का प्रभाव कहेंगे। धर्म तो वही है जो हमारे जीवन के साथ जुड़े। अन्यथा धर्म पर चाहे जितने प्रवचन हो जाएँ, कितनी ही किताबें अपने घर में सजा लें लेकिन बोलने और सुनने मात्र से तो व्यक्ति धार्मिक हो नहीं जाता। अपनी ही बात करता हूँ यह जरूरी नहीं है कि मैं जितना बोल रहा हूँ उसे १००% जी चुका हूँ। अगर मैं कुछ बोलता हूँ तो जान लें कि उसको जीने का प्रयत्न कर रहा हूँ, जीवन के साथ जोड़ने का प्रयास कर रहा हूँ और उसी रास्ते पर चल रहा हूँ और आप भी उसी रास्ते पर चलें यही कहने का उद्देश्य है। दुनिया में जितने संत ज्ञान की बात करते हैं, १००% तो उसे जीते नहीं हैं। हाँ, जीने का प्रयत्न सभी लोग करते हैं। शेष तो व्यक्ति की नियति है, प्रारब्ध है कि वह चाहता तो है कि जिए, पर जी नहीं पाता। गुरु द्रोण से युधिष्ठिर और दुर्योधन दोनों ने एक जैसी ही शिक्षा प्राप्त की थी लेकिन फ़र्क यह रहा कि एक व्यक्ति उस धर्म को जी गया और दूसरा जीवन १५४ For Personal & Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 - भर नहीं जी पाया । यह युधिष्ठिर के पुण्य का उदय था कि वह जी गया और यह दुर्योधन के पाप का उदय था कि वह जी न पाया जबकि दोनों एक ही खानदान के व्यक्ति थे । 'क' से कृष्ण और 'क' से ही कंस होता है, 'र' से ही राम और रावण होता है, 'भ' से भारत और भ्रष्टाचार दोनों होते हैं राशि दोनों में एक ही है, पर परिणाम जुदा-जुदा हो जाते हैं। हमें अपनी ओर से यह जागरूकता रखनी चाहिए, यह सजगता बरतनी चाहिए कि हम अपने जीवन में जितना अधिक मर्यादाओं को सम्मान दे सकते हैं देने का प्रयत्न करें और जीवन में नैतिकता का सम्मान करते हुए नैतिकता के पथ पर चलते रहना चाहिए। नैतिक व्यक्ति की आत्मा सदा प्रसन्न होती है, संतोष बना रहता है और जो जीवन उसने जिया है उस पर वह गौरव कर सकता है । तब उसे बुढ़ापे में रोना नहीं पड़ेगा । जिसने अनैतिकता को प्रश्रय दिया है वही जीवन में आने वाले दुःखों को देखकर विचलित होता है और आँसू बहाता है । परीक्षा आने पर वही बच्चा टेंशन में आता है जिसने साल भर पढ़ाई नहीं की । इन्कम टैक्स वालों की रेड पड़ने पर वही व्यक्ति घबराता है जिसने कर नहीं चुकाया है। मेरे विचार से मृत्यु I आने पर वही व्यक्ति रोता है जिसने जीवन में किसी तरह का धर्म-कर्म नहीं किया है। नैतिक जीवन जीने वाला व्यक्ति तो खुद ही एक चलता-फिरता मंदिर होता है। अहिंसक, सत्यव्रती, अचौर्यव्रत का पालन करने वाले, सीमित परिग्रह में जो अपना जीवन चला रहा है, वह मंदिर में जाए तो ठीक और न भी जाए तो भी ठीक है। एक पापी व्यक्ति मंदिर में जाता है तो उसके पाप कटेंगे और पुण्यात्मा मंदिर जाता है तो उसके पुण्य में बढ़ोतरी ज़रूर होगी, पर अगर वह मंदिर नहीं भी जाता है तब भी कोई पुण्य कम न हो जाएँगे । पापी व्यक्ति को अगर मंदिर जाने में सुकून मिलता है तो ऐसे नैतिक और सत्यनिष्ठ व्यक्ति को कोई देखेगा तो उसके मन को भी मंदिर जाने जैसा सुकून मिलेगा । इसीलिए तो धर्मशास्त्रों में संतों को चलता-फिरता तीर्थ कहा गया है। कपड़े बदलने से ही कोई संत नहीं हो जाता। संत का अर्थ स्वभाव से संत होना है, शांत होना है । जो सज्जन हो गया, जो भलाई करता है, सबसे प्रेम रखता है, सहनशील है, समदर्शी है वही संत है। ऐसा संत आदमी चलता-फिरता तीर्थ है। तभी तो माना जाता है कि For Personal & Private Use Only www.jainel 144.org Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संत अगर किसी घर में जाता है तो उसके सौभाग्य उदय हो गए, तक़दीर खुल गई कि आज संत-महाराज घर आए, उन्होंने आहार लिया । ऐसा क्यों माना जाता है ? क्योंकि संत तो चलता-फिरता तीर्थ है, ऐसा तीर्थ खुद चलकर तुम्हारे घर आ गया। अन्य तीर्थों पर तो हमें चलकर जाना पड़ता है लेकिन संत ! खुद एक तीर्थ है जो चलकर हमारे घर आ गया। अगर संत घर पर आएगा तो लगेगा कि हमारे जीवन को सुकून मिला, हमारा जीवन, मकान, घर-आँगन धन्य हुआ कि आज हमारी इस गृहस्थी में कोई संत आए और उन्होंने यह धर्मलाभ दिया। अगर कोई व्यक्ति धार्मिक स्थान पर अपनी सेवाएं दे रहा है तो वह भी किसी-न-किसी अंश में धर्म कर रहा है। धर्म तो यज्ञ की तरह है उसमें हम सभी को आहुतियाँ देनी पड़ती हैं। आहुतियों से ही तो धर्म का यज्ञ पूरा होगा । हम सभी का जीवन तो बीत रहा है। जितना जीवन सार्थक हो जाता है उतने दिन और रात भी सार्थक हो रहे हैं । गया हुआ जीवन तो लौटकर आएगा नहीं, लेकिन जो बचा है उसकी कोई गारण्टी नहीं है कि वह कितना होगा। इस बात का तो पता नहीं है कि समय कितने वर्ष तक जीवन देगा। इसलिए जो बीत गया उससे भी प्रेरणा लें कि अभी तक क्या कर पाए, उनका क्या परिणाम मिला, बीते हुए जीवन से संतुष्ट हैं या नहीं। या उससे कुछ प्रेरणा मिल सकती है कि भावी जीवन या वर्तमान जीवन को बनाने की फिर से कोशिश कर सकें। मेरे पिताजी ने पचास वर्ष की आयु में संन्यास लिया था, मैंने पन्द्रहसोलह वर्ष की आयु में संन्यास लिया और मेरा छोटा भाई ग्यारह-बारह वर्ष की उम्र में ही संन्यस्त हो गया था – जागे तभी सवेरा। कोई नचिकेता, अतिमुक्त, प्रह्लाद या कोई ध्रुव छोटी उम्र में ही तैयार हो गए तो कोई तुलसीदास, वाल्मीकि, अंगुलीमाल जवानी में बदले, कोई बुढ़ापे में अपनी जिंदगी को बदलने में सफल हुए । जैनों के एक आचार्य हुए हैं कलापूर्णसूरिजी, उन्होंने बुढ़ापे में संन्यास लिया था और पूरे देश में अपने तप, त्याग, आचरण और मर्यादाओं से आम जन को खूब प्रभावित भी किया। वे खूब जपे-तपे । कुछ ऐसे लोग भी हुए जो बुढ़ापे में संन्यस्त होकर भी अपने बुढ़ापे को धन्य कर लेते हैं। पर इसका यह अर्थ नहीं है कि हर व्यक्ति बुढ़ापे में अपने को १५६ For Personal & Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धन्य कर ही लेगा। कुछ ही लोग होते हैं जो बुढ़ापे को धन्य कर पाते हैं और अपने सारे पापों को धो जाते हैं। हर व्यक्ति के लिए ऐसी उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। हमें स्वीकार करना चाहिए कि जिसने भी मनुष्य के रूप में जन्म लिया है उसमें कुछ-न-कुछ कमी अवश्य होती है। कोई भी दूध का धुला नहीं है। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि हर व्यक्ति अपनी-अपनी कमियों को समझे। फिर इन कमियों को कैसे ठीक किया जाए इसके लिए चिंतन करना होगा। अभी तक हमने कितनी ही धार्मिक किताबें पढ़ीं, कितने ही सत्संग किए लेकिन स्वभाव में कुछ परिवर्तन आया या नहीं अथवा अपन में जो कमियाँ हैं उन्हें दूर कर पाने में सफल हुए या नहीं। अथवा जैसे थे वैसे ही हैं। स्वयं को स्वयं का मूल्यांकन करते रहना चाहिए। अगर मूल्यांकन करेंगे तो धीरे-धीरे थोड़ा बदलाव आता रहेगा। सायंकाल में जो संध्यावंदन या प्रतिक्रमण करते हैं उसमें अगर केवल पाठ ही बोलना है, सूत्र ही बोलने हैं तो उससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कल प्रतिक्रमण किया या नहीं और आज करोगे या नहीं, इससे कुछ फ़र्क नहीं पड़ जाएगा। असली बात यह है कि हम मूल्यांकन करते हैं या नहीं कि हमारे पापों में कुछ कमी आ रही है या स्वयं को सुधारने के लिए संकल्पित हो रहे हैं या जो संकल्प लेते हैं उन्हें निभा पाते हैं या नहीं। जो भी अपने जीवन का आध्यात्मिक विकास पाना चाहता है वह मूल्यांकन करता रहे । यदि किसी को धर्म-कर्म में आस्था नहीं हो तब भी उसे मूल्यांकन करना ही चाहिए। केवल धर्म को सुनें नहीं, आत्म-मंथन भी करें। हमारे अंदर जो मानवीय कमजोरियाँ हैं उन्हें दूर करने के लिए संकल्प भी करने होंगे, इच्छाशक्ति को भी जगाना होगा, नियम-व्रत भी लेने होंगे, मर्यादाओं का भी सम्मान करना होगा, स्वयं पर अंकुश भी लगाना होगा, मन को दबाना और तपाना भी होगा। पुनः-पुनः हमें अपने मन को समझाना होगा, इसी तरह तो व्यक्ति सुधरता है। तभी वह सही रास्ते पर आ पाता है। अच्छी चीज़ों को जीवन से जोड़ने की कोशिश और बुरी चीज़ों को जीवन से हटाने की जागरूकता भी बनानी होगी। पहला संकल्प तो यह हमें लेना होगा कि हम गलत काम नहीं करेंगे। १५७ For Personal & Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा संकल्प यह लेना होगा कि हम दूसरों को सम्मान देंगे, इज़्ज़त की भाषा बोलने का प्रयास करेंगे। ग़लत शब्द आ भी गए तो उन्हें दबाने की कोशिश करेंगे। तब भी ग़लत हो ही गया तो स्वयं को दंड दूँगा, दूसरे से क्षमा माँगूगा ( अगर संकल्प मज़बूत हो तो) अगर गलत कर बैठा तो व्रत रखूँगा । अगर ऐसी दो-चार बातें हम अपने साथ रखेंगे तो जागरूकता बढ़ेगी। इस तरह के लिये गये संकल्प हमारी बुराइयों, कमजोरियों को दूर करने में सहायक हो सकते हैं। व्रत की बात व्यक्ति खुद ही सोचे क्योंकि उसका सबसे बड़ा परमेश्वर उसके अपने दिल में है । हर व्यक्ति की अन्तरात्मा उसे प्रेरणा देती है। असली धर्म भी वही है जो अन्तरात्मा से प्रेरित होता है । कोई कितना भी कह दे, पर कहने व सुनने से जीवन नहीं बदलता । लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि सुना व पढ़ा ही न जाए। पता नहीं कब कौन-सी बात अन्तरात्मा को छू जाए, वही प्रेरणा बन जाए। और जीवन में परिवर्तन घटित हो जाए। जब तक बात दिल को नहीं छूती, और दिल में बात नहीं उठती वह जीवन में चरितार्थ नहीं हो सकती । धर्म यही है कि हम अपनी-अपनी कमजोरियों को समझें और इन्हें बदलने का मानस बनाएँ, संकल्प लें और संकल्प पूर्ण न हो सके तो उसका प्रायश्चित करने का प्रयास करें। जब तक इस तरह की पूरी दृढ़ बात दिल में नहीं बिठाएँगे तब तक न तो परिवर्तन आएगा और न ही अपनी कमज़ोरियों को जीत पाएँगे। कमज़ोरियों पर विजय प्राप्त करने के लिए मन को मज़बूत बनाना होगा, बार-बार स्वयं को समझाना होगा, जीवन में लगने वाली ठोकरों से बार-बार प्रेरणा लेनी होगी तभी हम अपने जीवन में मिठास, निर्मलता लाने में सफल हो सकेंगे। कब सफल होंगे इसकी कोई गारण्टी नहीं है। धर्म का दूसरा कार्य यह होगा कि अपने जन्मदाताओं के प्रति सम्मान का भाव रखें, उनकी सेवा को अपना सौभाग्य समझें । जिसने हमें जन्म दिया है अगर व्यक्ति उनके प्रति अपने फ़र्ज़ अदा नहीं कर सकता तो वह दूसरों के प्रति अपने फ़र्ज़ कैसे अदा करेगा। जो अपने माता-पिता की इज़्ज़त नहीं करता वह अपनी पत्नी की भी इज़्ज़त करेगा इसकी संभावना नहीं कही जा सकती। मातापिता जिन्होंने हमें जन्म दिया, शिक्षा दिलवाई, जीवन के अच्छे संस्कार दिए, अपने पाँवों पर खड़े हो सकें इसके लिए उन्होंने भरसक कोशिश की है, हम हमारा १५८ For Personal & Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवाह करवाया, आजीविका की व्यवस्था दी - ऐसे माता-पिता के प्रति अपने फ़र्ज़ निभाने को भी अपना धर्म समझें। जैसे माता-पिता ने जन्म देकर अपने फ़र्ज़ निभाए हम भी उनके ऋण से उऋण होने का प्रयास करें। सबसे बढ़कर तो उन्होंने हमें मानव-शरीर दिया जिसके चलते हम धर्म-कर्म-संसार-ईश्वर-आत्मज्ञान कुछ भी हासिल कर सकते हैं। मैं सामायिक करने को, मंदिर जाने को, ईश प्रार्थना करने को भी धर्म कहता हूँ, पर मैं मानता हूँ कि ईश्वर की पूजा से पहले माता-पिता की पूजा हो। वे हमारी पूजा के पहले पात्र और पहले हक़दार हैं। अगर उनका सम्मान नहीं कर पाते तो गुरुजनों के सम्मान का कोई अर्थ नहीं है क्योंकि गुरु तुम्हें बाद में मिले । ईश्वर की पूजा से पहले माँ-बाप की पूजा हो । हो सकता है ईश्वर ने हमें जन्म दिया हो लेकिन पहला भोजन दूध के रूप में माँ ने ही दिया । यह ईश्वर की रहमत है, अनुग्रह है कि हम धरती पर आए, पर माता-पिता ने ही जीवन दिया। जो माता-पिता ने किया उसे तौला या मापा नहीं जा सकता। फिर भी अगर हम उसका आधा भी कर देते हैं तो भी समझ लेना कि हम धार्मिक हैं। केवल माथे पर तिलक लगाने और धूप-दीप कर देने से ही धर्म नहीं होता। ये धर्म के प्रतीकात्मक स्वरूप हो सकते हैं लेकिन जन्म-दाताओं की इज़्ज़त और सेवा ही धर्म है। अपनी ओर से उन्हें ठेस न पहुँचे इसकी जागरूकता रखें। कभी ठेस लगा भी दें तो क्षमायाचना कर लें। उनकी बातों का बुरा न मानें। बड़ों द्वारा कही गई बातें चौराहे की लालबत्ती होती हैं जो हमें दुर्घटना से बचाया करती तीसरा धर्म यह हो कि हम जो धन कमाते हैं, व्यापार करते हैं, आजीविका के साधन जिन हाथों से बटोरते हैं, अर्जन करते हैं, उन हाथों से थोड़ा विसर्जन भी होते रहना चाहिए। अपनी कमाई का कुछ हिस्सा अच्छे कार्यों में लगाएँ। गरीबों के लिए, इन्सानियत की भलाई के लिए, किसी पर दया करके उदारतापूर्वक थोड़ा-बहुत दान का धर्म करना चाहिए। किसी के आँसू पौंछना बहुत बड़ा धर्म है, दीन-दुःखी की मदद करना महान धर्म है। धन के साथ-साथ थोड़े से समय का भी विसर्जन हो। जैसे सड़क पर पड़े हुए किसी घायल को अस्पताल पहुँचाना समय का विसर्जन है। तन-मन-धन तीनों का विसर्जन होगा। १५९ For Personal & Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक़्त-बेवक़्त में विसर्जन के भाव ज़रूर रखने चाहिए । केवल अर्जन संग्रह ही न करें, जितना बन सके अर्पण भी करते रहें। अगर धन नहीं लगा सकते तो हमें जो हुनर आता है वही दूसरों को सिखा दें। हुनर भी नहीं आता और आप शिक्षित हैं तो किन्हीं गरीब बच्चों को पढ़ा दें। यह ज्ञान का विसर्जन है। अपने हाथों से कुछ-न-कुछ बाँटते रहना चाहिए। हम लोगों का यह फ़र्ज़ होना चाहिए कि मैं भी एक दीपक बनकर रोशन होऊँ और मेरी वज़ह से अन्य चार लोगों को भी रोशनी मिलती रहे। यही तो धर्म का अर्थ है कि खुद भी सुखपूर्वक जीना और दूसरों को भी सुखपूर्वक जीने में मदद करना । स्वयं का भी मंगल हो और दूसरों का भी मंगल और हित सधे, यही हमारा प्रयत्न होना चाहिए। हमारे द्वारा किसी का हित हो जाए । बोलने से, कार्य से, व्यवहार से, चिंतन से, प्रवचन से, किसी भी तरह से हो, पर हित हो । स्वयं का अहित करना भी गलत है और दूसरों का भी अहित करना गलत है। दूसरों को सुख पहुँचाना पुण्य है तो खुद को दुःख पहुँचाना भी पाप है। व्यक्ति ऐसा कार्य नहीं कर सकता कि जिसमें दूसरों को सुख पहुँचाने की खातिर खुद दुःख उठाता रहे। ऐसे शिव-शंकर कम होते हैं जो दूसरों के हिस्से का विष भी अपने हलक में उतार लेते हैं। हम सामान्य इन्सानों के लिए यही धर्म है कि स्वयं के साथ दूसरों का भी मंगल हो। धर्म चाहता है कि वह पाँवों का घुघरू बने ताकि लोगों को उन धुंघरुओं की थिरकन का आनन्द मिल सके । धर्म चाहता है वह लोगों के गले का हार बने ताकि लोगों का जीवन अधिक शृंगारित हो सके । धर्म चाहता है कि वह लोगों के शीश का मुकुट बने ताकि उसका शीश और अधिक उन्नत हो सके । यह तभी होगा जब हम पूरी नैतिकता, प्रेम, मर्यादा, अहिंसा, संयम और जीवन-मूल्यों के साथ उसे जिएंगे। एक राजा ने ऐसा ही किया। उसके राज्य में चारों ओर शांति थी। प्रजा प्रसन्न और संतुष्ट थी। पर उसका एक पड़ोसी राजा इस स्थिति के बिल्कुल विपरीत था। उसके राज्य में शिक्षा, रोजगार और धन का अभाव था। वह समझ नहीं पा रहा था कि अपने राज्य में वह सुव्यवस्था कैसे कायम करे । सो वह पड़ोसी राजा से मिलने गया। उसने पड़ोसी राजा से पूछा - मेरा राज्य छोटा १६० For Personal & Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है फिर भी उत्पात होते रहते हैं, आपका राज्य बड़ा है फिर भी शांति है। आखिर इसका कारण क्या है ? राजा ने विनयपूर्वक ज़वाब दिया। इसका कारण यह है कि मैंने चार चौकीदार तैनात कर रखे हैं जो हर पल मेरी रक्षा करते हैं। अगर आप भी ये चौकीदार नियुक्त कर लें तो आपके राज्य में भी खुशहाली हो जाएगी। राजा ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा - मेरा पहला चौकीदार है सत्य जो मुझे असत्य नहीं बोलने देता। दूसरा चौकीदार है प्रेम जो मुझे घृणा और नफ़रत से बचाए रखता है। तीसरा चौकीदार है न्याय जो मुझे किसी भी दृष्टिकोण से अन्याय नहीं करने देता और चौथा चौकीदार है त्याग जो मुझे स्वार्थी होने से बचाता है। वास्तव में सत्य, प्रेम, न्याय और त्याग ऐसे धर्म हैं जो मनुष्य को मानव से भी ऊपर महामानव बनाते हैं। इन चौकीदारों से स्वयं व्यक्ति की रक्षा होती है और समाज का भी कल्याण होता है। स्व और पर दोनों स्तरों पर हमारा कल्याण तभी होगा जब हम अपने विचार और व्यवहार में इन बातों को जिएंगे। अपनी ओर से प्रेमपूर्वक इतना ही अनुरोध है। नमस्कार। १६१ For Personal & Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसारभी हो, संन्यासभी संसार में व्यक्ति को नदी में चलती हुई नाव की तरह जीना चाहिए। नाव नदी से संस्पर्शित होती है, इसके बावजूद वह नदी में एक स्थान पर टिकी हुई नहीं रहती। जैसे नदी यात्रियों को एक किनारे से दूसरे किनारे पर पहुँचाया करती है ठीक वैसे ही संसार भी एक नदी या सागर की तरह होता है और शरीर किसी नौका के समान है, व्यक्ति की मेधा, उसकी प्रज्ञा पतवारों का काम करती है। ज्ञानी, मनीषी, ऋषि, मुनि इन्हीं मेधा और प्रज्ञा की पतवारों के सहारे ही इस संसार-सागर को पार किया करते हैं। जो व्यक्ति नदी में नाव की तरह अपना जीवन जीता है वह संसार की लहरों का भी आनन्द लेता है और संसार से ऊपर उठकर मुक्ति का भी पथिक बन जाता है। मैं मानता हूँ कि प्रकृति ने या ईश्वर ने जिसे भी इन्सान के रूप में भेजा है उसे संसार का भी आनन्द लेना चाहिए और यहाँ से उसे जिस लोक की ओर जाना है उस अज्ञात लोक को, उस प्रकाश-लोक को, उस मुक्ति-लोक को अपनी नज़रों में बसाना चाहिए । इसलिए व्यक्ति के जीवन में संसार भी हो और संन्यास भी। मैं वैदिक परम्परा से प्रभावित हूँ और इस परम्परा द्वारा दी गई व्यवस्था को आम मानव-जीवन के लिए व्यवस्थित व्यवस्था समझता हूँ। जिसमें वे कहते हैं कि व्यक्ति को चार आश्रमों के मुताबिक जीवन जीना १६२ For Personal & Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहिए। पहले चरण को ब्रह्मचर्य आश्रम कहा गया, दूसरा चरण है - गृहस्थ आश्रम, तीसरे को वानप्रस्थ और चौथे को संन्यास आश्रम कहा गया। हजारों में कोई विरला होता है जो पहले चरण में ही अंतिम चरण को जी लिया करते हैं। अर्थात् वे बचपन में ही संन्यास आश्रम को स्वीकार कर लेते हैं। लेकिन धर्म की व्यवस्था किसी एक के लिए नहीं, प्राणि मात्र के लिए होती है, आम इन्सान के लिए होती है। जब हम आम इन्सान की बात करते हैं तो पहला चरण ब्रह्मचर्य आश्रम का है अर्थात् मर्यादा और पवित्रतापूर्वक ज्ञानार्जन का है। दूसरा चरण गृहस्थ आश्रम का है अर्थात् व्यक्ति पढ़-लिखकर संसार में प्रवेश करे, आजीविका का प्रबंध करते हुए संसार का आनंद ले। मर्यादा और पवित्रतापूर्वक गृहस्थ-जीवन से जुड़े हुए समस्त कर्त्तव्य और कर्मों का पालन करते हुए जिए । गृहस्थ-जीवन जीना भी धर्म का ही एक अंग और चरण है। कोई यह न समझे कि जो व्यक्ति गृहस्थ-जीवन में प्रवेश कर रहा है वह किसी पाप-पथ का अनुगमन कर रहा है। यह भी जीवन का एक अनिवार्य चरण है। यह अवश्य है कि कुछ लोग गृहस्थ-जीवन में प्रवेश करने के बाद भी उसमें लिप्त नहीं होते और कमल की पंखुरियों की भांति जीवन जीने में सफल हो जाते हैं। शेष तो कीचड़ के कीड़े की तरह संसार के कीचड़ में धंसते चले जाते हैं। गृहस्थ-जीवन धर्म का एक अंग है, लेकिन सारे जीवन भर के लिए गृहस्थ ही बने रहना व्यक्ति के लिए डुबाने का काम करता है । तब जीवन की नौका वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम को पार नहीं कर पाती है। जो भी गृहस्थ-आश्रम में प्रविष्ट हो रहा है उसे यह लक्ष्य भी बनाना चाहिए कि वह संसार में रहते हुए भी उससे ऊपर उठे या संसार से अलग रहे। ज़रूरी नहीं है कि हर व्यक्ति घरबार छोड़कर ही निकल जाए। यूँ भी जिसने घरबार छोड़ दिया है वह भी रहता तो संसार में ही है। हाँ, वह अपने बनाए हुए मोह-माया के संसार में नहीं रहता। हम कहाँ हैं, किन लोगों के बीच में हैं, यह महत्त्वपूर्ण ज़रूर है लेकिन मुख्य यह है कि सब लोगों के बीच में रहते हुए भी कितने अनासक्त , निर्मोही, वीतमोह, वीतद्वेष या वीतराग होकर जी सकते हैं। मेरी दृष्टि में व्यक्ति के जीवन में संसार भी हो लेकिन केवल संसार ही न हो, For Personal & Private Use Only १६३ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संन्यास भी हो। अगर केवल संन्यास ही है तो यह अति उत्तम है, सर्वश्रेष्ठ है, पर केवल संसार ही है तो विचारणीय है। संसार में संन्यास हो तो चलेगा, पर संन्यास में संसार हो तो कम चलेगा। व्यक्ति को ऊपर उठना चाहिए। जो गृहस्थ हैं उनके दो धर्म दान और पूजा हैं। दान देने का अर्थ है उसने अपने स्वार्थों का त्याग किया, अपनी परिग्रह-बुद्धि को कम किया, संसार के प्रति रहने वाली आसक्तियों को छोड़ने को तत्पर हुआ। इसके साथ ही ईश्वर की पूजा, उपासना उसे संसार से बाहर निकलने में मदद करेगी। संसार के साथ ही संन्यास का फूल उसके भीतर रहना चाहिए। संतों, संन्यासियों के सान्निध्य में सद्गृहस्थ लोग आते हैं, उनकी अमृतवाणी सुनकर उसे अपने जीवन में ढालने का प्रयत्न भी करते हैं। तब उनका जीवन उस आईने की तरह हो जाता है जो निर्लिप्त रहता है। कोई आए तो तस्वीर है, नहीं तो कोरा का कोरा। कुछ सद्गृहस्थ पताका के समान होते हैं। जैसे - पताका कभी टिकती नहीं है, घड़ी का पेंडुलम टिकता नहीं है, इस तरह जो डोलता रहता है वह महापुरुषों की वाणी का श्रवण तो करता है पर श्रद्धा नहीं कर पाता, अपने जीवन में ढाल नहीं पाता। वह संदेहशील, सशंकित आत्मा बना हुआ अस्थिरचित्त रहता है। वह मंसूबे तो बनाता है, पर क्रियान्वित नहीं कर पाता। ___ तीसरे प्रकार के सद्गृहस्थ ऐसे होते हैं जैसे काठ की मोटी लकड़ी। जिस तरह काठ पर किसी चीज़ का जल्दी असर नहीं हो पाता उसी तरह वे रोज-रोज पढ़-सुनकर भी चिकने घड़े बन जाते हैं। उनके भीतर कुछ नहीं उतर पाता केवल एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल देते हैं। ऐसे लोग अपने साथ-साथ गुरुओं का, संतों-मुनियों का समय ख़राब करते हैं। अगर डॉक्टर की दवा नहीं लेनी है तो डॉक्टर के पास बार-बार जाने से क्या लाभ ? । चौथे प्रकार के सद्गृहस्थ को मैं काँटें की संज्ञा देता हूँ। क्योंकि उन्हें जो बात कह दी जाए तो वे काँटे की तरह अपने ऊपर लेते हैं और सीधे सिर चढ़ जाते हैं और हमारे लिए भी दर्द का कारण बन जाते हैं। संतों की बात को कैसे काटा जाए वे यही सोचते रहते हैं, न कि ग्रहण कैसे करें, इस पर विचार करते हैं। एक ग्राहक होता है दूसरा आक्रामक । ग्राहक ग्रहण करता है और आक्रामक झपटता है। जब संतों के पास जाएँ तो तार्किक नहीं ग्राहक बनकर जाएँ, सत्पात्र १६४ For Personal & Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनकर जाएँ कि उनकी ओर से जो दिया जा रहा है उसे हम प्रेम और श्रद्धा से ग्रहण करें। तर्क हमें कभी ग्रहण नहीं करने देगा और हम पताका की तरह अस्थिर चित्त बने रहेंगे । कई लोग भव्य व दिव्य पराक्रम करते हैं और गृहस्थ जीवन त्याग कर संन्यास जीवन अंगीकार कर लेते हैं । वे धन्य होते हैं जो संन्यासी होकर प्रभु के दिव्य मार्ग का वरण कर लेते हैं। मैंने तो पाया है कि संसार के सैंकड़ों थपेड़े खाने के बावज़ूद व्यक्ति के मन में संन्यास लेने की प्रेरणा नहीं जगती । जो व्यक्ति संसार से आक्रांत हो जाता है, पीड़ित हो जाता है वह आत्महत्या करने को तो तत्पर हो जाएगा लेकिन संत बनकर स्वकल्याण की भावना नहीं जग पाती । कुछ लोग संन्यास लेते हैं वर्तमान जीवन को सुधारने के लिए। कुछ विवशता में जैसे कि गरीबी, अन्न की कमी के कारण साधु बन जाते हैं कि खाने को अच्छा भोजन मिल जाएगा और लोगों द्वारा मान-सम्मान भी मिलेगा। ऐसे साधुओं का धर्म से, आत्मा से, प्रभु से कोई लेना-देना नहीं होता । वे तो खान-पान, रहन-सहन आलीशान चाहते हैं और इसी पर उनकी नज़र टिकी रहती है। ऐसे महाराज केवल अपना वर्तमान लोक सुधारना चाहते हैं । कुछ परलोक सुधारने के लिए संन्यासी हो जाते हैं कि मृत्यु निकट है और संन्यास ले लेते हैं। मृत्यु से पहले कुछ लोग संथारा ले रहे हैं, डॉक्टर ने ज़वाब दे दिया है तो मरने से पहले एक दिन के लिए ही सही दीक्षा ले लेते हैं कि कम-से-कम परलोक तो सुधर जाएगा। धर्म-कर्म इसीलिए हो रहा है कि परलोक सुधारना है। तीसरी किस्म के लोग इस लोक और परलोक दोनों को सुधारना चाहते हैं । पर चौथी किस्म के लोगों का संबंध न तो इस लोक से होता है न परलोक से । वे तो विशुद्ध रूप से अपने आत्म-कल्याण के लिए संन्यास जीवन वहन करते हैं । विशुद्ध रूप से परमात्म-प्राप्ति के लिए, अपने दुःख - दौर्मनस्य का नाश करने के लिए, वैर-वैमनस्य को जड़ से समाप्त करने के लिए, अपने मनोविकारों को, अपनी इन्द्रिय-विषयों की मोहासक्तियों को जड़ से उच्छेदन करने के लिए वे लोग संन्यास लिया करते हैं । सत्य की प्राप्ति के लिए, निर्वाण की उपलब्धि के लिए वे संन्यास लिया करते हैं । धन्य हैं ऐसे संतजन जो विशुद्ध रूप से अपने आत्म-कल्याण के लिए, परमात्म-तत्त्व की प्राप्ति के लिए, निर्वाण तत्त्व की उपलब्धि के लिए संन्यास लेते हैं। ऐसे संन्यासियों की चरण-धूलि भी परमात्मा I For Personal & Private Use Only १६५ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का प्रसाद बन जाती है। ऐसे संतों का समागम हमारे प्रबल पुण्योदय से ही होता है। ऐसा न समझें कि हर संत ही बहुत महान है । संतत्व की सार्थकता मुक्ति और निर्वाण का मार्ग प्रशस्त करती है । हम सभी संतों के ऋणी हैं क्योंकि अतीत में संतों ने इतने उपकार और अहसान किये हैं। संत तो चमन में खिले हुए फूल हैं। संतों ने दुनिया पर बहुत उपकार और अहसान किए हैं तभी तो आज जब दुनिया में इतना आतंकवाद, उग्रवाद, भय है, लोग स्वार्थी हैं, भाई-भाई टूट रहे हैं, घर-परिवार बिखर रहे हैं, मान-मर्यादाएँ खंडित हो रही हैं, संस्कारों को गिरवी रखा जा रहा है - ऐसे समय में भी संत-मुनि, मौलवी, पादरी, वाहे गुरु -पंथी लोग दुनिया की भलाई के लिए तत्पर हैं। ज़रा सोचें अगर ये लोग न होते तो क्या दुनिया जीने के काबिल होती ? मान-मर्यादा और लोक-लाज के कारण ही इन्सानियत बची हुई है। कुछ संस्कार, कुछ सामाजिक दबावों के कारण व्यक्ति गलत कामों को करने से बचता है अन्यथा इन्सान भी तो एक जानवर ही है। कब किसके भीतर पशु जग जाए पता नहीं है । इसलिए संतों के प्रति आदर और सम्मान का भाव अवश्य रखना चाहिए । हम जब भूखे जानवर का भरण-पोषण करते हैं तो वह जीवदया कहलाती है। भूखे इन्सान को खाना खिलाना पुण्य का निमित्त बनता है तब किसी संत को अपनी कमाई की, अपने हाथ से बनाई रोटी खिलाते हैं तो मेरा मानना है कि इससे उसकी दरिद्रता दूर होती है, पाप शिथिल होते हैं और जीवन में भाग्य व सौभाग्य का उदय होता है । व्यक्तिगत रूप से मैं संतों की बहुत इज़्ज़त करता हूँ । ईश्वर से कामना करता हूँ कि वह प्रतिदिन मेरे दर पर संतों को अवश्य भेजे ताकि उन्हें भोजन करवाकर अपने को सार्थक कर सकूँ। अपने पुरुषार्थ और उपलब्धियों को धन्य कर सकूँ। निश्चित तौर पर संत महान होते हैं। उनसे जितना हो सकता है वे उतना अधिक तप, त्याग, जप, तप, प्रभु-भक्ति और आत्म-शुद्धि को जीने का प्रयत्न करते हैं। संत होना सौभाग्य की बात है, लेकिन संत न बन पाए तो सुश्रावक बनकर सुपात्र सहयोग और समर्पण करते रहना चाहिए । संसार अगर आनन्द का, मौज-मस्ती का, उत्सव का, खुशहाल रहने का प्रतीक है तो ध्यान संन्यास को जीने का, संयम को आत्म-तत्त्व की ओर ले १६६ For Personal & Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाने वाला, परमात्मा की ओर ले जाने वाली पगडंडी का प्रतीक है। इसलिए एक तरफ सेलीब्रेट भी करो तो दूसरी ओर मेडीटेट भी करो। ध्यान भी हो, उत्सव भी हो, संसार भी हो और संन्यास भी हो। संसार के साथ जब संन्यास होगा तब यह संसार भी धीरे-धीरे हमें मुक्ति की ओर ले जाएगा । हमारी आँखों में यह सपना होना चाहिए कि एक-न-एक दिन हम भी संत बनेंगे और संन्यास धारण करके अपने शेष जीवन को धन्य करेंगे। जिस दिन हम संसार के उम्र की दहलीज़ को पार कर लेंगे; माना कि गृहस्थ-आश्रम की उम्र पचास साल है लेकिन लगता है कि मोहासक्तियाँ अधिक ही हैं, नहीं छूट पा रही हैं तो साठ साल तक खींच लें, लेकिन जिस दिन साठ वर्ष पूरे हो जाएंगे, इकसठवाँ वर्ष लगते ही हम वानप्रस्थी की तरह जिएंगे। अर्थात् घर में रहते हुए भी निर्लिप्त जीवन जीने का प्रयत्न करेंगे। वानप्रस्थी अर्थात् मुक्ति की ओर बढ़ गया और गृहस्थ अर्थात् संसार में उलझ गया। वानप्रस्थी समाधि की ओर निकल गया। अब पहुँच पाए या न पहुँचे यह अलग बात है, लेकिन उसने पुरुषार्थ तो शुरू कर दिया, निकल तो पड़े, सद्भाव और संकल्प तो जग गया। अंतर में इच्छाशक्ति तो निर्मित हो गई। वानप्रस्थी की तरह - जैसे व्यक्ति का जीवन वन में होता है वैसा हो जाना चाहिए । शाकाहारी खाना खाएँगे, रात्रि भोजन नहीं करेंगे, संयमित जीवन जिएंगे, पानी छानकर पिएँगे, पवित्र वाणी बोलेंगे, अच्छे सकारात्मक विचारों को स्थान देंगे। जीवन में घटने वाली अच्छी-बुरी घटना से स्वयं को संबद्ध नहीं करेंगे अपितु प्रकृति की व्यवस्था मानकर सहज रूप से स्वीकार कर लेंगे। ये सब तरीके हैं जो व्यक्ति को धीरे-धीरे गृहस्थाश्रम से वानप्रस्थ की ओर ले जाते हैं। जिस दिन हमें महसूस हो जाए कि वानप्रस्थ की उम्र हो गई स्वयं को गृहस्थी के कार्यों में न उलझाएँ। अपनी जिम्मेदारियों को बच्चों पर डालें। हम कब तक खींचते रहेंगे। माना कि आपकी उम्र साठ वर्ष है तो आपके पुत्र की आयु अवश्य ही तीस वर्ष होगी। तीस वर्ष का युवा बालक नहीं पूर्ण पुरुष होता है और पूर्ण पुरुष के लिए चिंता करना संसार को ढोते रहना है । वानप्रस्थ अर्थात् घर में कोई हस्तक्षेप नहीं। जो होना है सो हो जाए, अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं। अन्यथा बच्चों के आवेश और आक्रोश हम पर हावी होने लगेंगे और वे अपनी अलग राह चुन लेंगे। १६७ For Personal & Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब हमारी उम्र सत्तर-पचहत्तर के पास पहुँच जाए तब तो घर में संन्यासी बनकर रहना ही उत्तम है। संन्यास न ले सकें तो कम से कम घर में ही संन्यासी बनकर रहें। तब पारिवारिक, सांसारिक रिश्तों को नकार कर संत बन जाएँ, गृहस्थ-संत । घर में हैं, पर सबसे मुक्त । अब तो प्रभु-भजन, हरिभजन, ध्यान और बुढ़ापे को सार्थक करने के लिए जीवन के संध्याकाल को धन्य करने का प्रयत्न करेंगे । अन्यथा कीचड़ के कीड़े ही बने रह जाएंगे और जीवन में अनासक्ति का कमल, मुक्ति का फूल नहीं खिल पाएगा। ऐसे में उसने पत्नी, बच्चों और अधिक हुआ तो माता-पिता का भला किया लेकिन स्वयं का कितना भला किया ? उसने अपना आध्यात्मिक कल्याण कहाँ किया ? सामाजिक सेवाओं के पवित्र कार्य भी करते होंगे पर एक उम्र की सीमा तक, उसके बाद तो सामाजिक गतिविधियों में भी हस्तक्षेप बंद और शेष जीवन को विशुद्ध रूप से स्व-कल्याण और प्रभु भजन में लगाएँ। साधु-संतों के लिए भी जो वाहन से चलते हों या पैदल सभी के लिए कहना चाहूँगा क्योंकि जो उम्रदराज हो गए हैं वे पैदल तो चलते नहीं हैं व्हील-चेयर और ठेलेगाड़ी पर चलते हैं, उनके लिए विशेष अनुरोध है कि अगर वे साठ वर्ष के हो गए हैं तो समाज की चिंता छोड़ें, चातुर्मास की व्यवस्था छोड़ें और कहीं भी शहर से दूर शांत, सौम्य स्थान का चयन कर लें, जहाँ वे शेष उम्र को प्रभु भजन के लिए, स्व के संयम के लिए, विशुद्ध तप-त्याग के लिए, आत्म-कल्याण के लिए समर्पित करें। हम सभी को अपने-अपने जीवन को धन्य करना होगा। मन में अगर ऊपर उठने का, आध्यात्मिक सौन्दर्य प्राप्त करने का, आध्यात्मिक सत्य की प्राप्ति का कोई सपना हो, लक्ष्य हो तो हमें जीवन के लिए कुछ फैसले करने होंगे और उन पर चलना भी होगा। महावीर महापुरुष थे, उनके हजारों-लाखों अनुयायी थे, इसके बावजूद उन्होंने यह कहने का दुस्साहस किया कि केवल सिर मुंडा लेने से कोई व्यक्ति श्रमण नहीं हो जाता। केवल भूखे रहने से कोई तपस्वी नहीं हो जाता। यह क्रांतिकारी बात है क्योंकि जिसने हजारों व्यक्तियों को दीक्षा दी हो फिर भी वे ऐसा कह रहे हैं। यह हम सभी संतों और श्रावकों के लिए विचारणीय है। केवल ध्यान की बैठक लगाने भर से क्या ध्यान हो जाता है ? केवल मंत्रों का जाप कर १६८ For Personal & Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेने से क्या वह जपैया हो जाता है ? भीतर में लगन चाहिए, आत्म-भाव, अन्तरात्मा का भाव, अन्तर में प्रगाढ़ होना चाहिए । श्रमण, संत, संन्यासी वह होता है जो सचेतनता से जीता है। श्रमण का पहला धर्म ही है जागरूकता । सचेतनतापूर्वक, जागरूकता से, अवेयरनेस के साथ वह अपने जीवन को सम्पादित करे । संत सोने के लिए नहीं बनता। नींद लेना या सोना शरीर की व्यवस्था हो सकती है, पर संत सोने के लिए संन्यास में नहीं आया है। संत का सुस्ती से कैसा सम्बन्ध ! संत अप्रमत्त होता है। भोजन शरीर की आवश्यकता हो सकती है, पर वह खाना खाने के लिए संत नहीं बना । सचेतनतापूर्वक अपने कार्यों का सम्पादन करना संत का पहला दायित्व है। वह पानी भी पिएगा तो छानकर, बोलेगा तो विवेकपूर्वक और सोचेगा तो सकारात्मक । कहीं ऐसा न हो जाए कि हमारा चोला तो संत का हो जाए, पर भीतर का खोला मैला और गंदला रह जाए । इसीलिए महावीर दो शब्दों का प्रयोग करते हैं - समिति और गुप्ति । विवेकपूर्वक, यतनापूर्वक, जतन से चलो, जतन से बैठो, जतन से खाओ, जतन से बोलो, जतन से ही मल-मूत्र का विसर्जन करो, जतन से ही किसी भी वस्तु को उठाओ और रखो - यह संत-जीवन का लाइफ मैनेजमेंट है। लापरवाही संत जीवन के साथ शोभा नहीं देती। लापरवाही का ही दूसरा नाम प्रमाद है और प्रमाद संन्यास का शत्रु है। महावीर अपने संतों से यही अपेक्षा रखते हैं कि अपने कार्य को सम्पादित करते समय पूर्ण होश और बोध रखो। संत-जीवन को जीने का दूसरा चरण यह है कि संसार में रहते हुए समत्वभाव को, समता को अधिक से अधिक स्वीकार करने की जागरूकता रखें। प्रयत्न करें क्योंकि संत समत्वशील होता है। हानि और लाभ दोनों तरह की संभावनाएँ हैं, मान और अपमान की संभावना तो निश्चित ही है, संयोग और वियोग भी मिलेंगे लेकिन संत को ऊँच-नीच का भेद नहीं करना चाहिए, जात-पाँत से भी ऊपर उठना चाहिए। उसे तो समदर्शी, समत्वशील दृष्टि वाला होना चाहिए । कबीर ने कहा है - जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान। मोल करो तलवार को, पड़ी रहन दो म्यान ।। तलवार का मूल्य करो, म्यान सुंदर है कि असुंदर इसका मोल मत करो, १६९ For Personal & Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तलवार देखो कि उसमें धार है या नहीं। साधु की करनी देखो, उसकी कथनी देखो, उसका उपदेश, उसका ज्ञान देखो। वह किस जाति का है, इससे क्या फ़र्क पड़ता है। रैदास, जो इस देश के गौरव हैं, जाति से चमार थे। संत गोरा कुम्हार थे, हरिकेशबल चण्डाल जाति के थे। जाति से क्या मतलब है ? आदमी छोटी जाति का होकर भी बड़े काम कर सकता है। एक समय में हमारे देश के रक्षामंत्री और गृहमंत्री जगजीवनराम थे जो जाति से हरिजन थे। किसी की जाति छोटी या बड़ी है क्या फ़र्क पड़ता है। व्यक्ति के कर्म ऊँचे होने चाहिए, उसके ज्ञान की दशा उच्च होनी चाहिए। तब छोटी जाति का होकर भी व्यक्ति महान कहला सकता है। जीसस या सुकरात भी कोई बड़ी जाति के नहीं थे तब भी दुनिया के लिए महान आदर्श बन गए। इसलिए कहता हूँ पंथ-वंथ को मत देखो कि कौन संत किस पंथ का है। पंथ तो सामाजिक व्यवस्था है, इसके अतिरिक्त पंथ का कोई अर्थ नहीं है। जब महावीर कहते हैं कि गृहस्थ तो देने मात्र से धन्य होता है, इसमें पात्र-अपात्र का क्या विचार ! तब हम संत के पाँव छूने मात्र से धन्य होते हैं फिर वह चाहे किसी भी पंथ का क्यों न हो। यह हमारी मूढ़ता व संकीर्णता है जो हम अपने पंथ के संत को संत स्वीकार करते हैं और अन्यों से कोई प्रयोजन नहीं रखते । यह हमारा मिथ्यात्व है। दूसरे पंथ के संतों के पाँव छूने से हमारा समकित खतरे में नहीं पड़ता है। अगर ऐसा हो जाए तो वह तथाकथित पंथ अप्रयोजनीय है जिसमें केवल विशिष्ट पंथ के संतों को ही मान्यता मिलती है। अरे उसके ज्ञान को देखो, उसकी मेधा को पहचानो, उसके जीवन को, दर्शन को जानो । दर्शन का मोल करो, प्रदर्शन का नहीं। कबीर का दोहा है - साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय । सार-सार को गहि रहे, थोथा देय उड़ाय ।। केवल काम की बात अपने पास रखें, शेष छोड़ दें। इसलिए समत्व/ समभाव किसी भी संत का अनिवार्य गुण है। सवाल यह नहीं है कि नगर में संत आए तो जाना चाहिए या नहीं, प्रश्न तो यह है कि संत अगर हमारे घर की दहलीज पर आकर खड़े हो जाते हैं तो भी हाथ जोड़ने को तैयार नहीं हो पाते। यदि कोई गंगा-स्नान करने को जाना चाहता है तो अच्छी बात है लेकिन जो १७० For Personal & Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदमी हरिद्वार में ही रहता है लेकिन गंगा-स्नान के लिए नहीं जाता उसके लिए क्या कहा जाए । संत, मंदिर, ग्रंथ कुछ भी क्यों न हो अगर हम वहाँ जाते हैं, उसके प्रति आदर भाव है तो ज़रूर जाना चाहिए। ___मैं तो देखा करता हूँ कि अगर दूसरी परम्परा का संत आए और मैं हाथ जोड़कर अभिवादन करूँ, अगर वह विनम्र व्यक्ति होगा, उसके भीतर इन्सानियत होगी तो ज़रूर हाथ जोड़ेगा, नहीं तो केवल हालचाल पूछ लेगा, अभिवादन नहीं करेगा। तब लगता है कि ये लोग साधुता का, समकित का यह अर्थ क्यों लगाते हैं कि उनकी परम्परा के संतों का आदर करना, उन्हें गुरु मानना ही सम्यक्त्व है। यह साधुता और सम्यक्त्व बहुत संकीर्ण हो गया। सम्यक्त्व का तो अर्थ ही यह है कि सारे भेद गिर गए और अब वह सबका सम्मान कर रहा है। मैंने एक मुस्लिम फ़क़ीर की कहानी पढ़ी है जिसका नाम मोहम्मद अल्तवी था। एक दफा वे किसी नगर में पहुँचे। वहाँ के मौलवियों ने उनसे पूछा कि आपने तो बहुत भ्रमण किया है, जगह-जगह गए हैं, आपको सबसे महान संत कहाँ दिखाई दिए । कहने लगे कि घूमा तो बहुत हूँ लेकिन जब कुंभ के मेले में गया तो वहाँ मुझे कई महान संतों के दर्शन हुए। मौलवियों ने कहा - आप मुसलमान होकर कुंभ मेले की तारीफ़ कर रहे हैं ? हिंदू संतों की तारीफ़ कर रहे हैं ? तब मोहम्मद अल्तवी ने कहा - एक बात बताएँ, ज़मीन पर खड़े होकर पेड़ देखेंगे तो अलग-अलग किस्म के दिखाई देंगे लेकिन हवाई जहाज या हेलीकॉप्टर में उड़कर जमीन पर लगे पेड़ों को देखना चाहोगे तो क्या कोई भेद दिखाई देगा ? मौलवियों ने कहा - नहीं दिखाई देगा, ऊपर से तो सिर्फ हरे-हरे पेड़ ही दिखाई देंगे। तब अल्तवी ने कहा - भाई जो संत ज़मीन से थोड़ा ऊपर उठ चुका है और आकाश में रहने वाले खुदा से मोहब्बत करता है उसे ज़मीन पर रहने वाले संतों में कोई हिंदू, कोई मुसलमान का भेद दिखाई नहीं देता। उसे तो जहाँ अच्छाई दिखती है, वहाँ उसका सम्मान करता है। सार-सार को गहि रहे, थोथा देइ उड़ाय - काम की बातों से मतलब रखें। अपनी ओर से जितनी संतों की सेवा बन पाए ज़रूर करें । यह तो नहीं कह सकते कि उनके लिए कुर्बान हो ही जाएँ पर जितनी संभव हो उतनी मोहासक्तियाँ कम करें और अपनी ओर से हर परम्परा के संत का सम्मान करने का भाव रखें। For Personal & Private Use Only १७१ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जितनी बन सके सेवा भी ज़रूर करें। संत की तीसरी विशेषता है - वह प्रबुद्ध और उपशांत हो। ज्ञानी भी हो और शांत प्रकृति का भी हो। इसके साथ ही प्रेम और मानवता को पूरी दुनिया तक फैलाने का प्रयत्न करे। महावीर ने सूत्र दिया - तुम प्रबुद्ध और उपशांत होकर गाँव-गाँव और नगर-नगर जाओ और मेरे शांति तथा अहिंसा के मार्ग को जन-जन तक फैलाने का प्रयत्न करो। उन्होंने यह नहीं कहा कि किसी जाति या क्षेत्र विशेष तक ही धर्म को सीमित किया जाए। उन्होंने कहा - मेरा धर्म अहिंसा में निष्ठा रखने वालों का धर्म है, इन्सानियत का धर्म है और प्राणिमात्र के लिए कल्याणकारी धर्म है। संत का कर्तव्य है कि वह भगवान के पवित्र वचनों को, पवित्र मार्ग को, शांति, प्रेम, करुणा, विश्व-प्रेम और विश्व-शांति के मार्ग को जन-जन तक फैलाने का उपक्रम करे । प्रबुद्ध होना संत का गुण होना चाहिए। अगर अकड़, अशांत, क्रोधी स्वभाव वाला होगा तो छोटी-छोटी बातों पर भी स्वयं को संयमित नहीं रख पाएगा। इसलिए उसका ज्ञानी और शांत होना ज़रूरी है। उसके भाव शुद्ध होने चाहिए और जीवन ऊँचा, ताकि लोग उसे देखकर जीना सीख सकें, उसे अपना आदर्श बना सकें, प्रेरणा ले सकें। संतों को याद रखना चाहिए कि केवल उपदेश ही प्रभावी नहीं होते, जीवन और आचरण भी कुछ बोलता है। व्यक्ति का जीवन जो बोलता है वह वचन से हज़ार गुना अधिक प्रभावी होता है। दुनियाँ में अनेकों महान संत हुए हैं। महावीर भी महान कोटि के संत थे। अगर ग्वाले ने उनके कानों में कीलें ठोक दी तो उसके लिए भी अपने संत स्वभाव की पहचान देते हुए उन कीलों को भी सहजता से बर्दाश्त कर लिया। और जब वैद्यराज ने उन कीलों को निकाला तो जो पीड़ा हुई उसमें उन्होंने इतनी-सी ही प्रतिक्रिया की - मैं तो साधनाकाल में था, संत-जीवन में था इसलिए इन कीलों के दर्द को सहन कर गया, पर यह तो प्रकृति की व्यवस्था है कि इन्सान जैसा करता है वैसा ही उसे लौटकर मिलता है। तो इसने जो कीलें ठोकी हैं इस पाप-कर्म का उदय जब उस ग्वाले के आएगा तो वह बेचारा कैसे सहन करेगा ! उस करुणामूर्ति ने इतनी करुणा दिखाते हुए उसके प्रति भी क्षमाभावना रखी और कहा कि उसका भला हो, ईश्वर उसे माफ़ करे । १७२ For Personal & Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्ध भी महान संत हुए। इसी महानता के चलते उन्होंने लगातार चलते हुए गाँव-गाँव जाकर लोगों को सच्चाई का, दुःख मुक्ति का रास्ता दिया, मध्यम मार्ग स्थापित किया। उन्होंने कहने का प्रयत्न किया कि जीवन को वीणा के तारों की तरह साधो, न तो अति तप करते हुए इसे अधिक कसो और न ही भोग करते हुए इसे ढीला छोड़ो । मध्यम मार्ग अर्थात् बीच का रास्ता अपनाओ, संतुलित जीवन जिओ। महावीर और बुद्ध के समय में ही दुनिया ने एक और संत सुकरात को देखा । संयोग से उनकी पत्नी गुस्सैल प्रकृति की थी। लेकिन वे कभी क्रोध नहीं करते थे बल्कि यही कहा करते थे - ईश्वर ने अगर मुझे क्रोधी प्रकृति की पत्नी दी है तो इस बहाने रोज मेरी शांति की, समता की परीक्षा होती रहती है। यह व्यक्ति की साधुता है। पत्नी के होने या न होने से साधुता का कोई लेन-देन नहीं है, साधुता तो स्वभाव से होती है। यह तो आत्म-भाव है, अन्तरात्मा का तत्त्व है। साधुता और संन्यास अन्तरात्मा का ख़ज़ाना है, मानसिक वस्तु है। सुकरात को विषपान करा दिया गया। हँसते-हँसते ज़हर पी गए । केवल ज़हर ही नहीं पिया अपितु अपने गिरते हुए शरीर को भी देखते रहे और महापरिनिर्वाण को भी उपलब्ध हुए । जीसस भी महान संत हुए, जिन्होंने सलीब पर चढ़ाने वालों के लिए भी इतने करुणाभरे शब्द कहे कि - हे प्रभु ! इन्हें माफ़ करना, ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं। सलीब पर चढ़ाने वालों के प्रति भी करुणा-दया। जरा सोचें कि उनकी क्षमा कितनी महान होगी, उनकी साधुता कितनी महान होगी। सुकरात विष पिलाने वालों को भी प्रणाम अर्पित करते हैं कि यह शरीर जो परमात्मा से मिलने में बाधक बना हुआ था यह छूट रहा है, मैंने अभी तक जीवन का आनन्द लिया लेकिन तुमने मुझे मृत्यु का भी आनन्द दे दिया है। मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ। अगर मेरे मन में तुम्हारे प्रति जरा भी क्रोध या आक्रोश आ गया हो तो मैं तुमसे भी क्षमायाचना करता हूँ और तुम्हें भी क्षमा करता हूँ। __ मैं इसे साधुता कहता हूँ। यह साधुता केवल सुनने और बोलने से नहीं आती, जीवन के भीतर से अंकुरित होती है। यह तो विरले संतों में ही अन्तरात्मा से ऐसे भाव उभर कर आते हैं। शंकराचार्य, कबीरदास भी महान संत हुए हैं। १७३ For Personal & Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कबीर छोटी जाति में पैदा हुए लेकिन गंगा-किनारे जाकर लेट गए, तभी रामानंदजी उधर से आए । सुन रखा था कि गुरु बनाना ज़रूरी है, उसके बिना निस्तार नहीं होता सो गुरु किसे बनाएँ। यह भी सुना था कि रामानंदजी सुबह अँधेरे गंगा-स्नान के लिए जाते हैं लेकिन क्षुद्र व्यक्ति को शिष्य नहीं बनाते। संत महान हैं, शिष्य भी उन्हीं का बनना है, पर कैसे ? सो सुबह अँधेरे ही गंगा तट की सीढ़ियों पर जाकर लेट गए। रामानंदजी आए, सीढ़ियों से उतरने लगे कि पाँव कबीर के ऊपर पड़ गया। वे चौंके और उनके मुंह से निकल गया - राम, राम, राम । कबीरदास ने यह शब्द सुन लिया और लगा कि गुरुजी ने यह गुरुमंत्र दे दिया और वे जीवन भर राम के उपासक बने रहे। राम की उपासना करते हुए उन्होंने कहा - कबीरा कुत्ता राम का, मुतिया मेरा नाऊं। गले राम की जेवड़ी, जित खींचे तित जाऊं ।। कबीर कहते हैं - मैं तो कुत्ता हूँ, मेरी क्या औकात है। संत कभी गर्व नहीं करता, वह विनम्र ही बना रहता है। वह अपने को तुच्छ कहता है क्योंकि प्रभु का भक्त है। उसने अपना अहंभाव मिटा दिया । जो है वह प्रभु है। प्रभु का वचन उसके लिए अंतिम आदेश । जो तू है वही मैं हूँ। जिसने स्वयं को मिटा दिया वही स्वयं को कुत्ता कह सकता है। मोती मेरा नाम है और मैं रामजी का कुत्ता हूँ। मेरे गले में तो रामजी के नाम का पट्टा बँधा हुआ है। अब वे जिधर खींच लेते हैं, उधर ही चला जाता हूँ। मीराबाई जैसी संत ने तो प्रभु का नाम लेकर ही ज़हर का प्याला पी लिया और कहते हैं वह ज़हर भी अमृत का प्याला बन गया। इतना ही नहीं, वे तो वृन्दावन में कान्हा की प्रतिमा में ही समा गईं और प्रभु के दिव्य स्वरूप में विलीन हो गईं। सूरदास जिनकी आँखें नहीं थीं फिर भी मन को ही मंदिर बना लिया और दिल को प्रभु का घर और बैकुंठधाम बनाकर प्रभु-भक्ति में लीन हो गए। डायोज़नीज़ भी महान संत हुए जिन्होंने सिकंदर को भी प्रभावित कर दिया। एक बार सिकंदर डायोज़नीज़ से मिलने गया और अपना परिचय देते हुए कहा - ऐ संत, क्या तुम जानते हो कि मैं विश्व-विजेता हूँ, मैंने सारे संसार को जीत लिया है। डायोज़नीज़ ने कहा - तू विश्व-विजेता है लेकिन इस विश्व को १७४ For Personal & Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं लात मारता हूँ। फ़क़ीर थे वे तो, उनके जवाब का क्या, वे तो लाज़वाब होते हैं। सिकंदर ने कहा - तुम जानते हो तुम किसके सामने बोल रहे हो ? मैं वह हूँ जिसे चाहूँ वह जिए और न चाहूँ वह नहीं जी सकता । मैं चाहूँ तो अभी तुम्हें मौत के घाट उतार सकता हूँ। डायोज़नीज़ ने सिकंदर से कहा – तू मार सकता है या नहीं यह तो पता नहीं, लेकिन मैं इतना ज़रूर जानता हूँ कि एक दिन मुझे मरना कहते हैं सिकंदर उसके जवाब से इतना प्रभावित हुआ कि उसने कहा - डायोज़नीज़ माँगो, जो तुम माँगोगे वह मैं तुम्हें दूँगा। डायोज़नीज़ ने कहा - देना ही चाहते हो तो, जरा सामने से हटो, बहुत सर्दी पड़ रही है, सूरज की खुली धूप आने दो। सिकंदर उस संत से इतना प्रभावित हुआ कि उसने कहा - अगर मैं सिकंदर न होता तो मैं जीवन में डायोज़नीज़ होना पसंद करता । जिस आदमी के पास कुछ भी नहीं है फिर भी वह सम्राट बना हुआ है। तन पर कपड़े नहीं हैं फिर भी इतनी औलियाई ! इसी को कहते हैं संतत्व, साधुता । धन्यभाग हैं वे जिन्हें ऐसे संतों के दर्शन होते हैं, उनका आनन्द मिलता है। तुलसीदास, मानतुंगसूरि भी महान संत हो गए हैं। मानतुंगसूरि को कालकोठरी में कैद कर लिया जाता है और कहा जाता है कि चमत्कार दिखाओ। अड़तालीस तालों के अंदर बंद व्यक्ति कहता है चमत्कार मैं नहीं, चमत्कार तो ऊपर वाला दिखाता है। मैं तो केवल उनका भक्त हूँ। तब वे एक महान स्तोत्र की रचना करते हैं - भक्तामर स्तोत्र । बहुत प्रसिद्ध स्तोत्र है। कहा जाता है कि वे एक-एक पद गाते हैं और ताले टूटते चले जाते हैं। और वे स्वतंत्र हो जाते हैं। कहते हैं कि तुलसीदास को भी अकबर ने कैद कर लिया था, लालकिले में बंद कर दिया और कहा गया कि तुम इतना राम-नाम जपते हो, अब आज़ाद होकर दिखाओ। बताया जाता है कि तुलसीदास को बंद किये कुछ समय ही बीता होगा कि बंदरों ने ऐसा आक्रमण किया कि सैनिक लालकिले को छोड़-छोड़कर भागने लगे। अकबर तुलसीदास के पास गए और माफी माँगी। क्योंकि तुलसीदासजी हनुमान-भक्त थे। चमत्कार यह हुआ कि सारे बंदरों का हुजूम वहाँ चला आया। यह महान संतों की महान व्यवस्थाएँ हैं। १७५ For Personal & Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महान संतों की व्यवस्थाएँ वे ही जानें । संतों से दुनिया खाली नहीं रहती। आनन्दघन जी हुए हैं जो किसी पत्थर पर थूक देते तो वह भी सोना बन जाता था। उनके थूक में भी इतनी ताकत, इतनी सिद्धियाँ पैदा हो गई थीं। अभी पिछली शताब्दी में श्रीमद् राजचंद्रजी हुए । दादागुरुदेव हुए, शांतिविजयजी हुए, रामसुखदासजी, देवरिया बाबा हुए, मदर टेरेसा हुई, और भी बहुत से संत हुए। यह दुनिया जो इतनी शृंगारित है, महान संतों के तप-त्याग के कारण ही शृंगारित है। उनके पुण्य प्रबल हैं जिनके कारण यह धरती टिकी हुई है अन्यथा यह तो पापों से इतनी बोझिल है कि कभी की समाप्त हो चुकी होती। आज भी पृथ्वी पर ऐसे लोग हैं जो चाहे संत-जीवन में हों या गृहस्थ जीवन में, उनके पुण्य इतने प्रबल हैं कि यह धरती टिकी हुई है। हम लोग धरती पर आए हैं तो हमें भी चार फूल खिलाने चाहिए। हम सभी एक दिन ख़त्म हो जाएँगे पर सच्चाई तो यह है कि संसार के साथ संन्यास का भी आनन्द लिया जाना चाहिए। जिन्हें संन्यास का आनन्द मिल जाता है, वे न जो जन्मते हैं न ही मरते हैं। Never born never died. वे केवल मुसाफ़िर की तरह धरती पर आए, कुछ दिन रहे, जो सेवा बनी कर दी। प्रेम लिया, प्रेम दिया, उपहार लिये उपहार दिये और फिर से मुसाफ़िर बनकर किसी नए लोक की ओर प्रस्थान कर गए। मुक्ति का पथ तो जो चलते हैं वही पाते हैं। लेकिन हम सभी को यह स्मरण रखना चाहिए कि एक उम्र आनी चाहिए जहाँ पर संसार में रहते हुए संन्यास का फूल अवश्य खिल जाए। हम अपने-अपने जीवन को ही धन्य बना सकते हैं। खुद की ज़वाबदारी खुद पर ही है। आशा है हम लोग अपनी-अपनी ज़वाबदारी समझेंगे और निभाएँगे। सभी के लिए अमृत प्रेम । नमस्कार ! १७६ For Personal & Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना-पथ की समझ आज हम उस शिखर की ओर बढ़ रहे हैं जहाँ से हम आने वाले पड़ावों और तलहटियों को देख और समझ सकते हैं। जैसे किसी भी कार्य को अंजाम देने के लिए उस कार्य की जानकारी होना आवश्यक है वैसे ही साधना के मार्ग में कदम आगे बढ़ाने के लिए हमें उस साधना-मार्ग की बारीकियों का परिचय होना भी अनिवार्य है। भगवान महावीर साधक को शून्य का भी अहसास कराना चाहते हैं और पूर्ण का भी। यूँ समझें, आज की चर्चा शून्य से पूर्णता की ओर बढ़ाने वाला ज्ञान होगा। इस मार्ग में हमें प्रस्थान-बिंदु का भी पता चलेगा, एक-एक पड़ाव का भी अहसास होगा, बीच की फिसलनों की भी जानकारी मिलेगी और साधक की पूर्णता और सम्पूर्णता कहाँ होती है, इसके बारे में भी जानकारी प्राप्त करेंगे। ___पहले चरण में व्यक्ति को किसी भी विषय का भलीभाँति सम्यक् और समुचित ज्ञान होना आवश्यक है बाद में तो व्यक्ति का स्वयं पर ही निर्भर होता है कि वह साधना के मार्ग पर किस हद तक स्वयं को बढ़ाना और ले जाना चाहता है। भगवान बुद्ध का चर्चित वाक्य है - अप्प दीपो भव- अपने दीप तुम स्वयं बनो। कहते हैं - एक शिष्य अपने गुरु से विदाई ले रहा था कि चलते हुए गुरु ने उसके हाथ में जलता हुआ चिराग थमाया और कहा - ले जाओ बेटा, यह १७७ For Personal & Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा। शिष्य प्रसन्न हुआ कि रास्तों के अँधियारों से कोई दिक्कत नहीं आएगी। दीपक लेकर गुरुजी को प्रणाम किया, आश्रम की तीन परिक्रमाएँ लगाईं और निकल पड़ा। कुछ दूर पहुँचा होगा कि अचानक सामने गुरु आ गये, उन्होंने जोर की फूंक मारी और जलता हुआ दीपक बुझ गया। गुरु ने जैसे ही दीपक बुझाया शिष्य ने तुरंत कहा - गुरुदेव ! आपने यह क्या किया ? गुरु ने कहा - अब तुम्हें इसकी ज़रूरत नहीं है। शिष्य ने कहा - भन्ते, मार्ग में अंधकार बहुत है । यह दीपक आपने ही थमाया था और मैं इसी के सहारे आगे बढ़ना चाहता था। गुरु ने तब भगवान बुद्ध का वही वाक्य दोहराते हए कहा - प्रिय वत्स, मैंने तुम्हें जलता हुआ दीपक थमाया था, लेकिन तुम मेरे सच्चे शिष्य हो तो मैं तुम्हें अंतिम उपदेश देता हूँ कि तुम किसी अन्य के दीप के सहारे अपने रास्तों को पार मत करो। अपने दीप स्वयं बनो । अपने रास्तों का निर्धारण स्वयं करो । मुझे जो ज्ञान देना था वह मैंने तुम्हें दे दिया लेकिन अब उस दीपक को हटा देना चाहिए और तुम्हें अपनी अन्तर्दृष्टि के जरिए, अन्तर्ज्ञान के जरिए, अन्तरप्रकाश के जरिए अपने साधना के पथ को पार करना चाहिए और अपनी मंज़िल हासिल करनी चाहिए। कौन साधक कहाँ तक पहुँचेगा यह उस पर निर्भर करता है। केवल साधना के मार्ग को जान लेने मात्र से कुछ नहीं होगा। यह बोध रखना चाहिए कि हिमालय के नक्शे को देख लेने से हिमालय की यात्रा नहीं हो जाती। हाँ, हिमालय की ओर कदम बढ़ाने से पहले हिमालय के नक्शे को भलीभाँति देख लेना आवश्यक होता है। अगर कोई महिला भोजन बनाने की कला जानती है तो इससे भोजन नहीं बन जाएगा, पेट नहीं भरेगा, पौष्टिकता नहीं आएगी। जीना हमारे जीवन का दूसरा पहलू होगा लेकिन साधना के मार्ग को समझना हमारे जीवन का पहला सोपान होगा। विधि का, मार्ग का ज्ञान होना उस विधि को आत्मसात करने का पहला चरण होता है। महावीर ने मानव मात्र को आध्यात्मिक विकास की समझ देने के लिए आध्यात्मिक ज्यामिति स्थापित की और इसके लिए खास शब्द दिया – 'गुणस्थान' । इस शब्द को सुनने मात्र से ही हमें लगता है कि महावीर प्रत्येक व्यक्ति की चेतना को ऐसा आयाम देना चाहते हैं जो कि गुणवाचक है। याद रहे व्यक्ति के १५/ Jaih Education International For Personal & Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुण ही उसकी पूजा करवाते हैं न कि उसकी धन-सम्पत्ति या कुलीनता । ये उसे महानता नहीं देते वरन् व्यक्ति की गुणवत्ता ही उसे महानता देती है । खाली बोरी कभी खड़ी नहीं हो सकती । उसे खड़ा रखने के लिए उसमें कुछ-न-कुछ भरना ही होगा । व्यक्ति जन्म तो लेता है, पर अच्छे व्यक्तित्व का मालिक बनकर ही स्वयं को दुनिया में स्थापित कर सकता है और अपनी आध्यात्मिक उन्नति को भी उपलब्ध कर सकता है । सांसारिक उन्नति हो या आध्यात्मिक - दोनों के लिए व्यक्ति की गुणवत्ता आवश्यक है । 