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________________ तीर्थंकर हैं, वे खुद भी पार लगे और औरों को भी पार लगाते हैं। उनके संदेश मानवमात्र के कल्याण के लिए हैं, मानवमात्र के प्रति मंगल मैत्री-भाव से भरे हुए हैं। वे मानवमात्र की मुक्ति चाहने वाले हैं। खास तौर पर किसी भी व्यक्ति को अगर अपने लिए मुक्ति का पथ ढूँढना है तो महावीर के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं है। घर-गृहस्थी में कैसे जीना चाहिए इसके लिए राम आदर्श हैं। कर्म और पुरुषार्थशील होकर दुनिया में कैसे रहें इसके लिए कृष्ण आदर्श हैं, लेकिन अपने शेष जीवन को धन्य करने के लिए कोई आदर्श, प्रकाशस्तम्भ या दीपशिखा है तो वह महावीर हैं। महावीर किसी संसारी का नहीं अपितु किसी साधक का प्रथम और अंतिम सोपान हो सकते हैं। संसारी प्राणी के लिए राम प्रथम सोपान हैं, कृष्ण दूसरा और तीसरे व चौथे सोपान पर तो महावीर ही आएँगे। पहले ही चरण में महावीर का हाथ थामने की बजाय राम और कृष्ण का हाथ थामा जाय। हाँ, जब व्यक्ति को महसूस हो कि संसार के भौतिक आकर्षण, व्यामोह, प्रपंच इनसे तृप्त हो चुका है, इनसे विरक्त हो चुका है तब वह महावीर की शरण में आए। तब मैं कह सकता हूँ - ऐसी स्थिति में महावीर परमतीर्थ साबित होंगे। परम मुक्तिदाता, धर्म-चक्षु, अंतरचक्षुओं को खोलने वाले साबित होंगे। यदि हमें अनित्य संसार का बोध नहीं है, संसार का व्यामोह ही हमें खींच रहा है तब महावीर के पास जाकर क्या कर लेंगे ? महावीर के पास गौशालक गया, उनका जवाई भी गया, पर कुछ पा न सका। गौतम गया तो धन्य हो गया, चंदनबाला गई तो कृत-कृत्य हो गई, अर्जुनमाली मुक्ति-पथ का अनुयायी बन गया, हरिकेशबल गया तो उसका कल्याण हो गया। जब तक हम इस अनित्य संसार के रसरंग से ही मुक्त न हो पाए तो निर्वाण की ममक्षा, निर्वाण की प्यास. मोक्ष की मुमुक्षा, मोक्ष की अभिलाषा हमारे भीतर पैदा ही कैसे हो पाएगी। हमारी इन्द्रियाँ बाहर की ओर खुलती हैं, हमारा मन संसार की ओर गतिशील है ऐसी स्थिति में अध्यात्म का अनुष्ठान कैसे हो पाएगा, अध्यात्म की अभिलाषा हमारे भीतर कैसे जग पाएगी। महावीर और उनके संवाद, उनके सिद्धांत हमारे लिए तभी सार्थक हो सकते हैं जब हम हक़ीक़त में मुक्ति के अभिलाषी हों। यूँ तो कई लोग श्मशान में १९७ www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.003880
Book TitleMahavir Aapki aur Aajki Har Samasya ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages342
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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