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के भाव से इस संसार को देखेंगे तो हमें इसमें कहीं कोई बाधा नहीं आएगी। हमें यही बोध रखना है कि संसार किराए के घर की तरह है जहाँ आते हैं और चले जाते हैं। आत्मदृष्टि, अंतर्दृष्टि, तत्त्व - दृष्टि के साथ संसार और शरीर को समझना ही सम्यक्दर्शन है।
महावीर की साधना का, मुक्ति के मार्ग का दूसरा सोपान - सम्यक्ज्ञान है। सही-सही, सुंदर-सुंदर जानो । जो कुछ जाना जा रहा है वह सही और सुंदर हो । आज दुनिया बहुत प्रगति कर रही है, विज्ञान दिन-ब-दिन आगे जा रहा है, कम्प्यूटराइज़्ड युग है, ज्ञान बहुत विस्तृत हो चुका है, हर छात्र उच्च से उच्च तकनीकी और वैज्ञानिक शिक्षा प्राप्त कर रहा है। लेकिन पहले की और आज की शिक्षा में बहुत फ़र्क़ आ गया है। पहले शिक्षा के साथ संस्कार भी जुड़ा हुआ था लेकिन अब केवल विद्या ही शेष रह गई है इसीलिए पहले का व्यक्ति अगर कम पढ़ा-लिखा होता तो भी संस्कारशील होता था पर आज उच्च शिक्षित लोगों के संस्कारों पर संदेह हो सकता है।
आज व्यक्ति पैसा तो खूब कमा रहा है पर घर टूट रहे हैं, परिवार टूट रहे हैं, भाइयों का आपसी स्नेह समाप्त हो गया है, एक भाई दूसरे भाई को निभाना नहीं चाहता क्योंकि सब बड़े हो गए हैं। अधिक पढ़-लिखकर ज़्यादा पैसे वाले हो गए हैं, इसने कई तूफान खड़े कर दिए हैं। पहले दृश्य और दृष्टा दोनों को समानता से देखा जाता था, पर अब दृश्य ही सब कुछ है। पहले जीवन और जगत को एक ही दृष्टि से देखते थे, लेकिन अब जगत ही रह गया है। पहले की शिक्षा में सामाजिक और आध्यात्मिक दोनों तरह के विकास का ध्यान रखा जाता था लेकिन अब केवल सामाजिक विकास पर ही जोर है, परिणाम सबके सामने है। हर इन्सान के पास शिक्षा तो बहुत है, धन भी है लेकिन मानसिक रूप से हर इन्सान टूटा हुआ है, संत्रस्त है, परेशान है। बेटा अपने माँ-बाप के साथ सलीके के साथ पेश नहीं आ रहा है। पत्नी और बच्चे मूल्यवान हो गए हैं। अगर बच्चों में आपका ख़ून है तो आपके भाई की रगों में भी तो वही ख़ून दौड़ रहा है लेकिन अब बच्चे मूल्यवान हैं और भाई मूल्यहीन |
जिस युग में हम आज जी रहे हैं, पढ़-लिख रहे हैं उसमें मित्रता का, प्रेम का अभाव हो गया है। गुरुकुल में तो राम जी भी गए थे, महावीर जी भी गए थे,
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