1 मैंने कभी बादशाह हसन की कहानी पढ़ी थी । एक दफ़ा वज़ीर और सभासदों ने मिलकर बादशाह से जिज्ञासा प्रकट की कि हम नहीं समझ पाए कि वह क्या वज़ह है जिससे आप इतने महान सुलतान हो गए। आपके पास न तो बहुत अधिक सम्पत्ति रही, न ही आपके पास कोई बड़ी सेना थी, फिर भी आप सुलतान कैसे बने ? बादशाह हसन मुस्कुराए और ज़वाब में कहा मैं नहीं जानता कि मैं सुलतान कैसे बन गया, पर इतना ज़रूर जानता हूँ कि जो व्यक्ति अपने मित्रों से प्रेम करता है, अपने शत्रुओं के प्रति भी उदारता बरतता है और हर व्यक्ति के प्रति सद्भाव रखता है, जिसमें ये तीन गुण रहते हों वे क्या सुलतान बनने की योग्यता नहीं दिलाते ? मुझे हसन की बातों ने प्रभावित किया कि आदमी के गुण ही उसकी इज़्ज़त करवाते हैं | लक्ष्मी तो चंचल है सो पैसा तो आता है, चला जाता है इसके आधार पर अगर मूल्यांकन किया जाए तो राजा की पूछ तभी तक होगी जब तक वह अपनी सीमा में रहेगा और उसके पास धन होगा । कोई भी बड़े से बड़ा पदाधिकारी तब तक सम्मान प्राप्त करता रहेगा जब तक वह किसी पद पर आसीन रहेगा। लेकिन जिस व्यक्ति के भीतर महान गुण होते हैं वह स्वयं में ग्रेट होता है। मैं भी और आप भी खुद को ग्रेट और फुल बनाएँ । ग्रेट अर्थात् महान और फुल अर्थात् पूर्ण - अपने आपको महान और पूर्ण बनाना ही तो साधक का लक्ष्य होता है । साधारण स्तर से उठकर असाधारण चेतना के स्वामी बनें । ग्रेटफुल होने के लिए ही तो साधक पूर्णता की साधना करता है। जब तक पूर्णता की साधना के लिए पूर्ण प्रयत्न नहीं करेगा तब तक वह पूर्ण तत्त्व को उपलब्ध नहीं कर पाएगा । For Personal & Private Use Only www.jainelibrg Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम चाहे सांसारिक जीवन जिएँ या आध्यात्मिक जीवन जिएँ, हमारे गुण ही हमारा उत्थान करते हैं । गुणवान व्यक्ति ही सदा सम्मान पाएगा और ऊँचाइयों को उपलब्ध होगा । जो दुर्गुणी है या निर्गुणी है उसे कहीं भी कोई सम्मान नहीं मिलता है। भगवान महावीर हमारे सामने साधना का एक ऐसा नक्शा रखते हैं जो यह बताता है कि यहाँ से रवाना होना है, यहाँ तुम खड़े हो, इधर-उधर के रास्तों से जाना है, इतनी-इतनी, ये-ये मुश्किलें आएँगी, तुम्हें कब कहाँ किससे सम्बल लेना होगा और कहाँ किस चीज का त्याग करना होगा । किस तरह से तुम आगे बढ़ोगे, कहाँ कौनसे ऐसे घेरे आएँगे जो तुम्हें उलझा देंगे और इनमें उलझकर तुम शिखर तक न पहुँच पाओगे महावीर की बात इसलिए कीमती है क्योंकि उन्होंने उस किनारे को देखा है, फिर भी पीड़ित आर्त लोगों के प्रति करुणाभाव से प्रेरित होकर कहना चाहते हैं कि मैं तो वहाँ तक देख आया हूँ अब तुम आओ और मेरी अँगुलियाँ थामकर वहाँ तक निकल चलो। महावीर अकेले मुक्त नहीं हुए। उन्होंने अकेले ही सारी गुणवत्ताओं को हासिल नहीं किया । अपने साथ हज़ारों हज़ार लोगों को मुक्ति का मार्ग दिखाया, उस पर लेकर चले । एक ऐसे स्थल की ओर जहाँ इतना अपरिसीम सुख और आनन्द मिलता है कि इस संसार में समृद्धि के द्वार पर खड़े चक्रवर्ती सम्राट् या बड़े से बड़े अमीर आदमी को भी नहीं मिलता । सिद्ध बुद्ध मुक्त आत्माओं और चेतनाओं को क्षण भर में जो आनन्द मिलता है वह समृद्ध से समृद्ध व्यक्ति को जीवन भर में भी नहीं मिल पाता । महावीर स्वयं मुक्त आत्मा, परमात्मा एवं विदेह - पुरुष हैं इसीलिए देह से भिन्न होकर देह को देख रहे हैं और विदेह होने की कला हम सभी को सिखा रहे हैं । 1 हम सभी महावीर की गुणस्थान की ज्यॉमिति को समझते हुए देखते हैं कि हम कहाँ खड़े हैं और किन-किन पड़ावों से हमें गुज़रना पड़ेगा। महावीर हमें सत्य के उगते हुए सूरज की ओर ले जाते हुए कहते हैं कि किस तरह से मैं जाकर आया और किस तरह तुम्हें भी एक-एक पड़ाव पार कराते हुए मुक्ति धाम की ओर, निर्वाण और मोक्ष की ओर, जन्म-मरण से मुक्त होने की ओर, लोक और भव - चक्र से मुक्त हो जाने की तरफ ले चल सकता हूँ । महावीर ने 'गुणस्थान' शब्द का प्रयोग करके बताया कि हम सब कहाँ खड़े हैं। उन्होंने चौदह धरातल, १८० Jain Bacation International For Personal & Private Use Only - Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानवजाति के लिए निर्धारित किए। इस भौतिक और आध्यात्मिक संसार को समझते हुए उन्होंने मानव की चौदह भूमिकाएँ समझीं और जानने की कोशिश की कि कौन व्यक्ति किस धरातल पर खड़ा है । अन्यथा आप में और महावीर में कोई फ़र्क़ नहीं है । आप में और मुझ में भी कोई बहुत फर्क नहीं है। फ़र्क़ केवल धरातल का है कि एक व्यक्ति छठे धरातल पर है तो एक चौथे धरातल पर है। कोई व्यक्ति आठवें धरातल पर खड़ा है तो कोई व्यक्ति महावीर और बुद्ध जैसा तेरहवें और चौदहवें धरातल पर खड़ा है। अर्थात् कोई व्यक्ति असत्य के कीचड़ में खड़ा है, कोई व्यक्ति सत्य के प्रकाश की ओर बढ़ चुका है तो कोई सत्य को आत्मसात कर चुका है तो कोई व्यक्ति सत्यमय हो चुका है। हम सभी कभी शिखर के ऊपर भी पहुँचते हैं पर हमारे पहुँचने में और सिद्ध बुद्ध मुक्त पुरुषों के शिखर पर पहुँचने में फ़र्क़ है । हम लोग ऊपर पहुँचते हैं जबकि उनके नीचे शिखर होता है। वे पहुँचे हुए हैं, हम अगर ऊपर पहुँचते हैं तो कभी भी वापस नीचे गिर सकते हैं, लेकिन जिनके नीचे शिखर होता है वे कभी गिरते नहीं हैं। जहाँ उनके कदम होते हैं उन कदमों के नीचे ही शिखर हुआ करता है । इसीलिए तो हम ऐसे महापुरुषों को शिखर पुरुष, स्वर्ण- पुरुष, अमृत - पुरुष कहते हैं । महावीर ऐसे ही अमृत-पुरुष, शिखर - पुरुष हैं । हम सब उनकी संतान हैं इसलिए अमृत - पुत्र हैं । हमारी रगों में उसी अमृत - तत्त्व का संचार हो रहा है क्योंकि पिता के गुण-दोष संतानों के खून में अवश्य ही प्रभावी होते हैं। चूँकि हम महावीर जैसे महापुरुषों की संतान हैं तो ऐसे ही हमारी रगों में उनके क्षात्रत्व का तेज, तीर्थंकर का खून समाया हुआ है। हमें गौरव होना चाहिए कि हम सिद्धों के, बुद्धों के वंशज हैं। जब भी लगे कि हमारी आत्मा भटक गई, हमारी आत्मा ठिठक गई या किसी से आवृत्त हो गई तब-तब यह आत्मविश्वास जाग्रत करना चाहिए कि मैं कोई गीदड़ों की संतान नहीं, मैं सिद्धों का वंशज हूँ। और सिद्धों का वंशज होने के नाते अन्य किसी तत्त्व से समझौता नहीं करूँगा । भले ही मैं इस भौतिक संसार में जीता हूँ, यहाँ पैदा हुआ हूँ और यहीं अपनी नश्वर देह का त्याग करूँगा, पर यह तय है कि जब भी ध्यान करूँगा, स्वयं को देखूँगा तब सिद्धों को अपना पूर्वज मानते हुए उस सिद्धशिला की ओर, उस सिद्धत्व की ओर बढ़ने का निरंतर प्रयत्न करता रहूँगा । मैं केवल बुद्धि के तल पर नहीं जिऊँगा, मैं हृदय और आत्मा के तल पर जिऊँगा । - For Personal & Private Use Only १८१ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धि के तल पर जीना विज्ञान है, पर हृदय और आत्मा के तल पर जीना अध्यात्म है। बुद्धि के तल पर जीना ऊपर-ऊपर जीना है पर आत्मा और हृदय के तल पर जीना गहराई में जीना है। मुक्ति का रास्ता बुद्धि के दरवाजे से नहीं खुलेगा, क्योंकि बुद्धि केवल तर्क-वितर्क करती रहेगी, बुद्धि संदेह और अश्रद्धा करती रहेगी, पर यह दिल का मामला है, अन्तआत्मा का मामला है, भीतर से उठने वाली पुकार का मामला है। जब तक भीतर से, दिल से पुकार न उठे, जिज्ञासा और प्यास तथा अभीप्सा न उठे तब तक व्यक्ति चाहे जितना साधनापथ को समझ ले तब भी साधना-मार्ग का अनुसरण नहीं कर पाता । वह कितनी ही बार साधना-मार्ग के बारे में क्यों न पढ़ ले फिर भी चार कदम साधना-मार्ग की ओर बढ़ नहीं पाता । क्योंकि बुद्धि से पढ़ा, बुद्धि से सुना, बुद्धि के दरवाजे को खोलने का प्रयत्न किया और बुद्धि से बात को फिट करने का प्रयत्न किया। यह तो हृदयवानों का रास्ता है, क्षत्रियों का मार्ग है, आत्मविश्वास का, जोश और होश का रास्ता है। केवल बातें करने वालों का यहाँ काम नहीं है। बनिया-बुद्धि वालों के लिए भी यह रास्ता नहीं है। इसीलिए महावीर की परम्परा में उनसे पहले सैकड़ों क्षत्रिय मुक्त हो गए और महावीर का अनुयायी अगर वणिक कौम का है तो वे अभी तक मुक्त नहीं हुए। क्योंकि वे क़दम बाद में रखते हैं लाभ-हानि पहले देखते हैं। महावीर का मार्ग जोख़िम का मार्ग है । यहाँ इश्क तो होगा, पर अपनी ही रिस्क पर इश्क होगा। मार्ग तो अत्यन्त सीधा-सपाट है, पर वैज्ञानिक है। वैज्ञानिक इसलिए कि किसी व्यक्ति ने उसे जी लिया । अगर कोई व्यक्ति दूसरे मार्ग को जी ले तो वह वैज्ञानिक हो जाता है। हाँ, अगर दूसरा व्यक्ति उसे न समझ पाए तो वह केवल दार्शनिक व्याख्याएँ करता रहता है। महावीर का मार्ग दार्शनिक का मार्ग नहीं है। मैं भी कोई दार्शनिक व्याख्या नहीं कर रहा हूँ, न ही सिद्धान्तों की व्याख्याएँ कर रहा हूँ। मैं तो जीवन-द्रष्टा हूँ और जीवन, जगत को देखते हुए, स्वयं को और दूसरों को देखते हुए, जीवन में जो बोध समझ में आता है वह अनुभव आप लोगों से बाँट लेता हूँ। मैं विचारक या चिंतक भी नहीं हूँ। मैं समझता हूँ तर्क-वितर्क से ईश्वर को पाया नहीं जा सकता । यह तो श्रद्धा का, निष्ठा का, सत्य को समझने और जीने का तथा प्रेम का मार्ग है। यह तो मुक्ति के लिए स्वयं को होश और बोध के साथ समर्पित करने का मार्ग है। १८२ For Personal & Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम महावीर के साथ चलते हैं, न तो आगे और न ही पीछे उनके साथ-साथ चलते हैं ताकि जब भी ज़रूरत लगेगी महावीर को पुकार लेंगे। हाँ, कहीं भी लुढ़के या फिसले तो उन्हीं से अनुरोध करेंगे कि हमारा हाथ थाम लो और हमें इस पार से उस पार ले चलो। हमारी मति दुर्मति हुई तो अनुरोध करेंगे कि सन्मति प्रदान करें, गति दुर्गति में परिणित हुई तो अनुरोध करेंगे कि हमारी गति सद्गति हो । हमारा अनुरोध ही हमारी प्रार्थना होगी, पूजा और भक्ति होगी । पहला धरातल जिस पर प्राणीमात्र खड़ा है उसे महावीर अज्ञान का, मिथ्यात्व, अविद्या अथवा माया-प्रपंच का धरातल कहते हैं । ऐसा धरातल जहाँ व्यक्ति की आँखों के सामने भले ही रोज सूरज उगता और अस्त होता हो, पर ज्ञान की दृष्टि से व्यक्ति के भीतर सदा अंधकार ही छाया रहता है । वह शरीर का पोषण करता है, भोग करता है, आनन्द लेता है । वह शरीर तक ही सीमित रहता है। उसके जीवन की धुरी शरीर और इन्द्रियों तक ही सीमित रहती है । वह ज्ञान को ज्ञान नहीं समझता और अज्ञान को अज्ञान नहीं समझता । वह तो ज्ञान को अज्ञान और अज्ञान को भी ज्ञान समझ लेता है । असत्य को सत्य और सत्य को असत्य समझता है । वह विद्या को अविद्या और अविद्या को विद्या समझने लगता है। जबकि हमें लगता है कि यहाँ कोई हमारे माता-पिता हैं, कोई पत्नी, कोई भाई-बहिन हैं पर महावीर की भाषा में कहें तो हम सब उसी तरह हैं जिस तरह नदी में अलग-अलग पत्ते बह रहे हों। हमें भले ही लगे कि हमारा अलग-अलग अस्तित्व है, पर हम बहते हुए प्राणी हैं, जिनका कब किसका किसके साथ संयोग हो जाए। लेकिन फिर एक ऐसी लहर आएगी कि पत्तों को जुदा कर देगी । फिर नया जन्म होगा और हम नया जीवन धारण कर लेंगे । जन्म-मरण की इस धारा में पता नहीं हम कितनी बार मिले हैं। कोई हमारा गुरु हो और पिछले जन्म में वही शिष्य रहा हो। हो सकता है इस जन्म में जो आपकी पत्नी है अगले जन्म में आपकी माँ हो । इस धारा में कुछ पता नहीं चलता, कभी पीपल के पत्ते के पास नीम की छोटी-सी पत्ती आ जाती है, कभी इमली के बूटे के पास बादाम का बड़ा पत्ता लग जाता है । यह मिथ्यात्व का धरातल है, अज्ञान का धरातल है । पर दुनिया में लोग इसी अज्ञान For Personal & Private Use Only १८३ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से प्रेरित होकर जी रहे हैं। उन्हें केवल धन ही दिखाई देता है, पत्ती ही दिखाई देती है। ज़मीन-जायदाद ही दिखाई देती है, इस शरीर का भरण-पोषण ही दिखाई देता है, इसके अतिरिक्त कुछ दिखाई नहीं देता। यह आसक्ति का, मोह का धरातल है। यह ज़रूरी नहीं है कि हम जन्म-जन्मान्तर तक अज्ञान के धरातल पर ही अटके रहेंगे। दूसरा धरातल - भगवानश्री कहते हैं - जीवन में कभी खुद के अनुभव से, किसी पवित्र वाणी को सुनकर उसे अन्तर्बोध की एक किरण मिल जाती है तब वह थोड़ा-सा उस धरातल को पार करता है और दूसरे धरातल पर अपने कदम बढ़ा लेता है। तब कहा जाता है कि इसने सत्य का कुछ स्वाद चखा है, परमात्मा की छोटी-सी किरण अर्जित की है। उसे लगता है कि अब थोड़ा-सा धर्म करना चाहिए। थोड़ी-सी झलक, थोड़ा-सा प्रकाश उदित होता है तब व्यक्ति दूसरे धरातल पर अपने कदम रखता है जिसे भगवानश्री ‘सासादन' कहते हैं। ‘सासादन' अर्थात् अब थोड़ा स्वाद चखा। . ___ तीसरा धरातल है मिश्र, जिसमें हम इस शरीर और आत्मा दोनों को मानते हैं। परमात्मा को भी मानते हैं और जीवन की सच्चाई भी स्वीकार करते हैं। दुनिया की अस्सी प्रतिशत आबादी ऐसी है जो मिश्रित तरीके से जी रही है। थोड़ा-थोड़ा धर्म, थोड़ा-थोड़ा अधर्म, थोड़ा पाप, थोड़ा पुण्य । आज प्रायः हरेक व्यक्ति परमात्मा में तो विश्वास रखता है, पर निजी जिंदगी को ऐश के साथ जीना चाहता है। आज के युग में व्यक्ति को पूजा-प्रार्थना, इबादत करने में दिक्कत नहीं है लेकिन निजी जिंदगी में पूरे ऐशो-आराम चाहता है। अर्थात् सत्य भी है और रिश्वत भी है, योग भी है भोग भी है, प्रार्थना भी है कामना भी है - व्यक्ति दोनों तरह से संतुलित होकर जीने का प्रयत्न कर रहा है। श्री प्रभु की भाषा में यह तीसरा धरातल है। एक दफा किसी व्यक्ति ने मुझसे पूछा - क्या वह प्रार्थना करते हुए सिगार पी सकता है। मैंने कहा - ऐसी गलती मत करना, प्रार्थना करते हुए सिगार पीने का पाप मत ढो लेना। अगले दिन उसका दोस्त आया और पूछा - क्या वह सिगार पीते हए प्रार्थना कर सकता है। मैंने कहा - बिल्कुल कर सकते हो। वह सिगार पीता हुआ प्रार्थना करने लगा। अगले दिन वे दोनों एक साथ आए और १८४ For Personal & Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोले - आपकी बात समझ में न आई। एक को आपने मना कर दिया और दूसरे को इज़ाज़त दे दी। मैंने कहा - हाँ, इज़ाज़त तो दे दी । उसने कहा - फिर आपने आपने क्या पूछा था ? उसने बताया कि उसने कहा था मुझे मना क्यों किया। मैंने कहा क्या वह प्रार्थना करते हुए सिगार पी सकता है ? तो मैंने आपको मना कर दिया। प्रार्थना करते हुए सिगार पीना अच्छी बात नहीं है । लेकिन अगर कोई पूछता है कि सिगार पीते हुए प्रार्थना कर सकता हूँ तो मैं इज़ाज़त दूँगा और कहूँगा तुम ऐसा कर सकते हो । 1 - - एक व्यक्ति मंदिर में प्रार्थना करते हुए शराब की बोतल को याद करता है तो यह उसके लिए गलत है लेकिन कोई मदिरालय में खड़ा होकर शराब पी रहा हो और पीते हुए भी श्रीभगवान को याद कर रहा है तो यह उसके लिए पुण्य की बात है । सोच और नज़रिए का फ़र्क़ है कि एक गलत रास्ते पर जाते हुए भी ईश्वर को याद करता है और दूसरा ईश्वर के रास्ते पर चलता हुआ भी गलत काम करने की सोचता है। दुनिया में कुछ लोग ऐसे होते हैं जो धर्म करते हु भी धंधा कर जाते हैं और कुछ धंधा करते हुए भी उसमें धर्म करने का विवेक रख लेते हैं। धर्म करते हुए धंधा करना पाप है, धंधा करते हुए भी उसमें धर्म कर लेना पुण्य है । तीसरा धरातल 'मिश्र' है । थोड़ा इधर का भी थोड़ा उधर का भी । चौथा धरातल है - व्यक्ति जो मिश्र धरातल पर जी रहा था वहाँ उसे अहसास होने लगा कि दोनों नावों पर सवार होकर नहीं चला जा सकता। एक ही नौका को महत्त्व देना होगा और तब वह परमात्मा के हाथ को थामने का मानस बना लेता है और इसे कहते हैं- 'सम्यक्दर्शन या सम्यक् दृष्टि' का धरातल । जहाँ व्यक्ति के भीतर अन्तर्दृष्टि, चैतन्य - दृष्टि, आत्मदृष्टि का भाव उजागर हो जाता है। यहाँ व्यक्ति उस धरातल पर आ गया है जहाँ अनासक्ति का फूल खिलाने के लिए सत्य में आस्था रखेगा । सत्य के प्रति श्रद्धा यानी आस्था जग गई । ईश्वरीय तत्त्व के प्रति श्रद्धा और आस्था की लौ सुलग यह चौथा धरातल हुआ जहाँ व्यक्ति के अन्तर्मन में सिद्धत्व, बुद्धत्व और ईश्वरीय चेतना के प्रति आस्था का फूल खिला । श्रद्धा बलवती राजन् ! श्रद्धा ही एकमात्र ताकत है जिसके बलबूते अस्सी वर्षीय वृद्ध भी चारों धाम की यात्रा उठी । www.jainell&4borg For Personal & Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने निकल जाएगा। घर-गृहस्थी में उलझी महिला भी झट से आठ उपवास करने को तैयार हो जाती है। यह कौन-सी ताकत है ? यह श्रद्धा की ही ताकत है कि भरी सर्दी में भी व्यक्ति गंगा जी में डुबकी लगाने को तैयार हो जाता है। श्रद्धावश व्यक्ति हिमालय स्थित मानसरोवर झील के बर्फ जैसे पानी में भी डुबकी लगा लेता है। महावीर की भाषा में यह चौथा धरातल है जो सत्य के प्रति श्रद्धा का धरातल है। सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् तत्त्व के प्रति श्रद्धा । यही है जो हमें आगे बढ़ाती है। महावीर हमें पाँचवाँ धरातल ‘मर्यादा और संयम' देते हैं। जीवन में यम-नियम-व्रत को धारण करने का धरातल । अब व्यक्ति व्यक्ति न रहा, गृहस्थ गृहस्थ न रहा। अब वह श्रावक हो गया। उसे खास संज्ञा दी जा रही है कि अब वह श्रावक हो गया है। श्रावक का अर्थ है - श्र = श्रद्धा, व = विवेक, क = क्रिया अर्थात् श्रद्धा सहित विवेकपूर्वक क्रिया करने वाले व्यक्ति को श्रावक कहा जाता है। पाँचवें धरातल पर व्यक्ति राम का पथिक बना, स्वयं को थोड़ा मर्यादा में लेकर आया कि वह स्वयं को एकपत्नी व्रत तक सीमित रखे। किसी प्रकार की सामान्य हिंसा अपने हाथ से न होने दे। जहाँ तक संभव होगा झूठ नहीं बोलेगा, जहाँ तक संभव होगा चोरी नहीं करेगा, व्यभिचार नहीं करेगा, अनावश्यक परिग्रह और संग्रह अपने पास नहीं सँजोएगा। यह वह धरातल है जो इन्सान को एक खास व्रत, खास परिधि, खास सीमा, खास मर्यादा में आने को प्रेरित करता है। जैसे समुद्र अपनी सीमा में रहता है, जैसे नदी दो किनारों में बँधी रहती है वैसे ही व्यक्ति की चेतना, उसकी कार्य-प्रणाली, उसकी जीवन-शैली भी मर्यादा की लक्ष्मणरेखाओं में अपने आपको बाँधने का प्रयत्न करती है। यह हमने जो इस बिखरे हुए पानी को दो तटों के बीच में लाकर बाँधने का प्रयत्न किया है इसी का नाम 'श्रावक गृहस्थ-धर्म' है और यही इन्सान का पाँचवाँ धरातल है। __ ज्यों-ज्यों अन्तर्-बोध गहरा होगा, हमारी स्वयं के प्रति जिज्ञासा, अभीप्सा पैदा होगी, त्यों-त्यों हम स्वयं को नियम और मर्यादा में लाना चाहेंगे। अन्यथा आज के युग में तो चारों ओर उन्मुक्त भोग चल रहा है, सेक्सी वातावरण बन चुका है, अपराध, आतंकवाद, अस्त्र-शस्त्र का माहौल बन चुका है। ऐसे १८६ For Personal & Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माहौल में व्यक्ति का जीना नदी के जल के बिखरने के समान ही कहलाएगा । अगर हम अपनी जीवन - नदी को गंगासागर तक ले जाना चाहते हैं तो व्रत, नियम, मर्यादा के तटों के बीच में संतुलित ढंग से बहना होगा । हम देखते ही हैं थोड़ा-सा भी तप-त्याग करें तो पति कह देते हैं, नहीं-नहीं कुछ करने की ज़रूरत नहीं, चलो बैठो और खाना खा लो, अन्तराय दे देते हैं, बाधक बन जाते हैं। अपने को वापस खींच लिया करते हैं । मैंने सुना है कि एक कुत्ता तीर्थयात्रा करने के लिए निकला। रास्ते में उसे एक समझदार व्यक्ति मिला। उसने पूछा- कहो, कहाँ जा रहे हो ? जनाब, तीर्थयात्रा पर जा रहा हूँ - कुत्ते ने कहा । आदमी चौंका कि कुत्ता भी तीर्थयात्रा के लिए निकला। उसने फिर पूछा - कब तक कर आओगे । कुत्ते ने कहा- भाई, अब तक तो तीन दफा यात्रा हो चुकी होती पर क्या करूँ जहाँ भी जाता हूँ, मेरी अपनी बिरादरी के लोग मेरी टाँग पकड़कर मुझे वापस खींच लाते हैं तो आगे की तरफ बढ़ नहीं पाता । ये जो अपनी बिरादरी के लोग होते हैं, जो अपने कहलाते हैं वही आध्यात्मिक उन्नति में सबसे बड़े बाधक बन जाते हैं । दूसरे कोई बाधक नहीं बनते। जिन्हें हमने अपना नाम दे रखा है कि ये मेरे अपने हैं ये ही हमारे लिए बाधक बन जाते हैं। आपकी धर्मबहिन बाधक नहीं बनेगी, पर धर्मपत्नी बाधक बन जाती है। एक दिन की बात है । मैं मजाक के मूड में था। किसी ने मुझसे पूछा - गुरुजी ! बहिन और धर्मबहिन का मतलब तो समझ में आता है, पर पत्नी और धर्मपत्नी का मतलब समझ में नहीं आया । बहिन और धर्मबहिन तो दो होती हैं लेकिन पत्नी और धर्मपत्नी भी क्या दो होती हैं ? मैं मजाक के मूड में था, मैंने कहा - जो पतन की ओर ले जाए वह पत्नी और जो धर्म के रास्ते पर ले जाए वह धर्मपत्नी । किसी भी व्यक्ति के कारण अगर किसी के भीतर कोई रंग चढ़ा, अध्यात्म का, धर्म का रंग चढ़ा तो ये जो अपने होते हैं वही बाधाएँ खड़ी कर देते हैं । लेकिन जिन्हें समझ आ जाती है वे इन अपनों से ऊपर उठ जाते हैं । ये अपने भी तभी तक अपने होते हैं जब तक इनके स्वार्थों की पूर्ति होती रहती है। एक युवक की कहानी है। वह किसी महाराज के पास सत्संग सुनने जाया करता था । उसके For Personal & Private Use Only १८७ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंदर भाव भी जग गये कि वह संन्यास ले ले। उसने अपने गुरु से कह भी दिया कि उसके बहुत प्रबल भाव हो रहे हैं कि वह संन्यास ले ले और हरिभजन में लग जाए। पर क्या करे घर वाले मानते नहीं, कर्तव्यों से बँधा है, माता-पिता कहते हैं अगर वह महाराज बन गया तो वे भूखे मर जाएँगे। पत्नी कहती है कि तुम संन्यासी हो गए तो मैं आत्महत्या कर लूँगी। भाई लोग भी विरोध करते हैं। अब क्या करूँ, मेरे भाव तो बहुत बनते हैं, पर कुछ हो नहीं पाता । गुरुजी ने पूछा - क्या तू सचमुच संन्यासी होना चाहता है ? कहा कि - मेरे भाव तो बहुत हैं। तब गुरु ने कहा - इधर मेरे पास आ । मैं तुझे एक प्रयोग सिखाता हूँ। आज देख ही लेते हैं कि तेरे भाव प्रबल हैं या तेरे घरवालों के। गुरु ने उसे प्राणायाम का एक प्रयोग सिखा दिया और वह घर जाते ही आँगन के बीच में धड़ाम से गिर पड़ा। घरवालों ने देखा कि अरे यह क्या हो गया। सब तरफ से चेक किया तो न दिल धड़क रहा था और न ही श्वास चल रही थी, नब्ज भी बंद । घर में मातम छा गया। पड़ोसी इकट्ठे हो गए । श्मशान ले जाने की तैयारी होने लगी। जैसे ही उसे कफन ओढ़ाने लगे तभी वे महाराज वहाँ प्रगट हो गए और नमो नारायण, नमो नारायण कहते हुए घर में प्रविष्ट हो गए। आते ही पूछा - क्या हो गया ? बताया कि - देखिए आपका शिष्य मर गया। महाराज ने कहा - अरे, मेरा चेला मर गया, ऐसा कैसे हो सकता है। वह तो मुझे बहुत प्रिय था। वह कैसे मर सकता है ? हटो, हटो, सब लोग हटो, मैं देखता हूँ। रोते हुए सब लोग चुप होकर एक किनारे हट गए । महाराज ने छाती पर हाथ रखा, नब्ज पर हाथ रखा और थोड़ा-सा गम्भीर होते हुए कहा - मुझे लगता है यह युवक जीवित हो सकता है। सब एकदम बोले - क्या बात करते हैं, क्या ऐसा हो सकता है, आप तो बड़े चमत्कारी हैं। अद्भुत, अगर आप ऐसा कर सकें तो पूरा परिवार आपका जीवन भर ऋणी रहेगा। महाराज नाटकबाजी करने लगे। कहा - एक कटोरी गंगाजल ले आओ। गंगाजल आया, उन्होंने कुछ मंत्र पढ़े और उस युवक के शरीर की पाँच-सात परिक्रमाएँ लगाईं, कटोरी को फूंक मारी और कहा – यह युवक अभी इसी समय जिंदा हो जाएगा बशर्ते इस कटोरी के जल को कोई दूसरा व्यक्ति पी ले। पर ध्यान रहे, जो भी इसे पिएगा वह मर जाएगा और यह युवक जीवित हो जाएगा। १८८ For Personal & Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहते हैं यह सुनते ही सारे लोग थोड़ी दूर खिसक गए यह कहते हुए कि किसी के साथ मरा थोड़े ही जाता है, मात्र रोया जा सकता है। सभी बगलें झाँकने लगे। माँ-बाप ने कहा - हम कैसे पी लें। एक ही लड़का तो है नहीं, चार लड़के और हैं, ऐसे हम किस-किस के लिए मरेंगे । भाई कहने लगे - अभी तो हमने ज़िंदगी का मज़ा ही नहीं लिया। अभी तो हमारी शादी भी नहीं हुई, हम कैसे मर सकते हैं। पत्नी भी आई, संत ने कहा - तू तो इसके लिए मर रही थी, बहुत रो भी रही थी, तू ही इस जल को पी ले। पत्नी ने कहा - जो होना था सो हो गया, मैं अब जैसे-तैसे अपना जीवन गुजार लूँगी । सबने अपने-अपने बहाने बताए और पीछे हट गए। तब महाराज ने कहा - कोई बात नहीं अगर तुम में से कोई भी पीने को तैयार नहीं है तो यह कटोरा मैं ही पी जाता हूँ। घरवालों ने कहा - आप धन्य हैं महात्मा जी, आप तो मुक्त आत्मा हैं, आप तो परमहंस हैं, आप तो धन्यभागी हैं, आपका तो जीवन ही जन्म-मरण से मुक्त है, आप तो विदेह पुरुष हैं, अगर आप पी भी लेंगे तो क्या फ़र्क पड़ेगा। महाराज ने जैसे ही अपने मुँह के आगे कटोरा लाया तभी वह युवक जो सोया हुआ था झट से उठकर बोला - गुरुदेव आपको यह जल पीने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि इस जल को पीनेवाला जाग चुका है। यह कहते हुए वह उठ बैठा । घरवाले अवाक रह गए कि यह क्या खेल था। युवक खड़ा होता है, वह पानी पी लेता है, गुरुजी का झोला पकड़ता है और उन्हीं के साथ प्रभु-भजन और हरिभजन के लिए निकल पड़ता है। ऐसे लोग जो निकल जाते हैं, वे ही छठे धरातल पर आते हैं। यह संन्यास का धरातल है, प्रभु भजन का धरातल है कि मोह-माया के नश्वर पाश, नश्वर बंधन, व्यर्थ के आग्रह सब छोड़कर व्यक्ति निकल जाता है। पंछी जो अब तक नीड़ में उलझा था, मकड़ी जो अब तक मायाजाल में उलझी हुई थी थोड़ी-सी चेतना जगी और व्यक्ति निकल पड़ा। जीवन में अगर कभी संन्यास लेने की वेला आ जाए तो मुहूर्त तलाशने की मूर्खता मत करना । क्योंकि दुनिया में सौ में से अस्सी लोगों के अगर संन्यास के भाव जगे होंगे तो वे माँ-बाप से पूछने और मुहूर्त निकालने के चक्कर में अस्सी में से नब्बे प्रतिशत लोग वापस लौट कर चले गए। जिस समय जो भाव हो जाए उस समय उसको कर लेना ही श्रेष्ठ मुहूर्त है। आप अपनी अन्तआत्मा की प्रेरणा से जिओ न कि किताबों या १८९ For Personal & Private Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचांगों के मुहूर्तों के आधार पर जिओ । जब तुम्हारी आत्मा कहती है ऐसा करो तो कर डालो। क्योंकि जो हो गया सो हो गया और जो सोचता रहा वह सोचता ही रह गया। दुनिया में कोई भी व्यक्ति सोच-सोच के आज तक कुछ नहीं पा सका। मन के अन्तर्द्वन्द्व में उलझकर व्यक्ति अपने समय को बर्बाद करता रहता है और जरूरी नहीं है कि तब जो भाव उठे थे वे बरकरार रह ही जाएँ। किसी के भीतर जो भाव हैं वे दूसरे दिन भी विद्यमान रहें, ऐसा ज़रूरी नहीं है । ईश्वर हमें वर्तमान देता है, आज देता है, आज के भाव देता है इसीलिए हम आज को Present कहते हैं । Present मतलब उपहार, यह वह हमें आज दे रहा है। आज जो अच्छे भाव हैं अगर हम उनका अनुसरण कर सकते हैं तो आज ही कर डालें और अगर बुरे भाव उठ जाएँ तो उन्हें हमेशा कल पर टालने की आदत डालें, ताकि हमारे द्वारा अशुभ कम हो और शुभ आज और अवश्य हो । 1 छठा धरातल ‘संन्यास' का है । धन्य भागी हैं वे लोग जो संन्यासी हैं, संत - जीवन धारण करते हैं । वे बाहर से भी मुक्त हुए और भीतर से भी मुक्त हुए। संन्यास हमें स्वाधीनता, स्वतंत्रता देता है । व्यक्तिगत रूप से मुझे हिंदू धर्म की संन्यास परम्परा अच्छी लगती है क्योंकि वहाँ पर पूरी स्वाधीनता है । मैंने जिस परम्परा में संन्यास लिया है वहाँ संन्यास लेने के बाद पता चला कि यहाँ स्वाधीनता कम और पराधीनता ज्यादा है, बंधन अधिक हैं। समाज और सामाजिक मर्यादाओं की इतनी ज्यादा बंदिशें नज़र आने लगीं कि मुझे अहसास होने लगा कि असली संन्यास वही है जहाँ व्यक्ति को स्वाधीनता मिल गई कि वह अपने अध्यात्म के धरातल पर जी सके । हरि को जैसे भजना है भजो । अब तुम मुक्त हो और अपने बोध से मुक्ति को जीना है । यही सच्चा संन्यास है अन्यथा बंधन तो गृहस्थ में थे ही। संन्यास में आने के बाद भी वही बंधन जारी रहे तो संन्यास कहाँ हुआ ? एक घेरा छोड़ा, दूसरे में आ गए। बैल ने एक खूँटा छोड़ा दूसरा धारण कर लिया । इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता है। आत्मभाव और अहोभाव में जीने वाला व्यक्ति ही संन्यासी होता है । जो अपनी भाव - दशाओं में, आत्म- दशाओं में उन्नत आत्म-चिंतन करते हुए, उन्नत आत्म-दशा को रखते हुए ईश्वरीय चेतना का ध्यान करता है १९० For Personal & Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वही व्यक्ति सच्चा संत होता है। सच्चा संन्यास भी यही है। पर होता यह है कि संन्यास लेने के बाद कई तरह की मोह-माया तो छोड़ आया पर अन्य कई तरह की मोह-माया अपने साथ जोड़ बैठा । जब संन्यास लिया तब तो बहुत उन्नत भाव थे लेकिन बाद में ढीले पड़ गए । मन से ढीले हो गए, अध्यात्म दशा में ढीले हो गए और दुनियादारी के प्रपंच में ही उलझकर रह गए। अब संन्यास अध्यात्म का आराधक कम रहा है, समाज का आराधक ज़्यादा हो गया है। अब तो संत लोग भी अमीरों से जुड़ गए हैं और अमीर लोग अपनी इज्जत बढ़ाने के लिए संतों से जुड़ गए हैं। मुझे लगता है दुनिया में जितने भी संत बने हुए हैं उन्हें फिर से एक बार और संन्यास लेना चाहिए, मुझे भी और अन्य सभी को भी । एक संन्यास वो लिया जब हमारे भीतर संयम के भाव बने । अब अध्यात्म के, निर्वाण के ऐसे परम उत्कृष्ट भावदशा के साथ पुनः संन्यास होना चाहिए। यह संन्यास किसी के कहने से नहीं स्वयं की अन्तःप्रेरणा से होना चाहिए । जन्म-जन्मांतर के बाद किसी भव्य प्राणी में यह भव्य पराक्रम करने के भाव जगते हैं कि वास्तव में मैं ईश्वरीय ध्यान के लिए स्वयं को समर्पित करता हूँ। __इससे कुछ फ़र्क नहीं पड़ता है कि हमने क्या किया या क्या नहीं किया, किस तरह से किया। इन सब व्यवस्थाओं का अधिक मूल्य नहीं है, ये सब जीवन जीने के साधन हैं। साधनों में परिवर्तन करना महत्त्वपूर्ण नहीं है, ज़रूरी है अन्तर् दशा, भाव-दशा, भीतर की सजगता, भीतर की जागरूकता में परिवर्तन हो। सभी अपना-अपना उद्धार करेंगे, हम सहयोगी हो सकते हैं पर किसी का उद्धार नहीं कर सकते । कोई माता-पिता नहीं चाहते कि उनका बेटा बिगड़ा हुआ निकले फिर भी निकल जाता है यह भी अपना-अपना प्रारब्ध है । हम कितने भी अच्छे संस्कार दे दें तब भी शिकायतें मिलती रहती हैं। कुछ लोग पूर्व जन्म के विकृत संस्कारों के साथ ही जन्म लेते हैं जो पुनः पुनः उदय में आते हैं। यह तो भव्य लोगों में भव्य पराक्रम करने के सत्वशील भाव पैदा होते हैं तब ही कोई व्यक्ति बाहर निकल पाता है। जो बाहर निकल पाता है वे ही लोग सातवें धरातल पर पहुंचते हैं। यह धरातल ‘अप्रमत्त दशा' का है। अर्थात् व्यक्ति अब अपने लिए जग गया। उसे अपने दायित्वों का बोध हो गया, उसे स्वयं से प्यार हो गया। हमें दूसरों से तो १९१ For Personal & Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्यार होता है, पर अपने आपसे प्यार नहीं होता। अध्यात्म अपने आपसे प्यार है। ध्यान भी अपने आप से अपनी मोहब्बत है। जब गीता कहती है कि अपने द्वारा अपना उद्धार करो तो इसका अर्थ यही हुआ कि खुद से प्रेम का रिश्ता जोड़ो। हमारा पहला मित्र हम खुद हैं। अगर स्वयं को अपना मित्र मानोगे तो दुनिया में सब लोगों से मित्रता साध लोगे। अगर स्वयं के प्रति अपनी मंगल मैत्री न सधी तो किसी के प्रति मित्रता होगी और किसी के प्रति शत्रुता । क्यों ? क्योंकि हम दूसरों से ही जुड़ते चले गए। अगर स्वयं से प्रेम किए बिना दूसरों से प्रेम किया तो यह प्रेम टूट भी सकता है। प्रेम में जो हमें स्वयं में दिखाई देता है वही सबमें दिखाई देता है। जो परमात्मा हमें खुद में नज़र आता है वही सबमें दिखाई देता है। जो स्वयं से नफ़रत नहीं करता वह दूसरों से भी कभी नफ़रत नहीं कर सकता। दूसरों से नफ़रत करना स्वयं से ही नफ़रत करने के समान है। ___ मेरे भीतर हमेशा मुस्कान भरी रहती है, क्यों ? इसलिए नहीं कि दूसरों को मुस्कान देनी है बल्कि इसलिए कि भीतर में मुस्कान है अतः दूसरों तक पहुँच जाती है। अध्यात्म का मूल नज़रिया है कि तुम अपने आपसे प्रेम करो, अपनी चेतना, अपनी आत्मा, अपनी मुक्ति से प्रेम करो। फिर तुम जो कुछ भी करोगे तुम्हें मुक्ति ही मिलेगी। पर अपनी मुक्ति को भूलकर दूसरों की मुक्ति के लिए जागरूक बनोगे तो उनकी मुक्ति भी तुम्हारे लिए बंधन बन जाएगी । वे मुक्त हो पाए कि न हो पाए किंतु तुम ज़रूर बँध जाओगे। सातवाँ धरातल ‘अप्रमाददशा' का है कि जाग गया। कोई व्यक्ति सोया हुआ था पर जाग गया। हम सभी ऊँघ रहे हैं, पर कभी कोई जाग गया। कहते हैं रज्जब अपने गुरुजी के पास पढ़ने के लिए गया था। शिक्षा अर्जन करते हुए संन्यास के भाव बन गए । संन्यास लेना भी चाहता था, पर गुरुजी ने उसके भोजन की व्यवस्था एक सद्गृहस्थ के घर में कर रखी थी। वहाँ एक सुन्दर-सी लड़की थी। रज़्ज़ब को उससे प्रेम हो गया और शादी करने का संकल्प कर लिया। शादी तय हो गई। शादी करने के लिए एक दिन घोड़ी पर चढ़कर निकल भी पड़ा। जैसे ही शादी के लिए तोरण पर पहुँचा तभी गुरुजी आ गए। और गुरुजी ने कहा – वाह रे रज्जब - रज्जब तें गज़्ज़ब किया, सिर पर बांधा मौर । आया था हरिभजन को, करे नरक की ठौर ।। १९२ For Personal & Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुजी ने मारा सोटा और जनम-जनम का सोया हुआ रज्जब जग गया। यानी कि साधना अपने-आप में प्रकट हो गई। ज़िंदगी में कोई ऐसा सोटा मारने वाला गुरु मिल जाए तो ही व्यक्ति की आत्मा जग पाती है वरना अज्ञान में सोये जीव को जगाना आसान नहीं है। सोया रहता है अपनी मूर्छा में, मिथ्यात्व व माया में। माया की परतें जल्दी से हटती नहीं हैं। सद्गुरु का महत्त्व ही इसीलिए है कि वे आते हैं और जगा देते हैं कि कब तक सोया रहेगा। इस मूर्छा की गहरी नींद से जगाने वाला व्यक्ति ही सद्गुरु है। जब कोई व्यक्ति जागरूकता की ओर बढ़ता है तब कहीं उसके जीवन में आठवाँ धरातल प्रगट होता है जिसे भगवानश्री ‘अपूर्वकरण' नाम देते हैं। इस धरातल पर चलने वाले साधक का आभामंडल अपूर्व हो गया है। यहाँ अपूर्व स्थिति हो गई है। जैसी स्थिति पहले थी अब वह स्थिति नहीं रही। अब तो उसके भीतर ऐसी अद्भुत क्रांति हो गई है, चेतना में वह रूपान्तरण हो गया है कि पाषाण पाषाण न रहा, पाषाण भी परमात्मा होने के करीब हो गया। अब तो ‘पद घुघरू बाँध मीरा नाची रे' - अब तो ऐसी थिरकन आ गई, ऐसा आनन्द चित्त में फूट पड़ा कि भगवान उसे अपूर्व-अपूर्व-अपूर्व दशा कहते हैं। ऐसी सच्चिदानंदमयी दशा जाग्रत हो गई जो इस लोक-चक्र में अभी तक नहीं थी। यह आठवीं स्थिति अद्भुत स्थिति है। कोई भी साधक मुक्त चेतना की ओर तभी बढ़ता है जब वह अपनी आत्म-दशा में अतिशय श्रद्धा से भरी हुई, सत्य के सूर्य के प्रकाश की दशा से गुजरता है। तभी आगे के धरातल इन्सान के करीब आते हैं। आगे के धरातल क्या हो सकते हैं यह तो तभी समझने चाहिए जब वह पहले धरातल से निकलकर आगे बढ़ते हुए आठवें धरातल पर कदम रख देता है तब उसे स्पष्ट रूप से आगे के धरातल खुद-ब-खुद नज़र आने लगते हैं। जब व्यक्ति इस दशा तक नहीं पहुँचता है तब आगे के अदृश्य लोक में दिखाई देने वाले धरातल व्यक्ति की पकड़ में नहीं आ पाते । केवल ऊँचे शिखरों को देखो मत, बल्कि अपने भीतर विश्वास जगाएँ, सत्य के प्रति निष्ठा जगाएँ और चार कदम आगे बढ़ाएँ। अपनी ओर से इतना ही अनुरोध है। आप सभी को प्रेमपूर्ण नमस्कार। For Personal & Private Use Only www.jainelk९३.org Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्ति का सरल मार्ग महर्षि दयानंद सरस्वती के जीवन की घटना है कि वे मानव-जाति का कल्याण करते हुए . भारतीय संस्कृति और भारतीय दर्शन की सेवा में लगे हुए थे। अचानक एक दिन उनके किसी विरोधी ने उन्हें भोजन के साथ विष दे दिया । ज़हर का प्रभाव चढ़ा। उनके किसी मुस्लिम भक्त ने ज़हर देने वाले व्यक्ति का पता कर लिया और पकड़कर उनकी सेवा में उपस्थित कर दिया । दयानन्द सरस्वती ने जब उसे सामने देखा तो कहा - इसे छोड़ दो। उस भक्त ने कहा यह आप क्या कह रहे हैं? इसने आपको ज़हर दिया है और आप कहते हैं छोड़ दो । सरस्वती ने मुस्कुराते हुए कहा- भैया! मैं इस संसार में किसी को कैद कराने के लिए नहीं वरन् जो लोग कैद हैं उनको छुड़ाने के लिए आया हूँ । व्यक्ति को छोड़ दिया जाता है लेकिन दयानन्द ने मानवजाति के नाम यह संदेश दिया कि दुनिया में पैदा होने वाले संत महन्त, ऋषि महर्षि, अरिहन्त लोग दुनिया को प्रपंचों में जकड़ने के लिए नहीं वरन् उनको मुक्त कराने के लिए आया करते हैं। १९४ - जीसस को भी जिन लोगों ने सलीब पर चढ़वा दिया था उनके लिए भी जीसस ने यही कहा था- हे प्रभु, इन्हें माफ कर | ये नहीं जानते कि ये लोग क्या For Personal & Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर रहे हैं। यह मुक्ति का पैग़ाम है। जो इन्सानियत के नाम यह पैग़ाम देते हैं वे दूसरों की गलती को भी सहन कर लेंगे पर उन्हें मुक्त कर देंगे। भगवान महावीर भी मुक्ति के महान देवदूत हैं। वे मानव मात्र की मुक्ति चाहते हैं । वे चाहते हैं कि व्यक्ति जब तक जिए मुक्ति के आनन्द में जिए और जिस दिन वह अपने नश्वर शरीर का त्याग करके चला जाए उस दिन वह मोक्ष और निर्वाण का मालिक बन जाए। जो व्यक्ति राग और द्वेष नहीं करता वह जीते जी मुक्त है। हम राग-द्वेष करेंगे तो कर्म के बन्ध- अनुबन्ध प्रगाढ़ होंगे और हमारी जीवात्मा पुनः पुनः भवचक्र में उलझती चली जाएगी। जो राग-द्वेष नहीं करते वे स्वतः ही कर्मों से, कषायों से मुक्त होते जाते हैं। वीतराग और वीतद्वेष होना मुक्ति का आधार है। मेरी दृष्टि में तो जो क्रोध नहीं करता, लोभ, मोह, माया में नहीं उलझता वह जीते जी मुक्त है। उस मुक्ति का क्या करेंगे जो मृत्यु के बाद मिलती हो ? उसको किसने देखा है? उसका स्वाद किसने लिया ? मुख्य तो यह है कि हम जीते-जी मुक्ति का आनन्द लें, दूसरों को भी मुक्ति का स्वाद चखाएँ और स्वयं भी मुक्त हों । स्वयं मुक्त होंगे तभी दूसरे को मुक्ति दे पाएँगे। अगर हम ही शांत न होंगे तो दूसरे की अशांति का हरण कैसे कर पाएँगे? जिससे सदाबहार आनन्द मिलता हो, जहाँ व्यक्ति के चित्त में, चेतना में, अन्तर्मन में सदा आनन्द रहता हो वह दशा ही मुक्त दशा है। आनन्द का मतलब है जिसे दुनिया की कोई भी बाधा विचलित न कर पाए। जिसे किसी की विपरीत टिप्पणी, अपमान, उपेक्षा, हानि विचलित कर दे उसका वक्त बेवक्त आनंद खंडित हो जाता है, लेकिन जो क्रोध-कषाय से मुक्त है वह निश्चित ही मुक्त है । जो राग-द्वेष से मुक्त है, वह शत-प्रतिशत मुक्त है। महावीर ने दो शब्दों का प्रयोग किया है - सयोगी केवली और अयोगी केवली। अपनी सरल भाषा में मैं इसे सयोगी मोक्ष और अयोगी मोक्ष कहूँगा । सयोगी मोक्ष यानी मन, वचन, काया का योग जो अभी तक है फिर भी व्यक्ति मुक्त हो जाए। क्योंकि अब उस पर राग-द्वेष, काम-क्रोध, लोभ और माया का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। जो निर्मोही हो गया है, वीतमोह, वीतराग और वीतद्वेष हो गया ऐसा व्यक्ति अपने आप ही मुक्त हो गया। दूसरा होता है अयोगी मोक्ष यानी कि मन, वचन, काया का योग भी गिर चुका है, मृत्यु ने उसे For Personal & Private Use Only - १९५ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्त कर दिया है। एक मुक्ति वह है जो व्यक्ति को मरने के बाद उपलब्ध होती है लेकिन मरने के बाद क्या होगा उसके बारे में तो कुछ कहा नहीं जा सकता लेकिन जीते जी क्या होगा इसका मूल्यांकन तो कर ही सकते हैं। यह तो तय है कि मरने के बाद वही होगा जो जीते जी होगा। जैसे बच्चे ने साल भर पढ़ाई की है तो वैसे ही परीक्षा में परिणाम आएगा उसी तरह हम अगर जीते जी मुक्त हुए हैं तो मरने के बाद भी मुक्ति और मोक्षपद के मालिक बनेंगे। जीते जी राग-द्वेष, क्रोध-कषाय से मुक्त नहीं हो पाए तो मरने के बाद वही क्रोध-कषाय हमारा पीछा करेंगे। इसलिए व्यक्ति जीते जी अपनी मुक्ति का प्रबंध करे। महावीर मुक्ति-पथ के प्रवर्तक हैं, पुरोधा हैं। वे स्वयं मुक्त हुए, इसलिए मुक्ति की बात कर रहे हैं। महावीर के पिता से पूछा जाता तो वे बंधन की ही बात करते क्योंकि वे स्वयं बंधन में थे। उन्होंने तो महावीर को भी बंधन में डालने के लिए उनका विवाह तक करवा दिया। स्वयं बुद्ध और महावीर ने जो किया उसने उनकी शरण में आनेवाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए मुक्ति, आज़ादी, धर्म और अध्यात्म का रास्ता खोल दिया। यही वजह है कि भगवान बुद्ध बोधिलाभ को अर्जित कर मानव मात्र का कल्याण करने के लिए वापस शहर की ओर लौट आए। एक दिन विहार करते हुए वे अपने महल की ओर भी आते हैं, राजमहल में उन्हें अपनी पूर्व पत्नी यशोधरा भी मिलती है। वह उन्हें झिड़कती भी है - तुम तो चले गए, लेकिन अपना बेटा मेरे पास छोड़ गए। हर पिता अपने पुत्र को वसीयत में कुछ-न-कुछ देता है, तुम अपने पुत्र को वसीयत में क्या दे रहे हो ? तुम राजकुल में पैदा हुए, राजकुमार थे और भविष्य के राजा भी, पर तुमने अपने पुत्र के नाम क्या लिखा? यही प्रश्न अगर यशोधरा अपने ससुर से करती तो निश्चित ही ससुर द्वारा अपने पोते को राज्य मिलता। लेकिन प्रश्न बुद्ध से था तो ज़वाब में राहुल को भिक्षापात्र मिला। जिसके पास जो होगा वह वही तो लौटाएगा। जो स्वयं मुक्त हो गया वह दुनिया को मुक्ति का पैगाम देगा और जो बंधन में है वह बंधन का रास्ता ही दिखाएगा। हर व्यक्ति वही बोलेगा, वही करेगा, वही कहेगा जो उसका वर्तमान स्तर होगा। जो उसके जीवन का तौर-तरीका होगा, जिस पद पर, जिस मुकाम पर होगा लोगों को भी वहीं ले जाना चाहेगा। महावीर स्वयं १९६ For Personal & Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर हैं, वे खुद भी पार लगे और औरों को भी पार लगाते हैं। उनके संदेश मानवमात्र के कल्याण के लिए हैं, मानवमात्र के प्रति मंगल मैत्री-भाव से भरे हुए हैं। वे मानवमात्र की मुक्ति चाहने वाले हैं। खास तौर पर किसी भी व्यक्ति को अगर अपने लिए मुक्ति का पथ ढूँढना है तो महावीर के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं है। घर-गृहस्थी में कैसे जीना चाहिए इसके लिए राम आदर्श हैं। कर्म और पुरुषार्थशील होकर दुनिया में कैसे रहें इसके लिए कृष्ण आदर्श हैं, लेकिन अपने शेष जीवन को धन्य करने के लिए कोई आदर्श, प्रकाशस्तम्भ या दीपशिखा है तो वह महावीर हैं। महावीर किसी संसारी का नहीं अपितु किसी साधक का प्रथम और अंतिम सोपान हो सकते हैं। संसारी प्राणी के लिए राम प्रथम सोपान हैं, कृष्ण दूसरा और तीसरे व चौथे सोपान पर तो महावीर ही आएँगे। पहले ही चरण में महावीर का हाथ थामने की बजाय राम और कृष्ण का हाथ थामा जाय। हाँ, जब व्यक्ति को महसूस हो कि संसार के भौतिक आकर्षण, व्यामोह, प्रपंच इनसे तृप्त हो चुका है, इनसे विरक्त हो चुका है तब वह महावीर की शरण में आए। तब मैं कह सकता हूँ - ऐसी स्थिति में महावीर परमतीर्थ साबित होंगे। परम मुक्तिदाता, धर्म-चक्षु, अंतरचक्षुओं को खोलने वाले साबित होंगे। यदि हमें अनित्य संसार का बोध नहीं है, संसार का व्यामोह ही हमें खींच रहा है तब महावीर के पास जाकर क्या कर लेंगे ? महावीर के पास गौशालक गया, उनका जवाई भी गया, पर कुछ पा न सका। गौतम गया तो धन्य हो गया, चंदनबाला गई तो कृत-कृत्य हो गई, अर्जुनमाली मुक्ति-पथ का अनुयायी बन गया, हरिकेशबल गया तो उसका कल्याण हो गया। जब तक हम इस अनित्य संसार के रसरंग से ही मुक्त न हो पाए तो निर्वाण की ममक्षा, निर्वाण की प्यास. मोक्ष की मुमुक्षा, मोक्ष की अभिलाषा हमारे भीतर पैदा ही कैसे हो पाएगी। हमारी इन्द्रियाँ बाहर की ओर खुलती हैं, हमारा मन संसार की ओर गतिशील है ऐसी स्थिति में अध्यात्म का अनुष्ठान कैसे हो पाएगा, अध्यात्म की अभिलाषा हमारे भीतर कैसे जग पाएगी। महावीर और उनके संवाद, उनके सिद्धांत हमारे लिए तभी सार्थक हो सकते हैं जब हम हक़ीक़त में मुक्ति के अभिलाषी हों। यूँ तो कई लोग श्मशान में १९७ For Personal & Private Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाते हैं, मुर्दों को जलाते भी हैं लेकिन कोई विरला ही ऐसा व्यक्ति होता है जिसे यह सब देखकर जीवन की नश्वरता का बोध हो जाया करता है। शेष तो हम सभी रुग्ण, वृद्ध, गर्भवती, मृत देखते हैं पर आत्मा में न कोई हिलोर उठती है और न ही अनासक्ति का कोई फूल खिलता है । जिन्हें मुक्ति चाहिए वे