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________________ 1 ये पाँच व्रत पूरे विश्व के माहौल को पवित्र, निर्मल, सहयोगी, सहभागी बनाने में महान भूमिका निभा सकते हैं । विशेष रूप से विश्व-शांति, विश्व - प्रेम, विश्व - भाईचारे की स्थापना के लिए इन पाँच व्रतों को आम जन-मानस में नए एवं वैज्ञानिक तरीके से स्थापित करने का प्रयास करना चाहिए । जीवन वीणा के तारों की तरह है जिन्हें न तो अधिक कसा जाए और न ही अधिक ढीला छोड़ा जाए। मैं मानता हूँ कि व्यक्ति को न तो अधिक तप करना चाहिए न ही अति भोग करना चाहिए। अति तप व्यक्ति के तन को कृशकाय करता है अतः तन को अधिक तपाने की बजाय अपने मन को अधिक संस्कारित करने का प्रयत्न करना चाहिए। अर्थात् हमें तपस्या को तन की बजाय मन के साथ जोड़ना चाहिए। बिना अन्न के हम दो दिन, दस दिन रह सकते हैं पर बिना क्रोध के ज़िंदगी भर रह सकते हैं। बिना मिठाई खाए दो महीने रह सकते हैं लेकिन बिना अभिमान किए जिंदगी भर रहा जा सकता है। व्यक्ति को अन्ततः तन का पोषण करना ही पड़ेगा। ऐसी स्थिति में अपने तन को अधिक कृशकाय करने के, अधिक तपाने की बजाय अपने मन के साथ तपस्या को जोड़ना चाहिए। मन को तपस्या की साथ जोड़ने का अर्थ है - अपने क्रोध पर काबू किया, अपने विकारों पर संयम रखा, अपने अभिमान को विनम्रता का पाठ पढ़ाया, माया और प्रपंच करने की बजाय हमने संतोष धारण किया । प्रकृति - प्रदत्त भोग - परिभोग जैसे - आहार का सेवन, पेय पदार्थों का सेवन, संगीत या अन्य विषयों का भोग करना हो, देह का उपभोग करना हो तो इन्हें अपने जीवन में संयमपूर्वक जीने का प्रयत्न करना चाहिए। ये कहीं बेलगाम न हो जाएँ, निरंकुश न हो जाएँ। अतिभोग भी हमारे लिए दुःखदायी व कष्टदायी है । अतिभोग असमय में बुढ़ापे को न्यौता देने वाले हैं, अकाल मृत्यु का आधार हैं । इसका निर्णय हमें स्वयं ही करना है कि किस तरह से अपना जीवन नियोजित करें जिसमें नट द्वारा रस्सी पर नृत्य करने के समान अपने जीवन को संतुलित कर सकें। जीवन संतुलन के आधार पर ही चलता है और इस संतुलन को ही हमें स्थापित करना है । इसी संतुलन को स्थापित करने के लिए भगवान ने अहिंसा पर अत्यधिक बल दिया । उनकी दृष्टि में अहिंसा विश्व का सर्वश्रेष्ठ धर्म है। अहिंसा खुद में ही सर्वश्रेष्ठ शास्त्र है । ऐसा समझें सभी तीर्थंकरों का, ७२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003880
Book TitleMahavir Aapki aur Aajki Har Samasya ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages342
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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