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पूर्व स्वर
भगवान ऋषभदेव के पूर्व से प्रारम्भ हुई श्रमण - संस्कृति की अनवरत धारा भगवान महावीर के बाद तक सतत प्रवहमान है । सूत्रधार बदलते गए लेकिन प्रवाह जारी है। युगानुरूप तथ्य जुड़ते चले गए लेकिन मूलभूत स्वरूप कायम रहा। समय की धारा को गतिमान बनाए रखकर ही हम मूल सच्चाइयों के साथ आगे बढ़ सकते हैं। केवल सत्य और तथ्य का ढिंढोरा पीटकर या लकीर के फ़क़ीर बनकर जनमानस को नहीं सँवारा जा सकता । जनमानस को सँवारने के लिए समय और विज्ञान के साथ कदमताल करनी होती है और इसमें कोई संदेह नहीं कि यह कार्य महान जीवन-द्रष्टा पूज्य श्री चंद्रप्रभ ने बख़ूबी किया है । वे समय की, विज्ञान की, समाज और युवाओं की नब्ज़ अच्छी तरह पहचानते
हैं
भौतिकवादी युग में संस्कारों का निर्माण करना गुरुवर अपना दायित्व समझते हैं इसलिए भगवान की दुरूह से दुरूह वाणी को सरलतम रूप में प्रस्तुत करते हुए उसे जीवन में कैसे आचरित किया जाए इसकी हृदयस्पर्शी व्याख्या करते हैं। उनका कहना है कि धर्मग्रन्थों को पढ़ने या रट लेने से कुछ नहीं होने वाला है जब तक जन्म-जन्मांतरों के राग-द्वेष और वासनाजनित संस्कारों से छुटकारा न पाया जाए। ये कर्म - संस्कार हमारे मन को विकृत व जटिल रूप से
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