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अलग होकर जीने का प्रयास कर रहा है, जबकि किसी भी तत्त्व को उसके स्वभाव से अलग नहीं किया जा सकता। जैसे पानी का धर्म है - शीतल होना, प्यासों की प्यास बुझाना। जैसे फूल का धर्म है खिलना, खुशबू देना । जैसे आग का धर्म है जलना - जलाना । क्या इनमें से कोई वस्तु अपने धर्म से अलग हो सकती है ? अगर ऐसा हो भी जाए तो वह परिस्थितिवश ही होगा अन्यथा वह वस्तु अपने मूल धर्म से अलग हो नहीं सकती। जिस तरह हर वस्तु का अपना स्वभाव होता है उसी तरह हर प्राणी का, हर इन्सान का अपना धर्म हुआ करता है ।
परिस्थितिवश कोई इन्सान क्रोध कर सकता है, पर कोई भी चौबीस घंटे क्रोध नहीं कर सकता । इन्सान निमित्तों का अभ्यस्त है । वह निमित्तों को पाकर किसी भी विषय के प्रति अनुराग कर सकता है लेकिन चौबीसों घंटे उसमें रत नहीं रह सकता। कोई भी चौबीस घंटे न तो दाम्पत्य जीवन का सेवन कर सकता है, न ही भोग- परिभोग कर सकता है, लेकिन बिना भोग - परिभोग के, बिना क्रोध - कषाय के व्यक्ति चौबीस घंटे रह सकता है । चौबीस घंटे व्यक्ति अपनी सहज शांति के साथ रह सकता है लेकिन क्रोध में चौबीस घंटे नहीं रह सकता। इसका अर्थ यह हुआ कि क्रोध इन्सान का मूल धर्म नहीं है, केवल परिस्थिति या निमित्त के कारण क्रोध पैदा होता है। बिना क्रोध के, बिना लोभ और मोह के रहा जा सकता है । निमित्त, परिस्थिति और वातावरण के चलते एक अतिरिक्त विधर्म हमारे भीतर प्रविष्ट हो जाता है, जबकि प्रेम, शांति, करुणा, आनन्द ये सब हमारे मूल धर्म हैं ।
धर्म का अर्थ होता है मर्यादा में जीना । भाई अपनी मर्यादा में रहे यह उसका धर्म है। पिता अपनी मर्यादा में रहे यह उसका धर्म है । पत्नी, पति, सास-ससुर, संसार में जितने भी रिश्ते हैं वे अपनी-अपनी मर्यादा में सीमित रहें, यही उनका पहला धर्म है। समाज को अराजकता से बचाने के लिए धर्मशास्त्रों ने, मानव जाति के कल्याण के लिए जो-जो मर्यादाएँ निर्धारित की हैं उनमें सीमित रहना ही धर्म है । जैसे प्रकृति के हर तत्त्व के साथ मर्यादा देखी जा सकती है, सागर अपनी मर्यादा में रहता है, चाँद अपनी मर्यादा में रहता है, सूर्य अपनी मर्यादा में रहता है। अगर सूर्य धरती पर उतर आए तो धरती का अस्तित्व ही न रहेगा, लेकिन हर चीज़ अपनी मर्यादा में रहती है। इसलिए हमें भी अपनी
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