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लगी, घावों से मवाद बहने लगा। राजा और नगरवासियों ने उस रोगग्रस्त नर्तकी को शहर से बाहर रखवा दिया।
वह तड़पती रही, गुहार करती रही कि उसके साथ ऐसा अन्याय न किया जाए लेकिन कोई सुननेवाला न था क्योंकि रोग के फैलने की संभावना थी। उसके लिए नगर के दरवाजे बंद हो गए। एक दिन रात के अंधेरे में उसने अपने पास किसी के पाँवों की आहट सुनी, वह चौंक गई कि इस वक्त उसके पास कौन आया है। वह कराहते हुए पूछती है- कौन है ? ज़वाब मिलता है - वही जिसे तुमने स्वयं को सौंपा था। वह कुछ समझ पाती उससे पहले भिक्षु सामने प्रगट हुआ और बोला- संत उपगुप्त। यह कहते हए वह उसके पास बैठकर घावों को धोने लगा। वासवदत्ता बोली - अब यह क्या कर रहे हो ? भिक्षु ने कहा - तुम्हारे घावों को धो रहा हूँ। किसलिए - प्रश्न हुआ। संत ने कहा - तुमने स्वयं को मुझे सौंप दिया था। नर्तकी ने कहा - अब आ गए हो तो क्या होगा, मैं स्वस्थ भी हो गई तब भी तुम्हें क्या दे पाऊँगी ? अब बहुत देर हो गई है - न तो मेरा वह सौन्दर्य रहा, न ही वह यौवन रहा कि आपको कुछ दे सकूँ।
भिक्षु ने कहा - मुझे उनकी ज़रूरत न थी। मुझे जिसकी ज़रूरत थी वह अब मुझे मिल रहा है। मुझे तुम्हारी सेवा की ज़रूरत थी जो मैं अब करूँगा। भिक्षु उस नर्तकी की खूब सेवा करता है। वह स्वस्थ हो जाती है। न केवल स्वस्थ होती है वरन् भिक्षु के सान्निध्य में रहकर सुश्राविका, सद्गृहिणी और आगे चलकर महान भिक्षुणी बन जाती है।
जो उपदेश, जो संदेश, जो आदेश भिक्षु ने उसे रुग्णावस्था में दिए उसने उसके जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन कर दिया। यदि वर्षों पहले ये संदेश दिए गए होते तो नर्तकी के लिए उनका कोई मूल्य न होता। लेकिन वासवदत्ता रोगों से घिर गई, उसे देह से नफ़रत हो गई। उसे लगा कि यह देह तो नश्वर है, दुनिया के लोग स्वार्थी हैं, केवल देह के सौंदर्य पर मरते हैं। आज जब वह वृद्ध होने जा रही है, रोगों से घिर गई है तो किसी ने न पूछा।
__ महापुरुषों की वाणी तभी सार्थक हो पाती है जब कोई वासवदत्ता बनकर सत्य और असत्य, विद्या और अविद्या, ग्राह्य और अग्राह्य के सत्य का बोध अपने भीतर कर लेता है। तब महावीर की मुक्ति का मार्ग उसके जीवन से जुड़ता
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