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________________ प्रार्थनाएँ की जाती हैं, प्रार्थना तो मौनपूर्वक होती है । क्योंकि ईश्वर हमारे शब्दों को नहीं, भावों को ग्रहण करता है । ईश्वर को ध्वनि से नहीं, मन की लयलीनता से पाया जाता है। ईश्वर तक हमारे शब्द नहीं, चेतना के संबंध पहुँचते हैं। वहाँ तो जोत से जोत जलती है, तार से तार जुड़ते हैं- मन के तार । मस्जिद में लगे माइक कोई खुदा को बुलाने के लिए नहीं बल्कि अपने भाई-बंदों को बुलाने के लिए होते हैं कि आ जाओ प्रार्थना का वक़्त हो गया है। उधर मंदिरों में तो जो कैसेट्स चलती हैं वे घंटों चला करती हैं, यह कैसी प्रार्थना है ? प्रार्थना अवश्य होनी चाहिए लेकिन एकांत में बैठकर । प्रार्थना का पहला चरण शब्द और भजन नहीं है अपितु मौन है - होठों का मौन, मन का मौन, हृदय का मौन । मंदिर में जाकर मौनपूर्वक ईश्वर की प्रार्थना और ध्यान करना चाहिए ताकि हमारे कारण किसी अन्य को असहजता महसूस न हो। हो सकता है आपके अन्तर्भाव कुछ और हों और दूसरों के अन्तर्भाव कुछ और हों । उनमें विरोधाभास क्यों । आप अपने तरीके से प्रार्थना करें, दूसरे अपने तरीके से । पता नहीं कब किसके दिल में कैसे भाव हों ! T कहते हैं अरिहंतों की, सिद्धों की, बुद्ध पुरुषों की स्तुति करो ताकि हमारे दिलो-दिमाग में भी उनके जैसे गुण साकार होने लगें । आप अच्छे गायक हो सकते हैं लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि मंदिरों में भजन, कीर्तन किया जाए। प्रभु तो आपकी गलाबाजी सुनते नहीं हैं, हाँ मंदिर में आने वाले ज़रूर आपकी तारीफ़ कर सकते हैं लेकिन इससे क्या ? ऐसा हुआ, एक दफ़ा एक पादरी नदी पार उतरने के लिए नौका में बैठा हुआ था। संध्या का समय हो चला था, सो नाविक ने आकाश की ओर देखा, दोनों हाथ जोड़े और कुछ गुनगुनाने लगा । शब्द बड़े अटपटे थे, अस्फुट से, बुदबुदाने जैसी आवाज़ आ रही थी । पादरी ध्यान से सुनने लगा । नाविक तो प्रभु की प्रार्थना कर रहा था । प्रार्थना पूरी होने पर हाथ जोड़े हुए ही सिर नमाया, धन्यवाद किया और पुनः नाव खेने लगा । पादरी ने पूछा- भाई, तुम क्या कर रहे थे । नाविक ने बताया कि वह ईश - प्रार्थना कर रहा था । पादरी ने कहा- तुम तो बड़े अजीब से और बेतरतीब शब्दों से, स्वरों से प्रार्थना कर रहे थे । प्रार्थना ऐसे नहीं की जाती है । नाविक ने २५२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003880
Book TitleMahavir Aapki aur Aajki Har Samasya ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages342
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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