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युधिष्ठिर को मौत कबूल थी । वह द्रोण के पास पढ़ा ऐसा छात्र था जिसने केवल पाठ नहीं जीवन के पाठ पढ़े थे । वह जीवन की पाठशाला में पढ़कर आया हुआ छात्र था । मज़बूर होकर क्योंकि गुरु द्रोणाचार्य के सामने पराजय होती दिखाई दे रही थी तब उन्हें अपने भाइयों के सामने आधा झूठ बोलना पड़ा कि अश्वत्थामा हतः नरो वा कुंजरो वा । 'अश्वत्थामा हतः ' तो उन्होंने जोर से कहा लेकिन 'नरो वा कुंजरो वा' धीरे से कहा । युधिष्ठिर ने जीवन भर प्रबल पुण्य सँजोए थे लेकिन इस झूठ का दाग़ उन पर लगा रह गया कहा जाता है कि द्रोणाचार्य ने अपने अस्त्र-शस्त्र का त्याग कर दिया और अश्वत्थामा जो युधिष्ठिर का बहुत चहेता था एकमात्र इस कारण से उनका दुश्मन हो गया। क्योंकि उसने उसके पिता के साथ छल किया, झूठ का उपयोग करते हुए उसके पिता का वध करवाया । वास्तव में वे लोग जीवन का पाठ पढ़ने वाले लोग थे
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सौ बार सच बोलने वाला अगर एक बार भी झूठ बोल दे तो निन्यानवे पर पानी फिर जाएगा । निन्यानवे बार व्यक्ति जब सच बोलता है तो उसकी कसौटी नहीं होती लेकिन जब उसकी कसौटी होती है उस समय अगर फेल हो गया, असफल हो गया तो निन्यानवे बार भी वह असफल ही कहलाएगा। हम लोग भी अगर अहिंसा के, जीवन के प्रबंधन के पाठ पढ़ते हैं तो अहिंसा को किस तरह से अपने जीवन में जिया जा सकता है इसके पाठ पढ़ने होंगे और अपनी प्रेक्टीकल लाइफ में अहिंसा को, नॉन-वॉयलेन्स को किस तरह अपनाया जा सकता है इसका अनुभव लेना होगा। सामान्यतः हम सभी पानी छानकर पीते हैं - जो अहिंसा का पहला पाठ है। मांसाहार का पूरी तरह वर्जन करते हैं - यह दूसरा पाठ है। रात्रि - भोजन से अधिकांशतः बचने की कोशिश करते हैं - यह अहिंसा का तीसरा पाठ है। किसी भी प्राणी का वध नही करते - यह अहिंसा का चौथा पाठ है। आज हम इन पढ़े हुए पाठों की चर्चा नहीं करेंगे वरन् अहिंसा को किस तरह सहज-सरल रूप के साथ जिया जा सकता है, उसकी चर्चा करेंगे।
अहिंसा को जीने का पहला मंत्र है - अपने प्रत्येक कार्य को सावधानी से करो । सावधानीपूर्वक कार्य करने से सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव की भी हिंसा नहीं होगी । लापरवाही करते हुए बोलेंगे तो बोलने में चूक हो सकती है। खाना
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