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________________ जैन लोगों ने इसीलिए स्वीकार किया है कि अंतिम क्षणों में रावण ने जो राम का नाम उच्चारित किया और जो विवेक व मर्यादा बनाए रखी कि जो स्त्री मुझे स्व-इच्छा से जब तक धारण नहीं करेगी तब तक मैं उसे स्पर्श नहीं करूँगा, इस मर्यादा के कारण वह दुर्गति में नहीं गया और जैन मानते हैं कि आगे जो चौबीस तीर्थंकर होंगे उनमें रावण भी एक तीर्थंकर होगा, भगवान का रूप होगा। मेरे विचार से अंतिम क्षणों में भी अगर व्यक्ति की मति सन्मति हो जाती है तो यह वह धर्म है जो व्यक्ति को सम्मान दे सकता है। यह धर्म की महानता है, उसकी गुणानुरागिता है। रावण के पुतलों को जला देने से क्या दुनिया से अधर्म मिटा है ? असत्य का नाश हुआ है ? धर्म की जीत हुई है ? देश में परम्परा-सी बन गई है रावण के पुतलों को जलाने की। अगर कोई व्यक्ति राम का वेश बनाकर पुतलों पर तीर चला रहा है तो वह कोई राम नहीं हो गया है। यह तो प्रतीक है कि इस बहाने ही सही व्यक्ति को कुछ अच्छी प्रेरणा मिल सके कि वह बुराई से बचे और रामजी की तरह अच्छे रास्तों पर चले । यूँ तो सभी जीना चाहते हैं। सभी में एक चेतना है, चेतना में ही जिजीविषा पैदा होती है, आत्मा में ही जीने की चाहत पैदा होती है जिसके चलते हम सब जीना चाहते हैं। इस चाहत की रक्षा करने का नाम ही अहिंसा है। जहाँ तक आत्मा का सवाल है तो वह शाश्वत है। सौ-सौ बार भी अगर देह को जला दिया जाए तब भी आत्मा बरकरार रहती है। महान ज्ञानी और तत्त्वचिंतक इस आत्मा के लिए वर्षों-वर्षों तपे हैं, आत्म-तत्त्व को पहचाना है और इसे पहचानकर दुनिया को भी वह अनुभव बाँटने का प्रयत्न किया। दुनिया को समझाने की कोशिश की कि आत्मा क्या है, इसका कैसा स्वरूप है, वह बँधी हुई क्यों है, इसे कैसे मुक्त किया जा सकता है, इसका मूल स्वरूप क्या है, मुक्त होने के बाद उसे किस तत्त्व की उपलब्धि होगी। दुनिया के सारे धर्मशास्त्र इसकी शुद्धि और निर्मलता के लिए जुड़े हैं। लौकिक व्यवहार में भी हम कुछ शब्दों का प्रयोग करते हैं, जैसे - आत्मसम्मान, आत्मनिर्भरता, आत्मविश्वास । अर्थात् आत्म शब्द जोड़ दिया जो स्वयं का प्रतीक है। यह स्वयं पर विश्वास करना विशुद्ध रूप से धार्मिक आस्था है। Jain Education International For Personal & Private Use Only २९१ www.jainelibrary.org
SR No.003880
Book TitleMahavir Aapki aur Aajki Har Samasya ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages342
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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