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________________ और वहीं रहकर संन्यास-जीवन धारण कर शेष जीवन को धन्य बनाने का संकल्प कर लिया। राजा ने संन्यास ग्रहण कर लिया और अपने कर्मचारी से कहा - अगर तुम चाहो तो तुम भी यहाँ रह सकते हो और इच्छा हो तो वापस अपने घर भी जा सकते हो । हाँ, अगर जाना चाहते हो तो मैं अपने साथ लाई हुई हज़ार स्वर्ण-मुद्राएँ तुम्हें भेंट में देता हूँ क्योंकि तुमने मेरी यहाँ तक सेवा की है, मेरा साथ निभाया है। सेवक ने कहा - मुझे तो जाना पड़ेगा राजन् । अभी पोतेपोती, बहूरानी इनको भी तो कुछ लाड़-प्यार कर लूँ। अभी मन तृप्त नहीं हुआ है। वह सेवक स्वर्ण-मुद्राएँ लेकर लौट आया। गधे ने कहानी जारी रखी - पंडित जी ! वह राजा तो मरकर देवलोक में गया और वह सेवक मरकर मैं गधा बना । क्या आप इस रहस्य को समझे ? वह घड़ियाल आपको देखकर इसीलिए हँसा क्योंकि किसी समय मैंने भी यही मूर्खता की थी। मैंने यह नहीं सोचा कि इस संन्यास में ऐसा क्या है जिसके कारण महाराज अपने सारे राज्य का त्याग करके संत बन रहे हैं और मैं कैसा लोभी निकला कि हज़ार स्वर्ण-मुद्राओं को लेकर वापस आ गया। एक त्याग रहा था दूसरा ले रहा था। राजा ने त्याग करके अपना जीवन सुधार लिया और मैंने लालच में रहकर स्वयं को गधा बना लिया। घड़ियाल इसलिए हँसा कि वह मोतियों के हार, और मोतियों के घड़े देकर त्रिवेणी तक पहुँच गया और तुम त्रिवेणी तक पहुँचकर भी वापस लौट आए। दुनिया में दो प्रकार के लोग होते हैं - एक धर्म को महत्त्व देने वाले, दूसरे जो धन को महत्त्व देते हैं। जो धन को महत्त्व देते हैं वे किसी ब्राह्मण पंडित की तरह या सेवक की तरह धन को लेकर संसार की तरफ चले जाते हैं, दूसरे धन का त्याग करके भी स्वयं के लिए धर्म को उपलब्ध करना चाहते हैं। यह तो व्यक्ति के नज़रिये और चाहत पर निर्भर करता है कि वह जीवन में धर्म या धन किसका संग्रह करना चाहता है। कितने आश्चर्य की बात है कि एक मगरमच्छ को आत्म-बोध जग गया और वह धन का त्याग करने को तत्पर हो गया, लेकिन एक ज्ञानी-पंडित-विद्वान को यह बोध नहीं जग पाया और वह धन के पीछे पागल बना रहा। जो अपने जीवन में धर्म का संग्रह करते हैं, धर्म का अनुसरण करते हैं वे १३१ www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.003880
Book TitleMahavir Aapki aur Aajki Har Samasya ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages342
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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