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________________ कुछ गृहस्थ भी इतने संयमी और त्यागी होते हैं कि वे संतों जैसा या संतों से भी ऊँचा त्यागी जीवन जी जाते हैं । और कुछ संत भी ऐसे होते हैं जो संतजीवन अपनाकर भी गृहस्थों से भी अधिक गये - गुजरे होते हैं। दोनों तरह की संभावनाएँ हैं। यह तो धर्म के महत्त्व को समझने और स्वीकार करने की बात है। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो घर में रहते हुए भी संतों जैसा श्रेष्ठ जीवन जी लेते हैं। मैंने स्वयं ऐसे कई गृहस्थों और संतों को देखा है। 1 ऐसे महान संतों को देखा है, उनके जीवन को समझने का प्रयत्न किया है, उनके तप और त्याग को देखा है, जाना है, उसका आनन्द लिया है । यहाँ तक कि उनकी उस रोशनी को अपने जीवन में भी ढालने का प्रयत्न किया है । कुछ ऐसे गृहस्थों के भी संपर्क में आया जो त्यागी, तपस्वी रहे हैं । उनके गृहस्थनुमा संत-जीवन को देखकर उन्हें प्रणाम करने के भाव आ जाते हैं । I I कुछ दिनों पूर्व हम जयपुर में थे । वहाँ से एक समाचार-पत्र निकलता है राजस्थान पत्रिका | उसकी मालकिन होंगी अस्सी - पिच्चासी वर्ष की, वे हमसे मिलने आईं और कहने लगीं - महाराज, मुझे भोजन नहीं भाता है। एक कौर भी लेती हूँ तो वमन होने लगता है। खाने की इच्छा भी नहीं होती। एक माह हो गया है, शरीर में दुर्बलता आती जा रही है । आप कुछ ऐसा कर दीजिए कि मैं रोटी खा सकूँ | मैंने कहा - माताजी आप बैठिये । मैंने उन्हें कोई दवा बता कि भूख लगने लग जाएगी। पास में बैठे एक व्यक्ति से दवा मँगवाने लगा कि वे बोलीं- आज तो मेरे उपवास है। मैं दवा नहीं लूँगी। मैंने कहा आज किस बात का उपवास ? तो कहने लगीं - मेरे तो वर्षीतप चल रहा है। मैंने कहा - वर्षी तप ? इतनी उम्र और इतनी कृशकाय, तब भी वर्षीतप ? बोलीं- यह तो मेरा बत्तीसवाँ वर्षीतप है । उनकी इस बात को सुनकर मैं इतना आत्मविभोर हुआ कि कह नहीं सकता। सोचने लगा कोई व्यक्ति गृहस्थ में रहकर, इस वृद्धावस्था में, इतनी उम्र बत्तीसवाँ वर्षीतप ! अर्थात् लगातार बत्तीस वर्षों से एकान्तर गर्म जल के आधार पर उपवास कर रही हैं । 1 उनके इस भव्य पराक्रम, संयम जीवन के इस तप-त्याग के प्रति, धर्म में इतनी अगाध श्रद्धा को देखकर मैंने मन-ही-मन उन्हें नमस्कार किया । जयपुर की ही बात है, एक जाने-माने अतिसम्पन्न परिवार में मेरा दो १३४ Jain Education International - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003880
Book TitleMahavir Aapki aur Aajki Har Samasya ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages342
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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