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आत्म-तत्त्व के सत्य को जानना चाहते थे । 'आत्मा' महज कोई शब्द नहीं है । आत्मा और अस्तित्व दोनों एक ही हैं। आत्मा का ही दूसरा नाम अस्तित्व है और अस्तित्व का ही दूसरा नाम आत्मा है । सामान्यतः आत्मा तक न तो शब्द पहुँचता है, न ही रूप, रस, गंध, इन्द्रियाँ और बुद्धि पहुँचती है। इनमें से किसी के द्वारा भी उसे ग्रहण नहीं किया जा सकता क्योंकि वह जीवन को धारण करने वाली प्राणमूलक ऊर्जा है। उसका केवल अहसास किया जा सकता है उसे किसी के द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता। क्योंकि इन सबको ग्रहण करने वाली हमारी बुद्धि है, मन है। जबकि हमारी चेतना, हमारी आत्मा मन, बुद्धि और शरीर इन तीनों से परे है। इस तत्त्व को जानने के लिए ज्ञानियों ने ख़ूब साधना की है, खूब तपे हैं, जितना वे तप सकते थे उतना उन्होंने अपने-आपको तपाया और अपनी आत्मा को निर्मल करने का प्रयास किया । यह सामान्य बात नहीं है कि अगर कोई संन्यास लेता है, योग धारण करता है तो इसीलिए कि वह तत्त्व जो भव-भ्रमण कर रहा है उसे मुक्त करने के लिए यह सारे प्रयत्न करता है । इसके लिए वह ब्रह्मचर्य धारण करता है, तप-त्याग करता है, घर-गृहस्थी छोड़ता है । लेकिन जिन्होंने इसके मर्म को समझ लिया है उनके लिए ही आत्म-तत्त्व का मूल्य है और वे निकल पड़ते हैं । महावीर ने संन्यास लिया और संन्यास लेते ही जंगलों की ओर चले गए।
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आजकल व्यक्ति संन्यास लेने के बाद या तो पुजारी बन जाता है, या समाज-सुधारक बन जाता है, कोई प्रवचनकार और प्रवक्ता बन जाता है लेकिन महावीर न तो पुजारी बने, न ही ईश्वर की आराधना की, न ही प्रवक्ता या समाज-सुधारक बने । वे तो संन्यास लेते ही एकांत में और घने जंगलों में चले गए। वे केवल आहार चर्या करने के लिए कि इस शरीर को धारण रखना है इस भाव से ही केवल गाँवों तक आया करते थे अन्यथा वे सुनसान स्थानों पर रहा करते थे। उनकी आँखों में एक ही लक्ष्य था आत्म-तत्त्व की प्राप्ति । यही व्यक्ति का परम सत्य है जिसे जानने, समझने, उसके ब्रह्म स्वरूप को पहचानने में
लगे रहे। नरसी ने गाया है - ज्यां लगी आत्मा चीन्ह्यो नहीं त्यां लगी साधना सर्व
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झूठी । जब तक किसी व्यक्ति ने अपने आत्म-तत्त्व को नहीं समझा, तब तक उसकी सारी साधना व्यर्थ है । महावीर जंगलों में तपकर मानव समाज के बीच
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