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बनायेंगे तो हाथ जल सकता है, चलेंगे तो ठोकर लग सकती है - यह सब असावधानी के कारण हुआ करता है । प्रचलित कहावत है - सावधानी हटी कि दुर्घटना घटी। अर्थात् एक चूक होते ही सौ किलोमीटर सावधानी से तय किया गया रास्ता भी अचानक टक्कर लगती है और कार खाई में जा गिरती है। जब भी दुर्घटना या हादसा होता है वह उस पल में असावधानी हो जाने का परिणाम होता है। जीवन के प्रत्येक घंटा, प्रत्येक मिनट, प्रत्येक सैकण्ड, प्रत्येक पल पर जिस चीज़ की ज़रूरत है वह सावधानी है। इस सावधानी को दूसरी भाषा में सचेतनता कहेंगे, जागरूकता awareness कहेंगे ।
लोग समझते हैं कि धर्म और अध्यात्म की बातें, उनके शब्द बहुत ऊँचे होते होंगे, पर ऐसा नहीं है। सावधानी कहते ही सचेतनता आ गई है। सावधानीपूर्वक प्रत्येक कार्य को सम्पादित करना ही अहिंसा को जीवन में आचरित करना है। सावधानी जीवन के प्रत्येक कार्य को अहिंसापूर्वक सम्पादित करने का गुरुमंत्र है। सजगता, सचेतनता - जीवन के प्रत्येक कार्य को अहिंसापूर्वक करने का राजमार्ग है।
_ भगवानश्री कहते हैं सावधानी को जीने का तरीका होता है व्यक्ति जतन से, ध्यान से जिए । जतन से जीना धर्म को जीना है । जतन से जीना, धर्म का पालन करना है । जतन से जीना अपने आपको धर्म में बढ़ाना है। जतन से जीना - स्वयं के लिए और दूसरों के लिए भी सुखदायी है । जतन से करो यानी ध्यान से करो। शब्द कितने ही हों पर अर्थ एक ही है कि ध्यान से करो, विवेक से, सावधानीपूर्वक करो।
महावीर ने अहिंसा को तीर्थ के रूप में स्थापित किया। महावीर की धर्म-सभा का जो समवसरण था, सभा-मंडप था, उसका नाम ही था - अहिंसा समवसरण । एक ऐसा सभा-मंडप जहाँ किसी की हिंसा नहीं होती वरन् सभी को अहिंसापूर्वक जीने का अधिकार मिलता था, बैठने का, सुनने का अधिकार मिलता था । कहते हैं महावीर जब बोलते थे तब केवल गरीब-अमीर, क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र ही नहीं पशु-पक्षी भी आते थे। प्राचीन पुस्तकों में तो यह भी पढ़ने को मिलता है कि उन्हें सुनने के लिए देवता तक आते थे। जहाँ छत्तीस कौम के लोग बिना भेद के सुनने
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