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________________ इंसान का सच्चा धर्म आज हम महापुरुषों के उस चिंतन पर अनुचिंतन करेंगे जिसके जरिए व्यक्ति का पारिवारिक, सामाजिक, मानवीय और आध्यात्मिक उत्थान होता है। साधारण भाषा में ज्ञानीजनों ने उसे 'धर्म' की संज्ञा दी है। धर्म शब्द का अर्थ है धारण करना । स्वयं को धारण करना भी धर्म है तो दूसरों के हितों को धारण करना भी धर्म है। जिससे स्वयं का और दूसरों का मंगल होता हो, उस तत्त्व को धारण करना धर्म है। जितने प्रतिशत व्यक्ति स्वयं का और दूसरे का हित धारण कर लेता है वह उतने प्रतिशत धर्म से जुड़ता जाता है। युगों पहले ज्ञानियों ने मानवता के कल्याण के लिए धर्म तत्त्व का आविष्कार और सृजन किया। ऐसा समझें कि ज्ञानीजनों ने धर्म का दीप जलाकर इन्सान के हाथों में हीरे का कंगन दे दिया अथवा पावों में घुघरू पहना दिए जिन्हें बाँधकर इन्सान अपने जीवन में सुख-शांति और आनन्द के संगीत का लुत्फ़ ले सके। हजारों वर्षों से धर्म मानवजाति के कल्याण के लिए अपना प्रकाश देता रहा है और आगे के युगों में भी वह अपने ज्ञान की रोशनी देता रहेगा। जैसे जीने के लिए भोजन की आवश्यकता होती है वैसे ही मनुष्य को जीवन जीने के लिए धर्म की आवश्यकता होती है। कोई भी व्यक्ति धर्म से अलग होकर जी ही नहीं सकता। धर्म से अलग होकर जीने का अर्थ है व्यक्ति अपने मूल स्वभाव से १४४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003880
Book TitleMahavir Aapki aur Aajki Har Samasya ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages342
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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