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अहिंसा को
जीने के प्रेक्टीकल
पाठ
जीवन को जीना स्वयं ही एक साधना है, तपस्या है, धर्म का आचरण है। जीवन को अच्छी तरह से जीना आ जाए तो यही जीवन का प्रबंधन है। अव्यवस्थित तरीके से जिया गया जीवन स्वच्छंदता है। हम सभी को चाहिए कि हम ऐसे जिएँ कि खुद भी सुख से रहें और दूसरों को भी सुख पहुँचे । तुलसीदास ने कहा है - ‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई।' जीवन-प्रबंधन हमें इस बात की समझ देता है कि हमें वही कार्य, वही व्यवहार
और उसी वाणी का उपयोग करना चाहिए जिनके द्वारा हमारा भी हित हो और दूसरों का भी हित सधे । कोई भी व्यक्ति ऐसा कार्य जल्दी नहीं करेगा जिसमें स्वयं का अहित और दूसरे का हित होता हो । मेरे विचार से धर्म की सहज-सरल परिभाषा यही होगी कि धर्म वही है जिसमें व्यक्ति के द्वारा किया गया आचरण स्वयं के लिए भी सुखदाई हो और दूसरों के लिए भी सुख में सहायक हो। जिससे स्वयं का भी मंगल होता हो और दूसरे का भी मंगल होता हो, उस कार्य और व्यवहार का नाम धर्म है।
धर्म हमें यही सिखाता है कि स्वयं के साथ दूसरों के सुख का भी प्रबंध करना चाहिए। उसी सुखपूर्वक जीवन जीने के लिए ही तथागत महावीर ने अहिंसा, सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य के रूप में पंचामृत प्रदान किए।
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