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जानने के लिए हमें भी सूक्ष्म रास्तों को थामना होगा। ध्यान उसी सूक्ष्म मार्ग का नाम है। ध्यान का मतलब है पूरी बारीकी से, निश्चल होकर गौर करना । ध्यान डुबकी है - स्वयं में डुबकी, अपने-आप में डूबने का नाम ही ध्यान है। ध्यान में उतरने वाला साधक स्वयं को आत्मवान् मानता है। सोऽहं - मैं वह हूँ, मैं आत्मा हूँ। अनन्त ज्ञान, दर्शन से सम्पन्न आत्मा । अगर हमने आत्मा को स्वीकार न किया तो वही चार्वाक दर्शन चल पडेगा कि खाओ-पिओ. मौज उड़ाओ। किसी से क्या लेना-देना, हिंसा, लूटपाट, झूठ-प्रपंच यही जीवन में समाहित हो जाएगा, यही दुनिया में फैल जाएगा। न पूर्वजन्म है, न मृत्यु पश्चात् जन्म है। व्यक्ति अगर बेईमानी से पैसा कमा रहा है तो वे कहते हैं फिर पैसा ही कमाओ । जब कोई फल ही नहीं है तो बेईमानी करो या न करो क्या फ़र्क पड़ता है। ऐसा नहीं है कि किसी भय से व्यक्ति को पाप नहीं करना चाहिए, यह तो सामाजिक मूल्यवत्ता है और सामान्य व्यक्ति के लिए ठीक भी है कि व्यक्ति का पुनर्जन्म होगा तो उसे अपने किये का फल भोगना होगा। लेकिन एक सचेतन साधक या सचेतन आत्मवान व्यक्ति जीवन को भली-भाँति देखकर उसे स्वीकार कर रहा होता है कि देह और आत्मा दो अलग तत्त्व हैं।
इसीलिए मैंने प्रारम्भ में ही कहा था कि शव अर्थात् मृत देह हमें बिना परिश्रम के यह समझा देती है कि कोई-न-कोई ऐसा तत्त्व अवश्य है जिसके कारण हम जीवित हैं और उसके निकलते ही हम मर जाते हैं। जिन्हें उस तत्त्व का बोध नहीं होता वे ही किसी के मर जाने पर रोया करते हैं। मेरे पिता ने भी शरीर छोड़ा पर मैं नहीं रोया, एक भी आँसू न आया। रोते वही हैं जिसके पास जीवन की समझ, जीवन की अन्तर्दृष्टि नहीं होती। क्योंकि पता है शरीर मरणधर्मा है । जो मरणधर्मा है वह तो मर गया और जो मरणधर्मा नहीं है वह शरीर से मुक्त हो गया। शरीर के समापन को समापन समझा तो हम ज़रूर रोएँगे लेकिन जिसने यह जान लिया, जिसे यह बोध हो गया कि शरीर तो सभी का एक न एक दिन छूट ही जाने वाला है, वह मृत्यु का द्रष्टाभर रहेगा। हाँ, हमारे प्रेम और अनुराग के कारण, उनके साथ घटी घटनाओं को याद करके दो आँसू भले ही आ जाएँ पर वे मर गये यह सोचकर आँसू कभी न आएँगे। तब व्यक्ति सहज ही जन्म भी देखेगा और मृत्यु से भी गुजर जाएगा।
Jai
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