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तब जो जनम-जनम के मीत थे, वे राजुल और नेमिनाथ मुक्ति के मुसाफ़िर बन गए, मुक्त हो गए । प्रेम हो तो नेमी और राजुल जैसा । अनुराग हो तो नेमी और राजुल की तरह । पति-पत्नी हों तो नेमी-राजुल जैसे जिसमें व्यक्ति मरेगा नहीं मुक्त होगा। अकेला ही मुक्त नहीं होगा, वरन जिसके साथ फेरे लेते वक़्त जीने मरने की कसमें खाई थीं, उसकी मुक्ति का भी प्रबंध करेगा। तब वह अमर सुहाग का मालिक बनेगा।
जैसे नेमिनाथ ने संन्यास लिया वैसे ही मेरे पापा ने भी संन्यास लिया और न केवल पापा ने वरन् मेरी मम्मी ने भी संन्यास लिया । जैसे नेमी और राजुल प्रेम के सूत्र में बंध गए थे वैसे ही मेरे मम्मी पापा भी प्रेम के सूत्र में बंध गए थे। उन्होंने पति-पत्नी के रूप में जीवन की शुरुआत ज़रूर की, मगर समापन पतिपत्नी के रूप में नहीं किया। उन्होंने अपने जीवन के समापन के लिए परमेश्वर का हाथ थाम लिया। मेरे पापा ने अकेले ही परमेश्वर का हाथ नहीं थामा, मम्मी ने भी पापा के साथ परमात्मा का हाथ थाम लिया और दोनों ही मुक्त हो गए। मेरे पिता केवल पत्नी का हाथ थामते तो साधारण इन्सान की तरह उनकी मृत्यु हो जाती लेकिन उन्होंने परमात्मा का हाथ भी थाम लिया और संसार से ऊपर उठ गए। मेरी माँ केवल पति का हाथ थामतीं तो सिर्फ सुहागन कहलातीं लेकिन उन्होंने ऐसे पति का हाथ थामा जिसने आगे जाकर परमात्मा का हाथ थामा और उन्हें भी उसी डगर का राही बनाया । तब वो ऐसे पति की सुहागन बनीं कि अमर सुहागन हो गई, उनका सुहाग कभी उजड़ नहीं सकता।
सिन्दूर से ही अगर सुहाग का शृंगार करोगे/करते रहोगे तो यह सिन्दूर तो रोज लगेगी और रोज पुंछेगी। सिन्दूर ऐसा लगाओ कि जो हर दूरी को दूर कर डाले । नेमिनाथ मुक्त हो गए, मेरे पिता भी मुक्त हो गए। मैं भी अगर घरगृहस्थी के झमेलों में उलझ जाता तो क्या होता ? एक बीवी होती, दो बच्चे और घर से दुकान, दुकान से घर के बीच 'गधा-खाटनी' वाली दिनचर्या होती, घाट से घर और घर से घाट ! लेकिन मेरी जिंदगी ने भी नए मोड़ लिए, नई दिशाएँ देखीं। परमात्मा का हाथ थामा और अपने हाथों को उसके केसरिया रंग में रंग लिया। आपको हाथ थामना पड़ता है, पर मेरा हाथ तो उसने थाम ही लिया है। प्रभु तो हमारे करीब आने को तैयार हैं, बशर्ते हम थोड़ा-सा प्रभु के करीब जाने
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