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चूल्हा या सिगड़ी जलाते हैं तो यह सब जलाने से पहले एक नज़र ज़रूर डाल दो। पहले चूल्हे की सफाई करो, संभव है वहाँ पर चींटियाँ हों। चूल्हा, चक्की, पानी का घड़ा ये सब हिंसा के मूलभूत स्थान हैं जहाँ पर छोटे-छोटे जीवाणु रहते हैं जो हम लोगों से मर जाते हैं और हमें पता भी नहीं चल पाता । आजकल के लैट्रिन, बाथरूम, चाशनी की मिठाइयाँ कीड़ों को पनपने के खास स्थान हैं इनका प्रयोग सावधानी से किया जाए ।
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तीसरी बात का ख़्याल रखें और वह है चबाना । 'चबाना' भी अहिंसामूलक होना चाहिए। यह मर्यादा की बात है कि जैसे ही कौर मुँह में जाए होंठों को बंद लें । पशु की तरह मुँह चला चलाकर न खाएँ । मुँह में कौर रखने के बाद होंठ बंद करके चबाना शिष्टता की बात है । खाना पूरी तरह अच्छे से चबाएँ, इससे पाचन में भी सुविधा रहेगी | फटाफट खाना निगलें नहीं। इससे पेट और आँतों पर जोर पड़ता है ।
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चौथा है 'पचाना' - अर्थात् दिन भर न खाते रहें । दिन भर खाने से स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। यूँ तो सभी महापुरुषों ने व्रत, उपवास की प्रेरणा दी है लेकिन हम उपवास नहीं कर सकते तो कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं कि एक बार खाना खाने के उपरान्त चार-पाँच घंटे तक पानी के सिवा कुछ न खाएँ या कभी जूस ले लें। लोग अधिक खाने से बीमार पड़ सकते हैं, कम खाने से नहीं । चार-पाँच घंटे तक न खाना भी एक तपस्या है। दिनभर खाने की प्रवृत्ति के कारण ही पान, सुपारी, गुटखा आदि का प्रचलन बढ़ता ही जा रहा है।
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हमारी संस्कृति तप-त्याग की प्रेरणा देती है । कोई कितना भी मनुहार करे आप दृढ़ रहें तभी आपके पेट को आराम मिलेगा, आप स्वस्थ रहेंगे। हम जीने के लिए खाते हैं न कि खाने के लिए जी रहे हैं । खाना शरीर की व्यवस्था है केवल इसलिए खाना खाते हैं अन्यथा हम तो ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि वह हमारे शरीर को इतना समर्थ बनाए कि रोज खाना और निकालना इस प्रवृत्ति से मुक्त करे। यहाँ पर बाला सतीजी हुई हैं जिन्होंने बयासील वर्ष तक अन्न-जल ग्रहण नहीं किया। माना कि हमारा शरीर इतना समर्थ नहीं है कि पूरी तरह निराहार रह सके पर छोटा-छोटा तप तो हम लोग कर ही सकते हैं
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