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पत्नी निर्वाण के भाव से, मोक्ष के भाव से वानप्रस्थ की ओर चले जाते हैं तब वे एक-दूसरे के लिए मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करने वाले हो जाते हैं। दोनों वही चीजें हैं एक बन्धन में डालती हैं और दूसरी मुक्ति की ओर ले जाती हैं।
याज्ञवल्क्य ऋषि जब अपने मरणधर्मा शरीर का त्याग करते हैं तब उनकी दोनों पत्नियाँ गार्गी और मैत्रेयी उनके पास पहुँचती हैं। ऋषि ने उनसे कहा - मैं अपना शरीर छोड़ने जा रहा हूँ, इस समय तुम लोग मुझसे क्या चाहती हो? गार्गी ने कहा - प्रभु शरीर तो नश्वर है, यह तो सबका जाएगा ही लेकिन आपने ये गोधन, गजधन, इतना अधिक एकत्रित कर लिया है, इतना बड़ा आश्रम आपने बना दिया है कि हमारा गुजारा आराम से हो जाएगा। लेकिन मैत्रेयी ने इस तरह की बातें न करते हुए कहा कि- मैं ऋषि-पत्नी हूँ और जो बाह्य वस्तुएँ आपके पास हैं वह तो आप छोड़कर जा ही रहे हैं उनसे मुझे कोई प्रयोजन नहीं है लेकिन मैं तो चाहूँगी कि शरीर के निर्वाण से पहले जिस आत्मज्ञान के मालिक आप रहे, उस आत्मज्ञान का प्रकाश मुझे भी दे दीजिए। याज्ञवल्क्य ऋषि अति प्रसन्न होते हैं और उसे आत्मज्ञान का सारा संवाद सुनाते हैं। और कहते हैं - तुमने मेरे मरण को सार्थक कर दिया, शरीर के विसर्जन को सार्थक कर दिया। शरीर छोड़ने से पहले शुद्ध रूप से आत्मज्ञान का संवाद करते हुए जा रहा हूँ तो मेरी अंतरदशा अति निर्मल और अध्यात्ममय बन चुकी है।
हमें भी मैत्रेयी बनकर महावीर के साथ मित्रता बनानी है। उनके संवादों से अपने जीवन के लिए आत्मज्ञान की किरण उपलब्ध करनी चाहिए। महावीर कहते हैं - अगर मंज़िल है तो उस तक जाने का रास्ता भी अवश्य होता है। दो
और दो चार होते हैं तो इसकी कोई-न-कोई वज़ह ज़रूर है। अगर पानी भाप बनता है तो इसका भी कारण है। पानी के नीचे आग जलाई जाती है तो पानी गरम होगा, उबलेगा और भाप बनेगी। ऐसे ही कोई व्यक्ति मुक्त हुआ, मुक्त हो रहा है या होगा तो कोई-न-कोई वज़ह ज़रूर होगी जिसके चलते व्यक्ति मुक्त हो सकता है। महावीर ने इस मुक्ति को, इस मोक्ष को उपलब्ध करने के तीन सोपान दिए हैं, तीन चरण दिए हैं - सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र।
मेरी अपनी सरल भाषा में सम्यक्दर्शन का अर्थ है- सही सही देखो. सुन्दर सुन्दर देखो। सम्यक्ज्ञान का अर्थ है- सही सही, सुन्दर सुन्दर जानो
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