महावीर की शरण में आएँ, जिन्हें अपना कल्याण चाहिए वे महावीर के साथ अपने दिल के तार जोड़ें। जो महावीर से प्रेम करते हैं, अपनी मुक्ति से प्रेम करते हैं वे इन बातों को हु बारीकी से मन लगाकर समझें और अपना कल्याण करें। मेरे विचार से महावीर की बातें और उनके संवाद उन स्थितियों में ही कारगर हो सकते हैं जब इन्सान को अनित्य संसार का वास्तव में बोध हो जाए। अतीत में वासवदत्ता नाम की एक नर्तकी मथुरा में हुई थी। उसका रूप, उसका नाम, उसकी विद्या, नृत्यकला न केवल मथुरा में वरन् दूर-दूर देश-प्रदेश में प्रसिद्ध थी । एक दिन वह अपने गवाक्ष में बैठी थी कि वहाँ से एक रूपवान बलिष्ठ युवा- संत भिक्षु गुजरने लगा कि तभी वासवदत्ता की नज़र उस पर पड़ी। वह उसे देखते ही प्रभावित हो गई और संत को आमन्त्रित किया। संत उसके घर आया और अभिवादन करते हुए कहा - कहो भद्रे ! मेरे लिए क्या सेवा है ? अभिभूत नर्तकी ने कहा- पहली बार मैं किसी की ओर आकर्षित हुई हूँ, बाकी तो सारी दुनिया मुझे देखकर आकर्षित होती है, मेरी दीवानी बन जाती है लेकिन जब से तुम्हें देखा है तब से अपना दिल तुम्हें दे दिया है। आज से मेरे सारे सुख-साधन, मेरे द्वारा अर्जित की गई सारी सम्पत्ति, मेरा यह सारा सौन्दर्य, मेरी काया और मैं खुद आज से तुम्हें समर्पित हैं । और कहा मुस्कुराया भिक्षु ने ध्यान से नर्तकी को देखा, अगर तुम्हारी यही इच्छा है तो मैंने स्वीकार किया । यह कहते हुए वह वहाँ से निकलने लगता है तो वासवदत्ता उसे रोकते हुए कहती है - जब आपने मुझे स्वीकार कर लिया है तो फिर जा कहाँ रहे हैं। भिक्षु ने कहा- मैं फिर कभी आऊँगा - यह कहते हुए भिक्षु चला जाता है। वासवदत्ता ने वर्षों तक भिक्षु की प्रतीक्षा की लेकिन भिक्षु लौटकर नहीं आया। वासवदत्ता नर्तकी थी, देह व्यापार करती थी लेकिन अब उसने अपने हर ग्राहक के लिए दरवाजा बंद कर दिया था । नगरवधु होने के कारण अब उसे कई तरह के संक्रामक रोग भी हो गए थे। शरीर से दुर्गंध आने १९८ For Personal & Private Use Only - Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लगी, घावों से मवाद बहने लगा। राजा और नगरवासियों ने उस रोगग्रस्त नर्तकी को शहर से बाहर रखवा दिया। वह तड़पती रही, गुहार करती रही कि उसके साथ ऐसा अन्याय न किया जाए लेकिन कोई सुननेवाला न था क्योंकि रोग के फैलने की संभावना थी। उसके लिए नगर के दरवाजे बंद हो गए। एक दिन रात के अंधेरे में उसने अपने पास किसी के पाँवों की आहट सुनी, वह चौंक गई कि इस वक्त उसके पास कौन आया है। वह कराहते हुए पूछती है- कौन है ? ज़वाब मिलता है - वही जिसे तुमने स्वयं को सौंपा था। वह कुछ समझ पाती उससे पहले भिक्षु सामने प्रगट हुआ और बोला- संत उपगुप्त। यह कहते हए वह उसके पास बैठकर घावों को धोने लगा। वासवदत्ता बोली - अब यह क्या कर रहे हो ? भिक्षु ने कहा - तुम्हारे घावों को धो रहा हूँ। किसलिए - प्रश्न हुआ। संत ने कहा - तुमने स्वयं को मुझे सौंप दिया था। नर्तकी ने कहा - अब आ गए हो तो क्या होगा, मैं स्वस्थ भी हो गई तब भी तुम्हें क्या दे पाऊँगी ? अब बहुत देर हो गई है - न तो मेरा वह सौन्दर्य रहा, न ही वह यौवन रहा कि आपको कुछ दे सकूँ। भिक्षु ने कहा - मुझे उनकी ज़रूरत न थी। मुझे जिसकी ज़रूरत थी वह अब मुझे मिल रहा है। मुझे तुम्हारी सेवा की ज़रूरत थी जो मैं अब करूँगा। भिक्षु उस नर्तकी की खूब सेवा करता है। वह स्वस्थ हो जाती है। न केवल स्वस्थ होती है वरन् भिक्षु के सान्निध्य में रहकर सुश्राविका, सद्गृहिणी और आगे चलकर महान भिक्षुणी बन जाती है। जो उपदेश, जो संदेश, जो आदेश भिक्षु ने उसे रुग्णावस्था में दिए उसने उसके जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन कर दिया। यदि वर्षों पहले ये संदेश दिए गए होते तो नर्तकी के लिए उनका कोई मूल्य न होता। लेकिन वासवदत्ता रोगों से घिर गई, उसे देह से नफ़रत हो गई। उसे लगा कि यह देह तो नश्वर है, दुनिया के लोग स्वार्थी हैं, केवल देह के सौंदर्य पर मरते हैं। आज जब वह वृद्ध होने जा रही है, रोगों से घिर गई है तो किसी ने न पूछा। __ महापुरुषों की वाणी तभी सार्थक हो पाती है जब कोई वासवदत्ता बनकर सत्य और असत्य, विद्या और अविद्या, ग्राह्य और अग्राह्य के सत्य का बोध अपने भीतर कर लेता है। तब महावीर की मुक्ति का मार्ग उसके जीवन से जुड़ता १२२ For Personal & Private Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है और जीवन के लिए सार्थक बनता है। तब उसके उठे हुए कदम मुक्ति-मार्ग की ओर बढ़ने वाले कदम हो जाते हैं। महावीर जिस मोक्ष की बात करते हैं उसका अर्थ ही मुक्त हो जाना है। कर्मों से मुक्त हो जाना, जिन अनुबंधों से मनुष्य बँधा हुआ है उनसे मुक्त हो जाना, अपने कर्मानुबंधों से, कर्म-प्रकृतियों से, भीतर आरोपित हो चुकी कर्म-प्रवृत्तियों से मुक्त हो जाने का नाम ही मोक्ष है। जब कोई जीव मुक्त हो जाता है, मोक्ष को उपलब्ध हो जाता है तब उसे पुनः इस भव-चक्र में आना नहीं पड़ता - ऐसा शास्त्रों का वचन है। वह ऐसे शाश्वत लोकों को उपलब्ध कर लेता है जो इस अखिल ब्रह्माण्ड का सबसे ऊपरी छोर है। आकाश का सर्वोच्च किनारा, जहाँ से वापस लौटकर आना नहीं पड़ता। वह परम मुक्त अवस्था को, परम सिद्धशिला को, शैलेषी अवस्था को उपलब्ध कर लेता है। कहते हैं - वहाँ न शब्द का प्रवेश है, न दुःख का प्रवेश है, न तर्क का प्रवेश है, न इन्द्रियों की पहुँच है और न ही शरीर की पहुँच है। वहाँ तो केवल आत्म-चेतना ही मुक्त होकर पहुँचती है। जीव दो प्रकार के होते हैं- एक संसारी जीव, दूसरे सिद्ध जीव। जब तक कोई भी जीव मुक्त नहीं हो जाता तब तक वह संसारी प्राणी ही कहलाता है। दूसरा होता है सिद्ध जीव जो मुक्त, सिद्ध, बुद्ध हो गया। संसारी प्राणियों के लिए, साधना-पथिकों के लिए आत्मज्ञानियों की ये बातें उनकी मुक्ति के लिए, कल्याण के लिए हैं। महावीर भी मुक्ति की बात करते हैं, वे प्रत्येक व्यक्ति को मुक्ति दिलाना चाहते हैं। अगर हमें कहीं जाना है तो उस मंज़िल तक जाने के लिए कोई-न-कोई पथ, रास्ता ज़रूर होगा। सीधे ऊपर नहीं चढ़ा जा सकता। उसी तरह साधना के लिए भी कुछ न्यूनतम सोपान हैं। एक व्यवस्था होती है जिससे चलते-चलते ऊपर पहुँचें या इन्हीं सीढ़ियों के जरिए धीरे-धीरे वापस नीचे आएँ । जो सीढ़ियाँ चढ़ने के काम आती हैं वही उतरने में भी प्रयुक्त होती हैं। व्यक्ति जिन सीढ़ियों से नीचे गिरा है अगर उन्हीं का उपयोग सार्थक और सचेतनता से कर ले तो वही सीढ़ियाँ उसके ऊपर चढ़ने में भी मददगार बन जाएँगी। पुरानी धार्मिक पुस्तकें कहती हैं कि जो व्यक्ति संसार में प्रवेश कर रहा है और विवाह भी कर लिया है - वह नरक की तरफ गया। लेकिन वे ही पति या २०० For Personal & Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्नी निर्वाण के भाव से, मोक्ष के भाव से वानप्रस्थ की ओर चले जाते हैं तब वे एक-दूसरे के लिए मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करने वाले हो जाते हैं। दोनों वही चीजें हैं एक बन्धन में डालती हैं और दूसरी मुक्ति की ओर ले जाती हैं। याज्ञवल्क्य ऋषि जब अपने मरणधर्मा शरीर का त्याग करते हैं तब उनकी दोनों पत्नियाँ गार्गी और मैत्रेयी उनके पास पहुँचती हैं। ऋषि ने उनसे कहा - मैं अपना शरीर छोड़ने जा रहा हूँ, इस समय तुम लोग मुझसे क्या चाहती हो? गार्गी ने कहा - प्रभु शरीर तो नश्वर है, यह तो सबका जाएगा ही लेकिन आपने ये गोधन, गजधन, इतना अधिक एकत्रित कर लिया है, इतना बड़ा आश्रम आपने बना दिया है कि हमारा गुजारा आराम से हो जाएगा। लेकिन मैत्रेयी ने इस तरह की बातें न करते हुए कहा कि- मैं ऋषि-पत्नी हूँ और जो बाह्य वस्तुएँ आपके पास हैं वह तो आप छोड़कर जा ही रहे हैं उनसे मुझे कोई प्रयोजन नहीं है लेकिन मैं तो चाहूँगी कि शरीर के निर्वाण से पहले जिस आत्मज्ञान के मालिक आप रहे, उस आत्मज्ञान का प्रकाश मुझे भी दे दीजिए। याज्ञवल्क्य ऋषि अति प्रसन्न होते हैं और उसे आत्मज्ञान का सारा संवाद सुनाते हैं। और कहते हैं - तुमने मेरे मरण को सार्थक कर दिया, शरीर के विसर्जन को सार्थक कर दिया। शरीर छोड़ने से पहले शुद्ध रूप से आत्मज्ञान का संवाद करते हुए जा रहा हूँ तो मेरी अंतरदशा अति निर्मल और अध्यात्ममय बन चुकी है। हमें भी मैत्रेयी बनकर महावीर के साथ मित्रता बनानी है। उनके संवादों से अपने जीवन के लिए आत्मज्ञान की किरण उपलब्ध करनी चाहिए। महावीर कहते हैं - अगर मंज़िल है तो उस तक जाने का रास्ता भी अवश्य होता है। दो और दो चार होते हैं तो इसकी कोई-न-कोई वज़ह ज़रूर है। अगर पानी भाप बनता है तो इसका भी कारण है। पानी के नीचे आग जलाई जाती है तो पानी गरम होगा, उबलेगा और भाप बनेगी। ऐसे ही कोई व्यक्ति मुक्त हुआ, मुक्त हो रहा है या होगा तो कोई-न-कोई वज़ह ज़रूर होगी जिसके चलते व्यक्ति मुक्त हो सकता है। महावीर ने इस मुक्ति को, इस मोक्ष को उपलब्ध करने के तीन सोपान दिए हैं, तीन चरण दिए हैं - सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र। मेरी अपनी सरल भाषा में सम्यक्दर्शन का अर्थ है- सही सही देखो. सुन्दर सुन्दर देखो। सम्यक्ज्ञान का अर्थ है- सही सही, सुन्दर सुन्दर जानो २०१ For Personal & Private Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्चारित्र का अर्थ है- सही सही, सुन्दर सुन्दर करो। यदि हम पुरानी भाषा को हटा दें तो हमारे लिए साधना के मार्ग को समझना बहुत व्यावहारिक हो जाएगा, साधना के मार्ग को हम सहजता, सरलता के साथ अपने जीवन में जी सकेंगे। पहला मार्ग है सही सही व सुंदर सुंदर देखो। साधक के लिए ज़रूरी है कि पहले वह अपने नज़रिए को बेहतर बना ले। यह नींव का काम करेगा। इंसान का जैसा नज़रिया होता है, जैसी दृष्टि होती है वैसी ही सृष्टि हुआ करती है। एक पापी व्यक्ति अगर दुनिया को देखेगा तो पाप की पगडंडियाँ ही ढूँढ़ेगा और पुण्यात्मा व्यक्ति संसार में पुण्य के पथ का ही सृजन करेगा। सब कुछ इंसान की अपनी नज़र पर, अपनी दृष्टि पर, अपने नज़रिए पर निर्भर है। अगर हमारा नज़रिया नकारात्मक है तो परिणाम नकारात्मक और यदि नज़रिया सकारात्मक है, आध्यात्मिक है तो जीवन का परिणाम भी सकारात्मक और आध्यात्मिक होगा। इसीलिए महावीर चाहते हैं कि व्यक्ति की सोच उन्नत हो, दृष्टि व्यापक और दर्शन शुद्ध हो। आजकल लोग दर्शन पर नहीं, प्रदर्शन पर अधिक ध्यान देते हैं। लोगों की सोच अच्छे दर्शन, अच्छी कला या श्रेष्ठ जीवन जीने के स्वरूप पर नहीं है। दर्शन तो यह कहता है कि अगर सिर के बाल सफेद हो गए हैं तो जीवन-दर्शन बताता है केश पके, तन प्राण थके, अब राग-अनुराग को भार उतारो, मोह महामद पान कियो, अब आतम-ज्ञान को अमृत धारो। जीवन के अन्तिम अध्याय में, त्याग करो और दीक्षा धारो, पुत्र को सौंप के राज और पाट, करो तप आपनो जनम सुधारो ।। ये पके हुए बाल इस बात का संकेत हैं कि जागो, अब जीवन ढलने को आ गया है। कहते हैं दशरथ के सिर पर एक बाल सफेद आ गया था तो वे वैराग्य की ओर बढ़ गए। उन्होंने निर्णय लिया कि अब वे अपने पुत्र राम को राज्य-भार सौंपकर स्वयं वानप्रस्थ-जीवन स्वीकार लेंगे। यह संयोग की बात है कि वे ऐसा न कर पाए। होनी ने उनके साथ कुछ और करवा दिया, पर सिर के एक सफेद बाल ने उन्हें जीवन का बोध करवा दिया कि अब जीवन के ढलने की शुरुआत हो रही है। दर्शन तो यह सिखाता है कि तुम्हें अपनी मुक्ति के लिए जो करना है उसे करने के लिए प्रयत्नशील हो जाओ। घर-गृहस्थी को खूब जी २०२ For Personal & Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिया, मौज-मस्ती खूब कर ली, अब अपने लिए जागो। लेकिन प्रदर्शन की प्रवृत्ति के कारण सफेद बालों को रोज-ब-रोज काला करते हैं, सुगंधित साबुन से स्नान करते हैं, बिना प्रेस के कपड़े पहने नहीं जाते, हर चीज़ बेहतरीन होनी चाहिए। खान-पान में भी प्रदर्शन बढ़ा है। शादी-विवाह में होने वाली दावतें तो प्रतिस्पर्धा का नमूना हो गई हैं। महावीर ने सम्यक्दर्शन की बात कही, न कि प्रदर्शन की। वे नहीं चाहते कि उनका धर्म प्रदर्शन की वस्तु बने। वे चाहते हैं उनका धर्म, उनके सिद्धान्त दर्शन का विषय बने। दर्शन यानी सही, सम्यक्, सकारात्मक, सृजनात्मक, रचनात्मक, आध्यात्मिक, धार्मिक, आत्म-दृष्टि वाला धर्म हो। अन्तर्दृष्टि का वही मूल्य है जो शून्य के पहले लिखे किसी अंक का होता है। जैसे कि कोई व्यक्ति चैक भर रहा है उसमें शून्य, शून्य, शून्य..... भरता जा रहा है लेकिन इन शून्यों की कीमत शून्य से पहले लिखे अंक के बिना नहीं हो सकती। शून्य के पहले लिखा अंक शून्य को दस गुना, सौ गुना, हजार गुना, लाख गुना बढ़ा देता है लेकिन अंक को हटा दिया जाए तो सारे शून्य, शून्य ही रह जाएंगे, उनका कोई अर्थ नहीं होगा। ऐसे ही हमारे जीवन में भी हमारी अन्तर्दृष्टि, सोच, नज़रिया अगर धर्ममय, शांतिमय और पवित्र, अध्यात्ममय है तो हमारे जीवन का प्रत्येक पहलू, प्रत्येक क़दम कल्याणकारी हो जाएगा। महावीर के अनुसार अगर दर्शन सही होगा तो आपका विश्वास भी सही होगा। दर्शन सही तो श्रद्धा भी सही। अच्छे विश्वास को जन्म देने के लिए, अच्छी श्रद्धा को जन्म देने के लिए व्यक्ति की दृष्टि ठीक होना ज़रूरी है। बिना विश्वास के दुनिया तो क्या परमात्मा से भी नहीं मिला जा सकता। विश्वास के बलबूते ही तो नाई को अपना सिर सौंप देते हैं कि वह सिर्फ बाल ही काटेगा, गला नहीं। ड्राइवर पर विश्वास करके उसे लाखों की कार सौंप देते हैं कि वह हमें सही सलामत गंतव्य पर पहुँचा देगा। विश्वास करके ही तो पत्नी या स्त्री को अपने जीवन का सबसे बड़ा आधार समझ लेते हैं। बिना विश्वास के दुनिया में कैसे जी पाएँगे। विश्वास तभी होगा जब व्यक्ति का दर्शन सम्यक् होगा। गलत दृश्य सामने आ भी जाएँ तो आँखों का संयम ले लो, उससे भी सही देखने का प्रयत्न करो। यह संसार स्वर्ग जैसा है। संसार है तभी तो मुक्ति का आधार भी है। मुक्ति For Personal & Private Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के भाव से इस संसार को देखेंगे तो हमें इसमें कहीं कोई बाधा नहीं आएगी। हमें यही बोध रखना है कि संसार किराए के घर की तरह है जहाँ आते हैं और चले जाते हैं। आत्मदृष्टि, अंतर्दृष्टि, तत्त्व - दृष्टि के साथ संसार और शरीर को समझना ही सम्यक्दर्शन है। महावीर की साधना का, मुक्ति के मार्ग का दूसरा सोपान - सम्यक्ज्ञान है। सही-सही, सुंदर-सुंदर जानो । जो कुछ जाना जा रहा है वह सही और सुंदर हो । आज दुनिया बहुत प्रगति कर रही है, विज्ञान दिन-ब-दिन आगे जा रहा है, कम्प्यूटराइज़्ड युग है, ज्ञान बहुत विस्तृत हो चुका है, हर छात्र उच्च से उच्च तकनीकी और वैज्ञानिक शिक्षा प्राप्त कर रहा है। लेकिन पहले की और आज की शिक्षा में बहुत फ़र्क़ आ गया है। पहले शिक्षा के साथ संस्कार भी जुड़ा हुआ था लेकिन अब केवल विद्या ही शेष रह गई है इसीलिए पहले का व्यक्ति अगर कम पढ़ा-लिखा होता तो भी संस्कारशील होता था पर आज उच्च शिक्षित लोगों के संस्कारों पर संदेह हो सकता है। आज व्यक्ति पैसा तो खूब कमा रहा है पर घर टूट रहे हैं, परिवार टूट रहे हैं, भाइयों का आपसी स्नेह समाप्त हो गया है, एक भाई दूसरे भाई को निभाना नहीं चाहता क्योंकि सब बड़े हो गए हैं। अधिक पढ़-लिखकर ज़्यादा पैसे वाले हो गए हैं, इसने कई तूफान खड़े कर दिए हैं। पहले दृश्य और दृष्टा दोनों को समानता से देखा जाता था, पर अब दृश्य ही सब कुछ है। पहले जीवन और जगत को एक ही दृष्टि से देखते थे, लेकिन अब जगत ही रह गया है। पहले की शिक्षा में सामाजिक और आध्यात्मिक दोनों तरह के विकास का ध्यान रखा जाता था लेकिन अब केवल सामाजिक विकास पर ही जोर है, परिणाम सबके सामने है। हर इन्सान के पास शिक्षा तो बहुत है, धन भी है लेकिन मानसिक रूप से हर इन्सान टूटा हुआ है, संत्रस्त है, परेशान है। बेटा अपने माँ-बाप के साथ सलीके के साथ पेश नहीं आ रहा है। पत्नी और बच्चे मूल्यवान हो गए हैं। अगर बच्चों में आपका ख़ून है तो आपके भाई की रगों में भी तो वही ख़ून दौड़ रहा है लेकिन अब बच्चे मूल्यवान हैं और भाई मूल्यहीन | जिस युग में हम आज जी रहे हैं, पढ़-लिख रहे हैं उसमें मित्रता का, प्रेम का अभाव हो गया है। गुरुकुल में तो राम जी भी गए थे, महावीर जी भी गए थे, २०४ For Personal & Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम भी जा रहे हैं लेकिन जो बात उनमें थी हममें न आ सकी। वे एक-दूसरे के लिए अपने जीवन का बलिदान कर देते थे और हम....! ज्ञानी और महान् लोग तो दुश्मन के साथ भी मित्र जैसा व्यवहार करते हैं पर हल्के किस्म के लोग मित्र के साथ भी असभ्यता का व्यवहार कर बैठते हैं। ज्ञान तो सभी के लिए ज़रूरी है। ज्ञान का पहला चरण साक्षरता है लेकिन साक्षर हो जाने से ही कुछ नहीं होता और न ही स्कूल कॉलेजों की पढ़ाई से कुछ होने वाला है। पढ़ाई और शिक्षा के साथ इन्सानियत का और मनुष्य का निर्माण होना चाहिए, जीवन का निर्माण होना चाहिए। ज्ञान हमारे लिए प्रकाश और जलते हुए दीपक की तरह है। ज्ञान हमारे जीवन की आँख है। जिस तरह शरीर में आँख सर्वाधिक मूल्यवान है उसी तरह जीवन में ज्ञान सर्वाधिक मूल्यवान है। अज्ञानी का क्या अर्थ ? अज्ञानी का क्या मूल्य ? ज्ञान के द्वार खुलने चाहिए। पहले चरण में स्कूल, कॉलेज, अध्यापक, प्रोफेसर के द्वारा, दूसरे चरण में संतजन, गुरुजन, शास्त्रविदों के द्वारा और अंत में अपने आपसे खुलें। इस तरह ज्ञान-प्राप्ति के तीन द्वार हो गए। पहला द्वार है विद्यालय, दूसरा द्वार है सत्संग और तीसरा द्वार है अन्तर् आत्मा या अन्तर्मन। जिसने ऋग्वेद को समझ लिया उसने ऋषि-मुनियों द्वारा अर्जित समस्त ज्ञान को समझ लिया। जिसने सामवेद को समझा उसने देवी-देवताओं को आमन्त्रित करने का तरीका जान लिया। जिसने अथर्ववेद को समझ लिया उसने सारे वेद समझ लिए पर सारे वेद पढ़कर भी निस्तार नहीं होने वाला, व्यक्ति का असली निस्तार तभी होगा जब वह एक और वेद - अंतर्वेद - का अध्ययन करेगा। जब वह स्वयं के अंतरघट को जानेगा, उसमें स्थित होगा तब ही सच्चा वेदांती, सच्चा ज्ञानी कहलाएगा। कबीर ने कहा है करनी करे सो पूत हमारा, कथनी करे सो नाती, रहणी करे सो गुरु हमारा, हम रहणी के साथी। जो अच्छा काम करेगा वह हमारे लिए पुत्र के समान है, जो अच्छे वचन बोलता है, अच्छी बातें करता है वह हमारे लिए दोहिते के समान है, जो अपने आप में स्थित रहता है आत्मज्ञानी बन जाता है वह हमारे लिए गुरु के समान है और हम आत्मस्थित गुरु के साथ रहना चाहेंगे, वही हमारा सच्चा साथी होता है। For Personal & Private Use Only २०५ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने आपको जानने से बड़ा व्रत क्या होगा? इससे बड़ी तपस्या क्या होगी? साधना क्या होगी? कि व्यक्ति स्वयं को जानने में लगा हुआ है। हमारा फ़र्ज़ है कि शरीर है तो हम शरीर को भी जानें, वाणी है तो वाणी के मर्म को भी समझें, मन है तो मन के तत्त्व को भी समझें। इसी को समझने के लिए ही तो हम ध्यान करते हैं कि हम धैर्यपूर्वक अपनी वाणी को समझें और इसे मौन रखें। धैर्यपूर्वक अपने चित्त के संस्कारों को समझें और उनकी निर्जरा करें। ध्यान का मतलब ही है धैर्यपूर्वक स्वयं को जानना। अधीरता और जल्दबाजी में कभी ध्यान नहीं होता। न ही स्वयं को जान सकता है। धैर्यपूर्वक ही वह अपनी अनुपश्यना और विपश्यना कर सकेगा। सही-सही सुंदर-सुंदर जानो। हर चीज़ को जानने का प्रयत्न मत करो। कचरे के बारे में ज्ञान अर्जित करके क्या कर लोगे? सही तत्त्व को जानने का प्रयत्न करो। शास्त्र कहते हैं जेण तच्चं विबुझेज, जेण चित्तं णिरुज्झति। जेण अत्ता विसुझेज्झ, तं नाणं जिण सासणे। भगवान कहते हैं सच्चा ज्ञान वही है जिससे तत्त्व का बोध होता है, जिससे चित्त का निरोध होता हो, जिससे आत्मा शुद्ध होती हो उसी का नाम ज्ञान है। सच्चा ज्ञान वही है जिससे हम आत्मा को निर्मल कर सकें, अपने चित्त की विकार-वासनाओं का निरोध कर सकें और जिसके द्वारा हम यह बोध कर सकें कि सत्य और असत्य क्या है, ग्राह्य और अग्राह्य क्या है, करणीय और अकरणीय क्या है। जो बताए कि क्या भोग्य और क्या त्याज्य है। हम लोग मुक्तिसूत्र में गुनगुनाते हैं चिंतन करें मैं कौन हूँ, आया यहाँ किस लोक से। क्या है यथार्थ स्वरूप मेरा, जान निज आलोक से।। श्रीमद् राजचन्द्र ने भी कहा है - हूं कौण छू क्या थी थयो, शुं स्वरूप छे म्हारो खरो, कोणा संबंधे वळगणुं छे, राखुं के हूं परिहरूं- मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, मैं यहाँ से कहाँ जाऊँगा, मेरा वास्तविक स्वरूप क्या है, मुझे किन संबंधों को बनाए रखना चाहिए और किन संबंधों का त्याग कर देना चाहिए - इन बातों का पुनः पुनः चिंतन करना ही राजचन्द्र की भाषा में आत्म-सिद्धि को उपलब्ध होने का मार्ग है। २०६ For Personal & Private Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, क्या मैं केवल एक माता-पिता की संतान हूँ या मेरा अन्य भी कोई स्वरूप है, क्या मैंने एक ही कोख से जन्म लिया है या बार-बार जन्मता और मरता रहा हूँ, क्या मैं किसी अज्ञात लोक से आया हूँ और क्या मरकर यहीं समाप्त हो जाऊँगा या कहीं और चला जाऊँगा?' व्यक्ति इन पर धैर्यपूर्वक विचार करे, चिंतन-मनन करे। ख़्याल रहे मनन से ही मार्ग मिलता है और चिंतन से चेतना जगती है। पुनः पुनः अध्यात्म का चिंतन करने से हमारी चेतना जाग्रत होती है और मन की प्रवृत्ति अध्यात्म की ओर बढ़ती है। पुनः पुनः मनन करने से ही हम मन से मुक्त हो सकते हैं वरना मन तो हमें पागल कर देगा। सम्यक् ज्ञान के लिए अच्छी पुस्तकें पढ़ें, अच्छे लोगों के सम्पर्क में रहें, अनुभवी लोगों का सत्संग करें। हम अपने भीतर जो भी ज्ञान अर्जित करना चाहते हैं उसका पहला चरण ठीक हो। दर्शन सम्यक होगा तो दूसरा चरण ज्ञान भी ठीक होगा। ज्ञान सम्यक होगा तो तीसरा चरण चारित्र भी ठीक होगा। तीसरा चरण यानी सम्यक् चारित्र अर्थात् सही-सही सुंदर-सुंदर करो। हमारी सबसे बड़ी दौलत हमारा चरित्र है। महावीर कहते हैं - जो मोक्ष को उपलब्ध होना चाहता है उसका चरित्रवान होना ज़रूरी है। चरित्र तभी सही होगा जब दर्शन और ज्ञान सही होंगे। व्यक्ति को चरित्रवान बनाने के लिए, मुक्त मनुष्य का निर्माण करने के लिए ज़रूरी है कि ज्ञान और दृष्टि सम्यक् हो, पवित्र हो, निर्मल और परिपक्व हो। शेक्सपियर ने कहा है If wealth is lost nothing is lost. If health is lost something is lost. If character is lost everything is lost. यदि धन चला गया तो समझो कुछ भी नहीं गया, यदि स्वास्थ्य गया तो जानो कुछ गया, पर चरित्र की दौलत चली गई तो समझ लेना सब कुछ चला गया। जीवन में क्या सही है और क्या गलत इसका ज्ञान प्रायः हरेक को होता है। लेकिन कोई भी इस ज्ञान का अनुगमन नहीं करता है। हाँ, दूसरों को ज्ञान ज़रूर बाँटते रहते हैं - यह हमारी आदत हो गई है। बाप अपने बेटे को सलाह ज़रूर देगा, पर खुद शायद ही अमल करेगा। इस दुनिया में उपदेश देने वाले, बड़ी-बड़ी बातें करने वाले लोग अपनी बातों को खुद ही जीने लग जाएँ तो यह २०७ For Personal & Private Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुनिया बहुत जल्दी स्वर्ग में बदल जाए। हम सभी दूसरे को तो अनुशासित देखना चाहते हैं लेकिन खुद...? हम दूसरों से अच्छी-अच्छी अपेक्षा रखते हैं, पर खुद कुछ करना हो तो ढीले-ढाले नज़र आएँगे। पति की अपेक्षा पत्नी से है, पत्नी की अपेक्षा बच्चों से है, बच्चों की अपेक्षा अपने दोस्तों से है लेकिन कोई भी व्यक्ति उन अपेक्षाओं पर खुद खरा नहीं उतरता। इसलिए महान लोग दूसरों से अपेक्षा नहीं रखते वरन् खुद ही उन अपेक्षाओं पर खरा उतरते हैं, खुद ही उनको जीते हैं। अच्छे चरित्र का मालिक बनना है तो दूसरों को ज्ञान देने की अपेक्षा खुद ही अमल करें। हम लोग केवल सलाहकार न बन जाएँ । इस दुनिया में अच्छी बातें कहने वाले सैकड़ों हैं, सुनने वाले करोड़ों हैं, उस पर मनन करने वाले हजारों हैं, पर उसको जीने वाले..? तुलसीदास जी का एक पद बहुत मशहूर हैपर उपदेश कुशल बहुतेरे, जे आचरहिं ते नर न घनेरे । औरों को उपदेश देना हो, तो प्रत्येक व्यक्ति के लिए आसान है लेकिन खुद जीना हो तो? इसलिए मैं स्वयं अपनी कही हुई बातों को सदा आग्रहपूर्वक जीने का प्रयत्न करता हूँ। मेरा मानना है कि मैं किसी भी बात को तभी बोलूं जब मैंने खुद ने उसे कम से कम ५०% अपने जीवन में उतार लिया हो अन्यथा मुझे बोलने का कोई हक नहीं है। जिसे मेरे लिए अभी तक जीना संभव नहीं हो पाया तो दूसरों को कहने का क्या अर्थ होगा। जो स्वयं के लिए मुश्किल हो वही बात दूसरा करे यह कैसे संभव है। त्याग, धर्म, सिद्धान्तों के प्रति आस्था है, पथिक भी हैं, फिर भी नहीं जी पा रहे हैं फिर दूसरों से कैसी अपेक्षा । दर्शन, ज्ञान, चरित्र को मैंने सरल भाषा में कहने का प्रयत्न किया है कि सही-सही देखो, सुंदर-सुंदर देखो, सही-सही जानो, सुंदर-सुंदर जानो, सहीसही करो, सुंदर-सुंदर करो । महावीर का सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र मुक्ति की ओर बढ़ने के तीन सोपान हैं। मेरे विचार से मोक्ष या मुक्ति की ओर बढ़ने के लिए चार चरण होते हैं - पहला है - शांति मन में और व्यवहार में, है दूसरा सदाचार अपना आचरण ठीक रखो, तीसरा है - सदविचार - मन और दिमाग में उठने वाले विचारों को सही रखो, चौथा है - मुमुक्षा, मुक्ति की आकांक्षा, मुक्ति की अभिलाषा । अगर इन चार बातों २०८ - For Personal & Private Use Only - Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को खयाल में रखते हैं, इनके प्रति जागरूक रहते हैं, अपने जीवन में उतारने का प्रयत्न करते हैं तो साधना का मार्ग; जो कठिन दिखाई देता है, वह सहज और सरल हो जाता है। मेरा तो मानना है- हंसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानम्। हँसो, खेलो और ध्यान धरो। आज इतना ही अनुरोध, प्रेमपूर्वकनमस्कार ! २०९ For Personal & Private Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कैसे जिएँ संयमसे महावीर की दृष्टि पूरी तरह मुक्ति-सापेक्ष है। उनकी प्रेरणाओं और संदेशों के पीछे जो रोशनी काम करती है वह मुक्ति से जुड़ी हुई है। महावीर मानव मात्र से प्रेम करते हैं। वे मानव मात्र की मुक्ति चाहते हैं। वे अतीत में भी इंसान को मुक्ति का रास्ता दिखाते रहे। उनके संदेश आज भी इंसानियत को मुक्ति का रास्ता दे सकते हैं । मुक्ति महावीर का आधार है। हम संसार में रहें या संन्यास में, लेकिन दोनों ही स्थितियों में हमारी आँखों में अगर कोई नूर रहना चाहिए तो वह मुक्ति का नूर है, मुक्ति की रोशनी है। स्वयं महावीर के समय में भी अनगिनत लोगों ने मुक्ति-पथ का अनुसरण किया और मुक्ति उपलब्ध की। आज भी लोग महावीर जैसे महापुरुषों के प्रति श्रद्धा रखते हुए उनके संदेशों को अपने जीवन के साथ जीते हैं और उनके बताये हुए रास्ते पर चलकर मुक्ति को अपना लक्ष्य बनाया करते हैं। अगर किसी भी इंसान को मुक्ति के रास्ते पर चलना है तो उसे संसार में रहते हुए भी वैसे ही जीना चाहिए जैसे कि कमल का फूल कीचड़ में रहा करता है। अगर कमल का फूल कीचड़ में पैदा होता है तो उसका कीचड़ में रहना बुरा नहीं है, लेकिन कीचड़ का कमल के पत्तों पर आ जाना अवश्य गलत है। संसार में रहना कतई गलत नहीं है लेकिन संसार की आसक्तियों में अपने दिल को संकीर्ण बना लेना २१० For Personal & Private Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवश्य गलत है। उदाहरण के तौर पर छाछ में से मक्खन पैदा होता है तो मक्खन छाछ के ऊपर-ऊपर रहता है। छाछ में मक्खन का रहना गलत नहीं है लेकिन मक्खन में छाछ रहना उसकी कमजोरी है । तब कहा जाएगा कि बिलोवन सही ढंग से नहीं हुआ। पानी में नाव का रहना अच्छी बात है, पर नाव में पानी का आ जाना दोषपूर्ण है। पानी में नाव रहेगी तो पानी से पार होने में मदद करेगी, पर अगर पानी नाव में आना शुरू हो जाएगा तो वही पानी उस नाव को ले डूबेगा। पानी में यदि है किश्ती तो तिरेगी खूब । पर अगर किस्ती में है पानी तो जाएगी डूब ।। हम संसार में रहते तो बिल्कुल ऐसे ही हैं जैसे कि किश्ती पानी में रहा करती है। यदि हम संसार के भौतिक प्रपंच, संसार के रस-रंग, संसार की मोहमाया को अपने दिल में बसा लेंगे तो यही संसार हमारे डूबने का कारण बन जाएगा। कोई भी चीज़ तिरने और डूबने का, दोनों का साधन बन सकती है। यह इंसान के नज़रिये पर निर्भर करता है कि वह उस चीज़ का तिरने के लिए उपयोग करता है या डूबने के लिए। सीढ़ी से उतरोगे या चढ़ोगे, यह आपकी समझदारी पर निर्भर करता है। पुरानी किताबें कहती हैं नारी नरक की खान है। जिन किताबों ने यह कहा उन्होंने केवल यह कहने की कोशिश की कि नारी नर को ले डूबती है, पर जिन नारियों ने अपने पुरुषों को ऊपर उठाने में मदद की है धर्मशास्त्रों को चाहिए कि उनके लिए यह भी कहने की कोशिश करें कि नारी स्वर्ग की पगडण्डी भी है। नारी व्यक्ति को गिराती है तो वह ऊपर भी उठाया करती है। जरा याद करें तुलसीदास को । उनको आगे बढ़ाने में किसकी भूमिका रही। नारी ने उनको गिराया कि ऊपर उठाया ? एक ही वस्तु होती है जो गिराती भी है, तिराती भी है और ऊपर भी उठाती है। संसार में ऐसे ही रहो जैसे जल में कमल रहता है। इस संसार में रहें भले ही, पर संसार में उलझें नहीं, संसार के रंगों में आसक्त न हो जाएँ। संसार में न पत्नी बुरी है, न पति । बुरी अगर कोई चीज़ है तो वह है आसक्ति । आसक्ति बंधन है। अनासक्ति मुक्ति है। आसक्ति दुःख की जनक है, अनासक्ति सुख For Personal & Private Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की सेतु है। संसार में रहो, प्रेम से रहो, पर सहजता से, आसक्त होकर नहीं। आसक्ति व्यक्ति-विशेष से होती है, वस्तु-विशेष से होती है। प्रेम सबसे होता है। प्रेम पूज्य है, प्रेम समर्पण है, प्रेम आशीष है। प्रेम नाव है, प्रेम पार लगाता है। आसक्ति लंगर है । बाँधे रखती है। आज हम आसक्ति पर अंकुश लगाएँगे। आसक्ति को जीतेंगे। आसक्ति पर विजय पाने का सूत्र है - संयम । महावीर संयम पर जोर देते हैं। संयम यानी अंकुश । संयम यानी नियंत्रण । संयम यानी मर्यादा की लक्ष्मणरेखा । ज्ञानियों ने संसार के रस-रंग में जीते हुए इंसान को आगे बढ़ने के लिए जो सीढ़ी बताई वह है - संयम । संयम और अनुशासन के अंकुश से व्यक्ति अपने जीवन को बाँधे । अन्य कोई हमें संयम या अनुशासन में जकड़े इससे पहले ही अच्छा होगा कि हम खुद ही स्वयं को संयम और अनुशासन में रखें । कोई हमें लताड़ते हुए बोलने की तमीज़ सिखाये उसके पहले ही हम तमीज़ से पेश, आएँ, तमीज़ से बोलें । अर्थात् किसी को कुछ कहने का अवसर न देते हुए हम अपने आप को, अपने मन, वाणी, काया को इतना संयमित कर लें कि दूसरा हम पर कोई इल्ज़ाम न लगा सके । आप जानते हैं कि कछुआ अपने हाथ-पैरों को फैलाकर चलता है लेकिन ख़तरा उपस्थित होते ही अपने हाथ-पैरों को अपने भीतर समेट लेता है। स्वयं को अपने में समेट लेना ही संयम है। । संयम व्यक्ति के व्यक्तिगत और चारित्रिक जीवन को सुरक्षित रखता है, परिवार में मर्यादित जीवन जीने का अवसर देता है। संयम सामाजिक स्तर पर भी उसकी मर्यादा और गरिमा बनाए रखता है। इस प्रकार संयम ही मुक्ति का आधार हुआ, समाज परिवार के बीच मर्यादित ढंग से जीवन जीने का तरीका हुआ। संयम अर्थात् नियंत्रण । स्वयं को कन्ट्रोल करना । एक मम्मी-पापा कब तक बच्चे पर नियंत्रण रखेंगे। जब तक पंछी के पर नहीं निकल जाते तभी तक पक्षी या माता-पिता अपने बच्चे को अपने घोंसले में रखेंगे कि उन्हें कोई क्षति न पहुँचे लेकिन वयस्क हो जाने पर, पंख निकल आने पर चिड़िया माता-पिता खुद ही उन्हें आकाश में उड़ा देते हैं। पंछी हम इन्सानों की तरह मोह-माया नहीं करते, न ही हमारी तरह लोभ और संग्रह करते हैं, वे हमारी २१२ For Personal & Private Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 तरह क्रोध और भोग भी नहीं करते । वे हमसे अधिक मुक्त होते हैं। हमारी तरह वे किसी प्रकार का भेदभाव भी नहीं करते । वे तो सहज नैसर्गिक, प्राकृतिक जीवन जीते हैं और इसी तरह चले भी जाते हैं । 1 जन्म-जन्मान्तर की गाँठें, वैर-विरोध की भावनाएँ, वैमनस्य रखना ये इंसानों के खेल हैं। आज हर इंसान गैस का सिलेण्डर हो गया है कि जरा सी चिंगारी लगी नहीं कि भड़क उठता है। हर आदमी माचिस की तीली बन चुका है । थोड़ा-सा घर्षण लगते ही जैसे तीली सुलग उठती है, वैसे ही आदमी छोटी-सी बात होते ही, थोड़ा-सा नुकसान होते ही भभक उठता है। संयम यही सिखाता है कि माचिस की तीली या गैस के सिलेण्डर मत बनो । ठीक है कि हम बर्फ के समान शीतल नहीं बन सकते, लेकिन शांत तो बने रह सकते हैं । संत मत बनो, पर शांत तो अवश्य बन जाओ। शांत बनना संत बनने की तरह है । जो शांत है, वह वास्तव में संत ही है। बाहर का संत बने तो भी क्या, और न बने तो भी क्या, असली तो स्वभाव का संत बनना महत्त्वपूर्ण है । प्रत्येक व्यक्ति के लिए आध्यात्मिक होना ज़रूरी नहीं है, पर प्रत्येक व्यक्ति के मन में शांति होना निहायत ज़रूरी है। एक महानुभाव ने मुझसे कहा जीवन में पहली बार आज सुकून और गौरव अनुभव हुआ। मैंने अपनी बच्ची से पूछा कि अब तुम शादी लायक हो चुकी हो तुम्हारे लिए कैसे लड़के की तलाश की जाए ? एम.बी.ए., सी.ए., इंजीनियर या व्यापारी ? बच्ची ने कहा पापा ! यह सब आप निर्णय करें, पर केवल यह देख लें कि उसका स्वभाव अच्छा हो । मैंने बच्ची से तरह का स्वभाव ? उसने कहा 1 पूछा किस पापा ! आपके जैसा । - - - - - उस महानुभाव ने कहा - मुझे पहली बार सुकून मिला कि मैं और किसी का आदर्श बन पाया या न बन पाया पर अपने बच्चों का आदर्श ज़रूर बन गया। हम अच्छे स्वभाव के मालिक बनें। लोग महाराज तो बन जाते हैं, पर अपने स्वभाव को वैसा नहीं बना पाते । संत भी आपस में लड़ने लग जाते हैं । संयम का सम्बन्ध स्वभाव से है। तुम अच्छे स्वभाव के मालिक बनो । बुद्ध और महावीर का पहला संदेश ही यही रहा कि हर व्यक्ति संयम के रास्ते पर आए, संयम के रास्ते पर चले । जो संयम को अपने जीवन में अधिकाधिक For Personal & Private Use Only २१३ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिएगा वही मुक्ति के अधिक निकट पहुँचेगा । जो गृहस्थ हैं वे भी संयम से जिएँ और जो संत बन गये हैं, उनकी तो संयम ही परिभाषा होगी। संत की तो आत्मा ही संयम है। संत - जीवन का सार ही संयम है। गृहस्थ अगर क्रोध करता है तो ठीक नहीं है, पर संत का गुस्सा तो अक्षम्य है। गृहस्थ के संग्रह को तो लोभ की संज्ञा दी जा सकती है, पर संत के परिग्रह को क्षमा नहीं किया जा सकता। ईश्वर तीन लोगों को कभी पसंद नहीं करता। पहला है - अन्यायी न्यायाधीश । अन्याय बुरा है, पर यदि कोई न्यायाधीश के पद पर बैठकर अन्याय करता है, तो ईश्वर ऐसे लोगों से ख़फ़ा होता है और उन्हें दंडित करता है। दूसरा है - कंजूस अमीर । कंजूसी पाप है, पर यदि कोई अमीर होकर भी दीन-दुखियों की मदद नहीं करता , कंजूसी-कृपणता रखता है, ऐसे लोगों को ईश्वर की नाराज़गी झेलनी पड़ती है। तीसरा है - व्यभिचारी साधु । व्यभिचार पाप है, पर यदि कोई संत बनकर भी दुराचारी और व्यभिचारी होता है, तो ईश्वर ऐसे साधु-संतों से ख़फ़ा रहता है। ऐसे तीनों लोगों के पुण्य मिट जाते हैं। उन्हें नरक की घोर यातना झेलनी पड़ती है। जीवन के दो ही पहलू हैं - संयम और असंयम । जो संयम से जिए वह संत और असंयम से जीने वाला ही गृहस्थ या संसारी। कहीं भी कोई साधु या संत दिख जाए तो उसके संयमी होने के कारण ही हम उसको मान-सम्मान देते हैं। केवल वेश को दी जाने वाली इज़्ज़त स्थायी नहीं होती। प्रभाव तो केवल संयम, त्याग, तप-जप, ज्ञान-ध्यान ही डालता है। संयम को अलग-अलग पहलुओं और ढंग से जिया जा सकता है। पहला है : मन का संयम । मन का संयम अपनाकर बुरे विचारों को न आने दें। हमारे चित्त के संस्कारों के कारण अगर कोई गलत विचार उठ रहे हैं तो उन पर मन का नियंत्रण कर लेना चाहिए । अथवा किन्हीं निमित्तों को पाकर किसी घटना, दुर्घटना, परिस्थिति से प्रेरित होकर हमारे मन में गलत विचार उठ रहे हों तो उन पर अंकुश कर लेना कि नहीं हमें ऐसा नहीं सोचना चाहिए - यह मन का संयम है। गलत विचार उठ सकते हैं। किसी के प्रति किसी के मन में गलत विचार, दूषित विचार उठ सकते हैं, गलत भाव पैदा हो सकते हैं, पर उस समय में अपने आप पर नियंत्रण करना ही मन का संयम है। २१४ For Personal & Private Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकृति तो परिवर्तनशील है। यहाँ तो हर क्षण, हर पल बदल रहा है। मौसम बदल रहे हैं, ऋतुएँ बदलती हैं, दिन-रात, घड़ियाँ बदलती हैं, तो निमित्त और परिस्थितियाँ भी निश्चित रूप से बदलने वाले हैं। इस बदलाव में हमारे चित्त पर जो दुष्प्रभाव आते हैं, ये हमारे जीवन पर हावी न हो जाएँ, इसी के लिए मन का संयम है। __मैंने सुना है : एक संत हुए उस्मान हैरी । कहते हैं कि संत उस्मान रास्ते से जा रहे थे कि किसी विरोधी द्वारा उन पर छत से राख गिरा दी गई। वे ऊपर आसमान की ओर देखते हैं और केवल इतना ही कहते हैं - शुक्र है खुदा तेरा। और राख झाड़कर आगे बढ़ जाते हैं। उनके साथ चलने वाले व्यक्ति पर भी कुछ राख आ गिरी थी । वह गुस्से में भर गया लेकिन जब संत ने कुछ न कहा तो वह भी कुछ कहने की हिम्मत न जुटा सका कि राख फेंकने वाले को गाली दे सके। कुछ दूर आगे जाने के बाद उसने संत उस्मान से पूछा - गुरुजी ! एक बात बताइये । माना कि आप संत हैं और आपने गुस्सा नहीं किया, लेकिन यह समझ में न आया कि आपने आसमान की ओर नज़र उठाकर खुदा का शुकराना क्यों अदा किया ? इसका क्या मतलब है ? संत उस्मान मुस्कुराए और कहा - इसका मतलब साफ़ है कि उसने मुझ पर राख ही गिराई वरना मेरे जीवन में तो इतने दुर्गुण हैं कि खुदा मुझे आग में भी जलाता तो वह भी कम ही कहलाता । यह हुआ मन का संयम कि विपरीत निमित्त आए, विपरीत अवसर आया, विपरीत वातावरण बना तब भी मन को, मन के विचारों को सकारात्मक बनाए रखा। परिणामतः क्रोध उत्पन्न न हुआ । हाँ, अगर क्रोध आ जाता तो वह होता असंयम । खुद पर नियंत्रण रखना ही संयम है। दूसरा है : वाणी पर संयम । वाणी पर संयम रखकर हम हमेशा मिठास भरी वाणी का उपयोग करें। मधुर, संयमित, मर्यादित भाषा का प्रयोग करें। इसके उपरांत भी अगर विपरीत निमित्तों के चलते असंयमित भाषा निकलने लगे, दूषित भाषा बोलने लगें, असंयमित हो जाएँ, अविवेकपूर्ण भाषा का प्रयोग कर लें तब जैसे ही इसका अहसास हो कि हम गलत बोल रहे हैं ऐसा नहीं बोलना चाहिए, उस समय अगला शब्द सोच-समझकर बोलना ही वाणी का संयम है। यह वचनों पर लगाया गया अंकुश वचन-संयम है। अपशब्द तो हर भाषा में होते २१५ For Personal & Private Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं लेकिन उसके मुँह पर आते-आते ही अगर हमने अंकुश लगा लिया तो हम खुद में सिमट आएँगे। इसके लिए एक शब्द है - वचन-गुप्ति । वचन का गोपन कर लेना चाहिए। इसके लिए एक शब्द आया है - भाषा समिति । भाषा का हमेशा विवेकपूर्वक उपयोग करना चाहिए। जब भी भाषा अविवेकी हो जाए उस पर नियंत्रण करना ही भाषा-समिति है, वचन-गुप्ति है, इसी को मैं वाणी-संयम कहता हूँ। पुरानी कहानी बताती है कि बुद्ध को किसी ने गालियाँ दीं। जब वह गाली देते-देते थक गया तो बुद्ध मुस्कराये और बोले - तुमने मुझे बहुत - सी बातें कहीं लेकिन मैं तुमसे पूछता हूँ अगर तुम्हारे यहाँ कोई रिश्तेदार आए और तुम उसे खाना खिलाना चाहो और वह न खाए तो खाना किसके पास रहेगा ? उसने कहा - अगर वह नहीं खाए तो मेरा खाना मेरे पास ही रहेगा। बुद्ध ने कहा - तुमने मुझे बहुत-सी बातें कहीं, पर मैं तुम्हारे उस रिश्तेदार की तरह हूँ जिसे तुमने खाना तो परोसा पर उसने खाना स्वीकार नहीं किया। अस्वीकार करना, वाणी-संयम का भाव है कि जब भी व्यक्ति भाषा का प्रयोग करे, संयमपूर्वक करे। बोलना अगर चाँदी है तो मौन रहना सोना है। सबसे भली है चुप । या तो मौन रहो या ऐसी वाणी बोलिये मन का आपा खोय । औरन को शीतल करै, आपहुं शीतल होय ।। या - देते गाली एक हैं उलटे गाली अनेक । जो तू गाली दे नहीं, तो रहे एक की एक ।। जो भाषा बोली जाए उसमें संयम की सुवास होनी चाहिए। प्रतीत होना चाहिए कि यह सज्जन व्यक्ति की भाषा है। भाषा व्यक्ति के व्यक्तित्व का आईना है। उसकी कुलीनता का प्रतीक है। वही कुलीन है जिसकी भाषा और व्यवहार मर्यादित हो, गरिमापूर्ण हो। ___ मन, वाणी के पश्चात् तीसरा संयम है : कायिक-संयम । अपनी पंचेन्द्रियों पर नियंत्रण रखना देह का, काया का संयम है। २१६ For Personal & Private Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुनिया में संसार का सार धर्म है, धर्म का सार ज्ञान है, ज्ञान का सार संयम है और संयम का परिणाम मुक्ति है। अतः कोई व्यक्ति व्रत कर रहा है तो वह विरत हो रहा है, अलग हो रहा है और मुक्ति की ओर एक कदम बढ़ा रहा है। काया के संयम का अनुसरण कैसे किया जाए ? तो ज्ञानी भगवंत कहते हैं कि अगर भोजन कर रहे हो तो भोजन में यह विवेक रखें कि आपको कितना और क्या खाना है। एक सज्जन ने मुझे बताया कि उनकी शादी में अस्सी आइटम खाने-पीने के बने थे। मैंने पूछा - आपने इतने आइटम बनवाए थे तो खाने वाला कितना खाएगा ? उसने तुरंत कहा - मैंने कब कहा कि सारे आइटम खाए जाएँ। मैंने तो इसलिए इतने प्रकार के व्यंजन बनवाए कि जिसे जो पसंद हो वह अपनी रुचि के अनुसार चुन ले। यह तो स्वभाव है कि खाने वाला कोई भी चीज छोड़ता नहीं है हर चीज़ को खाना चाहता है। अगर कहीं विविध प्रकार के पकवान हैं तो हमें अपनी पसंद के ही खाने चाहिए। अधिक खाना भी असंयम ही तो है। दैहिक भोगों में भी संयम हो, इसका अर्थ यह नहीं है कि सभी संन्यास लेकर संत बन जाएँ । सरलता से भी संयम को जिया जा सकता है। छोटे-छोटे त्याग करके भी संयमित जीवन जी सकते हैं। माना कि भोजन में चार प्रकार की सब्जियाँ, तीन प्रकार के चावल, खिचड़ी, कढ़ी, दाल, पापड़, अचार, सलाद आदि हैं। आप क्या करें कि जो चीज आपको बहुत पसंद है, वे दो या एक आइटम हटा दें और शेष का प्रेम से भोजन कर लें। यह हो गया आपका आहार-संयम । ऐसा भी कर सकते हैं कि सप्ताह में दो दिन भोजन एक ही समय करेंगे या कि भोजन करने के बाद पानी के अलावा चार घंटे तक कुछ भी ग्रहण नहीं करेंगे। इसका अगर सख़्ती से पालन किया जाए तो यह भी देह- संयम हो जाएगा। अच्छे, सुस्वादु खाने को देखकर यह जीभ जो मचलती है उस पर नियंत्रण हो जाएगा। खाते-पीते भी हम संयमी हो जाएंगे। इसी तरह आँखों का संयम है। किसी रूपवान को देखकर अगर मन विचलित हो जाए, विचार दूषित हो जाएँ तो तुरंत इस पर लगाम लगाएँ। आँखों से, मन से कहें कि नहीं, ऐसा न सोचो, ये दूषित विचार मेरे लिए ठीक नहीं हैं। मन को वहाँ पलटा लें और नए काम में लग जाएँ। For Personal & Private Use Only www.jainel lorg Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन और देह का गुण-धर्म यही है कि अगर उसे कोई तत्त्व प्रभावित करता है तो कुछ समय तक तो उसका प्रभाव हमारे तन, मन, वचन पर रहता है लेकिन जितना जल्दी हम स्वयं को दूसरे काम में लगा देते हैं तो मन किसी बालक की तरह दूसरे खिलौने में राजी हो जाता है। इस तरह हम कान, आँख, जीभ, स्पर्श और नासिका की सुखानुभूति और उसके प्रभाव से मुक्त होकर संयमित जीवन जी सकते हैं। जैसे कि गृहस्थ संयम ले सकता है कि वह सप्ताह में एक ही दिन उपभोग करेगा और छः दिन शीलव्रत का पालन करेगा। इस तरह भोग करते हुए भी व्यक्ति स्वयं को संयम के रास्ते पर ले जा सकता है। चौथा संयम उपकरणों से जुड़ा है। हमारे जीवन के भौतिक सुख-साधन, जैसे + वस्त्र, बर्तन, मकान व अन्य सांसारिक वस्तुएँ जो जीवन को ऐश्वर्य प्रदान करती हैं उन पर नियंत्रण किया जा सकता है। जैसे - हम इतना ही परिग्रह रखेंगे इससे अधिक नहीं। ऐसा करके हम संसार में रहकर भी संन्यास का फूल खिला सकते हैं। घर में रहकर भी संत की तरह जिएँ अर्थात् उपभोग तो करें पर संयमित रहकर । माना कि महिलाओं के पास बेशुमार साड़ियाँ होती हैं फिर भी साड़ी खरीदने की इच्छा समाप्त नहीं होती। तो आप ऐसा कर सकती हैं कि स्वयं ही निश्चित कर लें कि इतनी साड़ियाँ रखेंगी। और जब नई खरीदें तो अपनी पहले की साड़ियों में से एक साड़ी दान में दे दें, किसी गरीब को या जरूरतमंद को दे दें। यह संयम होगा, दान भी होगा और भोग भी। धर्म वह है जो व्यक्ति अपने मन के अनुरूप धारण कर ले। हो सकता है अभी इतना न छूट पाया हो कि हम उसका पूरी तरह त्याग कर दें। अगर त्याग हो गया तो यह पूर्णसंयम की श्रेणी में आ गया लेकिन जो पूर्ण त्याग न कर पाएँ वे कुछ तो अपनी सीमाएँ निर्धारित कर लें। संत न बन पाएँ तो क्या, सद्गृहस्थ की जो मर्यादा होती है उसे तो अपनाएँ। अणुव्रतों का पालन न कर सकें तो कोई बात नहीं लेकिन अपनी स्थिति के अनुसार कुछ तो संयम का अनुपालन करना ही चाहिए। अपने देहबल, मनोबल के आधार पर, परिस्थितियों के आधार पर निर्धारण होगा कि व्यक्ति कितना संयम अपने जीवन के साथ जोड़ सकता है। ___ऐसा न हो कि संत-महात्मा के कहने पर कुछ त्याग करने का संकल्प ले लिया लेकिन घर आते ही वह परेशानी का सबब न बन जाए । मन में तो असंयम 29. Jain Station International For Personal & Private Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है लेकिन व्यवहार में मुश्किल में पड़ जाता है। इस तरह दबाव में लिये गये नियमों को १०% लोग ही पालन कर पाते हैं। शेष तो थोड़े दिन ही निभा पाते हैं और फिर वे नियम छूट जाते हैं। नियम और संयम में फ़र्क है - नियम तो लिया जाता है और संयम अपनाया जाता है। अगर कोई श्रेष्ठ त्याग की ओर चला जाता है तो वह श्रेष्ठ अवश्य कहलाएगा लेकिन श्रेष्ठ की ओर नहीं बढ़ सकता तो इसका मतलब यह नहीं कि वह मोहग्रस्त है। किसी के पास माना कि सोना है, चाँदी है लेकिन लिमिट में हो। वैसे भी आजकल चाँदी का उपयोग कौन करता है। चाँदी के न बर्तन काम में लेते हैं न ही गहने बनवाते हैं, इन्हें तो पूरी तरह से छोड़ ही देना चाहिए। अगर पूरी तरह त्याग न भी कर पाएँ तो उसे अपने बच्चों के लिए रख दें। वैसे भी सोना तो फिक्स्ड डिपॉजिट है। हम यह न कहेंगे कि उसे सोने से मोह है, बल्कि यह तो दायित्व-बोध है कि उस सोने को बच्चों की शादी में उपयोग करना है। जो सौ प्रतिशत उपयोग कर रहा है उससे तो कम ही मोह कहलाएगा। पुरुष भी अगर यह संयम अपनाते हैं कि मैं निश्चित संख्या में ही अपने कपड़े रखूगा, या इतने ही वाहन रखूगा तो यह उनका संयम होगा। यह उनके मोह को कम करेगा। वस्त्रों को देखकर जो तमन्ना जगती है उस पर किसी-नकिसी दृष्टि से अंकुश ज़रूर लगेगा। इसीलिए परिग्रह-परिमाण व्रत की बात आती है। अर्थात् हम जो किसी भी प्रकार का परिग्रह करते हैं उसकी एक सीमा निर्धारित हो जाए। एक तृप्ति आनी चाहिए। यह तृप्ति ही संयम को जन्म देती है। जब वृत्ति ही पैदा न होगी तब तृप्ति आएगी। किसी धनपति के पास आठ-दस कारें हों तो वह सोचे कि उसे कितनी कारों की वास्तव में आवश्यकता है। तब ही उसे कारों से लगाव कम होगा। तब कोई कितना भी अमीर क्यों न हो जाए कारों के प्रति उसका व्यामोह और आसक्ति नहीं होगी। उसकी अन्तरात्मा में अनासक्ति का फूल खिला रहेगा। कारों को देखकर रोज-ब-रोज जो तृष्णा उठती थी, अब वह तृष्णा पैदा न होगी। उसे लगेगा कि उसका तो नियम है उसे अब कार नहीं खरीदनी है। अगर नई कार का मजा लेना है तो लो पर पहले की कार में से एक कार बेचकर या उसे छोड़कर । कुछ तो संयम होना चाहिए। For Personal & Private Use Only www.jaineli2 ? Sorg Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह जो भौतिक सुख-साधन के उपकरण हैं उन पर भी यदि हम संयम का अंकुश लगाते हैं तो यह संयम - जीवन का ही अनुमोदन और समर्थन है । एक संयम और अपनाया जाए, वह है उपेक्षाओं पर संयम । यानी कि अगर कोई हमारी उपेक्षा कर रहा है तब भी हम स्वयं पर संयम रखेंगे। देखने में आता है कि सास बहू की उपेक्षा कर देती है। पिता के द्वारा पुत्र की उपेक्षा हो जाती है, घर में शादी हो तो निकट के रिश्तेदार को बुलाना भूल ही जाते हैं । यह जो उपेक्षा हुई इस कारण हमारे मन में, दिमाग पर, वाणी पर, काया में, व्यवहार में जो उग्रता आ जाती है, ऐसा व्यवहार न हो। जैसे ही उपेक्षा हो जाए तो स्वयं को कहें कि कोई बात नहीं जो उन्होंने मुझ पर गौर नहीं किया, लेकिन मुझे अपना कर्त्तव्य निभाना चाहिए। यह भी संयम है । अमूमन क्रोध जब भी आता है उपेक्षित अपेक्षाओं के कारण आता है । जब हमारे अहंकार को ठेस लगती है क्रोध आ जाता है । मैंने पहले चार संयम बताए लेकिन यह पाँचवाँ संयम सबसे ऊपर है कि किसी व्यक्ति ने दूसरे के द्वारा की जा रही उपेक्षा को भी संयम भाव से स्वीकार कर लिया। उन्होंने कह दिया हरि इच्छा । कोई भी नहीं चाहता कि कड़वी बात सुनने को मिले, उपेक्षा हो, अपमान मिले फिर भी हो जाता है । यह सहज है, व्यवहार में ऐसा हो जाया करता है। जब ऐसा हो जाए तो अंगीकार कर लें और विचारें कि आप तो उपेक्षा - संयम को जीने वाले हैं। - 1 कहा जाता है कि सुकरात की पत्नी बहुत गुस्सैल प्रकृति की थी । लेकिन जब कोई भी सुकरात को यह बात कहता कि आपकी पत्नी इतना चिड़चिड़ाती हैं और आप