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________________ जकड़े हुए हैं। हमारे मन पर पड़े हुए इन आवरणों को परत-दर-परत उघाड़ना ही इन दिव्य प्रवचनों का उद्देश्य है । तभी तो श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं कि मन के भाव ही पाप या पुण्य हैं। शुभ भाव होने पर विचार भी शुभ होंगे, विचारों की शुभता से वाणी मंगलमय होगी, वाणी की मधुरता से व्यवहार शुभ और प्रीतिकर होगा । जहाँ व्यवहार प्रीतिकर होगा वहाँ आचरण, जीवन, चरित्र तथा संबंध सभी शुभ और मंगलमय होंगे। I श्री चन्द्रप्रभ अल्बर्ट आइन्स्टीन के अनुगामी प्रतीत होते हैं क्योंकि इस वैज्ञानिक का सिद्धांत था कि विज्ञान धर्म के बिना अंधा है और धर्म विज्ञान के बिना लँगड़ा है। इस सत्य का प्रतिपादन करते हुए ही श्री चन्द्रप्रभ धर्म और विज्ञान में अद्भुत सामंजस्य बिठाते हैं। उनका मानना है कि जीवन में वास्तविक प्रगति व चरित्र-निर्माण तभी होगा जब धर्म व विज्ञान मिलकर शांतिपूर्वक सत्य की खोज करेंगे। वे प्राचीन आख्यानों के संदर्भ से आधुनिक जीवन में संस्कारों के निर्माण की दिशा निर्धारण करते हैं । चरित्र-निर्माण के प्रबल पैरोकार श्री चन्द्रप्रभ का कथन है कि समाज का सही निर्माण करने के लिए चारित्रिक दृढ़ता ज़रूरी है। इसके लिए वे मार्ग सुझाते हैं कि हम जागरूकतापूर्वक अपने दायित्वों का वहन करें और चित्त में सदा सकारात्मकता रखें। सुदृढ़ चरित्र जीवन-निर्माण का प्रथम पायदान है । चारित्र के निर्माण से दर्शन और ज्ञान की प्राप्ति होती है और सामान्य-सी दिखने वाली घटनाएँ जीवन का रूपान्तरण कर देती हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ में श्री चन्द्रप्रभ ने महावीर के शान्ति - पथ और उनके सिद्धान्तों का सहज-सरल भाषा में प्रतिपादन किया है। श्री चन्द्रप्रभ बात को बोधगम्य और सरल बनाने के लिए यथास्थान कहानी, घटना या काव्य पंक्तियों को भी उद्धृत करते हैं। कभी भी भाषा और ज्ञान का प्रवाह टूटने नहीं पाता है । उनमें जनमानस को प्रभावित करने की अपूर्व क्षमता है । वे सहज-सरल तरीके से संवाद करते हुए दिल को छू लेते हैं। उनकी प्रभावी वाणी उनकी पहचान है वे हमारे लिए प्रकाश-स्तम्भ और मील के पत्थर की तरह मार्गदर्शक हैं। 1 श्री चन्द्रप्रभ बहिर्मुखी व्यक्तित्व को अन्तर्मुखी बनाने में ग़ज़ब की क्षमता रखते हैं। वे कहते हैं कि बाह्य सांसारिक व्यापारों के चलते हुए भी संकल्पशील व्यक्ति अन्तर के पटों का उद्घाटन कर सकता है। आवश्यकता है केवल मोह Jain Education International - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003880
Book TitleMahavir Aapki aur Aajki Har Samasya ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages342
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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