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________________ कर रहे हैं। देखो, गणिका के शव को नगरपालिका की गाड़ी उठाकर ले जा रही है और लोग उस पर थू-थू कर रहे हैं। मुझ पर फूल चढ़ा रहे हैं। चित्रगुप्त ! तुमसे ज़रूर कुछ ग़लती हुई है। धर्मराज ने चित्रगुप्त का रजिस्टर देखा और सारी बात समझते हुए तत्काल कहा – गणिका और संतप्रवर ! चित्रगुप्त ने जो बात कही है वह बिल्कुल ठीक है। गणिका को स्वर्ग भेजा जाएगा और संतप्रवर को नरक भेजा जाएगा। दोनों ने एक साथ कारण पूछा। धर्मराज ने कहा - संत ! तुम रहते थे मठ में, आरती करते थे श्रीप्रभु की, लेकिन तुम्हारा मन उस गणिका की ओर रहता था कि कभी तुम्हें भी मौका मिले और तुम गणिका के पास जाओ और अपने मन को तृप्त करो। वहीं यह गणिका अपनी काया को बेच रही होती, नाच रही होती, लेकिन मन में सद्भाव उठते कि धन्य है वह मठाधीश जो भगवान की अर्चना-वंदना कर रहे हैं, प्रभु भक्ति में लगे हैं। और एक मैं पापिनी पाप ढो रही हूँ। वह तन से गणिका थी, पर मन से मंदिर में थी। और तुम तन से मंदिर में थे, पर तुम्हारा मन मधुशाला में, मदिरालय में, वेश्यालय में भटक रहा था। धर्मराज यहाँ जो न्याय करते हैं वह इंसान के तन के आधार पर नहीं, मन के आधार पर करते हैं। और इंसाफ़ यही है कि जिसका मन पवित्र वह स्वर्ग का अधिकारी और जिसका मन दूषित, अपवित्र, वह व्यक्ति नरक का अधिकारी है। समस्त गतिविधियों का आधार और प्रेरक मन है । सभी पापों की जड़ भी मन है। इसीलिए कहा जाता है - मन चंगा तो कठौती में गंगा । संत रैदास जाति के चमार थे। उनसे सम्राट् ने कहा - मैं हरिद्वार गंगास्नान के लिए जा रहा हूँ, रैदास तुम भी अगर चलना चाहो तो चल सकते हो। रैदास ने कहा - राजन् ! मेरी गंगा तो मेरी कठौती में बहती है, अगर तुम्हें इसमें स्नान करना हो तो कर लो। राजा हरिद्वार जाता है - वहाँ पानी में डुबकियाँ लगाता है लेकिन गंगाजी मिल नहीं पाती, लौटकर अपने नगर में आता है तब रास्ते में उसे गंगा माँ के दर्शन होते हैं। राजा पूछता है - गंगा मैया ! तुम कहाँ चली गई थीं, मैं तो तुम्हारे चरणों में स्नान करने गया था। गंगाजी ने जवाब दिया - मैं तो रैदास जी की कठौती में डुबकी लगाने गई थी। और कहावत चल पड़ी - मन चंगा तो कठौती में गंगा। जो मन से इतना निष्पाप हो गया है कि इसकी तो कठौती में भी गंगा २२७ www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.003880
Book TitleMahavir Aapki aur Aajki Har Samasya ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages342
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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