कुछ भी नहीं कहते । वे कहते - उसका चिढ़ना मेरे लिए उपयोगी है तब शिष्य पूछते - कैसे ? सुकरात कहते - इस तरह वह प्रतिदिन मेरी समता और शांति की कसौटी बन जाती है। मुझे गुफाओं में जाकर साधना करने की ज़रूरत नहीं पड़ती। मैं घर में ही समताभावी हो गया हूँ । ये रोजाना कुछ-नकुछ ऐसा कह देती है कि मुझे समता का, शांति का अभ्यास यहीं हो जाता है । और अगर उसने मेरी उपेक्षा की और मैंने अपने आप पर संयम रखा तो यह हो गया संत - जीवन । यह तो दार्शनिक का नज़रिया है कि किसी ने हमें टेढ़े शब्द कहे फिर भी २२० For Personal & Private Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमने पॉजिटिव व्यवहार किया। मैंने संत एकनाथ के बारे में सुना है कि उन्होंने कभी गुस्सा किया ही नहीं, उन्हें कभी क्रोध आया ही नहीं। तब गाँव में सभा हुई कि अगर कोई एकनाथ जी को गुस्सा दिला दे तो उसे दो सौ रुपये इनाम मिलेगा। सभी जानते थे कि उन्हें गुस्सा दिलाना बहुत मुश्किल काम है क्योंकि वे तो हमेशा शांत रहते हैं। किसी के ऊपर राख गिराई जाए फिर भी खुदा का शुक्र अदा करे कि हम तो आग के लायक थे राख ही गिरी - ऐसा व्यक्ति तो देवपुरुष होता है। संतों में भी महासंत होता है । किसी ब्राह्मण पंडित को बात जम गई कि वह संत एकनाथ को गुस्सा दिलाएगा और दो सौ रुपये जीतेगा। दूसरे दिन वह लोटा लेकर जंगल में शौच के लिए गया। जब वापस आया तो हाथ शुद्ध नहीं किये और लोटे के साथ ही संत एकनाथ के घर में चला गया। एकनाथ उस समय भगवत् पूजा कर रहे थे । वह पंडित दूषित हाथ और लोटा लिये हुए एकनाथ की गोद में जा बैठा । दूसरा कोई होता तो एकदम आग-बबूला हो उठता लेकिन एकनाथ ने प्यार से उसका माथा सहलाया और बोले - वाह, भई वाह, मैंने अपने से अनुराग करने वाले बहुत से लोग देखे, पर तेरे जैसा अनुरागी कोई न देखा कि जो सीधा गोद में आ बैठा । तेरा तो प्रेम करने का तरीका ही बड़ा विलक्षण है। तुम आराम से बैठो, तुम्हें भी भजन का, भक्ति का फल मिलेगा । आओ हम दोनों मिलकर भजन करते हैं । पंडित को महसूस हुआ कि एकनाथ जी को गुस्सा दिलाना असंभव है, उसने प्रणाम किया और चला गया। दूसरे दिन फिर आया । एकनाथ जी भोजन करने बैठे ही थे कि उसे भी भोजन करने का निमंत्रण दे डाला। वह पास में आकर बैठ गया तभी पत्नी खाना लेकर आई और जैसे ही परोसने लगी कि पंडित उसकी पीठ पर चढ़ गया । सामान्य रूप से अगर ऐसा हो जाए तो हर पति क्रोधित हो उठेगा कि अनजाना व्यक्ति पत्नी के साथ यह क्या व्यवहार कर रहा है । पर एकनाथ जी ने पत्नी से कहा देख ध्यान रखना यह कहीं नीचे न गिर जाए। पत्नी एकनाथ जी से भी एक कदम आगे, उसने कहा - अजी आप चिंता न कीजिये । मुझे मुन्ने को सँभालना अच्छी तरह आता है । यह है व्यक्ति की शांति, समता । विपरीत परिस्थिति में भी, उपेक्षा किये जाने पर भी अपने आप पर संयम रखना। For Personal & Private Use Only २२१ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गलत वातावरण बनेंगे, गलत निमित्त आएँगे, तब यह उसका संयम होगा जो अपने अपमान और उपेक्षा से विचलित न होगा। अपने मन में शांति रखना, अपनी ओर से प्रसन्न व्यवहार करना ही वास्तविक संयम है। यही सबसे कठिन है। अगर इस एक संयम को अपना लिया तो शेष चार तो अपने आप ही सधने लग जायेंगे। तन, मन, वाणी पर इनका प्रभाव आना शुरू हो जाएगा। हम लोगों से जितना बने संयम का सम्मान करना चाहिए। अपने जीवन मेंमनोगत, कायागत, वाणीगत या सुख-साधन के उपकरणों का संयम, उपेक्षाओं का संयम अपनाकर ही जीना चाहिए। हमें कीचड़ में कमल की तरह जीना चाहिए। हम सभी हिलमिलकर प्रेम से रहें, खुशी से जिएँ पर कमल के फूल की तरह निर्लिप्त रहें। वेदों ने इसीलिए जीवन को चार चरणों में जीने की व्यवस्था दी थी - ब्रह्मचर्य-आश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम । ये चार चरण संयमपूर्वक जीने के लिए हैं। अगर हम व्यक्ति की आयु सौ वर्ष मानते हैं तो जो पच्चीस वर्ष की आयु तक के हैं वे अपनी शिक्षा पढ़ाई पूरी कर चुके हैं तो गृहस्थ-आश्रम में प्रवेश करें, इसके पूर्व संयम रखें और अस्सी वर्ष की उम्र मानते हैं तो बीस वर्ष तक संयम रखें। दूसरे चरण में प्रवेश करने पर दूसरा चरण ही जिएँ, न कि ताउम्र गृहस्थ जीवन ही जीते रहें। अमुक सीमा तक गृहस्थ आश्रम में रहें लेकिन पचास की उम्र पूरी होते ही तीसरे आश्रम की ओर कदम बढ़ाने का प्रयत्न करें । तीन आश्रमों तक घर में रहकर भी अनासक्त और सदाबहार प्रसन्न रहें। चौथा संन्यास आश्रम है - इसमें घर में रहते हुए भी संत-जीवन जिएँ । भूल जाएँ कि कोई आपकी पत्नी रही, माता-पिता या बच्चे रहे। अब अगर बहू हमारी उपेक्षा कर दे तो मन की कसौटी कसें कि इसका मन पर बुरा प्रभाव पड़ा या बिल्कुल सहज रहे। अगर सहज रह सके तो वानप्रस्थ से संन्यास की ओर बढ़ गये। लेकिन सहज न रह सके, उपेक्षापूर्ण व्यवहार से प्रभावित हो गये तो समझ लेना कि उम्र से भले ही वानप्रस्थी या संन्यासी हो गए हो पर मन तो अभी गृहस्थी में ही उलझा हुआ है। मन अभी तक उठा-पटक और उतार-चढ़ाव से घिरा हुआ है। लेश्याओं से घिरा है। संयम यही है कि व्यक्ति स्वयं को कसता रहे । कसौटी होती रहे। अगर २२२ For Personal & Private Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोई व्यक्ति टेढ़ा शब्द कह दे तो समझना चाहिए ऐसा मेरी परीक्षा के लिए कहा गया है। इससे हमारी शांति और समता की कसौटी होती रहती है। हम संयम में जिएंगे तो मुक्ति हमारे करीब आएगी। और असंयम से जीने पर जन्म-जन्मांतर का कीचड़, भवतृष्णा का कीचड़ हमारे सामने खड़ा ही है। व्यक्ति को जितना जीवन का प्रकाश मिलेगा, जीवन का बोध होगा वह उतना ही मुक्ति की ओर बढ़ता जाएगा। संयम को अपनाने के लिए ज्ञानतत्त्व से जुड़ना होगा और ज्ञान के लिए धर्म की दहलीज़ पर कदम रखने होंगे। धर्म का अर्थ संयम और संयम का ही दूसरा नाम धर्म है। हमारे कदम संयममय हों। अपनी ओर से इतना ही अनुरोध है। मंगलमय हो। नमस्कार। २२३ For Personal & Private Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेमुक्त हों अन्तर्मनके घेरों से न्यायालय में एक संत पर चोरी के अभियोग की सुनवाई चल रही थी। न्यायाधीश चोर को कठघरे में खड़ा देखकर आश्चर्यचकित थे। उन पर लगाए गए अभियोग और लाँछन उन्होंने सुने तो और अधिक आश्चर्य हुआ। क्योंकि उन्होंने कुछ टूटी-फूटी हँडिया, पुराने घिसे हुए झाड़ और फटी हुई दरियों की चोरी की थीं। न्यायाधीश को यह देख-सुनकर आश्चर्य हुआ कि कोई व्यक्ति आवश्यकता आ जाने पर चोरी कर सकता है, पर फटी हुई दरियाँ और घिसे हुए झाड़ओं की चोरी ! जब न्यायाधीश ने संतप्रवर से पूछा - क्या आपने चोरी की ? संतप्रवर ने बिना झिझक के तुरंत स्वीकार कर लिया कि उन्होंने चोरी की है। गवाह ने भी बता दिया कि चोरी की है। ___ संत को एक माह की कैद की सजा सुनाई गई। संत मुस्कुरा रहा था मानो अपने कार्य में, अपने लक्ष्य में सफल हो गया । मुस्कुराते हुए वह कारागार की ओर बढ़ा । न्यायाधीश को थोड़ा अटपटा लगा, संत का अंदाज़ भी रहस्यमय प्रतीत हुआ। वह कारागार में संत से मिलने गया और कहा - मुझे समझ में नहीं आ रहा कि आप और चोरी करें! आपको ऐसी कौनसी चीज़ की ज़रूरत आ पड़ी कि आपको चोरी करना पड़ी। एक माह बाद तो आप छूट जायेंगे, आपके सामने समस्याएँ होंगी तो क्या फिर पुनः आप चोरी करेंगे? मैं नहीं चाहता कि २२४ For Personal & Private Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप चोरी करें। अगर आपको किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो मेरे घर संदेशा भेज दिया करें, मैं आपकी आवश्यकताओं की पूर्ति कर दूंगा। रहस्यमयी अंदाज़ से हँसते हुए संत ने कहा - न्यायाधीश, क्या तुम्हें ऐसा लगता है कि मेरे पास किसी चीज़ की कमी है जिसके कारण मैं चोरी कर रहा हूँ ? ऐसा नहीं है। मैंने चोरी चोरी करने के लिए की है। वह भी इसलिए कि मैं हवालात में आ सकूँ। और हवालात में इसलिए आ सकूँ कि यहाँ बंद पड़े कैदियों को वे संदेश सुना सकूँ जिन्हें सुनकर वे अपने बंधनों को नीचे गिरा सकें। ___ऐसा लगता है कि सारा जगत ही एक कारागार है। यहाँ हर इंसान बँधा हुआ है, हर प्राणी बँधा हुआ है और संत, ज्ञानी, महर्षि इंसानियत के बीच में आकर हर इंसान को उस संदेश का मालिक बनाना चाहते हैं जिसे पाकर वे अपने बंधनों को समझ सकें और उन्हें काट सकें । हर संत मुक्ति का पैगाम होता है, पवित्रता का पुरोधा होता है । वह मानवजाति के विकास, उसके आध्यात्मिक कल्याण की कामना और भावना से भरा होता है । संत का दायित्व ही यही होता है कि वह व्यक्ति को उसके बंधन समझाए और बंधनों से मुक्त होने का रास्ता दिखाए । यह कहानी तो एक प्रतीक है, हक़ीक़त में तो हम सभी कारागार में बँधे हुए हैं और इसमें महावीर जैसा महापुरुष संत का बाना पहने हुए आता है और हमें मुक्ति का मार्ग दिखाता है। जीसस की तरह, सुकरात की तरह महावीर भी आताप से मुक्त न हो सके । जीसस को सूली पर चढ़ना पड़ा, सुकरात को जहर पीना पड़ा, महावीर के कानों में कीलें ठोकी गईं। इतना सब होने के बावजूद भी वे हमारे अंतर के कारागार में चार कदम बढ़ाना चाहते हैं, ताकि वे हमें समझा सकें, बता सकें कि हमारे क्या-क्या बंधन हैं और उन बंधनों से मुक्त होने का रास्ता क्या है। जो कारागार में कैद हैं वही कैद नहीं हैं बल्कि आत्मज्ञानियों की अन्तर्दृष्टि उन्हें बोध कराती है कि धरती पर रहने वाला हर प्राणी किसी-न-किसी रूप में बँधा हुआ है। हम लोग किन्हीं लोहे की बेड़ियों से नहीं अपितु अपने आप से बँधे हुए हैं। ऐसा न समझें कि पति पत्नी से बँधा है, या पत्नी पति से बँधी है। कहते हैं मियां बीबी का गुलाम- हक़ीक़त में कोई किसी का गुलाम नहीं होता, व्यक्ति गुलाम होता है केवल स्वयं का, वह खुद ही बँधा रहता है। अग्नि की या २२५ For Personal & Private Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सात फेरों की क्या ताक़त है जो इंसान को एक-दूसरे से बाँध सके । बंधन इंसान की कमज़ोरी है और मुक्ति उसका आत्म-विश्वास है । व्यक्ति किसी बाह्य कारण से नहीं, अपने ही मोह - तत्त्व के कारण बँधा हुआ है। वह अपने कारण ही अपने-आप से बँधा हुआ है। हमें यही तो समझना है कि हम किससे बँधे हुए हैं। जो भी ध्यान करेगा वह देखेगा कि वह अपने ही संस्कारों से बँधा है। जन्म-जन्मांतरों से जो संस्कार बाँधे गये हैं उन्हीं की तरंगों से, उन्हीं घेरों से, उन्हीं लहरों से, बेड़ियों से, जंजीरों से, शलाखाओं से हम सभी बँधे हुए हैं । ये सारे बंधन अन्तर्मन के बंधन हैं । हम लोग जो भी कार्य करते हैं वह अन्तर्मन की प्रेरणा से ही तो करते हैं। काया तो माध्यम है, इसे जैसा भीतर से निर्देश मिलेगा वैसा स्वरूप प्रगट कर देगी। मन में अगर क्रोध उठ गया है तो काया भी कँपकँपाने लग जाएगी । मन में विकार उठ गया तो काया भी वैसी ही संवेदनशील हो जाएगी। काया कुछ नहीं करती । करने वाला व्यक्ति का अन्तर्मन है । वही बँधा है और वही प्रेरक भी है। मन अगर मंदिर जाना चाहता है तो काया मंदिर की अनुयायी बन जाएगी। मन मधुशाला जाना चाहेगा तो काया मदिरा पीने लग जाएगी। कहा जाता है कि धर्मराज के पास यमदूत दो प्राणियों को लेकर आए । उनमें एक तो किसी मठ का मठाधीश था, दूसरा जीव एक गणिका का था । मठ और गणिका का भवन आमने-सामने ही थे। दोनों के जीव यमदूत ले आये थे । धर्मराज ने चित्रगुप्त से, अपने निजी सचिव से पूछा- बताओ इन दोनों को किस-किस गति में डाला जाए । चित्रगुप्त ने कहा मेरे लेखे के हिसाब से मठाधीश को नरकगति और गणिका को स्वर्गगति मिलेगी। यह सुनते ही एक बार तो धर्मराज भी चौंके और संत व गणिका का चौंकना तो स्वाभाविक ही था । गणिका कहने लगी- महाराज आपसे कुछ गलती हो गई है। अरे, मैं तो गणिका हूँ। अपनी देह बेचने वाली, नाचने वाली, मैंने तो जीवन भर पाप ही पाप किया । आप उल्टा बोल गए हैं। संत को स्वर्ग और मुझे नरक मिलना चाहिए । संत भी आग-बबूला हो गया - चित्रगुप्त ! तुम्हारे न्याय में यह कैसी गलती, संत को नरक दे रहे हो ? तुमसे अच्छे तो ये धरती के लोग हैं। जरा नीचे झाँककर तो देखो वहाँ पर लोग मेरी शवयात्रा निकाल रहे हैं और मेरी जय-जयकार २२६ - For Personal & Private Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर रहे हैं। देखो, गणिका के शव को नगरपालिका की गाड़ी उठाकर ले जा रही है और लोग उस पर थू-थू कर रहे हैं। मुझ पर फूल चढ़ा रहे हैं। चित्रगुप्त ! तुमसे ज़रूर कुछ ग़लती हुई है। धर्मराज ने चित्रगुप्त का रजिस्टर देखा और सारी बात समझते हुए तत्काल कहा – गणिका और संतप्रवर ! चित्रगुप्त ने जो बात कही है वह बिल्कुल ठीक है। गणिका को स्वर्ग भेजा जाएगा और संतप्रवर को नरक भेजा जाएगा। दोनों ने एक साथ कारण पूछा। धर्मराज ने कहा - संत ! तुम रहते थे मठ में, आरती करते थे श्रीप्रभु की, लेकिन तुम्हारा मन उस गणिका की ओर रहता था कि कभी तुम्हें भी मौका मिले और तुम गणिका के पास जाओ और अपने मन को तृप्त करो। वहीं यह गणिका अपनी काया को बेच रही होती, नाच रही होती, लेकिन मन में सद्भाव उठते कि धन्य है वह मठाधीश जो भगवान की अर्चना-वंदना कर रहे हैं, प्रभु भक्ति में लगे हैं। और एक मैं पापिनी पाप ढो रही हूँ। वह तन से गणिका थी, पर मन से मंदिर में थी। और तुम तन से मंदिर में थे, पर तुम्हारा मन मधुशाला में, मदिरालय में, वेश्यालय में भटक रहा था। धर्मराज यहाँ जो न्याय करते हैं वह इंसान के तन के आधार पर नहीं, मन के आधार पर करते हैं। और इंसाफ़ यही है कि जिसका मन पवित्र वह स्वर्ग का अधिकारी और जिसका मन दूषित, अपवित्र, वह व्यक्ति नरक का अधिकारी है। समस्त गतिविधियों का आधार और प्रेरक मन है । सभी पापों की जड़ भी मन है। इसीलिए कहा जाता है - मन चंगा तो कठौती में गंगा । संत रैदास जाति के चमार थे। उनसे सम्राट् ने कहा - मैं हरिद्वार गंगास्नान के लिए जा रहा हूँ, रैदास तुम भी अगर चलना चाहो तो चल सकते हो। रैदास ने कहा - राजन् ! मेरी गंगा तो मेरी कठौती में बहती है, अगर तुम्हें इसमें स्नान करना हो तो कर लो। राजा हरिद्वार जाता है - वहाँ पानी में डुबकियाँ लगाता है लेकिन गंगाजी मिल नहीं पाती, लौटकर अपने नगर में आता है तब रास्ते में उसे गंगा माँ के दर्शन होते हैं। राजा पूछता है - गंगा मैया ! तुम कहाँ चली गई थीं, मैं तो तुम्हारे चरणों में स्नान करने गया था। गंगाजी ने जवाब दिया - मैं तो रैदास जी की कठौती में डुबकी लगाने गई थी। और कहावत चल पड़ी - मन चंगा तो कठौती में गंगा। जो मन से इतना निष्पाप हो गया है कि इसकी तो कठौती में भी गंगा २२७ For Personal & Private Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विराजती है, उसके तो आँगन में भी श्रीप्रभु का निवास हुआ करता है। इस तरह मन ही समस्त गतिविधियों का आधार है । व्यक्ति मन की प्रेरणा से ही सारे काम करता है। मन अगर ठीक है तो गतिविधि भी ठीक दिखेगी । मन के ठीक होने पर हाथों से कार्य भी ठीक होंगे। मन अगर ख़राब है तो आँखें भी ख़राब चीज़ों को देखेंगी और जब ख़राब देखेंगे तो हाथ भी ख़राब ही होंगे। ज्ञानी कहते हैं इन्सान के लिए ध्यान ही सर्वश्रेष्ठ तप है। ध्यान का उद्देश्य भी यही है कि व्यक्ति का मन ठीक हो जाए। पवित्र मन अपने-आप में चलता-फिरता मंदिर है, तीर्थ है, गंगा - यमुना का संगम है । हम अपने मन से रूबरू हों और पहचानने की कोशिश करें कि हमारे मन की क्या स्थिति है। पहले यह मत ढूँढ़ो कि मैं कौन हूँ। पहले यह देखो कि यह मन कहाँ उलझा हुआ है, किसमें फँसा हुआ है - मोह में, माया में, परिग्रह में, क्रोध में, विकार-वासना में । जहाँ-जहाँ मन उलझा हुआ है वैसी ही आत्मदशा होगी, वैसा ही गुणस्थान होगा, वैसी ही गति - सद्गति-दुर्गति होगी। हमारा मन संस्कारों से, घेरों से बँधा हुआ है। जो भी इस रहस्य को समझ जाएगा वह न केवल अपनी मुक्ति और आध्यात्मिक चेतना को उपलब्ध हो जाएगा वरन् जीवन के असंभव से असंभव कार्यों को पूरा कर लेगा । If you can see invisible you can do impossible. अगर तुम अदृश्य को देख सकते हो तो असंभव को भी संभव कर सकते हो । इन्सान स्थूल शरीर को तो देखता है लेकिन अपने सूक्ष्म मन को देखने की कोशिश नहीं करता । किसी को फुर्सत ही नहीं है कि वह अपने मन को देखे, समझे और ठीक करे । विश्व के सारे विद्यालय, महाविद्यालय शिक्षा दे रहे हैं, कैरियर बना रहे हैं, लेकिन मन को सुधारने और सँवारने की कोई पाठशाला नहीं है। ऐसी पाठशाला जिसमें शरीक़ होकर इंसान अपने मन को सँवारे, सुधारे, संस्कारित करे, निर्मल करे, शांति और आनन्दमय बनाए । एक बात बताएँ, कोई आदमी बंदूक चलाता है और एक व्यक्ति मर जाता है तो बताएँ उसे किसने मारा ? व्यक्ति ने या बंदूक की गोली ने ? आपका कहना यह है कि बंदूक की गोली ने तो मैं आपके हाथ में एक कारतूस दे देता हूँ आप मुझे मार के दिखा दो । क्या मैं मरूँगा ? नहीं । व्यक्ति गोली के कारण 1 २२८ For Personal & Private Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं, गोली दागने का जो फोर्स है उसके कारण मरता है । इंसान जो भी करता है वह एक फोर्स है, यह फोर्स, यह अंधा प्रवाह जब हमारे भीतर उदय होता है हम भी अपनी सुध-बुध खो बैठते हैं। एक ज्ञानी, शांतचेता कहलाने वाला व्यक्ति भी जब क्रोध के फोर्स के अधीन होता है, तो वह भी आउट ऑफ कन्ट्रोल हो जाता है, गाली-गलौच करने लगता है, क्रोधित हो जाता है, गुस्सा करने लगता है। एक पढ़ा-लिखा, सभ्य-सा इंसान, जब उसके भीतर मोह, विकार या वासना उठती है तब वह अपना सारा ज्ञान-ध्यान भूल जाता है और अवांछित कार्य भी करने लगता है। अंध प्रवाह, अंधा फोर्स हम सभी के भीतर उठता है। यही है लेश्या। महावीर ने जिसे लेश्या कहा उसे मैं फोर्स कहता हूँ। जिसका आवेग उठने पर व्यक्ति अपनी सुध-बुध सब भूल जाता है तब सही या गलत कुछ भी करने को तत्पर हो जाता है। फोर्स अच्छा या बुरा कैसा भी हो सकता है । क्रोध का फोर्स बुरा है और प्रेम व शांति का फोर्स अच्छा कह सकते हैं। क्रोध में सब कुछ भूल जाते हैं। आत्मा-परमात्मा का ज्ञान धरा रह जाता है। तालाब में पानी है, बाढ़ में भी पानी आता है। जब पानी का प्रवाह तेज होता है तो बाढ़ में सब तटबंध टूट जाते हैं । जो बचाने वाला होता है उसको भी ले डूबता है, बाँध को भी तोड़ देता है। क्रोध के फोर्स में व्यक्ति अशुभ काम करने को तत्पर हो जाता है । यह है अशुभ लेश्या। ___ लेश्या' शब्द का अर्थ है जो हमें घेर ले, अपने प्रभाव में ले ले। जैसे - शेर किसी गीदड़ को पकड़ ले, उसमें अपने नाखून और जबड़े फँसा दे तो यही कहा जाएगा कि शेर उस पर हावी हो गया और फँसा हुआ पशु लाचार हो गया है। ऐसे ही हमारे भीतर उठने वाला प्रवाह जब हमें अपने प्रभाव में ले लेता है तब हमारा ज्ञान-ध्यान सब एक तरफ चला जाता है और व्यक्ति उस प्रवाह में बहने को मज़बूर हो जाता है। लेश्या के प्रभाव से, भला सा व्यक्ति भी, पानी में तैरती हुई नौका की तरह तेज प्रवाह आने पर डूब जाती है, अपना आपा खोकर विकारों के प्रवाह में डूब जाता है। जितने भी ग़लत काम होते हैं जैसे - बलात्कार, हत्या, आतंक, चोरी-डकैती आदि - ऐसे समय में उस व्यक्ति के भीतर अंधी लेश्या का उदय होता है और वह ग़लत काम कर जाता है। कषाय के उदय से For Personal & Private Use Only www.jainel Sorg Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे भीतर जो अंधा प्रवाह उठा, अंधी प्रेरणा आई उसी का नाम लेश्या है । मन, वचन, काया की वह प्रवृत्ति जो हमें अपने प्रभाव में ले ले, लेश्या कहलाती है । 'लेश्या' महावीर का बहुत ख़ूबसूरत विज्ञान, मनोविज्ञान है । अभी-अभी पढ़ने-सुनने में आया कि मुंबई में एक बिल्डर ने मजदूरिन के साथ बलात्कार किया और उसे उम्रकैद की सजा मिल गई। यह क्या है ? एक अंधा प्रवाह है। जबकि उसके पत्नी है, बच्चे हैं, अच्छा-सा बँगला और गाड़ी है, लेकिन मन में विकार का अंधा प्रवाह उठा और दुष्कर्म कर गया। दुष्कर्म तो हो गया पाँच-सात मिनिट में, लेकिन परिणाम जीवन भर का हो गया - उम्रकैद । ऐसा अंधा प्रवाह उठता है और यह हो गई अशुभ लेश्या ! कभी-कभी शुभ लेश्या का भी उदय हो जाता है। जैसे कहीं मंदिर बना है, उसकी प्रतिष्ठा हो रही है और मूर्ति की स्थापना की जानी है। स्थापना का चढ़ावा बोला जा रहा है। दो लाख, पाँच लाख, एक करोड़... पाँच करोड़, सवा पाँच करोड़ पर बोली पूरी हो गई । सवा पाँच करोड़ रुपये खर्च हुए, यह क्या था ? किसने उसे ऐसी प्रेरणा दी जिसके कारण उस व्यक्ति ने सवा पाँच करोड़ रुपये का चढ़ावा बोल दिया । भीतर जो प्रवाह उठा वह शुभ हो गया। यह शुभ लेश्या है। शुभ लेश्या का उदय है। दोनों जगह जोश चढ़ा, प्रवाह उठा जब बलात्कार किया तब भी और पाँच करोड़ की बोली ली तब भी। दोनों में ही लेश्या का उदय हुआ। दोनों में ही भाव, दोनों में ही जोश उठा, दोनों में ही होश खो गया। होशपूर्वक खर्च करता तो जब मंदिर बन रहा था तभी देता लेकिन मंदिर बन गया, सैकड़ों लोग इकट्ठे हो गये, सब आव-ताव में बैठे हैं, सब बोलने शुरू हो जाते हैं, उस समय होश चला जाता है जोश रह जाता है । होशपूर्वक किया गया कार्य मुक्ति का द्वार बनता है । और अंधे जोश से किया गया कार्य व्यक्ति को प्रायश्चित देता है । हम सभी शुभ-अशुभ लेश्या से घिरे हुए हैं कोई भी इसका अपवाद नहीं है। क्योंकि हम साधना मार्ग से जुड़े हुए हैं। इस मार्ग पर चल रहे हैं और मुक्ति तत्त्व को जीने का प्रयत्न कर रहे हैं इसलिए अपन सूक्ष्म से सूक्ष्म उदयशील, उदयमान लेश्या को समझ सकते हैं आम आदमी रोज़मर्रा के रुटीन से बँधा हुआ है उसे न तो लेश्याओं का बोध है, २३० For Personal & Private Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न कोई होश है। उसमें तो बस प्रवाह उठ रहा है - अज्ञान का, मोह का उदय है, धन के प्रति पैसे का ममत्व जुड़ा हुआ है, उसके भीतर आसक्ति हो रही है। वह उसी आसक्ति से भरा हुआ जी रहा है। जीता रहता है और एक दिन मर जाता है। हम जो ध्यान के रास्ते पर चल रहे हैं अपने मोह, ममत्व, आसक्तियों को समझने का प्रयास कर रहे हैं। हम समझने का प्रयत्न कर रहे हैं कि हमारे भीतर ऐसी कौनसी प्रवृत्ति आई जिसने हमारी ज्ञान-दशा को, ध्यान-दशा को ढक डाला। यह तो तय है कि कभी-कभी सूरज भी बादलों में ढंक जाता है। वैसे ही हमारा ज्ञान-ध्यान भी कभी हमारे भीतर उदय होने वाली मोह-मायामूलक लेश्याओं के कारण ढंक जाया करता है। बादलों की क्या औकात कि वे सूरज को ढंक सकें, पर फिर भी ऐसा हो जाता है। ऐसे ही हम लोग भी, जिनके भीतर ज्ञान भी है, ध्यान भी है, होश, बोध भी है, सत्संग भी है - सब कुछ होते हुए भी हम लोग कमज़ोर हो जाते हैं। कौन है वह जो हमें कमज़ोर कर देता है ? श्रीभगवान कहते हैं उसी का नाम 'लेश्या' है। लेश्या' जो हमें घेर ले। व्यक्ति अगर कोई भी काम बोधपूर्वक करे तो उससे कोई गलत काम न होगा। लेकिन जैसे ही फोर्स - अंधा प्रवाह उदय में आ जाएगा, तब-तब इंसान से गलत काम हो जाएगा। फिर वह कुछ भी हो सकता है। इस फोर्स के उठते ही अपन सब गिर जाते हैं। यह फोर्स शांत हो सकता है। हम सभी इसीलिए ध्यान का प्रयोग करते हैं। ध्यान से पहले मुक्ति नहीं मिलती बल्कि पहले तो हम अन्तर्मन को शांतिमय बनाने का प्रयत्न करते हैं। अन्तर्मन को संस्कारित करने का प्रयत्न करते हैं। हमारा जो तामसिक, तमोगुण प्रधान मन है उसमें सतोगुण प्रधान तत्त्वों का संचार करने का प्रयास करते हैं। चाहे कोई रामनाम जपे या नवकार मंत्र, या फिर वाहे गुरु का पाठ करे अथवा दिन में पाँच बार नमाज़ अदा करे - ये सब माध्यम हैं मन को संस्कारित करने के लिए। ऐसा नहीं होने वाला कि ऊपर से कोई खुदा या भगवान आएँगे जो हम लोगों को ठीक करेंगे । हम तो अपने मन में जैसी चीजें भीतर डालेंगे वैसा ही बाहर परिणाम आएगा। अगर हम भगवान को बार-बार याद करेंगे तो हमारी स्मृति में भागवान कम भगवान ज़्यादा याद आयेंगे । जब भगवान अधिक याद आएँगे तो भागवान २३१ For Personal & Private Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का मोह धीरे-धीरे कम होगा, शिथिल होगा। नहीं तो किसी से भागवान छूटती है ? अस्सी, नब्बे वर्ष का वृद्ध भी अपनी पत्नी को भूल नहीं सकता । एक दफा मैंने एक सौ दो वर्ष के एक सज्जन से पूछा था - आपकी पत्नी को गुजरे कितने साल हो गये ? उन्होंने कहा - सत्रह साल हो गये। मैंने पूछा - आपको पत्नी की याद आती है ? कहने लगे - हाँ, कभी-कभी आती है। मैंने कहा - सिर्फ पत्नी की ही याद आती है या और सब बातें भी याद आती हैं। उन्होंने कहा - मतलब ? मैंने कहा - आप पति-पत्नी थे.... । कहने लगे - हाँ, कभी-कभी सब याद आने लगता है। ___एक सौ दो वर्ष का हो जाए व्यक्ति तब भी पुरानी बातें, पुराने ख़यालात, पुराने लोग, पुराने सम्बन्ध, पुराने भोग, पुराने मोह अपने आप याद आ जाते हैं। इन्सान भूल नहीं पाता । सब लेश्याओं का चक्कर है। हम सब लेश्याओं से बँधे हुए हैं। अगर हम सभी उस अदृश्य घेरे को देखने का, समझने का प्रयत्न करें तो अपन कुछ एक्स्ट्रा काम कर सकते हैं। कुछ नई इबारत लिख सकते हैं। कुछ नई आध्यात्मिक खुशबू को उपलब्ध कर सकते हैं। कुछ भीतर की शुद्धि कर सकते हैं। ज्यों-ज्यों हमारी लेश्याओं की शुद्धि होती है त्यों-त्यों हमारी आत्मा में भी शुद्धि आती जाती है। लेश्याओं में तब शुद्धि होती है जब हमारे कषायों में मंदता आती है। जैसे-जैसे हम अपने कषायों को कमजोर करेंगे, अपने क्रोध को शांत करने का प्रयत्न करेंगे, अपने मोह-विकारों को शांत करने का प्रयत्न करेंगे त्यों-त्यों हमारी लेश्याओं की शुद्धि होगी। जैसे-जैसे हमारी लेश्याओं की शुद्धि होगी वैसे-वैसे हमारी अन्तरात्मा की भी शुद्धि होगी। इस तरह हमारे मन की धुरी पर सारा दारोमदार आकर टिक जाता है। कुछ बातें प्रकट में महसूस हो जाती हैं, कुछ बातें अप्रकट रह जाती हैं। कभी हमें लगता है कि हम पवित्र हो गये लेकिन अप्रकट मन को किसने समझा है। विश्वामित्र को लगा था कि वे पवित्र हो गये हैं लेकिन अचेतन मन का विकार तो अन्ततः प्रकट हो ही गया । हम अपने चेतन मन को तो समझ सकते हैं लेकिन अचेतन और अवचेतन मन को नहीं समझ पाते । इसलिए यह कहने का अहंकार व्यर्थ है कि मैंने सब कुछ पा लिया है। क्योंकि पता नहीं चलता कब कौन औंधे मुँह गिर पड़े। कब किसके जीवन में मेनका का प्रवेश हो जाए और २३२ For Personal & Private Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कब कौन गिर जाए । इसलिए सब सोच व्यर्थ है। हाँ, इतना कहा जा सकता है कि आज का हमारा दिन अच्छा रहा, अच्छे ढंग से जी गए । कल क्या होगा कुछ नहीं कहा जा सकता। हमारे जीवन में कब किस कर्म का उदय होगा, पता नहीं। कब किस पूर्वजन्म के कर्म का उदय हो जाए और वह कर्म हमें नीचे गिरा दे। जरा सोचें संत आर्द्रकुमार के बारे में। अनार्य देश में रहने वाले आर्द्रकुमार भारत में रहने वाले अपने मित्र अभयकुमार से प्रेरित होकर संन्यास लेने को तत्पर हो गए। उन्हें जाति स्मरण ज्ञान (पूर्व जन्म का बोध) हो जाता है कि वे पिछले जन्म में भी संत थे। माता-पिता से नज़र बचाकर वे अपने महल से निकल पड़ते हैं और संन्यास ले लेते हैं। संन्यास तो उन्होंने ले लिया पर संन्यास के जीवन में उनके संबंध ऐसी स्त्री के साथ हो जाते हैं जो वहाँ कन्या रूप में खेलने के लिए आती है। कुछ लड़कियाँ जहाँ आर्द्रकुमार तपस्या कर रहे थे वहाँ अपना-अपना वर चुनो' खेल खेल रही थीं। किसी लड़की ने दीवार पर हाथ रखकर कहा कि यह मेरा पति, किसी ने वृक्ष के तने को, किसी ने टहनी को, किसी ने मंदिर की मूर्ति को अपना पति कहा । उन्हीं में से एक कन्या ने वहाँ साधनारत आर्द्रकुमार को छूकर कहा कि यह मेरा पति । यह बात सुनते ही वे चौंके कि मैं किसका वर, मैं तो ये सब झमेले छोड़कर आ गया हूँ। खैर, खेल था ख़त्म हो गया। संत चले गये। लेकिन वह लड़की जब थोड़ी और बड़ी हो गई तो पिता ने कहा - अब तुम्हारे लिए वर की तलाश करनी है तो वह झट से यही कहती है कि उसने तो अपना वर तलाश लिया है। मैंने तो किसी को अपना पति मान लिया है। पिताजी ने कहा - क्या बात करती हो ? तब लड़की ने सारा वाक़या बता दिया। पिताजी ने कहा – यह तो तुम्हारा खेल था, सच्चाई थोड़े ही है। लड़की ने कहा - अगर खेल में भी किसी को स्वीकार कर लिया तो अब वही मेरा पति होगा। बहुत वर्षों के बाद संत पुनः उस नगर में आए। वह लड़की उनके पदचिह्नों को देखकर समझ जाती है कि यही मेरे पति हैं। संत को भी होश आ जाता है, बोध जग जाता है कि यह मेरे किसी पूर्व जन्म का ऐसा प्रारब्ध है, ऐसा कर्म का उदय है जो अब मुझे भोगना ही पड़ेगा। मेरा कर्म ही मुझे वापस यहाँ खींचकर लाया है। आर्द्रकुमार गृहस्थी में आ जाते हैं, एक संतान भी होती २३३ For Personal & Private Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। एक बार पुनः मौका आता है, वे संन्यास लेने को तत्पर होते हैं, तभी बेटा आता है और पिताजी के पाँव में रेशम के धागे बाँध देता है । पिताजी उन धागों तो गिनते हैं कुल बारह लपेटे होते हैं। आर्द्रकुमार सोचते हैं - प्रतीत होता है कि अभी भी मेरे अन्तराय कर्म क्षय नहीं हुए हैं। पूर्व जन्म कृत कर्म अभी भी मेरे पीछे लगे हुए हैं। बारह धागों का अर्थ निकालते हैं कि अभी बारह वर्ष और संसार में रहना है। बारह सालों तक पुनः संसार में रहते हैं लेकिन वे जागरूक साधक हैं। भोग भी अगर होशपूर्वक हो तो वह भोग भी व्यक्ति को धीरे-धीरे योग की ओर ही ले जाता है । बारह वर्ष बाद संन्यास लेकर जंगल की ओर जाते हैं। जंगल में उन्हें एक हाथी बँधा हुआ दिखाई देता है । जैसे ही हाथी ने उस संन्यासी को देखा उसने अपनी जंजीरें तोड़ दीं और संत की ओर दौड़ पड़ा। हाथी के संरक्षक चिल्लाये कि बचो-बचो, हाथी पागल हो गया है, लेकिन हाथी संत के पास पहुँचकर रुक जाता है, उन्हें प्रणाम करता है और जंगल की ओर चला जाता है । हाथी के संरक्षक उनके पास पहुँचते हैं और कहते हैं - आश्चर्य, एक पागल हाथी तुम्हारे सामने आकर नतमस्तक हो गया। आर्द्रकुमार ने कहा- तुम्हें जंजीरों को तोड़ना कठिन लगता होगा लेकिन हाथी के द्वारा लोहे की जंजीरों को तोड़ना उतना कठिन नहीं था जितना मेरे द्वारा रेशम की जंजीरों को तोड़ना कठिन हो गया था । जंजीरें तो लोहे की थीं लेकिन मेरी जंजीरें तो मोह की, कर्मों की, लेश्याओं की जंजीरें थीं। पता नहीं चलता कब कौनसे जन्म का कर्म उदय में आ जाए और हम सबको बहाकर ले जाए। ये कर्म ही लेश्याएँ हैं, ये लेश्याएँ ही इन्सान की प्रवृत्तियाँ हैं, ये प्रवृत्तियाँ ही हमें मुक्त करती हैं या बंधनों से बाँधा करती हैं । हर इन्सान अपना-अपना अनुयायी है । कोई किसी पंथ या धर्म का अनुयायी नहीं होता। वह केवल स्वयं का अनुयायी होता है । मन जैसी प्रेरणा देता है व्यक्ति वैसा ही करने लगता है। अच्छी बातें इसलिए कही सुनी जाती हैं क्योंकि इन्सान के मन को जैसे निमित्त मिलेंगे, जैसी प्रेरणाएँ मिलेंगी, इन्सान का मन संभव है कुछ प्रेरित हो जाए और उछल-कूद करने वाला यह मन कुछ सही रास्ते पर चलने को तत्पर हो जाए। अच्छी बातें जो कही और सुनी जा रही हैं, २३४ For Personal & Private Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज़रूरी नहीं है कि मन उन्हें माने ही। उसके भीतर कुछ अलग कचरा भरा हुआ है। इसलिए हर बात मन तक उतर जाए यह ज़रूरी नहीं है। मन के भीतर कुछ निर्मलता आने के संयोग बनते हैं, भीतर का कषाय कुछ क्षीण होता है, तभी किसी संत-महंत या शास्त्र की अच्छी बात सुनने-पढ़ने को मिलती है, तब चमत्कार घटित हो जाता है तब कोई महावीर, बुद्ध, शंकराचार्य या कोई संत-महात्मा बन जाता है। कहा नहीं जा सकता कब किसके जीवन में क्या हो जाए। हम सभी को अपने-आप से रूबरू होना चाहिए कि हमारे मन की क्या स्थिति है। यह बचने-बचाने की बात नहीं है स्वीकार करने की है, खरी या खोटी जैसी भी है। कोई व्यक्ति आइने में चेहरा देखता है तो यह नहीं सोचता कि वह काला है तो दर्पण में क्यों देखे ? जैसा भी है, है - तभी तो वह अपने को सँवारने का प्रयत्न भी करता है। इसी तरह इंसान अपनी ओर से कोशिश तो करता है कि अपने मन को ठीक कर लूँ फिर अगर ठीक नहीं हो पाता तो क्या करें। ध्यान, योग, प्राणायाम करके मंदिर जाकर या अन्य किसी भी तरीके को अपनाकर हम अपने मन को ठीक करने का प्रयत्न तो ज़रूर करते ही हैं। हम सभी को अपने आप को समझना चाहिए। शब्द दो हैं - जोश और होश । केवल अंधे जोश के साथ करेंगे तो वह हमारे लिए गलत परिणामदायी हो सकता है, लेकिन होश के साथ किया काम संभव है स्वर्ग का पैगाम बन जाए, स्वर्ग की गति का आधार बन जाए, हमारे लिए मुक्ति का दरवाजा खोलने वाला बन जाए । संभव है, हो सकता है न भी हो, अगर होशपूर्वक करेंगे तो । जोश उस पर भी अतिजोश नुकसानदायक हो जाएगा। आत्म-विश्वास लाभकारी है, पर अतिआत्मविश्वास घाटे की चीज़ है। जो अति आत्म-विश्वास में जीते हैं वही मात खाते हैं। राजनेता अगर सोच लें कि चुनाव में उसे कौन हरा सकता है बस यही अतिविश्वास उसे ले डूबता है। अतिजोश काम का नहीं है, होशपूर्वक कोई भी काम किया जाए वह परफेक्ट होता है। अगर किसी बात को सुनकर गुस्सा भी आ जाए तो होशपूर्वक गुस्सा कीजिएगा। होश में, गुस्सा किया यह भी आपको पता रहेगा, आप गुस्से में बोल रहे हैं यह भी पता रहेगा, गुस्से में क्या बोल चुके हैं यह भी मालूम रहेगा २३५ For Personal & Private Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और जब गुस्सा शांत हो जाएगा तब भी यह पता रहेगा कि आपने कितने शब्द वांछित कहे और कितने शब्द अवांछित कह डाले। होशपूर्वक काम करने पर आप अपना मूल्यांकन करते रहेंगे । जीवन के लिए एक ही चीज़ चाहिए - होश और बोध। मुक्ति-तत्त्व को जीने के लिए एक ही सूत्र है - होश और बोधपूर्वक जीना । सहजता से जिओ, आरोपित जीवन नहीं। जो होना है वह तो होगा ही, केवल होश और बोध हमारे हाथ में है। हम सहजता से जिएँगे अब जो-जो उदय काल आता जाएगा उससे गुजर जाएँगे केवल होश और बोध के दीप को अपने हाथों में थामे रखेंगे। जो होना है वह तो होगा ही, उसे कोई टाल नहीं सकता। फिर हम उसमें अपना हस्तक्षेप क्यों करें। लेकिन अपने कहने से कोई व्यक्ति ग़लत रास्ते पर जाने से बच सकता है तो उसे ज़रूर बचाएँ। अपने विवेक का दीपक, होश और बोध का दीपक अपने साथ रखें, फिर जो होता चला जाए, हो। ज़िंदगी में जो भी रास्ते मिलें उनसे गुजर जाएँ, बोध केवल यह रखें कि आपको हाथों में, आँखों में, अन्तर्मन में होश ज़रूर बना रहे। अंधे होकर न गुजरें। गुज़रना तो पड़ेगा क्योंकि यह आपका प्रारब्ध है, कर्म है, हो सकता है यह आपके अतीत के कर्मों का परिणाम हो । होश का दीपक थामे रहकर मनुष्य के जीवन में जो होना है हो जाए । इससे मुक्ति होगी। __आचार्य कुंदकुंद ने बहुत गहरी बात कही है कि आत्मदृष्टा साधक या अन्तर्दृष्टि सम्पन्न व्यक्ति चाहे सचेतन वस्तुओं का उपयोग करे, चाहे अचेतन वस्तुओं का उपयोग करे - दोनों के द्वारा कर्मों की निर्जरा होगी, वह मुक्त ही होगा बशर्ते अन्तर्दृष्टि उपलब्ध हो । यह लेश्या का सिद्धान्त हमें समझाता है कि हम लोगों को अपने-अपने भीतर उठने वाली लहरों की प्रवृत्तियों को समझना चाहिए, अपनी तरंगों और संस्कारों को समझना चाहिए और भली-भाँति देखने का प्रयत्न करना चाहिए कि हमारे लिए क्या शुभ है क्या अशुभ है, क्या उचित है क्या अनुचित है। जो कुछ हो रहा है वह उदयकाल है। ज्यों-ज्यों हमारे कषाय ठंडे होंगे त्यों-त्यों आत्मा में निर्मलता आती जाएगी। जब तक हम अंधे होकर चार कषाय - क्रोध, मान, माया, लोभ के चंगुल में फँसे रहेंगे, इनके कारण हमारे भीतर जो शुभ या अशुभ प्रवृत्तियाँ जगती हैं - तब हमारी आत्मा में २३६ For Personal & Private Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी वैसा ही परिणाम आने लगता है । अतः आत्मा की शुद्धि के लिए लेश्या की शुद्धि ज़रूरी है और लेश्या की शुद्धि के लिए कषायों का मंद होना ज़रूरी है । कषायों की मंदता के लिए होश और बोध का दीपक थामना ज़रूरी है । जिन्हें मुक्ति चाहिए वे आत्मा की शुद्धि के लिए प्रयत्नशील हों। आत्मा की शुद्धि लेश्याओं की शुद्धि से आएगी और लेश्याओं की शुद्धि कषायों की मंदता से आएगी तथा होश व बोध से कषायों में मंदता आएगी। छोटी-सी बात के लिए गुस्सा आ गया, प्रशंसा मिलने पर अहंकार के भाव पैदा हो गए, थोड़ी-सी भी अच्छी चीज़ देखी और मोह-माया जग गई । यह जो निमित्त पाते ही झट से उदय में आ जाते हैं ऐसी स्थिति में कषायों की मंदता के लिए होश और बोध के दीपक को थामना होगा और सोचना होगा पुनः पुनः उन्हीं कषायों को दोहराने से क्या हासिल हुआ। कल गुस्सा किया था, नतीज़ा शून्य । फालतू खुद कोही टेन्शन होता है। अगर होश होगा तो बोध आगे बढ़ता रहेगा । जैसे-जैसे बोध गहरा होगा कषाय कम होंगे। हमारी अन्तरात्मा हमें अच्छे परामर्श भी देती है । वह हमें झिंझोड़ती है कि हम कब तक इन बातों में फँसे रहेंगे । वह इनसे उपरत होने की प्रेरणा भी देती है कि आखिर क्या मिलने वाला है। आप दूसरे को अच्छा रास्ता सुझा सकते हैं चलना या न चलना उसकी जवाबदारी है । 1 मुझे सुकून है कि मेरे पिता व भाई कोई काम करते हैं तो मुझसे पूछते ज़रूर हैं। यह पिताजी का बड़प्पन था कि वे मुझे मान देते थे, अन्यथा पिता तो सदा ही स्वयं को पुत्र से अधिक समझदार समझते हैं । लेकिन मेरे पिताजी मुझसे पूछते ज़रूर थे कि फलाँ काम करना है, करें या न करें। भाई लोग भी छोटे से छोटे कार्य करने के पहले मुझे बता ज़रूर देते हैं । सुकून इस बात का है कि वे कुछ पूछते थे तो मैं बता ज़रूर देता था, पर इस बात की अपेक्षा नहीं करता था कि वे मेरी बात को मानें ही और उसे किया ही जाए। अगर आप अपेक्षा रखेंगे तो परेशानी का सामना कर पड़ सकता है कि मानते तो हैं नहीं फिर पूछते क्यों हैं। अपेक्षा रखने से मन में तनाव पैदा होता है, दिमाग बोझिल होता है। क्रोध पैदा होता है, आवेग आने लगता है कि पूछते तो आपसे हैं और करते मन की हैं। इसलिए या तो सलाह दो मत और अगर देते भी हो तो अपेक्षा मत रखो कि आपकी बात मानी ही जाए। किसी ने आपको स्वयं से अधिक ज्ञानी समझा For Personal & Private Use Only २३७ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसलिए आपसे पूछा और आपने उन्हें बताया, बताने के बाद अगर उनका अन्तर्मन आपकी बात मानने को तैयार नहीं तो वह क्यों करे ? करना ज़रूरी नहीं है। अगर आपकी बात मानी ही जाए ऐसी अपेक्षा रखी अर्थात् आप दूसरे को अपने अधीन करना चाहते हो। होश और बोधपूर्वक जीना मुक्ति-मार्ग का पहला और अंतिम सोपान है। कहने और सुनने भर से हम अपनी लेश्याओं से मुक्त नहीं हो सकते। लेश्याएँ कोई सिगरेट नहीं हैं कि आज पी रहे थे और छोड़ दी कि अब नहीं पिएँगे। लेश्याएँ तो रह-रह कर उदय में आती हैं। जब तक हम रहेंगे तब तक उदय में आती रहेंगी। जब तक हमारा जीवन होगा तब तक उदय में आएंगी। और जब तक ये उदय में आएंगी तब तक हमें लगातार सतत रूप से होश और बोध को थामे रखना होगा। होश और बोध के बावजूद थोड़ा-सा गुस्सा आ ही गया, प्रशंसा सुनकर अहंकार पैदा हो गया। करना नहीं चाहते थे, पर हो गया। सब प्राकृतिक रूप से होता है, करना नहीं चाहते फिर भी हो ही गया तब ख़याल में आता है कि क्यों हो गया। स्वयं को पुनः शांत करने का प्रयास करते हैं। यह बार-बार होता है। धीरे-धीरे होश बढ़ता है, होश की चिंगारी बाती को ज्योतिर्मय करने का आधार बन जाएगी। तब हम समझने लगेंगे कि क्रोध करना व्यर्थ है, औचित्यहीन है, नरक का आधार है। क्रोध करने से हमारा मन अशांत होता है, उत्तेजनाएँ पैदा होती हैं। गर्मी चढ़ती है। भीतर में राम मिटता है और रावण जगता है। इस तरह जो होश जागता है वह हमें बोध देता है। बोध आने पर हम दृढ़ता से निश्चय करते हैं कि अब मैं क्रोध नहीं करूँगा, उग्र उत्तेजना नहीं करूँगा, उग्र प्रतिक्रियाएँ नहीं करूँगा। आपद आ ही गई तो उसे झेल लूँगा। नुकसान होगा तो होगा। मैं शांत रहने का प्रयत्न करूँगा। बार-बार हम संकल्प लेते हैं तब भी निमित्त के आने पर भूल जाते हैं लेकिन निमित्तों के बीत जाने पर पुनः-पुनः संकल्पित हैं। यह संकल्प हमारा बोध प्रगाढ़ करता है। ऐसा होते-होते बोध और होश वहाँ प्रवेश करने लगता है जहाँ लेश्याएँ जन्म लेती हैं। हमारा होश और बोध गहराई तक प्रवेश कर जाता है। जैसे ट्यूबवेल की खुदाई में धीरे-धीरे पृथ्वी में प्रवेश होता है तिस पर वहाँ पहले कीचड़ और पत्थर निकलते हैं पर अन्ततः शुद्ध पानी निकल ही आता है। यह शुद्ध पानी का २३८ For Personal & Private Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निकलना ही लेश्याओं से बाहर आकर मुक्ति के दरवाजे पर पहुँचना है, मुक्ति के दरवाजे का खुलना है। हम सभी लोग प्रयत्न कर रहे हैं, आगे बढ़ रहे हैं। जिसमें जितनी क्षमता होती है, होश और बोध जागता है, ध्यान सधता है, स्वयं से प्रेम होता जा रहा है त्यों-त्यों हमारे कषाय मंद-मंद हुए हैं। अभी और मंद होने बाकी हैं। आने वाले दिनों में और मंद करेंगे। अपनी लेश्याओं को निर्मल करेंगे। शुभ भाव रखेंगे, ईश्वर का चिंतन करेंगे, महापुरुषों के चरित्र का पठन-श्रवण करेंगे, चिंतन-मनन करेंगे। प्रमोद-भाव से भरे रहेंगे, मध्यस्थ भाव में स्थित रहेंगे। कुल मिलाकर हम ज्यों-ज्यों समदर्शी होंगे, विवेक का दीप हमारे भीतर जलेगा, हम लोग अन्तर्मन से प्रसन्न होंगे, प्राणीमात्र के लिए प्रेमभाव व मैत्री-भाव उमड़ेगा तब अपने आप धीरे-धीरे कषायों से, लेश्याओं से मुक्त होते चले जायेंगे। और हमारा व्यक्तित्व, हमारी अन्तश्चेतना धीरे-धीरे ऊपर उठती जाएगी। श्री प्रभु हमें मुक्त देखना चाहते हैं। वे हमारी मुक्ति के पक्षधर हैं। इसीलिए रास्ता बताते हैं कि अपने कषायों को मंद करो, लेश्याओं को शुद्ध करो और आत्मा की शुद्धि करते हुए अपनी मुक्ति की व्यवस्था करो। ऐसी पवित्र प्रेरणा श्रीप्रभु दे रहे हैं। आज इतना ही। प्रेमपूर्ण नमस्कार ! २३९ For Personal & Private Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आध्यात्मिक जीवनके - छ: नियम रामप्रसाद 'बिस्मिल' की कहानी है। बताते हैं कि जब कारागार का सिपाही उन्हें यह कहने पहुँचा कि कल आपकी फाँसी होगी, रामप्रसाद ने जवाब में इतना ही कहा कि हाँ मुझे पता है। अगले दिन सिपाही सुबह से ही कारागार में सीखचों के पास खड़ा था और देख रहा था कि रामप्रसाद रोज की तरह उस दिन भी सुबह चार बजे उठा, निवृत्ति के लिए गया, स्नान किया, पूजा-पाठ करते हुए अपना योग और प्राणायाम, ध्यान-साधना करने लगा। सिपाही यह सब देखकर आश्चर्य से भर गया और रामप्रसाद से पूछा - ग़ज़ब की बात है, आज तुम्हें फाँसी पर चढ़ना है और तुम्हारे चेहरे पर किसी भी तरह की शिकन नहीं है। लेकिन एक बात रह-रहकर मेरे मन में उठ रही है कि जब तुम्हें पता है कि एक घंटे बाद तुम्हारी फाँसी हो जाने वाली है तो ये योग-प्राणायाम सब किसलिए कर रहे हो, जबकि ये सब तो स्वस्थ रहने के लिए किये जाते हैं। रामप्रसाद मुस्कुराए और कहने लगे - भाई फाँसी लग रही है तो क्या हुआ जब तक हूँ तब तक तो हूँ। और जब तक हूँ तब तक अपने लिए गए नियम अंतिम साँस तक निभाना चाहिए। इसलिए मरने से पहले अपने मन में यह शिकवा लेकर नहीं जाना चाहता कि मैं अंतिम दिन अपनी क्रिया को छोड़कर गया। मैं योग और प्राणायाम इसलिए भी कर रहा हूँ ताकि मेरा मन रोज़ की तरह २४० For Personal & Private Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज भी स्वस्थ, प्रसन्न और उत्साहपूर्ण रहे। आने वाला पल चाहे जीवन का हो या मृत्यु का, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मेरे मन की स्थिति बेहतर रह सके इसीलिए योग और प्राणायाम कर रहा हूँ। जब कोई मृत्यु के समय भी अपने लिये हुए नियम को निभा रहा है तो यह मानना चाहिए कि वह अपने यम-नियम-संयम का पक्का रहा। ऐसे लोग ही जीते-जी और मरते समय भी अपने लिये वचन को निभाते हैं और लिये गए संकल्प को भी पूरा करते हैं। महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि उसने कब कौन-सा नियम लिया बल्कि उसने अपने जीवन में मृत्यु की वेला आने पर भी कब कौन-सा नियम निभाया । व्यक्ति की कसौटी नियम लेने से नहीं, उसे निभाने से होती है। संकल्प लेना कसौटी नहीं है, संकल्प पूरा करना ही कसौटी है। जो बुरे वक़्त में हमारे काम आता है हम उसे अपना मित्र मानते हैं उसी तरह जो बुरे वक़्त में भी अपने नियम निभा लेता है नियम भी उसकी रक्षा किया करता है। सत्य स्वयं रक्षा करता है। सत्य ही ईश्वर है, परमात्मा है, इंसान का रक्षक है। लेकिन सत्य उसी की रक्षा करता है जो विपत्ति की वेला में भी अपने धर्म को निभाने के लिए तत्पर और दत्तचित्त रहता है। भगवान महावीर हमारे जीवन को नियमबद्ध देखना चाहते हैं। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में छोटे-मोटे नियम अवश्य होने चाहिए और उन्हें हर हालत में निभाने का जज़्बा, मनोबल भी रखना चाहिए। क्योंकि विपत्ति की वेला तो आएगी। मुझे लगता है कि वह विपत्ति की वेला नहीं, लिये गए नियमों की कसौटी होती है। मैंने सुना है भगवान कभी राम, कृष्ण, महावीर या महादेव के रूप में नहीं बल्कि कभी भी किसी भी रूप में प्रकट हो जाते हैं। ___कहते हैं कि साँई के घर पर एक व्यक्ति पहुँचा कि प्रभु कभी मेरे घर भी आहारचर्या के लिए आया करें। साँई ने कहा – तू रोज ही तो यहाँ मुझे चढ़ाकर जाता है तो तेरे घर आने की आवश्यकता नहीं है, और मैं तो कहता हूँ तू रोज भी यहाँ पर मत आया कर, तू जहाँ है वहीं से भोजन समर्पित कर दिया कर, मेरे पास अपने आप पहुँच जाएगा। भक्त हँसा और कहने लगा - साँई तुम भी कैसी बात करते हो ! अगर मैं लेकर नहीं आऊँगा तो तुम तक कैसे पहुंचेगा। तुम भूखे ही रह जाओगे। फिर भी मेरी इच्छा है कि तुम मेरे घर आओ। साँई ने कहा - For Personal & Private Use Only www.jainelib२४१rg Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देखते हैं, हो सकता है कल ही आ जाऊँ । दूसरे दिन वह व्यक्ति जब खाना बना रहा था तो एक कुत्ता आ गया और कहानी बताती है कि उसने लाठी मारकर उसे वहाँ से निकाल दिया । 1 साँई की पीठ पर चोट पड़ी। व्यक्ति दूसरे दिन पहुँचा और कहने लगा - प्रभु, आप तो आए ही नहीं । साँई ने कहा- मैं तो आया था पर तूने ही मुझे भगा दिया । व्यक्ति ने पूछा - पर आप कब आए थे ? कल दोपहर को जब तू रोटी बना रहा था - साँई ने कहा । वह तो कुत्ता था - व्यक्ति ने कहा । तब साँई बोले जब मेरा भक्त कुत्ते में भी, जानवर में भी, भिखारी में भी मुझे देखना शुरू कर देगा, साँई उस दिन से उसके घर में भोजन करना शुरू कर देगा । - साँई, स्वामी, ईश्वर, परमेश्वर जब भी आते हैं इन्सान की परीक्षा लेने ही आते हैं, अन्यथा वह तो हमेशा इन्सान के, प्राणी मात्र के साथ ही होते हैं । वे किसी से अलग नहीं हैं क्योंकि वे हम सबके प्राण हैं । जो हमारा प्राण है वह हमसे अलग कैसे हो सकता है । ख़ास बात यह है कि हम सभी को अपने जीवन में नियम रखने चाहिए। यम-नियम के बिना योग नहीं सध सकता, न ही धर्म - स्थानों पर जाने का कुछ परिणाम होगा। धर्म-स्थलों की सार्थकता वहाँ जाने की पात्रता हासिल कर लेने पर ही संभव है । देखते ही हैं कि न तो सभी धर्मस्थानों पर जाते हैं और न ही साधु- संतों के पास । इन जगहों पर जाने के लिए पहले पात्रता चाहिए। पात्रता न होने पर इन स्थानों पर जाना निरर्थक है । जब तक जिज्ञासा न होगी, प्यास न होगी तो कुछ हासिल ही न हो सकेगा। बिना प्यास के अगर पानी के पास चले भी गए तो खाली हाथ ही लौटकर आओगे, पानी का मूल्य ही न समझ पाओगे । गुरु के पास जाकर क्या करोगे अगर हमारे भीतर प्यास, उनका ज्ञान - बोध लेने की जिज्ञासा नहीं है । भगवान महावीर जीवन के नियमों की तरह ही धर्म के नियम देना चाहते हैं। वे नियम देते हुए छः आवश्यक कर्त्तव्य बताते हैं, जिन्हें अपने जीवन में हमें जीना चाहिए। प्रभु की ओर से दिया गया पहला कर्त्तव्य है - व्यक्ति जीवन में सामायिक की आराधना करे । हम 'सामायिक' को समझें । सामायिक शब्द 'समय' से बना है। समय का एक अर्थ आत्मा, तीसरा टाइम (काल) है, दूसरा अर्थ २४२ For Personal & Private Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ – सिद्धान्त, चौथा अर्थ - समता और समभाव होता है। इस तरह अपने आपको आत्मा में, समता में, समभाव में, सिद्धान्त में स्थापित करने को सामायिक कहते हैं। सामान्य रूप से व्यक्ति गृहस्थ में जीता है। उसके लिए एक सामायिक वह है जिसे वह दो घड़ी बैठकर करता है और दूसरी सामायिक वह है जिसे हम जीवन भर के लिए स्वीकार करते हैं। संत में और गृहस्थ में बुनियादी रूप से यही फ़र्क है कि सांसारिक प्राणी व्रत लेकर अड़तालीस मिनिट या एक-दो घंटे की सामायिक लेता है और संत जीवन-भर की सामायिक स्वीकार करते हुए स्वयं को समता, शांति और समभाव में स्थापित कर लेता है। इसलिए एक सामायिक आंशिक और दूसरी सार्वकालिक होती है। संत की सामायिक सार्वकालिक होती है। वह जीवन-भर के लिए समत्व-भाव में स्थापित होने का संकल्प लेता है। वह प्रतिज्ञा करता है कि चाहे जैसी स्थिति आ जाए वह अपनी शांति, समता और समभाव को न छोड़ेगा। लेकिन गृहस्थ जिनके लिए सम्पूर्णतः सामायिक व्रत स्वीकार कर पाना संभव नहीं हो पाता वे लोग अड़तालीस मिनिट या एक घंटे तक किसी प्रकार की हिंसा-प्रतिहिंसा नहीं करेंगे, झूठ नहीं बोलेंगे, चोरी नहीं करेंगे, किसी के प्रति ग़लत नज़र नहीं डालेंगे, किसी प्रकार के परिग्रह-संग्रह पर ध्यान नहीं देंगे। अर्थात् जैसे बंद कमरे में निष्कंप दीपक जलता है ठीक इसी प्रकार सामायिक में भी व्यक्ति अपने चित्त को निष्कंप करते हुए स्वयं को मन-वचन-काया से समत्व-भाव में स्थित करता है। जो मन-वचन-काया से सामायिक करता है वह घर में रहते हुए भी संत-पुरुष है। वह गृहस्थ-संत है जो मन-वचन-काया तीनों से समत्व-भाव में रहता है। एक सामायिक करना ठीक वैसे ही है जैसे सुबह-सुबह विटामिन का एक कैप्सूल खाना । जैसे हम विटामिन का एक कैप्सूल खाते हैं और उसका प्रभाव पूरे दिन रहता है उसी तरह मन-वचन-काया से की गई एक सामायिक का असर पूरे दिन रहता है। यह ज़रूरी नहीं है कि व्यक्ति चौबीस घंटे ध्यान करे, चौबीस घंटे ध्यान किया भी नहीं जा सकता, लेकिन सुबह-शाम दो घंटे ध्यान कर लेता है तो सुबह किए गए ध्यान का असर दिनभर व साँझ में किए गए ध्यान का असर रातभर रहेगा। अगर पूरे दिन ध्यान का असर न रह पाया तो ध्यान अपूर्ण रहा। विटामिन की गोली खाई और उसका असर न हुआ तो 213 For Personal & Private Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विटामिन अपूर्ण ! कहीं-न-कहीं कोई मिलावट है। कोई व्यक्ति धर्मस्थल पर जाए और उसका प्रभाव प्रेक्टीकल लाइफ में न आ पाए तो उसका धर्मस्थान पर जाना अधूरा ही कहलाएगा कि जीवन में उसका कुछ प्रकाश न आ पाया। दीप जला और उसकी रोशनी में कुछ दिखाई न दिया तो दीप का जलना क्या हुआ । किसी बगीचे में गए और तुम्हें फूलों की खुशबू मिले पर उसका अहसास न हो पाया तो बगीचे में जाना क्या हुआ ? काया सब प्रत्येक व्यक्ति के लिए सामायिक की मानसिकता तैयार हो जानी चाहिए कि अड़तालीस मिनिट अनिवार्य रूप से, अपनी घर-गृहस्थी के जंजालों से मुक्त होकर, जगत की आपाधापी से मुक्त होकर, आत्म-आराधना के लिए, मन की शांति के लिए, प्रभु भक्ति के लिए बैठेंगे और मन, वचन, से समत्व-भाव में स्थित होने का प्रयास करेंगे । विद्यार्थी के समान अभ्यास करेंगे । घर में किसी एकांत स्थान पर आसन लगाकर मन-वचन काया से सामायिक, ध्यान-साधना, आराधना करें । जहाँ शोर-शराबा हो, आवागमन अधिक हो उस स्थान पर साधना नहीं की जा सकती । तब असुविधा महसूस होगी, ध्यान खंडित होगा, उस ओर बार-बार ध्यान आकर्षित होगा । इसलिए एकांत का चयन करें। प्रभु तो सर्वव्यापक हैं । वे केवल मंदिर-मस्जिद में ही नहीं हैं, जगह हैं। वह निराकार, सिद्धस्वरूप अखिल विश्व में, चराचर जगत में व्याप्त हैं । इसलिए हम जहाँ रहेंगे, उसके साथ लय- योग साधेंगे, वह हमारे साथ होगा । ये मंदिर-मस्जिद तो पहली सीढ़ी है, अंतिम नहीं। अंतिम सीढ़ी तो यही है कि एकांत में बैठकर प्रभु से लय-ताल लगाई, लय- योग साधा, मन उनके साथ अ-मन हुआ । मन उनके साथ उन्मन हुआ, मन उनके साथ लगा । 