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________________ समस्त अवतार और पैग़म्बरों के उपदेशों का सार ‘अहिंसा' शब्द में पिरोया जा सकता है। 'अहिंसा' माँ के दूध के समान है, वर देने वाले कल्पवृक्ष के समान है। अहिंसा दीन-दुःखियों को तारने वाला तीर्थ है। यह वह आधार है जिस पर धरती टिकी रह सकती है, हम एक-दूसरे से प्यार-मोहब्बत कर सकते हैं, दीन-दुःखियों के लिए सहायक बन सकते हैं, एक-दूसरे को गले लगा सकते हैं अर्थात् अहिंसा के द्वारा इन्सान इन्सान बन सकता है। इन्सान अगर थोड़ा-सा और ऊपर उठना चाहे तो उसके लिए सत्य, ब्रह्मचर्य, अनासक्ति, तप और त्याग जैसे अन्य रास्ते भी उपयोगी बन जाएँगे, पर पहली नींव, पहला पड़ाव तो ‘अहिंसा' ही है। आज तक संसार में दो ही पहलू रहे हैं - हिंसा और अहिंसा। राम का धर्म अहिंसा है और रावण का धर्म हिंसा है। कृष्ण का धर्म अहिंसा है और कंस का धर्म हिंसा है। हिंसा और अहिंसा का यही मापदण्ड चलता रहा है। रावण क्षण भर में तलवार उठा सकता है, कंस पल भर में अत्याचार कर सकता है, पर कृष्ण और राम अपने हाथ में तीर और धनुष तभी उठाएँगे जब अहिंसा की हत्या हो रही हो, जब धर्म का हनन हो रहा हो , जब सत्य का चीरहरण हो रहा हो। तभी ये अपनी ओर से हिंसा की गली खोलने की कोशिश करते हैं अन्यथा ये सभी अहिंसा के अवतार हैं, अहिंसा की पैरवी करने वाले, अहिंसा के मित्र हैं। शांतिदूत हैं। विशेष रूप से महावीर तो अहिंसा के ही पैरोकार हैं। कोई महावीर को ईश्वर का पुत्र या अवतार माने या न माने लेकिन कोई भी इस बात से इन्कार नहीं करेगा कि वे अहिंसा के अवतार थे। और जो अहिंसा का अवतार है वह अपने-आप ही ईश्वर का पुत्र हो जाता है। अहिंसक कभी किसी को मारता नहीं है। जो किसी को मारता नहीं है वह कभी मरता नहीं है, इसलिए वह अमर है। सीता के सामने जब अग्नि-परीक्षा की घड़ी आती है तब सीता यही कहती है कि यदि मैंने मन में भी, सपने में भी राम को छोड़कर किसी अन्य पुरुष का चिंतन भी किया हो, विकल्प भी किया हो, विचार भी किया हो तो यह अग्नि मुझे जला दे, मुझे भस्म कर दे और यदि मन, वचन, काया से मैंने केवल श्री राम को ही अपने प्रियतम, परमेश्वर के रूप में चुना हो तो यह अग्नि शांत हो जाए। और कहते हैं अग्नि शांत हो जाती है। यदि ऐसी ही संकट की वेला ७३ www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.003880
Book TitleMahavir Aapki aur Aajki Har Samasya ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages342
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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