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यह मनुष्य का मन है विस्मृत हो जाता है, भटक जाता है । इसलिए बारेंबार साधना पड़ता है। प्रतिदिन ध्यान करना होता है । व्यक्ति खाना खाता है फिर भी रोज इसकी ज़रूरत पड़ती है क्योंकि इसकी शरीर को आवश्यकता है । इसलिए हमें रोज खाना भी खाना पड़ता है । इसी तरह बार-बार प्रतिदिन हमें ध्यान भी करना पड़ता है, ताकि हम पुनः पुनः स्वयं का मूल्यांकन करते रहें कि वर्तमान स्थिति में हमारा कुछ सुधार हो रहा है या वैसे के वैसे हैं। कल क्रोध किया, आज भी क्रोध किया तो क्या कल भी ऐसे ही क्रोध होगा । तब मेरी समता, मेरा धर्म, मेरा लक्ष्य, मेरा पुरुषार्थ क्या मुझे कोई परिणाम दे रहा है या मैं वहीं का वहीं हूँ। अगर हम वहीं के वहीं हैं तो दिन भर में किया गया पूजापाठ, धर्म-साधना, आराधना सब व्यर्थ गई । अर्थात् हमारा लक्ष्य हमारी आँखों में नहीं और अभी हम अपने लक्ष्य से बहुत दूर हैं। हमारा पुरुषार्थ जो हम कर रहे थे वह सही रास्ते पर नहीं हुआ । पुरुषार्थ कमज़ोर था तभी तो वैसे के वैसे रह गए ।
आत्म- जागरूकता चौबीसों घंटे रहनी चाहिए। हर कार्य के प्रति अपनी आत्म-भावना, अपनी कल्याण-भावना, अपनी मुक्ति की भावना व्यक्ति के भीतर प्रगाढ़ से प्रगाढ़तर होती जानी चाहिए । इसके लिए पहला कार्य होगा सुस्ती छोड़ी जाए, प्रमाद का त्याग हो, मूर्च्छा का त्याग हो और जागरूकतापूर्वक अपने लक्ष्य की ओर बढ़ें। जागरूकतापूर्वक पुरुषार्थ करें। सुस्ती का परिणाम मृत्यु है और जागरूकता का परिणाम मुक्ति है । आप सभी जागरूक होकर मुक्ति के मार्ग का अनुसरण करें, इसी शुभभावना के साथ
नमस्कार !
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