'ऐसी लागी लगन मीरा हो गई मगन, वो तो गली-गली हरि गुण गाने लगी ।' यह तो लगन लगने की बात है । सामायिक भी हमें एकांत में बैठकर करनी चाहिए न कि ऐसे स्थान पर बैठकर जहाँ चारों ओर आवागमन हो । हम लोगों का मन कोई सिद्ध मन तो है नहीं जो बाह्य बातों से या बाहरी वातावरण से प्रभावित न हो । मन डगमगाए इसके पहले ही हम ऐसे स्थान का चयन करें जहाँ शांति हो, किसी प्रकार की बातचीत सुनाई न दे। T तब संकल्प लें - ‘मैं एक घंटे की सामायिक आराधना कर रहा हूँ अर्थात् २४४ - For Personal & Private Use Only - Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समत्व-भाव में स्थित हो रहा हूँ, आत्मभाव में स्थित हो रहा हूँ। और मन, वचन, काया के द्वारा समस्त प्रकार की हिंसा व दोषों का त्याग करते हुए समत्व-भाव ग्रहण कर रहा हूँ।' इस दौरान कुछ भी अच्छा या बुरा हो जाए कोई प्रतिक्रिया नहीं करें, अपने आराधना-भाव में स्थिर रहें। कहते हैं कि अगर कोई गृहस्थ अड़तालीस मिनिट पूरी तरह समत्व-भाव में स्थित रहता है तो एक सामायिक करने से व्यक्ति की सात नरक की गतियाँ टल जाया करती हैं - अगर वह मन, वचन, काया से करता है तो ! नहीं तो हालत यह होती है कि एक महानुभाव सामायिक कर रहे थे। एक दूसरे सज्जन आए और घर की बह से पूछा - बहूरानीजी घर में सेठ सा'ब हैं ? बहू ने कहा - अभी तो वे बाजार गए हैं (जबकि सेठ सामायिक कर रहा था) वह व्यक्ति सेठ को ढूँढ़ने बाजार में गया लेकिन थोड़ी देर बाद वापस आया और कहने लगा - वे बाजार में तो नहीं हैं, आखिर कहाँ गए हैं ? बहू ने कहा - अभी वे मोची की दूकान पर गए हैं। वह व्यक्ति मोची की दुकान पर जाकर लौट आया लेकिन सेठजी वहाँ भी नहीं मिले । बहू ने बताया - अभी वे धोबी के यहाँ गए हैं। वह व्यक्ति धोबी के यहाँ जाकर देख आया, आखिर हैं कहाँ ? बहू ने कहा - अभी वे सामायिक कर रहे हैं। अब वे सामायिक में हैं। थोड़ी देर बाद सेठजी की सामायिक पूरी हो गई, तिलमिलाए हुए बहू से कहने लगे - यह कौनसी बात है, मैं सामायिक कर रहा था, घर में ही था, तुम जानती भी थी, फिर भी कभी धोबी के यहाँ, कभी मोची के यहाँ तो कभी बाजार में भेज दिया। यह क्या तरीक़ा हुआ ? बहू कहने लगी - पापाजी ! बुरा मत मानिए। सच्चाई यह है कि जब आप सामायिक में बैठे थे तब क्या आपके मन में बाजार में जाने के भाव नहीं उठे थे ? सामायिक करते हुए आपको जूतों की याद नहीं आई थी ? क्या आप यह विचार नहीं कर रहे थे कि सामायिक करने के बाद आपको स्नान करना है और धोबी के यहाँ से कपड़े लाने हैं ? सेठजी ने स्वीकार किया कि वे सामायिक करते-करते भी इन बातों को विस्मृत नहीं कर पाए लेकिन बहू बाहर रहकर भी सब बातें जान गई। स्मरण रहे, ध्यान का अर्थ ही यह है कि हमारा मन व शरीर हमारे काबू में रहे। इसलिए सामायिक में बैठते ही अपने शरीर व दिमाग को अपने काबू में २४५ For Personal & Private Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर लें। ऐसा करने से आप न केवल अपने मन में उठने वाले हर विचार, हर तरंग के साक्षी हो पाएँगे बल्कि अपने आस-पास घटने वाली घटनाओं को पढ़ने व समझने में भी सफल हो जाएँगे। केवल अपने शरीर और अपने दिमाग पर काबू रखना है। सामायिक के संबंध में एक ख़ास घटना है। ___ राजा श्रेणिक प्रभु महावीर के पास जाते हैं और स्वयं की मृत्यु के बाद होने वाली गति के बारे में जानना चाहते हैं। प्रभु कहते हैं - मृत्यु के बाद तुम्हारी नरक गति होगी। श्रेणिक ने कहा - आपका शिष्य हूँ क्या फिर भी नरक गति मिलेगी? प्रभु ने कहा - मेरा शिष्य होने से कुछ न होगा, कर्म तो तुम्हारे ही काम आएँगे। श्रेणिक ने पूछा - क्या मेरी नरक गति टल सकती है ? प्रभु ने कहा - टल तो नहीं सकती। श्रेणिक ने कहा - तब भी कोई उपाय हो तो बताइए । भगवान सोचते हैं और कहते हैं - एक उपाय हो सकता है, तुम पूणिया श्रावक के पास चले जाओ और उसकी सामायिक का एक व्रत खरीदकर ले आओ या फिर कालकौसरिक कसाई को एक दिन के लिए पशु-हत्या न करने पर मजबूर कर दो। श्रेणिक राजा था। उसे लगा कि उसके पास तो अथाह सम्पत्ति है। एक सामायिक तो शीघ्र ही खरीदी जा सकती है। पहले तो वे काल कौसरिक कसाई को पकड़ते हैं और अंधकूप में उतरवा देते हैं कि अब कहाँ जाएगा और पशुहत्या कैसे करेगा। प्रतिदिन पाँच सौ भैंसों की हत्या करना ही उसका नियम था। कहानी बताती है कि अंधकूप में बैठे-बैठे ही वह मिट्टी के भैंसे बनाने लगा और उनका वध करने लगा। इस तरह उसने अपने नियम को पूरा कर लिया। उधर राजा ने सोचा कि कौसरिक को अंधकूप में डाल दिया है वहाँ कैसे भैंसों को मारेगा अतः मेरी नरक गति तो टल ही गई। इसके बाद वह पूणिया श्रावक के पास पहुँचता है। पूणिया त्यागी, तपस्वी सद्गृहस्थ है, संतों की तरह महान । श्रेणिक पूणिया से कहता है - मैंने सुना है तुमने बहुत-सी सामायिक कर ली हैं, उनमें से एक व्रत मुझे बेच डालो, इसके लिए जितनी राशि चाहिए ले लो। पूणिया चकराया कि सामायिक तो आत्मा का भाव है, समत्व भी आत्मा का भाव है, इसकी खरीद-फरोख़्त तो नहीं की जा सकती । यह कोई सब्जी-फल तो है नहीं कि मोल-भाव किया और २४६ For Personal & Private Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरीद ली। पूणिया ने कहा महाराज, आप सामायिक खरीदने आए हैं, आपके लिए तो जान भी हाज़िर है, सामायिक क्या चीज़ है, पर आपको यह बात अचानक सूझी कैसे ? श्रेणिक ने कहा- मुझे श्रीभगवान ने कहा है कि मैं तुमसे एक सामायिक खरीदकर उनके पास ले जाऊँ । अब तुम मुझे बताओ कि एक सामायिक की कितनी कीमत है ? पूणिया ने कहा- मैंने तो आज तक एक भी सामायिक बेची नहीं है, हाँ अगर आपको भगवान ने बता दिया हो कि अमुक राशि देने पर आपको सामायिक मिल सकती है तो मुझे देने में कोई आपत्ति नहीं है। आप स्वयं ही भगवान से पूछकर आए होंगे । श्रेणिक राजा ने कहा ने मुझे कीमत तो नहीं बताई है । भगवान - ! कहते हैं कि राजा श्रेणिक भगवान के पास पहुँचता है और पूछता है भगवन् ! एक सामायिक की क्या कीमत हो सकती है ? भगवान ने कहा - राजन् तुम सामायिक की कीमत पूछते हो, सामायिक तो अनमोल होती है। तुम्हारे पास जितना राजकोष है, उससे अनंत गुना राजकोष भी अगर एक सामायिक के लिए लुटा दिया जाए तब भी सामायिक की साधना अनमोल ही रहेगी । और दूसरा उपाय कालकौसरिक को कैद करने का, तो सचाई यह है कि उसने अंधकूप में ही मिट्टी के पाँच सौ भैंसे बनाकर तोड़ डाले हैं, उनका वध कर दिया है और अपना संकल्प पूरा कर लिया है। - राजा श्रेणिक को समझ में आया कि इन्सान के लिए एक सामायिक भी बेशकीमती होती है। सामायिक शांति की उपासना का व्रत है, समभाव स्थापित करने का व्रत है। घर में रहते हुए भी संन्यास को, संत - जीवन को जीने का पवित्र अनुष्ठान है। हर सद्गृहस्थ को नियम लेना चाहिए कि घड़ी, दो घड़ी, चौबीस मिनट या अड़तालीस मिनट सामायिक व्रत स्वीकार किया जाए । एकांत स्थान में बैठकर संकल्प लें, मौन और शांति का बोध भीतर ग्रहण करें, मन-वचन-काया के द्वारा स्वयं को प्रभु आराधना में, स्वयं को समत्वभाव में समर्पित करें। यह घर में रहते हुए भी संत - जीवन को जीने का एक उपाय हो गया। इस दौरान घटने वाली कोई भी घटना - हानि या लाभ की, मान-अपमान की, संयोग-वियोग, जन्म-मरण सभी को प्रकृति की व्यवस्था मानकर समत्व-भाव स्थापित करने का प्रयत्न करें। उतार-चढ़ाव की परिस्थितियों को For Personal & Private Use Only २४७ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देखकर अगर अपने मन को उद्वेलित किया या आर्तध्यान और रौद्रध्यान करने लगे तो हमारी सामायिक नहीं कहलाएगी। इसके विपरीत वह जीवन का बंधन बन जाएगी जबकि सामायिक मुक्ति का मार्ग है, उसे हम अपने लिए बंधन न बनाएँ । व्यक्तिगत रूप से मेरा मानना है कि संत लोग जिन्होंने जीवन भर की सामायिक ग्रहण कर ली है उन्हें भी कम-से-कम दो सामायिक तो प्रतिदिन करनी ही चाहिए। वर्तमान समय में साधु-साध्वियों का जो जीवन हो गया है उसमें सामाजिक जीवन, सामाजिक गतिविधियाँ इतनी अधिक शामिल हो गई हैं। कि उनकी धार्मिक आराधना बहुत कम हो गई है। श्रावक-श्राविकाओं की बातें सुनते, उनसे वार्तालाप करते हुए हीं उनका सारा दिन बीत जाता है। ऐसे में वे धर्म-आराधना नहीं कर पाते हैं । इसलिए उन्हें भी रोजाना सुबह-शाम एक या दो घंटे अलग से बैठकर सामायिक करनी चाहिए। दीक्षा लेते हुए तो जीवन भर का सामायिक व्रत ग्रहण कर लेते हैं पर इसका बोध विस्मृत हो जाता है। संत अगर सामायिक व्रत को याद रखेगा तो निश्चित ही अपनी धर्म-आराधना के लिए समय निकालेगा। हम कोई समाज कल्याण के लिए संत नहीं बने हैं, आत्म-कल्याण के लिए दीक्षा ग्रहण की है। आत्म-कल्याण करते हुए जितनी समाज-सेवा हो जाए, इन्सानियत की जितनी सेवा हो जाए उतना अच्छा है। जितना और जो हो जाए अच्छा है। - इस संदर्भ में मेरा एक अभिमत और है कि दीक्षा व्यक्ति को पचास वर्ष की आयु होने पर ही दी जानी चाहिए। आजकल बाल-दीक्षा का फैशन-सा हो गया है, इस संबंध में लोग मुझसे पूछते भी हैं कि क्या बाल- दीक्षा होनी चाहिए ? मैं तो कहता हूँ पचास साल पर दीक्षा दी जानी चाहिए ताकि आप संसार को जीकर जान चुके होंगे, मन की तृष्णाएँ पूरी कर ली होंगी । व्यापार-धंधा, पैसा, पद, प्रतिष्ठा जो आपको करना था कर लिया। तब दीक्षा लेने के बाद मन में घर-गृहस्थी की लालसा नहीं रहेगी । नाम कमाने की लालसा भी न रहेगी, न ही कुछ करने की लालसा रहेगी । संन्यास ले लिया अर्थात् अब आप विशुद्ध रूप से अपनी मुक्ति और निर्वाण के लिए तत्पर हो गए। अब अगर पन्द्रह-बीस वर्ष के बच्चे को दीक्षा दे देंगे तो उसके सामने २४८ For Personal & Private Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहाड़ जैसी ज़िंदगी पड़ी है तो उसे प्रभु-भजन के अलावा भी बहुत से काम करने पड़ेंगे और अगर पचास वर्ष की आयु में दीक्षा ली है तो न उसे कोई सूत्र रटने हैं, न ही व्याकरण याद करना है, न ही संस्कृत पढ़ना है । वह तो बस प्रभु-भजन में लग गया। उसे तो एक नवकार मंत्र या गायत्री मंत्र भी आता है तो बस एक ही मंत्र से उसके जीवन का उद्धार हो जाएगा । प्रभु - भजन करते-करते वह पार लग जाएगा । मेरा अन्तर्मन तो मुझे यही प्रेरणा देता है कि अगर मैंने जीवन भर के लिए सामायिक व्रत ग्रहण किया है तो दिन में दो दफे मुझे यह बोध रखना चाहिए कि सामायिक है। सामायिक विस्मृत न हो जाए। गृहस्थ जो सामायिक करता है उसे हम कहते हैं, बताते हैं कि सामायिक करते समय किन-किन नियमों का पालन करना चाहिए। तो जो संत हैं उन्हें भी तो पालन करना चाहिए । सामायिक ज़रूरी है । जितना भी मन लगे सामायिक अवश्य करें । सामायिक करना पहला आवश्यक कर्त्तव्य हुआ । जीवन में कड़वी बातें तो सुनने को मिलेंगी ही, लेकिन सामायिक करते हुए समत्वभाव का निर्वहन दैनिक जीवन में करना होगा। कड़वी बातों का जवाब कड़वाहट से देने पर तू-तू, मैं-मैं शुरू हो जाती है और गड़बड़ियाँ होने लगती हैं। कबीरदासजी से पूछा गया कि मैना का स्वर इतना मीठा क्यों होता है ? कबीर ने ज़वाब दिया इसलिए मैना का स्वर मीठा है कि मैना शब्द ही यही करती है मै - ना, मैना, मैं नहीं हूँ, मुझमें अहंभाव नहीं है । समत्व भाव का मतलब है : मैं नहीं हूँ और विषमता का कारण है : मैं ही हूँ, मैं ही हूँ । समत्व-भाव, मिठास अभ्यास से आएगा । एक दिन में कोई जीवन से रोग निकल नहीं जाता है । अभी मुझे पढ़ने को मिला कि किसी व्यक्ति को कहीं जाना था। वह बस अड्डे पर पहुँचा । बस में सवार हो गया । पन्द्रहबीस मिनट तक बस नहीं चली तो उसने झल्लाते हुए बस कंडक्टर से कहाअरे भाई तेरा खटारा रवाना होगा कि न होगा ? कंडक्टर को फील हुआ, उसने कहा हां, भई पूरा कूड़ा-कचरा भर जाएगा तब रवाना होगा । हम जैसा बोलेंगे वापस वैसा ही सुनने को मिलेगा, यह दुनिया का रिवाज है । कोई कितना भी कहे कि उसे गुस्सा नहीं आता लेकिन तभी तक जब तक उसे - For Personal & Private Use Only - २४९ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्त नहीं मिलते हैं। गुस्से का निमित्त मिलने पर भी अगर वह गुस्सा नहीं करता तब समझना कि वह पक्का संत है, वह आत्म-विजेता है। ____ मैं अपनी माँ से कहा करता था - पिताजी का स्वभाव अब बहुत अच्छा हो गया है, सीधा-सरल और नम्र हो गया है। माँ कहती थी - वे जैसा कहते हैं, वैसा तुम लोग करते हो इसलिए गुस्सा नहीं आता, तुम उनका कहना मत मानो, अभी पता चल जाएगा कि गुस्सा आता है या नहीं। क्रोध, मोह, मान, माया, लोभ, अहं सभी की प्रकृति में होता है, किसी को कम या अधिक । क्रोध, मोह, वासना या अन्य तत्त्व कम या ज़्यादा हो सकते हैं, पर होते सभी की प्रकृति में हैं। जहाँ दीप जलेगा वहाँ उसके नीचे थोड़ा-बहुत अँधेरा तो होगा ही। हर प्राणी में कहीं-न-कहीं कोई-न-कोई कमी होती ही है। प्रकृति हमें कुछ अच्छाई और कुछ बुराई देकर भेजती है, अच्छाई जीने के लिए होती है और बुराई जीतने के लिए होती है। जीवन भर हमें बुराई पर विजय प्राप्त करने का प्रयत्न करना होता है और अच्छाई के आधार पर विकास के साथ जीना होता है। समत्वभाव के अभ्यास से हम धीरे-धीरे संत स्वभावी बन सकेंगे। सांसारिक जीवन त्यागकर संतवेश धारण करने से भी अधिक मूल्यवान संत-स्वभाव का स्वयं को बना लेना है। __पौन घंटे तक लगातार समत्व-भाव का अभ्यास करना, साँसों को समत्वभाव में ले जाना, शरीर को, चित्त को समत्व-भाव में स्थापित करना, उस समय घटी अच्छी-बुरी घटना से स्वयं को अप्रभावित रखना और इसके लिए निरंतर अभ्यास करना ही सामायिक है। दूसरा आवश्यक कर्त्तव्य है - श्रीप्रभु की, तीर्थंकर अरिहंत प्रभु की उपासना करना, उनकी स्तुति-प्रार्थना करना । जिसने सामायिक व्रत धारण किया है उस दरमियान उसे अपना ध्यान, अपना चित्त श्रीप्रभु में लगाना चाहिए ताकि उसका सांसारिक मन अलौकिक प्रकाश से भर सके । अँधेरे में बैठकर जब व्यक्ति प्रकाश की कल्पना करता है, प्रकाश का ध्यान करेगा तब उसके भीतर प्रकाश साकार होगा। हमारे चित्त में तमोगुण, रजोगुण भरा हुआ है, सामायिक में बैठकर हम सतोगुण की कल्पना करते हैं, सतोगुण की भावना करते हैं और प्रभु की उपासना करते हैं ताकि हमारा तमोगुण कम हो। तामसिक चित्त में प्रभु २५० For Personal & Private Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का ध्यान करने से सात्विक गुणों का आविर्भाव होता है । यह चित्त को रूपान्तरित करने का तरीका है। केवल चित्त के साक्षी हो जाने से ही कुछ न होगा, हमें चित्त का रूपान्तरण भी करना होगा। मिट्टी तो है ही, उसे दीये के रूप में रूपान्तरित करना होगा। पत्थर तो है लेकिन उसकी काट-छाँट कर हीरा बनाना होगा, प्रतिमा बनानी होगी। इसी तरह अन्तर्मन को, चित्त को रूपान्तरित करना होगा, बदलना होगा। जब हम अपने दिल में, अपनी आँखों में उसकी प्रार्थना करते हैं तो आँसुओं से भीगने लगते हैं। प्रभु में डुबकियाँ लगाने पर हमारा असंतुलित मन, हमारा अन्यमनस्क मन अपने आप ही एकलय होने लगता है। इस तरह प्रभु की प्रार्थना करना सबसे सरल धर्म है। ध्यान करने में सबका मन नहीं लग सकता। दो मिनिट भी व्यक्ति शांतचित्त होकर, अविचार की अवस्था में नहीं रह सकता। अभी मैं आपके साथ कुछ ज्ञानवार्ता कर रहा हूँ, बोल रहा हूँ तो आपको कुछ विषय मिल रहा है तो आपका चित्त रमा हुआ है लेकिन अगर मैं बोल नहीं रहा हूँ और एक घंटे तक यहाँ बैठना पड़ जाए तो... ? आप बेचैन हो जाएँगे, पाँच मिनट बाद ही आप इधर-उधर, ऊँचे-नीचे होने लगेंगे। सामायिक व्रत में तो प्रभु की प्रार्थना करनी ही चाहिए और अगर सामायिक नहीं करते हैं तो चौबीस घंटे में से चौबीस मिनट तो प्रभु-भक्ति, प्रभु-प्रार्थना करनी ही चाहिए। जब भी हम किसी बीमार को देखने जाएँ तो केवल उसका कुशलक्षेम ही न पूछे वरन् हाथ जोड़कर आँखें बंद करके दिल में प्रभु का ध्यान करें और उस रोगी को स्वस्थ होने की प्रार्थना करें। हमारे हृदय में, अन्तर्मन में प्रार्थना मूलक भाव होंगे, तो उससे रोगी अवश्य ही स्वास्थ्य-लाभ प्राप्त करेगा। जब हम प्रार्थना करते हैं - हे प्रभु सबको सन्मति दे, आरोग्य दे, आनन्द और ऐश्वर्य दे, सबका भला कर, सब पर दया कर और तेरा मीठा नाम मुख में निरंतर रहने दे, हे ईश्वर सबको सन्मति दे। - इस तरह की प्रार्थना और भावना से हमारे चित्त का आभामंडल, अन्तर्मन का, चेतना का आभामंडल अलग ही ऊर्जा से भर जाता है। एक अलग पॉज़िटिविटी से परिपूर्ण हो जाता है। मदर टेरेसा न केवल रोगियों की सेवा करती थीं बल्कि उनके लिए प्रार्थना भी किया करती थीं। मंदिर-मस्जिद में माइक लगाकर ये किस तरह की २५१ For Personal & Private Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रार्थनाएँ की जाती हैं, प्रार्थना तो मौनपूर्वक होती है । क्योंकि ईश्वर हमारे शब्दों को नहीं, भावों को ग्रहण करता है । ईश्वर को ध्वनि से नहीं, मन की लयलीनता से पाया जाता है। ईश्वर तक हमारे शब्द नहीं, चेतना के संबंध पहुँचते हैं। वहाँ तो जोत से जोत जलती है, तार से तार जुड़ते हैं- मन के तार । मस्जिद में लगे माइक कोई खुदा को बुलाने के लिए नहीं बल्कि अपने भाई-बंदों को बुलाने के लिए होते हैं कि आ जाओ प्रार्थना का वक़्त हो गया है। उधर मंदिरों में तो जो कैसेट्स चलती हैं वे घंटों चला करती हैं, यह कैसी प्रार्थना है ? प्रार्थना अवश्य होनी चाहिए लेकिन एकांत में बैठकर । प्रार्थना का पहला चरण शब्द और भजन नहीं है अपितु मौन है - होठों का मौन, मन का मौन, हृदय का मौन । मंदिर में जाकर मौनपूर्वक ईश्वर की प्रार्थना और ध्यान करना चाहिए ताकि हमारे कारण किसी अन्य को असहजता महसूस न हो। हो सकता है आपके अन्तर्भाव कुछ और हों और दूसरों के अन्तर्भाव कुछ और हों । उनमें विरोधाभास क्यों । आप अपने तरीके से प्रार्थना करें, दूसरे अपने तरीके से । पता नहीं कब किसके दिल में कैसे भाव हों ! T कहते हैं अरिहंतों की, सिद्धों की, बुद्ध पुरुषों की स्तुति करो ताकि हमारे दिलो-दिमाग में भी उनके जैसे गुण साकार होने लगें । आप अच्छे गायक हो सकते हैं लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि मंदिरों में भजन, कीर्तन किया जाए। प्रभु तो आपकी गलाबाजी सुनते नहीं हैं, हाँ मंदिर में आने वाले ज़रूर आपकी तारीफ़ कर सकते हैं लेकिन इससे क्या ? ऐसा हुआ, एक दफ़ा एक पादरी नदी पार उतरने के लिए नौका में बैठा हुआ था। संध्या का समय हो चला था, सो नाविक ने आकाश की ओर देखा, दोनों हाथ जोड़े और कुछ गुनगुनाने लगा । शब्द बड़े अटपटे थे, अस्फुट से, बुदबुदाने जैसी आवाज़ आ रही थी । पादरी ध्यान से सुनने लगा । नाविक तो प्रभु की प्रार्थना कर रहा था । प्रार्थना पूरी होने पर हाथ जोड़े हुए ही सिर नमाया, धन्यवाद किया और पुनः नाव खेने लगा । पादरी ने पूछा- भाई, तुम क्या कर रहे थे । नाविक ने बताया कि वह ईश - प्रार्थना कर रहा था । पादरी ने कहा- तुम तो बड़े अजीब से और बेतरतीब शब्दों से, स्वरों से प्रार्थना कर रहे थे । प्रार्थना ऐसे नहीं की जाती है । नाविक ने २५२ For Personal & Private Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा - मैं अनपढ़, अनगढ़ हूँ, जैसा आता है प्रभु को समर्पित कर देता हूँ। आप तो विद्वान मालूम होते हैं, आप ही मुझे सही प्रार्थना सिखा दीजिए। तब पादरी ने व्यवस्थित शब्दों में, सुर-ताल सहित प्रार्थना-विधि बता दी। अब नाविक इस ढंग से प्रार्थना करने लगा, पर उसके भाव खो गए। वह उलझन में पड़ गया कि क्या करे क्योंकि उसकी मस्ती खो गई। कहते हैं तब प्रभु ने पादरी को स्वप्न में आकर निर्देश दिया कि वह पुनः जाए और कहे कि नाविक जो प्रार्थना करता था वही किया करे । प्रभु उसकी वही अटपटी भावयुक्त प्रार्थना से प्रसन्न थे। प्रभु तो शब्दातीत हैं, समयातीत हैं। कालातीत हैं, क्षेत्रातीत हैं। उन्हें शब्दों से नहीं केवल भावों से ही बुला सकते हैं। इसलिए सामायिक की बात पहले कही गई कि समत्व भाव में स्थित होओ, तब प्रभु को याद करो। श्रीप्रभु ने सुन्दर गाथा कही है - आरुहवि अप्परप्पा बहिरप्पा छंडिउण तिविहेण, झाईजई परमप्पा, उवइटुं जिण वरिदेहिं - अर्थात् मन, वचन काया से बहिरात्म-भाव का त्याग करके अन्तर-आत्मा में आरोहण करो फिर परमात्मा का ध्यान करो। ध्यान दें - मन, वचन, काया से बहिरात्म-भाव अर्थात् हमारा जो चित्त बाहर भटक रहा है इस बहिरात्म-भाव त्याग करके अन्तआत्मा में आरोहण करो। पहली शर्त है कि बाहरी भाव, बाहरी यात्रा उस पर अंकुश लगे और आत्म-भाव में हमारा प्रवेश हो । इसके बाद परमात्मा का ध्यान हो। परमात्मा का ध्यान कब होगा ? जब हम अन्तआत्मा में प्रवेश करेंगे। और अन्तआत्मा में प्रवेश मन, वचन, काया की गतिविधियों पर अंकुश लगाने से होगा। मन का मौन तभी सधेगा जब हम वाणी का मौन साधेंगे। हम तो अनर्गल बोलते ही चले जा रहे हैं फिर हमारा दिमाग शांत कैसे हो पाएगा। कोई व्यक्ति क्रोध पर क्रोध किए ही जा रहा है तो वह सामायिक करके समत्वभाव का अभ्यास कैसे कर पाएगा। अगर हम शांति के उपासक बनना चाहते हैं तो हमें शांति भरे शब्दों का इस्तेमाल करना चाहिए। श्रीप्रभु का संकेत है कि हमारा दूसरा आवश्यक है - अरिहंत प्रभु की, सिद्ध प्रभु की, ब्रह्म तत्व की, परमपिता प्रभु की प्रार्थना करें। तीसरा आवश्यक अर्थात् तीसरा नियम है - गुरुजनों को वंदन करना, उनका पूजन करना। यह आवश्यक कर्तव्य है कि व्यक्ति जिनसे जन्मा है, २५३ For Personal & Private Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनसे उसने ज्ञान अर्जित किया है, जिसके पास बैठकर उसने भीतर की पंखुरियों को खिलाना सीखा है, जीवन जीना सीखा - उनका पूजन, उनका वंदन अवश्य करे। यह आभार समर्पित करने का एक तरीका है। प्रभु आपका शुक्रिया कि गुरुजनों की सद्प्रेरणा से हम आज इस मुकाम पर पहुँच सके। आपको प्रणाम है, वंदन है और उनकी चरणधूलि को अपने मस्तक पर लगाएँ। गुरुजनों को वंदन करने से जहाँ हमारा अहंभाव नष्ट होता है, जहाँ हमारे भीतर ज्ञान चेतना का विकास होता है वहीं हम शास्त्रों के मर्म को भी समझने लगते हैं, आत्म-ज्ञान की ओर बढ़ने लगते हैं और सांसारिक प्रपंचों से ऊपर उठकर अपने जीवन में आध्यात्मिक सौन्दर्य, आध्यात्मिक प्रकाश, आध्यात्मिक चेतना की ओर चार कदम बढ़ने लगते हैं। ____एक बात का और ख़याल रहे, गुरुओं को केवल उनके स्थान पर जाकर ही वंदन न करें बल्कि अगर वे सड़क पर चलते हुए नज़र आ जाएँ और आप कार या स्कूटर पर हों तो उन्हें नज़रअन्दाज़ न करें बल्कि उतर कर उनकी अभ्यर्थना करें। क्योंकि गुरु चाहे धर्मस्थान में रहें या कहीं आ-जा रहे हों, गुरु तो गुरु ही रहते हैं। माता-पिता घर में रहते हैं तब भी माता-पिता ही होते हैं और स्टेशन पर जा रहे हों तब भी माँ-बाप ही होते हैं। यहाँ तक कि वे नश्वर शरीर छोड़ दें तब भी माँ-बाप ही होते हैं। कहीं आने-जाने से मातृत्व और पितृत्व समाप्त नहीं हो जाता। कहीं इधर-उधर होने से उनका गुरुत्व ख़त्म नहीं हो जाता। इसलिए जब भी गुरुजन सामने आएँ हमें उनके सम्मान में खड़े होना चाहिए। जब मैं 'गुरु' शब्द का उपयोग कर रहा हूँ तो केवल ज्ञानदाता गुरु ही नहीं कह रहा हूँ - मेरे लिए तो माता भी गुरु है, पिता भी गुरु है, शिक्षक भी गुरु है, जिनसे कुछ सीखा जा सके वे भी गुरु हैं, और दीक्षा-संतत्व प्रदान करने वाले तो गुरु हैं ही। धर्मशास्त्रों के अनुसार तो गुरुजन जैसे बैठे हैं उनसे ऊपर ऊँचे नहीं बैठना चाहिए नहीं तो दोष लगता है। उत्तराध्ययन सूत्र में बताया गया है कि गुरुजनों के बराबर में भी नहीं बैठना चाहिए । गुरुजनों के सामने बैठकर स्वयं को ज्ञानार्जन के लिए समर्पित करना चाहिए। दीक्षा लेने के बाद जब हम आहार लेकर आते तो सबसे पहले अपने गुरु २५४ For Personal & Private Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से के पास जाते, उन्हें आहार दिखाते कि आज हम यह लेकर आए हैं, गुरु अनुरोध करते कि अनुकूलता हो तो आप भी कुछ स्वीकार करें या जैसी आपकी आज्ञा हो। तब गुरु हमें आज्ञा देते - बेटा जाओ और आहार ग्रहण करो । यह केवल गुरुजनों को मान और सम्मान देने की बात है । उस दिन सौभाग्य उदित हो जाता जिस दिन हमारे लाए हुए आहार में से गुरु कुछ ग्रहण कर लेते । जहाँ अधिक शिष्य होते हैं उनमें से कुछ अलग-अलग स्थानों से आहार लेकर आते हैं और खाने के पूर्व सारा एकत्रित कर लिया जाता है फिर गुरु जैसा उचित समझते हैं अपने हाथों से आहार सबको देते हैं । गुरु स्वयं भी आहार लेने के लिए जाते हैं वह भी अपने शिष्यों को बाँट देते हैं । गुरु का दायित्व है कि वह अपने शिष्यों को खिलाये और शिष्यों का कर्त्तव्य है कि गुरु को समर्पित करने के बाद ही ग्रहण करे । घर में जो बुजुर्ग होते हैं उनका दायित्व है कि वे बहुओं का, बच्चों का ख़याल रखें और जो भी सामग्री लाते हैं - फल, सब्जी, कपड़े आदि अपने बच्चों को दें। और अगर बच्चे कुछ लेकर आते हैं तो उनका फ़र्ज़ है कि वे बड़ों को समर्पित करें । आजकल का ज़माना केवल अपने-अपने का हो गया है - मैं, मेरा पति और मेरे बच्चे । घर के अन्य लोगों का तो विचार ही नहीं आता है और यहीं से मनमुटाव और घरेलू झगड़े शुरू हो जाते हैं, तनाव बढ़ जाते हैं। वहीं अगर सास अपनी बहू का, बहू सास का ध्यान रखे तो प्रेम का आविर्भाव होता है, एक दूसरे के प्रति आदर का भाव जगता है। अपनी दीक्षा के पूर्व मैंने जयपुर में साध्वीश्री विचक्षणश्री जी को देखा । उनकी लगभग पैंतालीस-पचास शिष्याएँ थीं, पर वे उन सभी को अपने हाथों से आहार परोसती थीं। आहार कहीं से भी आया हो, सारा आहार एक साथ एकत्रित कर लिया जाता, फिर साध्वी जी अपने हाथ से सबको परोसतीं । कोई भी शिष्या साध्वी अपने हाथ से नहीं लेती थी। अगर खाना बच जाता तो दो-दो कौर अपने हाथ से सबको खिला देती थीं। अगर कोई कहता कि पेट भर गया है तो उसे जवाब मिलता कि चार कौर कम खाया करो ताकि गुरु के द्वारा दिये गए दो कौर खाने का सामर्थ्य रख सको। कभी ओवर डोज़ मत करो। ऊनोदरी-तप यानी कम खाने की तपस्या हमारे जीवन में ज़रूर होनी चाहिए। यह भी गुरु की मान-मर्यादा है। For Personal & Private Use Only २५५ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम लोग भी गुरु के बराबर नहीं बैठते थे । गुरु अगर पाट पर बैठते तो हम या तो ज़मीन पर बैठते या उनसे निचले पाट पर बैठते । बराबर बैठना अमर्यादा कहलाता है। पहले के ज़माने में भी घर के बड़े-बुजुर्ग अगर ज़मीन पर बैठे हों या ऊँचे बैठे हों तो उनके बराबर या उनके सामने पलंग, सोफा या कुर्सी पर नहीं बैठते थे, उनके सामने ज़मीन पर बैठते थे । गुरुजनों को वंदन करने का केवल यह अर्थ नहीं है कि उनके पाँव छुएँ, उन्हें सिर झुका कर प्रणाम करें बल्कि उनकी मान-मर्यादा का भी ख़याल रखें, वे जो कहते हैं उसका पालन करना भी हमारा धर्म है । हम लोगों ने पाठ्यपुस्तकों में कहानी पढ़ी है कि किसी गुरु ने अपने शिष्य को गायें चराने के लिए भेजा और ताक़ीद की कि वह गायों का दूध न पिए । शिष्य गाएँ लेकर जंगल में चला गया। भूख लग आई लेकिन गुरु आज्ञा, दूध तो पी नहीं सकता, भूखा क्या करे ? आकड़े के पत्ते ही खा लिए, अंधा हो गया। शाम को जब गायों को वापस लाने लगा तो कुएँ में गिर गया। गायें तो आश्रम में पहुँच गईं पर गुरु ने देखा कि शिष्य वापस नहीं आया है । खोजबीन हुई तो कुएँ में मिला । गुरु आज्ञा की पालना हुई यह देख गुरु प्रसन्न हो गए और उसका अंधत्व दूर कर दिया तथा उसे जीवन के वास्तविक अध्यात्म का ज्ञान भी प्रदान किया । हमने वह कहानी भी पढ़ी है जिसमें तेज बारिश हो रही थी और गुरुजी ने शिष्य को आज्ञा दी कि जाओ खेत में और देखो कि बरसात का पानी हमारे खेत को तहस-नहस न कर दे, जाकर खेत की रक्षा करो। शिष्य जाता है और वहाँ मिट्टी की पाल बाँधने की कोशिश करता है लेकिन पाल बँध नहीं पाती । गुरुआज्ञा थी लेकिन पाल बँध ही नहीं पा रही थी, क्या किया जाए ? जब कोई विकल्प नहीं बचा तो शिष्य खुद ही वहाँ लेट जाता है। रात भर वहीं पड़ा रहता है, उसका शरीर अकड़ जाता है। दूसरे दिन सुबह गुरुजी वहाँ पहुँचते हैं और देखकर प्रसन्न हो जाते हैं कि गुरु की आज्ञा मानने के लिए शिष्य ने जीने-मरने की परवाह न करते हुए स्वयं को समर्पित कर दिया । यही सब तरीके होते हैं जब गुरुजी अपने जीवन के रहस्य अपने शिष्यों को प्रदान किया करते हैं । एक गुरु पास सौ-सौ शिष्य आते हैं लेकिन ज़रूरी नहीं है कि वे सभी को अपना रहस्यमयी ज्ञान दें। जब शिष्य कसौटी पर खरे उतर जाते हैं, उनकी २५६ For Personal & Private Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 योग्यताएँ गुरु को समझ में आ जाती हैं कि यह वह व्यक्ति है जो उनके द्वारा दिए गए विशिष्ट ज्ञान, विशिष्ट विद्याओं को ग्रहण करने का पात्र बन गया है तभी वे अपना रहस्य, सिद्धियों का रहस्य उसे बताते हैं । आज तो यह स्थिति है कि भारत से अनेक विद्याएँ लुप्त हो गईं क्योंकि गुरुओं को ऐसे शिष्य मिल ही न पाए जिन्हें वे अपना ज्ञान हस्तांतरित कर सकते। जब तक मिलते रहे ज्ञान की श्रृंखला आगे से आगे चलती रही। युग बदलते गए, लोग मोह-माया में उलझते रहे और शिष्य गुरु की कसौटी पर खरे नहीं उतर सके और विद्याएँ गुरुओं के साथ ही विलुप्त हो गईं। गुरुजनों का दिल जीतने के लिए ज़रूरी है कि हम उनकी आज्ञाओं को शिरोधार्य करें । गुरुजी ने कह दिया कि कौआ सफेद तो सफेद। अगर समझ में न आए तो एकांत में पूछें कि गुरुजी कौआ तो काला होता है पर आपने सफेद कहा, मैं इसका रहस्य समझ नहीं पाया। हमें प्रश्न करने का, तर्क करने का अधिकार तो है, पर तुरंत नहीं । सास बहू को कुछ कहती है तो बहू का कर्तव्य है कि वह सास की बात को शिरोधार्य करे । पति पत्नी से कुछ कहता है तो पत्नी को चाहिए कि वह पति की बात माने । जब सिन्दूर को शिरोधार्य किया जा रहा है तो प्रश्न नहीं उठता कि बात मानें या न मानें। जब गुरु को हमने अपना जीवन ही दे दिया है तब वहाँ प्रश्न कहाँ से उठेगा। जीवन देने के बाद यदि आप प्रश्न उठा रहे हैं तो इसका मतलब है आप अपने समर्पण पर प्रश्न उठा रहे हैं। अगर कोई देश की आजादी के लिए लड़ रहा है तो उसे पहले ही सोच लेना चाहिए कि फाँसी भी लग सकती है और कारागार में भी रहना पड़ सकता है । जब चल पड़े तो चाहे जो परिणाम आए स्वीकार करना है। हम अपने गुरु की आज्ञाओं को पालन करने की जागरूकता रखें, सचेतनता रखें। चौथा आवश्यक कर्त्तव्य है - प्रतिक्रमण । प्रतिक्रमण शब्द का अर्थ है 1 जहाँ-जहाँ हमारी ओर से अतिक्रमण हुआ है वहाँ-वहाँ से अपने चित्त को, अपनी चेतना को, अपने मन को वापस लौटाकर ले आना । तीन शब्द हैं आक्रमण, अतिक्रमण और प्रतिक्रमण । आक्रमण है किसी पर हमला बोलना, अतिक्रमण होता है किसी पर कब्जा कर लेना और प्रतिक्रमण होता है वापस For Personal & Private Use Only - २५७ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने आप में लौट आना। धर्म ने एक व्यवस्था दी है कि सुबह और शाम प्रतिक्रमण करें क्योंकि हमारा मन दिन भर किए गए कार्यों का, पापों का मूल्यांकन नहीं कर पाता, चिंतन और चितवन नहीं कर पाता, मनन और विचार नहीं कर पाता, दैनंदिनी जीवन का मूल्यांकन नहीं कर पाता, इसलिए ज्ञानीजनों ने धर्मानुरागी लोगों के लिए विशिष्ट पाठ बना दिया कि अगर तुम्हारा मन ध्यान में नहीं लगता तो कम से कम इन पाठों को ही बोल लो। लेकिन ख़याल रहे कि प्रतिक्रमण के पाठों को बोलना मुख्य उद्देश्य नहीं है उद्देश्य तो प्रभु की प्रार्थना करते हुए दिन भर में जाने-अनजाने में अपने द्वारा हो चुके दोषों की आलोचना, गर्दा करना है। आप उन दोषों के लिए क्षमा-प्रार्थना करें। प्रभु से अपने कृत्यों के लिए क्षमा माँगें कि दिन भर में या रात भर में किसी प्रकार का गलत चिंतन हो गया हो, किसी के प्रति गलत वाणी का प्रयोग हो गया हो या हमारे शरीर के द्वारा गलत कार्य या गलत व्यवहार हो गया हो तो प्रभु मन-वचन-काया से क्षमा माँगते हैं, क्षमा-प्रार्थना करते हैं। यह प्रतिक्रमण है। आत्म-भाव में उतरकर पूर्ण भावों से मन से प्रायश्चित्त करें। हाँ, अगर जान-बूझकर कुछ गलत हो गया हो तो निश्चित ही उसके लिए प्रायश्चित्त करें कि यह मुझे नहीं करना चाहिए। यहाँ मैं गलत था, आज मेरे द्वारा क्रोध हो गया मुझे इसका प्रायश्चित्त है और प्रायश्चित्त में क्या करूँ ? तो आने वाले कल में व्रत रखूगा, एकासन करूँगा। प्रतिक्रमण के पाठ हमें धैर्यपूर्वक बोलने चाहिए न कि ज़ल्दबाज़ी में । मेरा व्यक्तिगत मत है कि प्रतिक्रमण के जो दुरूह पाठ हैं उनका सरल स्वरूप होना चाहिए, साथ ही उन्हें कुछ सीमित भी किया जाना चाहिए । इतना अनुरोध ज़रूर है कि प्रतिक्रमण के पाठ धैर्यपूर्वक, मन लगाकर शांति से बोलें, उच्चारण शुद्ध हो, गति कम हो, एक-एक शब्द स्पष्ट बोलें। उन शब्दों का चिंतन करते हुए अपनी आत्मा के साथ, मन से जोड़ते हुए बोलें। मनोयोगपूर्वक प्रतिक्रमण किया जाना चाहिए। जितना भी करें मन लगाकर करें। अधिक समय लगाने से कुछ नहीं होने वाला। चाहे कम करें, पर परफेक्ट करें। अगर शुद्धतापूर्वक किया जाए तो एक छोटा-सा मंत्र भी देवता का आह्वान कर सकता है। अगर शुद्धता हो तो इत्र की चर बूंदें भी दस किलो तेल को खुशबू से भर देती हैं। अगर शुद्ध न हो तो भले ही इत्र में तेल डाला तो पता नहीं चलता है। २५८ For Personal & Private Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवाँ आवश्यक कर्त्तव्य है - कायोत्सर्ग अर्थात् सत्ताईस श्वासोश्वास तक यानी लगभग तीन मिनट तक देहभाव का त्याग करते हुए आती-जाती श्वासों का अनुभव करना ही कायोत्सर्ग है। मन, वचन और काया के व्यापारों को रोककर आती-जाती सत्ताईस श्वासोश्वास पर ध्यान करना, समत्व का अभ्यास करना, विदेह-भाव का अभ्यास करना, आत्मभाव को स्थापित करना, श्वासों की विपश्यना करना - यही कायोत्सर्ग है। काया के प्रति जो देहभाव है उसका विसर्जन करना ही कायोत्सर्ग है। यह एक सुन्दर प्रक्रिया है। हम लोग यहाँ ध्यान-साधना के दौरान यह क्रिया करते हैं। व्यक्ति सबसे पहले आती-जाती सत्ताईस श्वासोश्वास पर अपने चित्त को केन्द्रित करे, फिर अपने शरीर के एकएक अंग के संवेदन पर ध्यान देते हुए अनुपश्यना करे । विपश्यना करते हुए अपनी सम्पूर्ण देह की यात्रा करे, ऊपर से नीचे तक नीचे से ऊपर तक । इस तरह व्यक्ति जब पिंडस्थ ध्यान करता है, अपने शरीर पर ध्यान करता है तो यह कायोत्सर्ग कहलाता है। इस देह के स्वरूप को समझा, जाना यह अनित्य है, यह अपवित्र है, यह हमसे भिन्न है, यह अकेली आती है, अकेली जाती है। हम सभी इसमें मुसाफ़िर की तरह रहते हैं। जैसे मकान में या धर्मशाला में कोई व्यक्ति आकर रहता है वैसे ही यह शरीर है, भाड़े का घर है। हम इसमें आते हैं और चले जाते हैं। जिनके भीतर यह भाव प्रगाढ़ होता है भगवान कहते हैं यह हमारा पाँचवाँ कर्त्तव्य होता है। इसलिए हम प्रतिदिन तीन मिनट से लेकर तीस मिनट तक अवश्य ही कायोत्सर्ग ध्यान करें। ___अंतिम और छठा आवश्यक कर्तव्य है - प्रत्याख्यान । प्रत्याख्यान का अर्थ है ऐसा संकल्प, ऐसा नियम जो हमें पाप-कार्यों से या खाद्य-पदार्थों से, जिनका हम उपभोग कर रहे हैं, उन पर अंकुश लगाना है । पच्चखाण करना ही प्रत्याख्यान है। यह उपयोगी नियम है। जैसे रात्रि भोजन पर अंकुश लगाना । भोजन करने के लिए पूरा दिन पड़ा है। खा-खाकर कितना खाओगे ! दिन भर खा लिया । सूर्यास्त हो गया तो खाना खाना बंद । ज़्यादा से ज़्यादा पेय पदार्थ ले लो। इससे खाने-पीने पर अंकुश रहेगा। अगर आप सूर्यास्त से सूर्योदय तक खाना नहीं लेते तो आपके १२ घंटे का उपवास हो गया। कितना सरल धर्म हो गया कि खाना खाते हुए भी उपवास । दिन का खाना, रात को उपवास करना । For Personal & Private Use Only २५९ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस तरह का यह जो नियम लेना हुआ, वह कहलाता है प्रत्याख्यान । बाई चांस, अगर आप रात का भोजन नहीं छोड़ सकते, तो सुबह के लिए यह नियम ले सकते हैं कि रात को १२ बजे के बाद खाना-पीना बंद , सूर्योदय के बाद भोजन लूँगा । यह भी नियम हुआ। अथवा आज चतुर्दशी है या बड़ी पूनम है, आज मैं शील-व्रत का पालन करूँगा, यह भी त्याग हो गया। यह भी प्रत्याख्यान हो गया। जीवन मर्यादाओं से बँधा होना चाहिए । सागर भी अपनी मर्यादा में रहता है, हम भी मर्यादा में रहें। मर्यादा ही धर्म है, व्रत है, त्याग है, तपस्या है। ये छह कर्त्तव्य, छह नियम जो भी अपनाता है, वह निश्चित तौर पर मुक्ति-पथ पर आगे बढ़ता है। नॉन-स्टॉप बढ़ता है। जागे तभी सवेरा । छह नियमों को ग्रहण करते ही जीवन में सूर्योदय हो जाएगा, सवेरा हो जाएगा। प्रेमपूर्वक इतना ही अनुरोध है। नमस्कार ! २६० For Personal & Private Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कैसे करें ভীসুল आध्यात्मिक प्रबंधन महापुरुषों का सौन्दर्य उनकी आध्यात्मिक ऊँचाइयाँ, उनकी पवित्र वाणी की खुशबू हमारे चित्त को सौम्य-सुरम्य बना देती है। सारे महापुरुष महान हैं, किन्हीं दो महापुरुषों के बीच में तुलना करना ऐसे ही है जैसे दो जलते हुए दीयों के बीच तुलना की जा रही हो, जिनकी ज्योति एक जैसी हो। वे अस्तित्व के हिसाब से भले ही भिन्न हों फिर भी दोनों एकसमान हैं। सारा भेद मिट्टी के तल पर या आकार-प्रकार पर हो सकता है, पर ज्योति के स्तर पर कोई भेद नहीं होता। फिर चाहे राम हो या कृष्ण, महावीर हो या बुद्ध, मोहम्मद हो या क्राइस्ट - ये सब ऐसे ही हैं जैसे दुनिया के बगीचे में खिले हुए अलग-अलग फूल, या दुनिया को जगमगाने वाले अलग-अलग नक्षत्र । लेकिन जब हम महावीर की बात करते हैं तो उनका अलग स्वाद है, अलग प्रकाश है, उनका अपना आकाश है, उनकी अपनी ज़मीन है, धरातल है और अपनी ही तरह के खिले हुए फूल भी हैं। फूल तो सभी सुन्दर होते हैं लेकिन कमल का आनन्द कुछ और है। कमल विमुक्ति का, अनासक्ति का प्रतीक है। महावीर भी किसी कमल की तरह हैं, श्वेत कमल की तरह, स्वर्ण कमल की तरह। जिसे देखते ही चित्त में उज्ज्वलता, निर्मलता साकार होने लगती है। जिसका ध्यान करो तो चित्त में २६१ For Personal & Private Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाश अवतरित होने लगता है। जिसकी ऊँचाई छूने की कोशिश करो तो अन्तस में आकाश साकार होने लगता है । हम सब पृथ्वी के समान हैं तो महावीर पृथ्वी पर खड़े आकाश हैं। पृथ्वी और आकाश आपस में जुड़े होने के बावज़ूद आकाश पृथ्वी से कई गुना बड़ा है । इसलिए महावीर हमसे कई गुना ऊँचाई पर खड़े हैं। शरीर के धरातल पर देखा जाए तो हममें और महावीर में कोई फ़र्क़ नहीं है । नाम और संज्ञा में अधिक फ़र्क नहीं है। जन्म और युवावस्था, आहार, निद्रा, मैथुन आदि प्रवृत्तियों के आधार पर भी ज़्यादा फ़र्क़ नहीं है, लेकिन जीवन की खि लावट में बेइन्तहा फ़र्क़ है । कोई फूल कली बनकर मुरझा गया, कोई फूल फूल की तरह खिल गया और कोई फूल स्वर्ण - कमल बन गया। महावीर स्वर्ण-कमल की तरह हैं । वे महान वैज्ञानिक हैं, परा - वैज्ञानिक हैं, गहन चिकित्सक हैं जो हम सब लोगों के रोगों को दूर करने का प्रयत्न कर रहे हैं। तभी तो कभी मीरा ने गाया था मीरा की प्रभु पीर मिटेगी, जद वैद सांवरिया होय । - जब प्रभु स्वयं चिकित्सक बनेंगे तभी हमारे मन की, आत्मा की पीड़ा मिट सकेगी। महावीर हमें अन्तरात्मा के आकाश में ले जाना चाहते हैं, हृदय के मंदिर में प्रवेश दिलाना चाहते हैं । वे चाहते हैं कि मानव अपने साधारण तल से ऊपर उठकर असाधारण तल का, असाधारण क्षमता का स्वामी बन सके 1 महावीर हम सबकी मुक्ति चाहते हैं। तभी तो वे हमारा नेतृत्व कर रहे हैं, कल्याण-मित्र, गुरु, सद्गुरु और तीर्थंकर की भूमिका अदा कर रहे हैं जितना फ़र्क़ पृथ्वी और आकाश में है उतना ही फ़र्क़ हममें और महावीर में है। कल ही मैंने एक प्यारी सी कविता पढ़ी थी २६२ - सुने हुए गीतों से मनहर, मधुर अनसुना गीत, आँखों देखे से सुन्दर अनदेखा मन का मीत । जिसके मन में जितना कम अनदेखे का अनुराग, उसके प्राणों में उतनी ही क्षीण हो चुकी आग । तन से मन की शक्ति अधिक है, प्रबल देह से प्राण, पृथ्वी से आकाश बड़ा है, जाने से अनजान । For Personal & Private Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिसके प्राणों में जितना कम, अनजाना आकाश, उसका उतना ही कम सार्थक पृथ्वी पर आवास । अगम कन्दरा क्रूर जल रहा, जहाँ दीप निर्धूम, सार्थक हैं वे नयन, सकें जो दीपशिखा को चूम । हैं प्रकाश के प्रति जो लोचन जितने स्नेहभीन, हैं उतने ही दीन हीन, वह खंडित मुकुर मलीन । वह पंचतल्ला पोत सदा, धारावाहिक अविराम, अगम शिखर से अगम सिंधु तक बहना इसका काम। तिरता जाता पोत प्राण का पाल बना आकाश, दुग से जितना दूर नियामक, मन से उतना पास ।। कविता सुनो तो केवल कविता है, लेकिन कविता का मर्म यह है कि जो दिखाई दे रहा है केवल उतने पर ही अपनी नज़र केन्द्रित करेंगे तो दृश्यमान जगत में ही उलझकर रह जाएँगे । इसीलिए महावीर हमें उस जगत में ले जाना चाहते हैं जो अज्ञात भी है और अज्ञेय भी। धर्म भी अज्ञात और अज्ञेय की खोज है। हमें वह मन का मीत तो दिखाई देता है जो इस दुनिया में विद्यमान है लेकिन वह मीत दिखाई नहीं देता जो इस अदृश्य जगत के पार है। महावीर हमें वहाँ ले जाना चाहते हैं जो हमें साधारण संसार से ऊपर उठाकर असाधारण संसार का दर्शन कराए। दुनिया में हमेशा ही दो विकल्प रहे हैं, जिनमें से एक राम के रूप में, दूसरा रावण के रूप में चुना जाता है। राम व रावण हजारों वर्षों से यही पथ प्रदर्शित कर रहे हैं कि मानव की एक भूमिका रावण का तो दूसरी भूमिका राम का निर्माण करती है। राम रावण का संघर्ष हर युग में रहा है। राम सत्य के, धर्म के, आत्म-विश्वास के प्रतीक हैं जबकि रावण अधर्म, असत्य, बलात्कार, विषयानुरागिता, कामान्धता का परिचायक है। मन की एक धारा इन्सान को राम और दूसरी धारा रावण बनाती है। महावीर का लक्ष्य यह है कि इन्सान रावण से बदलकर राम बन जाए । व्यक्ति चाहे जिस कुल, परम्परा में जन्मा हो लेकिन उसे सत्य का बोध हो जाए तो जो रावण जीवन भर राम का विरोध करता रहा, वही रावण मरते समय राम का नाम लेकर ही मुक्त हआ। जिस व्यक्ति को For Personal & Private Use Only २६३ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीते-जी जीवन का बोध नहीं हो पाता उस व्यक्ति को मृत्यु जीवन का और सत्य का बोध करा देती है। जिसे जीते-जी भगवान का अहसास हो जाता है वह जीवन भर परमात्मा का आनन्द लेता है। लेकिन जो मृत्यु की पदचाप सुनकर ईश्वर के प्रति अनुराग पैदा करता है वह भी मुक्ति की ओर चार कदम तो बढ़ा ही लेता है। 'मैं मृत्यु की नहीं जीवन की बात कर रहा हूँ इसलिए जीते-जी ही मृत्यु का आस्वाद लेने का आग्रह और अनुरोध भी कर रहा हूँ कि व्यक्ति जीते-जी मृत्यु का आनन्द ले, जीते-जी मुक्ति का कमल बन जाए । परिवार, पत्नी, बच्चे हों तब भी अगर हम चाहें तो अपनी अन्तरात्मा में उतरकर, उसे जीकर मुक्ति के करीब पहुँच सकते हैं। जो दुनियां में जिया वह क्या जिया। जो अन्तरात्मा में जिया उसी का जीना सार्थक हुआ। जो दुनिया में जिया वह मिट्टी का दीप बनकर रह गया लेकिन जो अन्तरात्मा में जिया वह स्वयं ज्योतिर्मय हो गया। हमारी जड़ें मिट्टी में हैं या ज्योति में ? यह हमें ढूँढ़ना होगा । हम कौन हैं यह तो बाद में ढूँढेंगे, मैं कौन हूँ यह भी बाद में जानेंगे, उससे पहले हम यह ढूंढेंगे कि हमारी चेतना कहाँ है, किसमें उलझी हुई है। किस राग-द्वेष में, किस अनुराग में, किस वैमनस्य में फंसी हुई है। हम लेश्याओं के घेरे में घिरे हुए हैं या हमारे लिए कहीं मुक्ति का स्वर भी है। हमें अपनी जड़ों को ढूँढ़ना होगा । कहीं ऐसा तो नहीं कि हम अपने मन के विकारों से, उसकी वासना की जड़ों से जकड़े हुए हों। भले ही बातें मुक्ति की कर रहे हों, नाम मुक्ति का ले रहे हों लेकिन अपने मन की तमस भरी जड़ों से उलझे हुए हों। होता ऐसा ही है कि हम प्रार्थना तो योग की करते हैं लेकिन भावना और कामना भोग की भाते रहते हैं। योग और भोग के विरोधाभास की जड़ों को हिलाना होगा और उस दृष्टि को उपलब्ध करना होगा जो हंसदृष्टि बनकर सत्य और असत्य का भेद बता सके, करणीय और अकरणीय में अन्तर बता सके । क्या अनुराग-योग्य है और क्या त्याज्य है इसका फ़र्क कर सकें। वेदों की चार आश्रम - व्यवस्था में व्यक्ति जीवन के हर रंग को जी सकता है। एकरंगी न हो जाएं क्योंकि एकरंग से जीवन को रंगीन नहीं बनाया जा २६४ For Personal & Private Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकता, जीवन का आनन्द नहीं लिया जा सकता। कोई भी क्यों न हो महावीर या ऋषि-मुनि, सबका एक ही संदेश है कि आनन्द से जियो | आनन्द से जीने के लिए सब रंगों का आनन्द लिया जाना चाहिए। तभी तो जीवन का एक हिस्सा ज्ञानार्जन के लिए, दूसरा हिस्सा गृहस्थाश्रम के लिए । यद्यपि संत लोग यही प्रेरणा देते हैं कि व्यक्ति जीवन भर ब्रह्मचर्य का निर्वाह करे लेकिन यह प्रकृति के अनुरूप नहीं है। प्रकृति के अनुरूप यही है कि व्यक्ति गृहस्थाश्रम का भी निर्माण करे। क्योंकि हर व्यक्ति के लिए संत बनना आसान नहीं होता। इसलिए जीवन का एक हिस्सा गृहस्थाश्रम के लिए समर्पित हो ताकि व्यक्ति जीवन का एक और रंग, एक और स्वाद भी ले सके। तीसरा हिस्सा तो हम जीते ही नहीं हैं उसमें भी गृहस्थाश्रम को प्रविष्ट करा देते हैं । आज के युग में तो गृहस्थाश्रम की पवित्रताएँ और मर्यादाएँ, शील रहे नहीं हैं। सेक्स को बहुत अधिक बढ़ावा दिया जा रहा है। यौन-शिक्षा के प्रचार-प्रसार ने सारी वर्जनाएँ समाप्त कर दी हैं । गृहस्थ आश्रम के नाम पर भोग ही शेष रहा है । पत्नी भी भोग्या बन गई है इसीलिए पत्नी के लिए पति पति नहीं रहा है। उसने भी पति की कमजोरियों को समझ लिया है और उसे भोग्य बनाकर अपनी सारी ज़रूरतों को पूरा करने का ज़रिया और माध्यम समझ लिया है। दोनों एक-दूसरे को निचोड़ने में लगे हैं। जिसने भी चार आश्रमों की व्यवस्था के अनुसार अपने जीवन को लय दी है, मेरे अनुसार यह उसके जीवन का आध्यात्मिक प्रबंधन है । पर हम जीवन चार हिस्सों में बाँटने के बजाय अल्पवय में ही गृहस्थाश्रम प्रवेश करने की शुरुआत कर देते हैं । सामाजिक मर्यादा न हो तो नब्बे वर्ष का व्यक्ति भी गृहस्थाश्रम की कल्पना संजोता रहेगा । वेदों की चार आश्रम की ख़ूबसूरत व्यवस्था को हमें अपने जीवन के साथ जोड़ना ही चाहिए। पचास वर्ष की आयु तक तो गृहस्थ रहूँगा, धनोपार्जन करूँगा लेकिन इसके बाद वानप्रस्थ के लिए पूर्णरूपेण समर्पित हो जाएँगे । या तो व्यक्ति जीवन भर धर्म और मोक्ष का पुरुषार्थ करे लेकिन ऐसा न कर पाए तो ढलती उम्र में तो मोक्ष का पुरुषार्थ अवश्य कर ले। प्रबल व भव्य पराक्रम होना चाहिए । केवल मृत्यु - शैय्या पर भगवान का नाम ले लेने से काम नहीं चलने वाला । For Personal & Private Use Only २६५ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूरे जीवन के साथ हमें धर्म की खुशबू को, मुक्ति के प्रकाश को, अनासक्ति के योग को जीना होगा। सरकार भी साठ वर्ष की आयु में रिटायर कर देती है फिर हम क्यों संसार से बँधे रहते हैं। हमें भी तो प्रभु के लिए, मुक्ति के लिए लग जाना चाहिए। उम्र जो ढल रही है, मृत्यु की ओर जा रही ज़िंदगी को प्रभु के लिए सार्थक कर लेना चाहिए । प्रभु की डोर थाम लेनी चाहिए । देखा तो यह जाता है कि व्यक्ति अंतिम क्षण तक केवल धन का..