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________________ का प्रसाद बन जाती है। ऐसे संतों का समागम हमारे प्रबल पुण्योदय से ही होता है। ऐसा न समझें कि हर संत ही बहुत महान है । संतत्व की सार्थकता मुक्ति और निर्वाण का मार्ग प्रशस्त करती है । हम सभी संतों के ऋणी हैं क्योंकि अतीत में संतों ने इतने उपकार और अहसान किये हैं। संत तो चमन में खिले हुए फूल हैं। संतों ने दुनिया पर बहुत उपकार और अहसान किए हैं तभी तो आज जब दुनिया में इतना आतंकवाद, उग्रवाद, भय है, लोग स्वार्थी हैं, भाई-भाई टूट रहे हैं, घर-परिवार बिखर रहे हैं, मान-मर्यादाएँ खंडित हो रही हैं, संस्कारों को गिरवी रखा जा रहा है - ऐसे समय में भी संत-मुनि, मौलवी, पादरी, वाहे गुरु -पंथी लोग दुनिया की भलाई के लिए तत्पर हैं। ज़रा सोचें अगर ये लोग न होते तो क्या दुनिया जीने के काबिल होती ? मान-मर्यादा और लोक-लाज के कारण ही इन्सानियत बची हुई है। कुछ संस्कार, कुछ सामाजिक दबावों के कारण व्यक्ति गलत कामों को करने से बचता है अन्यथा इन्सान भी तो एक जानवर ही है। कब किसके भीतर पशु जग जाए पता नहीं है । इसलिए संतों के प्रति आदर और सम्मान का भाव अवश्य रखना चाहिए । हम जब भूखे जानवर का भरण-पोषण करते हैं तो वह जीवदया कहलाती है। भूखे इन्सान को खाना खिलाना पुण्य का निमित्त बनता है तब किसी संत को अपनी कमाई की, अपने हाथ से बनाई रोटी खिलाते हैं तो मेरा मानना है कि इससे उसकी दरिद्रता दूर होती है, पाप शिथिल होते हैं और जीवन में भाग्य व सौभाग्य का उदय होता है । व्यक्तिगत रूप से मैं संतों की बहुत इज़्ज़त करता हूँ । ईश्वर से कामना करता हूँ कि वह प्रतिदिन मेरे दर पर संतों को अवश्य भेजे ताकि उन्हें भोजन करवाकर अपने को सार्थक कर सकूँ। अपने पुरुषार्थ और उपलब्धियों को धन्य कर सकूँ। निश्चित तौर पर संत महान होते हैं। उनसे जितना हो सकता है वे उतना अधिक तप, त्याग, जप, तप, प्रभु-भक्ति और आत्म-शुद्धि को जीने का प्रयत्न करते हैं। संत होना सौभाग्य की बात है, लेकिन संत न बन पाए तो सुश्रावक बनकर सुपात्र सहयोग और समर्पण करते रहना चाहिए । संसार अगर आनन्द का, मौज-मस्ती का, उत्सव का, खुशहाल रहने का प्रतीक है तो ध्यान संन्यास को जीने का, संयम को आत्म-तत्त्व की ओर ले १६६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003880
Book TitleMahavir Aapki aur Aajki Har Samasya ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages342
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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