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________________ दिन ठहरना हुआ। दोपहर के समय उस परिवार की बहू मेरे पास आई और कहने लगीं - मुझे आयम्बिल के पच्चखाण (प्रत्याख्यान) करवा दीजिए। (आयम्बिल वह तप होता है जिसमें बिना छौंक का, बिना नमक, घी, तेल, शक्कर और बिना किसी प्रकार के मसालों का उबला या पका हुआ अन्न ग्रहण किया जाता है। वह भी दिन में एक बार ही खाया जाता है। एकासन व्रत के समान लेकिन दूध, चाय, ज्यूस या अन्य कोई पदार्थ नहीं, केवल उबला हुआ अन्न।) मैंने उनसे पूछा - आज किस बात का आयम्बिल तप है ? आज तो कोई बड़ी तिथि भी नहीं है। पास में खड़ी सासू माँ ने कहा - आज इनको चौंतीसवाँ आयम्बिल है। वर्धमान तप की आराधना कर रही हैं। वर्धमान तप में व्यक्ति एक आयम्बिल करता है फिर पारणा । दो आयम्बिल उसके बाद पारणा । इस तरह वह बढ़ता जाता है, जैसे तीस आयम्बिल फिर पारणा । बढ़ते-बढ़ते सौ आयम्बिल तक करते हैं फिर पारणा यानी लगातार सौ आयम्बिल करने के बाद पारणा । इस तरह उस महिला के चौंतीसवाँ आयम्बिल था अर्थात् लगातार चौंतीस दिन से अखंड आयम्बिल । मैं सुनकर भाव-विभोर हुआ और लगा कि कुछ अरबपति घरों में अभी भी धर्म का महत्त्व है केवल धन का नहीं। उनकी किस्मत अच्छी है, पूर्वजन्मकृत पुण्य अच्छे हैं कि धन उनके पास है लेकिन वे धर्म के प्रति श्रद्धाशील हैं। अरबपति लोग हैं, खाने-पीने की कुछ कमी नहीं है, हीरे के बड़े व्यापारी हैं लेकिन उन लोगों ने धर्म का महत्त्व कभी नहीं छोड़ा और धर्म-आराधना में रत हैं। यही तो अनुमोदना करने की बात है। कहने का तात्पर्य यही है कि गृहस्थ में भी कुछ लोग इतने श्रेष्ठ होते हैं कि धर्ममय जीवन जीते हैं। संत होना तो सौभाग्य की बात है। पर अब लोग संत जीवन भी कम जीते हैं। सारे महाराज कोई तो मंदिर की प्रतिष्ठाओं में उलझ गये हैं, कोई क्रिया-विधि-विधानों में उलझ गए हैं। अब तप-त्यागमूलक जीवन बहुत कम बच पाया है। अभी ललितप्रभ जी मुझसे कह रहे थे कि नगर में एक संत महाराज आए थे। उन्होंने उनसे अनुरोध किया कि अगर उन्हें सुविधा हो तो हफ़्ता दस दिन के लिए सम्बोधि धाम पधारें, साधना का आनन्द लें। अभी ध्यान-शिविर भी जारी है, कुछ ध्यान का भी आनन्द लें। वे संत महाराज कहने लगे - क्या बताऊँ, अभी तो मुझे जोधपुर से अहमदाबाद जाना है। अहमदाबाद 934 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003880
Book TitleMahavir Aapki aur Aajki Har Samasya ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages342
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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