धन का अर्जन करता रहता है। वह धर्म का अर्जन नहीं करता। जिनके पास जीवन चलाने के लिए अन्न की व्यवस्था नहीं है वे धनोपार्जन करें तो ठीक भी है लेकिन जो सम्पन्न हैं, जिनके जीवन जीने की व्यवस्था है वे बुढ़ापे में अर्जन छोड़ें और अन्तरात्मा के सर्जन का प्रयत्न शुरू करें। धन का अर्जन करना तो दुनिया में जीना है और धर्म का अर्जन करना अन्तरात्मा में जीना है। जो दुनिया में जिया वह क्या जिया, जो अन्तरात्मा में जिया वही वास्तव में जिया। धन ज़रूरी है इसलिए दुनिया को भी जी लो, दुनिया के सब रंगों का आनन्द ले लो। पर कहीं ऐसा न हो कि केवल बाहर के रंग का आनन्द लेते रहें और भीतर का रंग हम छ भी न पाएँ। अन्तरात्मा को जिया जाना चाहिए । हम केवल पृथ्वी तक को ही न जीते रहें। यह आहार, मैथुन, देह-पोषण, देह-शृंगार पृथ्वी को जीना हुआ। हम इसी में उलझ कर न रह जाएँ वरन् अपनी जड़ों को, शाखाओं को आकाश तक भी फैलने दें। अन्तआत्मा के आकाश तक फैलने दें। ऐसा करने के लिए महावीर हमारे मार्गदर्शक बन रहे हैं, वे हमारे लिए मील के पत्थर का काम कर रहे हैं। वे दीपशिखा बनकर हमें मुक्ति का स्वाद चखाना चाहते हैं। वे चाहते हैं दुनियादारी से ऊपर उठकर अपनी तरफ आओ। दुनियादारी में ही पड़े रहे तो कभी पत्नी पति को खींचेगी या पति पत्नी को खींचेगा, कभी बच्चे तुम्हारे व्यामोह में रहेंगे तो कभी तुम बच्चों के व्यामोह में रहोगे - इस तरह कहीं-नकहीं उलझे हुए ही रह जाओगे। ऐसा हुआ कि एक व्यक्ति जिस कुटिया में रह रहा था वहाँ का छप्पर ठीक कर रहा था। तभी नीचे एक भिखारी आया और उसने आवाज़ लगाई - ओ साहब, ओ साहब ज़रा नीचे तो आइए। उसने कहा - भाई, अभी मैं छप्पर ठीक कर रहा हूँ, नीचे नहीं आ सकता। भिखारी ने कहा - बहुत ज़रूरी काम है, नीचे २६६ For Personal & Private Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ जाओ। उसने कहा - जो कहना है नीचे से ही कह दो। भिखारी ने कहा - साहब बात बहुत गंभीर है, नीचे से नहीं कह सकता । गड़बड़ी होने की आशंका है। वह व्यक्ति उतरकर नीचे गया और कहा - बोलो भाई क्या काम है। उसने कहा - साहब मैं बहुत भूखा हूँ, कुछ खाने को मिल जाए तो अच्छा रहे। उस व्यक्ति ने कहा - भाई, यह बात तो तुम नीचे से भी कह सकते थे, इसके लिए मुझे ऊपर से नीचे बुलाने की क्या ज़रूरत थी। भिखारी ने कहा - साहब गड़बड़ थी, कहीं आपने इन्कार कर दिया तो ! मैं नहीं चाहता था कि आपका पड़ोसी सुन ले। आपकी इमेज़ का सवाल है, लोग क्या कहेंगे, एक भिखारी भीख माँगने आया है और आप दो रोटी भी न दे सके । मुझे लगा कि आप मना कर देंगे इसीलिए नीचे बुला लिया। उस व्यक्ति ने कुछ सोचा और कहा - अच्छा ठीक है, चलो मेरे साथ ऊपर आ जाओ। भिखारी खुश हुआ कि दो रोटी मिल जाएँगी। भिखारी बूढ़ा और मोटा था । बमुश्किल सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर पहुँचा। वह व्यक्ति तो पुनः अपना छप्पर ठीक करने में लग गया। आधा घंटे तक तो ध्यान भी न दिया । तब भिखारी बोला - साहब मुझे आधा घंटा हो गया बैठे हुए। वह व्यक्ति बोला - हाँ, बोलो क्या काम है ? भिखारी ने कहा - आप ही ने तो मुझे ऊपर बुलाया है। उन्होंने कहा – ठीक है वापस चले जाओ। भिखारी बोला - आपने बुलाया था। वे बोले - न, न, न.. मैंने यह सोचकर ऊपर बुलाया कि अगर वहीं ना कर देता तो तुम्हारी इज़्ज़त कम हो जाती इसलिए सोचा कि ऊपर बुलाकर ना कह दूँ। भिखारी बोला - ओफ्फो ! जब ना ही कहना था तो नीचे ही कर देते । उसने कहा - ग़ज़ब की बात है। तू भिखारी होकर मुझे नीचे बुला सकता है, तो क्या मैं मालिक होकर तुझे ऊपर नहीं बुला सकता ? दुनिया में इस तरह की बातें चलती रहेंगी। हम लोग एक-दूसरे के साथ उठापटक करते रहेंगे। पर महावीर हमें इस उठापटक से, इस मंथन से बाहर निकालना चाहते हैं और वह रास्ता दिखाना चाहते हैं जो मुक्ति की ओर जाता है। महावीर के शब्द हैं - 'जो जीव मिथ्यात्व से ग्रस्त होता है, उसकी दृष्टि विपरीत हो जाती है, उसे धर्म भी रुचिकर नहीं लगता । जैसे ज्वरग्रस्त व्यक्ति को मीठा रस भी अच्छा नहीं लगता। मिथ्यात्वग्रस्त जीव तीव्र कषाय से आविष्ट २६७ For Personal & Private Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होकर जीव और शरीर को एक मानता है इसलिए वह बहिआत्मा है। जो तत्त्वविचार के अनुसार नहीं चलता उससे बड़ा मिथ्या दृष्टि कौन हो सकता है। वह दूसरों को शंकाशील बनाकर अपने मिथ्यात्व को बढ़ाता रहता है।' महावीर बात तो मुक्ति की कर रहे हैं, पर शुरुआत मुक्ति से नहीं करवाना चाहते । वे पहले हमें हमारे ज्ञान का बोध करवाना चाहते हैं। वे कहते हैं - जीवन का पहला सत्य यह है कि व्यक्ति मिथ्यात्व से घिरा हुआ है, माया, अविद्या और अज्ञान से घिरा हुआ है। हम सभी पर अज्ञान ही तो हावी है। ज्ञान की रोशनी थोड़ी-सी उपलब्ध होती है और अज्ञान का अँधेरा छाया रहता है। इस दुनिया में ज्ञान कम और अज्ञान अधिक है। साक्षरता और पढ़ाई का स्तर बढ़ा है, लेकिन ज्ञान की रोशनी अब भी नहीं हो पा रही है। बड़ी-बड़ी डिग्रियों से संस्कार नहीं पनप रहे हैं। ज्ञानी होने का दावा करने वाले भी दुर्व्यसनों से ग्रस्त हैं। यहाँ तक कि वैधानिक चेतावनियों का भी खुल्लमखुल्ला उल्लंघन करते हुए पाए जाते हैं। हम लोग तो वे हैं जो बिना अतिक्रमण किए जीते ही नहीं हैं। जीवन में अतिक्रमण, मर्यादाओं में अतिक्रमण । स्वयं को हम आर्य और धार्मिक कहते हैं फिर भी हर चीज में अतिक्रमण । इस देश के अतीत ने मर्यादा में रहना सीखा था, पर वर्तमान ने नहीं सीखा । राम ने मर्यादा को सीखा लेकिन राम के अनुयायी इसे भूल गए। महावीर तो मुक्त हो गए पर उनके अनुयायी मुक्त न हो पाए। वे अब भी बँधे हुए हैं। कोई पंथ से, कोई परम्परा से, कोई गुरु-व्यामोह से, कोई धन, सम्पत्ति, जायदाद से, बस बँधे हुए हैं। हम मुक्ति को कैसे जी रहे हैं ? इस तरह कि माता-पिता को छोड़कर अलग घर बसाने लगे हैं। भाई से भाई अलग हो गया है यह मुक्ति तो सीखी, पर आध्यात्मिक मुक्ति, सांसारिक प्रपंचों से मुक्ति को नहीं जी पा रहे हैं। हमें अज्ञान से मुक्ति चाहिए। जो ज्ञान पाया है उसे जीवन के साथ जोड़ा जाए। हमारी प्रवृत्ति ज्ञान को जीने की कम और बाँटने की अधिक है। मिट्टी के माधो बनने से या मंदिर की मूरत बन जाने से काम न चलेगा। व्यक्ति को परमात्मा होने के लिए स्वयं का पुरुषार्थ जगाना होगा। आत्म-जागरण का शंखनाद स्वयं के जीवन में करना होगा। अज्ञान मोह का, माया का अज्ञान टूटे । रिद्धि-सिद्धि के दाता गणपति से, ज्ञान की दाता सरस्वती से यही प्रार्थना है कि हम इन्सानों २६८ For Personal & Private Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को इतनी सन्मति और सद्बुद्धि अवश्य दे कि हम उस प्रकाश में जान सकें कि क्या है ज्ञान और क्या है अज्ञान ? क्या है मोह और क्या है मुक्ति ? क्या है करने योग्य और क्या है त्यागने योग्य ? हम जीवन का आनन्द लें, पर जीवनभर गृहस्थ बनकर न रह जाएँ। गृहस्थ मिट्टी में जन्म लेकर मिट्टी में ही मिल जाता है, पर संन्यासी वह है जो जन्मता तो मिट्टी में है, जीता भी मिट्टी में है, पर आकाश में मरता है। मिट्टी ज़मीन पर पाँवों के नीचे होती है और आकाश सिर के ऊपर होता है। बस इतना ही फ़र्क है नीचे संसार, ऊपर संन्यास, समाधि और निर्वाण है। फिर चाहे कबीर हों या गोरख या नानक सभी हमें आकाश की ओर चलने की प्रेरणा देते हैं क्योंकि वे स्वयं आकाश-पुरुष हो गए। ___ अज्ञानी व्यक्ति अन्तरात्मा में नहीं देह में जीता है और आत्मा तथा देह को एक ही मानने लगता है। आत्मा के तीन चरण हैं - बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । बहिरात्मा - जो केवल बाहर जीता है, अन्तआत्मा - जो भीतर जीता है, परमात्मा - जो बाहर और भीतर दोनों के द्वैत से ऊपर उठ गया, श्वेत कमल हो गया, स्वर्ण कमल हो गया। जो कमल की तरह मुक्त हो गया उसका नाम है परमात्मा । बहिरात्मा - शरीर और आत्मा को एक मानता है लेकिन शरीर और आत्मा में उतना ही फ़र्क है जितना कार और उसके ड्राइवर में है। फ़र्क समझने के लिए किसी शव की कल्पना कर लें और उसके साथ तुलना करके जान लें कि इसमें से वह तत्त्व निकल गया जिसके कारण वह चलता-फिरता था और व्यक्ति मर गया। आंशिक रूप से व्यक्ति को तब-तब आत्म-ज्ञान होता है जब-जब वह किसी को मृत देखता है। श्मशान में जलती लाश को देखकर ही सही, क्षण भर के लिए आंशिक ज्ञान तो ज़रूर होता ही है, पर अज्ञान का, मिथ्यात्व का, माया का अँधेरा इतना प्रगाढ़ है कि वह एक किरण अपना पूरा परिणाम नहीं दे पाती। हाँ, कुछ लोग होते हैं जो इस किरण को, चिंगारी को पकड़ लेते हैं और अपने बुझे हुए दीए तो जला लेते हैं। कहते हैं एक पत्नी अपने पति को स्नान करवा रही थी। पीठ पर उबटन का लेप कर रही थी कि अचानक उसकी आँखों से दो आँसू टपके और पति की पीठ पर गिरे। पति के बदन पर जब दो बूंद गर्म पानी की गिरी तो उसने आँखें उठाकर देखा कि पत्नी की आँखें भरी हुई थीं। २६९ For Personal & Private Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसने कहा – तुम अरबपति की पत्नी होकर रो रही हो ? तुम्हें भला किस बात - की कमी है ? पत्नी ने कहा- कमी तो कुछ नहीं है, पर मेरा भाई संन्यास लेने वाला है और उसने अपनी पत्नी को त्यागने का प्रण कर लिया है । वह धन, जमीन, जायदाद का भी एक-एक कर त्याग करता जा रहा है। दस दिन बाद वह संन्यास भी ले लेगा। पति हँसा और कहा - अरे जब संन्यास लेना ही है तो दस दिन की प्रतीक्षा क्या करना, लेना है तो लिया और नहीं लेना है तो यह दस दिन का नाटक क्यों ? पत्नी को बुरा लगा। हर पत्नी सबकुछ सहन कर लेती है पर भाई की आलोचना उसे नागवार गुजरती है । वह बर्दाश्त न कर पाई और बोली- आप तो ऐसे कह रहे हैं जैसे यह बच्चों का खेल है। पति ने कहा - और क्या जब छोड़ना ही है तो बच्चों का खेल ही है । पत्नी ने कहा - अजी, कहना बहुत सरल होता है, आप करके दिखाओ तो आपको पता चले। मेरा भाई इतना तो छोड़ रहा है। आप छोड़कर दिखाओ तो मालूम पड़े। पत्नी का इतना कहना था कि पति झट से खड़ा हुआ और बोला - अच्छा, तुम छोड़ने की बात कर रही हो, लो मैंने छोड़ा। इतना कहते हुए उबटन लगे शरीर से घर से बाहर निकल आया और अपने साले साहब के पास जाकर घर के नीचे से ही आवाज़ लगाई - भइया, मैं तो छोड़ आया, तुम्हें आना है तो तुम भी चले आओ। साले ने ऊपर से देखा कि उसका जीजा उबटन से सना हुआ ही चला आया है, छोटा-सा अँगोछा ही पहन रखा है। उसने इस बात की परवाह भी नहीं की कि जब छोड़ना ही है तो पहनना क्या और बदलना क्या ! 1 छोड़ना होता है तो चुटकी में छूट जाता है और न छोड़ना हो तो जिंदगी भर ज्ञान की बातें सुनने से भी नहीं छूटता है । महावीर से छूट गया । उनके माता-पिता, भाई, बेटी- जँवाई से न छूट पाया । प्रबल पुण्योदय होते हैं तभी व्यक्ति छोड़ पाता है । अँधेरे में जीना आसान होता है लेकिन प्रकाश-पथ का अनुगामी होना कठिन होता है । भोग के रास्ते पर जाना सरल होता है, 1 लेकिन योग के रास्ते पर जाना कठिन होता है। पहाड़ से नीचे उतरना आसान होता है, लेकिन पहाड़ पर चढ़ना कठिन होता है । मुक्ति का रास्ता कठिनाई का, संघर्ष का, जितेन्द्रिय होने का, स्वयं को जीतने का रास्ता है । व्यक्ति अगर अपने भीतर ज्ञान की रोशनी को पैदा कर ले तो काया रहती है लेकिन काया की माया २७० For Personal & Private Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम पर हावी नहीं हो पाती । देह और आत्मा एक दिखाई दे सकती हैं लेकिन ज्ञानी के लिए शरीर और आत्मा दो तत्त्व हो जाते हैं । आपने नारियल देखा होगा, उसके ऊपर जटा होती है, फिर ठीकरी (कवर) होती है, फिर गिरी होती है और उसके अन्दर पानी होता है। दिखने में तो सारे एक साथ दिखाई देते हैं फिर भी सब अलग-अलग हैं। अगर भीतर के वासना - विकारों के पानी को, मन की लेश्याओं को निर्मल कर दिया जाए, उन्हें सुखा दिया जाए तो जटा लगी रह जाती है, ठीकरी पड़ी रह जाती है और भीतर की गिरी अलग हो जाती है और नारियल का गोटा बन जाता है। 1 1 ज्ञानियों ने तपस्या की प्रेरणा दी है । तपस्या का अर्थ ही सुखाना है । किसको सुखाना है ? तन को नहीं भीतर की वासनाओं को सुखाना है । वासना का अर्थ केवल भोग नहीं है । पत्नी की इच्छा भी वासना है, पुत्र पाने की कामना भी वासना है, धन-दौलत, पद-प्रतिष्ठा, नाम कमाने की इच्छा भी वासना है । जो संत बन जाते हैं वे पत्नी-पुत्र, धन-दौलत, जमीन-जायदाद छोड़ आते हैं लेकिन नाम कमाने की वासना उन्हें घेर लेती है । वे भगवान के नाम स्थापित करने की बजाय जीवन भर अपने ही नाम को स्थापित करने में लग जाते हैं । यह संतों की मानसिक कमज़ोरी है, वासनाओं की कमज़ोरी है । लेकिन जो जागरूकतापूर्वक जीते हैं, आत्म जागृति को उपलब्ध कर लेते हैं वे शरीर को शरीर और आत्मा को आत्मा समझते हैं । ध्यान का मार्ग इसीलिए है ताकि व्यक्ति आधा घंटा बैठकर अपनी विपस्सना, अपनी अनुपश्यना कर सके, स्वयं के प्रति अपनी बोधि को कायम कर सके कि मैं साक्षी-भाव से देह की विपासना कर रहा हूँ। साक्षी-भाव से अपनी देह के गुण-धर्मों को समझ रहा हूँ। देह की संवेदनाओं का साक्षी हो रहा हूँ। Only witness. शरीर है तो इसकी संवेदनाओं को, चित्त है तो चित्त की संवेदनाओं को, चित्त की तरंगें हैं तो उन तरंगों को सहज रूप में जान रहा हूँ। जो भी है उसे देख रहा हूँ- देख रहा हूँ और देखते-देखते धैर्यपूर्वक अपने भीतर के तत्त्व को समझ रहा हूँ कि मैं क्या हूँ । शरीर और आत्मा की भिन्नता परिणामों के आधार पर भी समझी जा सकती है। जैसा कि हम मृत शरीर और जीवित शरीर के बीच फ़र्क़ करके देखें तो पता चल जाएगा कि क्या है शरीर और क्या है आत्मा ! क्या है जीवन और For Personal & Private Use Only २७१ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या है निर्जीव ? व्यक्ति के अज्ञान की कारा को तोड़ा जा सकता है, अज्ञान के अँधेरे को दूर किया जा सकता है। अज्ञान के अँधेरे को दूर करने के लिए किसी भी महान् पवित्र शास्त्र को बीस से तीस मिनिट तक ज़रूर पढ़ें । धर्म-शास्त्रों के जरिए, जिसमें पवित्र वाणी लिखी हुई है, जिसमें आत्म-ज्ञानी, तत्त्व-विद् लोगों की वाणी लिखी हुई है - हम उन तत्त्व की बातों को पढ़कर अपने भीतर कुछ चिंतन कर सकते हैं, मनन कर सकते हैं। अतः महापुरुषों की वाणी को सुनें, पढ़ें, उनका सत्संग करें, उसमें अवगाहन करें। गंगा-स्नान तो बहुत किया और शायद गंगा-स्नान रोज न हो पाए लेकिन एक गंगा-स्नान और है जिसमें धर्म-शास्त्रों को पढ़कर उसके ज्ञान में डुबकी लगाना भी गंगा-स्नान से कम नहीं है। इस तरह प्रतिदिन स्वाध्याय करें । रोज़ाना बीस से तीस मिनिट पढ़ने की आदत हो जाने पर तीन सालों में न जाने कितने धर्म-ग्रंथ पढ़ डालेंगे और एक बार आदत हो जाने पर पिपासा बढ़ती ही जाएगी फिर तो अन्य धर्मों के ग्रंथ भी पढने की ललक जाग उठेगी। धर्मशास्त्रों को पढ़ने से हमें अन्तर्दृष्टि उपलब्ध होती है, तत्त्व-दृष्टि मिलती है। जिसको पढ़ेंगे मन पर वैसा ही असर आएगा। साहित्य पढ़ेंगे तो साहित्यिक मन की रचना होगी, राजनीति के बारे में पढ़ने पर राजनीतिक मन का निर्माण होगा, किसी सेक्सी पत्रिका को पढ़ेंगे तो हमारे मन में सेक्स की भावना पैदा होगी और हम सेक्सी चित्त बन जाएँगे। धर्मशास्त्रों को पढ़ेंगे तो चित्त धार्मिक हो जाएगा, धार्मिक मन के मालिक बन जाएँगे। अच्छी पुस्तकें हंसदृष्टि को खोलने में सहायक होंगी, अज्ञान को काटने में मददगार होंगी। दूसरा काम यह हो कि गुरुजनों, संतों-महात्माओं के पास जाकर बैठने की आदत डालो। उनके पास जाकर कुछ समय व्यतीत करो। यह नहीं कि गए, पाँव छुए और चले आए। फिर तो मंदिर जाने और संत के पास जाने में कुछ फ़र्क न रहा। यदि गुरु के पास जाकर उनके ज्ञान का आनन्द लेते हो, उनके प्रकाश, उनकी समाधि, उनकी शांति की छाँव में बैठते हो, तो मंदिर में बैठने से भी अधिक, आपके लिए परिणामदायी होगा। मंदिर में केवल प्रार्थना की जा सकती है, ध्यान किया जा सकता है, पर गुरु से पाया जा सकता है। महावीर अरिहंत हुए, तीर्थंकर हुए लेकिन महावीर सद्गुरु भी हुए। २७२ For Personal & Private Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर सिद्ध हुए, सिद्ध तो और भी कई हुए, लेकिन तीर्थंकर का महत्त्व इसलिए है कि वे गुरु भी हैं। महावीर हमारे लिए गुरु और तीर्थंकर दोनों का काम कर गए। गुरु के सान्निध्य में बैठो। उनसे ज्ञान की बारह-खड़ी सीखो। जीवन के बारे में ज्ञान लो। उनसे जीवन की वर्णमाला सीखो। एक वर्णमाला तो प्राथमिक विद्यालयों में सीखी अब जीवन की वर्णमाला में सीखो कि 'अ' से अदब करो। 'आ' से आशीर्वाद लो, 'इ' से इबादत करो, 'ई' से ईमानदार बनो, 'उ' से उत्साह रखो, 'ऊ' से ऊर्जावान बनो, ‘ओ' से ओजस्वी बनो, 'औ' से औरों की सेवा करो- यह जीवन की वर्णमाला है। कक्षा का टीचर भी टीचर होता है और एक संत भी टीचर होता है पर दोनों के ज्ञान में फ़र्क होता है। कक्षा का टीचर 'अ' से अनार और 'आ' से आम सिखाता है। और ज्ञानी टीचर 'क' से कर्म करो, 'ख' से खरे बनो, 'ग' से गलती मत करो, 'घ' से घमंड मत करो, 'च' से चरित्रवान बनो, ‘छ' से छल मत करो, 'ज' से जलो मत, 'झ' से झगड़े मत करो, 'ट' से टकराओ मत, 'ठ' से ठगो मत, 'ड' से डरो मत, 'ढ' से ढलना सीखो, 'त' से तरक्की करो, 'थ' से थको मत, 'द' से दया करो, 'ध' से धर्म करो, 'न' से नरम बन जाओ, 'प' से परिश्रम करो, 'फ' से फर्ज निभाओ, 'ब' से बलवान बनो, ‘भ' से भलाई करो, 'म' से मस्त रहो, 'य' से यकीन करो, 'र' से रहम करो, 'ल' से लक्ष्य प्राप्त करो, ‘व' से वचन निभाओ, 'श' से शक मत करो/शर्म रखो, 'ष' से षड्यंत्र मत रचो, ‘स' से सफल बनो, 'क्ष' से क्षमा करना सीखो, 'त्र' से त्राहि मत मचाओ और 'ज्ञ' से ज्ञानी बनो सिखाता है। 'अ' से शुरू हुई वर्णमाला अदब से प्रारम्भ होती है और 'ज्ञ' से ज्ञानी होकर पूर्णता प्राप्त करती है। यह वर्णमाला सिखाती है कि जीवन का बुनियादी ज्ञान पाने के लिए दिव्य पुरुषों के, संतों के, निर्दोष पुरुषों के पास जाकर बैठो और उनके ज्ञान का आनन्द लो। गुरु अगर मौन हैं तो मौन का भी आनन्द लो। बगीचे के फूल बातें नहीं किया करते, फिर भी वे हमारे मन को फूल की तरह खिला देते हैं। गुरु के पास बैठना फूलों भरी बगिया में बैठने के समान है। वहाँ मौन में भी संवाद होता है। कहते हैं श्रीकृष्णजी ने अर्जुन को गीता कही थी, संवाद किया था। जितनी बड़ी गीता आज मिलती है अगर उतनी बड़ी गीता २७३ For Personal & Private Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान युद्ध के मैदान में कहनी शुरू कर देते तो तीन दिन में पूरी न होती। मुझे तो लगता है उन्होंने गीता को शाब्दिक रूप से कम और मानसिक तरंगों के रूप में अधिक स्थापित कर दिया होगा । जो उन्होंने कहा है वह मानसिक तरंगों के रूप में सीधे अर्जुन के भीतर स्थापित कर डाला । अर्जुन को सद्बुद्धि आई । अगर श्रीकृष्ण सारा उपदेश वहीं देते, सारा विराट स्वरूप वहीं दिखाते तो पूरे महाभारत का कायाकल्प हो जाता, सभी को सद्बुद्धि मिल जाती। पर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को मानसिक तरंगें दीं और अन्तरात्मा में सारे दर्शन करा दिए, अन्तरात्मा में सारा बोध दे दिया। वो तो मानव मात्र को समझाने के लिए उस संवाद को फिर शब्दों में ढाल दिया गया, ताकि जो मानसिक तरंगें प्रभु ने अपने मित्र के भीतर स्थापित की थीं वे तरंगें मानव मात्र का कल्याण कर सकें । श्रीकृष्ण प्राणी मात्र के कल्याण-मित्र बन सकें इसलिए शब्दों में, गीतों में, काव्य में, श्लोकों और दोहों में ढालकर मानव मात्र के लिए परोस दिए गए। गुरुजी अगर बात करते हैं तब भी ठीक और बात नहीं करें तब भी उनके पास जाकर बैठो। उनकी समाधि, उनकी शांति काम करेगी। उनकी शांति ऐसा चमत्कार करेगी कि आपकी अशांति दूर हो जाएगी। मन की अशांति, मन का अज्ञान कम हो गया। हम बोलने, बतियाने के आदी हैं पर एक गुरुजी कितनों से बोलें। गुरु के पास बैठना ही संगत है, सत्संग है, वही अपना काम करता है । गुरुजी ने जो कह दिया उसमें प्रश्न नहीं, वह अंतिम शब्द हो जाए । गुरुजी को सलाह नहीं, वे कहें और हम पालन करें। तभी तो आज्ञाकारी शिष्य कहलाएँगे । तभी आज्ञाकारी पुत्र की तरह सम्मान होगा । पिता अगर पुत्र से कुछ न भी बोल पाए तो भी पास में बैठने से भी वात्सल्य उमड़ता है। पति-पत्नी हर समय तो बातें करते नहीं रह सकते लेकिन उनका पास में बैठना भी प्रेम - मोहब्बत का अहसास करा रहा है, एक सुकून दे रहा है । मौन का भी आनन्द लो, इसका भी स्वाद चखो । - अज्ञान को तोड़ने के लिए तीसरा काम है ध्यान करना । ध्यान करेंगे तो आत्मज्ञान होगा, स्वयं का ज्ञान होगा, शरीर का ज्ञान, चेतना का ज्ञान, अपनी-अपनी प्रकृति, अपने-अपने गुण-धर्मों का ज्ञान होगा। इस ज्ञान से ही अज्ञान की कारा कटेगी। जिस ध्यान को धरकर महापुरुषों ने ज्ञान पाया हम भी २७४ For Personal & Private Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस ध्यान को करके, उसी ज्ञान को प्राप्त करने की, उस ज्ञान का उदय करने की कोशिश करेंगे । ध्यान मार्ग है, रास्ता है। पतंजलि ने यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि का मार्ग दिया । ध्यान एक कला है, गुर है जो हमें आत्म-ज्ञान देता है । ध्यान करना बहुत सरल है, इसे कठिन न समझें । तपस्या फिर भी कठिन है, दान देना भी कठिन है, पर ध्यान...यह तो बहुत सरल है। शांत स्थान पर बैठ जाएँ, आँखों को बंद कर लें, भीतर की आँखों को खोल लें। पहले पाँच-दस मिनिट तक लम्बे गहरे श्वास लें, लंबे गहरे श्वास छोड़ें। फिर पाँच-दस मिनिट तक मंद-मंद श्वास लें और मंद-मंद श्वास छोड़ें। दस से पन्द्रह मिनिट तक यह प्राणायाम पहले कर लें । लम्बे गहरे और मंद श्वास-प्रश्वास लेने - छोड़ने से श्वास और चित्त के बीच में एकलयता आ जाती है, तारतम्य बन जाता है । हम अपनी प्राण- चेतना करीब हो जाते हैं । साँस ही एकमात्र जरिया है जिसके द्वारा हम प्राण - चेतना के करीब हो पाते हैं। अगर ऐसे सीधे ही ध्यान में बैठ गए तो एक मिनिट भी मन न टिकेगा बल्कि भटकने लग जाएगा। इसलिए पहले श्वासों के साथ एकलय होते रहें । तब तक श्वास-प्रश्वास करते रहें जब तक साँस हमारी प्राण-चेतना के साथ एकाकार न हो जाए। जैसे ही लगे कि हम भीतर से ऊर्जावान होने लगे हैं, ऊर्जा हमारी पकड़ में आने लगे तो श्वास को मंद करते जाओ, मंद करते जाओ और मंद करते-करते-करते ऐसी स्थिति आ जाएगी कि हर तरह के प्रयास से मुक्त हो जाओगे और अनायास सहज ध्यान की अवस्था बन जाएगी। उस ध्यान की अवस्था में इन्द्रियाँ शांत हो गई हैं, मन शांत हो गया है, केवल हृदय के द्वार पर खड़े होकर हम जीवन को समझ रहे होते हैं, अपनी अन्तरात्मा में उतर रहे होते हैं । अन्तरात्मा को जी रहे होते हैं, अपनी अन्तरात्मा का ज्ञान प्राप्त कर रहे होते हैं। उस अन्तरात्मा के ज्ञान से ही यह बोध होता है शरीर शरीर है और मैं शरीर से भिन्न हूँ । देह जड़ तत्त्व है और मैं चैतन्य तत्त्व हूँ । सचेतनता में ही चेतना, चैतन्य का आविष्कार होता है । यह एकलयता और एकरसता जो भीतर बनेगी वही हमारे भीतर चैतन्य को प्रगट करेगी। मैंने कहा था कि चिंगारी के जरिए ही आत्मज्ञान के दीपक को जलाया जा सकता है, इस आधा घंटे के ध्यान से आत्मज्ञान के प्रकाश की किरण उभरकर आएगी, For Personal & Private Use Only २७५ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम उस आंशिक आत्मज्ञान की किरण के सहारे अपने पूरे जीवन में ज्ञान की रोशनी फैला सकते हैं, ज्ञान के दीप जला सकते हैं और जीवन को ज्ञानमय बना सकते हैं। इस तरह जनम-जनम से बनी मिथ्यात्व की काराओं को, मिथ्यात्व के अँधेरों को, अज्ञान के अँधेरों को काटने में सफल हो सकते हैं। सम्यक्त्व का बीजारोपण कर सकते हैं, सत्य-बोध का बीज-वपन कर सकते हैं। चौथा काम यह करना है कि शरीर के जितने भी गुण-धर्म हैं उन गुणधर्मों को समझने का प्रयत्न करें। उनके परिणामों को समझने का प्रयत्न करें। शरीर का गुणधर्म है भूख लगना और भूख लगने पर जो-जो भी खाया उसके परिणाम पर गौर करो। जैसे ही परिणाम पर गौर करोगे हमारे भीतर एक आध्यात्मिक दष्टि उपलब्ध होगी. एक आध्यात्मिक क्रांति होगी। तब लगेगा इत्र लगाया था सुबह, पर शाम को तो शरीर से बास ही आ रही है। सुबह परफ्यूम लगाया था, पर शाम को तो बदबू ही आ रही है। शाम को तो सुस्वादु भोजन किया था, पर सुबह पता चला यह है शरीर और यह है भोजन का परिणाम । तब देह का धर्म स्वतः महसूस हो जाएगा। अन्ततः शरीर में डाले गए, शरीर पर लगाए गए हर तत्त्व का परिणाम दूषित ही होता है। और जब ‘दूषित ही होता है' यह बोध जग जाएगा तो खान-पान, पहनावा, भोग के प्रति हमारे मन में जो बार-बार उत्कंठा, लालसा, तमन्ना, आकर्षण, विकर्षण पैदा होते रहते हैं वे स्वतः शांत होने लग जाएँगे। हम उनके प्रति निरपेक्ष होते जायेंगे। खाना खाना ज़रूरी है पर उसकी लालसा मत जगाओ। गृहस्थ में जीना है, जिओ, पर दो दिन भी पत्नी न मिले तो मन को तड़फन से मत भरने दो। इस तरह देह और आत्मा की भिन्नता का बोध होने पर व्यक्ति सहज हो जाएगा। मोह से छुटकारा पाना होगा तभी हम अनासक्त हो सकेंगे। मन का संकल्प ही मोह को छुड़वा सकता है। कहीं न कहीं से तो अनासक्ति का प्रारम्भ करना होगा तो क्यों न कपड़ों से ही शुरू किया जाए। हम संकल्प लें कि अमुक संख्या में ही वस्त्र रखेंगे। बीस ड्रेस या पचास साड़ी से ज्यादा परिग्रह नहीं रखेंगे। ज्यादा कपड़ों का परिग्रह रखने वाले कपड़ों के प्रति इतने आसक्त हो जाते हैं कि मरकर काकरोच बनते हैं। हम शरीर के परिणामों को समझें फिर वह खानपान, पहनावा या कुछ भी क्यों न हो । जैसे ही परिणाम की अंतिम परिणति २७६ For Personal & Private Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तक पहुँचेंगे वह आपको मार्ग देगा, मिथ्यात्व से उपरत करेगा, आंशिक ज्ञान की झलक दे देगा। हम कपड़ों के प्रति सहज हों, खाने-पीने के प्रति सहज हों, रहवास के प्रति सहज हों । आसक्ति कम करें और सहजता को जीवन का मंत्र बनाएँ । आज के लिए इतना ही काफी है। नमस्कार ! For Personal & Private Use Only २७७ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्माका रहस्य-बोध ज्ञानियों ने जिसे आत्मा कहा है आज हम उस पर चर्चा करेंगे। कहने को तो आत्मा केवल एक शब्द है। पर यह वह तत्त्व है जिसके होने पर जीवन है और जिसके विलग हो जाने पर हमारा शरीर निष्प्राण निष्क्रिय हो जाता है। आत्मा को अगर समझना हो तो सीधा-सा उदाहरण यह है कि जब भी मौका मिले हम श्मशान में जाएँ, वहाँ अर्थी पर सजी हुई लाश को देखें और स्वयं से उसकी तुलना करें। तब हमें लगेगा कि हमारा और उस लाश का शरीर एक जैसा है। पाँचों इन्द्रियाँ भी उस शरीर में हैं। पूरा शरीर और उसकी संरचना हू-ब-हू सामने रहती है, लेकिन एक चीज़ उससे अलग हो जाने के कारण वह लाश बन गई है। यही वह चीज़ है जिसे हम चेतना, आत्मा या प्राण कहते हैं। शब्दों का फ़र्क हो सकता है लेकिन वही ऐसा तत्त्व है, जो हमारे जीवन को संचालित करता है। महावीर तो विशुद्ध रूप से आत्मवादी तीर्थंकर हैं। उनके सिद्धान्तों के सारे पंछी आत्मा के आकाश में ही उड़ते हैं। महावीर की साधना का पहला कदम और अंतिम चरण आत्म-तत्त्व ही है। स्वयं को जानना, स्वयं को जीना, स्वयं में उतरना, यही अलग-अलग भाषा में कभी आत्मज्ञान, कभी २७८ For Personal & Private Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तर्यात्रा, कभी आत्मबोध और आत्मतत्त्व कहलाता है । इसकी आखिरी ऊँचाइयों को छू लेने पर यही कैवल्य और सम्बोधि कहलाता है सामान्यतः प्रत्येक व्यक्ति, हमारे देश में, यह कहते हु मिल जाएगा कि हमारे भीतर आत्मा है, तो हम जीवित हैं । प्राण पखेरू उड़ गया कि इन्सान मर गया। इसके उपरान्त व्यक्ति जीवन भर अपनी आत्मा, अपने प्राणों की परवाह नहीं करता । वह केवल अपने शरीर की ही फिक्र करता है । शरीर के पोषण पर ध्यान देता है, शरीर से पैदा होने वाली संतान, शरीर को सुख पहुँचाने वाली पत्नी, शरीर को सुख देने वाले भौतिक पदार्थ ही उसे रास आते हैं । यद्यपि वह शरीर का ही पोषण करता है तथापि किसी शव को देखकर उसे पल भर के लिए ही सही, यह ख़याल अवश्य आता होगा कि आत्मा ही जीवन का आधार है । व्यक्ति अपनी आत्मा की परवाह नहीं करता, न उसके दर्शन की, न उसे जानने की और न ही उसे सही मार्ग पर लगाने की । 1 सच्चाई यह है कि व्यक्ति की आत्मा ही व्यक्ति का 'स्व' है । ज्ञानी कहते हैं कि आत्मा ही व्यक्ति का शत्रु है और आत्मा ही व्यक्ति का मित्र है 1 सही रास्ते पर गतिशील रहने वाली आत्मा ही व्यक्ति की मित्र है, जबकि गलत रास्ते पर चलने वाले व्यक्ति की आत्मा ही व्यक्ति की शत्रु है। सही-गलत दोनों की ज़वाबदेह व्यक्ति की अपनी आत्मा है । शरीर और आत्मा दोनों को एक मानना अज्ञान है, जबकि दोनों को भिन्न-भिन्न मानना ज्ञान का पर्याय है । शरीर का परिणाम तो संसार है और आत्म-भाव का परिणाम निर्वाण है। मातापिता, संतान, पत्नी सभी शरीर के संबंध हैं और जब कोई व्यक्ति शरीर से उपरत हो जाता है, देहभाव से ऊपर उठ जाता है वह आत्मवादी होने की राह पर चल पड़ता है। अपने आत्म-तत्त्व को जानने के लिए, अपने अस्तित्व को समझने के लिए, स्वयं को दुःखों से मुक्त करने के लिए, कर्म - संस्कारों से मुक्त होने के लिए ही महावीर और बुद्ध जैसे लोगों ने संन्यास लिया । उस परम तत्त्व को जानने के लिए वे वर्षों वर्ष जंगलों में रहे, ध्यान करते रहे, नितांत एकांत में रहे, परम मौन की अवस्था में रहकर समाधिस्थ रहे। स्वयं की घंटों-घंटों विपश्यनाअनुपश्यना करते रहे । स्वयं को निर्मल करते रहे । क्यों ? क्योंकि वे अपने For Personal & Private Use Only २७९ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-तत्त्व के सत्य को जानना चाहते थे । 'आत्मा' महज कोई शब्द नहीं है । आत्मा और अस्तित्व दोनों एक ही हैं। आत्मा का ही दूसरा नाम अस्तित्व है और अस्तित्व का ही दूसरा नाम आत्मा है । सामान्यतः आत्मा तक न तो शब्द पहुँचता है, न ही रूप, रस, गंध, इन्द्रियाँ और बुद्धि पहुँचती है। इनमें से किसी के द्वारा भी उसे ग्रहण नहीं किया जा सकता क्योंकि वह जीवन को धारण करने वाली प्राणमूलक ऊर्जा है। उसका केवल अहसास किया जा सकता है उसे किसी के द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता। क्योंकि इन सबको ग्रहण करने वाली हमारी बुद्धि है, मन है। जबकि हमारी चेतना, हमारी आत्मा मन, बुद्धि और शरीर इन तीनों से परे है। इस तत्त्व को जानने के लिए ज्ञानियों ने ख़ूब साधना की है, खूब तपे हैं, जितना वे तप सकते थे उतना उन्होंने अपने-आपको तपाया और अपनी आत्मा को निर्मल करने का प्रयास किया । यह सामान्य बात नहीं है कि अगर कोई संन्यास लेता है, योग धारण करता है तो इसीलिए कि वह तत्त्व जो भव-भ्रमण कर रहा है उसे मुक्त करने के लिए यह सारे प्रयत्न करता है । इसके लिए वह ब्रह्मचर्य धारण करता है, तप-त्याग करता है, घर-गृहस्थी छोड़ता है । लेकिन जिन्होंने इसके मर्म को समझ लिया है उनके लिए ही आत्म-तत्त्व का मूल्य है और वे निकल पड़ते हैं । महावीर ने संन्यास लिया और संन्यास लेते ही जंगलों की ओर चले गए। I आजकल व्यक्ति संन्यास लेने के बाद या तो पुजारी बन जाता है, या समाज-सुधारक बन जाता है, कोई प्रवचनकार और प्रवक्ता बन जाता है लेकिन महावीर न तो पुजारी बने, न ही ईश्वर की आराधना की, न ही प्रवक्ता या समाज-सुधारक बने । वे तो संन्यास लेते ही एकांत में और घने जंगलों में चले गए। वे केवल आहार चर्या करने के लिए कि इस शरीर को धारण रखना है इस भाव से ही केवल गाँवों तक आया करते थे अन्यथा वे सुनसान स्थानों पर रहा करते थे। उनकी आँखों में एक ही लक्ष्य था आत्म-तत्त्व की प्राप्ति । यही व्यक्ति का परम सत्य है जिसे जानने, समझने, उसके ब्रह्म स्वरूप को पहचानने में लगे रहे। नरसी ने गाया है - ज्यां लगी आत्मा चीन्ह्यो नहीं त्यां लगी साधना सर्व - २८० - - झूठी । जब तक किसी व्यक्ति ने अपने आत्म-तत्त्व को नहीं समझा, तब तक उसकी सारी साधना व्यर्थ है । महावीर जंगलों में तपकर मानव समाज के बीच For Personal & Private Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आए और व्यक्ति के आध्यात्मिक कल्याण, आत्म-विकास के लिए प्रवचन और उपदेश दिए। हज़ारों पुस्तकों के रूप में उन सत्पुरुषों की दिव्य वाणी गुंजित है। आज भी हम उन्हें पढ़ते हैं और उनसे रोशनी पाने का प्रयास करते हैं। हम अगर जीवन के मूल तत्त्व तक पहुँचना चाहते हैं तो व्यावहारिक रूप से जानें कि यह क्या है। सामान्यतः मनुष्य की चेतना, इसकी अन्तर्-आत्मा का मूल केन्द्र हमारा हृदय है। हृदय का अर्थ शरीर का पंपिंग स्टेशन नहीं है, वरन् हमारे सम्पूर्ण वक्षस्थल में समाहित ऊर्जा का केन्द्र ही हमारी अन्तआत्मा और चेतना का केन्द्र है। वक्ष-स्थल में हमारे आत्म-प्रदेशों का घनत्व है, हमारी ऊर्जा व चेतना का घनत्व है। इसीलिए लकवाग्रस्त या कोमा में जाने के बावजूद व्यक्ति जीवित रहता है, क्योंकि उसे ऊर्जा मिल रही है। जैसे ही ऊर्जा मिलनी बंद होती है सेल्स की ताकत क्षीण हो जाती है, व्यक्ति मृत हो जाता है। जो व्यक्ति उस हृदय के तत्त्व को पहचानता है, उसे जान लेता है, तब वह मृत नहीं, अमृत हो जाता है। इस तरह हृदय हमारी अन्तआत्मा का मूल केन्द्र है लेकिन उसकी ऊर्जा, उसका चैतन्य-प्रवाह और चैतन्य-प्रदेश हमारे पूरे शरीर में व्याप्त है। चींटी के शरीर में चींटी जितना और हाथी के शरीर में हाथी के शरीर के प्रमाण के अनुसार इस ऊर्जा और घनत्व का प्रवाह रहता है। इन्सान के शरीर में इंसान के शरीर के अनुसार ही चेतना का घनत्व होता है। जब व्यक्ति यहाँ से मुक्त होता है, निर्वाण को उपलब्ध होता है तब वह जिस आकार में, जिस रूप में होता है उसकी चेतना का घनत्व अनंत ब्रह्माण्ड की ओर उड़ने लगता है तब वह मरणधर्मा शरीर के आकार का ही होता है। यह तो आत्मा के रूप और आकार की बात है। जहाँ तक आत्मा के अस्तित्व की बात है यह व्यक्ति के जन्म से पहले भी होती है और मरण के बाद भी रहती है। अगर आत्मा नामक तत्त्व नहीं होगा तो जन्म व मरण भी नहीं होगा। व्यक्ति के शरीर के द्वारा जब किसी तत्त्व का निर्माण होता है तब जन्म होता है। यह न समझें कि नर व मादा के शुक्राणु अंडाणुओं के संयोग से जीवन का निर्माण होता है बल्कि उसमें जब आत्मा नामक तत्त्व प्रविष्ट होता है तब जीवन का प्रादुर्भाव होता है। डॉक्टर्स बताते हैं कि एक बार के निःसृत शुक्राणुओं में चार हजार जीवन देने की क्षमता होती है लेकिन इतने जन्म २८१ For Personal & Private Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 होते नहीं हैं, क्यों ? क्योंकि हर शुक्राणु में आत्मा प्रवेश नहीं पाती । यद्यपि आजकल परखनली में शिशुओं को बनाया जा रहा है लेकिन उसमें भी गर्भ के सारे साधन उपस्थित करने होते हैं । वैसा ही द्रव - तरल वहाँ उसी तापमान पर उपलब्ध कराना होता है। और अन्ततः तो उसे माँ के गर्भ में ट्रांसप्लांट करना ही होता है। और उसमें भी प्राणतत्त्व का प्रवेश होता है तभी वह जीवित रह सकता है। जब तक बैटरी में सेल नहीं लगाए जाएँगे तब तक रोशनी पैदा न हो सकेगी। आवश्यक नहीं है कि प्राणतत्त्व को प्रगट होने के लिए माँ का गर्भ मिले। परखनली भी एक गर्भाशय है, उसे भी गर्भ का ही रूप दिया गया है। जो-जो शरीर के निर्माण की प्राकृतिक व्यवस्था है वह प्रकृति के हाथ में ही है। एक हड्डी टूट जाए तो उसे जोड़ना डॉक्टर के लिए चुनौती भरा कार्य है। उसके बाद भी वह कैसी जुड़ेगी, सही जुड़ पाएगी या नहीं, कुछ कहा नहीं जा सकता। लेकिन प्रकृति नौ महीने में अपना सब कुछ निर्माण कर देती है । वह भी सब कुछ सुव्यवस्थित ढंग से। माँ चलती-फिरती है, उठती - बैठती भी है, भीतर में सब कुछ संचालन भी होता होगा, फिर भी भीतर के सरोवर में नौका ढंग से बनती रहती है। यह प्रकृति की व्यवस्था है । इसलिए धर्म तो यही कहेगा कि जन्म से पहले भी उसका अस्तित्व रहा और मृत्यु के बाद भी उसका अस्तित्व रहेगा । 1 हमारे मन के किसी कोने में यह आस्था और श्रद्धा अवश्य विद्यमान है कि मरने के बाद भी व्यक्ति कहीं-न-कहीं अवश्य रहता है, तभी तो हम स्वर्गीय शब्द का प्रयोग करते हैं । स्वर्ग को स्थान समझते हैं और सोचते हैं कि हमारे आत्मीय या प्रियजन वहाँ रहते होंगे। तभी तो उनकी स्मृति में दान, धर्म या कोई कल्याणकारी कार्य किया जाता है । यह मान्यता है कि स्वर्गस्थ जीव के नाम पर जो दिया जाएगा वह उस आत्मा की सद्गति में सहायक होता है । बूढ़ेबुजुर्ग गुज़र जाते हैं तो उनके पीछे रोना-धोना नहीं करते। यह मानकर कि वह जीव पूरी उम्र पाकर गया है। बेटे - पोते सब रामजी राजी हैं उसके । स्वर्गवास के बाद तो वैसे भी रोने-धोने का मतलब नहीं है। रोओ तो तब जब उस जीव की गति बिगड़ गई हो । स्वर्गवास होना तो सद्गति को उपलब्ध होना है । और अच्छी योनि मिली, देव - गति प्राप्त हुई । कहते हैं : किसी महानुभाव की लड़की की मृत्यु हो गई । वह बहुत छोटी २८२ For Personal & Private Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उम्र की ही थी । पिताजी हर समय उसकी याद में रोते रहते, रात भर नींद नहीं 1 आती, खाना खाते तो बेटी की याद आ जाती और वे खाना नहीं खा पाते । ऐसे ही दिन बीत रहे थे कि एक रात उन्होंने सपना देखा कि - एक परीलोक है, वहाँ नन्हीं-नन्हीं परियाँ उड़ रही हैं, इधर-उधर आ-जा रही हैं। हाथों में मशाल थामकर शोभायात्रा निकाल रही हैं। किसी के हाथ में मशाल है, किसी के हाथ में मोमबत्ती है। उन्हीं के बीच एक परी ऐसी थी जिसकी मशाल बुझी हुई थी । उस व्यक्ति ने परी को ध्यान से देखा और कहा बेटा, आपकी मोमबत्ती बुझी हुई क्यों है ? इतना सुनकर परी ने अपने भाल पर आए हुए बाल हटाए, वह व्यक्ति तुरंत पहचान गया कि अरे, यह कोई अन्य नहीं उसकी अपनी ही बेटी है। उसने फिर से अपना प्रश्न दोहराया। उस नन्हीं परी रूप बच्ची ने कहा - पिताजी, यहाँ मेरी सहेलियाँ रोजाना मेरी मोमबत्ती को जलाने का प्रयत्न करती हैं लेकिन वह हर बार बुझ जाती है। पिता ने पूछा- बेटा, बुझने का क्या कारण है ? परी ने कहा - पिताजी आप वहाँ नीचे आँसू ढुलकाते रहते हैं, जो सीधे मेरी मोमबत्ती पर आकर गिरते हैं और फिर चाहे जितनी बार मोमबत्ती जलाई जाए यह बुझ ही जाती है। पिता ने पूछा- बेटा, मुझे क्या करना चाहिए कि तुम्हारी मोमबत्ती हर समय जलती रहे। परी ने कहा- पापा, आप आँसू बहाने की बजाय हर समय खुश रहा करें, मेरी मोमबत्ती अपने-आप हर समय जलती रहेगी। - तभी उस व्यक्ति की आँख खुल जाती है और उसे जीवन भर की सीख मिलती है कि अगर बेटी को सुख पहुँचाना है, उसे खुशी देनी है तो रोते रहने के बज़ाय खुश रहना चाहिए ताकि बेटी को भी खुशी मिल सके और उसकी मोमबत्ती हमेशा जली हुई रह सके । स्वर्ग और नरक दोनों आत्मा की ही अलग-अलग अवस्था है । जब हम आत्म-तत्त्व को स्वीकार करते हैं तब शेष सभी व्यवस्थाओं को स्वीकार करने के मार्ग और संभावनाएँ हमारे सामने उपस्थित होनी शुरू हो जाएँगी । अगर आत्म-तत्त्व को स्वीकार न किया तो आगे के सारे दरवाजे बंद हो जाएँगे । जब तक व्यक्ति उस चैतन्य को, जीवन धारण करने वाले तत्त्व को स्वीकार नहीं करेगा, उसके पुनर्जन्म को अस्वीकार करेगा तो कहाँ से देवलोक और मोक्ष होगा ? हम अपनी स्थूल आँखों के द्वारा स्थूल शरीर को ही देख सकते हैं लेकिन इस शरीर को धारण करने वाली चेतना को नहीं देख पाते । सूक्ष्म तत्त्व को, सूक्ष्म शरीर को For Personal & Private Use Only २८३ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जानने के लिए हमें भी सूक्ष्म रास्तों को थामना होगा। ध्यान उसी सूक्ष्म मार्ग का नाम है। ध्यान का मतलब है पूरी बारीकी से, निश्चल होकर गौर करना । ध्यान डुबकी है - स्वयं में डुबकी, अपने-आप में डूबने का नाम ही ध्यान है। ध्यान में उतरने वाला साधक स्वयं को आत्मवान् मानता है। सोऽहं - मैं वह हूँ, मैं आत्मा हूँ। अनन्त ज्ञान, दर्शन से सम्पन्न आत्मा । अगर हमने आत्मा को स्वीकार न किया तो वही चार्वाक दर्शन चल पडेगा कि खाओ-पिओ. मौज उड़ाओ। किसी से क्या लेना-देना, हिंसा, लूटपाट, झूठ-प्रपंच यही जीवन में समाहित हो जाएगा, यही दुनिया में फैल जाएगा। न पूर्वजन्म है, न मृत्यु पश्चात् जन्म है। व्यक्ति अगर बेईमानी से पैसा कमा रहा है तो वे कहते हैं फिर पैसा ही कमाओ । जब कोई फल ही नहीं है तो बेईमानी करो या न करो क्या फ़र्क पड़ता है। ऐसा नहीं है कि किसी भय से व्यक्ति को पाप नहीं करना चाहिए, यह तो सामाजिक मूल्यवत्ता है और सामान्य व्यक्ति के लिए ठीक भी है कि व्यक्ति का पुनर्जन्म होगा तो उसे अपने किये का फल भोगना होगा। लेकिन एक सचेतन साधक या सचेतन आत्मवान व्यक्ति जीवन को भली-भाँति देखकर उसे स्वीकार कर रहा होता है कि देह और आत्मा दो अलग तत्त्व हैं। इसीलिए मैंने प्रारम्भ में ही कहा था कि शव अर्थात् मृत देह हमें बिना परिश्रम के यह समझा देती है कि कोई-न-कोई ऐसा तत्त्व अवश्य है जिसके कारण हम जीवित हैं और उसके निकलते ही हम मर जाते हैं। जिन्हें उस तत्त्व का बोध नहीं होता वे ही किसी के मर जाने पर रोया करते हैं। मेरे पिता ने भी शरीर छोड़ा पर मैं नहीं रोया, एक भी आँसू न आया। रोते वही हैं जिसके पास जीवन की समझ, जीवन की अन्तर्दृष्टि नहीं होती। क्योंकि पता है शरीर मरणधर्मा है । जो मरणधर्मा है वह तो मर गया और जो मरणधर्मा नहीं है वह शरीर से मुक्त हो गया। शरीर के समापन को समापन समझा तो हम ज़रूर रोएँगे लेकिन जिसने यह जान लिया, जिसे यह बोध हो गया कि शरीर तो सभी का एक न एक दिन छूट ही जाने वाला है, वह मृत्यु का द्रष्टाभर रहेगा। हाँ, हमारे प्रेम और अनुराग के कारण, उनके साथ घटी घटनाओं को याद करके दो आँसू भले ही आ जाएँ पर वे मर गये यह सोचकर आँसू कभी न आएँगे। तब व्यक्ति सहज ही जन्म भी देखेगा और मृत्यु से भी गुजर जाएगा। Jai &cation International For Personal & Private Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गांधीजी को गोडसे ने गोली मार दी थी, उनका प्राणांत हो गया तब गांधीजी के बेटे ने कहा था कि मेरे पिता अहिंसा के पुजारी थे इसलिए उनके हत्यारे को फाँसी की सजा न दी जाए, उसे भी अहिंसा का ही संदेश दिया जाना चाहिए। वह गोडसे से मिला, तब गोडसे ने कहा - मैंने तेरे पिता को गोली ज़रूर मारी है लेकिन गांधी कभी नहीं मर सकते। यह शरीर मरता है, आत्मा कभी नहीं मरती। गोडसे का भी शरीर मरेगा लेकिन जो चेतना है वह कभी नहीं मरेगी। हमारे यहाँ गीता में कहा है - नैनं छिंदंति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः - आत्मा को न तो शस्त्रों से छेदा जा सकता है, न ही अग्नि से जलाया जा सकता है, आत्मा अमर है। शरीर और इसकी पर्यायों की धारणा है इसलिए जब कोई पर्याय अनुकूल या प्रतिकूल बनती है तब हम प्रतिकूल पर्यायों को गिरा दिया करते हैं। तभी भगवान कृष्ण ने अर्जुन से यही कहा था - जिन्हें तुम समझते हो ये मेरे परिजन हैं वे वास्तव में परिजन नहीं हैं। जो धर्म का साथ छोड़कर अधर्म का साथ दे रहे हैं, जो घर की बहू का चीर-हरण कर रहे हैं, जुए में षड्यंत्र करके अपने भाई के साथ अत्याचार कर रहे हैं, जो हर तरह की मर्यादा का त्याग कर चुके हैं तुम उन्हें किस आधार पर अपना परिजन कहोगे ? ये तो मर चुके हैं। अब केवल इन्हें नीचे गिराना है, इनकी आत्मा तो पहले से ही मर चुकी है। इनका मरना केवल चोलों का उतरना-भर है। हमारे देश में आत्मा की शाश्वतता का संदेश दिया जाता है और कहा जाता है कि किसी के जन्मने पर खुश मत होओ और किसी के मर जाने पर गम मत करो। इसीलिए जब अभिमन्यु चक्रव्यूह में मारा जाता है और अभिमन्यु की माँ बहुत क्रन्दन करती है तब श्रीकृष्ण उसे कहते हैं - लगता है अभी तुमने अपने मन को ठीक ढंग से नहीं समझा। जीवन के मर्म को ठीक ढंग से नहीं जाना, भानजा तो मेरा भी है। इसलिए ये क्षण शोक करने के नहीं हैं। इसने अमरता हासिल की है। यह वीर गति को प्राप्त हुआ है । आने वाला इतिहास याद रखेगा कि अभिमन्यु ने अपने परिवार के लिए प्राणों का उत्सर्ग कर दिया । यदि तुम कृष्ण की सगी बहन हो तो मैं तुमसे कहूँगा कि अपनी ममता के मोह से, इसके व्यामोह से अपने पुत्र को मुक्त कर दो, ताकि वह तुम्हारे मोह के कारण दुनिया के आस-पास न मँडराता रहे। वह मुक्त होकर परम बैकुंठ धाम को प्राप्त करे। For Personal & Private Use Only २८५ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब अभिमन्यु की देह के पास माँ आती है और यह कहते हुए मुक्त करती है - जाओ पुत्र, मैं माँ हूँ इसलिए तेरे प्रति ममता तो ज़रूर उमड़ेगी, लेकिन मैं तेरी मुक्ति में बाधा नहीं बनूँगी । जाओ, मैं तुम्हें अपनी ममता के पाश से मुक्त करती यह हमारी संस्कृति और अध्यात्म की बुनियाद है कि व्यक्ति इस तरह अपने आत्म-तत्त्व को स्वीकार कर रहा है। भगवान कृष्ण, जो अर्जुन को युद्ध करने के लिए प्रेरित तो करते हैं, फिर भी यही कहते हैं - अगर तू जीत जाएगा तो पृथ्वी पर राज करेगा और मर गया तो स्वर्गलोक का अधिपति बनेगा। दोनों ओर से तुम्हारी जीत ही है क्योंकि मैं तुम्हारे साथ हूँ और मैं इसलिए तुम्हारे साथ हूँ क्योंकि तुम धर्म के और धर्म तुम्हारे साथ है। हम कह सकते हैं कि आतंकवादियों को इस तरह के पैग़ाम देते हुए समझाया जाता है लेकिन वे सुधरते नहीं हैं। तो सबके अपने-अपने धर्म हैं, उसूल हैं और वे लोग अपने उसूलों को समझाने का प्रयत्न करते हैं। लेकिन, उनके साथ सत्य नहीं है, धर्म नहीं है इसलिए हम कहते हैं कि वे गलत हैं। अगर वे किसी की बात करते हैं तो देखें कि वे ज़मीन के लिए लड़ रहे हैं। वे ज़मीन को ही अपना हक समझ रहे हैं जबकि कृष्ण ने अंतिम चरण तक यही प्रयत्न किया कि विश्व अगर टिका रहेगा तो शांति के बल पर न कि युद्ध के बल पर । उन्होंने अंतिम क्षण तक प्रयत्न किया कि किसी भी तरह युद्ध टाला जा सके तो युद्ध टल जाना चाहिए। वे स्वयं शांतिदूत बनकर जाने को तैयार हो गए, जबकि वे कोई राजदूत नहीं थे फिर भी वे कोशिश कर रहे थे कि उनके समझाने से ही अगर युद्ध टल सकता है तो ज़रूर टल जाना चाहिए क्योंकि युद्ध अंतिम से अंतिम शस्त्र है। जब इन्सान के पास कोई भी विकल्प न बच पाए तब इसके बारे में सोचना चाहिए। अन्यथा युद्ध पाप है। विश्वशांति और विश्व-बंधुत्व के लिए पाप है। तब श्रीकृष्ण हस्तिनापुर जाते हैं और धृतराष्ट्र से कहते हैं - राजन्, वर्तमान में सारी पृथ्वी का राज्य आपके अधीन है, आप चक्रवर्ती सम्राट हैं, चारों ओर हस्तिनापुर का ही शासन है, मैं आपसे अधिक नहीं केवल पाँच गाँव माँगता हूँ। आप पाँच गाँव भी देने को राजी हो जाते हैं तो मैं पांडवों की ओर से आपको वचन देता हूँ कि पांडव वापस लौट जाएँगे। लेकिन जब उन्हें यह सुनने को २८६ For Personal & Private Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिलता है कि पाँच गाँव तो क्या हम एक इंच जमीन भी न देंगे तब श्रीकृष्ण ने कहा - धृतराष्ट्र आने वाला कल आपको कोसेगा, इतिहास आपको कलंक देगा कि यह वह पिता था जिसने एक बेटे के व्यामोह में आकर दूसरे बेटे के साथ सौतेला और छल-प्रपंच भरा व्यवहार किया । श्रीकृष्ण ने ऐसा संदेश दिया कि वे बिल्कुल नहीं चाहते कि युद्ध हो । मेरा मानना है कि अगर आज इन्सान अपने निहित चंद स्वार्थों के लिए युद्ध कर रहा होगा तो आने वाला कल उन्हें माफ़ नहीं करेगा । और सच्चे रूप में खुदा से या ईश्वर से पूछा जाए तो क्या वे चाहेंगे कि एक इन्सान द्वारा दूसरे इन्सान का कत्ल हो ? अगर यह मानें कि खुदा ने केवल मुसलमानों को बनाया, ईश्वर ने केवल हिन्दुओं को बनाया, गॉड ने केवल ईसाइयों को बनाया तब हम ज़रूर जुदा-जुदा हो गए। लेकिन जब हम कहते हैं कि प्रभु एक है, सबका मालिक एक है, सत्य एक है, खुदा एक है, सारी ज्योतियाँ एक हैं तब भेद कैसा । यह भेद उसके घर से नहीं है, हमारी संकीर्णताओं के कारण सारे भेद हैं। अगर एक जैन व्यक्ति चींटी को भी नहीं मारना चाहता, उसे बचाने की