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________________ मर्यादा में रहना चाहिए । यही हमारा पहला धर्म है। अगर हम अपनी लक्ष्मणरेखा को छोड़कर बाहर निकलते हैं तो वे स्त्री हो या पुरुष समाज में भी कलंकित होंगे, स्वयं की नज़रों से भी गिरेंगे और आध्यात्मिक दृष्टि से भी उनका पतन होगा। इसलिए वस्तुस्थिति या परिस्थिति जो भी हो हम अपनी मर्यादा में रहें। भारतीय संस्कृति का एक महान शास्त्र है : रामायण जो हमें बताती है कि प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक सम्बन्ध की क्या मर्यादा हो सकती है। रामायण मर्यादा का शास्त्र है। हम जब भी इसे पढ़ेंगे हमें इस बात की प्रेरणा मिलेगी कि हमें जीवन में सम्बन्धों को किस तरह जीना चाहिए। जैसे एक पति ने अपनी पत्नी को वचन दे दिया है स्नेहवश, यह अलग बात है कि पत्नी ने उस वचन का दुरुपयोग किया। और दुरुपयोग के कारण उसे जीवन भर पछताना पड़ा, पति से हाथ धोना पड़ा, बच्चों के प्यार से वंचित हो गई। किसी भी चीज़ का दुरुपयोग करना सूक्ष्म हत्या है। पिता अपने वचनों की रक्षा के लिए बच्चों को वनवास दे देता है और पुत्र की मर्यादा यह हुई कि उसके पिता ने किसी को वचन दिया है तो वह वचन की आन रखे। पत्नी पति के साथ वनवास झेलने जा रही है यह पत्नी की मर्यादा हुई। पति और पत्नी जो चौदह वर्ष वनवास के लिए जा रहे हैं उन्हें पता चल गया कि अब उन्हें संत का जीवन जीना है, तब वे निर्णय लेते हैं कि वनवासी जीवन में शीलव्रत का पालन करेंगे, यह दाम्पत्य की मर्यादा हुई। भाई भाई के लिए जा रहा है यह भ्रातृप्रेम की मर्यादा हुई। पीछे रहने वाले भाई की पत्नियाँ और वन के लिए चले गए भाई की पत्नी सासुओं की सेवा सँभाल रही हैं यह उनकी मर्यादा हो गई। एक भाई राज्य में रहकर राजमहलों में सुख भोगने के बज़ाय बड़े भाई की तरह ही वनवासी जीवन व्यतीत कर रहा है यह उसकी मर्यादा हो गई और बड़े भाई की चरण-पादुकाओं को राजसिंहासन पर रखकर राज्य संचालन कर रहा है यह उसकी मर्यादा हुई। __मेरी दृष्टि में धर्म अपनी-अपनी मर्यादा का सम्मान करना है, अहिंसा, शांति, इन्सानियत, नैतिक दायित्व निभाना - यही धर्म है। अमर्यादा का नाम ही अधर्म है और अधर्म ही पाप है। मर्यादा ही धर्म है और धर्म स्वयं पुण्य है। धर्म इन्सान के लिए शरण है, गति है, प्रतिष्ठा है, द्वीप है, डूबते के लिए सहारा १४६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003880
Book TitleMahavir Aapki aur Aajki Har Samasya ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages342
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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