कोशिश करता है तो इसी कारण कि वह मानता है जैसे मैं एक आत्मा हूँ वह भी एक आत्मा है। जैसे मुझे जीने की इच्छा है वैसे ही उसे भी जीने की चाहत है, जैसे मैं मरना पसंद नहीं करता वैसे ही वह भी मरना पसंद नहीं करता। मैं भी जीना चाहता हूँ, वह भी जीना चाहता है । तभी तो महावीर कहते हैं - जीओ और जीने दो । Live & let live. I हम लोग सभी धर्मों का, धर्म-शास्त्रों का सम्मान करते हैं । अगर मैं ईश्वर की प्रार्थना कर रहा हूँ तो मान लें कि खुदा की बन्दगी अपने आप हो ही रही है। मेरी दृष्टि में खुदा और ईश्वर एक ही हैं, शब्द भले ही अलग हों। उर्दू में रूह, इंग्लिश में सोल और हिंदी में आत्मा कहने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है। दूध को दूध कहा या मिल्क कहा, दूध के तत्त्वों में फ़र्क नहीं आ गया अन्यथा मूल तत्त्व तो एक ही है। हमारे लिए जो आत्म-तत्त्व कहलाता है यह वो मूल तत्त्व है जो हम सबके जीवन का आधार है। यह शाश्वत तत्त्व है । हमारे जन्म से पहले भी इसका अस्तित्व रहा और हमारी मृत्यु के बाद भी इसका अस्तित्व रहेगा । For Personal & Private Use Only २८७ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (बीच में प्रश्न आया) क्या हमें आतंकवादियों का कत्ल कर देना चाहिए ? (उत्तर) इस संबंध में मेरा अनुरोध है कि हर व्यक्ति को जीने का हक है और उसे यह हक देना चाहिए। हाँ, यह भी कि हममें से प्रत्येक का दायित्व है कि ऐसे लोगों से सम्पर्क करके उन्हें सही रास्ते पर लाने की कोशिश करनी चाहिए । जैसे उन लोगों के जत्थे के जत्थे कुर्बान हो रहे हैं हक की लड़ाई के नाम पर, वैसे ही अहिंसा के नाम पर, जो विश्व में शांति चाहते हैं, उन्हें भी अपनी कुर्बानी देनी पड़ेगी। तभी उनसे सम्पर्क साध सकेंगे, उनके करीब पहुँच सकेंगे। जिस तरह वे हिंसा के नाम पर मर रहे हैं वैसे ही हमें अहिंसा के नाम पर मरना सीखना होगा। उन्होंने तो हिंसा के नाम पर मरना सीख लिया है तभी वे झट से मानव बम बनकर उड़ाने का प्रयत्न करते हैं। लेकिन जो अहिंसा में विश्वास करते हैं वे मरना नहीं सीख पाए, अहिंसा के नाम पर मारना तो भूल गए, पर मरना नहीं सीख पाए। आज अगर महावीर, बुद्ध या गांधी आ जाएँ तो उन्हें किसी प्रकार के बॉडी-गार्डों की जरूरत नहीं पड़ेगी जैसी कि हमारे प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति को पड़ती है। भले ही गांधीजी की हत्या हो गई पर बॉडी-गार्ड न थे। अहिंसा में भरोसा रखने वाले मारते भले ही न हों पर वे मरना भी जानते हैं। प्राचीन समय के ऋषि-मुनियों पर भी राजा आतंक मचाते, राक्षस आक्रमण करते, घाणी में पेला जाता । वे हँसते-हँसते घाणी में जुत जाते, मर भी जाते, फिर भी अपने धर्म पर, अपने ईश्वरीय भाव पर अडिग रहते। सभी को जीने का अधिकार है। आतंकवाद से सामना करना विश्व के लिए चुनौती बन चुका है। ख़ास तौर से जब चारों ओर इतने अधिक अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण हो गया है तब यही कहने में आता है कि दुनिया बारूद के ढेर पर बैठी है। एक अणुबम से शहर के शहर तबाह किए जा सकते हैं । रासायनिक गैसों से हजारों आदमियों की जानें ली जा सकती हैं। ऐसे हथियार जब आतंकवादियों, उग्रवादियों के पास पहुंच चुके हों तब उन लोगों को अहिंसा, शांति और प्रेम के मार्ग पर लाना संसार के लिए सबसे बड़ी चुनौती है, असंभव-सा कार्य है। ___ हम सभी सुरक्षित जीवन जीना चाहते हैं, कोई ख़तरा नहीं उठाना चाहते। साँप के बिल में कौन हाथ डाले ? तब यह ज़रूर कहा जाता है कि हम अहिंसा २८८ For Personal & Private Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यात्रा कर रहे हैं लेकिन जो अपने ही क्रोध को शांत न कर पाया, अभद्र भाषा से बाहर नहीं निकल पाया, मन में संयम ही न आ पाया, प्रेम और शांति प्रगाढ़ न हो पाई वह व्यक्ति अहिंसा रूपी ढाल के बलबूते कैसे सामना कर सकेगा ? आज के युग में यह आश्चर्य ही माना जाता है कि लँगोटीधारी गांधी ने सत्य और अहिंसा के बल पर इस देश को उस ब्रिटिश राज्य से आजाद कराया जिसके लिए कहा जाता था कि उनके साम्राज्य में सूरज नहीं डूबता । चारों ओर दमन, आतंक और शस्त्र के बलबूते विजय पाने वाला अंग्रेजी-शासन सत्य और अहिंसा के सामने निःशस्त्र हो गया । यह अहिंसा की बहुत बड़ी विजय है। लोग सत्य के साथ हो गए और अहिंसामूलक कुर्बानियाँ दीं। शायद विश्व में भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जिसकी आज़ादी में अहिंसा प्रतिष्ठित हुई। गांधीजी आज विश्ववंदनीय हैं क्योंकि उन्होंने संहार का नहीं मानव को मानव से जोड़ने का अभियान चलाया। उनकी ताक़त अहिंसा थी। यह दुनिया भी अहिंसा के आधार पर ही टिक सकेगी। हिंसा से दुनिया टिक ही नहीं सकती। शस्त्रों से दुनिया को मिटा सकते हैं, बना नहीं सकते। बुद्ध जब अंगुलीमाल के सामने पहुंचे और अंगुलीमाल ने जैसे ही अपना शस्त्र उठाया, बुद्ध ने कहा - तुम मुझे मारो इसके पहले एक काम करो, सामने जो वृक्ष है उसकी एक डाल काट दो । अंगुलिमाल झट से गया और डाल काट दी। बुद्ध ने कहा - तुमने डाल काट तो दी लेकिन क्या इसे वापस जोड़ भी सकते हो ? अंगुलीमाल ने कहा - नहीं, जोड़ तो नहीं सकता। बुद्ध ने कहा - जो आदमी जोड़ नहीं सकता उसे किसी को तोड़ने का अधिकार कैसे हो सकता है ? अगर मैं आपको प्यार नहीं करता हूँ तो मुझे आपको डाँटने का कोई हक नहीं है। डाँटने का अधिकार प्यार करने पर ही मिलता है। कोई भी माँ, पिता या गुरु तभी डाँटने के हकदार हैं जब वे प्यार करते हैं। हिंसा एक चुनौती है। आज अस्त्र-शस्त्र की भाषा ही चल पड़ी है। श्रीकृष्ण ने युद्ध का विकल्प चुना नहीं था, उसे मज़बूरी में स्वीकारा । उन्होंने माना कि युद्ध किसी भी समस्या का हल नहीं हो सकता। युद्ध अंतिम है, इसलिए अंतिम क्षण तक हमें शांति का ही प्रयत्न करना चाहिए । युद्ध के बारे में तो सोचना भी नहीं चाहिए। महाभारत का क्या परिणाम हुआ ? अनगिनत लोग मारे गए, अनगिनत बहनों की राखियाँ लुट २८९ For Personal & Private Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गईं, अनगिनत महिलाओं के सिंदूर की होली खेली गई, अनगिनत माताओं की कोख उजड़ गई। आज आतंकवादी हम पर हमला कर रहे हैं, ज़वाब में हम हमला करेंगे, कुल मिलाकर दुनिया ही तहस-नहस हो रही है। हो सकता है ऐसा करने से एक लाख उग्रवादी मारे जाएँ पर आम जनता भी तो मारी जाएगी जिसका आतंकवाद और उग्रवाद से कोई लेना-देना ही नहीं है। इसीलिए झटपट बंदूकें नहीं उठाई जा रही हैं। अगर बंदूकें ही समाधान होतीं तो भारत और पाकिस्तान में से एक ही देश बचता। जबकि सच्चाई यह है कि अगर बंदूकें उठीं तो न भारत रहेगा और न ही पाकिस्तान बचेगा। तब चारों ओर केवल श्मशान रह जाएंगे, ज़मीनें रह जाएँगी, इन पर हल चलाने वाले लोग नहीं बचेंगे। इन पर प्रेम के गीत गाने वाली चिड़ियाएँ नहीं बचेंगी, शांति के दूत कबूतर नहीं मिलेंगे। फिर क्या बचेगा ? चारों ओर त्राहि-त्राहि ही बचेगी। क्या दोनों देश एक दूसरे पर युद्ध नहीं थोप सकते ? थोप सकते हैं लेकिन नहीं थोपेंगे, क्योंकि इससे दोनों का ही नुकसान है। तभी तो रावण के घर में मंदोदरी भी अंतिम क्षण तक रावण को समझाती रहती है कि अगर तुम जीत भी गए तो इस जीत का जश्न मनाने वाला कौन बचेगा ? तुम अपने सारे पुत्रों को आहूत कर चुके होगे तब इस जीत का जश्न कौन मनाएगा ? मेघनाद, इन्द्रजीत, अक्षय, कुम्भकर्ण जब सब ही युद्ध की भेंट चढ़ चुके होंगे तो जीत का गीत कौन गाएगा ? इसलिए अंतिम दिन तक उसे यही समझाया जाता है पर जब आदमी का अहंकार किसी की सुनने को तैयार ही न होगा तो वह लड़ेगा और अंत में मौत ही आएगी। यह बात अलग है कि मरते समय उसे अहसास हो गया था कि राम साधारण इन्सान नहीं कुछ विशेष हैं। कहते हैं कि रावण, जिसने सीता का हरण किया था, उसकी सद्गति हो गई। रावण के पुतले तो प्रतीकात्मक रूप में जलाए जाते हैं कि कुछ उसने वह किया जो नैतिकता के विरुद्ध था अन्यथा रावण की तो मरते समय ही सद्गति हो गई। उसने अपने अंतिम क्षण में पहचान लिया था कि जिसके द्वारा मैं मारा जा रहा हूँ वह तो ईश्वर का अवतार है, भगवान का ही दिव्य स्वरूप प्रगट हुआ है। तभी तो वह ‘जय श्रीराम' का स्मरण करते हुए अपनी नश्वर देह का त्याग करता है। २९० For Personal & Private Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन लोगों ने इसीलिए स्वीकार किया है कि अंतिम क्षणों में रावण ने जो राम का नाम उच्चारित किया और जो विवेक व मर्यादा बनाए रखी कि जो स्त्री मुझे स्व-इच्छा से जब तक धारण नहीं करेगी तब तक मैं उसे स्पर्श नहीं करूँगा, इस मर्यादा के कारण वह दुर्गति में नहीं गया और जैन मानते हैं कि आगे जो चौबीस तीर्थंकर होंगे उनमें रावण भी एक तीर्थंकर होगा, भगवान का रूप होगा। मेरे विचार से अंतिम क्षणों में भी अगर व्यक्ति की मति सन्मति हो जाती है तो यह वह धर्म है जो व्यक्ति को सम्मान दे सकता है। यह धर्म की महानता है, उसकी गुणानुरागिता है। रावण के पुतलों को जला देने से क्या दुनिया से अधर्म मिटा है ? असत्य का नाश हुआ है ? धर्म की जीत हुई है ? देश में परम्परा-सी बन गई है रावण के पुतलों को जलाने की। अगर कोई व्यक्ति राम का वेश बनाकर पुतलों पर तीर चला रहा है तो वह कोई राम नहीं हो गया है। यह तो प्रतीक है कि इस बहाने ही सही व्यक्ति को कुछ अच्छी प्रेरणा मिल सके कि वह बुराई से बचे और रामजी की तरह अच्छे रास्तों पर चले । यूँ तो सभी जीना चाहते हैं। सभी में एक चेतना है, चेतना में ही जिजीविषा पैदा होती है, आत्मा में ही जीने की चाहत पैदा होती है जिसके चलते हम सब जीना चाहते हैं। इस चाहत की रक्षा करने का नाम ही अहिंसा है। जहाँ तक आत्मा का सवाल है तो वह शाश्वत है। सौ-सौ बार भी अगर देह को जला दिया जाए तब भी आत्मा बरकरार रहती है। महान ज्ञानी और तत्त्वचिंतक इस आत्मा के लिए वर्षों-वर्षों तपे हैं, आत्म-तत्त्व को पहचाना है और इसे पहचानकर दुनिया को भी वह अनुभव बाँटने का प्रयत्न किया। दुनिया को समझाने की कोशिश की कि आत्मा क्या है, इसका कैसा स्वरूप है, वह बँधी हुई क्यों है, इसे कैसे मुक्त किया जा सकता है, इसका मूल स्वरूप क्या है, मुक्त होने के बाद उसे किस तत्त्व की उपलब्धि होगी। दुनिया के सारे धर्मशास्त्र इसकी शुद्धि और निर्मलता के लिए जुड़े हैं। लौकिक व्यवहार में भी हम कुछ शब्दों का प्रयोग करते हैं, जैसे - आत्मसम्मान, आत्मनिर्भरता, आत्मविश्वास । अर्थात् आत्म शब्द जोड़ दिया जो स्वयं का प्रतीक है। यह स्वयं पर विश्वास करना विशुद्ध रूप से धार्मिक आस्था है। For Personal & Private Use Only २९१ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब हिलेरी एवरेस्ट पर चढ़ने को तत्पर हुआ तो दो बार चढ़ा, पर दोनों बार असफल रहा। तब उससे पूछा गया कि दो बार असफल होने पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है तो हिलेरी ने एवरेस्ट के चित्र को देखते हुए कहा - एवरेस्ट तुम जितने ऊँचे हो, तुम उतने ही ऊँचे रहोगे। तुम्हारी मज़बूरी है कि तुम एक फीट भी आगे नहीं बढ़ सकते, लेकिन मैं हिलेरी प्रयत्न करता रहूँगा और एक दिन ऐसा आएगा जब तुम मेरे पाँव के नीचे होओगे और मैं तुमसे ऊपर होऊँगा । यह विश्वास ही व्यक्ति की सारी सफलताओं का जनक है । आत्म-निर्भरता का तत्त्व सभी के अन्दर हो । कोई भी व्यक्ति भीख न माँगे, कोई भी गरीब न हो । ज्यूस की दुकान खोल ले, सिलाई-कढ़ाई की दुकान खोल ले। न कुछ हो तो पत्थर तोड़ने की मेहनत कर ले, कुएँ में से पानी निकालने का श्रम कर ले। किसी भी बहाने आत्म-निर्भर हो जाए। यही तो है धर्म कि व्यक्ति अपने आपके बलबूते खड़ा हो जाए, खुद पर भरोसा जगाए। मैं तो मानता हूँ कि व्यक्ति की आत्मा ही उसका मूल तत्त्व है भले ही वह चौबीसों घंटे धर्म आराधना में न लगा रहे पर चौबीसों घंटे वह इस बात का बोध रखे कि शरीर और उसकी चेतना अलग-अलग हैं। शरीर एक दिन यहीं छूट जाएगा और उसकी चेतना मुक्त हो जाएगी । चेतना है तो शरीर धारण किया हुआ है। वह निकल गई तो मैटर फिनिश । जब व्यक्ति को प्रतिपल इस बात का बोध रहता है कि दोनों भिन्न-भिन्न हैं, जड़ और चेतन भिन्न हैं, शरीर और आत्मा दोनों भिन्न हैं तो वह जानता है कि संसार में संयोग है जो हम सब साथसाथ निभा रहे हैं। मैं आपके साथ और आप मेरे साथ नदी - नाव का संयोग है अन्यथा जीव तो अकेला आता है और अकेला ही चला जाता है । यह एकत्व का बोध ही अध्यात्म-निष्ठा है, भेद - विज्ञान है । ज्यों-ज्यों व्यक्ति आत्मतत्त्व के प्रति अन्तर्-दृष्टि को प्रगाढ़ करेगा त्यों-त्यों शरीर के भाव शिथिल होते जाएँगे। जब तक आत्म-भाव प्रगाढ़ नहीं होता है तब तक शरीर, इसके धर्म, इसकी प्रकृति, इसके गुण हम पर हावी हो जाते हैं। यह सबके लिए एकसमान हैं। एक दिव्य साध्वीजी हुई हैं विचक्षणश्रीजी । कहते हैं इन्हें कैंसर हो गया था । पर जिन्होंने उन साध्वीजी को देखा है, वे भली भाँति जानते हैं कि उनके स्तन-कैंसर में ज़बरदस्त पीड़ा थी, खून - मवाद बहता रहता था तब भी वे हर २९२ For Personal & Private Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय मुस्कुराती रहती थीं। न केवल मुस्कुराती रहतीं बल्कि उनके हाथ में माला रहती थी, वे जप, आराधना, तप जो उन्हें करना होता, करती रहतीं। निश्चित ही उनका शरीर-भाव गौण हो गया था, आत्मभाव प्रगाढ़ हो गया, उसी के कारण, इस भेद-विज्ञान के कारण वह साध्वी इतनी तप सकीं, व्याधि में भी समाधि के फूल खिला सकीं। अगर शरीर-भाव प्रमुख हो तो हम इसका पोषण करते हैं। इसके दर्द को दर्द समझ रहे हैं, इसके बिछोह को बिछोह समझ रहे हैं, इसके संयोग को संयोग समझ रहे हैं। अगर शरीर-भाव गौण हो जाए तो आत्मभाव में रमणता बढ़ जाती है। हम कलकत्ता में थे वहाँ मैंने देखा कि एक अस्सी वर्षीय बुजुर्ग जो आत्म-साधक थे, उनका नाम हरखचंदजी बोथरा था, किसी ने उन्हें बताया कि उनका उन्नीस वर्षीय पोता जो तालाब में नहाने गया था डूबकर मर गया। उस समय उनके चौबीस घंटे का पौषध व्रत लिया हुआ था। शाम के समय यह सूचना आई थी, हम भी वहीं थे, जवाब में वे यही कहते हैं कि - मेरे तो पौषध व्रत है मैं तो घर में आ नहीं सकता इसलिए आप लोगों को जो उचित लगे वह क्रिया कर लीजिए, उसकी अंत्येष्टि क्रिया कर लीजिए। घर के लोगों ने बहुत समझाया कि आपका जवान पोता नहीं रहा और आप धर्मस्थान पर यूँ बैठे हैं यह आपको शोभा नहीं देता। पन्द्रह-बीस मिनिट तक तो उन्होंने बात की फिर कहा - जो होना था सो हो गया, मैं तो मौन व्रत धारण करता हूँ। तब कहा गया कि कल सुबह तो आप आ जाएँगे न ? उन्होंने कहा - कल का कल देखेंगे। अभी अपनी धर्म - आराधना में, चित्त की समता में बीच का विघ्न क्यों डालूँ। घर के लोगों ने हमसे भी कहा, मैं उन्हें कहने भी गया तब ज़वाब में मुझसे भी इतना ही कहा - महाराजजी, जो होना था सो हो गया, मेरे घर जाने से अगर वह जिंदा हो जाए तो मैं ज़रूर चला जाऊँगा। मैंने कहा - जिंदा तो नहीं होगा। तो बोले - ठीक है तब मैं अन्त्येष्टि में शामिल होऊँ या न होऊँ क्या फ़र्क पड़ता है। मैंने देखा, मैं उस व्यक्ति का नाम ससम्मान लूँगा, यह बात लगभग पच्चीस वर्ष पुरानी है और मैंने अपने संन्यास काल के प्रारम्भिक दिनों में इसे जाँचा-परखा और देखा है। मैं स्वीकार करता हूँ कि मेरे जीवन में भेद-विज्ञान की जो थोड़ी-सी किरण मिली है उसके लिए साध्वीश्री विचक्षणश्रीजी का असर रहा। २९३ For Personal & Private Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सच्चाई यह भी है कि मेरे संन्यास पर भी उनका प्रभाव रहा। मेरे भीतर वैराग्य की जो थोड़ी बहुत तरंग आई वह उस साध्वी के कारण ही आई। वे बोथराजी थे, उन्होंने मौन धारण कर लिया। सुबह हुई, नौ बजे लोग उन्हें लेने आए। उस व्यक्ति ने पुनः उस दिन का पौषध - व्रत धारण कर लिया । पहले दिन का उपवास था दूसरे दिन का भी उन्होंने व्रत धारण कर लिया और मौन ले लिया। घर के लोग आ-आकर समझा रहे हैं, पर वे तो मौन हैं। काग़ज़ पर लिखकर रख दिया, ‘आज पुनः मेरे पौषध व्रत है।' मैंने देखा उस व्यक्ति ने न केवल पौषध व्रत लिया अपितु तीन दिन उपवास किए और तीनों दिन पौषधव्रत किया। वे वहीं धर्म-स्थान पर रुके रहे, घर नहीं गए। - यह सब कैसे हो पाया ? अगर शरीर-भाव होता तो बार-बार यह ख़याल कचोटता कि मेरा पोता, मेरा पोता ... । आत्म-भाव प्रगाढ़ था तो पोता पोता नज़र न आया, नज़र आया शरीर शांत हो गया । इसलिए नरसैया ने गाया है - पुत्र मयूं भांगी जंजाल, वे भजी श्रीगोपाल । जब बच्चा छोटा था तभी नरसैया की पत्नी मर गई, पुत्र को पालने - पोसने की जिम्मेदारी आ गई, लेकिन एक दिन ऐसा आया कि पुत्र भी चल बसा। वे तो श्मशान में ही नाचने लगे कि पुत्र मरयूं भांगी जंजाल । जिसके पीछे घर-गृहस्थी में बँधा हुआ था, भगवान ने उसे भी उठा लिया अब मैं सब तरफ से दायित्व - - मुक्त हो गया । अब तो मैं भगवान जी का भजन निश्चिंत होकर करूँगा और उन्हीं में रम जाऊँगा । - ये सब बातें तभी हो पाती हैं जब आत्मभाव प्रगाढ़ होगा। अगर कोई भक्ति के मार्ग पर चल रहा है तो भगवद्-भाव प्रगाढ़ होगा और वह इन सारे संबंधों को ठुकरा कर चला जाएगा। आज अगर कोई संत बनता है तो किस कारण ? क्या उसके माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी-बच्चे, जमीन-जायदाद नहीं होतीं ? ग़रीब से ग़रीब व्यक्ति भी अगर संन्यास लेगा तब भी उसके पास कुछ न कुछ तो ज़रूर होगा, खाने की व्यवस्था तो होगी ही । लोगों को आत्महत्या करना याद रहता है पर संन्यास लेना याद नहीं आता । तो वही व्यक्ति संन्यास ले पाता है जिसके भीतर आत्म-भाव प्रगाढ़ हो गया कि अब मैं स्वयं का, आत्मा का कल्याण करूँगा, २९४ For Personal & Private Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनी आत्मा का निस्तार करूँगा। स्वयं को शुद्ध करूँगा अन्यथा यह तो जन्म-जन्मांतर यूँ ही चलता रहेगा। यह भव-भ्रमण यूँ ही चलता रहेगा। ___कहा जाता है कि नचिकेता के पिता उद्दालक ने विश्वजित यज्ञ का आयोजन किया था। यज्ञ का नियम था कि यज्ञ करने के बाद जो श्रेष्ठ चीजें होती हैं उनको दान किया जाता है। तब उद्दालक ने श्रेष्ठ गायों का दान करने के बजाय मरियल, जो दूध नहीं देती थीं उन गायों को दान में दिया। मुफ़्त में मिलने वाली चीज़ों का कोई प्रतिकार नहीं करता इसलिए जैसा भी है मिल तो रहा है, अभी दूध नहीं दे रहीं तो क्या छः महीने बाद तो देंगी। मुफ़्त का दान सब ले चले लेकिन पुत्र को यह बात अच्छी नहीं लगी कि उसके पिता ने इतना महान यज्ञ किया और ऐसे दान से तो उनकी कीर्ति धुंधली हो जाएगी। मेरे पिता को श्रेष्ठ चीज़ दान देनी चाहिए। वह पिताजी के पास जाकर बोला - पिताजी, आप कमज़ोर गायों का दान क्यों कर रहे हैं, श्रेष्ठ गौदान कीजिए । पिताजी ध्यान नहीं देते। वे सोचते हैं श्रेष्ठ गौओं को तो अपने बेटे के लिए रख लूँ। उस समय तो गौ-धन, गज-धन ही धन होता था। बेटे ने फिर ब्राह्मणों के सामने कहा - पिताश्री ! श्रेष्ठ, गौओं का दान कीजिए, नहीं तो आपकी कीर्ति धूमिल हो जाएगी, आपका यज्ञ व्यर्थ हो जाएगा। पिताजी ने कहा - तू श्रेष्ठ, श्रेष्ठ की बात कर रहा है, श्रेष्ठ तो तू भी है। नचिकेता ने कहा - तब तो मेरा भी दान किया जाना चाहिए। पिता उद्वेलित हो जाते हैं, श्रेष्ठ गौओं का दान करने लगते हैं क्योंकि पुत्र ने ऋषि-मुनियों के सामने बात कह दी थी। जब श्रेष्ठ गौओं का दान हो गया तो वह भी सामने आकर खड़ा हो गया कि - पिताश्री आपने कहा था कि श्रेष्ठ चीज़ों का दान करना है और तू भी श्रेष्ठ है तो आप मुझे किसको देते हैं। पिताजी को गुस्सा आ गया। वे बोले - जा मैंने तुझे यमराज को दान दिया। कहा जाता है कि नचिकेता वहाँ से निकलकर यमराज के पास पहुँचता है। तीन दिन तक वह पाताललोक के द्वार पर ही खड़ा रहता है। यमराज कहीं बाहर गए हुए थे। जब वह लौटकर आता है तो यमराज की पत्नी यमी बताती है कि - कोई ब्राह्मण बालक तीन दिन तक हमारे द्वार पर भूखा-प्यासा रहा। इससे तुम्हारे पुण्य नष्ट हो जाएँगे, तुम जाओ और उस ब्राह्मण बालक को प्रसन्न करो, संतुष्ट करो। यमराज आए और कहा - तुम्हारी तपस्या पूर्ण हुई, मैं तुमसे प्रसन्न हुआ। तुम २९५ For Personal & Private Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन दिन तक यहाँ भूखे-प्यासे रहे इसलिए मैं तुम्हें तीन वरदान देता हूँ, जो चाहो सो वर में माँग लो। नचिकेता ने कहा - मैं तो कुछ भी नहीं माँगना चाहता । मैं तो प्रदत्त हूँ, मेरे पिता के द्वारा आपको दान में दिया गया हूँ। मैं आपसे क्या चाह सकता हूँ। तब आपस में चर्चा होती है, यमराज प्रसन्न होकर पुनः तीन वरदान माँगने को कहते हैं, वर माँगो । नचिकेता ने कहा - अगर आप देना ही चाहते हैं तो पहला वर यह दीजिए कि मेरे पिता जो मुझसे नाराज हो गए हैं वे पुनः मुझ पर प्रसन्न हो जाएँ। यमराज ने कहा - तथास्तु । दूसरा वर क्या माँगना चाहते हो ? नचिकेता ने कहा - नीचे पृथ्वीलोक पर लोग अग्नि की पूजा करते हैं, यज्ञ में जो आहुतियाँ देते हैं उसका रहस्य मुझे समझाएँ । यमराज यज्ञ में जलने वाली अग्नि का रहस्य समझाते हैं और उसमें डाली गई आहुतियाँ किस तरह देवलोक तक या इष्ट देवता तक पहुँचती हैं इसका रहस्य समझाते हैं। और तीसरा वर माँगने को कहते हैं। तब नचिकेता तीसरा वर माँगते हैं कि दुनिया में सारे लोग आत्म-तत्त्व की साधना में लगे रहते हैं। मैं चाहता हूँ कि जिस तत्त्व को ऋषि-मुनि गुफाओं में बैठकर, एकान्त मौन ध्यानपूर्वक जिसे साधने का प्रयत्न करते हैं, प्रबल पुरुषार्थ करते हैं फिर भी वह तत्त्व उन्हें नहीं मिल पाता, मैं चाहता हूँ आप उस आत्मतत्त्व का रहस्य और मर्म मुझे समझाएँ। यमराज भी हिल जाते हैं क्योंकि दुनिया में आत्म-तत्त्व का प्रथम ज्ञान ही यमराज को है, यमदूतों को है क्योंकि हमारे शरीर के प्राण-तत्त्व को वे ही खींचकर ले जाते हैं। वे ही जानते हैं कि आत्म-तत्त्व को कैसे निकाला जाता है, कैसे मुक्त किया जाता है और कैसे पुनः नया जन्म दिया जाता है। इस तरह नचिकेता ने तीसरे वरदान के रूप में आत्म-तत्त्व का रहस्य जानना चाहा । हालाँकि यमराज ने कई तरह से प्रलोभन दिए कि यह प्रश्न छोड़ दे अगर तू कहे तो राजकुमारियों से विवाह करने का अधिकार दे देता हूँ, तू चाहे तो तुझे तीन लोकों का राजा बना देता हूँ, तू जो चाहे वह सब कुछ करने को तैयार हूँ पर इस प्रश्न को छोड़ दे। लेकिन नचिकेता अडिग रहता है वह किसी भी प्रलोभन में नहीं आता। यमराज समझ जाते हैं कि यह वह पात्र है जिसे आत्म-ज्ञान का रहस्य देना २९६ For Personal & Private Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहिए, समझाना चाहिए। तब वे उसे आत्म-ज्ञान के तत्त्व का रहस्य समझाने का प्रयत्न करते हैं। यमराज-नचिकेता के संवाद ‘कठोपनिषद' में संगृहीत हैं। यमराज ने नचिकेता को आत्म-ज्ञान का जो रहस्य समझाया था वह इस 'कठोपनिषद' में पिरोया गया है। भगवान महावीर आत्मवादी महापुरुष हैं, आत्म-तत्त्व में विश्वास रखते हैं। उनकी समस्त साधना आत्म-तत्त्व से जुड़ी हुई है। वे मानते हैं कि अगर कोई भी व्यक्ति मन, वचन और काया के व्यापारों का निरोध करके अपने भीतर अपनी आत्मा का संवेदन करता है, अपने आत्म-प्रदेशों से स्वयं को संयोजित करता है ऐसा मुमुक्षु पुनः पुनः उसका चिंतन-मनन करने वाला एक-न-एक दिन आत्मा को प्राप्त कर ही लेगा। आत्मा स्वयं उसके सामने प्रकट हो जाएगी। आत्मा को प्रगट करना चाहो तो वह प्रगट नहीं होती। जब हम उसके प्रति समर्पित होते हैं, दत्तचित्त होते हैं तो आत्मा स्वयं ही अपने आपको प्रगट कर देती है। पूजा-उपासना करने से ज़रूरी नहीं है कि देवता प्रगट हो ही जाएँ यह तो उनकी इच्छा है। उसी तरह जब तक आत्मा की स्वयं की इच्छा नहीं होती है, वह हमें योग्य पात्र नहीं समझती, तब तक अपने आपको प्रगट नहीं करती। जैसे दही में मक्खन, लकड़ी में आग, तिल में तेल छिपा रहता है, ऐसे ही हमारी चेतना हम सब लोगों में व्याप्त होती है। बस इतना-सा याद रखें कि - If you can see invisible you can do impossible. अगर तुम अदृश्य को देख सकते हो तो असंभव को भी संभव कर सकते हो। बस, इतना-सा याद रखना काफ़ी है। आज के लिए इतना ही। प्रेमपूर्वक नमस्कार ! २९७ For Personal & Private Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कैसेसाथै HAFUजागरूकता . संसार का सार धर्म है, धर्म का सार सचेतनता है और सचेतनता का सार मुक्ति है। किसी साधक को यदि मुक्ति के पथ का अनुगमन करना हो तो उसे सचेतनता को जीवन का मेरुदंड बनाना होगा और सचेतनता को जीने के लिए धर्म की शरण स्वीकार करनी होगी। बुद्ध होकर जीने का अर्थ यही है कि वह अपने जीवन के समस्त क्रिया-कलाप सचेतनता के साथ सम्पन्न करे। संसारी तो संसार को सांसारिक दृष्टि से ही देखता है लेकिन बुद्ध और संबुद्ध होकर जब वह संसार को देखता है तो यही संसार उसके लिए मुक्ति का आधार बन जाता है। कुछ लोग अज्ञानी होकर, कुछ बुद्धू होकर संसार को देखते हैं तो कुछ बुद्ध होकर दुनिया को देखते हैं। जो अज्ञानी और बुद्धू होकर संसार को देखते हैं उन्हें संसार का सारभूत तत्त्व उपलब्ध नहीं हो पाता । वे संसार में जन्म लेकर भी संसार का कोई बोध नहीं कर पाते । लेकिन जब बुद्ध पुरुष संसार को देखते हैं तो वे वैसे ही ऊपर उठने लगते हैं जैसे अतीत में स्वयं गौतम बुद्ध या महावीर हुए थे। वे इसी कारण से मुक्तिदूत बन सके क्योंकि उन्होंने संसार को आत्म-जागृत बनकर देखा । घटनाएँ तो हर किसी के सामने घटती हैं, कुछ उन्हें नज़र-अंदाज़ कर देते हैं और कुछ उन पर गौर करते हैं. उन पर ध्यान देते हैं और घटनाओं की मीमांसा करते हैं। जहाँ ऐसा होता है वहीं चमत्कार घटित हो जाता है। उनके २९८ For Personal & Private Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन में क्रांति आ जाती है। उनकी चेतना रूपान्तरित होने लगती है। हम सभी देखते हैं कि किसी का जन्म होता है, किसी के शरीर में रोग पनपता है, किसी को बुढ़ापा आता है और हर घर के आगे से कोई-न-कोई अर्थी ज़रूर गुज़रती है। सामान्य नज़र से देखने पर न जन्म हमें वैराग्य देता है, न किसी का रोग, न बुढ़ापा और न ही अर्थी/मृत्यु। लेकिन आत्म-जागृत होकर देखने पर यही सामान्य-सी दिखने वाली घटनाएँ हमारे लिए असामान्य-असाधारण परिणाम दे जाती हैं। सामान्य नज़र से देखें तो हर सास-बहू, पति-पत्नी के बीच कुछ घटनाएँ घट जाती हैं लेकिन भर्तृहरि जैसे लोग जाग जाते हैं। भर्तृहरि के सामने एक सौदागर आया और एक फल देते हुए कहा - यह ऐसा अमृत फल है कि जो भी इसका उपभोग करेगा अगर वह बूढ़ा है तो जवान हो जाएगा, कुरूप है तो सुन्दर हो जाएगा। ऐसी स्थिति में व्यक्ति दो ही काम करेगा या तो स्वयं उपभोग करेगा या जिसे बहुत प्रेम करता है उसे समर्पित कर देगा। राजा भर्तृहरि ने भी दूसरा विकल्प चुना जिसे वह अत्यधिक प्रेम करता था वह थी उसकी अपनी रानी। उसने रानी को फल भेंट कर दिया। रानी महावत से प्रेम करती थी उसने फल महावत को दे दिया। महावत किसी गणिका के प्रेम में था उसने वह फल गणिका को दे दिया। गणिका जब फल की महिमा सुनती है तो उसे मन में आता है कि मैं पापिनी, जिसने जीवन भर पाप ही किए अगर मैं पुनः सुन्दर और युवा हो जाऊँगी तो और अधिक पाप ढोने पड़ेंगे, उन्हीं पापों को दोहराना पड़ेगा। मैं इस फल को खाऊँ इसके बजाय अपने धर्मप्रिय, न्यायप्रिय राजा को क्यों न समर्पित कर दूं। इस तरह वह फल लौटकर राजा के पास आ जाता है। तब राजा उस फल को देखकर चौंक पड़ता है और सारी घटना की छानबीन करता है तो उसका निष्कर्ष निकलता है - ओह ! मैं जिसके लिए रात-दिन चिंतन करता था, जिस पर मैं इतना प्रेम लुटाता था, मुझे क्या पता वह मुझसे इतनी विरक्त है। सामान्यसी दिखने वाली घटनाएँ व्यक्ति को जगा देती हैं और कुछ ऐसे होते हैं जो कितनी ही भयंकर घटना घट जाए तब भी कोई परिवर्तन नहीं आ पाता । यूँ तो हर पत्नी अपने पति को झिड़कती ही होगी लेकिन जब रत्नावली ने ०२२ For Personal & Private Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसीदास को झिड़का तो वह झंकृत हो गया। जब उसने यह सुना कि जितना प्रेम तुम्हें काम के प्रति है अगर उतना ही प्रेम राम के प्रति होता, जितना प्रेम नारी से है उतना ही अगर नारायण से होता तो ? बस तुलसीदास जाग गए। एक भोगी आत्मा संत-आत्मा बन गई । व्यक्ति को सचेतनता तभी उपलब्ध होती है जब जीवन में इस तरह की कोई ठोकर लगती है। कुंती को जब प्यास लगी तो उसने अपने पुत्रों से पानी लाने को कहा। एक पुत्र जाता है, तालाब के किनारे पर आकाशवाणी होती है - सावधान, कोई भी इस पानी को मत छूना । अगर छुआ तो पत्थर बन जाओगे । उसने ध्यान न दिया और पानी छू लिया और छूते ही पत्थर का बुत बन गया। दूसरा भाई आया, वह भी बुत बन गया। तीसरें, चौथे की भी वही हालत हो गई। जब युधिष्ठिर आया तो पुनः आकाशवाणी हुई कि अगर पानी को छुआ तो जो हालत तुम्हारे चार भाइयों की हुई है वही तुम्हारी भी होगी। युधिष्ठिर खड़ा हो गया और पूछता है कि आप क्या कहना चाहते हैं ? आवाज़ कहती है कि - मेरा एक यक्ष- प्रश्न है । और तब एक यक्ष प्रगट होता है । यक्ष-प्रश्न उसे कहते हैं जिसका कोई उत्तर न हो लेकिन युधिष्ठिर ने यक्ष द्वारा पूछे गए सारे प्रश्नों का समाधान दिया। पूछा गया कि अज्ञान क्या है ? तो उत्तर मिला कि इन्सान एक ही पत्थर से ठोकर खाता है फिर भी बार-बार ठोकर खाता रहता है जैसे मेरे चार भाई । यक्ष प्रसन्न होता है । यही तो जीवन का भी मर्म है कि हम लोग एक ही पत्थर से बार-बार ठोकर खाते हैं फिर भी जग नहीं पाते । जो जग जाता है वह बुद्ध, संबुद्ध और जागा हुआ इन्सान कहलाता है शेष तो सब मूर्च्छित हैं ही। ऐसे मूर्च्छित लोगों के लिए भगवान महावीर ने एक शब्द प्रयोग किया है - 'प्रमत्त' और आत्म- जागृत लोगों को 'अप्रमत्त' कहा है । साधना का सम्पूर्ण सार 'अप्रमाद' शब्द में समाहित है 'अप्रमत्त' दशा । यह शब्द संसारी को सीधे समाधि की ओर ले जाता है । बीच के शब्द को हम संन्यास कह सकते हैं। संसार और संन्यास के बाद अप्रमाद दशा आनी चाहिए। संसार से जब वैराग्य जगा तो व्यक्ति संन्यासी बना। पर संन्यास का, साधना का मार्ग तभी सार्थक होगा जब अप्रमाद, अमूर्छित दशा, जागृत दशा उपलब्ध हो। हमने महावीर के 'गुण-स्थान' को ३०० For Personal & Private Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 समझा है। चौदह गुण-स्थान महावीर ने बताये हैं । उनमें से चार गुण - स्थान संसारियों के, पाँचवाँ और छठा गुण-स्थान श्रावक और संन्यासी का और सातवें से चौदहवें गुण-स्थान तक पहुँचने का साधन सातवाँ गुण-स्थान है । किसी भी संसारी के लिए संन्यासी होना कठिन हो सकता है लेकिन संन्यासी का अप्रमत्त, जागृत होना बहुत बड़ी साधना है, तपस्या है, चुनौती है । रह-रहकर प्रमाद हमें अपने आगोश में ले लेता है और तब हम संन्यासी होकर भी संन्यासी नहीं हो पाते । I 1 मुक्ति का मार्ग वह मार्ग है जिस पर चलते तो सैकड़ों लोग हैं पर कोई एकाध ही पहुँच पाता है । तभी तो कबीर कहते हैं - तेरा जन एकाध है कोई - हे प्रभु तुम्हारे नाम पर समर्पण तो सभी करते हैं लेकिन वास्तव में कोई एकाध ही तेरा शिष्य, भक्त बन पाता है । भीड़ तो 1 बहुत है, हर संत के हजारों चेले होंगे, लेकिन गुरु जिस पर विश्वास कर सके ऐसे दिल जीतने वाले शिष्य विरले ही होते हैं। संन्यास की ओर क़दम तो कई बढ़ते हैं लेकिन उनमें से अप्रमत्त-दशा क्रिया के प्रति, धर्म के प्रति, सिद्धान्तों के प्रति, उन सिद्धान्तों का पालन करने के प्रति, अपने आत्म-भाव के प्रति, अध्यात्म-भाव के प्रति विरले ही लोगों में होती है । शेष तो इसी दुनिया के राग-रंग में या अधिक से अधिक वैराग में उलझे रह जाते हैं । इसीलिए चार तरह की एषणाएँ कहलाती हैं स्त्री - एषणा, पुत्र- एषणा, वित्त- एषणा और लोकेषणा अर्थात् संसार की चाह । स्त्री, पुत्र, धन की चाहत छोड़नी कठिन है, फिर भी अनेकों इसे छोड़कर साधना - मार्ग की ओर आए हैं । फिर भी संत बन जाने के बाद भी संसार की एषणा, भवतृष्णा, लोकेषणा, लोकतृष्णा इससे उबर पाना चुनौती बन जाता है । भगवान इसका मार्ग बताते हैं - अप्रमाद । सामने पूर्व है, पीछे पश्चिम है । उगते सूर्य को देखना है तो अप्रमाद दशा को धारण करना होगा और डूबते सूरज को देखने लिए प्रमाद है ही । प्रमाद मृत्यु का और अप्रमाद अमरता का मार्ग है । प्रमाद अवगुणों का पिता है, दरिद्रता की माँ है । प्रमाद अर्थात् सुस्ती । प्रमाद के जरिए संन्यासी तो क्या मुक्ति को पाएगा एक विद्यार्थी भी विद्यार्जन नहीं कर सकता । सुस्त व्यक्ति क्या करेगा ? - For Personal & Private Use Only ३०१ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाद जीवन की फिजूलखर्ची है। हमने फिजूलखर्ची का अर्थ केवल पैसे से लगा लिया है लेकिन समय जो फिजूल खर्च हो रहा है उसकी तरफ ध्यान नहीं देते। इसलिए उत्तराध्ययन सूत्र में बार-बार एक वाक्य कहा गया है 'तुम क्षण भर भी प्रमाद मत करो' । हजारों गुरुओं ने लाखों शिष्यों के सामने इस वाक्य का प्रयोग किया होगा कि 'तुम क्षण भर भी प्रमाद मत करो' । समयं गोयम मा पमायए - हे मेरे प्रिय वत्स ! प्रमाद मत कर । आत्मज्ञानी अपने शिष्य को आगे बढ़ने के लिए बार-बार एक ही पंक्ति कहना चाहेगा - मा पमायए - प्रमाद मत करो। ‘प्रमादं मा कुरु' - प्रमाद मत करो। जब-जब हम प्रमाद करेंगे संसार के उन झूठे रास-रंग में फँस जाएँगे जो हमारे भीतर तृष्णा को पनपाते हैं, विषय-वासनाओं को बढ़ाते हैं और हमें संसार की आसक्तियों में उलझा देते हैं। महावीर ने इस अप्रमत्त दशा को पूर्णता के साथ जिया। वे कहते हैं कि हाथ-पाँव तो बहुत बड़े हैं अगर तुम पलक भी झपकाते हो तो अप्रमाद - दशा होनी चाहिए अर्थात् जागरूकता और सचेतनता रहनी चाहिए । गौतम बुद्ध अगर बुद्धत्व तक पहुँचे, महावीर कैवल्य तक पहुँचे तो इन दोनों के लिए अप्रमाद ही रास्ता बना । अन्य किसी मार्ग के बारे में मतभेद हो सकता है पर अप्रमाद - दशा, आत्म-जागरूक दशा पर किसी भी स्थिति में कोई फ़र्क नहीं है। जैसा कि सातवाँ गुण-स्थान अप्रमाद दशा है तो छठे गुणस्थान तक व्यक्ति संन्यासी बन जाता है लेकिन संन्यास लेकर भी दुनिया का मोह नहीं छूट पाता। पत्नी का मोह छूट जाता है पर पंथ का मोह पैदा हो जाता है। दुकानदारी छूट जाती है पर शास्त्रों का व्यामोह पैदा हो जाता है, पुत्र छूट जाता है पर गुरु पकड़ में आ जाता है। अप्रमाद दशा व्यक्ति को हर वक्त आत्म-भाव की ओर तत्पर बनाए रखती है। तब वह प्रत्येक कार्य करते हुए भी जागरूक रहता है। इसीलिए जोर देकर कहा गया है कि जो प्रमादी है वह हिंसक होता है, उसे हर ओर से भय होता है। अप्रमादी निश्चित ही अहिंसक और भयहीन होता है, उसे किसी तरह का भय नहीं रहता। उससे किसी भी प्राणी का, चींटी तक का भी वध नहीं होता। सड़क पर चलते हुए चींटी मरी या न मरी यह महत्त्वपूर्ण नहीं है बल्कि महत्त्वपूर्ण है कि चलने वाले ने जागरूकता के साथ कदम बढ़ाया या बेहोशी के साथ । बेहोशी के साथ जीने वाला संन्यास लेकर ३०२ For Personal & Private Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी संसारी है और जागरूकतापूर्वक संसार में जीने वाला भी संन्यासी है, साधक है। Please do every work with consiousness, awareness. संबोधि-साधना भी व्यक्ति को जागरूकता पूर्वक जीना सिखाती है, यह जीने की कला है । हम कह सकते हैं कि जागरूकतापूर्वक खाना खाने पर व्यक्ति ठीक ढंग से खाएगा, चलने पर ठोकर नहीं खाएगा। इसी तरह अगर हम आत्म-तत्त्व के प्रति जागरूक रहते हैं तो जीवन के सारभूत अर्थों को उपलब्ध कर सकते हैं। अप्रमाद साधना-मार्ग का चिराग है। जो हमें यह जागरूकता देता है वही हमारा गुरु होता है । जो उल्टा बेहोशी में ले जाए वह संसारी होता है। 'गुरु' शब्द का अर्थ ही है अंधकार का नाश करने वाला या अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला । एक अच्छी पुस्तक है - इन द सर्च ऑफ मिरेकुलस - लेखक हैं ऑस्पेंस्की। उसने यह किताब अपने गुरु गुरजिएफ को समर्पित की है और उनके लिए लिखा है - समर्पित है उसे, जिसने मुझे नींद से जगाया । अर्थात् मैं मूर्छित दशा में पड़ा हुआ था, सोया हुआ था, जिसने मेरी आँखें खोलीं, मेरे भीतर के नेत्र खोले, उसे यह मेरी किताब समर्पित है। इन्सान के चित्त की तीन अवस्थाएँ होती हैं - जागरूकता, स्वप्न, निद्रा अथवा मूर्छा । यद्यपि नींद हमारे शरीर के लिए उपयोगी है - नींद से शरीर पुष्ट होता है, थकावट दूर होती है, शरीर के रक्तचाप में संतुलन आता है, पुरुषार्थ की पुनः वृद्धि होती है। यहाँ पतंजलि ने जिस नींद की बात की है वह शारीरिक नहीं आत्मा की बात है। इन्सान की आत्मा जो मूर्छित हो गई है, सांसारिक राग-रंग में लिप्त अवस्था निद्रा कहलाती है। दूसरी है स्वप्नावस्था, दुनिया का हर इंसान सपना देखता है। एक सोया हुआ व्यक्ति एक रात में चार-पाँच सपने देख लेता है चाहे याद रहे या ना रहे । स्वप्न वह है जो अर्ध-निद्रित अवस्था में महसूस किया जाता है । न जागा हुआ न सोया हुआ, इसके बीच में व्यक्ति जो देखता है, कहता है, सुनता है, स्पर्श करता है वही सपना कहलाता है। स्वप्न की स्थिति में इन्द्रियाँ तो सो जाती हैं पर मन जग जाता है। तब वह भिन्न-भिन्न दृश्य देखने लगता है। ३०३ For Personal & Private Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निद्रा और स्वप्न से उच्च आत्मा की दशा जाग्रत-अवस्था अथवा जागरूकता कहलाती है। तभी कहते हैं - दुनिया सोवे साधु पोवे- जब सारी दुनिया सोई रहती है तब साधु जागता है, माला फेरता है, जाप करता है, अजपा जाप करता है, भगवान का भजन करता है। दिन में भले ही दुनिया में चला जाए पर रात तो प्रभु के नाम लगा देता है । एक दिन-रात के आठ प्रहर होते हैं - दिन के चार और रात के चार - हर प्रहर तीन घंटे का । शाम को छ: बजे से गिनें तो पहला प्रहर जिसमें सभी जगते हैं, दूसरे प्रहर में भोगी जगते हैं, तीसरे प्रहर में रोगी जगते हैं क्योंकि उन्हें नींद नहीं आती और चौथे प्रहर में योगी जगते हैं। वे सुबह तीन-चार बजे ही जग जाते हैं और आत्म-आराधना के लिए, प्रभु आराधना के लिए आसीन हो जाते हैं। योगी के लिए चौथा प्रहर या कहें कि सुबह का पहला प्रहर - साधना का कहा गया है। इसमें योगी साधना करते हैं और मूर्छित अथवा प्रमादी सोए रहते हैं। हममें से जो भी सूर्योदय के बाद जागते हैं वह क्या धर्म-आराधना करेंगे, क्या प्रभु-भजन करेंगे। ईसाई रविवार को हॉलीडे मनाते हैं। होली-डे अर्थात् पवित्र दिन । वे सप्ताह में छः दिन तो चर्च जा नहीं पाते पर संडे को ज़रूर जाते हैं। मुस्लिम कौम शुक्रवार को होली-डे मनाती है पर हम सातों दिन में से कौनसा दिन होली-डे मनाते हैं ? यह तो अच्छा है कि बच्चों को सुबह जल्दी स्कूल जाना होता है तो बच्चों के साथ माता-पिता भी जल्दी उठ जाते हैं, नहीं तो आठनौ बजे के पहले कोई उठे ही ना । रविवार को देखते हैं कि लोग दस-ग्यारह बजे तक सोये रहते हैं। अरे, एक दिन अवकाश का मिलता है उसमें भी आराम न करें क्या - यह ज़रूर सुनने को मिलेगा। प्रभु भजन कब करेंगे ? इंग्लिश की कहावत है - Early to bed, early to rise, makes a man healthy, wealthy & wise. रात में जल्दी सोओ और सुबह जल्दी उठो । ऐसा करने से बुद्धिमान, स्वस्थ और धनवान होंगे। जो रात में देर से सोते हैं और सुबह देर से उठते हैं वे रुग्ण रहेंगे। रात में देर तक जागने वाला व्यक्ति वात, कफ या पित्त रोग से पीड़ित हो जाता है। शरीर की संतुलन-व्यवस्था चरमरा जाती है। हमें समय पर सोना और सूर्योदय के पूर्व उठ जाना चाहिए। प्रकृति भी जाग जाती है फिर हम क्यों सोये रहें। ३०४ For Personal & Private Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का मार्ग जागरूकता का मार्ग है। साधक अपनी साधना के प्रति जागरूक हो, व्यापारी व्यापार के प्रति, भोजन बनाने वाले भोजन बनाने के प्रति, विद्यार्थी विद्यार्जन के प्रति जागरूक हो। हम सब अपने-अपने कार्य, कर्त्तव्य और लक्ष्य के प्रति जागरूक हों। जागरूक अप्रमत्त होकर ही हम अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। साधक अगर अपने लक्ष्य के प्रति जागरूक नहीं है तो वह साधना कैसे करेगा, आत्मभाव को कैसे सँजोकर रखेगा। साधक को तो दैनिक क्रियाकलाप करते हुए भी आत्म-जागरूक रहना चाहिए। स्वयं के कल्याण का भाव ही आत्म-भाव है। यह जानना कि मेरे भीतर जो चैतन्य-तत्त्व समाया हुआ है मेरी धारा उसके साथ जुड़ी रहे। मैं अपने-आप को न भूल जाऊँ, यही आत्म-भाव है। स्वयं को भूलकर व्यक्ति दुनिया में जी रहा है। स्वयं की स्मृति, स्वयं की सचेतनता आत्म-भाव है। स्व-भाव, चैतन्यभाव यही आत्म-भाव है। हमारे भीतर जीवन नामक जो अस्तित्व समाया है, प्राण-ऊर्जा समाई है उसे याद रखना ही सचेतनता, अवेयरनेस है । यही अवेयरनेस हमको आगे बढ़ाती है। विशेष रूप से जब हमें अहिंसा का पालन करना है तब बिना जागरूकता के अहिंसा का पालन कैसे होगा ? पानी छानकर पिया जा सकता है, रात्रि-भोजन भी न करेगा लेकिन किसी के दिल को ठेस न पहुँचे, हमारे द्वारा किसी की निंदा-आलोचना न हो जाए, यह तो जागरूकता से ही करना होगा। हम बेहोश अवस्था में मक्खी भी न उड़ाएँ, यह तभी संभव है जब अप्रमत्त और जागरूकता होगी, प्रज्ञाशीलता होगी। साधक स्वयं में तपस्वी होता है, आतापी होता है। तब वह किन तत्त्वों को जीता है - एक तो स्मृति को। वह सत्य के प्रति, निर्वाण के प्रति, अपनी आत्म-स्मृति को जोड़े रखता है इसलिए वह तपस्वी होता है। दूसरा, वह प्रज्ञाशील होता है - वह अपनी प्रज्ञा को, अपनी बुद्धि को निर्वाण तत्त्व के प्रति, सत्य की प्राप्ति के प्रति, आनन्द की प्राप्ति के प्रति सदा जागरूक रखता है । दया और करुणा को वही व्यक्ति जी सकता है जिसमें जागरूकता होगी, नहीं तो निमित्तों को पाकर भले ही दया और करुणा जी ले, पर स्वभावगत विशेषता न आ पाएगी। दुनिया के आलसियों के लिए भगवान का संदेश है कि अपने आलस्य का, प्रमाद का त्याग करो और अपने कर्त्तव्य-कर्म के प्रति दृढ़ श्रद्धा के ३०५ For Personal & Private Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ पुरुषार्थ करो। अप्रमत्तता का मार्ग हमें परम सत्य की ओर ले जाता है, कैवल्य और परम मुक्ति और निर्वाण की ओर ले जाता है। इस अप्रमाद दशा के आने पर ही हम अपूर्वकरण' गुणस्थान की ओर बढ़ पाते हैं। इसे ऐसे समझें - कहते हैं कि भगवान के पास बैठे हुए कुछ शिष्य अपने काष्ठ-पात्र पर रंग-रोगन लगा रहे थे। अलग-अलग तरह के बेल-बूटे बना रहे थे, आपस में बातें भी कर रहे थे। कोई कह रहा था - मैं अमुक गाँव गया था वहाँ का रास्ता बहुत सुंदर है, किसी ने कहा - उस गाँव के दाता बहुत सुन्दर हैं। किसी ने कहा - अमुक गाँव तो इतना गंदा है कि दुर्गंध ही दुर्गंध आती है। कोई बोला - मैं अमुक गाँव गया वहाँ के रास्ते बहुत कंकरीले और पथरीले हैं, कोई कह रहा था - उस गाँव में भूलकर भी न जाना वहाँ कोई रोटी भी नहीं देता है। एक बोला - अमुक गाँव के लोग भी बहुत अच्छे हैं, रास्ता भी अत्यधिक सुंदर है, वहाँ के लोग संतजनों का मान-सम्मान भी करते हैं। तुम लोग उस गाँव में पहुँच जाना। इस तरह अलग-अलग प्रकार की बातचीत में सब मशगूल थे। भगवान दूर बैठे हुए उन लोगों की बातें सुन रहे थे। सुनते हुए भगवान मुस्कुराए और इतना ही कहा - भाइयो, तुम किस गाँव की, किस सुन्दरता की, किस यात्रा की बात कर रहे हो, किस पर रंग-रोगन कर रहे हो, जरा सोचो यहाँ क्या करने आए थे और क्या करने लग गए। तुम यहाँ स्वयं के कल्याण के लिए, मुक्ति के लिए, परम सत्य की प्राप्ति के लिए, परमार्थ भाव से तुम यहाँ पर आए थे और यह कौनसी पगडंडियों की पथरीली सड़कों की बातें करने लग गए। भगवान की वाणी इतनी प्रभावी हुई कि वे सोचने लग गए कि वास्तव में वे यहाँ किसलिए आए थे और क्या करने लग गए। तब उन्होंने फिर से अपनी अन्तर्यात्रा प्रारम्भ की, प्रायश्चित्त के आँसू झरने लगे। काष्ठ-पात्रों का रंग-रोगन धुल गया। उनकी आत्मा धुल गई। वे निर्मल हो गए। प्रमाद क्या था ? यही कि वे दुनिया के रस-रंग में उलझ गए और अप्रमाद यह था कि आत्मा जग गई और वे अपने कल्याण के लिए तत्पर हो गए। आलसी व्यक्ति दरिद्रता को ही जन्म देगा। इसीलिए यह बहुत बड़ी फिजूलखर्ची है कि व्यक्ति अगर सुस्त है, लापरवाह है तो वह अपने जीवन में कुछ न पा सकेगा। व्यक्ति अगर अपने जीवन का प्रबंधन करना चाहता है तो ३०६ For Personal & Private Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसका आधार ही यह होगा कि वह अपने जीवन के कार्यों को जागरूकतापूर्वक करे। अगर आलसी से पूछेंगे - खाना खा लिया या पानी पी लिया तो वह इतनी लापरवाही से ज़वाब देगा कि उसकी आवाज़ से भी आलस्य का बोध हो जाएगा। व्यक्ति की आवाज़ ही बता देती है कि वह कितना सक्रिय है, अपने कार्य के प्रति कितना दत्तचित्त है । अगर अर्जुन फिसल गया था तो भगवान ने क्या किया ? उन्होंने अपने फिसलते हुए शिष्य को, मित्र को वापस अपने कर्म के प्रति सन्नद्ध कर दिया । अप्रमाद-दशा लाने के लिए चित्त में आई हुई प्रमाद - दशा को छोड़ें, हीन - 9 -भावना, दुर्भावना, चिंता, आक्रोश जो चित्त में समाए हुए हैं इन्हें दूर करें । चिंता आक्रोश को दूर करने के लिए अपने चित्त को प्रसन्नता से, अहोभाव दशा से भरें, हर समय मुस्कुराने की आदत डालें । मुस्कुराता हुआ व्यक्ति प्रमादी नहीं कहलाएगा क्योंकि मुस्कुराने से ही उसके शरीर में विशेष प्रकार के द्रव्य का स्राव होता है और इससे उसके शरीर में ताज़गी आ जाती है, दिमाग स्फूर्ति से भर जाता है। अपने प्रमोद-भाव के लिए, प्रसन्न भाव के लिए कोई-न- - कोई बहाना ढूँढ़ लेना चाहिए । कुछ नहीं तो चुटकुले पढ़ लें, संगीत सुनें या जो भी रुचे वह करें। चलिए हम भी एक चुटकुला सुनते हैं - दो गंजे आपस में बात कर रहे थे कि गंजा होने का क्या लाभ है ? एक ने कहा - सबसे बड़ा फायदा तो यही है कि कहीं जाना हो तो तैयार होने में अधिक मेहनत नहीं करनी पड़ती। कपड़े पहने, टाई लगाई और निकल गए। दूसरे ने फिर पूछा तो नुकसान क्या है ? पहले ने कहा- गंजा होने का नुकसान यह है कि जब मुँह धोते हैं तो पता ही नहीं चलता कि कहाँ तक धोना है। कुछ दिन पहले की बात है: तीन-चार महिलाएँ हमारे पास बैठी हुई थीं। एक ने कहा- मैं तो नियम की बड़ी पक्की हूँ। शाम को ७ बजे उनके आने का समय है अगर वो समय पर आ जाए तो उन्हें खिलाकर खाती हूँ, नहीं तो मैं तो अपने ७ बजे खा लेती हूँ। दूसरे ने कहा- मैं तो एक घंटा इंतजार करती हूँ, वो आएँ तो ठीक, नहीं तो मैं तो ८ बजे खा लेती हूँ। तीसरी ने कहा - मैं तो १० बजे तक उनकी इंतजार करती हूँ। चौथी जो दिखने में थोड़ी तेज थी, उसने कहा- मैं तो उनके आने के बाद ही खाना खाती हूँ चाहे रात के २ बज जाए। मैंने कहा For Personal & Private Use Only ३०७ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहिन ! आप तो जबर्दस्त पतिव्रता हैं। तभी पीछे से उनके पति चले आए। उन्होंने कहा - गुरुजी !धूड़ की पतिव्रता है क्या ? आप नहीं जानते, सच्चाई तो यह है कि खाना मैं ही आकर बनाता हूँ। इस तरह का कोई भी बहाना लिया जा सकता है मुस्कुराने के लिए। मुस्कुराते ही चिंता, निद्रावस्था, आलस्य, प्रमाद दूर हो जाता है। मुस्कुराने की इतनी आदत हो कि हर समय मुस्कुराते रहें। एक बुद्ध-पुरुष हर समय मुस्कुराता है। कोई बुद्ध हो गया अर्थात् हँसता-खिलता गुलाब का फूल हो गया। गुलाब के फूल को चाहे मंदिर में चढ़ाओ या शव पर, डाली पर लगा हो या तोड़ लिया जाए वह मुस्कुराता ही रहेगा, जो इस तरह खिल जाए वही तो बुद्ध । जिसने यह निर्णय कर लिया कि वह हर हाल में मस्त रहेगा चाहे कोई मान दे कि अपमान वह मस्त ही रहेगा। किसी ने गाली दी उसकी मौज, किसी ने सम्मान दिया उसकी मौज। हम अपमानित तभी महसूस करेंगे जब किसी की गालियों को स्वीकार करेंगे। अगर कोई कुछ दे उसे सहजता से लेते हैं - न तो स्वीकार होता है और न ही अस्वीकार होता है तब मस्ती छाई रहेगी। आपने अगर मेरे पाँव छुए हैं तो मैं बड़ा नहीं हो गया। आपके अन्दर लघुता के भाव पनपे, आप में ऋजुता और सरलता का तत्त्व आया, आपके भीतर नमन का भाव आया इसलिए आप झुके । आदरणीय मैं नहीं, आपके नमन का भाव हो गया। इसमें आपका ही बड़प्पन है और अगर आप न झुके तो इसमें मुझे बुरा मानने की क्या बात है। रास्ते में कितने पेड़-पौधे मिलते हैं क्या वे झुकते हैं ? झुके तो ठीक न झुके तो भी ठीक। हमें इसे अच्छे रूप में लेना चाहिए कि यह व्यक्ति कितना अच्छा है जो संतजनों का भी सम्मान करता है, वह व्यक्ति आदरणीय है। मुझे तो जब भी कोई प्रणाम करता है तो मैं स्वयं को तटस्थ बना लेता हूँ और यही भावना करता हूँ कि ये प्रणाम प्रभु तक पहुँचे। जब कोई अस्सी वर्षीय बुजुर्ग प्रणाम करता है जो मुझे बहुत असहज लगता है, मैं हाथ जोड़ता हूँ और उसके प्रणाम प्रभु को समर्पित कर देता हूँ, ताकि हमारे अंदर अहंकार पोषित न हो। संत को तो विनम्र होना ही चाहिए। मुझे तो लगता है प्रणाम के बदले में प्रणाम ही लौटाना चाहिए । शुभकामना या आशीर्वाद तो हमारे प्रणाम के भाव में खुद ही छिपा है। .३०८ For Personal & Private Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मान और अपमान दोनों ही स्थितियों में जो स्वयं को समत्वशील रख लेता है वही व्यक्ति सदाबहार प्रसन्न रह सकता है। इस तरह प्रमाद को दूर करने का पहला उपाय है - प्रसन्न रहने की आदत डालें । प्रमाद को दूर करने के लिए दूसरा काम - प्रत्येक व्यक्ति को प्रातःकाल बीस मिनिट तक योगाभ्यास करना चाहिए । व्यक्ति अगर बीस मिनिट योगाभ्यास और दस मिनिट प्राणायाम कर लेता है तो वह निश्चित ही आलस्य-मुक्त रहेगा। शरीर की जड़ता दूर हो जाएगी। योगाभ्यास से व्यक्ति मेहनती हो जाता है, शरीर हृष्ट-पुष्ट हो जाता है, रक्त संचार दुरुस्त हो जाता है। शरीर का वायु, कफ, पित्त का संतुलन हो जाता है। रोगी व्यक्ति भले ही दवाएँ खाए, पर प्रतिदिन दो-पाँच मिनिट व्यायाम करना शुरू कर दे और धीरे-धीरे समय बढ़ाता जाए तो अवश्य ही उसका स्वास्थ्य जल्दी सुधरेगा । व्यायाम के साथ प्राणायाम करने से प्राणवायु का संचरण शरीर में अधिक होगा और बीमारी में लाभ पहुंचेगा। हो सकता है बीमारी पूरी तरह से ठीक न हो लेकिन योगाभ्यास और प्राणायाम करने वाला पूर्वापेक्षा अच्छी स्थिति में आ ही जाएगा । उसे स्वयं ही महसूस होगा कि उसकी स्थिति में सुधार आया है। उसके घुटनों का, कमर का, पीठ का दर्द कम हो जाएगा, शरीर मज़बूत होगा, खाना-पीना हज़म होने लगता है, सक्रियता भी बढ़ जाती है, मस्तिष्क की स्थिति सुधर जाती है, डिप्रेशन व तनाव में भी कमी आती है। इस तरह शरीर के प्रमाद को दूर करने के लिए योगाभ्यास और प्राणायाम अवश्य करने चाहिए। हाँ, अगर ध्यान में मन लगता है तो इस रास्ते पर भी ज़रूर कदम बढ़ाएँ। ध्यान से मन को शांति मिलती है, मन मज़बूत होता है। व्यक्ति आत्म-जागरूकता की ओर बढ़ता है। अपनी अन्तरात्मा से मिलने के लिए दो कदम आगे बढ़ता है। अगर ध्यान में मन नहीं लगता तो सीधे ध्यान की ओर जाने की अपेक्षा योगाभ्यास और प्राणायाम को साधे । तब कभी-न-कभी ध्यान की ओर मन ज़रूर जाएगा और ध्यान भी सधने लग जाएगा। प्रमाद को दूर करने के लिए तीसरा काम : प्रतिदिन सुबह अपनी छोटीसी डायरी या काग़ज़ में दिन भर में जो काम करने हैं उसकी सूची बना लें। पहले तो दो-चार काम ही याद आएँगे, फिर थोड़ी देर बाद और कुछ याद आएगा, उसे ३०९ For Personal & Private Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नोट कर लें। तभी चाय-नाश्ता करते हुए और काम याद आ जाएँगे उन्हें भी नोट कर लें। जितने भी काम बनते हैं उन्हें नोट करते जाएँ। ऐसे तो आपको दो काम भी करने को याद नहीं आएंगे लेकिन लिखने लगोगे तो आधे घंटे की चहलकदमी में भी बीस तरह के काम याद आ जाएँगे। लिख लेने से उन कामों को पूरा करने का पुरुषार्थ अपने आप जग जाएगा। संध्याकाल में उस डायरी को पुनः टटोल लेना चाहिए कि आज कितने काम पूरे हुए । हो सकता है जितने लिखे थे वे सब पूरे न हो पाएँ लेकिन आपको पता चल जाएगा कि कितने बचे, उन्हें दूसरे दिन किया जा सकता है। हफ़्ता-दस दिन बाद अपने जीवन में ऐसी आदत पड़ जाएगी, ऐसी जागरूकता आ जाएगी कि हम एक दिन में बीस काम निपटा सकेंगे। अपने-आप सक्रियता पैदा हो जाती है। इससे अप्रमाद दशा आती है और सुस्ती दूर हो जाती है। हम सभी इन्सान हैं लेकिन सबकी कार्य-प्रणाली अलग होती है। बस ज़रूरत सिस्टमेटिक तरीके से करने की है। यह दैनंदिनी जीवन का वर्क-प्लान है कि हम रोज़ाना इतने-इतने काम कर लेंगे। अगर काम करते हुए अधिक थकान आ जाए तो दस मिनिट का कायोत्सर्गध्यान कर लीजिए या कहीं बैठकर बॉडी रिलेक्सेशन कर लें, बॉडी पुनः एक्टिव हो जाएगी, दिमाग एक्टिव हो जाएगा। व्यक्ति रातभर सोता है, इससे वह अपनी दिनभर की थकावट को दूर करता है लेकिन वह रिलेक्सेशन का तरीका समझ जाए तो पन्द्रह-बीस मिनिट में ही वह पूरे दिन की थकावट को दूर करने में सफल हो जाता है। इसके अतिरिक्त व्यावहारिक जीवन में आप जो कार्य करते हैं सावधानी से करें । खाना-पीना, उठना-बैठना, अपना हर वह कार्य जिसे अंजाम देना है सावधानी, सचेतनता से करें ताकि वह कार्य पूर्ण हो । जो साधक जागरूक दशाओं को साधता है वह अगर बाहर कोई क्रियाकलाप कर रहा है तो बाहर उसे जागरूक रहना चाहिए और जब वह ध्यान करता है तो भीतर उसे जागरूक रहना चाहिए । अधिक कुछ नहीं करना है, केवल जागरूकता को साधना है। भगवान बुद्ध द्वारा प्रणीत विपश्यना ध्यान-पद्धति और भगवान महावीर द्वारा प्रणीत अनुपश्यना पद्धति दोनों एक ही हैं। केवल शब्द का फ़र्क है। पश्य अर्थात् देखना । अनुपश्यना अर्थात् लगातार देखना, लगातार अनुभव करना और विपश्यना ३१० For Personal & Private Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यानी विशेष प्रकार से देखना, जानना, समझना । जीवन का पहला सत्य व्यक्ति की श्वास है इसलिए सबसे पहले श्वास धाराओं के प्रति जागरूक हों। दूसरा सत्य है - शरीर में उठने वाले अनुकूल और प्रतिकूल संवेदन, अहसास, फीलिंग्स के प्रति जागरूक होना। तीसरा है - अन्तर्मन में उठने वाली धाराएँ, संस्कार, विकल्प, विचार, विकार, इनके प्रति जागरूक होना । ___ यही वे तीन तत्त्व हैं जिनके प्रति अनुपश्यना या विपश्यना की जाती है । हम लोग जब संबोधि-साधना करते हैं तब लगातार तीन-चार दिन तक अपने शरीर के श्वास-प्रवाह को, श्वास की यात्रा को, संवेदनों को और चित्त के संस्कारों को जागरूकतापूर्वक देखने और समझने का प्रयत्न किया करते हैं। यही है सेल्फ इन्क्वायरी का तरीका। ध्यान में स्वयं को जाँचना, परखना कि मैं क्या हूँ, कैसा हूँ। ऐसा नहीं है कि अभी ध्यान किया और अभी क्रोध से मुक्त हो गए कि विषय-वासनाओं से मुक्त हो गए । व्यक्ति धैर्यपूर्वक अपने आपको समझने का प्रयत्न करता है कि उसकी यह स्थिति है, उसके चित्त में अभी क्रोध के तत्त्व हैं या अभी चित्त में विकार-वासना के तत्त्व हैं । जो भी है व्यक्ति खुद को धैर्यपूर्वक समझता है फिर अपने व्यावहारिक जीवन में जागरूकतापूर्वक जीने का प्रयत्न करता है ताकि बाहर के निमित्त उसके चित्त को, उसके संस्कारों को बार-बार प्रभावित और उद्वेलित न करें। क्योंकि साधक का लक्ष्य होता है मुक्ति, निर्वाण की प्राप्ति । उसका लक्ष्य होता है बुद्धत्व की, कैवल्य की प्राप्ति । जब लक्ष्य कैवल्य अर्थात् मैं केवल एक हूँ, उस एकत्व की प्राप्ति का जो मार्ग है उसी का नाम कैवल्य है, साधना का परिणाम है कैवल्य । अगर व्यक्ति एकत्व से भटक रहा है तो इसका मतलब है वह अपने लक्ष्य से भटक रहा है। अगर वह क्रोध कर रहा है. विषयवासनाओं में उलझ रहा है तो मतलब है कि वह अपने लक्ष्य से अलग हो रहा है। साधक का लक्ष्य है मुक्ति, इसके लिए उसे बार-बार याद करते रहना होगा, अपनी स्मृति को उसके प्रति बार-बार कायम करना होगा। अपनी सचेतनता को उसके प्रति बार-बार लगाना होगा। अपनी जागरूकता को, अपनी प्रज्ञा को, अपनी बुद्धि को, अपनी मेधा को बार-बार वहाँ पर साधना होगा। For Personal & Private Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह मनुष्य का मन है विस्मृत हो जाता है, भटक जाता है । इसलिए बारेंबार साधना पड़ता है। प्रतिदिन ध्यान करना होता है । व्यक्ति खाना खाता है फिर भी रोज इसकी ज़रूरत पड़ती है क्योंकि इसकी शरीर को आवश्यकता है । इसलिए हमें रोज खाना भी खाना पड़ता है । इसी तरह बार-बार प्रतिदिन हमें ध्यान भी करना पड़ता है, ताकि हम पुनः पुनः स्वयं का मूल्यांकन करते रहें कि वर्तमान स्थिति में हमारा कुछ सुधार हो रहा है या वैसे के वैसे हैं। कल क्रोध किया, आज भी क्रोध किया तो क्या कल भी ऐसे ही क्रोध होगा । तब मेरी समता, मेरा धर्म, मेरा लक्ष्य, मेरा पुरुषार्थ क्या मुझे कोई परिणाम दे रहा है या मैं वहीं का वहीं हूँ। अगर हम वहीं के वहीं हैं तो दिन भर में किया गया पूजापाठ, धर्म-साधना, आराधना सब व्यर्थ गई । अर्थात् हमारा लक्ष्य हमारी आँखों में नहीं और अभी हम अपने लक्ष्य से बहुत दूर हैं। हमारा पुरुषार्थ जो हम कर रहे थे वह सही रास्ते पर नहीं हुआ । पुरुषार्थ कमज़ोर था तभी तो वैसे के वैसे रह गए । आत्म- जागरूकता चौबीसों घंटे रहनी चाहिए। हर कार्य के प्रति अपनी आत्म-भावना, अपनी कल्याण-भावना, अपनी मुक्ति की भावना व्यक्ति के भीतर प्रगाढ़ से प्रगाढ़तर होती जानी चाहिए । इसके लिए पहला कार्य होगा सुस्ती छोड़ी जाए, प्रमाद का त्याग हो, मूर्च्छा का त्याग हो और जागरूकतापूर्वक अपने लक्ष्य की ओर बढ़ें। जागरूकतापूर्वक पुरुषार्थ करें। सुस्ती का परिणाम मृत्यु है और जागरूकता का परिणाम मुक्ति है । आप सभी जागरूक होकर मुक्ति के मार्ग का अनुसरण करें, इसी शुभभावना के साथ नमस्कार ! ३१२ For Personal & Private Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत्यु सिखाता हूँ यह संसार का सत्य है कि जिसका जन्म होता है उसे मृत्यु का सामना अवश्य करना पड़ता है। जो लोग जिजिविषा से ग्रस्त होते हैं, जीवन के प्रति आसक्त होते हैं वे मृत्यु का नाम सुनने मात्र से कंपायमान हो जाते हैं लेकिन जो धैर्यपूर्वक नियति, प्रकृति और सृष्टि की व्यवस्था को समझ लेते हैं वे लोग मृत्यु का नाम सुनकर जीवन और जगत के प्रति और अधिक अनासक्त हो जाते हैं। प्रायः व्यक्ति जीना ही चाहता है और मृत्यु को मज़बूरी समझता है, लेकिन मृत्यु मज़बूरी नहीं है वरन् प्रकृति की ओर से प्रत्येक प्राणी की व्यवस्था है। जैसे घर के बुजुर्गों की, परिवार की व्यवस्था होती है वैसे ही जीवन और जगत की भी एक मर्यादा और व्यवस्था हुआ करती है। इसी के कारण मृत्यु स्वाभाविक रूप से आती है और जो मृत्यु के रहस्य से वाक़िफ़ हो जाते हैं वे सहज रूप में अपनी मृत्यु को स्वीकार कर लेते हैं। बेहतर होगा कि व्यक्ति कभी किसी नदी के तट पर, सरोवर के किनारे पर जाकर बैठे और वहाँ उठने वाली लहरों को देखे, उनको किनारे पर आकर मिटते हुए भी देखे। लहरों का उठना जन्म का और मिट जाना मृत्यु का प्रतीक हो जाएगा। कभी दीपक जलाकर उसकी लौ को देखने का प्रयत्न किया जाए तो उसे अहसास होगा कि दीपक तभी तक जलता है जब तक उसमें तेल रहता है। हमारा ३१३ For Personal & Private Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन भी तभी तक चलता है जब तक आयुष्य का तेल जुड़ा रहता है। माटी का मूल्य नहीं है, बाती का भी मूल्य नहीं है, वे सहयोगी हो सकते हैं लेकिन दीपक में भूमिका तेल की है। तेल हमारे जीवन के संस्कार हैं, वासनाएँ हैं, इच्छाएँ हैं, भावनाएँ हैं, प्रकृति है। इसलिए जीवन का दीपक बार-बार जलता और बुझता है। हमें प्रकृति को देखकर जानना और समझना चाहिए कि कोई बीज, बीज नहीं रहता वह बरगद भी बन सकता है और बरगद सदा बरगद नहीं रहेगा वह बीज भी बन सकता है। यह चक्र चलता रहता है । इसी तरह जन्म से मृत्यु और मृत्यु से पुनः जन्म। यह स्वाभाविक व्यवस्था है। प्रकृति के सानिध्य में रहकर ही हम मृत्यु के प्रति अनासक्त हो सकते हैं, निर्भय हो सकते हैं । प्रकृति की व्यवस्था है कि अगर सुबह सूरज उगता है तो साँझ को ढलता है और जिसने भी सूरज के उगने और ढलने को धैर्यपूर्वक समझ लिया इसके बाद व्यक्ति अपने जन्म और मरण के प्रति भी सहज हो जाता है। अगर ऋतुएँ बदल रही हैं तो इन बदलती हुई ऋतुओं को भी इन्सान देखे ताकि वह समझ पाए कि गर्मी कभी सर्दी में, सर्दी कभी गर्मी में बदल जाती है। हमारा जीवन भी कभी ऐसे ही मृत्यु जन्म में और जन्म मृत्यु में बदल जाता है । व्यक्ति की विजय यही है कि वह अपनी मृत्यु को जीत ले या मृत्यु के प्रति सहज बन जाए अथवा अपनी मृत्यु के प्रति अनासक्त हो जाए। मृत्यु ही तो है जो हमें बार-बार जीवन की ओर खींचती है क्योंकि मरने से भय लगता है। मैं कोई मृत्यु की प्रार्थना नहीं कर रहा हूँ, न ही प्रार्थना करने से मृत्यु आती है। यह भी नहीं है कि जीने की प्रार्थना की जाए और जीवन ही आए । सब कुछ प्रकृति की व्यवस्था है जो क्रमबद्ध रूप से चलती है। जन्म भी, मृत्यु भी, संयोग भी, वियोग भी, खिलना मुरझाना भी, मिलना और बिछुड़ना भी । जिसे यह समझ में आ गया कि मिलने के साथ बिछुड़ने का सत्य जुड़ा हुआ है वह व्यक्ति प्रेम तो कर सकेगा पर मोह और ममता में अंधा नहीं होगा। जो व्यक्ति मोह और ममता में अंधा हो जाएगा उसकी हालत धृतराष्ट्र जैसी हो जाएगी जिसकी संतान दुर्योधन और दुःशासन जैसी ही बनेगी। - जीवन को जीना सौभाग्य है, ईश्वर का प्रसाद है लेकिन मृत्यु से भयभीत होकर जीवन से चिपके रहना अंधा मोह है। सहज रूप में जीवन जिएँ और जब मृत्यु आने लगे तब उसे भी सहज रूप से स्वीकार कर लें। क्योंकि मृत्यु तो जीवन ३१४ For Personal & Private Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का उत्सव है। मैं तो जीवन को पवित्र तीर्थयात्रा के समान समझता हूँ। लोग भले ही पवित्र स्थानों की, पहाड़ों पर स्थित तीर्थों की यात्रा करते हों लेकिन जिसने जीवन को समझ लिया वह जानता है कि जीवन भी तीर्थयात्रा के समान ही होता है। जन्म के साथ यह यात्रा शुरू होती है और मृत्यु पर इस यात्रा का समापन होता है। जिसे इस बात का अहसास हो जाए वह भला मृत्यु से क्यों डरेगा। दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं - मृत्यु से निर्भय और मृत्यु से भयभीत। मृत्यु से डरने वाले हमेशा इसी प्रार्थना को करते हैं कि हे भगवान मुझे बचाना, संकट आ जाए तो मेरी रक्षा करना - ऐसे व्यक्ति कभी आत्म-विजेता नहीं बन सकते। मृत्यु से डरे हुए लोग जीवन से चिपके रहेंगे। मैंने कभी एक कहानी पढ़ी थी - श्री भगवान ने नारद से कहा- तुम पृथ्वी लोक में जाते रहते हो वहाँ से अगर किसी को लाना चाहो तो यहाँ बैकुंठ लोक में ले आना। शायद भगवान नारद को ज्ञान की कोई किरण देना चाहते थे। नारद पृथ्वी पर आए और जब वापस जाने लगे तो उन्हें भगवान की बात याद आ गई। उनकी नज़र किसी चौधरी के घर गई, वे उसी की छत पर उतर गए। नीचे गए तो देखा कि चौधरी पूजा-पाठ की तैयारी कर रहा था। नारद जी ने श्री भगवान का संदेश चौधरी को सुनाया और कहा- आओ भाई, चलो स्वर्गलोक चलते हैं। चौधरी ने कहा- अरे, ब्रह्मर्षि जी आप भी कैसी बात करते हैं। अभी तो मुझे बेटी ब्याहनी है, अभी तो कई मामले निपटाने हैं, कई तरह की लेन-देन करती है। अभी मैं स्वर्गलोक नहीं चल सकता, अभी मैंने मृत्यु के बारे में सोचा ही नहीं है और आप बैकुंठ ले जाना चाहते हैं। मुझे अभी नहीं मरना है। लेकिन नारद जी जानते थे कि यह जो बेटी की शादी करने की सोच रहा है, इसकी तो दो घड़ी बाद मौत होने ही वाली है क्योंकि वे उसी आदमी को ले जाना चाहते थे जो मरने ही वाला हो ताकि बैकुंठ ले जाएँ और अगर यमदूत आ गए तो वे नरकलोक ले जाएँगे। दो घड़ी बाद मृत्यु हो गई। नारद जी के साथ जाने को तो वह तैयार न हुआ। मरने के बाद वह पुनः उसी घर में पैदा हो गया, लेकिन कुत्ता बनकर। नारद जी पुनः आए कि शायद अब उसके चलने की इच्छा हो जाए, कूकर योनि मिल गई है शायद अब तो इस योनि से मुक्त होना चाहेगा, भगवान का सान्निध्य पाना ३१५ For Personal & Private Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहेगा। वे कुत्ते के पास आए और बोले- चौधरी अब तो चलो। चौधरी रूप कुत्ते ने कहा- महाराज, आप भी क्या बात करते हैं, अभी तो मुझे इस घर की रखवाली करनी है। आप जानते नहीं हैं, मेरी विधवा पत्नी घर में अकेली है और बेटा भी बाहर गया है, इसलिए रखवाली करनी है। अभी मरने की फुर्सत नहीं है। नारद जी फिर वापस चले गए। थोड़े दिन बाद लौटकर आए कि शायद इस बार चलने की इच्छा हो जाए। देखा कि बेटे ने कुछ गलती की है तो चौधरी कुत्ता; जो अभी तक अपने को बाप ही समझता था, वहाँ जाकर भौंकने लगा (उसे लगा कि वह डाँट दे)। बेटे को गुस्सा आ गया। उसने पास में पड़ी लाठी उठाई और कुत्ते के सिर पर जोर से मार दी। कुत्ता वहीं मर गया। जब कुत्ता अंतिम साँसें गिन रहा था तब भी उसे आशा रही कि शायद बच जाऊँ और पत्नी की रखवाली कर सकूँ। हम अंतिम सांस तक भी आशा रखते हैं कि शायद किसी विधि बच जाएँ और जीवन का उपभोग कर सकें। लेकिन वह कुत्ता मर गया और मरकर साँप बना। साँप बनकर वहीं पैदा हुआ। नारद जी ने सोचा इसकी योनि और ख़राब हो गई है, चलो इसको ले चलता हूँ। वे साँप के पास आए। साँप ने बहाने बनाने शुरू कर दिए- नारद जी तुम्हें नहीं पता, मैंने इस आँगन में चार बड़े-बड़े घड़े सोने और चाँदी के भरकर रखे थे, मेरे बेटे को पता नहीं है इसलिए मुझे उनकी रखवाली करनी है। मैं अभी नहीं चल सकता। नारद श्रीभगवान के पास वापस पहुँचते हैं तो वे पूछते हैं- कहो भई किसी को लाए। नारद जी ने कहा- भगवन्, दुनिया में कोई भी इन्सान ऐसा नहीं है जो बैकुंठ आने के लिए मरना चाहता हो। दुनिया में इसी प्रकृति के लोग होते हैं जो मरना ही नहीं चाहते। लेकिन दूसरे तरह के मृत्यु से निर्भय लोगों की प्रार्थना होती है- हे प्रभु, जब भी तू मुझे बुलाना चाहे मुझे आराम से याद कर लेना, मैं हमेशा तुझे याद करता हुआ रहूँगा। ऐसे लोग कहते हैं- जब प्राण तन से निकलें तब होठों पर तुम्हारा नाम हो, जिह्वा पर तुलसीदल हो, मेरा तन मथुरा या वृंदावन के बंसीवट के नीचे हो- इस तरह उनके उन्नत भाव होते हैं कि चाहे जब मौत आए, वे स्वागत में तत्पर हैं। वे मृत्यु से घबराते नहीं हैं। पुरानी कहानी बताती है कि एक संत को किसी राजा ने फाँसी पर लटकाने का आदेश दे दिया था। संत को जब फाँसी पर चढ़ाया जा रहा था तो वह नाचने लगा। राजा ने सोचा शायद मृत्यु का नाम सुनकर यह पागल हो गया ३१६ For Personal & Private Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। राजा ने जल्लादों से कहा- ठहरो। और संत से कहा- मृत्यु के समय तुमने यह नाच-गाना क्यों शुरू कर दिया है। लोग तो रोते हैं और तू नाच रहा है। संत ने कहा- राजन्, तेरी मेहरबानी पर नाच रहा हूँ। इसलिए नाच रहा हूँ कि अभी तक एकमात्र यह शरीर ही तो ईश्वर से मिलने में, परमात्मा से मिलने में बाधक बना हुआ था। तेरी कृपा कि तू इस शरीर को ले रहा है। अब मेरा सीधा ईश्वर से मिलन होगा। - यह बात कौन कह सकता है, वही जो मृत्यु से निर्भय होते हैं। और जो मृत्यु के प्रति निर्भय होते हैं वे ही अपने शरीर के प्रति अनासक्त हो सकते हैं। वरना शरीर नश्वर है यह बात तो हम सभी जानते हैं। इसके बाद भी हम शरीर से चिपके रहते हैं। इस शरीर का पोषण करते हैं, भोग करते हैं, श्रृंगार करते हैं। हमारा जीवन शरीर तक ही सीमित रह जाता है। जो जीवन के और मृत्यु के मर्म को समझ जाते हैं वे मृत्यु से कभी घबराते नहीं हैं। जीवन को जानने वाले मृत्यु से डरते नहीं हैं। वे मृत्यु का स्वागत करते हैं। __मैं कोई मरने का समर्थन नहीं कर रहा बल्कि कह रहा हूँ कि मृत्यु से घबराएँ नहीं क्योंकि मृत्यु अवश्यंभावी है, मृत्यु जीवन का उपसंहार है। जो जीवन के मर्म को ठीक से समझ नहीं पाते हैं वे ही किसी की मृत्यु हो जाने पर अश्रु बहाते हैं। हम शाम को स्वादिष्ट भोजन करते हैं लेकिन दूसरे दिन मल विसर्जन करते हुए क्या रोते हैं कि हाय, कितना सुस्वादु था भोजन, उसकी यह दशा? लेकिन हम नहीं रोते हैं क्योंकि यह तो प्रकृति की व्यवस्था है, सहज ले लेते हैं। खाते समय आनन्द ज़रूर लेते हैं, पर जाते समय कोई अफ़सोस नहीं करता। जिसने जीवन की, प्रकृति की व्यवस्थाओं को समझ लिया है वह किसी के जन्म लेने पर थालियाँ नहीं बजाता और किसी के मर जाने पर आँसू नहीं ढुलकाता। सम्मान मिलने पर अहंकार ग्रस्त नहीं होता और आलोचनाओं से खिन्न नहीं होता। Everything remains normal for him. हर स्थिति में सहजता, अनासक्ति की भावना। मृत्यु के बारे में चिंतन करने से यही परिणाम मिलता है कि व्यक्ति किसी की मोह-ममता में अंधा नहीं होता। वह समझता है कि हम सब अज्ञात लोक से आते हैं और वापस अज्ञात लोक की ओर लौट जाएँगे। बहुत समय पहले मैंने एक कहानी पढ़ी थी जिसने मुझे जन्म और मृत्यु के ३१७ For Personal & Private Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबंध में विचार करने के लिए प्रेरित किया। हमने एक कहानी तो यह सुनी है कि किसी राजमहल में एक फ़क़ीर पहुँचा, पलंग लगाया और सो गया। कर्मचारी ने हटाया, पर न हटा। कर्मचारी ने कहा- महाराज, अगर आपको रुकना ही है तो किसी धर्मशाला में जाकर रुक जाइए। संत ने कहा- यह धर्मशाला ही है। दूर झरोखे में बैठा राजा यह सब देख-सुन रहा था। वह पास आकर बोला- महाराज आपको कुछ ग़लतफ़हमी हुई है। यह राजमहल है धर्मशाला नहीं। फ़क़ीर हँसने लगा और कहा - तुम कहते हो तो मान लेता हूँ कि यह राजमहल है, फिर भी मेरे लिए तो धर्मशाला ही है। राजा ने कहा- आप किस आधार पर इस राजमहल को धर्मशाला बता रहे हैं। फ़क़ीर ने कहा- मैं नहीं कह रहा, वास्तविकता भी यही है। अच्छा बताओ तुम कहाँ रहते हो? . राजा ने कहा - यहाँ राजमहल में। फ़क़ीर ने पूछा - तुम्हारे पिताजी कहाँ रहते थे? राजा ने जवाब दिया - इसी राजमहल में। फ़क़ीर ने पूछा उनके पिताजी के पिताजी कहाँ रहते थे ? राजा बोला वे भी इसी राजमहल में रहते थे। फ़क़ीर ने पूछा तुम्हारे परदादा और उनके दादा? राजा ने जवाब दिया - वे भी यहीं रहते थे। फ़क़ीर हँसा । उसने कहा- परदादा कहाँ हैं? राजा ने कहा चले गए। फ़क़ीर ने पूछा तुम्हारे दादा? राजा ने कहा वे भी चले गए। फ़क़ीर ने पूछा - पिताजी ? राजा ने कहा - वे भी चले गए। फ़कीर हँसा और कहने लगा- मूर्ख, जिस सराय में इतने लोग आकर चले गए और यह भी तय है कि इसी तरह तुम भी चले जाओगे, जहाँ इतने लोग आते हैं और चले जाते हैं तो यह धर्मशाला ही हुई न् ! सराय या धर्मशाला भी तो वही होती है जहाँ लोग आते हैं, रुकते हैं और ठहरते हैं फिर चले जाते हैं। अब तुम ही बताओ, अगर मैं इसे सराय न कहूँ तो क्या कहूँ ! फ़क़ीर तो इतना कहकर चला ३१८ For Personal & Private Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाता है, पर सम्राट् की आँखें खुल जाती हैं। अगले दिन ही सम्राट् जंगल की ओर निकल जाता है। ___ अनासक्ति के फूल ऐसे खिलते हैं। अब मैं वह कहानी बताता हूँ जिससे मैं प्रभावित हुआ- वह कहानी एक माँ की है। माँ किसी समय राजरानी थी। वह संत बन गई थी। एक दफ़ा उसने अपने पुत्र को ख़त लिखा- बेटा, मुझे पता चला है कि इस समय तुम पढ़ाई कर रहे हो। क्योंकि तुम एक संत माँ के बेटे हो इसलिए उम्मीद है कि धर्मशास्त्रों को भी जरूर पढ़ोगे। लेकिन मैं तुम्हें बताना चाहती हूँ कि धर्मशास्त्र इतने अधिक हैं कि तुम बूढ़े हो जाओगे तब भी पूरे पढ़ न पाओगे। तुम्हारी साध्वी माँ तुम पर गौरव कर सके इसलिए एक सलाह देना चाहती हूँ कि तुम राजगद्दी पर बैठो उससे पहले राजमहल का त्याग करके किसी एकान्त स्थान पर चले जाओ, किसी मठ या मन्दिर में रहकर वहाँ कुछ समय बिताओ और अपने-आप को पढ़ने की कोशिश करो। शायद चौरासी लाख शास्त्रों को पढ़ना मुश्किल हो सकता है लेकिन स्वयं के शास्त्र को पढ़ना तुम्हारे लिए सुगम हो सकता है। तुम्हारी माँ तुम पर गौरव कर सकेगी, तब तुम राज्य-संचालन अनासक्ति की भावना के साथ कर सकोगे। ख़त के नीचे लिखा था - तुम्हारी माँ, जो न कभी जन्मी, न कभी मरी। Never born, Never died. वर्षों वर्ष पहले मैंने यह खत पढ़ा और मुझे लगा कि मानो मेरी माँ ने मुझसे कहा हो- न जन्मी, न मरी- तुम सोचो अब तुम्हें क्या करना है। बहुत समय बीत गया जब मुझे उस खत को पढ़कर प्रेरणा मिली। अभी एक दार्शनिक चिंतक हए हैं- ओशो रजनीश! अपने निर्वाण से पहले उन्होंने भी अपने शिष्यों को बोध दिया होगा कि- ओशो, न कभी जन्मा, न मरा। इसीलिए उनकी समाधि पर एक ही लाइन लिखी गई- Osho, Never born, Never died- केवल इतने वर्ष से इतने वर्ष तक धरती पर रहे। - यह बहुत गहरा आध्यात्मिक ज्ञान है। हम सभी को बोध रखना चाहिए हम सब यहाँ हैं लेकिन किसी सागर की लहर की तरह हम सब आते हैं, कुछ देर अस्तित्व रहता है और लहर की तरह पुनः अंत हो जाता है। जीवन में यह बोध सदा बना ही रहना चाहिए। हम अनासक्ति की बातें बहुत करते हैं लेकिन गले तक आसक्ति में डूबे हुए हैं। महावीर के सूत्र हमें अन्तर्बोध कराते हैं और अनासक्ति की ओर ले जाते हैं। अभी For Personal & Private Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो हम यहाँ हैं, खेल रहे हैं, आमोद-प्रमोद कर रहे हैं और चले जाएंगे। चले जाना तय है इसीलिए किसी से मोह नहीं करते, किसी धृतराष्ट्र की तरह मोह में अंधे नहीं होते। रिश्ते बनाते हैं पर याद रखते हैं कि रिश्ते ज़िंदगी के लिए होते हैं, ज़िंदगी रिश्तों के लिए नहीं होती। हमारा जीवन रिश्तों से ऊपर है, रिश्तों से महान है। रिश्ते मिठास भरे हों यह अच्छी बात है लेकिन इस मिठास से जिंदगी में खटास नहीं आनी चाहिए। अगर ऐसा होता है तो ये रिश्ते बेमानी हैं, बेकार हैं। ___ भगवान महावीर विशुद्ध रूप से मुक्ति के पक्षधर हैं। ये वे हैं जिन्होंने अपने जीवन में निर्वाण और मोक्ष को उपलब्ध किया। इसीलिए उन्होंने बोधपूर्वक अपनी नश्वर देह का त्याग किया था। अनासक्ति का फूल खिला तभी श्रीकृष्ण ने गीता में कहा- जब मृत्यु आती है तब योगी अपने शरीर को वैसे ही छोड़ देते हैं जैसे साँप केंचुली छोड़ देता है। वे देह से चिपके नहीं रहते। ___मैंने सुना है प्राचीन काल में ऐसे ऋषि, मुनि, महात्मा आदि होते थे जिन्हें अपनी मृत्यु का पूर्वाभास हो जाता था। यह भी सुना है कि कुछ संत, महंत, गृहस्थ भी श्मशान तक गए, अपने लिए लकड़ियों की व्यवस्था की और लोगों से कहा कि- आओ, मैं अपनी नश्वर काया का इतने बजे त्याग करूँगा। इससे पूर्व वे सबसे क्षमा-प्रार्थना करते हैं, नेत्र बंद करके समाधि लगाते हैं और समाधि में ही देह का त्याग कर देते हैं। ____ मैंने स्वयं ऐसे लोगों को देखा है। यहाँ निकट में (जोधपुर के पास) आसोतरा गाँव है। राजपुरोहितों ने वहाँ ब्रह्मा जी का एक विशाल मंदिर बनाया है। कहा जाता है कि जो व्यक्ति ब्रह्मा जी का मंदिर बनवाता है उसे अपने शरीर का त्याग करना पड़ता है। राजपुरोहितों के गुरु ने घोषणा की थी कि- वे ब्रह्मा जी का मंदिर बनवा रहे हैं और जिस दिन ब्रह्मा जी की प्रतिष्ठा होगी उसी दिन प्रतिष्ठा होने के मात्र एक घंटे बाद वे अपने शरीर का त्याग कर देंगे। इस घोषणा को सुनकर बहुत लोग इकट्ठे हो गए। हज़ारों लोगों के सामने ही महाराज ने अपना चबूतरा बनवा लिया कि वहाँ उनकी समाधि बनेगी। जैसे ही प्रतिष्ठा हुई, वे चबूतरे पर आ गए और समाधि लगाकर बैठ गए और कहा- इतने बजकर इतने मिनिट इतने सेकेंड पर मैं अपने शरीर का त्याग करूँगा। उन्होंने समाधि लगा ली, लोग देख रहे हैं और ठीक समय देह त्याग दी। लोग देखते रह गए क्योंकि वे तो बैठे थे, बैठे ३२० For Personal & Private Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही रह गए। उन्होंने जो समय बताया था उसके आधा घंटे बाद उन्हें हिलाया गया तो नीचे गिर गए। कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें अपनी मृत्यु का पूर्वाभास हो जाता है लेकिन जो अनासक्त होते हैं उन्हीं को पूर्वाभास होता है। जिसने अपना पूरा जीवन प्रभुभजन में बिताया होता है उन्हें अपने जीवन और मृत्यु की हर स्थिति का पता होता है। शेष तो मृत्यु से घबराते हैं और मृत्यु को निकट देखकर क्रन्दन करने लगते हैं। भगवान महावीर कहते हैं- व्यक्ति को इस तरह मृत्यु से डरकर, जीवन से चिपके हुए रहकर जीना अर्थहीन है। मृत्यु तो अवश्यंभावी है, जीवन से गुजरना अगर मुश्किल हो जाए तो गुजर जाना ही अच्छा है, जिंदगी भारभूत हो जाए तो मर जाना ही अच्छा है। जब तक जिएँ प्रेम से जिएँ, मर-मरकर जीना भी कोई जीना है ! अब तो ‘इच्छा-मृत्यु' का चलन होने वाला है कि जो व्यक्ति असाध्य बीमारी से ग्रस्त है या कोमा में है अथवा जीवन की कोई आशा ही न रही उन्हें इच्छा-मृत्यु की अनुमति मिल सकती है। क्या फ़र्क पड़ता है दस वर्ष बाद मृत्यु आए या आज ही चले जाएँ। जब तक स्वस्थ, आनन्द के साथ जीवन जिया जा सकता है तभी तक जीना चाहिए अन्यथा गुजर जाना ही अच्छा है। कबीर का पद है चलती चक्की देखकर दिया कबीरा रोय । दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय।। जीवन और मृत्यु के जो दो पाट हैं उनमें हम सभी पिस रहे हैं, बचता केवल वही है जो धुरी पर केन्द्रित हो गया है। अर्थात् परम सत्य, परमात्म-तत्त्व, आत्म-तत्त्व की धुरी के प्रति जो आकर्षित हो गया वह तो मुक्त हो जाता है, शेष तो सभी जन्म-मरण की धारा के साथ चलते रहते हैं। न जन्म अच्छा है, न मृत्यु अच्छी है, अच्छा तो इन दोनों से ऊपर उठ जाना है। मरना अच्छा नहीं है पर मुक्त हो जाना प्राणीमात्र का सौभाग्य है। भगवान महावीर कहते हैं - मनुष्य की मृत्यु दो तरह से होती है - एक है बालमरण, दूसरी है पंडितमरण। बालमरण का अर्थ है अज्ञानी की मृत्यु, पंडितमरण का अर्थ है ज्ञानी की मृत्यु। अज्ञानी की मृत्यु आसक्त व्यक्ति की मृत्यु है और ज्ञानी की मृत्यु अनासक्त व्यक्ति के द्वारा देह-विसर्जन है। अज्ञानी की तरह मरने ३२१ For Personal & Private Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर हमें जनम-जनम तक अज्ञान का ही पोषण करते रहना पड़ेगा, जनम-मरण की धारा से बार-बार गुजरते रहना पड़ेगा। ज्ञानी की मृत्यु उसका वर्तमान जीवन भी धन्य करती है और अगला जन्म हुआ तो वह 'कुलयोगी' होगा। जन्म के साथ ही उसमें बोधि की भावनाएँ, प्रखरताएँ, प्रज्ञा प्रकर्षिता होती है। अष्टावक्र, ध्रुव, प्रह्लाद, नचिकेता, अतिमुक्त जैसे लोग केवल एक जन्म में नहीं, जन्म-जन्मान्तर की साधना से सिद्ध और योगी बन सके। वे अज्ञानी की तरह नहीं ज्ञानवान की तरह मृत्यु-जन्म-मृत्यु का खेल खेलते रहे। नचिकेता तो मात्र आठ वर्ष की आयु में ही सिद्ध हो गए, आत्म-ज्ञान को उपलब्ध हो गए, यमराज के साथ संवाद करने में समर्थ हो गए। यमराज से ऐसे प्रश्न किए कि वह भी आश्चर्य में पड़ गया। ऐसा सामर्थ्य आठ वर्ष के बालक में तभी हो सकता है जब वह पूर्व जन्मों से ज्ञान का अकूत ख़ज़ाना लेकर आया हो। कोई भी व्यक्ति एक ही पल में मुक्त नहीं हो जाता। जन्म-जन्मान्तर की साधना से ही कोई योगी मुक्त हो पाता है। केवल मोक्ष और मुक्ति की बातों से कोई मुक्त नहीं हो सकता। भगवान तो साँप और बिच्छू का रूप धरकर आ जाते हैं लेकिन व्यक्ति डरकर भाग जाता है। उसमें अभी निर्भयता आई ही नहीं। ____ मैंने हम्पी की गुफाओं में साधना की है जहाँ कभी सहजानंदघन जी ने भी साधना की थी, वहाँ मुझे बताया गया कि कई लोगों ने उनके साधना-काल में आसपास से साँपों को जाते हुए कई बार देखा है। सहजानंद जी ध्यानमग्न रहते थे और साँप पास में से आते-जाते रहते थे। ऐसे ही माउण्ट आबू में एक योगी हुए हैं शांतिविजय जी। वे वहीं गुफाओं में ध्यान-साधना करते थे। बताया जाता है कि उन गुफाओं के बाहर शेर, चीते घूमते थे, उन्हें बिना हानि पहुँचाए। वे निर्भयचेता हो गए थे, इसलिए उन्हें न किसी जंगली प्राणी से भय था न ही जंगली जानवरों को उनसे भय था। हमें अज्ञानी का मरण चाहिए या ज्ञानी का इसका निर्णय स्वयं ही करना होगा। मृत्यु तो निश्चित है इसलिए साधक को तो अवश्य ही यह निर्णय कर ही लेना चाहिए। जो चीज़ तय है उससे कैसा भय? मृत्यु आएगी तो आनन्द है, कभी इस बात की शिकायत नहीं करेंगे कि जीवन और चाहिए। व्यक्तिगत रूप से मैं कभी किसी को शतायु होने का आशीर्वाद देना पसंद नहीं करता। क्योंकि जितना ३२२ For Personal & Private Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिएँ आनन्दपूर्वक जिएँ, शतायु होने को कह देने से कोई शतायु हो नहीं जाता । आनन्द से जिएँ और आनन्द के साथ ही इस शरीर का त्याग करें। बस इतना - सा भाव रखते हैं जब यह शरीर छूटे तब ध्यान और साधना की अवस्था हो, साथ अन्तर्मन का तार जुड़ा रहे, प्रभु के साथ एकलय रहें, शरीर तो नीचे छूट जाए और हम प्रभु तुममें समा जाएँ । जैसे ज्योति ज्योति में मिलती है वैसे ही हम इस नश्वर देह का त्याग करके परम ज्योति में समाविष्ट हो जाएँ । प्रभु के न मृत्यु का भय है, न मृत्यु की वांछा है लेकिन यह भावना तो रख ही सकते हैं। ज़रूरी नहीं है कि जैसा हम चाहें वैसा ही हो जाए और संभावना यह भी है कि हमारी चाहत पूरी हो जाए। चाहने से राह भी मिल जाती है इसलिए हम अपनी चाहत को इतना प्रगाढ़ कर लें कि समाधि की दशा घटित हो ही जाए। भावना पूरी न भी हो तो जो घटे उसका भी आनन्द है । मृत्यु तो निश्चित है और जो चीज़ निश्चित है उससे कभी डरना नहीं चाहिए वरन् जो होने वाला है उसे और अधिक बेहतर कैसे बनाया जा सकता है इसका प्रयत्न अवश्य करना चाहिए । माटी वही सार्थक है जो अपने परिणाम तक पहुँचती है। जैसे मैंने संन्यास लिया है और अगर संन्यास को अंतिम परिणाम तक नहीं पहुँचा पा रहा हूँ तो मेरा संन्यास व्यर्थ है। अगर आप ध्यान कर रहे हैं और परिणाम तक नहीं पहुँच रहे हैं तो आपकी ध्यान की बैठकें व्यर्थ हैं। हम कोई शास्त्र पढ़ रहे हैं और उस पर चिंतन कर रहे हैं और ज्ञान के परिणाम तक नहीं पहुँच पाए तो उस शास्त्र के बारे में सुनना, पढ़ना, पारायण करना सब बेकार है । कोई व्यक्ति फैक्ट्री खोलता है और लाभ के परिणाम तक न पहुँचा तो यह केवल फैक्ट्री में आना-जाना ही तो हुआ। परिणाम मिले तो ही सान्निध्य सार्थक है, सत्संग सार्थक है। कार्य-कारण का सिद्धान्त यही तो समझाता है कि अगर कोई कारण है तो उसे कार्य तक पहुँचाया जाए। माटी अगर असफल हो गई तो यह माटी का नहीं कुम्हार का दोष है कि उसने कलश नहीं बनाया । अगर कोई व्यक्ति नदी पार करने के लिए नौका पर चढ़ गया लेकिन पार न हो सका तो यह नाविक का ही दोष होगा। गुरु वही कहलाता है जो व्यक्ति को इस तट से उस तट तक पहुँचा दे, अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाए। ज्ञानपूर्वक शरीर का विसर्जन कैसे किया जाए गुरु हमें इसका ज्ञान देते हैं। अनासक्ति द्वार है । अन्तर आत्मा में जिओ और For Personal & Private Use Only ३२३ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक दिन नश्वर देह का त्याग करके चले जाओ। जैन धर्म में एक परम्परा है ‘संलेखना' लेने की। संलेखना का अर्थ है- शरीर और मन को धैर्यपूर्वक समझते हुए तितिक्षापूर्वक उसका त्याग करना। जब जीवन के सारे उद्देश्य पूर्ण हो जाएँ, जितना जीना था जी चुके, जितना सार्थक करना था कर लिया और अब नश्वर देह का त्याग करना चाहता है ऐसा व्यक्ति संलेखना व्रत लेता है। इसमें वह अन्न-जल का त्याग करते हुए, बोध, समाधि और आत्मभाव में लीन होता हुआ धीरे-धीरे अपनी देह का विसर्जन करता है और अखण्ड समाधि में समाधिस्थ होता है। हममें से कई लोगों ने समाधि संलेखनापूर्ण मरण देखा है। ऐसे लोगों को अवश्य देखना चाहिए कि वह किस तरह मृत्युंजय बन रहा है ताकि हमारे भीतर भी अनासक्ति घटित हो सके। जीवन के प्रति अनासक्ति के फूल खिलाने के लिए हमें एक बार श्मशान ज़रूर जाना चाहिए। मेरा तो कहना है साधना-मार्ग पर आने से पहले व्यक्ति को कम-से-कम तीन माह तक श्मशान या कब्रिस्तान में ज़रूर जाना चाहिए । इससे वह या तो नश्वर देह के प्रति अनासक्त हो जाएगा या वह जीवन के प्रति निष्ठाशील हो जाएगा। तब उसे मौत एक खेल जैसी लगेगी, बिखर गया शरीर, ठीक है। तब वह खुशी और ग़म दोनों से मुक्त हो जाएगा। श्री भगवान कहते हैं - जब कोई व्यक्ति ज्ञानी की तरह अपने शरीर का विसर्जन करता है उस समय उसे अपने अन्तर्मन में किसी भी तरह की इच्छा, मोह-माया संग्रहित नहीं करनी चाहिए, अन्यथा यह संग्रह उसे पुनः जन्मधारा की ओर ले आएगा। क्योंकि अन्त मति सो गति। अंतिम समय में जैसी मति होगी उसकी गति, दुर्गति, सद्गति भी वैसी ही हो जाएगी। तभी तो हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि प्रभु तू मुझ पर इतना रहम कर कि जब तक हम जिएँ तब तक हमारी बुद्धि सद्बुद्धि रहे और जब हम मरें तो हमारी गति सद्गति हो। हमें प्रभु से इतनी-सी कृपा ही तो चाहिए। अंतिम समय में अगर हमारे भीतर किसी भी प्रकार की माया की गाँठ बँध गई फिर चाहे वह अनुरागमूलक हो या विद्वेषमूलक यह जन्म-जन्मांतर तक हमारा पीछा करती रहेगी। हम सभी महावीर के पूर्वभव के बारे में जानते हैं जब उन्होंने क्रोध में आकर अपने ही अंगरक्षक के कानों में खौलता हुआ शीशा डलवा दिया था क्योंकि अंगरक्षक ने उनकी आज्ञापालन में कोताही बरती थी। जब उसके कानों में ३२४ For Personal & Private Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खौलता शीशा डाला गया तो स्वाभाविक है कि उसके मन में भी अत्यधिक क्रोध पैदा हुआ होगा, पर अंगरक्षक था कुछ बोल न पाया और मर गया। लेकिन अंतिम समय में जो दुर्भाव मन में रह गया उसके कारण वही अंगरक्षक आगे किसी जन्म में ग्वाला बनता है और महावीर के कान में कीलें ठोकता है। ये कील ठोकना, कानों में डाले गए पिघले शीशे का भुगतान था। अर्थात् अंतिम समय में जो संकल्प रहे होंगे, जो भाव रहेंगे अगले जन्म में भी वे सब हुआ करेंगे। एक कहावत है- सेठ जी मृत्यु शैय्या पर थे, उनके तीन बेटे थे। आँखें अब बंद हों तब बंद हों की स्थिति में थीं तभी उन्होंने पूछा- बड़ा बेटा कहाँ है? उत्तर मिला- आपके सिरहाने खड़ा है। फिर पूछा- छुटका कहाँ है? बताया गया कि आपके पाँवों की ओर खड़ा है। फिर पूछा- मँझला कहाँ है? उत्तर मिला- मैं आपके पास ही बैठा हूँ। मोहासक्त सेठ कहता है- अगर तीनों ही यहाँ हैं तो दुकान कौन चला रहा है? बताइये इस स्थिति में अगर उसकी मृत्यु हो जाती है तो उसकी क्या गति होगी, क्या स्थिति होगी? जब किसी व्यक्ति को यह अन्तर्बोध घटित हो जाता है तब उसकी चेतना बदलती है। ऐसा कोई-सा ही प्राणी होता है जिसमें बदलाव आता है, उसके भीतर अनासक्ति का कमल खिलता है। तब उसकी मृत्यु तो अवश्य होती है लेकिन वह ज्ञानी की, पंडित मरण की स्थिति हो जाती है। __ मरते समय क्या मति, क्या स्थिति रहेगी, इसकी भविष्यवाणी तो नहीं की जा सकती लेकिन यह भावना अवश्य रहे कि श्री प्रभु जब भी यह नश्वर शरीर छूटे, तब हमारा इस नश्वर संसार के प्रति मोह न हो, घर-परिवार, पत्नी-बच्चे, रिश्तेदारों के प्रति व्यामोह न हो और अपने हिस्से का धन दीन-दुःखी अनाथों के लिए लगा दिया जाए। मैंने स्वामी रामसुखदास जी महाराज की वसीयत पढ़ी है। वे त्यागी तपस्वी संत थे। मरने से पहले अपनी वसीयत में उन्होंने लिखवाया था- मेरे मरने के बाद न तो मेरी अर्थी सजाई जाए, न ही विज्ञापन दिया जाए, न मेरे नाम से कोई जलसा किया जाए बल्कि मेरे शव को मेरे पहने हुए कपड़ों में बाँध लिया जाए For Personal & Private Use Only ३२५ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और गंगा - किनारे मेरी अंत्येष्टि करके मेरी अस्थियों को गंगा जी में विसर्जित कर दिया जाए। अगर ऐसा अवसर न बन पाए, क्योंकि यह ज़रूरी नहीं है कि गंगा जी पास में हो, तब ऐसे स्थान पर अंतिम संस्कार किया जाए जहाँ पर सौ-पचास गौमाताएँ चरती हों, बैठती हों, रहती हों। जहाँ गौमाताएँ रहेंगी वहाँ स्वयं गोविंद का निवास होगा। जब उनकी मृत्यु हुई तो गंगा जी पास में ही थीं। लेकिन यह मुख्य बात नहीं है, मूल भाव यह है कि उनकी मृत्यु कैसे हो। ऐसे लोग निर्भय होकर मृत्यु के करीब जाते हैं और उनके भाव होते हैं या तो गंगा जी बगल में हो या ऐसा स्थान हो जहाँ गौएँ चर रही हों। श्री भगवान चाहते हैं अपने जीवन में निर्वाण की ज्योति जले, मोक्ष का अखण्ड स्वरूप उजागर हो। निर्वाण की ज्योति के लिए, मोक्ष के लिए भी तो हमें तैयारी कर लेनी चाहिए। हमारे हाथ में जो वर्तमान है इसे इतना धन्य करें कि अगर मृत्यु आज ही आ जाए तो हमें यह प्रार्थना करने की ज़रूरत न पड़े कि हे प्रभु, हमें चार दिन और जी लेने दें। प्रभु मंदिर में जाएँ तो यह तमन्ना न करें कि दस वर्ष की उम्र और दे। बस यही चाहें जितना जिएँ स्वस्थ रहें, आनन्दपूर्वक तुम्हारा नाम लेते हुएँ तुम्हारा नाम लेते हु ही मर जाएँ । मृत्यु के बारे में चर्चा इसलिए प्रासंगिक है ताकि हम लोग इस स्वार्थ भरे संसार में आसक्त न हों, न इसमें उलझें और अनासक्ति के फूल अपने जीवन में ज़रूर खिला सकें। श्रीमद् राजचन्द्र के पड़ोस में किसी की मृत्यु हो गई थी। राजचन्द्र उस समय बालक ही थे अतः उनको वहाँ से हटा दिया गया। लोग वहाँ रो रहे थे। राजचन्द्र ने अपने पिता से पूछा- ये क्या हो गया है। पिताजी ने कहा- कुछ नहीं, कुछ नहीं, ऐसे ही कुछ हो गया है। राजचन्द्र कहने लगे- नहीं, नहीं, बताइये क्या हो गया है ? बच्चा जब जिद करने लगा तो पिता ने कहा- वह व्यक्ति चल बसा है, उसकी मृत्यु हो गई है। राजचन्द्र ने पूछा- मृत्यु क्या होती है ? उसे समझाया गया एक-न-एक दिन सभी को शरीर छोड़ना पड़ता है, अब वे चले गए हैं। अब कभी वापस नहीं आएँगे । - राजचन्द्र उस समय आठ-नौ वर्ष के बालक थे, उनको ये सारी बातें समझ में नहीं आईं। बच्चे को घर में रखकर सभी लोग दाह-संस्कार के लिए चल ३२६ For Personal & Private Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पड़े। राजचन्द्र ने सोचा ये इसे कहाँ ले जा रहे हैं। वह भी छिपते-छिपाते पीछे से चला और श्मशान के पास एक पेड़ पर चढ़कर बैठ गया। उन्होंने शव को बँधा हुआ देखकर सोचा इसे बाँधा क्यों है? वहाँ लकड़ियाँ सजाई गईं, उस पर वह शरीर रखा गया, तूली लगाई गई, पिण्डदान दिया गया। सोचा आटे का पिण्ड दे रहे हैं लेकिन इसे कोई खा तो नहीं रहा है, घी डाला गया। आग जलने लगी वे सोचने लगे- अरे रे............ यह क्या हो रहा है, मेरे चाचाजी को तो जलाया जा रहा है। वे देख रहे हैं, शरीर जलकर राख हो गया और सब लोग वहाँ से चले गए। वे वहीं बैठे रह गए। लोग चले गए। जलाने वाले सैकड़ों जाते हैं पर अन्तर्बोध प्राप्त करने वाला कोई विरला ही होता है। श्मशानी-वैराग तो कई लोगों को आता है, पर कुछ समय बाद हम सब वैसे के वैसे हो जाते हैं जैसे कुछ हुआ ही न हो। देह तो जला दी गई, पर वह बालक राजचन्द्र अन्तर्ध्यान में लीन हो गया, चिंतन करता रहा और चिंतन करते-करते जीवन का मर्म समझ लिया कि यह जीवन है। जो जन्मा है एक न एक दिन अवश्य मरेगा, मैं भी मरूँगा। मैं भी मरूँगा'- इस बात ने राजचन्द्र की आत्मा को जगा दिया और तब एक महान साधक का जन्म हुआ जिनका नाम श्रीमद् राजचन्द्र था। ये वही हैं जिन्हें महात्मा गांधी ने कभी गुरु के समान आदर दिया था। बचपन में मैंने भी मृत्यु को करीब से देखा था, जब एक व्यक्ति की हमारे घर के सामने हत्या कर दी गई थी, वह लहूलुहान था और उसके पास कोई नहीं जा रहा था। मेरा मन भी द्रवित हो गया था पर हमें भी घर के अंदर बुला लिया गया था। पर मैं उस दृश्य को भुला न पाया और मनुष्य-मन की क्रूरता और मृत्यु के बारे में सोचता रह गया। एक बार और मैंने मृत्यु को देखा। जब मैं साधना में लीन था तब स्वयं की मृत्यु को घटित होते हुए देखा। गहन ध्यान के क्षणों में देखा कि मैं अपनी देह से अलग हो चुका हूँ। मेरी चेतना अपने शरीर को देख रही है। मैंने देखा कि लोगों ने मेरे शरीर को जला ही दिया है, मैं खुद उस आग को अनुभव कर रहा था। उसी समय एक मुक्त सिद्ध योगी मेरे पास आता है और कहता है- आओ चन्द्रप्रभु, हम लोग मुक्त विहार करके आते हैं, इस नश्वर देह का त्याग करते हैं। तब उस जलती हुई काया को देखकर यह गीत उभरा था अब कबीरा क्या सिएगा, जल रही चादर पुरानी । ३२७ For Personal & Private Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिट्टी का है मोह कैसा, ज्योति ज्योति में समानी ।। तन का पिंजरा रह गया है, उड़ गया पिंजरे का पंछी । क्या करें इस पिंजरे का, चेतना समझो सयानी ।। घर कहाँ है धर्मशाला, हम रहे मेहमान दो दिन । हम मुसाफ़िर हों भले ही, पर अमर मेरी कहानी ।। जल रही धूं-धूं चिता, और मिट्टी मिट्टी में समानी । चन्द्र आओ हम चलें अब, मुक्ति की मंज़िल सुहानी ।। जब यही अन्तर्बोध हम सबके भीतर घटित होता है तब जन्म और मृत्यु दोनों के प्रति हम सहज हो जाते हैं। यही सहजता हमें अनासक्त बनाती है। अन्तर्मन में मुक्ति का कमल खिलाती है। तब हम धृतराष्ट्र की तरह अंधे न होकर कर्ण की तरह दानवीर हो जाते हैं, महावीर की तरह मुक्त हो जाते हैं, मीरा की तरह प्रभु -भजन में थिरकने लगते हैं। ‘पग धुंघरू बाँध मीरा नाची रे'। तब भीतर कोई नृत्य कर उठता है। हम चैतन्य प्रभु बन जाते हैं, चेतना के मालिक बन जाते हैं। कुल मिलाकर श्री भगवान हम सभी की मुक्ति और कल्याण चाहते हैं। हम सभी निर्वाण और कल्याण-पथ को उपलब्ध हों यही मंगल भावना प्रेमपूर्ण नमस्कार ! ३२८ For Personal & Private Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेहतरीन किताबें रॉयल साइज, रॉयल मैटर रायल प्रजेंटेशन किताबों की कीमत लागत से भी कम gी HिEROYखी mea श्री चन्द्रप्रस जीने की कला घरको का लाइफ हो तो ऐसी! स्वगबन सी.स्तावमा मालक श्री ललिता ऐसीहो जीने की शैली -tant प्रववव श्री चन्द्रप्रभ जीने की कला पृष्ठ:196 मूल्य:50/ लाइफ हो तो ऐसी! पृष्ठ:144 मूल्य : 40/ ऐसी हो जीने की शैली पृष्ठ:160 मूल्य : 30/ घर को कैसे स्वर्ग बनाएँ पृष्ठ:48 मूल्य : 10/ श्रीललिताणाम मधुर जीवन | कैसे बनाएँ समय को बेहतर उत्पण की दुरी पारी या लक्ष्य बनाई, पुरुषार्थ जगाएँ योग अपनाएं, MOST di प्रेरणा पृष्ठ: 112 मूल्य : 25/- लक्ष्य बनाएँ, पुरुषार्थ जगाएं पृष्ठ:128 मूल्य : 40/- कैसे जिएँ मधुर जीवन पृष्ठ:112 मूल्य : 25/- कैसे बनाएँ समय को बेहतर योग अनाएँ, ज़िंदगी बना पृष्ठ:112 मूल्य : 25/- पृष्ठ:108 मूल्य : 25/माँ की ममता हमें पुकारे ध्यात्मिक विकास जागे महावीर जीवन के समाधान श्री चन्द्रप्रभ O जरा मेरी ७. 31a से देखो श्री चन्द्रमा जीवन के समाधान पृष्ठ:160 मूल्य:80/- जागे सो महावीर पृष्ठ: 192 मूल्य : 40/- जरा मेरी आँखों से देखो पृष्ठ: 112 मूल्य: 25/- माँ की ममताहमें पुकार पृष्ठ: 32 मूल्य:8/- कैसे करें आध्यात्मिकविकास पृष्ठ:160 मूल्य:50/ YYYIsss पल-पल लीजिए, जीवन का आनंद दिल्म में रानी स्वरां का कायाकल्प रास्ता शाति, शिद्धिार गक्ति पाने सरल चिंता, क्रोध तनाव-मक्ति के सरल उपाय । रास्ता शाति, सिद्धि और मुक्ति चिंता, क्रोध और तनाव पाने का सरल रास्तामुक्ति के सरल उपाय पृष्ठ:176 मूल्य:40/- पृष्ठ: 160 मूल्य:50/- पल-पल लीजिए जीवन का आनंद पृष्ठ:112 मूल्य: 25/ यह है रास्ता जीवंत धर्म का पृष्ठ:120 मूल्य: 25/- 7 दिन में कीजिए स्वयं का कायाकल्प पृष्ठ: 176 मूल्य: 30/ For Personal & Private Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानयोग विधिौरवचन श्री चन्द्रप्रभ अमत कापथ -emeone Pradiseas रूपांतरण - क मृत्यु से ___मुलाकात गमन श्री चन्द्रप्रभ मोबावाला बाबा मृत्यु से मुलाकात पृष्ठ: 200 मूल्य : 50/- ध्यानयोग विधि और वचन पृष्ठ:160 मूल्य : 40/- रूपांतरण पृष्ठ:160 मूल्य : 25/ कौन है मैं कौन हूँ पृष्ठ:112 मूल्य : 25/- अमृत का पथ पृष्ठ:176 मूल्य : 80/ उजाएं heयोग ध्यानयाग विपश्यना इकतारा महागुहा की चेतना सयारामसे समारो तक का सफर स्वा माताकार का दिया मार्ग aag महागुहा की चेतना पृष्ठ: 192 मूल्य : 40/- बजाएँ अन्तर्मन का इकतारा पृष्ठ: 192 मूल्य : 40/- दयोग पृष्ठ : 192 मूल्य : 40/- द विपश्यना पृष्ठ:160 मूल्य: 30/- ध्यानयोग पृष्ठ:160 मूल्य:80/ श्री नाम आत्मा की प्यास ध्यान बेहतर जीवन के बेहतर चन्द्रमा समाधान - - - -- - अंतयात्रा अंतर्यात्रा पृष्ठ: 160 मूल्य : 30/- ध्यान पृष्ठ: 160 मूल्य : 25/ आत्मा की प्यास बुझानी है तो पृष्ठ:112 मूल्य : 25/- श्री चन्द्रमा को श्रेष्ठ कहानियाँ शाति पाने का सरल रास्ता पृष्ठ: 112 मूल्य : 25/- जिएंतो ऐसे जिाएं बेहतर जीवन के बेहतर समाधान पृष्ठ:126 मूल्य : 25/पर्युषण - जागो और पार्थी पानीला HOMEREMM आमा Hशौक 18 PER श्रेष्ठ कहानियाँ पृष्ठ:128 मूल्य : 25/- जिएं तो ऐसे जिएं पृष्ठ: 128 मूल्य : 40/ महाजीवन की खोज पृष्ठ:160 मूल्य : 40/- जागो मेरे पार्थ पृष्ठ: 250 मूल्य : 45/- पर्युषण प्रवचन पृष्ठ: 112 मूल्य : 25/ न्यूनतम 400 -कासाहित्य मंगवाने पर डाकखर्च संस्थाद्वारा देय होगा। धनराशिSRIJITYASHASHREE FOUNDATION के नाम से ड्राफ्ट बनाकर जयपुर के पते पर भेजें। उपरोक्त साहित्य प्राप्त करने हेतु अपना ऑर्डर निम्नपते पर भेजें। श्री जितयशा श्री फाउंडेशन 1-7, अनुकम्पा द्वितीय, एम. आई. रोड, जयपुर (राज.)0141-2364737, 237575 For Personal & Private Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ON 555555 भगवान महावीर कल के महापुरुष हैं और श्री चन्द्रप्रभ आज के। कल के सूर्य से आज की दिशाओं को रोशन किया जा सकता है। समस्याएँ तो तब भी थीं और आज भी हैं।अतीत में भी समाधान तलाशेगए और आज भी तलाशे जा रहे हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने महावीर को आधार बनाकर आज की समस्याओं के समाधान ढूँढ़े हैं। उन पर प्रभावी प्रकाश डाला है। श्री चन्द्रप्रभ जैसे महान चिन्तक एवंदार्शनिकजब किसी बिंदु पर प्रकाश डालते हैं तो उसको सुनने, समझने और जीने का आनंद ही कुछ और होता है। श्री चन्द्रप्रभ के ये दिव्य प्रवचन घायल एवं मूर्च्छित मानवता के लिए संजीवनी की तरह हैं। यह ग्रन्थ वास्तव में महावीर के शांति-पथ को उजागर करता है। इसके जरिये पा सकते हैं आप 'शांति और बोधपूर्वक जीने की कला।' यदि आप इस ग्रन्थ की बातों को अपने घर-परिवार और समाज में लागू करते हैं तो आप इस धरती पर ही स्वर्गकोईज़ादकरने में सफल हो सकते हैं। Rs50 Spiritual book Ja Education Intational Fon Personal & Private Use Only www.jainelibrary card